ये आम रास्ता नहीं- रजनी गुप्त

आम रोज़मर्रा के जीवन से ले कर कला तक के हर क्षेत्र में हम सभी अपने मन में उमड़ते घुमड़ते विचारों को बाहर लाने के लिए अपनी रुचि एवं स्वभाव के हिसाब से कोई ना कोई तरीका अपनाते है।  भले ही कोई उन्हें चित्रकारी के ज़रिए मनमोहक  चित्र बना कर तो कोई उन्हें अपनी वाकपटुता के बल पर लच्छेदार तरीके से बोल बतिया कर व्यक्त करता है। कोई उन्हें अपने दमदार..संजीदा अभिनय के ज़रिए तो कोई अपनी लेखनी के ज़रिए अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करता है। 

अब अगर मैं खुद अपनी बात करूँ तो मैं सामाजिक..राजनैतिक विसंगतियों के प्रति अपने मन में उमड़ रही..आक्रोश रूपी गहन भड़ास को व्यंग्यात्मक रचनाओं के ज़रिए लिख कर व्यक्त करता हूँ। 

दोस्तों..आज मैं राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति, उनके संघर्ष..उनकी सफ़लता से जुड़े उपन्यास 'ये आम रास्ता नहीं' की बात कर रहा हूँ। जो कमोबेश मेरी ही शैली याने के मन की भड़ास के शब्दों के रूप में प्रस्फुटित होने के परिणामस्वरूप वजूद में आया है। इस उपन्यास को लिखा है हमारे समय की प्रसिद्ध लेखिका रजनी गुप्त जी ने। 

राजनीति के क्षेत्र में स्त्रियों की दशा और दिशा पर केंद्रित इस उपन्यास में पिछड़े वर्ग से आने वाली उस मृदु की कहानी है जो सुन्दर..कमनीय और ईमानदार होने के साथ साथ अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत एवं सजग भी है। मगर वह पुरुषों के वर्चस्व वाले एक ऐसे रास्ते पर चल रही है या चलना चाहती है जहाँ से सफ़लता की हर सीढ़ी उसे किसी ना किसी के बिस्तर से गुज़र कर ही प्राप्त होनी है।

इस उपन्यास के मूल में कहानी है मृदु के पारिवारिक..सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन में आने वाले तमाम उतार चढ़ाव की। इसमें कहानी है उस मृदु की जिसे उसके पति ने ही, हर दिन बढ़ती अपनी इच्छाओं..महत्त्वाकांक्षाओं की बलिवेदी पर, कभी बड़े अफ़सरों के आगे तो कभी छुटभैये नेताओं के आगे चारा बना..परोसने से भी गुरेज़ नहीं किया। इस उपन्यास में कहानी है शक और कुंठा का शिकार हो चुके पति के अपनी ही औलादों को साजिशन उनकी माँ के ख़िलाफ़ भड़काने..बरगलाने की। इसमें कहानी है कामयाब स्त्री की सफ़लता से जलने..उसको ना पचा पाने वाले हताश पति समेत सभी सहयोगियों एवं  सहकर्मियों के असहयोगपूर्ण रवैये की।

कम शब्दों में अगर कहें तो इसमें कहानी है उस मृदु की जो अपने काम..अपनी योग्यता..अपनी लगन के बल पर औरों सीढ़ी बना आगे बढ़ती चली गयी और एक दिन आसमान छूने के प्रयास में औंधे मुँह धड़ाम से नीचे ज़मीन पर आ गिरी। 

प्रभावी संवादों से लैस इस उपन्यास की भाषा में ख़ासी रवानी है। शब्द सहज..सरस ढंग से बहते हुए से पाठक को अपनी रौ में बहाए ले चलते हैं। कभी यादों के सहारे तो कभी फ्लैशबैक के ज़रिए कहानी अपने दबे पत्तों को शनैः शनैः खोलते हुए आगे बढ़ती है मगर एक बड़ी कमी के रूप में उपन्यास का एक बड़ा हिस्सा पात्रों के बजाय लेखिका की ही ज़बान बोलता प्रतीत होता है। 

लगभग एकालाप शैली में पहले से तय किए गए एजेंडे..सोच एवं निर्णय के अनुसार कुछ गिनीचुनी चुनिंदा बातों के घूम फिर कर बार बार आने से उपन्यास एकरसता की परिपाटी पर चलता हुआ कुछ समय बाद थोड़ा बोझिल एवं उकताहट पैदा करने वाला लगने लगता है। विषय के हिसाब से कहानी में और अधिक ट्विस्ट्स एण्ड टर्न्स होते तो ज़्यादा बेहतर था। 

वाजिब जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग नहीं होना खला और कुछ जगहों पर वाक्य टूटते तथा कुछ जगहों पर गडमड हो..भ्रमित होते दिखाई दिए।  इसके अतिरिक्त कुछ जगहों पर वर्तनी की त्रुटियाँ दिखाई दीं जैसे...

परवा- परवाह
आदी- आदि 
खचुरता- खुरचता
फ्लश लाइट्स- फ्लैश लाइट्स
सचाई- सच्चाई
कोर्ट कचेरी- कोर्ट कचहरी 

* पेज नंबर 17 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"अनुज अपनी माँ की भोली-भाली बातों से भ्रमित हो जाता।"

जबकि यहाँ पर उसे पिता की भोली भाली बातों से भ्रमित होना है। 

*पेज नंबर 141 के शुरू में लिखा दिखाई दिया कि..

"ऊपर से कैसे-कैसे घटिया किस्म के सवाल पूछे जाते हैं उससे। देखा वह रहा कुंजू का घर।

दोनों उन कच्ची पगडंडियों को पार करती हुई इधर उधर के लोगों से पूछती पाछती उसके घर जा पहुँची।"

अब पहली पंक्ति में वह खुद इशारा कर रही हैं कि.. 'वह रहा कुंजू का घर।' उसके बाद अगली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'वह इधर-उधर लोगों से पूछ पाछ के उसके घर तक जा पहुँची हैं।'

 अब जिस चीज़ का पहले से पता है उसके लिए पूछने की क्या जरूरत है?

• इसी तरह पेज नंबर 143 पर दिखा दिखाई दिया कि..

"उसके मजबूत इरादे और दबंग बोल सुनकर मृदु के चेहरे पर छाया तनाव कम हुआ। वह अन्दर से पानी भरे दो गिलास और दो प्यालियों में चाय ले आई।"

अब यहाँ सवाल यह उठता है कि मृदु उस घर में उस लड़की से मिलने आई थी जिसका बलात्कार हुआ था। ऐसे में किसी और के घर में पहली बार जाने के बाद बाहर से आने वाला व्यक्ति कैसे..किसी की रसोई में घुस कर पानी और चाय लेकर आ सकता है?

वाणी प्रकाशन से प्रकाशित इस 152 पृष्ठीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण का मूल्य 150/- रुपए है। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

बाक़ी सफ़ा 5 पर- रूप सिंह- सुभाष नीरव (अनुवाद)


कई बार राजनीति में अपने लाभ..वर्चस्व इत्यादि को स्थापित करने के उद्देश्य से अपने पिट्ठू के रूप में आलाकमान अथवा अन्य राजनैतिक पार्टियों द्वारा ऐसे मोहरों को फिट कर दिया जाता है जो वक्त/बेवक्त के हिसाब से उन्हीं की गाएँ..उन्हीं की बजाएँ। मगर ऐसे ही लोग दरअसल वरद हस्त पा लेने के बाद अपनी बढ़ती महत्ता को हज़म नहीं कर पाते और मौका मिलते ही अपने आलाकमान को आँखें दिखा..रंग बदलने से भी नहीं चूकते। आँख की किरकिरी या नासूर बन चुके ऐसे लोगों को सीधा करने..उन्हें उनकी औकात दिखाने.. निबटने अथवा छुटकारा पाने के लिए बहुत से मशक्कत भरे पापड़ बेलने पड़ते हैं। 

उदाहरण के तौर पर जैसे रूस को आँखें दिखाने के लिए पहले अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को शह दी..उसे अत्याधुनिक हथियार..ट्रेनिंग और बेशुमार पैसा उपलब्ध कराया। वहीं ओसामा बिन लादेन देखते ही देखते एक दिन अमेरिका का सबसे बड़ा दुश्मन बन बैठा। ठीक यही सब कुछ भारत में स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के समय में भी हुआ जब उन्होंने पंजाब पर अपनी पकड़ बनाने के लिए भिंडरावाले को शह दी..उसे सर आँखों पर बिठाया लेकिन जनता का समर्थन मिलते ही वही भिंडरावाला केन्द्र सरकार को घुड़कियाँ देने..आँखें दिखाने लगा। उसकी वजह से पंजाब के हालात इस कदर बिगड़ते चले गए कि भारतीय सेना को अमृतसर के स्वर्ण मंदिर परिसर में ऑपरेशन ब्लू स्टार को अंजाम दे भिंडरावाले के वजूद को ही मिटाना पड़ा। 

दोस्तों..आज अतिवादियों से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं पंजाब के उन्हीं बुरे दिनों पर केन्द्रित एक ऐसे उपन्यास की बात करने वाला हूँ जिसे 'बाकी सफ़ा 5 पर' के नाम से मूलतः पंजाबी में लिखा है लेखक रूप सिंह ने और उसका पंजाबी से हिंदी अनुवाद किया है प्रसिद्ध लेखक एवं अनुवादक सुभाष नीरव जी ने। 

मूलतः इस उपन्यास में कहानी है पाकिस्तान के साथ जंग में शहीद हो चुके फौजी की विधवा मेलो और उसके इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे जवान बेटे गुरमीत की। जिन्होंने अनजाने में भूल से अपनी भलमनसत के चक्कर में घर में जबरन घुस आए दो खाड़कूओं को कुछ घंटों के लिए शरण दे दी थी। और यही शरण..यही पनाह उनकी सब मुसीबतों की इस हद तक बायस बनी कि गुरमीत को वहशी हो चुकी पुलिस के कहर से बचने के लिए दर दर भटकना पड़ा।  कभी कंटेनर में छिप कर सफ़र करना पड़ा तो कभी अकेले शमशान में जलती लाश के साथ सो कर रात गुज़ारनी पड़ी।

इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है खाड़कूओं के दमन को ले कर शुरू हुए पुलसिया/सैन्य अत्याचार और सख्ती के बीच घुन्न की तरह पिसती आम जनता के दुखों..तकलीफ़ों और संतापों की। जिसमें एक तरफ़ पंजाब के लोग आशंकित एवं डरे हुए दिखाई देते हैं कि कहीं कर्फ़्यू जैसे हालात में फौज या पुलिस उनके नौजवान बेटों को ना मार दे। तो वहीं दूसरी तरफ़ कर्फ़्यू के दौरान दफ़्तर..अस्पताल वग़ैरह के बंद होने पर इस वजह से भी कुछ लोग खुश दिखाई हैं कि उन्हें दो चार या दस दिनों की छुट्टी मिल गयी।

आतंकवाद के उन्मूलन को ले कर शुरू हुई पुलसिया एवं सैन्य कार्यवाहियों के बीच इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ घरों..गाँवों से पूछताछ के नाम पर उठा किए गए नौजवान दिखाई देते हैं जो बाद में फिर ढूँढे से भी कभी नहीं मिले। उलटा नदी-नहरों..नालों में मार कर बहा दी गयी उनकी लावारिस लाशें बहती या फिर किनारे लग..सड़ती दिखाई दी। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी उपन्यास में कहीं पुलिस घरवालों..दोस्तों..रिश्तेदारों को जबरन धमकाती..उनसे गहने-लत्तों.. नकदी या फिर दुधारू पशुओं की उगाही करती नज़र आती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ खुद को खाड़कू कहने वाले, नौजवानों को बरगला कर उन्हें अपने साथ मिलाने का बकायादा प्रयास करते या फिर फिरौती के लिए अमीर घरों के बच्चों का अपहरण करते..उन्हें जान से मारते दिखाई देते हैं।

