"दायाँ हाथ...बायाँ हाथ"



"दायाँ हाथ...बायाँ हाथ"

***राजीव तनेजा***

संता सिंह का बायाँ हाथ खराद मशीन पर काम करते हुए कट गया।


यार-दोस्त अफसोस प्रगट करने के लिए घर आए....

एक दोस्त ने अफसोस प्रगट करते हुए कहा"शुक्र है भगवान का कि बाँया हाथ कटा है"...

"अगर दाँया हाथ कट जाता तो बहुत मुश्किल हो जाती".....

संता सिंह"शुक्र!...?"...

"और ऊपर वाले का?"...

"ये तो संता दा ग्रेट का दिमाग काम आ गया ऐन मौके पे"...

"आया तो मेरा दाँया हाथ ही था मशीन में"...

"मैँने झट से दाँया हाथ बाहर निकाला और फट से बाँया हाथ मशीन में डाल दिया"

***राजीव तनेजा***

बेगम मिल जाती तो


"बेगम मिल जाती तो..."

***राजीव तनेजा***

चार दोस्त ताश खेल रहे थे।
पत्ते देखने के बाद एक बोला"काश!..बेगम मिल जाती तो मज़ा ही आ जाता।"
सभी दोस्त पत्ते टेबल फैंक कर एक साथ चिल्लाए"हमारी वाली ले जाओ"

***राजीव तनेजा***

भड़ास दिल की कागज़ पे उतार लेता हूँ मैँ- राजीव तनेजा

क्या लिखूँ.. कैसे लिखूँ…
लिखना मुझे आता नहीं…
टीवी की झकझक..
रेडियो की बकबक..
मोबाईल में एम.एम.एस..
कुछ मुझे भाता नहीं
भडास दिल की…
कब शब्द बन उबल पडती है
टीस सी दिल में..
कब सुलग पडती है…
कुछ पता नहीं
सोने नहीं देती है ..
दिल के चौखट पे..
ज़मीर की ठक ठक
उथल-पुथल करते..
विचारों के जमघट
जब बेबस हो..तमाशाई हो..
देखता हूँ अन्याय हर कहीं
फेर के सच्चाई से मुँह..
कभी हँस भी लेता हूँ
ज़्यादा हुआ तो..
मूंद के आँखे…
ढाँप के चेहरा…
पलट भाग लेता हूँ कहीं
आफत गले में फँसी
जान पड़ती  मुझको
कुछ कर न पाने की बेबसी…
जब विवश कर देती  मुझको..
असमंजस के ढेर पे बैठा
मैँ ‘नीरो’ बन बाँसुरी बजाऊँ कैसे
क्या करूँ…कैसे करूँ…
कुछ सूझे न सुझाए मुझको…
बोल मैँ सकता नहीं
विरोध कर मैँ सकता नहीं
आज मेरी हर कमी…
बरबस सताए मुझको
उहापोह त्याग…कुछ सोच ..
लौट मैँ फिर
डर से भागते कदम थाम लेता हूँ …
उठा के कागज़-कलम…
भडास दिल की…
कागज़ पे उतार लेता हूँ
ये सोच..खुश हो
चन्द लम्हे. ..
खुशफहमी के भी कभी
जी लेता हूँ मैँ कि..
होंगे सभी जन आबाद
कोई तो करेगा आगाज़
आएगा इंकलाब यहीं..
हाँ यहीँ…हाँ यहीँ
सच..
लिखना मुझे आता नहीं…
फिर भी कुछ सोच..
भडास दिल की…
कागज़ पे उतार लेता हूँ मैँ”
***राजीव तनेजा***

"इतनी शक्ति हमें देना दाता"


"इतनी शक्ति हमें देना दाता"

***राजीव तनेजा***

"उम्र में छोटा हुआ तो क्या हुआ?"...

"अपनी करनी से तो बडे बडों के कान कतर डाले उसने"..

"छोटी उम्र में ही उसने ऐसा कर दिखाया कि बडे-बडे भी पानी भर उठें...शरमा उठें"

"सूरमा घबरा जाएँ"...

"अच्छे अच्छों के कलेजे दहल उठें"...

"आम आदमी के रौंगटे खडे हो जाएँ"


"कुछ सोच के ही किया होगा उसने ये सब"...

"कुछ तो वजह रही होगी इस सब की"...


"शायद!..भीड में सबसे अलग...सबसे जुदा दिखने की चाहत"...

"सैलीब्रिटी बनने का अरमाँ संजोया होगा"..


"या!..हो सकता है कि सामने वाले ने उसके जोश...उसके ज़मीर को ललकारा हो और...

