अधूरा..अव्यक्त किंतु शाश्वत- पराग डिमरी


कई बार जब हमें किसी नए लेखक का लेखन पढ़ने को मिलता है तो उस लेखक की शाब्दिक एवं विषय के चुनाव को ले कर समझ के साथ साथ वाक्य सरंचना के प्रति उसकी काबिलियत पर भी बरबस ध्यान चला जाता है। ऐसे में अगर किसी लेखक का लेखन आपको उसका लिखा पढ़ने के लिए बार बार उकसाए अथवा किताब को जल्द से जल्द पढ़ कर खत्म करने के लिए उत्साहित करे तो समझिए उस लेखक का लेखन सफ़ल है। 

दोस्तों..आज मैं ऐसे ही एक लेखक पराग डिमरी के कहानी संकलन "अधूरा..अव्यक्त किंतु शाश्वत" की बात करने जा रहा हूँ। इसी संकलन की एक कहानी में सुदूर ग्रामीण इलाके में बतौर शिक्षक नियुक्त एक युवक का आभासी दुनिया के ज़रिए अपने से दो साल बड़ी विवाहित युवती से इस हद तक लगाव हो जाता है कि वह उसके साथ जीने मरने तक की सोचने लगता है। अब देखना ये है कि मन ही मन उसे चाहने वाली वह युवती क्या अपने दुखी दांपत्य जीवन से बाहर निकल उसका साथ निभा पाएगी अथवा नहीं? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि जहाँ अपने सगे काम नहीं आते..वहाँ पराए..अपनों से भी बढ़ कर साथ निभा जाते हैं। जिसमें जहाँ एक तरफ़ रिटायर हो चुके बुज़ुर्ग की अंत्येष्टि में शामिल ना हो पाने की उसकी अपनी बेटी और बेटे की अपनी अपनी मजबूरियाँ हैं। वहीं एक चाय वाला उनका कुछ ना होते हुए भी उनके सगे बेटे की तरह उनके सब संस्कार पूरे करता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी संकलन की एक अन्य रचना में बेहद गर्मी और उमस भरे माहौल में पैदल 15 किलोमीटर दूर नदी में कूद कर आत्महत्या करने जा रहे युवक की एक अन्य बहुत ही अजब गज़ब तरीके से मदद करता दिखाई देता है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ निजी कंपनी में बतौर सेक्रेटरी नियुक्त हुई एक ऐसी मध्यमवर्गीय खूबसूरत युवती, सौम्या की बात करती है जो पैसे..पद..ओहदे..रुतबे और ऐशोआराम की चाह में अपने रूपजाल में अपने बॉस मयंक को फँसा बहुत जल्द ही कम्पनी में डायरेक्टर की कुर्सी पर काबिज हो जाती है। बिना सोचे समझे अनाप शनाप पैसा उड़ाने और मयंक के नौसिखिए होने के कारण बेशुमार कर्ज़ों के साथ अब कम्पनी दिवालिया होने की कगार पर तैयार खड़ी है। इस बुरी हालत के लिए एक दूसरे को ज़िम्मेदार मानने वाले दोनों अब एक दूसरे से छुटकारा पाना चाह तो रहे हैं मगर...

तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में भीड़ भरी मेट्रो में सफ़र के दौरान अचानक हुई मुलाक़ात उन दोनों की औपचारिक बातचीत से शुरू हो कर पहले दोस्ती और फिर लगाव की सीढ़ी चढ़ते हुए आपसी नज़दीकी तक जा पहुँचती है। दोनों के परिवार वाले भी दोनों को एक साथ देख कर खुश हैं मगर उन दोनों की किस्मत में तो ऊपरवाला कुछ और ही लिख कर बैठा है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में पंद्रह साल  पहले रूममेट्स रह चुकी दो सहेलियों का जब फिर से एक रेस्टोरेंट में मिलने का प्लान बनता है। तो उनमें से एक अपराधबोध से ग्रसित हो स्वीकार करती है कि उसकी चालबाज़ियों की वजह से ही उसके बॉयफ्रेंड ने उसे छोड़ उससे शादी कर ली थी। ऐसे में अब देखना ये है कि अब इस स्वीकारोक्ति के बाद भी क्या उनके रिश्ते की गरमाहट बची रह पाएगी अथवा नफ़रत की आग में सब कुछ स्वाहा हो जाएगा? इसी संकलन की एक अन्य महत्त्वपूर्ण रचना में लेखक अपनी कल्पना और  सच्चाई के मिश्रण से बॉलीवुड का वह समय फिर से रचता दिखाई देता है जिसमें प्रसिद्ध संगीत निर्देशक ओ. पी. नैय्यर और पाश्र्व गायिका आशा भोंसले में अच्छी खासी अनबन चल रही थी।