 इसी उपन्यास में कहीं खाड़कूओं के  द्वारा बसों से उतार कर निर्दोष मुसाफ़िरों को गोलियों से भून दिया जाता दिखाई दिया। तो कहीं अपने नौजवान बेटों की सुरक्षा को ले कर उनकी माएँ चिंतित एवं सहमी सहमी सी दिखाई दी। इसी उपन्यास में कहीं बढ़िया फसल के बीच खर पतवार के माफ़िक उग आए इन खाड़कूओं से पंजाब को मुक्त कराने की बात नज़र आती है। जिसके मद्देनज़र पुलिस, सेना और केंद्र सरकार के बीच इस बात को ले कर बिल्कुल भी अपराधबोध नहीं है कि उनकी इस मुहिम के बीच हज़ारों आम शहरी एवं ग्रामीण भी बेगुनाह होने के बावजूद मारे जाएँगे।

इसी उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ कहीं पुलिस शक की बिनाह पर मंदिरों और गुरुद्वारों की तलाशी लेती एवं शमशान जैसी जगहों को भी अपने ज़्यादतियों भरे फ़र्ज़ी एनकाउंटरों के तहत नहीं बख्शती कि सैंकड़ों बेगुनाह नौजवानों को वहीं गोली मार.. गुमनाम चिताओं के हवाले कर हमेशा हमेशा के लिए स्वाहा कर ग़ायब कर दिया गया। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में पुलिस और खाड़कूओं की दहशत आम आदमी में इतनी ज्यादा दिखाई देती है कि एक दूसरे को देख कर भी डरने लगते एवं एक दूसरे की मदद कर..आपस में एक दूसरे पर विश्वास करने तक से कतराते दिखाई दिए। 

इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है उन दोस्तों और अनजान भले लोगों की जिन्होंने कोई रिश्ता..कोई लगाव ना होते हुए भी मानवता के नाते गुरमीत को पुलिस के दिन प्रतिदिन बढ़ते कहर से बचाया..उसके छिपने..भागने..बचने में मदद की। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है उन सगे.. नज़दीकी नाते रिश्तेदारों की जिन्होंने पुलिसिया क़हर के आगे भयभीत हो घुटने टेक गुरमीत को शरण देने से इनकार किया या फिर खुद की तरक्की के लालच में उसकी मुखबिरी तक कर बैठे। 

इसी उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ कहीं खाड़कू अपने तुग़लकी फरमान के तहत बारात ले जा रही बस में से 11 आदमियों को छोड़ कर बाकी सभी का मुँह काला कर उन्हें धमकाते नज़र आते हैं कि उनके द्वारा जारी हुक्म के तहत बारात में 11 से ज़्यादा लोगों को ले जाने की मनाही है। तो वहीं दूसरी तरफ़ 
सड़कों..बाज़ारों..कस्बों और बसों इत्यादि में उनकी वजह से डरे सहमे हुए लोग नज़र आए। 

इसी उपन्यास में कहीं खाड़कू युवाओं को अपने रंग में रंगने का प्रयास करते दिखे तो कहीं खाड़कूओं और पुलिस के बीच फँस समूचे गांवों से नौजवान पीढ़ी ग़ायब होती दिखी। कभी पुलिस के बेरहमी भरे अत्याचारों और फर्ज़ी एनकाउंटरों की वजह से तो कभी ब्रेनवॉश के ज़रिए खाड़कूओं का मुरीद बन व्व स्वयं भी उनकी ही तरह कुत्ते की मौत मरते दिखे। 

इसी उपन्यास में कहीं अध्यापकों को खाड़कूओं द्वारा मार दिए जाने के बाद से डरी सहमी विद्यार्थियों की जमात में फेल होने का डर समाता दिखाई दिया। तो कहीं पगड़ी उतारने पर खाड़कू लोगों को मारने की धमकी देते तो कहीं पहनने पर पुलिस धमकाती नज़र आयी। इसी उपन्यास में कहीं नज़दीकी रिश्तेदार भी पुलिस के डर से अपने निकट संबंधियों को शरण देने के कतराते नज़र आए। 

अपने अंत तक पहुँचते पहुँचते यह मार्मिक उपन्यास मन में ये सवाल छोड़ जाता है कि..

इस पूरे घटनाक्रम या वाकये से आख़िर किसका फ़ायदा हुआ?

पंजाब में या तो पुलिस के हाथों आम लोग या फिर खाड़कूओं के हाथों अपह्रत होते या मारे जाते बेगुनाह लोग। इनमें से जिस किसी भी वजह से कोई मरा तो मरा तो वो पंजाबी ही।

धारा प्रवाह शैली में लिखे गए इस हर पल उत्सुकता जगाते..रौंगटे खड़े करते रोचक उपन्यास के सफ़ल हिंदी अनुवाद के लिए अनुवादक सुभाष नीरव जी भी बधाई के पात्र हैं। पूरे उपन्यास में दो चार जगह टाइपिंग एरर की ग़लतियाँ दिखाई दी। जिन्हें उम्मीद है कि अगले संस्करण में दूर कर लिया जाएगा।
 
यूँ तो यह दमदार उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि बढ़िया कागज़ पर छपे इस 200 पृष्ठीय दमदार उपन्यास के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 425/- रुपए । अमेज़न पर फ़िलहाल यह उपन्यास 350/- रुपए प्लस 50/- डिलीवरी चार्ज के साथ मिल रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आम हिंदी पाठक की जेब को देखते प्रकाशक जल्द से जल्द इस पठनीय उपन्यास का पैपरबैक संस्करण सस्ते दामों पर निकालेंगे। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक, अनुवादक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 

खिड़कियों से झाँकती आँखें- सुधा ओम ढींगरा

आमतौर पर जब हम किसी फ़िल्म को देखते हैं तो पाते हैं कि उसमें कुछ सीन तो हर तरह से बढ़िया लिखे एवं शूट किए गए हैं लेकिन कुछ माल औसत या फिर उससे भी नीचे के दर्ज़े का निकल आया है।  ऐसे बहुत कम अपवाद होते हैं कि पूरी फ़िल्म का हर सीन...हर ट्रीटमेंट...हर शॉट...हर एंगल आपको बढ़िया ही लगे। 

कमोबेश ऐसी ही स्थिति किसी किताब को पढ़ते वक्त भी हमारे सामने आती है जब हमें लगता है कि इसमें फलानी फलानी कहानी तो बहुत बढ़िया निकली लेकिन एक दो कहानियाँ... ट्रीटमेंट या फिर कथ्य इत्यादि के हिसाब से औसत दर्ज़े की भी निकल ही आयी। लेकिन खैर... अपवाद तो हर क्षेत्र में अपनी महत्त्वपूर्ण पैठ बना के रखते हैं। 

तो ऐसे ही एक अपवाद से मेरा सामना हुआ जब मैंने प्रसिद्ध कथाकार सुधा ओम ढींगरा जी का कहानी संग्रह "खिड़कियों से झाँकती आंखें" पढ़ने के लिए उठाया। कमाल का कहानी संग्रह है कि हर कहानी पर मुँह से बस यही लफ़्ज़ निकले कि..."उफ्फ...क्या ज़बरदस्त कहानी है।" 

सुधा ओम ढींगरा जी की कहानियॉं अपनी शुरुआत से ही इस तरह पकड़ बना के चलती हैं कि पढ़ते वक्त मन चाहने लगता है कि...ये कहानी कभी खत्म ही ना हो। ग़ज़ब की किस्सागोई शैली में उनका लिखा पाठकों के समक्ष इस तरह से आता है मानों वह खुद किसी निर्मल धारा पर सवार हो कर उनके साथ ही शब्दों की कश्ती में बैठ वैतरणी रूपी कहानी को पार कर रहा हो। 

चूंकि वो सुदूर अमेरिका में रहती हैं तो स्वाभाविक है कि उनकी कहानियों में वहाँ का असर...वहाँ का माहौल...वहाँ के किरदार अवश्य दिखाई देंगे लेकिन फिर उनकी कहानियों में भारतीयता की...यहाँ के दर्शन...यहाँ की संस्कृति की अमिट छाप दिखाई देती है। मेरे हिसाब से इस संग्रह में संकलित उनकी सभी कहानियाँ एक से बढ़ कर एक हैं। उनकी कहानियों के ज़रिए हमें पता चलता है कि देस या फिर परदेस...हर जगह एक जैसे ही विचारों...स्वभावों वाले लोग रहते हैं। हाँ...बेशक बाहर रहने वालों के रहन सहन में पाश्चात्य की झलक अवश्य दिखाई देती है लेकिन भीतर से हम सब लगभग एक जैसे ही होते हैं।

उनकी किसी कहानी में अकेलेपन से झूझ रहे वृद्धों की मुश्किलों को उनके नज़दीक रहने आए एक युवा डॉक्टर के बीच पैदा हो रहे लगाव के ज़रिए दिखाया है। तो कुछ कहानियॉं...इस विचार का पूरी शिद्दत के साथ समर्थन करती नज़र आती हैं कि....

"ज़रूरी नहीं कि एक ही कोख से जन्म लेने वाले सभी बच्चे एक समान गुणी भी हों। परिवारिक रिश्तों के बीच आपस में जब लालच व धोखा अपने पैर ज़माने लगता है। तो फिर रिश्तों को टूटने में देर नहीं लगती।"

 इसी  मुख्य बिंदु को आधार बना कर विभिन्न किरदारों एवं परिवेशों की कहानियाँ भी इस संग्रह में नज़र आती हैं। 

इस संग्रह में सहज हास्य उत्पन्न करने वाली कहानी नज़र आती तो रहस्य...रोमांच भी एक कहानी में ठसके के साथ अपनी अहमियत दर्ज करवाने से नहीं चूकता। किसी कहानी में भावुकता अपने चरम पर दिखाई देती है तो एक कहानी थोड़ी धीमी शुरुआत के बाद आगे बढ़ते हुए आपके रौंगटे खड़े करवा कर ही दम लेती है। 

बहुत ही उम्दा क्वालिटी के इस 132 पृष्ठीय संग्रणीय कहानी संग्रह के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है शिवना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र ₹150/- जो कि कंटैंट एवं क्वालिटी को देखते हुए बहुत ही कम है। कम कीमत पर इस स्तरीय किताब को लाने के लिए लेखिका तथा प्रकाशक का बहुत बहुत आभार। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

धूप के गुलमोहर- ऋता शेखर 'मधु'

आमतौर पर अपने भावों को अभिव्यक्त करने के लिए सब एक दूसरे से बोल बतिया कर अपने मनोभावों को प्रकट करते हैं। मगर जब अपने मन की बात को अभिव्यक्त करने और उन्हें अधिक से अधिक लोगों तक संप्रेषित करने का मंतव्य हम जैसे किसी लेखक अथवा कवि का होता है तो वह उन्हें दस्तावेजी सबूत के तौर पर लिखने के लिए गद्य या फिर पद्य शैली को अपनाता है। जिसे साहित्य कहा जाता है। आज साहित्य की अन्य विधाओं से इतर बात साहित्य की ही एक लोकप्रिय विधा 'लघुकथा' की। 

लघुकथा..तात्कालिक प्रतिक्रिया के चलते किसी क्षण-विशेष में उपजे भाव, घटना अथवा विचार जिसमें कि आपके मन मस्तिष्क को झंझोड़ने की काबिलियत हो..माद्दा हो...की नपे तुले शब्दों में की गयी प्रभावी अभिव्यक्ति है। मोटे तौर पर अगर लघुकथा की बात करें तो लघुकथा से हमारा तात्पर्य एक ऐसी कहानी से होता है जिसमें सीमित मात्रा में चरित्र हों और जिसे एक बैठक में आराम से पढ़ा जा सके।

दोस्तों..आज मैं लघुकथाओं के ऐसे संकलन की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'धूप के गुलमोहर' नाम से लिखा है ऋता शेखर 'मधु' ने। इस संकलन की लघुकथाओं के लिए लेखिका ने अपने आस पड़ोस के माहौल से ही अपने किरदार एवं विषयों को चुना है। जिसे देखते हुए लेखिका की पारखी नज़र और शब्दों पर उनकी गहरी पकड़ का कायल हुए बिना रहा नहीं जाता। 