ये अपने होश-ओ-हवास पे काबू न रख पाया हो"


"बौखला कर उसका काम तमाम करने की ठान ली होगी लेकिन शायद फिर कुछ सोच के रुक गया होगा"

"शायद उसका अंतर्मन गवाही न दे रहा हो इस सब की"

"अंतर्द्व्द्व चल रहा होगा उसके भीतर कि क्या करे और...क्या न करे"


"खूब उठा पटक...खूब बहस हुई होगी उसके अन्दर"...

"क्या सही है?और...क्या गलत?"...

"फैसला नहीं कर पा रहा होगा वो"

"कभी अच्छाई हावी होती होगी तो...कभी बुराई"...

"कभी आशा हावी होती होगी तो..कभी निराशा"


"धोबी पछाड से लेकर एक से एक नए-पुराने दाव चले जा रहे होंगे"...


"लेकिन अफसोस!..आखिर वही हुआ जिसका अन्देशा था"...

"बुराई ने अच्छाई पे काबू पा लिया"...

"हावी हो गयी उस पर"...


"खासी कश्मकश...खासी रस्साकशी चली होगी"...

"तब जा के फैसला हुआ होगा कि कौन जीता और...कौन हारा"


"ऐसा फैसला..ऐसा निर्णय लेने से पहले ...करने से पहले...

उसका मन पता नहीं कितनी दुविधाओं...कितनी मुश्किलों को पार करता हुआ सीना तान आगे बढा होगा"...


"कैसे कैसे तर्क-वितर्क कर चुप बिठाया होगा अच्छाई को"


"फिर खुद को अकेला जान इरादा छोद दिया हो शायद"...

"आडे वक्त पे दोस्त ही दोस्त के काम आता है"...

"एक से भले दो"...

"ये दोस्ती ...हम नहीं तोडेंगे...तोडेंगे उम्र भर"

"अच्छे में...बुरे में ...

हर जगह साथ निभाने का वायदा निभा उन दोनों ने एक नई मिसाल कायम कर दी"


"डगमगाते कदमों को थामने के लिए उन्होंने ऊपरवाले को ताका होगा"...

"इतनी शक्ति हमें देना दाता....मन का विश्वास कमज़ोर हो ना"...

"नतीजन!..मन स्फूर्ति..जोश...आत्म-विश्वास से लबालब भर गया होगा"


"शायद!..शह तो उसे अपने घर से ही मिली होगी इस सब की"

"पता होगा अपने माँ-बाप की लापरवाही भरी आदतों का"..

"यकीन होगा कि आसानी से हासिल कर पाएगा तमंचा"

"पूर्ण विश्वास होगा कि हमेशा की तरह इधर-उधर ही पडा मिल जाएगा"


"शायद!..शराब और पैसे के नशे में चूर अपने बडों से घर में ही सीखा होगा चलाना"

"वही उसके गुरू...वही मार्गदर्शक रहे होंगे उसके"..

"पहली सीख...पहला सबक...वहीं से मिला होगा उसे"

"उन्हीं से सीखा होगा बात-बेबात अकड कर रहना"...

"इंसान को इंसान न समझना"..


"वहीं मालुम हुआ होगा कि..मृत्यु क्षणभंगुर है"...

"शरीर मिट्टी का बना है...नश्वर है"

"उन्हीं से पता चला होगा कि....जो आया है ..उसे जाना है"...

"कोई दो दिन पहले चला जाता है तो...कोई दो दिन बाद में"...


"कहने वाले ये भी कह सकते हैँ कि ऊपर बैठी उस अपरंपार शक्ति ने खुद ही...

उसे ये नेक...ये महान काम सौंपा हो"


"समय पूरा हो गया होगा उसका"

"इसी के हाथों मौत लिखी होगी उसकी"

"इतनी ही उम्र लिखा के आया होगा वो"

"साधन मात्र ही बनाया होगा उसने"...

"कठपुतली बन इशारों पे नचाया होगा उसने"..


"बस!..तेरह साल की उम्र लेकर आया हो वो इस दुनिया में"

"ये भी हो सकता है कि इंसानियत के भले के लिए उसका जाना ही बेहतर हो"

"कईयों से ये भी तो सुना है कि अच्छे लोगों की ऊपर भी ज़रूरत होती है"...

"इसलिए बुलवा लिया होगा उसे अपने पास"...


"गीता में भी लिखा है कि...

जो हुआ है...जो हो रहा है...जो होना है...सब पहले से तय है...फिक्स है"...

"उसके लिखे से छेडछछाड असंभव है"

"यही भाग्य रहा होगा उसका"


"जैसे कर्म करेगा वैसे फल देगा भगवान..ये है गीता का ज्ञान"


"हो सकता है कि ये उन दोनों के पिछले कर्मों का फल मात्र ही हो"...

