कोस कोस शब्दकोश- राकेश कायस्थ

जब भी हम समाज में कुछ अच्छा या बुरा घटते हुए देखते हैं तो उस पर..उस कार्य के हिसाब से हम अपनी अच्छी-बुरी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं या फिर करना चाहते हैं। अब अगर कभी किसी के अच्छे काम की सराहना की जाए तो जिसकी वो सराहना की जा रही है, वह व्यक्ति खुश हो जाता है। मगर इससे ठीक उलट अगर किसी के ग़लत काम की बुराई करनी हो तो या तो हम पीठ पीछे उसकी बुराई कर उससे झगड़ा मोल ले लेंगे या फिर ऐसा कुछ भी करने से गुरेज़ करेंगे कि..खामख्वाह पंगा कौन मोल ले? लेकिन जब आपका मंतव्य किसी की पीठ पीछे नहीं बल्कि उसके सामने ही उसकी बुराई करने का हो तो व्यंग्यात्मक शैली का इस्तेमाल किया जाना ही सबसे उत्तम और श्रेष्ठ रहता है। 

व्यंग्यात्मक तरीके से अपनी बात कहने से सामने वाला भी समझ जाता है कि उसे ही परोक्ष रूप से निशाना बनाया जा रहा है मगर चूंकि वह बात उसे सीधे सीधे ना कह कर हँसी मज़ाक में घुमा फिरा कर कही जा रही है तो प्रत्यक्ष में वह व्यक्ति चाहते हुए भी अपना क्षोभ नहीं जता पाता। दोस्तों..आज मैं व्यंग्य से जुड़ी बातें इसलिए कर रहा हूँ कि आज मैं राकेश कायस्त के व्यंग्य संग्रह 'कोस-कोस शब्दकोश' के बारे में बात करने जा रहा हूँ। 

अपने इस व्यंग्य संकलन के ज़रिए कहीं वे सरकारी दफ़्तरों में व्याप्त लालफीताशाही को निशाना बनाते नज़र आते हैं तो कहीं देश के अवसरवादी राजनीतिज्ञों पर अपनी कलम से प्रहार करते दिखाई देते हैं। कहीं वेन अन्ना आंदोलन से ले कर कागज़ी लोकपाल बिल तक की धज्जियाँ उड़ाते नज़र आते हैं। कहीं वे आम आदमी और जन समाज से जुड़े उल्लेखनीय मुद्दों पर बात करते नज़र आते हैं। उनके लिखे व्यंग्यों को पढ़ कर आसानी से जाना जा सकता है कि वे अपने आसपास के माहौल एवं घट रही राजनैतिक गतिविधियों इत्यादि पर ग़हरी एवं सजग नज़र रखने के साथ साथ हास्य में भी ख़ासा दख़ल रखते हैं। 

इसी संकलन में जहाँ एक तरफ़ सरकारी एवं प्राइवेट कंपनियों के बड़े अफ़सरों पर याने के बॉस पर गहरे कटाक्ष होते नज़र आते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी अन्य व्यंग्य रचना में ठोस कार्यों के बजाय महज़ मीटिंगों में समय..पैसा व्यर्थ करने की बन चुकी संस्कृति या फिर आदतों पर गहरा तंज कसा जाता दिखाई देता है। इसी संकलन में जहाँ एक तरफ़ मूर्खता का महिमामंडन..यशोगान होता दिखाई देता है तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी अन्य व्यंग्य रचना में किसी भी काम को ना करने या उसके करने को ले कर टालमटोल करने के लिए ही 'विकल्प खुले हैं' नामक वाक्य की रचना होती दिखाई देती है।

इसी संकलन में कहीं हमारी संसदीय प्रणाली एवं उसकी बेहद लचर कार्यशैली पर सवाल उठता दिखाई देता है तो कहीं सांसदों के चुने जाने की प्रक्रिया से ले कर उनके उज्जड बर्ताव पर गहरा कटाक्ष होता नज़र आता है। कहीं संसद की कैंटीन के उम्दा खाने की बेहद कम कीमतों को ले कर तंज कसा जाता दिखाई देता है। तो कहीं अन्ना आंदोलन के वक्त उनकी लोकपाल की मांग के धराशायी होने को ले कर होता हुआ तंज अन्ना हज़ारे..कांग्रेस..भाजपा समेत केजरीवाल तक को अपने चपेट में लेता दिखाई देता है। 

इसी संकलन में कहीं अंतरात्मा की आवाज़ के नाम पर सभी ग़लत कामों को जायज़..पाक..साफ़ बताया जाता नज़र आता है तो कहीं अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए दंगे करवाने वालों और उनमें शामिल होने वालों के मंतव्यों को ले कर उन पर गहरा..तीखा तंज कसा जाता दिखाई देता है। इसी किताब में कहीं नौकरी और उसकी प्रकृति को ले कर बहुत ही मज़ेदार व्यंग्य पढ़ने को मिलता है तो कहीं हमारे देश में हिंदी को हो रही दुर्दशा को ले कर गहरा कटाक्ष किया जाता नज़र आता है। कहीं आम के बहाने आम आदमी की बेचारगी से होते हुए केजरीवाल समेत राज और उद्धव ठाकरे पर तंज कसा जाता दिखाई देता है। तो कहीं एक अन्य व्यंग्य रचना में कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन में हुए घपलों को ले कर गहरा ..मारक तंज कसा जाता दिखाई देता है।