 इस संकलन की लघुकथाओं में कहीं नयी पीढ़ी, पुरानी पीढ़ी को नयी तकनीक से रूबरू कराती नज़र आती है तो कहीं भूख से तड़पता कोई बालक चोरी करता हुआ दिखाई देता है। तो कोई बाल श्रम के लिए ज़िम्मेदार ना होते हुए भी ज़िम्मेदार मान लिया जाता दिखाई देता है। इसी संकलन की किसी अन्य रचना में जहाँ एक तरफ़ किसी शहीद की नवविवाहिता विधवा सेना में शामिल होने की इच्छा जताती हुई नज़र आती है तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य लघुकथा में कोई अपने दिखाए नैतिकता के पथ पर खुद चलने के बजाय उसके ठीक उलट करता दिखाई देता हैं। 

इसी संकलन की किसी रचना में जहाँ बहुत से अध्यापक काम से जी चुराते दिखाई देते हैं तो वहीं कोई बेवजह ही काम का बोझ अपने सिर ले..उसमें पिसता दिखाई देता है। कहीं किसी रचना में भूख के पलड़े पर नौकर- मालिक का भेद मिटता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य रचना में राजनीति की बिसात पर कथनी और करनी में अंतर होता साफ़ दिखाई देता है। 

इसी संकलन में कहीं किसी रचना में बरसों बाद मिली सहेलियाँ आपस में एक दूसरे से सुख-दुख बाँटती दिखाई देती हैं। तो कहीं किसी रचना में किसी के किए अच्छे कर्म बाद में फलीभूत होते दिखाई देते हैं। इसी संकलन की एक अन्य रचना में आदर्श घर कहलाने वाले घर में भी कहीं ना कहीं थोड़ा बहुत भेदभाव तो होता दिखाई दे ही जाता है। इसी संकलन की किसी अन्य रचना मरण कहीं कोई नौकरी जाने के डर से काम का नाजायज़ दबाव सहता दिखाई देता है। 

इसी संकलन की एक रचना जहाँ एक तरफ़ 'कुर्सी को या फिर चढ़ते सूरज को सलाम' कहावत को सार्थक करती नज़र आती है जिसमें सेवानिवृत्त होने से पहले जिस प्राचार्य का सब आदर करते नज़र आते थे..वही सब उनके रिटायर होने के बाद उनसे कन्नी काटते नज़र आते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य रचना कोई स्वार्थी बेटा अपने पिता को बरगला उसका सब कुछ ऐंठने क़ा पर्यास करता दिखाई देता है।

इसी संकलन की एक अन्य रचना में कोई 'चित भी मेरी..पट भी मेरी' की तर्ज़ पर अपनी ही कही बात से फिरता दिखाई देता है। तो कहीं किसी रचना में महँगे अस्पताल में, मर चुके व्यक्ति का भी पैसे के लालच में डॉक्टर इलाज करते दिखाई देते है। एक अन्य रचना में रिश्वत के पैसे से ऐश करने वाले परिवार के सदस्य भी पकड़े गए व्यक्ति की बुराई करते नज़र आते हैं कि उसकी वजह से उनकी इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी। 

इसी संकलन की एक अन्य रचना में जहाँ हार जाने के बाद भी कोई अपनी जिजीविषा के बल पर फिर से आगे बढ़ने प्रयास करता दिखाई देता है। तो वहीं कहीं किसी अन्य रचना में ढिठाई के बल पर कोई किसी की मेहनत का श्रेय खुद लेता नज़र आता है। 
इसी संकलन की एक अन्य रचना इस बात की तस्दीक करती नज़र आती है कि मतलबी लोगों की इस दुनिया में सांझी चीज़ की कोई कद्र नहीं करता। 

इसी तरह के बहुत से विषयों को अपने में समेटती इस संकलन की रचनाएँ अपनी सहज..सरल भाषा की वजह से पहली नज़र में प्रभावित तो करती हैं मगर कुछ रचनाएँ मुझे अपने अंत में बेवजह खिंचती हुई सी दिखाई दीं। मेरे हिसाब से लघुकथाओं का अंत इस प्रकार होना चाहिए कि वह पाठकों को चौंकने अथवा कुछ सोचने पर मजबूर कर दे। इस कसौटी पर भी इस संकलन की रचनाएँ अभी और परिश्रम माँगती दिखाई दी। 

आमतौर पर आजकल बहुत से लेखक स्त्रीलिंग एवं पुल्लिंग में तथा एक वचन और बहुवचन के भेद को सही से समझ नहीं पाते। ऐसी ही कुछ ग़लतियाँ इस किताब में भी दिखाई दीं। जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रूफरीडिंग एवं वर्तनी के स्तर पर भी कुछ त्रुटियाँ नज़र आयी। उदाहरण के तौर पर 

इसी संकलन की 'दर्द' नामक लघुकथा अपनी कही हुई बात को ही काटती हुई दिखी कि इसमें पेज नंबर 22 पर एक संवाद लिखा हुआ दिखाई दिया कि..

"कल मैंने एक सिनेमा देखा 'हाउसफुल-3' जिसमें लंगड़ा, गूंगा और अँधा बन कर सभी पात्रों ने दर्शकों का खूब मनोरंजन किया।"

यहाँ यह बात ग़ौरतलब है कि 'खूब मनोरंजन किया' अर्थात खूब मज़ा आया जबकि इसी लघुकथा के अंत की तरफ़ बढ़ते हुए वह अपने मित्र से चैट के दौरान कहती है कि..

"मैंने फेसबुक पर यह तो नहीं लिखा कि यह सिनेमा देख कर मुझे मज़ा आया।"

यहाँ वह कह कर वह अपनी ही बात को विरोधाभासी ढंग से काटती नज़र आती है कि उसे मज़ा नहीं आया।

इसी तरह पेज नम्बर 27 पर लिखी कहानी 'विकल्प' बिना किसी सार्थक मकसद के लिखी हुई प्रतीत हुई। जिसमें अध्यापिका अपनी एक छात्रा के घर इसलिए जाती है कि वह उसे कम उम्र में शादी करने के बजाय पढ़ने के लिए राज़ी कर सके मगर उसके पिता की दलीलें सुन कर वह चुपचाप वापिस चली जाती है।

इसी तरह पेज नंबर 78 की एक लघुकथा 'हो जाएगा ना' में माँ की घर से हवाई अड्डे के लिए जल्दी घर से निकलने की चेतावनी और समझाइश के बावजूद भी बेटा देरी से घर से निकलता है और कई मुश्किलों से दो चार होता हुआ अंततः ट्रैफिक जाम में फँसने की वजह से काफ़ी देर से हवाई अड्डे पर पहुँचता है। जिसकी वजह से उसे फ्लाइट में चढ़ने नहीं दिया जाता। 

सीख देती इस रचना की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'माँ खुश थी कि उसने समय की कीमत पहचान ली थी।'

मेरे ख्याल से बेटे की फ्लाइट छूट जाने पर कोई भी माँ खुश नहीं होगी। अगर इस पंक्ति को इस तरह लिखा जाता तो मेरे ख्याल से ज़्यादा सही रहता कि..

'माँ को उसकी फ्लाइट छूट जाने का दुख तो था लेकिन साथ ही साथ वह इस वजह से खुश भी थी कि इससे उसके बेटे को समय की कीमत तो कम से कम पता चल ही जाएगी।'

इसी तरह आगे बढ़ने पर एक जगह लिखा दिखाई दिया कि..

'नाच गाना से हॉल थिरक रहा था।'

यहाँ इस वाक्य से लेखिका का तात्पर्य है कि क्रिसमस की पार्टी के दौरान हॉल में मौजूद लोग नाच..गा और थिरक रहे थे। जबकि वाक्य से अंदेशा हो रहा है कि लोगों के बजाय हॉल ही थिरक रहा था जो कि संभव नहीं है। अगर इस वाक्य को सही भी मान लिया जाए तो भी यहाँ 'नाच गाना से हॉल थिरक रहा था' की जगह 'नाच गाने से हॉल थिरक रहा था' आएगा। 

यूँ तो यह लघुकथा संकलन मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि बढ़िया कागज़ पर छपे इस 188 पृष्ठीय लघुकथा संकलन को छापा है श् वेतांश प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 340/- रुपए जो कि कंटैंट को देखते हुए मुझे ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 

ताश के पत्ते- सोहेल रज़ा

कहते हैं कि हर इंसान की कोई ना कोई..बेशक कम या ज़्यादा मगर कीमत होती ही है।कौन..कब..किसके..किस काम आ जाए..कह नहीं सकते। ठीक उसी तरह जिस तरह ताश की गड्ढी में मौजूद उसके हर पत्ते की वक्त ज़रूरत के हिसाब से अपनी अपनी हैसियत..अपनी अपनी कीमत होती है। जहाँ बड़े बड़े धुरंधर फेल हो जाते हैं..वहाँ एक अदना सा.. कम वैल्यू वाला पत्ता या व्यक्ति भी अपने दम पर बाज़ी जिताने की कुव्वत..हिम्मत एवं हौंसला रखता है। 

पुराने इतिहास के पन्नों को खंगालने पर पता चलता है कि आज से हज़ारों साल पहले चीनी राजवंश की राजकुमारी अपने रिश्तेदारों के साथ आपस में पेड़ के पत्तों पर चित्रित तस्वीरों से बनी ताश खेला करती थी। बाद में ताश का यही मनोरंजक खेल, चीन की सीमाओं को लांघ, पत्तों से कागज़ और कागज़ से आगे प्लास्टिक तक की यात्रा करता हुआ  यूरोप, इंग्लैंड और स्पेन समेत पूरी दुनिया में फैल गया। 

आज बातों ही बातों में ताश का जिक्र इसलिए कि आज मैं सोहेल रज़ा जी के पहले उपन्यास 'ताश के पत्ते' की बात करने जा रहा हूँ। जो अपने नाम याने की शीर्षक के अनुसार किसी क्राइम थ्रिलर जैसा भान देता है मगर असल में इसमें आदिल- समीरा की प्रेम कहानी के अलावा कहानी है उन हज़ारों लाखों अभ्यर्थियों की जो अपने..अपने घरवालों के सपनों को पूरा करने के लिए हर साल SSC CGL (स्टाफ सिलेक्शन कमीशन - कंबाइंड ग्रैजुएट लेवल) जैसी कठिन लेवल की परीक्षाओं में सलैक्ट होने के लिए अपने दिन रात एक किए रहते हैं। 

इस उपन्यास में कहानी है IAS, IPS और स्टॉफ सलैक्शन कमीशन की कठिन परीक्षाओं की तैयारी करने और करवाने के लिए कोचिंग हब में तब्दील हो चुके दिल्ली के मुखर्जी नगर और उसके आसपास के इलाके की। जहाँ ऑटो चालक से ले कर प्रॉपर्टी डीलर तक हर कोई पीजी और टिफ़िन सर्विस प्रोवाइड करने हेतु आतुर नज़र आता है। इसमें कहानी है यहाँ के छोटे छोटे सीलन..बदबू भरे तंग कमरों में बड़ी मुश्किल से गुज़ारा कर..अपने दिन रात होम करते हज़ारों अभ्यर्थियों की। साथ ही इसमें बात है लक्ष्य प्राप्ति हेतु रात रात भर जाग कर की गयी अथक मेहनत..लगन और तपस्या के बीच डूबते-चढ़ते..बनते-बिगड़ते इरादों..हौंसलों और अरमानों की। 

कनपुरिया शैली में लिखे गए इस उपन्यास में ममता..त्याग और स्नेह के बीच ज़िद है खोए हुए आत्मसम्मान को फिर से पाने की। धार्मिक सोहाद्र और भाईचारे के बीच इसमें बात है यारी..दोस्ती और मस्ती भरे संजीदा किरदारों की। 

इस उपन्यास में एक तरफ़ बात है छोटी छोटी खुशियों..आशाओं और सफलताओं को सेलिब्रेट करते अभ्यर्थियों की। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसमें बात है हताशा..निराशा और अवसाद के बीच खुदकुशी करने को मजबूर होते युवाओं की। इसमें बात है एकाग्रचित्त मन से सफ़लता हेतु अपना सर्वश्रेष्ठ देने के बावजूद लाखों सपनों के धराशायी हो टूटने..चटकने और बिखरने की। इसमें बात है एकता..अखंडता के जज़्बे और जोश से भरे अभ्यर्थियों के बीच फूट डालने को आतुर होते खुराफाती  राजनैतिक प्रयासों की।

इस उपन्यास में एक तरफ़ बात है अफसरशाही से जुड़े लापरवाही भरे फैसलों के चलते सड़कों पर धरने प्रदर्शन और अनशन को मजबूर होते देश भर के हज़ारों..लाखों युवाओं की। तो दूसरी तरफ़ इसमें बात है सरकारी नुमाइंदों के ढिलमुल रवैये.. खोखले आदर्शों और झूठे वादों से लैस गोलमोल इरादों की। इसमें बात है गैरज़िम्मेदाराना प्रशासनिक एटीट्यूड के मद्देनज़र अदालती फैसलों में निरंतर होती देरी और उससे पैदा होती निराशा और फ्रस्ट्रेशन भरे अवसाद की।

बाँधने की क्षमता से लैस इस उपन्यास में बतौर सजग पाठक मुझे कुछ कमियां भी दिखाई दी जैसे कि..