"ऊपरवाले से यही प्रार्थना है कि...

वो 'यूरो इंटरनैशनल स्कूल'के मरने वाले छात्र की आत्मा को शांति दे और मारने वाले दोनों छात्रों को सदबुद्धी"

***राजीव तनेजा***

हाँ!...नपुंसक हूँ मैं


***राजीव तनेजा***
"बचाओ...बचाओ...की आवाज़ सुन मैं अचानक नींद से हडबड़ा कर उठ बैठा…देखा तो आस-पास कोई नहीं था… घडी की तरफ नज़र दौडाई तो रात के सवा दो बज रहे थे|पास पडे जग से पानी का गिलास भर मैँ पीने को ही था कि फिर वही रुदन...वही क्रंदन मेरे कानों में फिर गूंज उठा|कई दिनों से बीच रात ये आवाज़ मुझे सोने नहीं दे रही थी|अन्दर ही अन्दर अपराध भाव खाए जा रहा था कि उस दिन…हाँ…उस दिन अगर मैँने थोडी हिम्मत दिखाई होती तो शायद आज मैँ यूँ परेशान ना होता|जो हुआ...जैसा हुआ...अफसोस है मुझे लेकिन मैँ अकेला….निहत्था उन हवस के भेडियों से उसे बचाता भी तो कैसे?  
"क्यों!...शोर तो मचा ही सकते थे कम से कम?”मेरे अन्दर का ज़मीर बोल पड़ा 

"कोशिश भी कहाँ की थी तुमने?...ज़बान तालू से चिपक के रह गई थी ना?...बोल ही नहीं फूट रहे थे तुम्हारी ज़ुबान से"... 
“एक झटके से अपना पाँव छुडा चल दिए थे"… 
"क्यों!...यही सोचा था ना कि..कोई मरे या जिए...क्या फर्क पडता है तुम्हें?"... 
"हाँ!..नहीं पड़ता है फर्क मुझे …कौन सा मेरी सगे वाली थी?"मैँ तैश में आ बोल पडा...
"तुम में इंसानियत नाम की भी कोई चीज़ है कि नहीं?".. 
"वैसे!..अगर तुम्हारी सगे वाली होती तो तुम क्या करते?….बचाते क्या उसे?" अंतर्मन पूछ बैठा.. 
"शश…शायद नहीं"…
“क्यों?”…
“मुझे क्या ज़रूरत पड़ी है किसी के फटे में टांग अडाने की?….क्या मैँने उसे कहा था कि यूँ देर रात… फैशन कर बाहर सड़क पे आवारा घूमो?"मैँने तड़प कर जवाब दिया 
"अब निबटो इन सड़कछाप लफूंडरों से खुद ही..मैँ तो चला अपने रस्ते…कौन पड़े पराए पचडे में?"….
“ये सोच तुम तो पतली गली से भाग लिए थे और वो बेचारी…बस दयनीय एवं कातर नज़रों से आँखो में आँसू लिए तुम्हें मदद को पुकारती रही"... 
“तो?”..
“कुछ फर्ज़ नहीं बनता था तुम्हारा?"अंतरात्मा ने धिक्कारा 
"बिना बात के मैँ पंगा क्यों मोल लूँ?"मैँने बिना किसी लाग लपेट के जवाब दिया 
"यही घुट्टी में घोल-घोल पिलाया गया है हमें बचपन से कि...अपने मतलब से मतलब रखो…दूसरे के फटे में टांग नहीं अडाओ"...
"सो!..मैँ कैसे अड़ा देता"
मैँने तडप कर जवाब दिया
"और वैसे भी किस-किस को बचाता फिरूँ मैँ?...हर जगह तो यही हाल है|अब उस दिन की ही लो...क्या मैँने कहा था शर्मा जी से कि बैंक से मोटी रकम निकलवाओ और फिर पलाथी मार वहीं सड़क के मुहाने उन्हें गिनने बैठ जाओ?" 

