निशां चुनते चुनते- विवेक मिश्र

कई बार कुछ कहानियाँ आपको इस कदर भीतर तक हिला जाती हैं कि आप अपने लाख चाहने के बाद भी उनकी याद को अपने स्मृतिपटल से ओझल नहीं कर पाते हैं। ऐसी कहानियाँ सालों बाद भी आपके  ज़हन में आ, आपके मन मस्तिष्क को बार बार उद्वेलित करती हैं। ऐसी ही कुछ कहानियों को फिर से पढ़ने का मौका इस बार मुझे हमारे समय के सशक्त कहानीकार विवेक मिश्र जी की चुनिंदा कहानियों की किताब "निशां चुनते चुनते" को पढ़ने के दौरान मिला। इस संकलन में उनकी चुनी हुई 21 कहानियों को संग्रहित किया गया है। 

धाराप्रवाह लेखनशैली और आंचलिक शब्दों के साथ ग़ज़ब की पकड़  दिखाई देती है उनकी कहानियों में। इस संकलन की रचनाओं में जहाँ एक तरफ गांव देहात के किस्से पढ़ने को मिलते हैं तो वहीं दूसरी तरफ छोटे कस्बे एवं दिल्ली जैसे बड़े मेट्रो शहर भी इनकी कहानियों की जद में आने से नहीं बच पाए हैं। इनकी किसी कहानी में बीहड़...अपहरण नज़र आता है तो किसी में दस्यु समस्या और वहाँ के पुलसिया अत्याचार की रौंगटे खड़े कर देने वाली कहानी है तो किसी कहानी में दिल्ली जैसे भीड़ भाड़ वाले शहर के आपाधापी भरी ज़िन्दगी से ऊब चुके युवक को जीवन-मृत्यु और इश्क के बीच पेंडुलम पे इधर उधर ढुलकती कहानी है।

किसी कहानी में राजे रजवाड़ों के धोखे के बीच पनपती रोमानी प्रेमकथा है तो किसी कहानी में पिता के जाने के बाद जिम्मेदारी ग्रहण करने की बात है। किसी कहानी में एक छोटे बालक के ज़रिए आस्था- अनास्था का जिक्र किया गया है। किसी कहानी में लड़की के पैदा होते ही उसे नमक के घड़े में बंद कर कुएँ, तालाब या जोहड़ में डुबो कर मारने की कुरीति का प्रभावी तरीके से वर्णन है तो किसी कहानी में भ्र्ष्टाचार के झूठे आरोपों के चलते लगभग पागल हो चुके या करार दिए जा चुके व्यक्ति के दर्द को कहानी का आधार बनाया गया है। वैसे तो इस संग्रह में उनकी चुनी हुई कहानियाँ हैं लेकिन फिर भी इनमें से कुछ कहानियों ने मुझे बहुत ज़्यादा प्रभावित किया, उनके नाम इस प्रकार हैं:

•  चोर जेब
•  और गिलहरियाँ बैठ गई
•  लागी करेजवा में फांस
•  घड़ा
•  दोपहर
•  पार उतरना धीरे से
•  खण्डित प्रतिमाएं
• गुब्बारा
• हनियां
• थर्टी मिनट्स
•  दुर्गा 

192 पृष्ठीय इस उम्दा कहानियों के पेपरबैक संस्करण को छापा है डायमंड बुक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹200/- जो कहानियों के चुनाव को देखते हुए जायज़ है। अब बात करते हैं किताब की क्वालिटी की, तो इतने बड़े प्रकाशक की किताब होने के बावजूद मुझे निराशा हुई कि इसकी क्वालिटी बाइंडिंग के हिसाब से बिल्कुल भी सही नहीं लगी। क़िताब पढ़ते पढ़ते ही आधी से ज़्यादा पन्ने बाहर निकल कर मेरे हाथ में आ गए। जिन्हें मैंने फैविस्टिक से चिपकाने का प्रयास भी किया लेकिन असफल रहा।  प्रकाशक से आग्रह है कि वे क्वालिटी कंट्रोल की तरफ ज़्यादा तव्वजो दें। आने वाले सुखद  भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

1 comments:

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

पुस्तक रोचक लग रही है।

 
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