*टीचिंग के पहले  प्रयास में ही आदिल को बारह सौ रुपए हर बैच के हिसाब से रोज़ के दो बैच मिल जाना तथा उसका समीरा को चंद औपचारिक मुलाकातों के बाद पहली ही डेट में 'आई लव यू' बोल प्रपोज़ कर देना और बारिश के दौरान बिजली कड़कने से समीरा का घबरा कर आदिल के गले लग जाना थोड़ा अटपटा..चलताऊ एवं फिल्मी लगा। 

*पेज नंबर 12 पर एक जगह लिखा दिखाई दिया कि.. 
"मैं उन पैसों को ऐसे संभाल कर रख रहा था जैसे पुजारी अपनी पवित्र ग्रंथ को संभाल कर रखता है।"

यहाँ पर मेरे हिसाब से 'पुजारी' शब्द का इस्तेमाल तर्कसंगत नहीं है क्योंकि इस बात को कहने वाला 'आदिल' मुस्लिम है। इस नाते यहाँ पर पुजारी की जगह पर मौलवी या कोई और जायज़ शब्द आता तो ज्यादा बेहतर था। 

*पेज नंबर 13 पर 'यूकेलिप्टस' की लकड़ी को 'लिपटिस' कहा गया जबकि सफ़ेदे के पेड़ की लकड़ी को 'यूकेलिप्टस' कहा जाता है।

*इसी तरह पेज नंबर 52 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"विवेक भाई! तुम सरकारी व्यवस्था से क्षुब्ध क्यों हो? जब देखो तंत्र का अवगुण करते रहते हो।"

यहाँ 'तंत्र का अवगुण करना' सही वाक्य नहीं बन रहा है। इसके बजाय वाक्य इस प्रकार होना चाहिए था कि..

"जब देखो तंत्र का निरादर करते रहते हो।"

*पेज नंबर 191 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"समीरा का चेहरा आज पहले से ज़्यादा खिला हुआ था। उसके डिम्पल्स में पहले से ज़्यादा गहराई थी। गाल ज़्यादा गुलाबी हो गए थे।"

(यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि बुखार के ठीक हो जाने की वजह से समीरा का चेहरा खिला खिला था।)

जबकि अगले पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि.. 
"वह एकदम से मायूस सी हो गई थी। सैकड़ों फूल भी मुरझा से गए हो जैसे।

माना कि समीरा के उदास होने की वजह एक अभ्यर्थी द्वारा खुदकुशी कर लेना था। मगर फिर भी पढ़ने में यह थोड़ा अटपटा लगा कि एक ही पल में कैसे किसी में इतना बदलाव आ सकता है? 

अगर इस सीन को लिखा जाना बेहद ज़रूरी था तो दृश्य को इस प्रकार लिखा जाना ज़्यादा तर्कसंगत रहता कि...

"बुखार से उबर जाने के बावजूद समीरा का चेहरा  तरोताज़ा ना हो कर हल्की मायूसी लिए हुए था।"

या फिर...

"बुखार से उबर जाने के बाद समीरा का चेहरा  तरोताज़ा होने के बावजूद हल्की मायूसी लिए हुए था।"

*काफ़ी जगाहों पर एक ही बात को खींचते हुए छोटे छोटे वाक्य पढ़ने को मिले। Raw ड्राफ्ट में तो ऐसा लिखना सही है मगर फाइनल ड्राफ्ट या एडिटिंग के वक्त उनकी तारतम्यता को बरकरार रखते हुए आसानी से बड़े..प्रभावी एवं परिपक्व वाक्य में तब्दील किया जा सकता था।

*वर्तनी की कुछ छोटी छोटी त्रुटियाँ जैसे..*रगजीन- रैक्सीन, खुसकिस्मत- खुशकिस्मत, कार्गिल - कारगिल इत्यादि दिखाई दी।

• फ़ॉन्ट्स के छोटे होने और काफ़ी पेजों में प्रिंटिंग का रंग उड़ा हुआ दिखाई दिया जिससे पढ़ने में अच्छी खासी मशक्कत के बाद भी असुविधा ही हुई।

हालांकि यह उपन्यास मुझे उपहार स्वरूप मिला मगर फिर भी अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 224 पृष्ठीय के इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है राजपाल एण्ड सन्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 295/- रुपए जो कि मुझे ज़्यादा लगा। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

अनुभूति- रीटा सक्सेना

जीवन की आपाधापी से दूर जब भी कभी फुरसत के चंद लम्हों..क्षणों से हम रूबरू होते हैं तो अक्सर उन पुरानी मीठी यादों में खो जाते हैं जिनका कभी ना कभी..किसी ना किसी बहाने से हमारे जीवन से गहरा नाता रहा है। साथ ही कई बार ऐसा भी मन करता है कि हम उन अनुभवों..उन मीठी यादों से औरों को भी रूबरू करवाएँ। तो ऐसे में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक अपनी बातें..अपने विचार पहुँचाने के मकसद से ये लाज़मी हो जाता है कि हम इसके लिए किसी ऐसे सटीक माध्यम का चुनाव करें जो अन्य दृश्य/श्रव्य माध्यमों के मुक़ाबले थोड़ा किफ़ायती भी हो और उसकी पहुँच भी व्यापक हो।  ऐसे में किसी संस्मरणात्मक किताब से भला और क्या बढ़िया हो सकता है?

दोस्तों..आज मैं आपका परिचय ऐसे ही संस्मरणों से सुसज्जित किताब से करवाने जा रहा हूँ जिसे 'अनुभूति (अनकही दास्ताँ) के नाम से लिखा है रीटा सक्सेना ने जो पश्चिमी दिल्ली के नांगलोई क्षेत्र में दिव्यांगजनों के लिए एक स्पैशल स्कूल चलाती हैं और उन्हें उनके द्वारा किए गए सदकार्यों के लिए कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं। 

इस किताब में कहीं लेखिका ने अपने बचपन से जुड़ी बातों को लिखा है तो कहीं माँ के साथ अपने सम्बन्धों को ले कर पुरानी यादों को फिर से याद किया है। इसी किताब में कहीं वे अपने लेखक/कवि पिता की बात करती हैं तो कहीं अपनी माँ के स्नेहमयी एवं कुशल गृहणी होने की। कहीं वे किताबों के प्रति अपनी माँ के शौक की बात करती नज़र आती हैं तो कहीं जीवन मूल्यों और जीवनदर्शन से जुड़ी बातों पर भी उनकी कलम चलती दिखाई देती है। 

इस किताब के ज़रिए लेखिका ने अपनी माँ से जुड़ी हुई यादों..उनकी बातों के साथ साथ विभिन्न ऑपरेशनों के दौरान अस्पताल में उनके द्वारा झेले गए दुःखों..तकलीफ़ों की बात की है। इस किताब जहाँ एक तरफ़ लेखिका ने पीड़ा..दुःख.. दर्द..संताप से भरे उन गहन लम्हों को अपने पाठकों के समक्ष रखते हुए एक तरह से उन्हीं दुःखों और तकलीफों को स्वयं फिर से जिया है। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी किताब में कहीं वे कोरोना काल में हुए अपने तजुर्बों के आधार पर मृत देहों और रोते बिलखते परिवारों और उनकी वेदना की बात करती नज़र आती हैं। 

इसी किताब में जहाँ एक तरफ़ वे लचर सुविधाओं वाले उन महँगे अस्पतालों पर भी गहरे कटाक्ष करती नज़र आती हैं जो मरीज़ की मजबूरी और वक्त का फ़ायदा उठा आम नागरिकों को लूटने खसोटने में दिन रात लिप्त नज़र आते थे। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी किताब में वे कहीं विभिन्न कष्टों से जूझ रही अपनी माँ के साथ अस्पताल में बिताए दिनों को याद करती हुई नजर आती हैं कि किस तरह बेहद कष्ट में होने के बावजूद भी अंततः उन्होंने अपने दुःख.. अपनी तकलीफ़ पर काबू पा..उनके बारे में बात करना बंद कर दिया था।

इसी किताब में वे कहीं भारतीय व्यवस्था में रोगियों के अधिकारों के बारे में बताती नज़र आती हैं तो कहीं वे उपभोक्ता होने के नाते रोगियों के अधिकारों से अपने पाठकों को अवगत एवं जागरूक करती नज़र आती हैं। इसी किताब में कहीं वे आध्यात्मिकता से जुड़े अपने नज़रिए की बात करती दिखाई देती हैं। तो कहीं वे किशोरावस्था में उनके द्वारा लिखी गयी चंद रचनाओं को भी इस किताब में समेटती नज़र आती हैं। 

धाराप्रवाह लेखन शैली में लिखी गयी इस किताब में इनके लेखन कौशल की परिपक्वता एवं समझ को देखते हुए सहजता से ये विश्वास नहीं होता कि यह इनकी पहली किताब है। 

इस किताब में वर्तनी की कुछ त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ कमियां दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नम्बर
68 पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'हम सब ऐसे हो गए जैसे किसी कसाई को देख लिया हो जो जानवर काटने जा रहा है।'

यहाँ इस वाक्य के संदर्भ में यह बात ग़ौरतलब है लेखिका ने अपनी सातवीं कक्षा की परीक्षा के दौरान अपनी एक सहपाठिनी को दुल्हन के वेश में परीक्षा देते हुए देखा। परीक्षा के बाद जब उसने बताया कि उसकी जबरन शादी कर दी गयी है। तो सब बच्चों को ऐसा महसूस हुआ जैसे कि उन्होंने एक जानवर को कसाई के पास कटने के लिए जाते हुए देखा। जबकि वाक्य स्वयं इससे उलट बात कह रहा है कि..