“अब यूँ शो-ऑफ करेंगे तो भुगतना तो पडेगा ही ना?"… 
"पता भी है कि ज़माना कितना खराब है लेकिन फिर भी…. 
"पड़ गए थे ना गुण्डे पीछे?….हो गई थी ना तसल्ली?"…  
"जब पहले ही कुछ नहीं सोचा तो फिर बाद में बचाओ-बचाओ कर के काहे चिल्लाते थे?"… 
"मालुम नहीं था क्या कि कोई नहीं आएगा बचाने को…सबको अपनी जान प्यारी है"... 
"और लो….ऊपर से लगे हाथ ई सिरीज़ नोकिया का महंगा फोन निकाल लगे 100 नम्बर घुमाने”… 
"डाक्टर ने कहा था कि हर जगह अपनी शेखी बघारो?…फोन का फोन गया और दुनिया भर के सवाल-जवाब अलग से"… 
"कितने का लिया था?…बिल वाला है या नहीं?…कोई प्राब्लम तो नहीं?" ….
"बडे मज़े से लुटेरों को ही एक एक खूबी बताने लगे...साढे अठाईस हज़ार...आठ जी.बी इनबिल्ट मेमोरी…'स्टील बॉडी..'म्यूज़िक एडीशन...हाई रिजौल्यूशन का  मैगा पिक्सल कैमरा'... 'ब्लू टुथ'वगैरा..वगैरा "पहले आराम से लुट-पिट लो...बाद में करते रहना कंप्लेंट-शंमप्लेंट" लुटेरे भी बडे इत्मीनान से...कॉनफीडैंस से बोले
"जब तक बात समझ आती तब तक वो रफूचक्कर हो चुके थे" …

"अब 'पुलिस...पुलिस' चिल्लाने से क्या फायदा जब चिडिया चुग गई खेत?".. 
"हुंह!..कभी टाईम पे आई भी है पुलिस जो उस दिन आ जाती?"…
"अरे!..जिसे पुकार रहे थे...उसी की शह पर तो होता है ये सब…सैयां भए कोतवाल..तो डर काहे का?"..
"फिक्स हिस्सा होता है इनका हर चोरी-चकारी में..हर राहजनी में”.. 

“हर जेब तराशी में...हर अवैध धन्धे में"... 
"हाँ!..इन्हें सब पता रहता है कि फलानी-फलानी जगह पर फलाने-फलाने बन्दे ने फलानी -फलानी वारदात को अंजाम दिया है"... 
"चाहें तो दो मिनट में ही चोर को माल समेत थाने में चाय-नाश्ते पे बुलवा लें" … 
"ये चाहें तो शहर में हर तरफ अमन और शांति का माहौल हो जाए...अपराधियों की जुर्म करने के नाम से ही रूह तक काँप उठे"…
"छोडो ये बेकार में इधर-उधर की बातें...सीधे-सीधे कह क्यों नहीं देते कि...दम नहीं है तुममें...चुक चुके हो तुम…हौसला नहीं है तुम में लड़ने का...विरोध करने का" 
"नपुंसक हो तो तुम...हाँ!..नपुंसक”...
"मर्द नहीं!..किन्नर बसता है तुम में"
अंतर्मन बिना रुके ताव में बोले चला जा रहा था... 

"मालुम भी है तुम्हें...क्या हुआ था उस दिन?…तुम तो मस्त हो भजन-कीर्तन में जुटे थे अन्दर ही अन्दर और वहाँ बाहर…मेरी ऐसी की तैसी हुई पड़ी थी" …
"चल फूट ले फटाफट....चीर डालेंगे नहीं तो"..
“कह उन्होंने मुझे धमकाया था...तुम्हें नहीं…दिसम्बर की सर्द रात में भी पसीना-पसीना हो उठा था मैँ"... 
“ओह!…
"क्या गलत किया जो घबरा कर वापिस मुड गया?"मैँ बोला 
"पता नहीं क्या हुआ होगा उस बेचारी का" मन चिंतित स्वर में बोला 
"अब क्या बताऊँ?..बस…तभी से उसका ये बचाओ-बचाओ का स्यापा मुझे सोने नहीं दे रहा है…ना चाहते हुए भी बार बार उसी का ख्याल आने लगता है"...
"पता नहीं क्या हुआ होगा उसके साथ?..ज़िन्दा भी होगी या...?"
आगे बोला ना गया मुझसे
"छोडो ये खोखली हमदर्दी भरी बातें ...कुछ नहीं धरा है इनमें"ताना मारता हुआ अंतर्मन फिर बोल पडा

“ये खोखली…बेकार की बातें हैं?”…
"हाँ!…सौ बातों की एक बात यही है कि मर्द नहीं हो तुम..हो ही नहीं सकते क्योंकि उस दिन जब वो चार मिल कर बीच बाज़ार उस निहत्थे को बिना बात पीट रहे थे तब समूची नपुंसक भीड़ के साथ तुम भी तो खडे-खडे तमाशा ही देख रहे थे ना?”..

