नक़्क़ाशीदार कैबिनेट- सुधा ओम ढींगरा

अपनी सहज मनोवृति के चलते हर लेखक चाहता है कि उसकी किताब ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक असरदार ढंग से पहुँचे। किताबों की बेइंतिहा भीड़ में उसे पाठकों की ज़्यादा से ज़्यादा तवज्जो..ज़्यादा से ज़्यादा आत्मिकता..ज़्यादा से ज़्यादा स्नेह मिले। अपने मुनाफ़े को देखते हुए ठीक इसी तरह की ख्वाहिश रखते हुए प्रकाशक भी चाहते हैं कि उनकी किताब दूर-दूर तक और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचे। 

इसी वजह कई बार लेखक एवं प्रकाशक अपनी किताबों को कभी समीक्षा के मकसद से तो कभी अन्य मित्रों इत्यादि को उपहार स्वरूप भेंट कर खुश हो लेते हैं कि इससे उनके भावी पाठकों/ग्राहकों की संख्या में अच्छा खासा इज़ाफ़ा होगा। मगर उसके बाद उन किताबों की गति उस पाठक(?) के पास पहुँच कर क्या होती है? इसे बस 'बन्दर के हाथ उस्तरा' वाली कहावत के आधार पर राम भरोसे छोड़ दिया जाता है कि अब उसकी मर्ज़ी चाहे इस तरह पेश आए या फिर उस तरह। 

 ऐसे में जब उसी लेखक या प्रकाशक को आने वाले समय में किसी तरीके से पता चलता है कि उसकी किताबें किसी फलाने फलाने कबाड़ी के पास तौल के भाव धक्के खा रही है। तो आप खुद ही अनुमान लगा सकते हैं कि उस बेचारे लेखक या प्रकाशक पर क्या बीतती होगी? ऐसा नवांगतुक लेखकों के साथ ही नहीं बल्कि प्रतिष्ठित..पुराने एवं जमे हुए स्थापित लेखकों के साथ भी होता है।

इन सब बातों का जिक्र यहाँ. इस समीक्षा में इसलिए कि लगभग तीन महीने पहले मुझे दिल्ली के दरियागंज इलाके में प्रसिद्ध लेखिका सुधा ओम ढींगरा का लगभग मिंट कंडीशन वाला उपन्यास 'नक़्क़ाशीदार कैबिनेट' महज़ 40 रुपए में मिला। जिसे लेखिका या फिर प्रकाशक ने बड़े चाव से कोलकाता की किसी लाइब्रेरी को उपहारस्वरूप भेंट किया था। 

खैर..अब बात करते हैं उपन्यास की तो इसमें कहानी है विकसित अमेरिका में अक्सर आने वाले तूफ़ानों और उनसे होने वाले जान माल के भारी नुकसान की। इसमें बात है उन तूफ़ानों से लड़ने वाले लोगों की हिम्मत भरी जिजीविषा की। इसमें बात है जाति.. धर्म और स्टेटस को भूल..आपसी भाईचारे और सोहाद्र की।

इस उपन्यास के मूल में कहानी है पंजाब के गांवों और नशे की गिरफ्त में कैद होते वहाँ के युवाओं की। इसमें बात है बेरोज़गारी के चलते प्रलोभन वश युवाओं के आतंकी बन..यहाँ वहाँ.. हर जगह क़हर बरपाने की। इसमें बात है फ़र्ज़ी शादियों के ज़रिए भोली भाली लड़कियों को विदेश ले जा..जबरन ड्रग और देहव्यापार में धकेलते माफ़िया की।

इसमें बात है लालच..लंपटता और आपसी द्वेष के बीच जूझती सोनल की। उस सोनल की, जिसका ननिहाल ही लालचवश उसके खानदान का सर्वनाश करने को तुला था। इसमें बात है अवैध कब्ज़ों की नीयत से होते कत्लों और लंपटता भरे व्यभिचार की।

इसमें बात है महलों..हवेलियों से ग़ायब हुए राजसी ख़ज़ाने और उसे हड़पने को ललचाते लोगों की। इसमें बात है अमानत में ख़यानत..लालच..द्वेष और बदले से ओतप्रोत क्रूर भावनाओं की। इसमें बात है भर्ष्टाचार में आकंठ डूबी लापरवाह भारतीय पुलिस के कोताही भरे रवैये और अविवेकपूर्ण फैसलों की। साथ ही इसमें बात है संजीदा..सजग एवं मुस्तैद अमरीकी पुलिस की कर्तव्यपरायणता की। 

इसमें बातें हैं उस पंजाब की, जिसके गांवों का आधा जीवन लड़ाई झगड़े में और आधा जीवन कोर्ट कचहरी में बीत जाता है। इसमें बात है 1970 के दशक के प्रमुख पंजाबी कवि 'पाश' की जिसका असली नाम अवतार सिंह संधू था और जिसकी 23 मार्च 1988 को खालिस्तानी चरमपंथियों ने हत्या कर दी थी।

इस बात के लिए लेखिका की तारीफ़ करनी होगी कि उन्होंने अमेरिका में आने वाले तूफ़ान और टॉरनेडो का जीवंत वर्णन इस प्रकार किया है मानों सब कुछ हमारी आँखों के सामने ही घटित हो रहा हो। साथ ही पाठकों की सुविधा के लिए उन्होंने स्थानीय भाषा के संवादों के साथ ही साथ उनका हिंदी अनुवाद भी दिया है। 

उपन्यास के शीर्षक 'नक्काशी दार कैबिनेट' से पहलेपहल भान हुआ कि ज़रूर कोई रहस्यमयी गुत्थी इस केबिनेट से जुड़ी होगी। जिसे अंत तक आते आते सुलझाया जाएगा। लेकिन इस उपन्यास का इसके शीर्षक 'नक़्क़ाशीदार केबिनेट'  से बस इतना नाता है कि उसमें से पहले एक डायरी और बाद में एक पुराना पत्र मिलता है जो कहानी को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध होता है। 

बतौर पाठक मेरा मानना है उपन्यास की हर छोटी बड़ी घटना का आपस में कोई ना कोई गहरा संबंध..जुड़ाव या अगली घटना से उसका कोई ना कोई लिंक होना बहुत ज़रूरी है। किसी भी घटना को ऐसा नहीं होना चाहिए कि वो..बस ऐसे ही घटने के लिए घट गयी। इस हिसाब से अगर देखें तो भारी तूफ़ान के बाद घर में चोरों के आने वाले दृश्य की उपन्यास में ज़रूरत ही नहीं थी। हालांकि इससे भले बुरे लोगों की मनोवृत्ति को समझने का मौका ज़रूर मिला।

साथ ही मेरे हिसाब से उपन्यास में कहानी वहीं समाप्त हो जानी चाहिए थी, जहाँ पर सोनल का चैप्टर खत्म होता है। बाद में उसी केबिनेट में माँ के नाम बेटी के एक भावनात्मक पत्र का मिलना, मुझे बस उपन्यास की तयशुदा सीमा के पृष्ठ भरने या फिलर जैसा लगा। जिन्हें आसानी से बतौर तोहफ़ा कोई एक छोटी कहानी पाठकों को दे कर आसानी से भरा जा सकता था।

धाराप्रवाह शैली में लिखा गया यह उपन्यास शुरू से ही अपनी पकड़ बना कर चलता है और पाठकों को आसानी से उसके अंत तक पहुँचा पाने में सक्षम है। 
120 पृष्ठीय इस उपन्यास के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है शिवना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

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