'हम सब ऐसे हो गए जैसे किसी कसाई को देख लिया हो जो जानवर काटने जा रहा है।'

इस वाक्य के हिसाब से बच्चों को ऐसा महसूस हुआ कि कोई कसाई(दूल्हा), जानवर(दुल्हन) काटने के लिए जा रहा है जबकि बच्चों को यहाँ जानवर कसाई के पास जाता दिख रहा है। अतः किताब में छपा वाक्य ग़लत है। सहो वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'हम सब ऐसे हो गए जैसे किसी जानवर को कसाई के पास कटने के लिए जाते हुए देख लिया हो।'

यूं तो यह किताब मुझे लेखिका की तरफ से उपहार स्वरूप मिली मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि सैल्फ़ पब्लिशिंग के ज़रिए छपी इस  80 पृष्ठीय किताब के हार्ड बाउंड संस्करण का मूल्य 199/- रुपए है और इससे प्राप्त होने वाली आय का इस्तेमाल दिव्यांगजनों के लाभार्थ किया जाएगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

सपनों का शहर- सेनफ्रांसिस्को- जयश्री पुरवार

अपने रोज़मर्रा के जीवन से जब भी कभी थकान..बेचैनी..उकताहट या फिर बोरियत उत्पन्न होने लगे तो हम सब आमतौर पर अपना मूड रिफ्रेश करने के लिए बोरिया बिस्तर संभाल.. कहीं ना कहीं..किसी ना किसी जगह घूमने निकल पड़ते हैं। हाँ.. ये ज़रूर है कि मौसम के हिसाब से हर बार हमारी मंज़िल..हमारा डेस्टिनेशन बदलता रहता है। कभी इसका बायस गर्म या चिपचिपे मौसम को सहन ना कर पाना होता है तो कभी हाड़ कंपाती सर्दी से बचाव की क्रिया ही हमारी इस प्रतिक्रिया का कारण बनती है। 

वैसे तो हर शहर..हर इलाके में ऐसा कुछ ना कुछ निकल ही आता है जो बाहर से आने वाले सैलानियों के लिए खास कर के देखने..महसूस करने..अंतर्मन में संजोने लायक हो। ऐसे में अगर आपको अपने घर से दूर परदेस में बार-बार जाने का मौका मिले  तो मन करता है कि हर वो चीज़..जो देखने लायक है..कहीं छूट ना जाए। 

 ऐसे में जब आपको अमेरिका जैसे बड़े देश के कैलिफोर्निया स्थित सपनों के शहर- सैनफ्रांसिस्को में बार बार जाने का मौका मिले तो मन करता है हर लम्हे..हर पल को खुल कर जी लिया जाए।दोस्तों..आज मैं आपसे अमेरिका के शहर सैनफ्रांसिस्को के रहन सहन और दर्शनीय स्थलों से जुड़ी एक ऐसी किताब के बारे में बात करने जा रहा हूँ जिसे "सपनों का शहर -सैनफ्रांसिस्को" के नाम से लिखा है जयश्री पुरवार ने। 

इस किताब में कहीं कोलंबस द्वारा भारत के धोखे में अमेरिका को खोजे जाने का जिक्र मिलता है तो कहीं उसके ब्रिटिश उपनिवेश में तब्दील होने और सालों बाद उसके उपनिवेश से अलग हो आज़ाद हो अलग राष्ट्र बनने की बात नज़र आती है। कहीं इसमें 
विश्वयुद्ध के समय हथियार बनाने से ले कर आपूर्ति करने की मुहिम द्वारा अमेरिका के कर्ज़दार राष्ट्र से  दुनिया के सबसे अमीर देश में परिवर्तित होने की बात का पता चलता है। तो कहीं द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान के विरुद्ध परमाणु बम के इस्तेमाल के बाद अमेरिका, दुनिया के सबसे ताकतवर देश के रूप में परिवर्तित होता दिखाई देता है। 

इस किताब में कहीं लेखिका सैनफ्रांसिस्को में  उपलब्ध बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की बात करती नज़र आती हैं तो कहीं वे इसके लिए स्वास्थ्य बीमा याने के हैल्थ इंश्योरेंस की अहमियत भी समझाती दिखाई देती हैं। कहीं इस किताब में घर-घर हथियार होने की बात पता चलती है तो कहीं इसी वजह से ज़रा ज़रा सी बात पर गोलाबारी की घटनाओं को बल मिलता दिखाई देता है। 

कहीं इस किताब में वहाँ की साफ़ सुथरी सड़कों और गलियों की बात होती नज़र आती है तो कहीं वहाँ के शांति भरे हरे भरे माहौल और सुंदर व दर्शनीय पार्कों की बात होती नज़र आती है। इसी किताब में कहीं वहाँ पर कानून की अहमियत और लोगों के अनुशासनप्रिय होने की बात पता चलती है। तो कहीं इस किताब में वहाँ के बच्चों के प्रिय थीम पार्क'लेमोज़' जैसे उस अभिनव मनोरंजक पार्क की बात होती दिखाई देती है। जहाँ आप जन्मदिन मनाने से ले कर टट्टू की सवारी, बच्चों की राइड्स और पालतू चिड़ियाघर का भी आनंद ले सकते हैं। 

इसी किताब में कहीं अमेरिका में बहुलता में उपलब्ध रोज़गारों की बात होती दिखाई देती है कि अगर आप मेहनती, कर्मठ और काम के प्रति ज़ुनूनीयत का भाव रखते हैं तो आपके पास वहाँ रोजगार की कोई कमी नहीं है। तो कहीं वहाँ की परंपरानुसार तीन दिवसीय लेबर डे का उत्सव मनाया जाता दिखाई देता है। इसी किताब से पता चलता है कि सप्ताह के पाँच दिन कड़ी मेहनत करने वाले वहाँ के लोग अगले दो दिनों तक मस्ती करने को बेताब और उल्लासित नज़र आते हैं। 

इसी किताब में कहीं लेखिका वहाँ के दिन प्रतिदिन जटिल हो रहे वैवाहिक संबंधों की बात करती नज़र आती है कि वहाँ शादी और तलाक..दोनों ही फटाफट और धड़ाधड़ होते रहते हैं। जिनमें जोड़े में से कोई एक अपना पल्ला झाड़ आगे निकल जाता है तो दूसरा सिंगल पेरेंट की भूमिका निभाता नज़र आता है। इसी किताब से अमेरिका के उन अंतरप्रजातीय परिवारों के बारे में भी पता चलता है जिसमें हो सकता है कि पति मैक्सिकन और पत्नी अमेरिकन हो जबकि अलग अलग रिश्तों से जन्मर्ण उनके बच्चों में कोई गोरा, कोई गेहुआँ और कोई अश्वेत याने के नीग्रो भी हो सकता है।

इस किताब में जहाँ एक तरफ़ ललित कलाओं और सांस्कृतिक गतिविधियों के केन्द्र याने के सैनफ्रांसिस्को में लेखिका को ड्राइंग पेंटिंग से लेकर फोटोग्राफी, वीडियो, फिल्म- सिनेमा इत्यादि अनेक विधाओं में रुचि लेते लोग नजर आते हैं। जिनमें बच्चे, युवा और प्रौढ़ तक सब अपनी अपनी काबिलियत एवं रुचिनुसार भाग लेते नज़र आते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी किताब में कहीं वहाँ के व्यस्त बाज़ारों में या सड़कों के किनारे भीख मांगने वाले भी अपना कोई ना कोई हुनर पेश कर अपना गुजर बसर करते नज़र आते हैं।

संस्मरणों से जुड़ी इस किताब में लेखिका जहाँ एक तरफ वहाँ के विभिन्न मौसमों की बात करती दिखाई देती है तो वहीं दूसरी तरफ़ भारतीय समुदाय के बीच हर्षोल्लास से बनाए जाते भारतीय त्योहारों जैसे.. दुर्गा पूजा, सिंदूर खेला, होली, करवाचौथ और दिवाली की भी बात करती दिखाई देती है। त्योहारों से जुड़े इस संस्मरण में वे वहाँ के हैलोवीन और क्रिसमस क्रिसमस जैसे बड़े स्तर पर मनाए जाने वाले त्योहारों की भी बात करती नज़र आती हैं। 

इसी किताब में कहीं भारतीय एवं पाकिस्तानी मूल के लोगों के साथ साथ विदेशी भी सिंगर कैलाश खेर के कॉन्सर्ट में मस्त हो खुशी से झूमते दिखाई देते हैं।   तो कही  ग़ज़ल गायक ग़ुलाम अली खान की मदभरी ग़ज़लों की मुरीद होती दुनिया नज़र आती है। कहीं म्यूज़िक बैण्ड इंडियन ओशन के द्वारा प्रस्तुत किए कार्यक्रम का लोग आनंद लेते नज़र आते हैं। 

इसी किताब में कहीं लेखिका अपने परिवार के साथ भारतीय रेस्तराओं में हमारे यहाँ के प्रसिद्ध व्यंजनों का लुत्व उठाती दिखाई देती है तो कहीं पाश्चात्य शैली के भोजन का भी आनंद लेती नज़र आती है। विभिन्न संस्मरणों से जुड़ी इस किताब में कहीं लेखिका वहाँ के विभिन्न पुस्तकालयों के ज़रिए वहाँ की की पुस्तक संस्कृति की बात करती हुई दिखाई देती है। तो कहीं वे अपने लेखन के शौक और वहाँ आयोजित की जाने वाली काव्य गोष्ठिओ में अपनी भागीदारी की बात करती नज़र आती है। 

इसी किताब में लेखिका कभी वहाँ भयानक त्रासदी के रूप में फैले स्पेनिश फ्लू की बात करती नज़र आती है तो कहीं कैलिफोर्निया के जंगलों में लगी भयानक आग और उससे पर्यावरण को हो रहे नुकसान की बात करती भी दिखाई देती है। इसी किताब में कहीं लेखिका रेसिज़म के मद्देनज़र अमेरिका में काले-गोरों के आपसी भेदभाव एवं उनमें होने वाली आपसी झड़पों की बात करती है। तो कहीं लेखिका के अनुभवानुसार वहाँ के मूल बाशिंदे याने के रेड इंडियन दरकिनार किए जाते दिखाई देते हैं। 

इसी किताब में लेखिका कहीं बताती नज़र आती है कि दुनिया का सबसे अमीर..सबसे धनी देश होने के बावजूद भी भो गरीब..बेघर लोगों की अच्छी खासी तादाद दिखाई देती है।

इसी किताब में कहीं लेखिका अपने लेखन के जादू से वहाँ के गोल्डन गेट ब्रिज और विस्टा पॉएंट के दर्शन कराती नज़र आती है। तो कहीं वहाँ के गोल्डन गेट पार्क और जापानी शैली में बने जैपनीज़ टी गार्डन के दर्शन कराती नज़र आती है। इसी किताब में कहीं पिकनिक का पर्याय बन चुके मदर्स मीडो और स्टो लेक की बात होती नज़र आती है। तो कहीं लेखिका अपनी लेखनी के ज़रिए पाठकों को कैलिफोर्निया अकादमी ऑफ साइंसेज़ के तो कहीं सैनफ्रांसिस्को के डाउन टाउन और उसके आसपास के इलाकों के दर्शन कराती नज़र आती है। 

इसी किताब में कहीं लेखिका मछुआरों के घाट का विचरण करती नज़र आती है तो कहीं वहाँ के अपराधियों को नए जीवन की प्रेरणा देते एक ऐसे रेस्टोरेंट की बात करती दिखाई देती है जहाँ वेटर, बावर्ची, प्रबंधक से ले कर मालिक तक, सभी कभी ना कभी अपने जीवन में अपराधी रह चुके हैं और अब सब आम लोगों की तरह सामान्य जीवन जी रहे हैं।

इस किताब में लेखिका कहीं वहाँ के मनोरंजन स्थलों की बात करती नज़र आती ही तो कभी वहाँ की कला और संस्कृति के मद्देनज़र वहाँ के संग्रहालयों इत्यादि की बात करती दिखाई देती है।
इसी किताब में कहीं वहाँ बने मिनी चायना जैसे इलाकों की बात पता चलती है तो कहीं वहाँ के एलजीबीटी समुदाय की निकलती परेड के बारे में पता चलता है।

किताब में कुछ जगहों वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ कमियां दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 39 के आखिरी पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..

'भारत के पब्लिक स्कूलों में समृद्ध परिवार के लाडले बच्चे ही अच्छी शिक्षा प्राप्त करते हैं'

इसके बाद इसी वाक्य में आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'जबकि अमेरिका की सघन आबादी वाले शहरों में भी पब्लिक यानी सरकारी स्कूलों में अधिकतर साधारण वर्ग की संताने जाती हैं।'

यहाँ वाक्य के पहले हिस्से में 'पब्लिक स्कूल' से तात्पर्य उन निजी स्कूलों से है जिन्हें बड़े बड़े उद्योगपतियों ने अथवा अमीर लोगों ने अपने मुनाफ़े के लिए खोल रखा है। जबकि इसी वाक्य के अगले हिस्से में लेखिका 'पब्लिक स्कूल' से सरकारी स्कूल का तात्पर्य समझा रही हैं।

यहाँ लेखिका को इस बात को और अधिक स्पष्ट तरीके से समझाना चाहिए था कि भारत के उच्च स्टैंडर्ड वाले महँगे प्राइवेट स्कूलों के जैसे ही अमेरिका के सरकारी स्कूल होते हैं। जिनमें आम आदमी के बच्चे भी आसानी से मुफ़्त या फिर बिना ज़्यादा फीस दिए शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। 

** पेज नंबर 49 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'यह निशुल्क नहीं था और इसके लिए हमें फीस भरनी पड़ी। पर बेटी के घर के पास ही होने के कारण कोई दिक्कत नहीं थी।'

कायदे से अगर देखा जाए तो यहाँ इन दोनों वाक्यों के बीच कोई संबंध नहीं होना चाहिए लेकिन ऐसा प्रतीत हो रहा है कि बेटी का घर पास होने की वजह से फीस भरने में कोई दिक्कत नहीं थी। जबकि असलियत में फ़ीस भरने का बेटी के घर के पास होने से कोई नाता नहीं है बल्कि बेटी का घर वहाँ से नज़दीक होने की वजह से लेखिका को वहाँ आने जाने में कोई दिक्कत नहीं थी। इसलिए अगर पहले वाक्य को सही माना जाए तो अगला वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..