“तो?..क्या करता मैं?…बिना बात के अकेले ही भिड जाता उन गुण्डे-मवालियों से?”…
वो चार थे लेकिन तुम सब मिलकर तो सौ थे…सांप क्यों सूंघ गया था तुम सब को?”…
“वव..वो…दरअसल….
“उस दिन जब वो पुलिस वाला तुम सब नामर्दों के सामने उस बेचारे गरीब रेहड़ी वाले को सिर्फ इसलिए बुरी तरह धुन्न रहा था कि उसने अपना हफ्ता टाईम से नहीं दिया था … तब भी तो तुम चुप ही रहे थे ना?”… 
“तो?…क्या करता मैं?….पुलिस वाले से पंगा मोल ले के….
“जब तुम्हारी इतनी ही फटती है पुलिस वालोँ से तो सीधे-सीधे मान क्यों नहीं लेते कि मर्द नहीं हो तुम…नपुंसकता बसी हुई है तुम्हारे रोम-रोम में…तुम्हारी रग-रग में?”…
  • "हाँ-हाँ तुम्हारे हिसाब से मर्द तो वो सरकारी बाबू है ना जो बेचारे वर्मा जी की 'बुढापा पैंन्शन' पिछले छ: महीने से घूस ना देने के कारण के रोके बैठा है"मैँ भड़क उठा.. 
  • "मर्द तो वो सरकारी डाक्टर है ना जो ड्यूटी के समय ही डंके की चोट पर अपने विज़िटिंग कार्ड हमारे हाथों में थमाता है कि...यहाँ छोडो!...और मेरे क्लीनिक पे आ के इलाज करवाओ और हम दिमागी तौर पर अक्षम..अपंग लोग सुबह-शाम उसके बँगले के बाहर लाईन लगाए नज़र आते हैँ" मैँ जैसे खुद से बातें करता हुआ बोला
  • "हाँ!..मर्द तो वो बिजली विभाग का मीटर रीडर है जो दिन-दहाड़े मुझ नपुंसक को चंद नोटों की खातिर बिजली चोरी के तमाम गुर सिखाने को तैयार बैठा है"
    "हाँ!..मर्द तो वो ढाबे वाला है ना जो परसों उस बाल मज़दूर को दो रोटी ज़्यादा खाने पर बुरी तरह मार रहा था?"…
  • "हाँ!..असली मर्द तो वो हैँ ना जो मर्दाना जिस्म...मर्दाना ताकत रखने के बावजूद किसी अबला नारी की अस्मत लुटते देख नज़रें फेर लेते हैँ?" 
"हो गया भाषण पूरा? या अभी कुछ बाकी है?"अंतर्मन मेरा माखौल उडाता बोला "इन्हें मर्द कहते हो तुम?...बड़ी छोटी सोच है तुम्हारी"
  • "अरे!...असली जवाँ मर्द तो 'नंदीग्राम' में हैँ...'गोधरा' में हैँ….पूरे 'गुजरात' में हैँ"...
  • "मर्द तो वो हैँ जिन्होंने कश्मीर से हिन्दुओं का पलायन करवा दिया"…
  • "मर्द तो वो हैँ जिन्होंने गुजरात छोडने को मुस्लिमों को मजबूर कर दिया"…
  • "मर्द तो वो थे जिन्होंने धार्मिक उन्माद में आ के बाबरी विध्वंस को अंजाम दिया था"…
  • "मर्द तो वो थे जिन्होंने दिन दहाडे हमारी संसद में घुस कर हमारे लोकतांत्रिक ढाँचे को ही नष्ट करने की सोची थी"..
"वो मर्द ही कहाँ थे जिन्होंने हमारे महा ईमानदार नेताओं को बचाने की खातिर अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे?" मेरा अंतर्मन जैसे खुद से ही बातें करने लगा था
"हाँ!…औरत होते हुए भी मर्द ही तो थी हमारी पूर्व प्रधानमंत्री जिन्होनें अपनी गद्दी जाती देख समूचे देश को ही आपातकाल की भट्ठी में झोंक खुद का भविष्य सुरक्षित कर डाला था" मैँने बात आगे बढाई 

"और उसे कैसे भूल गए?...वो भी तो असली मर्द ही था जिसने एक पंथ दो-दो काज करते हुए तंदूर में अपने प्यार को भून 'तंदूर कांड' को जन्म दे…लगे हाथ 'अमूल मक्खन' वालों का विज्ञापन भी मुफ्त में कर डाला था"अंतर्मन मेरी हाँ में हाँ मिलाता हुआ बोला
"मर्द तो वो बाहूबली का बेटा...वो भाई था जिसे अपनी बहन की खुशी से ज़्यादा अपने परिवार...अपने खानदान की इज़्ज़त प्यारी थी".. 