इसी संकलन के किसी अन्य व्यंग्य में उधार लेने वालों और उधार देने वालों की दशा..मनोदशा के बारे में विचार किया जाता दिखाई देता है तो किसी अन्य व्यंग्य में जगह जगह खुले शराब के वैध अवैध ठेकों के औचित्य पर चिंतन होता दिखाई देता है। इसी किताब के किसी अन्य व्यंग्य में सोशल मीडिया के तगड़े औज़ार याने के फेसबुक के लाइक्स/फ़ॉलोअर्स के पीछे पागल हो रही दुनिया पर तंज कसा जाता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य व्यंग्य में जहाँ एक तरफ़ भव्य राम मंदिर निर्माण की वैतरणी  पर भाजपा की नैय्या पर लगती दिखाई देती है तो वहीं दूसरी तरफ़ सुखद बुढ़ापे की चाह में तेल पिला पिला कर मज़बूत की गयी लाठी अब अपने संभालने वाले को ही आँखें दिखाती नज़र आती है। इसी संकलन की एक अन्य रचना जहाँ एक तरफ़ हमारे देश के निरपेक्षता के सिद्धांत की धज्जियाँ उड़ा..गुटनिरपेक्षता और धर्मनिरपेक्षता  को अपने लपेटे में लेती नज़र आती है तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य रचना में गठबंधन सरकार की गति..दुर्गति का मज़ेदार विवरण पढ़ने को मिलता है। 

इसी संकलन की एक अन्य रचना जहाँ एक तरफ़ बेटी और बेटे में फ़र्क ना करने की सीख देने के साथ साथ बेटे की चाह में भ्रूण जाँच और गर्भपात के ज़रिए होते बेटियों के कत्ल जैसी कुत्सित सोच एवं मानसिकता पर गहरा तंज कसती नज़र आती है। तो वहीं दूसरी एक अन्य व्यंग्य साझा न्यूनतम कार्यक्रम के तहत मिल बाँट कर खाने की हिमाकत भरी हिमायत करता नज़र आता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य व्यंग्य दाग़ी नेताओं को मंत्रिमंडल में लिए जाने के चलन पर कटाक्ष करता दिखाई देता है।

इसी संकलन के एक अन्य व्यंग्य में जहाँ एक तरफ़ भारतीय राजनीतिज्ञों की हास्यास्पद बातों से ले कर अलग अलग मौकों के हिसाब से बदलती उनकी हँसी की किस्म की बात की जाती दिखाई देती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य मज़ेदार व्यंग्य में मानहानि का फंडा परत दर परत उधड़ता..खुलता दिखाई देता है। इसी संकलन में कहीं आसाराम बापू और भगवान के बीच मज़ेदार वार्तालाप होता नज़र आता है। तो कहीं जुर्म करने के बाद पकड़े जाने पर प्रायश्चित करने की बात कह सज़ा से बचने की बात होती नज़र आती है। 

इसी संकलन के किसी अन्य व्यंग्य में चुक चुके नेताओं का मोल रद्दी के भाव आंका जाता नज़र आता है तो किसी अन्य मज़ेदार व्यंग्य में 'किस ऑफ लव' जैसे सार्वजनिक चुंबन कार्यक्रमों के बहाने से रिचर्ड गेर- शिल्पा शेट्टी और राखी सावंत- मिक्का(मीका) के विवादों सहित कई अन्य चुंबन विवादों की बात की जाती नज़र आती है। इसी संकलन के एक अन्य रोचक व्यंग्य में लेखक पुस्तक विमोचन की पूरी प्रक्रिया की बखिया उधेड़ता नज़र आता है। तो एक अन्य व्यंग्य में लेखक परोपकार के अजब गज़ब फंडों से अपने पाठकों को रूबरू करवाता दिखाई देता है।

 इसी संकलन का एक अन्य व्यंग्य जहाँ एक तरफ़ कांग्रेस और भाजपा के चुनावी वादों, फ़ूड बिल और शौचालयों, की बात करता दिखाई देता है कि आम जनता के लिए पहले पेट भरना ज़रूरी या फिर पेट खाली करना? तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य व्यंग्य में अच्छे दिनों के चाहत में अपना वोट गंवा बैठी जनता अब प्रत्यक्षतः देख रही है कि सचमुच में अच्छे दिन तो उन्हीं के आए हैं जिन्होंने उन्हें अच्छे दिनों का झुनझुना थमाया था।