'बेटी का घर पास होने की वजह से वहाँ आने जाने में कोई दिक्कत नहीं थी।'

इसके आगे पेज नंबर 51 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'सूरजमामा अब देर से आते हैं और जल्दी लौटने भी लगते हैं। पर जितनी देर रहते हैं अपनी रुआब से'

यहाँ 'सूरज मामा(सूर्य)' शब्द सही नहीं है क्योंकि क्योंकि सूरज(सूर्य) को नहीं बल्कि चंदा(चंद्रमा) को चंदामामा कहा जाता है। साथ ही यहाँ 'अपनी रुआब से' नहीं बल्कि 'अपने रुआब से' आएगा। हाँ.. अगर 'रुआब' की जगह 'अकड़' शब्द का प्रयोग किया जाता तो अवश्य ही 'अपनी अकड़ से' आता। 

आगे बढ़ने पर पेज नम्बर 63 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'अमेरिकी धरती पर भारतीय राग- रंग से रंजित इस सुरीली साँझ की याद हम आज भी मन में संजोए हुए हैं।'

यहाँ 'रंजित' शब्द का प्रयोग सही नहीं है क्योंकि 'रंजित' शब्द से पहले 'रक्त' शब्द लग कर 'रक्तरंजित' शब्द बनता है। यहाँ 'रंजित' शब्द के बजाय अगर 'रंगी' शब्द का इस्तेमाल किया जाता तो वाक्य ज़्यादा बेहतर दिखाई देता जैसे कि..

'अमेरिकी धरती पर भारतीय राग-रंग से रंगी इस सुरीली साँझ की याद हम आज भी मन में संजोए हुए हैं।'


पेज नंबर 78 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'हवा के साथ जंगल से राख की धूल भी शहरों में बरसते रहे।'

यहाँ यह वाक्य सही नहीं बना क्योंकि राख भी स्वयं में धूल ही है। इस वाक्य को इस प्रकार होना चाहिए था कि..

'हवा के साथ जंगल की राख भी शहरों पर बरसती रही।'


इसके बाद पेज नंबर 79 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'कभी-कभी मानवीय असावधानी या बिजली लाइन की लीकेज भी आग लगने के कारण बन जाती है।'

यहाँ यह गौर करने वाली बात है कि कोई भी चीज़ लीक तब होती है जब वह तरल अथवा गैसीय अवस्था में होती है और इलैक्ट्रिसिटी याने के बिजली इन दोनों में से किसी भी श्रेणी में नहीं आती। अतः यह वाक्य भी सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'कभी-कभी मानवीय असावधानी या बिजली का शॉर्ट सर्किट भी आग लगने का कारण बन जाता है।'


पेज नम्बर 87 में लिखा दिखाई दिया कि..

'जहाँ झरने, झील, हरे भरे चारागाह, छायादार मैदान के अलावा अनेक ऐतिहासिक और आधुनिक इमारतें और बाग बगीचे हैं'

कोई भी मैदान 'छायादार' कैसे हो सकता है जबकि छायादार वृक्ष हुआ करते हैं। छायादार से तात्पर्य छाया देने वाला होता है और कोई भी मैदान स्वयं में छाया देने वाला नहीं हो सकता। यहाँ 'छायादार मैदान' के बजाय हरा भरा मैदान होना चाहिए था। 

पेज नंबर 90 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'छह पंखुड़ी वाले बड़े बाउल में इंद्रधनुषी भोजन- एक पंखुड़ी में लाल अनारदाने, दूसरी में सफेद पनीर के लच्छे............गुलाबी तरबूज़ के छोटे टुकड़े........बीच के गोलाकार भाग में पीला अनानास'

यहाँ यह बात गौर करने लायक है कि पनीर तो स्वयं ही सफ़ेद होता है। इसलिए सिर्फ़ 'पनीर के लच्छे' लिखने से ही काम चल जाता। सफ़ेद शब्द की ज़रूरत ही नहीं थी। यही बात क्रमशः गुलाबी तरबूज़ और पीले अनानास के साथ भी लागू होती है। अतः: इस वाक्य में फ़लों के रंगों का जिक्र करना बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं था।

 महात्मा गांधी से जुड़े चैप्टर को पढ़ने के दौरान पेज नंबर 99 की आखिरी पंक्ति में लिखा नज़र आया कि..
 
'ज़रूरी है कि हम उनके जीवन दर्शन को निकट से जाने, समझे, सीखे और उन्हें अंतरंग करें'

इस वाक्य में 'अंतरंग' की जगह 'आत्मसात' आएगा। 

इसके बाद इसी संदर्भ से जुड़े पेज नम्बर 100 की पहली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'उनके जीवन दर्शन को ना उलझा कर उनसे प्रेरणा लेकर अपने जीवन दर्शन को सुलझाएं।'

यहाँ 'उलझा कर' की जगह 'उलझ कर' आएगा। 

पेज नंबर 106 में लिखा दिखाई दिया कि..

'आगे बढ़ती हुई कहानी में बिली अपने परिवार में अपने देश और उसकी संस्कृति का नए सिरे से अविष्कार करती है।'

यहाँ ये बात गौर करने के लायक है कि अविष्कार हमेशा विज्ञानपरक चीजों का ही होता है जबकि यहाँ परिवार के बीच अपने देश की संस्कृति को फिर से ज़िंदा करने की बात हो रही है।

इसी तरह पेज नंबर 108 में लिखा दिखाई दिया कि..

'यहाँ पर पास एक और प्राकृतिक दर्शनीय स्थल है ट्वीन पीक यूरेका और नोए दो पहाड़ियों का बेजोड़ समागम है।'

यहाँ यह गौर करने वाली बात है समागम का अर्थ लोगों का किसी खास जगह एकत्र होना होता है जैसे कि किसी आश्रम में भक्तों का समागम। लेकिन उपरोक्त वाक्य में ऐसी कोई बात नहीं है। इसलिए यहाँ 'समागम' शब्द का प्रयोग सही नहीं है।

आमतौर पर देखा गया है कि बहुत से लेखक कुछ वस्तुओं इत्यादि में वाक्य के हिसाब से स्त्रीलिंग और पुल्लिंग के भेद को सही से व्यक्त नहीं कर पाते। ऐसे ही कुछ वाक्य इस किताब में भी नज़र आए। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस किताब के आने वाले संस्करणों एवं आगामी किताबों में इस तरह की कमियों को दूर किया जाएगा।

यूं तो यह किताब मुझे लेखिका की तरफ से उपहार स्वरूप मिली मगर फिर भी अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 136 पृष्ठीय इस किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है बोधि प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

Tej@ज़िंदगी यू टर्न- तेजराज गहलोत


किसी भी देश..राज्य..संस्कृति अथवा अलग अलग इलाकों में बसने वाले वहाँ के बाशिंदों का जब भी आपस में किसी ना किसी बहाने से मेल मिलाप होता है तो यकीनन एक का दूसरे पर कुछ ना कुछ असर तो अवश्य ही पड़ता है। उदाहरण के तौर पर 1980-81 से पहले विरले लोग ही भारत में नूडल्स के बारे में जानते थे लेकिन उसके बाद मैग्गी के चीन से चल कर हमारे यहाँ के बाज़ारों में आने के बाद अब हालत ये है कि हर दूसरी तीसरी गली में नूडल्स बनाने और बेचने वाले मिल जाएँगे। और नूडल्स भी एक तरह की नहीं बल्कि अनेक तरह की। कोई उसमें पनीर के साथ अन्य देसी मसालों का विलय कर उसे पंजाबी टच दे देता तो कोई किसी अन्य जगह का।

यही हालत थोड़ी कम बेसी कर के मोमोज़ की भी है। उन बेचारों को तो ये तक नहीं पता कि कब वे खौलते तेल की कढ़ाही में तल दिए गए या फिर धधकते तंदूर में तप कर फ्राइड अथवा तंदूरी मोमोज़ में बदल गए। इनकी बात तो खैर छोड़िए..अपने देसी समोसे को ही ले लीजिए। उसे तो ये तक नहीं पता कि कब उसमें से आलुओं को बेदखल कर उनमें चाऊमीन.. पास्ता या फिर कढ़ाही पनीर जैसी किसी अन्य आईटम का विलय कर उसे पूरा देसी टच दे दिया गया।

मैग्गी..मोमोज़ और समोसों की तरह का ही कुछ शौक लेखक तेजराज गहलोत भी रखते हैं। पता ही नहीं चलता कि कब वे अच्छी भली हिंदी में लिखते हुए अचानक गुगली के तौर पर उसमें अँग्रेज़ी के शब्दों का टप्पा खिला ऐसा कुछ मनमोहक रच देते हैं कि सामने वाला बस विस्मित हो देखता..मुस्कुराता रह जाता है।

दोस्तों..आज मैं हाल ही में उनकी आयी एक हिंदी..अँग्रेज़ी और राजस्थानी मिश्रित किताब 'Tej@ज़िन्दगी यू टर्न' के बारे में बात करने जा रहा हूँ जिसमें उन्होंने हलकी फुलकी फ्लर्टिंग से ले कर पति-पत्नी के बीच की आपसी नोकझोंक और तत्कालीन राजनीतिक मुद्दों पर अपनी कलम चलाई है। यहाँ तक कि इस मामले में उन्होंने बतौर लेखक/कवि के खुद को भी नहीं बख्शा है। उनके लेखन की एक बानगी के तौर पर देखिए..

**  " उसके दिल से बाहर निकलना था मुझे,
तभी Announcement हुआ..'दरवाज़े बायीं तरफ खुलेंगे'

** " कुछ लोग Outstanding होते हैं,
इसलिए हमेशा हर एक के दिल के बाहर ही खड़े मिलते हैं.... अंदर नहीं जा पाते।"

** " सैकड़ों महिलाओं की आवाज़ बनना था उसे,
फिर यूँ हुआ है एक दिन कि वह एक डबिंग आर्टिस्ट बन गई।"

** " उसने कहा तुम जो यहाँ वहाँ बहुत फिरते रहते हो/ दायरे में रहा करो/ तब से ही मैं उसकी आँखों के Dark Circle में कैद हूँ"

** " किसी ने कहा था एक दिन तुम भी पहाड़ बना सकते हो/ मैं बस उसी दिन से राई राई जोड़ रहा हूँ"

** "मन पर आहिस्ता आहिस्ता बढ़ रहे वज़न को एक ही झटके में कम करके वह इन दिनों Doubles से Single हो गयी है।"

** "उन दोनों ने एक दूसरे से अपना दिल Exchange किया और फिर कुछ दिनों में ही दोनों का हृदय परिवर्तन हो गया"

** "ज़रूरत यहाँ सब को सिर्फ़ कांधे की थी/ पर लोग दिल भी थमाने की ताक में रहे"

** "Signal नहीं मिल रहे हैं कुछ दिनों से/ लगता है तुमने अब Coverage क्षेत्र से बाहर कर रखा है मुझे"

** "देश की सारी समस्याओं को/ एक ही झटके में देशभक्ति खा गयी/ लो 15 अगस्त आ गयी"

** "सुनो...कोई कब से तुम्हें आवाज़ दे रहा है/ चलो अब बाहर निकल भी आओ तुम / उसके ख्यालों से"

** "कुछ दिन पहले तक हम दोनों में खूब प्यार भरी बातें होती थी...पर फिर चुनाव आ गए"

** "बात Eye To Eye से बेवफाई तक पहुँची और फिर उस दिन से दोनों ने काले चश्मे लगा लिए"

** 'यह वक्त सिर्फ क्रीज पर खड़े रहकर Dot Ball निकालने और जितने Extra Run मिल रहे हैं उन्हें बटोर कर खुश रहने का है.... विकेट बचा रहा तो रन बनाने का अवसर भी आएगा ही"