आमतौर पर देखा गया है कि आजकल बहुत से लेखक वाक्य सरंचना करते हुए स्त्रीलिंग एवं पुल्लिंग में तथा एकवचन और बहुवचन में भेद नहीं कर पाते हैं। ऐसी ही कमियाँ इस संकलन में भी दिखाई दीं। समाज में चल रहे विभिन्न मुद्दों को ले कर रची गयी इस संकलन की कहानियों में वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग के स्तर पर काफ़ी कमियाँ दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 53 से शुरू अंतिम वाक्य में, जो कि अगले पेज पर भी गया, लिखा दिखाई दिया कि..

'उसका चौड़ा सपाट' शक्तिशाली बाहें, बालों भरा बलिष्ठ सीना, उसे बहुत ललचाती भड़काती थी।'

यह वाक्य बिल्कुल भी सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'शक्तिशाली बाहों वाला उसका चौड़ा सपाट सीना उसे बहुत ललचाता एवं भड़काता था।'

यहाँ किताब के मूल वाक्य में एक और अंतर्विरोध नज़र आया कि एक तरफ़ कहा जा रहा है कि..'चौड़ा सपाट सीना' और दूसरी तरफ़ उसे बालों से भरा याने के बाल रूपी अवरोधों से भरा बताया जा रहा है। 

इसके बाद पेज नंबर 77 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'ऐसे कमेंट भी आने लगे "परफेक्ट कपल",  "एक जिस्म दो जान"

असली कहावत "एक जिस्म दो जान" नहीं है और ना ही बिना किसी कुदरती ग़लती के ऐसा हो पाना संभव है। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

"दो जिस्म एक जान"

इसी पेज की अंतिम पंक्ति जो कि अगले पेज पर भी गयी में भी यही "एक जिस्म दो जान" वाली ग़लती फिर से दोहराई जाती दिखाई दी।

इसके अतिरिक्त पेज नंबर 118 और पेज नंबर 119 में प्रसिद्ध संगीतकार ओपी नय्यर एवं आशा भोसले से जुड़े एक संस्मरण में लेखक बताते हैं कि निम्नलिखित प्रसिद्ध इस जोड़ी का आखिरी गीत था।

"चैन से हमको कभी,
आपने जीने ना दिया
ज़हर भी चाहा अगर, पीना 
तो पीने ना दिया"

इसके बाद दोनों में अनबन हो गयी और इस गीत को प्रसिद्ध फिल्मफेयर पुरस्कार मिलने के बावजूद भी इसे आशा भोंसले ने ग्रहण नहीं किया तो मंच पर जा कर ओ.पी नैय्यर ने इस पुरस्कार को ग्रहण किया और वहाँ से घर की तरफ़ लौटते हुए कार की खिड़की से बाहर सुनसान सड़क पर उछाल कर फेंक दिया। एक अन्य धारणा यह भी है कि उन्होंने इसे सड़क पर नहीं बल्कि समुद्र की लहरों के हवाले कर दिया था। 

खैर अब बात असली मुद्दे की तो इसके बाद लेखक लिखते हैं कि..

'वैसे भी नदी की नियति समुन्दर में जा कर मिलने की ही तो होती है।' 

अब सवाल यह उठता है कि ओ.पी नैय्यर ने या तो कार से अपने घर जाते हुए पुरस्कार को सड़क पर फेंका अथवा उसे समुन्दर में फैंका लेकिन उपरोक्त वाक्य में लेखक बेध्यानी में नदी का जिक्र अपने वाक्य में कर गए हैं। 

उम्मीद है कि इस तरह की त्रुटियों को लेखक अपनी अगली किताब एवं इसी किताब के आगमो संस्करण में दूर करने का प्रयास करेंगे। 

यूं तो यह कहानी संकलन मुझे लेखक की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूंगा कि 127 पृष्ठीय इस कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है सन्मति पब्लिशर्स में और इसका मूल्य रखा गया है 140/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 

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