"इसी को ध्यान में रखते हुए उसने अपनी बहन के प्यार का अपहरण कर उसे मार डाला था" मेरे साथ-साथ अंतर्मन की आवाज़ भी तीखी हो चली थी
“मर्द  तो वो खाप पंचायतें हैं जिनसे जवाँ होते दिलों का प्यार नहीं देखा जाता"…
"और उसे कैसे भूल गए?..मर्द तो वो मंत्री का बेटा भी था जिसने 'बॉर' बन्द होने की बात सुन गुस्से में आ 'बॉर बाला' को ही टपका डाला था"…
“मर्द तो वो मंत्री था जिसने अपनी प्रेमिका 'मधुमिता' को मौत के घाट उतारा था"
"हाँ!..वो सिक्योरिटी वाले मर्द ही तो थे जिन्होंने हमारी प्रधानमंत्री 'श्रीमति इंदिरा गान्धी' को गोलियों से छलनी कर मार डाला था"... 

"शायद वो 'लिट्टे' वाले भी मर्द ही रहे होंगे जिन्होंने 'राजीव गान्धी' को मारा था"...
"और वो 'एस.टी.एफ' वाले नामर्द साले!...जिन्होने वीरप्पन को मार गिराया था?"
मैँ व्यंग्य बाण चलाता बोल उठा   “मर्द तो वो प्रधान मंत्री थे जिनके सूटकेस की वजह से कई दिनों तक मीडिया में सरगर्मी रही थी"... 

"वो मीडिया वाले भी मर्द ही थे जो दिन-दिन भर प्रिंस की खबरें दिखाते रहे"... 
“या फिर वो मीडिया वाले भी तो मर्द ही होते हैँ जो खबर ना होने पर भी बेवजह की सनसनी क्रिएट कर उसकी आँच में अपने भुट्टे भूनते रहते है"…
"असली जवाँ मर्द तो वो मीडिया वाले हैँ जिन्हें इस बात की ज़्यादा चिंता रहती है कि... 'बिग बी' ने किस-किस मंदिर में...किस किस देवता के आगे मत्था टेका? बजाय इसके कि आसाम में या पंजाब में रेल दुर्घटना में कितने मरे और कितने घायल हुए?" … 
"नामर्द तो वो पत्रकार हैँ जो अपनी जान जोखिम में डाल नित नए स्टिंग आप्रेशनों को अंजाम दे रहे हैँ...क्यों?..सही कहा ना मैंने?"
"तुम क्या सोचते हो कि मर्द बिरादरी सिर्फ भारत में ही बसती है?"मेरी बात अनसुनी कर मेरे अन्दर का राजीव बोलता चला गया
"अरे बुद्धू!... पूरी दुनिया भरी पड़ी है मर्दों से... वो मर्द ही तो थे जिन्होंने '9-11' की घटना को अंजाम दे हज़ारों बेगुनाहों को ज़िन्दा दफना डाला था" ..

"हाँ!…असली जवाँ मर्द तो वो भी है जिसने 'सद्दाम' का बेवजह तख्ता पलट उसे फाँसी पे चढा दिया"…
"हाँ!…एक नई बात सुनो....इनसानों के अलावा देश भी मर्द-नामर्द दोनों किस्म के हुआ करते है"… 
"क्या मतलब?…वो कैसे?”… 
"अब ये ‘अमेरिका’ को ही लो ...असली जवाँ मर्द देश है...किसी से भी नहीं डरता"...
"सिवाय 'लादेन' के" मैँ हँसी उडाता हुआ बोला
"देखा नहीं कैसे उसने तेल-ताकत और पैसे की खातिर...मित्र देशों को बरगला इराक पे बिना बात के कब्ज़ा जमा लिया"
"इसे कहते हैँ ...मर्दों में मर्द…असली मर्द क्योंकि मर्द को दर्द नहीं होता"…
 

"ओह!..तो इसीलिए तुम मुझे मर्द नहीं कहते हो क्योंकि मुझे दर्द नहीं होता?"…
  • "हाँ!…मुझे दर्द होता है जब कोई मर्द किसी निर्बल अबला नारी की इज़्ज़त लूटता है"...
  • "हाँ!...मुझे दर्द होता है जब कोई ‘मुशर्रफ’ सारे कानूनों को ताक में रख पाकिस्तान का बादशाह और सेनापति दोनों बन बैठता है"
  • "हाँ!...मुझे दर्द होता है जब कोई मर्द मुल्क 'हिन्दी-चीनी भाई-भाई' का नारा दे हमारी पीठ में ही छुरा भौंकता है"
  • "हाँ!..मुझे दर्द होता है जब कोई मर्द मुल्क धोखे से 'कॉरगिल' पे कब्ज़ा जमाता है"...
  • "हाँ!...मुझे दर्द होता है जब देखता हूँ कि तथाकथित बडे स्कूल-कॉलेजों के मर्द प्रिंसिपल तथा अध्यापक यौन शोषन में लिप्त नज़र आते हैँ"..
  • "हाँ!...मुझे दर्द होता है जब नकली स्टिंग आप्रेशन करवा के कोई मर्द पत्रकार किसी अध्यापिका की इज़्ज़त सरेआम नीलाम करवा डालता है"
  • "यही सब…अगर यही सब मर्दानगी की निशानियाँ हैँ तो लॉनत है ऐसी मर्दानगी पर….ऐसे मर्दों पर"
    "इससे तो अच्छा मैँ नामर्द ही सही...किसी के साथ गलत तो नहीं करता...बुरा तो नहीं करता"...
"मैँ डरपोक ही सही...लेकिन फिर भी इन बहादुरों से लाख गुना अच्छा हूँ".. 
"नहीं बनना है मुझे ऐसा मर्द जो दूसरों के दर्द को ना समझ सके…दुःख को ना समझ सके"… 
"ऐसे ही सही हूँ मैँ...नामर्द ही सही ...किन्नर ही सही…नपुंसक ही सही"…
 ***राजीव तनेजा***

"तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो"

"तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो"

***राजीव तनेजा***

"अलार्म कई बार बजने के बाद अब और बजने से इनकार कर चुका था"...

"खुमारी ऐसी छाई थी कि..निद्र देवता भी लाख भगाए ना भाग रहे थे "...

"भागते भी क्योंकर?"

"रात पौने तीन बजे लिखने-लिखाने के बाद जो सोने को बिस्तर का मुँह ताका था मैँने"


"नतीजन!...सुबह पहली ट्रेन तो मिस हो चुकी थी पानीपत के लिए"...

"दूसरी वाली पैसैंजर का भी कुछ भरोसा नहीं था कि पकड पाऊँगा या नहीं"...


"आँख जो खुली थी साढे सात बजे "...

"अब कुल एक घंटे में क्या क्या करूँ मैँ?"

"सुबह सवेरे नहा-धो के तैयार हो नाश्ता पाडूँ मैँ या...

"कितना हुआ डाउनलोड ... चैक करूँ मैँ और...

या फिर यार दोस्तों के लिए पुट्ठी सीडी तैयार करूँ मैँ"


"ऊपर से अपनी मैडम जी भी बिना रुके चिल्लाती ही चली जा रही थी"...

"कोई चिंता है ही नहीं...कब सोना है?..कब जागना है?...कुछ पता ही नहीं है जनाब को"...

"बच्चों को तो शिक्षा देते रहते हैँ कि ये ना करो और वो ना करो"...

"टाईम पे सोया करो...टाईम पे जागा करो"

"और रात को जो खुद उल्लू के माफिक डेल्ले चौडे कर जाग रहे होतें हैँ सारी सारी रात"

"उसका कुछ नहीं"...


"लैक्चर देने को हमेशा तैयार कि...रोज़ दो-दो दफा ब्रश किया करो वगैरा..वगैरा"...

"और खुद जो बिना ब्रश किए ही कहने लगते हैँ कि...

"भूख के मारे बुरा हाल है..आने दे फटाफट नाश्ता"

"उसका क्या!..?"


"मैँ भी कच्चा-पक्का जैसा तैयार होता है लगा देती हूँ सामने"...

"अब थोडा सब्र नहीं होता है तो मैँ क्या करूँ?"

"दो ही हाथ दिए हैँ भगवान ने"

"इन्हें भी सम्भालूँ और इनके सैम्पलों को भी...हुँह..."


"ऊपर से!...बिना सोचे समझे नीचे से मम्मी-पापा भी ऐन टाईमिंग के साथ पूरी गठरी बाँध मैले कपडे भेज देते हैँ धोने को"...

"थोडा तो सब्र करें कम से कम"

"पता नहीं कब समझेंगे ये सब मेरी तक्लीफ को"


"कितनी बार समझाया है इन्हें कि ज़्यादा ना टोका-टाकी ना किया करें मेरे साथ भी और बच्चों के साथ भी"...

"बडे हो गये हैँ अब"...

"भला-बुरा आप समझेंगे"

"करेंगे तो अपनी ही मर्ज़ी...चाहे लाख समझा लो"

"लेकिन नहीं!...टोके बिना रोटी जो हज़म नहीं होती है ना जनाब को"...

"अरे!...नहीं हज़म होती है तो हाजमोला-शाजमोला खाओ"...

"थोडा चूर्ण-शूर्ण पाडो"...

"अब तो!..अपने बच्चन जी भी तो चूर्ण बेचने लगे हैँ"बीवी चहकती हुई बोली


"इसका मतलब सचमुच बढिया हाज़मेदार होगा"मैँ हँसता हुआ बोला


"ये ना पहनो...वो ना पहनो"...

"अरे!..तुम्हें टट्टू लेना है?"बीवी मेरा व्यंग्य सुने बिना ही बोलती चली गई


"कुछ समझ भी है जनाबे आली को कि क्या लेटेस्ट टरैंड चल रहा है फैशन की दुनिया में?"