(संदर्भ: कोरोना काल)

** मोदी जी- ' जो जहाँ है वहीं रहे'
बस इतना कहना था कि तब से ही मैं उसके दिल में ही हूँ'

** 'Pass होने वाले के पास Option कम और Fail होने वाले के पास Option ज्यादा होते हैं चाहे जिंदगी की परीक्षा हो या प्रेम की'

** वह- 'Doctor क्या आया Reports में'
Doctor- 'ब्लॉकेज है तुम्हारे Heart में'

यह सुनते ही उसने उसी वक्त दिल से मुझे निकाला और Doctor से कहा- 'Doctor साहब आप एक बार फिर से सारी जांच दोबारा लिख दीजिए'

अंत में चलते चले एक छोटा सा सुझाव:

पेज नंबर 43 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"वह Cinemascope में Scope ढूँढ रही थी और मैं Boxoffice में Office"

यहाँ अगर 'Boxoffice में Office' की जगह 'Boxoffice में Box' लिखा जाता तो यह कोटेशन मेरे हिसाब से थोड़ा शरारती और ज़्यादा मारक बन जाता।

• Box: सिनेमा घर में फ़िल्म देखने के लिए अलग से बना हुआ केबिन।

दो चार जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला।

जगह जगह मुस्कुराने और गुदगुदाने के पल देती इस पैसा वसूल मनमोहक किताब के 120 पृष्ठीय पैपरबैक संस्करण को छापा है इंक पब्लिकेशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 160/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

खट्टर काका- हरिमोहन झा

कहते हैं कि समय से पहले और किस्मत से ज़्यादा कभी कुछ नहीं मिलता। हम कितना भी प्रयास...कितना भी उद्यम कर लें लेकिन होनी...हो कर ही रहती है। ऐसा ही इस बार मेरे साथ हुआ जब मुझे प्रसिद्ध लेखक हरिमोहन झा जी द्वारा लिखित किताब "खट्टर काका" पढ़ने को मिली। इस उपन्यास को वैसे मैंने सात आठ महीने पहले अमेज़न से मँगवा तो लिया था लेकिन जाने क्यों हर बार मैं खुद ही इसकी उपस्तिथि को एक तरह से नकारता तो नहीं लेकिन हाँ...नज़रंदाज़ ज़रूर करता रहा। बार बार ये किताब अन्य किताबों को खंगालते वक्त स्वयं मेरे हाथ में आती रही लेकिन प्रारब्ध को भला कौन टाल सका है? इस किताब को अब..इसी लॉक डाउन के समय में ही मेरे द्वारा पढ़ा जाना लिखा था। खैर...देर आए...दुरस्त आए।

दिवंगत हरिमोहन झा जी एक जाने-माने लेखक एवं आलोचक थे। एक ऐसे शख्स जिनकी लेखनी धार्मिक ढकोसलों के खिलाफ पूरे ज़ोरशोर से चलती थी। उनका लिखा ज़्यादातर मैथिली भाषा में है जिसका और भी अन्य कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। उन्होंने 'खट्टर काका' समेत बहुत सी किताबें लिखीं जो काफी प्रसिद्ध हुई। उन्हें उम्दा लेखन के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। 

अपनी किताबों में हरिमोहन झा जी ने अपने हास्य व्यंग्यों एवं  कटाक्षों के ज़रिए सामाजिक तथा धार्मिक रूढ़ियों को आईना दिखाते हुए अंधविश्वास इत्यादि पर करारा प्रहार किया  है। मैथिली भाषा में आज भी हरिमोहन झा सर्वाधिक पढ़े जाने वाले लेखक हैं।

अब बात करते हैं उनकी किताब "खट्टर काका" की तो इस किताब का मुख्य किरदार 'खट्टर काका' हैं जिनको उन्होंने सर्वप्रथम मैथिली भाषा में रचा था। इस किरदार की खासियत है कि यह एक मस्तमौला टाइप का व्यक्ति है जो हरदम भांग और ठंडाई की तरंग में रहता है और अपने तर्कों-कुतर्कों एवं तथ्यों के ज़रिए इधर उधर और जाने किधर किधर की गप्प हांकते हुए खुद को सही साबित कर देता है।

इस किताब के ज़रिए उन्होंने हिंदू धर्म में चल रही ग़लत बातों को अपने हँसी ठट्ठे वाले ठेठ देहाती अंदाज़ में निशाना बनाया है। और मज़े की बात कि आप अगर तार्किक दृष्टि से उनका लिखा पढ़ो तो आपको उनकी हर बात अक्षरशः सही एवं सटीक नज़र आती है। खट्टर काका हँसी- हँसी में भी जो उलटा-सीधा बोल जाते हैं...उसे फिर अपनी चटपटी बातों के ज़रिए सबको भूल भुलैया में डालते हुए साबित कर के ही छोड़ते हैं।

रामायण, महाभारत, गीता, वेद, पुराण उनके तर्कों के आगे सभी के सभी सभी उलट जाते हैं। खट्टर काका के नज़रिए से अगर देखें तो हमें, हमारा हर हिंदू धर्मग्रंथ महज़ ढकोसला नज़र आएगा जिनमें राजे महाराजों की स्तुतियों, अवैध संबंधों एवं स्त्री को मात्र भोगिनी की नज़र से देखने के सिवा और कुछ नहीं है। ऊपर से मज़े की बात ये कि उन्होंने अपनी बातों को तर्कों, उदाहरणों एवं साक्ष्यों के द्वारा पूर्णतः सत्य प्रमाणित किया है। उन्होंने अपनी बातों को सही साबित करने के लिए  अनेक जगहों पर संबंधित श्लोकों का सरल भाषा में अनुवाद करते हुए, उन्हें उनके धार्मिक ग्रंथों के नाम सहित उल्लेखित किया है।

अगर आप जिज्ञासा के चश्मे को पहन खुली आँखों एवं खुले मन से हिंदू धर्म में चली आ रही बुराइयों एवं आडंबरों को मज़ेदार अंदाज़ में जाने के इच्छुक हैं, तो ये किताब आपके बहुत ही मतलब की है। इस किताब के 18वें पेपरबैक संस्करण को छापा है राजकमल पेपरबैक्स ने और इसका बहुत ही वाजिब मूल्य सिर्फ ₹199/- रखा गया है। उम्दा लेखन के लिए लेखक तथा कम दाम पर एक संग्रणीय किताब उपलब्ध करवाने के लिए प्रकाशक को साधुवाद।

मन अदहन- मधु चतुर्वेदी

अगर किसी कहानी या उपन्यास को पढ़ते वक्त आपको ऐसा लगने लगे कि..ऐसा तो सच में आपके साथ या आपके किसी जानने वाले के साथ हो चुका है। तो कुदरती तौर पर आप उस कहानी से एक जुड़ाव..एक लगाव..एक अपनापन महसूस करने लगते हैं। ऐसा ही कुछ मुझे इस बार महसूस हुआ जब मुझे मधु चतुर्वेदी जी का प्रथम कहानी संग्रह 'मन अदहन' पढ़ने का मौका मिला। यूँ तो इस किताब को मैं कुछ महीने पहले ही मँगवा चुका था लेकिन जाने क्यों हर बार अन्य किताबों को पहले पढ़ने के चक्कर में एक मुस्कुराहट के साथ इस किताब का नम्बर आते आते रह जाता था कि इसे तो मैं आराम से..तसल्ली से पढ़ूँगा। 

अब इस लॉक डाउनीय तसल्ली में क़िताब को पढ़ने के बाद बिना किसी लाग लपेट के एक ही बात ज़हन में आयी कि..हमें अगर जानना हो कि रोज़मर्रा के जीवन में घटने वाली छोटी छोटी बातों..घटनाओं और किस्सों को बारीकी भरी नज़र से कितना विस्तृत..रोचक एवं दिलचस्प बनाते हुए लिखा जा सकता है? तो इसके लिए हमें 'मन अदहन' पढ़ना होगा। 

इस संकलन की 'बड़ी आँखों वाली' कहानी में अगर कही स्कूल कॉलेज की शरारतें एवं हूटिंग भरी चुहलवाज़ियाँ नज़र आती हैं तो कहीं इसमें संजीदगी..सम्मान और स्नेह  भरी बातें भी मज़बूती से अपनी पकड़ बनाती दिखाई देती हैं। तो वहीं अगली कहानी 'हमारी शादी' हमें नॉस्टेल्जिया में जा..वही समय फिर से जीने को मजबूर कर देती है। जिसमें पति के नाम पत्नी के पत्र के ज़रिए विवाह हेतु लड़की देखने/दिखाने ले कर शादी..बच्चे..सुख दुख..उतार चढ़ाव..नोक झोंक..मान मनौव्वल इत्यादि सहज मानवीय अभिव्यक्तियों को फिर से जिया गया है।

इस संकलन की 'पतंगबाज़ी' कहानी में खुद भी बच्चे बन, पतंगों से जुड़ी, बचपन की उन सुनहरी यादों को फिर से याद किया गया है जिनमें पेंचे लड़ाने से ले कर चरखी पकड़ने..ढील देने..मांझा बनाने..पतंग काटने/लूटने तक की हर छोटी बड़ी प्रक्रिया का सरल..सहज चित्रण मौजूद है।

'मेरी झिल्ली' कहानी जहाँ एक तरफ़ पानी की कमी एवं अन्य समस्याओं के चलते, कर्ज़ में डूबे गरीब किसानों की बात करती है जिन्हें रोज़गार की तलाश में गांवों से शहरों की तरफ पलायन करने को मजबूर होना पड़ा। तो वहॉं दूसरी तरह कहीं यह कहानी उड़ीसा..छत्तीसगढ़ के गरीब किसानों की बेबसी..त्रासदी भरे जीवन और छोटी छोटी इच्छाओं..खुशियों की बात करते करते शहरी हवा लगने से उनके रंग और औकात बदलने की बात करती है। कहीं यह कहानी तमाम विश्वास..स्नेह  एवं लाड़ प्यार के बावजूद विश्वास की कसौटी पर किसी के छले जाने की बात करती है।

'गाँव की ओर' कहानी में जहाँ एक तरफ़ अनौपचारिक वातावरण में अपनत्व से रह रहे, अजीबोगरीब नामों वाले, उन ग्रामीणों की बात है जो सहज हास्य एवं मिलनसारिता के बल पर हर किसी को अपना बना लेते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस कहानी में गाँव गुरबे की औरतों में शहर की औरतों के पहनावे..खानपान और खुलेपन के प्रति विस्मय एवं कौतूहल झलकता है। 

'बेबी दीदी की शादी' नामक कहानी में यह संकलन बड़े ही हास्यास्पद  तरीके से किसी को, संकोचवश, शुरू से आखिर तक, किसी और के ब्याह की सीडी, उसका मन ना होने के बावजूद..मन मार, देखने को मजबूर करता है। 

इस संकलन की अंतिम कहानी 'अम्मा की खाट' दादी/नानी के बच्चों  के प्रति लगाव और उन्हें सुनाई जाने वाली कहानियों से ले कर पुराने..बुज़ुर्ग लोगों के बीच खाट की ज़रूरत..महत्त्व और उससे उनके लगाव के बीच उन पर सूखने के लिए डलते पापड़ एवं बड़ियों की बात करती है।

रोचक शैली में लिखी गयी इस संकलन की कहानियाँ बीच बीच में मुस्कुराने के कई मौके देती है। उनकी रचनाओं में, माहौल के हिसाब से पात्रों की हर छोटी बड़ी हरकत एवं भाव पर बारीक नज़र रखने और उनसे पाठकों को जस का तस रूबरू करवाने के लिए लेखिका को बहुत बहुत बधाई। हालांकि पाठकीय नज़रिए से यह रचनाएँ मुझे कहानियाँ कम और संस्मरण ज़्यादा लगे।

144 पृष्ठीय इस बढ़िया संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है वैस्टलैंड पब्लिकेशंस की सहायक इकाई Eka और हिन्दयुग्म ने मिल कर और इसका दाम रखा गया है 150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशकों को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