इसी संकलन के एक अन्य व्यंग्य में जहाँ एक तरफ़ सिनेमाघरों में राष्ट्रगान कंपलसरी करने के आदेश पर लेखक उस वक्त दुविधा में फँसता दिखाई देता है जब सिनेमाघर में राष्ट्रगान से पहले बोल्ड फ़िल्म का ट्रेलर और राष्ट्रगान के एकदम बाद देसी गालियों की बरसात करती एक रियलिस्टिक फ़िल्म शुरू होती है। 

आमतौर पर बहुत से व्यंग्यकारों को मैंने एक ही व्यंग्य में विषय से अलग हट कर भटकते हुए देखा है मगर राकेश कायस्थ जी इस मामले में अपवाद सिद्ध हुए हैं। वे अपने प्रत्येक व्यंग्य में शुरू से ही अपने विषय को पकड़ कर चले हैं। इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं। 

मज़ेदार शैली में लिखे गए इस उम्दा व्यंग्य संकलन में कुछ एक जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ ग़लतियाँ दिखी। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस किताब के आने वाले संस्करणों में इस तरह की कमियों से बचा जाएगा। 


** पेज नंबर 25 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'जनता दुखी होती है कि सांसद छप्पन भोग उड़ाते हैं और उन्हें हमें दो जून के लाले हैं।'

इस वाक्य में 'और उन्हें हमें दो जून के लाले हैं की जगह 'और हमें दो जून के लाले हैं' आएगा।

पेज नंबर 30 पर लिखा दिखाई दिया कि...

'लेकिन अंतरात्मा ना तो मेल करती है, ट्वीट ना एसएमएस।'

यहाँ 'ट्वीट ना एसएमएस' की जगह 'ना ट्वीट ना एसएमएस' आएगा। 

पेज नंबर 39 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'दरोगा जी काम डंडे खिलाने का रहा होगा।'

यहाँ 'दरोगा जी काम' की जगह 'दरोगा जी का काम' आएगा। 

पेज नम्बर 84 पर लिखा दिखाई दिया कि...

'आखिर कौन है, जो आपको डरा है?'

इस वाक्य में 'जो आपको डरा है' की जगह 'जो आपको डरा रहा है' आएगा। 

पेज नंबर 88 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'शिशु के पोपले में मुँह एक भी दांत नहीं है।'

यहाँ 'पोपले में मुँह' की जगह 'पोपले मुँह में' आएगा। 

पेज नम्बर 94 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'हे नारायण! तुम कहा हो?'

यहाँ 'तुम कहा हो' की जगह 'तुम कहाँ हो' आएगा। 


पेज नंबर 102 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'प्रधानमंत्री की कुर्सी गई तो देवेगौड़ा कर्नाटक की लोकल पॉलिटिक्स में सक्रिय गए।'

यहाँ 'पॉलिटिक्स में सक्रिय गए' की जगह 'पॉलिटिक्स में सक्रिय हो गए' आएगा। 

पेज नंबर 105 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'यह बेहद दृश्य उत्तेजक और अश्लील हैं' 

यहाँ 'यह बेहद दृश्य उत्तेजक और अश्लील हैं' की जगह 'यह दृश्य बेहद उत्तेजक और अश्लील है' आएगा। 

पेज नंबर 108 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'परंपरागत विवाह समारोह में दिखाई देने वाले लड़की की बाप की तरह जिसे पंडित से लेकर हलवाई तक सब का इंतजाम करना पड़ता है।'

इस वाक्य में 'लड़की की बाप की तरह' की जगह 'लड़की के बाप की तरह' आएगा। 


पेज नंबर 137 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'कई लोग ऐसे हैं, जो कचरा उठाने की तैयारी कर रही रहे होते हैं कि मोबाइल की बैटरी टें बोल जाती है।' 

यहाँ 'कचरा उठाने की तैयारी कर रही रहे होते हैं' की जगह 'कचरा उठाने की तैयारी कर रहे होते हैं' आएगा। 


पेज नंबर 138 पर लिखा दिखाई दिया कि...

'2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी यह कह सकता है कि'

यहाँ 'बीजेपी यह कह सकता है' की जगह 'बीजेपी यह कह सकती है' आएगा।

पेज नंबर 144 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'दिल का रास्ता पेट से हो कर जाता है, मुहावरा इंसानों ने हमारी की खातिर ही इजाद किया है।'

यहाँ 'मुहावरा इंसानों ने हमारी की खातिर ही इजाद किया है' की जगह 'मुहावरा इंसानों ने हमारी ही खातिर इज़ाद किया है' आएगा। 

*जाये- जाए
*फीलगुड़- फीलगुड
*बाटोगे- बाँटोगे
*कूड़- कूड़ा


144 पृष्ठीय इस मज़ेदार व्यंग्य संकलन को छापा है हिन्दयुग्म ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 100 रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही कम है। किंडल अनलिमिटेड के सब्सक्राइबर्स के लिए यह फ्री में उपलब्ध है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

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