ये आम रास्ता नहीं- रजनी गुप्त

आम रोज़मर्रा के जीवन से ले कर कला तक के हर क्षेत्र में हम सभी अपने मन में उमड़ते घुमड़ते विचारों को बाहर लाने के लिए अपनी रुचि एवं स्वभाव के हिसाब से कोई ना कोई तरीका अपनाते है।  भले ही कोई उन्हें चित्रकारी के ज़रिए मनमोहक  चित्र बना कर तो कोई उन्हें अपनी वाकपटुता के बल पर लच्छेदार तरीके से बोल बतिया कर व्यक्त करता है। कोई उन्हें अपने दमदार..संजीदा अभिनय के ज़रिए तो कोई अपनी लेखनी के ज़रिए अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करता है। 

अब अगर मैं खुद अपनी बात करूँ तो मैं सामाजिक..राजनैतिक विसंगतियों के प्रति अपने मन में उमड़ रही..आक्रोश रूपी गहन भड़ास को व्यंग्यात्मक रचनाओं के ज़रिए लिख कर व्यक्त करता हूँ। 

दोस्तों..आज मैं राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति, उनके संघर्ष..उनकी सफ़लता से जुड़े उपन्यास 'ये आम रास्ता नहीं' की बात कर रहा हूँ। जो कमोबेश मेरी ही शैली याने के मन की भड़ास के शब्दों के रूप में प्रस्फुटित होने के परिणामस्वरूप वजूद में आया है। इस उपन्यास को लिखा है हमारे समय की प्रसिद्ध लेखिका रजनी गुप्त जी ने। 

राजनीति के क्षेत्र में स्त्रियों की दशा और दिशा पर केंद्रित इस उपन्यास में पिछड़े वर्ग से आने वाली उस मृदु की कहानी है जो सुन्दर..कमनीय और ईमानदार होने के साथ साथ अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत एवं सजग भी है। मगर वह पुरुषों के वर्चस्व वाले एक ऐसे रास्ते पर चल रही है या चलना चाहती है जहाँ से सफ़लता की हर सीढ़ी उसे किसी ना किसी के बिस्तर से गुज़र कर ही प्राप्त होनी है।

इस उपन्यास के मूल में कहानी है मृदु के पारिवारिक..सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन में आने वाले तमाम उतार चढ़ाव की। इसमें कहानी है उस मृदु की जिसे उसके पति ने ही, हर दिन बढ़ती अपनी इच्छाओं..महत्त्वाकांक्षाओं की बलिवेदी पर, कभी बड़े अफ़सरों के आगे तो कभी छुटभैये नेताओं के आगे चारा बना..परोसने से भी गुरेज़ नहीं किया। इस उपन्यास में कहानी है शक और कुंठा का शिकार हो चुके पति के अपनी ही औलादों को साजिशन उनकी माँ के ख़िलाफ़ भड़काने..बरगलाने की। इसमें कहानी है कामयाब स्त्री की सफ़लता से जलने..उसको ना पचा पाने वाले हताश पति समेत सभी सहयोगियों एवं  सहकर्मियों के असहयोगपूर्ण रवैये की।

कम शब्दों में अगर कहें तो इसमें कहानी है उस मृदु की जो अपने काम..अपनी योग्यता..अपनी लगन के बल पर औरों सीढ़ी बना आगे बढ़ती चली गयी और एक दिन आसमान छूने के प्रयास में औंधे मुँह धड़ाम से नीचे ज़मीन पर आ गिरी। 

प्रभावी संवादों से लैस इस उपन्यास की भाषा में ख़ासी रवानी है। शब्द सहज..सरस ढंग से बहते हुए से पाठक को अपनी रौ में बहाए ले चलते हैं। कभी यादों के सहारे तो कभी फ्लैशबैक के ज़रिए कहानी अपने दबे पत्तों को शनैः शनैः खोलते हुए आगे बढ़ती है मगर एक बड़ी कमी के रूप में उपन्यास का एक बड़ा हिस्सा पात्रों के बजाय लेखिका की ही ज़बान बोलता प्रतीत होता है। 

लगभग एकालाप शैली में पहले से तय किए गए एजेंडे..सोच एवं निर्णय के अनुसार कुछ गिनीचुनी चुनिंदा बातों के घूम फिर कर बार बार आने से उपन्यास एकरसता की परिपाटी पर चलता हुआ कुछ समय बाद थोड़ा बोझिल एवं उकताहट पैदा करने वाला लगने लगता है। विषय के हिसाब से कहानी में और अधिक ट्विस्ट्स एण्ड टर्न्स होते तो ज़्यादा बेहतर था। 

वाजिब जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग नहीं होना खला और कुछ जगहों पर वाक्य टूटते तथा कुछ जगहों पर गडमड हो..भ्रमित होते दिखाई दिए।  इसके अतिरिक्त कुछ जगहों पर वर्तनी की त्रुटियाँ दिखाई दीं जैसे...

परवा- परवाह
आदी- आदि 
खचुरता- खुरचता
फ्लश लाइट्स- फ्लैश लाइट्स
सचाई- सच्चाई
कोर्ट कचेरी- कोर्ट कचहरी 

* पेज नंबर 17 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"अनुज अपनी माँ की भोली-भाली बातों से भ्रमित हो जाता।"

जबकि यहाँ पर उसे पिता की भोली भाली बातों से भ्रमित होना है। 

*पेज नंबर 141 के शुरू में लिखा दिखाई दिया कि..

"ऊपर से कैसे-कैसे घटिया किस्म के सवाल पूछे जाते हैं उससे। देखा वह रहा कुंजू का घर।

दोनों उन कच्ची पगडंडियों को पार करती हुई इधर उधर के लोगों से पूछती पाछती उसके घर जा पहुँची।"

अब पहली पंक्ति में वह खुद इशारा कर रही हैं कि.. 'वह रहा कुंजू का घर।' उसके बाद अगली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'वह इधर-उधर लोगों से पूछ पाछ के उसके घर तक जा पहुँची हैं।'

 अब जिस चीज़ का पहले से पता है उसके लिए पूछने की क्या जरूरत है?

• इसी तरह पेज नंबर 143 पर दिखा दिखाई दिया कि..

"उसके मजबूत इरादे और दबंग बोल सुनकर मृदु के चेहरे पर छाया तनाव कम हुआ। वह अन्दर से पानी भरे दो गिलास और दो प्यालियों में चाय ले आई।"

अब यहाँ सवाल यह उठता है कि मृदु उस घर में उस लड़की से मिलने आई थी जिसका बलात्कार हुआ था। ऐसे में किसी और के घर में पहली बार जाने के बाद बाहर से आने वाला व्यक्ति कैसे..किसी की रसोई में घुस कर पानी और चाय लेकर आ सकता है?

वाणी प्रकाशन से प्रकाशित इस 152 पृष्ठीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण का मूल्य 150/- रुपए है। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

1 comments:

Onkar Singh 'Vivek' said...

अच्छी समीक्षा

 
Copyright © 2009. हँसते रहो All Rights Reserved. | Post RSS | Comments RSS | Design maintain by: Shah Nawaz