जिन्हें जुर्म ए इश्क पर नाज़ था- पंकज सुबीर

किसी भी तथ्यपरक कहानी या उपन्यास को लिखने के लिए गहन शोध की इस हद तक आवश्यकता होती है कि तमाम तरह की शंकाओं का तसल्लीबख्श ढंग से निवारण हो सके और उन तथ्यों को ले कर उठने वाले हर तरह के सवालों का जवाब भी यथासंभव इसमें समिलित हो।

ऐसे ही गहन शोध की झलक दिखाई दी जब मैनें पढ़ने के लिए प्रसिद्ध कथाकार पंकज सुबीर जी का उपन्यास "जिन्हें जुर्म ए इश्क पर नाज़ था" उठाया। इस उपन्यास में मुख्यत: कहानी रामेश्वर और शाहनवाज़ नाम के एक शख्स  के बीच आपसी स्नेह,विश्वास एवं भाईचारे से जुड़े रिश्ते की बॉन्डिंग की है। इसमें कहानी है शाहनवाज़ के परिवार के दंगों के बीच फँस जाने और उसमें से उन्हें निकालने की जद्दोजहद में फँसे रामेश्वर की। इसमें कहानी है शाहनवाज़ की अंतिम स्टेज की गर्भवती बीवी और उसके पेट में पल रहे बच्चे के जीवन मरण की।

इसी मुख्य कहानी के इर्दगिर्द घूमती कई और कहानियों एवं घटनाओं के ज़रिए हम जान पाते हैं कि यहूदी, ईसाई एवं इस्लाम धर्म  का उद्भव एक ही जगह से हुआ और इसके मूल में लगभग एक ही कहानी थोड़े बहुत फेरबदल के साथ अलग अलग नामों से प्रचलित है। मसलन....तीनों धर्म ही अपने जनक इब्राहिम को मानते हैं जो अब्राहम और अबराम के नाम से भी जाने जाते हैं। अबराम, जो कि आदम की उनीसवीं पीढ़ी से थे। उन्हीं की आने वाली नस्लों ने ये तीनों धर्म बनाए जो आज की तारीख में एक दूसरे के खून के प्यासे हैं।

दरअसल एक धर्म से जब दूसरा धर्म पैदा होता है तो पहले वाला उसका विरोध करता है और उसे दबाने के उद्देश्य से हत्याएँ तक करता है लेकिन नया धर्म पैदा हो कर ही रहता है। अब उसके सामनें पुराने धर्म का कोई मूल्य नहीं है तो उसे समाप्त करने का प्रयास करने लगता है। इसी तरह वैदिक धर्म में की जाने वाली मूर्ति पूजा के विरोध में बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म का उद्भव हुआ और मज़े की बात ये कि आज की तारीख में इन्हीं धर्मों में मूर्ति पूजा का ज़ोर है।

इस उपन्यास के द्वारा लेखक ने दंगे के कारणों एवं दंगाइयों की मनोवृत्ति तथा मानसिकता का बहुत ही सटीक चित्रण किया गया है। जहाँ एक तरफ सरकार की कोशिश होती है कम से कम नुकसान हो, वहीं दूसरी तरफ दंगाई ज़्यादा से ज़्यादा दहशत का माहौल बनाने की फिराक में होते हैं। इस उपन्यास में लेखक ने नाथूराम गोडसे, महात्मा गाँधी तथा मोहम्मद अली जिन्ना को आभासीय रूप से पुनः प्रकट कर उनका भी अपना अपना पक्ष सामने रखा है।

उपन्यास की भाषा में अच्छी खासी रवानगी है और आपको परत दर परत नए...अनसुने तथ्य एवं जानकारियाँ मिलती रहती है, इसलिए बड़ा उपन्यास होने के बावजूद भी आराम से पढ़ा जाता है। हालांकि कुछ जगहों पर मुझे थोड़ा सा बातों का दोहराव भी लगा लेकिन मेरे ख्याल से विभिन्न संदर्भों के अलग अलग रूप में पुनः लौट आने से ऐसा हुआ होगा। 

288 पृष्ठीय इस अच्छे..संग्रहणीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसको खरीदने के लिए आपको ₹200/- का मूल्य चुकाना होगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

निशां चुनते चुनते- विवेक मिश्र

कई बार कुछ कहानियाँ आपको इस कदर भीतर तक हिला जाती हैं कि आप अपने लाख चाहने के बाद भी उनकी याद को अपने स्मृतिपटल से ओझल नहीं कर पाते हैं। ऐसी कहानियाँ सालों बाद भी आपके  ज़हन में आ, आपके मन मस्तिष्क को बार बार उद्वेलित करती हैं। ऐसी ही कुछ कहानियों को फिर से पढ़ने का मौका इस बार मुझे हमारे समय के सशक्त कहानीकार विवेक मिश्र जी की चुनिंदा कहानियों की किताब "निशां चुनते चुनते" को पढ़ने के दौरान मिला। इस संकलन में उनकी चुनी हुई 21 कहानियों को संग्रहित किया गया है। 

धाराप्रवाह लेखनशैली और आंचलिक शब्दों के साथ ग़ज़ब की पकड़  दिखाई देती है उनकी कहानियों में। इस संकलन की रचनाओं में जहाँ एक तरफ गांव देहात के किस्से पढ़ने को मिलते हैं तो वहीं दूसरी तरफ छोटे कस्बे एवं दिल्ली जैसे बड़े मेट्रो शहर भी इनकी कहानियों की जद में आने से नहीं बच पाए हैं। इनकी किसी कहानी में बीहड़...अपहरण नज़र आता है तो किसी में दस्यु समस्या और वहाँ के पुलसिया अत्याचार की रौंगटे खड़े कर देने वाली कहानी है तो किसी कहानी में दिल्ली जैसे भीड़ भाड़ वाले शहर के आपाधापी भरी ज़िन्दगी से ऊब चुके युवक को जीवन-मृत्यु और इश्क के बीच पेंडुलम पे इधर उधर ढुलकती कहानी है।

किसी कहानी में राजे रजवाड़ों के धोखे के बीच पनपती रोमानी प्रेमकथा है तो किसी कहानी में पिता के जाने के बाद जिम्मेदारी ग्रहण करने की बात है। किसी कहानी में एक छोटे बालक के ज़रिए आस्था- अनास्था का जिक्र किया गया है। किसी कहानी में लड़की के पैदा होते ही उसे नमक के घड़े में बंद कर कुएँ, तालाब या जोहड़ में डुबो कर मारने की कुरीति का प्रभावी तरीके से वर्णन है तो किसी कहानी में भ्र्ष्टाचार के झूठे आरोपों के चलते लगभग पागल हो चुके या करार दिए जा चुके व्यक्ति के दर्द को कहानी का आधार बनाया गया है। वैसे तो इस संग्रह में उनकी चुनी हुई कहानियाँ हैं लेकिन फिर भी इनमें से कुछ कहानियों ने मुझे बहुत ज़्यादा प्रभावित किया, उनके नाम इस प्रकार हैं:

•  चोर जेब
•  और गिलहरियाँ बैठ गई
•  लागी करेजवा में फांस
•  घड़ा
•  दोपहर
•  पार उतरना धीरे से
•  खण्डित प्रतिमाएं
• गुब्बारा
• हनियां
• थर्टी मिनट्स
•  दुर्गा 

192 पृष्ठीय इस उम्दा कहानियों के पेपरबैक संस्करण को छापा है डायमंड बुक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹200/- जो कहानियों के चुनाव को देखते हुए जायज़ है। अब बात करते हैं किताब की क्वालिटी की, तो इतने बड़े प्रकाशक की किताब होने के बावजूद मुझे निराशा हुई कि इसकी क्वालिटी बाइंडिंग के हिसाब से बिल्कुल भी सही नहीं लगी। क़िताब पढ़ते पढ़ते ही आधी से ज़्यादा पन्ने बाहर निकल कर मेरे हाथ में आ गए। जिन्हें मैंने फैविस्टिक से चिपकाने का प्रयास भी किया लेकिन असफल रहा।  प्रकाशक से आग्रह है कि वे क्वालिटी कंट्रोल की तरफ ज़्यादा तव्वजो दें। आने वाले सुखद  भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

नैना- संजीव पालीवाल

अगर बस चले तो अमूमन हर इनसान अपराध से जितना दूर हो सके, उतना दूर रहना चाहता है बेशक इसके पीछे की वजह को सज़ा का डर कह लें अथवा ग़लत सही की पहचान भरा हमारा विवेक। जो अपनी तरफ से हमें इन रास्तों पर चलने से रोकने का भरसक प्रयास करता है। मगर जब बात अपराध कथाओं की हो तो हर कोई इनके मोहपाश से बंधा..इनकी तरफ़ खिंचा चला आता है। भले ही वो कोई लुगदी साहित्य का तेज रफ़्तार उपन्यास हो अथवा कोई फ़िल्म या वेब सीरीज़।

उपन्यासों की अगर बात करें तो बात चाहे 'इब्ने सफी' की हो या फिर 'जेम्स हेडली चेइस' के हिंदी अनुवाद वाली किताबों की। ओमप्रकाश कंबोज, ओमप्रकाश शर्मा, वेदप्रकाश शर्मा तथा सुरेन्द्र मोहन पाठक जैसे शुद्ध हिंदी लेखकों ने इस क्षेत्र में अपने लाखों की संख्या में मुरीद बनाए। बतौर क्राइम/थ्रिलर लेखक अपने समय में इन्होंने जो मुकाम हासिल किया, वो आज भी काबिल ए तारीफ़ है। आज के समय में भी अगर वैसा ही कोई तेज़ रफ़्तार उपन्यास पढ़ने को मिल जाए तो बात ही क्या।

दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ संजीव पालीवाल जी के पहले उपन्यास 'नैना' की जो कि एक मर्डर मिस्ट्री है। पहले उपन्यास की दृष्टि से अगर देखें तो कहीं भी..किसी भी एंगल से नहीं लगता कि यह उनका पहला उपन्यास है। विषय की गहनता और उस पर किए गए शोध से साफ़ पता चलता है कि इसे ज़मीनी स्तर पर उतारने से पहले इस पर कितनी ज़्यादा मेहनत एवं गहन चिंतन किया गया है।

इस उपन्यास में मूलतः कहानी है मॉर्निंग वॉक के दौरान पार्क में अलसुबह, बेरहमी से हुए एक युवती के कत्ल की। पुलसिया तफ़्तीश से पता चलता है कि मरने वाली एक बड़े न्यूज़ चैनल की मशहूर न्यूज़ एंकर 'नैना' थी। शक के घेरे में बेरोज़गार पति समेत उसके तत्कालीन बॉस तथा एक जूनियर भी आती है और हर एक के पास उसके कत्ल की कोई ना कोई ठोस एवं वाजिब वजह मौजूद है। 

प्यार..धोखे.. फ्लर्टिंग और अवैध संबंधों के ज़रिए राजनीति के गलियारे में घुस कर यह बेहद रोचक उपन्यास कभी ब्लैकमेल तो कभी मी टू जैसे विभिन्न मुद्दों के जूझता दिखाई देता है। कहीं इसमें जलन..अहंकार और बदले जैसी भावनाएं सर उठा..अपना फन फैलाने से भी नहीं चूकती हैं। तो कहीं इसमें किसी भी कीमत पर आगे..निरंतर आगे बढ़ने की धुन में ग़लत सही की पहचान लोप होती दिखाई देती है।

किसी भी मर्डर मिस्ट्री जैसे उपन्यास में तमाम शंकाओं एवं संभावनाओं को नज़रंदाज़ किए बिना हर पहलू को बराबर की अहमियत दे कर लिखना अपने आप में दिमाग़ी तौर पर बेहद मुश्किल एवं थकाने वाला है। लेखक का इस तरह की तमाम दिक्कतों से सफलतापूर्वक बाहर निकल आना उनके भावी लेखन के प्रति नयी आशाएँ..संभावनाएं एवं अपेक्षाएं जगाने में पूरी तरह सक्षम है। 

धाराप्रवाह लेखन से सुसज्जित इस उपन्यास का कवर डिज़ायन खासा आकर्षक एवं उत्सुकता जगाने वाला है। एक आध जगह वर्तनी की छोटी मोटी त्रुटि दिखाई दी। 266 पृष्ठीय इस उम्दा उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है वेस्टलैंड पब्लिकेशंस की सहायक कम्पनी Eka ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।
 
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