"कभी ताक-झाँक भी लिया करो ट्रेन में इधर-उधर कि...

समय पे बता सको की ये सोनीपत वाली लडकियाँ क्या-क्या फैशन कर रही हैँ आजकल"...


"ये क्या कि हर वक्त कीबोर्ड,स्क्रीन और कम्प्यूटर के ही ख्वाबों से ही दो चार होते रहते हो?"

"अब सामने कम्प्यूटर ना हुआ तो लग गए पैंसिल कागज़ ले आडे-तिरछी लकीरें खींचने"...

"आखिर क्या फायदा ऐसे शौक का जो भुखमरी की कगार पे ले जाए?"

"ना फीस भरी जाती है तुमसे बच्चों की"...

"ना ही मोबाईल और नैट के बिल जमा करवाते हो टाईम पे"


"मैँ मैडम की बात पे ध्यान ना देता हुआ चुपचाप तैयार होता रहा"


"जब से मैडम को पता चला है कि ये राजीव रात दो-ढाई बजे तक जागने पर भी सुबह...

बिना किसी नागे के 4.40 A.M पे क्यूँ उठ जाता है "...


"बस तब से रोज़ाना की रट समझ लो या फिर स्त्री हठ समझ लो"...

अपनी मैडम यही लाड भरा राग अलापती हैँ कि..."छोडो इसे....8.40 A.M वाली पैसैंजर में चले जाना"


"टाईम का टाईम बचेगा और 'सी.एन.जी.' की 'सी.एन.जी'"


"अब उन्हें!..क्या और कैसे समझाऊँ कि...बनिया पुत्तर ना हुआ तो क्या?...

एक पंथ तीन-तीन काज करता हूँ मैँ"..

"पहला काज कि सुबह सवेरे 'हिमालयन'में थोडा भजन-कीर्तन भी हो जाता है मुझ नास्तिक से और..

दूजे काज के रूप में अपने वर्मा जी से प्रसाद भी मिल जाता है मुँह मीठा करने को"...


"अब ये और बात है कि अपने को तो चुटकी भर ही नसीब हो पाता है लेकिन यही सोच संतोष कर लेता हूँ कि ....

"प्रसाद तो प्रसाद है...कोई पेट थोडे ही भरना है?"


"लेकिन उस्ताद! ...बात तब अखरती है जब...

लडकी देख अपने वर्मा जी दानवीर कर्ण बन पूरी मुट्ठी ही भर डालते हैँ प्रसाद से उसकी"


"ये तो हुए दो फायदे"...

तीजे के अब अपने मुँह से कैसे कहे ये राजीव कि...

लगे हाथ बोनस स्वरूप गन्नौर वाली मैडम जी के दर्शन भी हो जाते हैँ"....


"अब कुछ ना कुछ तो ज़रूर है उनमें जो मैँ क्या?..सभी दैनिक यात्री तक सम्मोहित हो खिंचे चले जाते हैँ"...


"जाना होता है कहीं और...तेरी ओर खिंचे चले आते हैँ"


"कैसे बताए अब ये हाल ए दिल अपना कि....

"क्यूँ सुबह-शाम उन्हीं का ख्याल दिल ओ दिमाग पे छाया रहता है?"...

"क्यूँ हर समय...हर वक्त...दिल उन्हीं के ख्यालों में गुम रहता है?"


"अरे!...वैसा कुछ नहीं है जो तुम यूँ मंद मंद मुस्काते चले जा रहे हो"

"अरे बाबा!...कमैंट चाहिए होता है अपनी रचनाओं के लिए"

"हौसला जो बढता है ना इस सब से"...

"पता नहीं क्यूं लगता है अपुन को कि अच्छा रिव्यू दे सकती हैँ वो"

"लेकिन क्या करूँ?...हिम्मत ही नहीं हुई कभी उनसे बात करने की"

"बस चुपचाप देखता रहता हूँ उनको कि शायद वो ही पहल कर लें कभी"


"उफ!...हर वक्त बस ये मैडमें ही मैडमें"...

"ये जीना भी कोई जीना है?"..

"कभी ये मैडम तो कभी वो मैडम"...

"करते रहो चापलूसी हर वक्त".. .

"कभी इसकी तो कभी उसकी"


"अब तो ये हालत हो चुकी है मेरी कि जहाँ देखूँ...दिखती है बस...कोई ना कोई मैडम"


"सुबह आँख खुलते ही एक मैडम जी के शलोक सुनो"...

"दूजी के सुबह ट्रेन में प्रवचन सुन उसे टुकुर-टुकुर निहारो"...

"शाम को उसी के इंतज़ार में कई बार जानबूझ'मालवा'मिस करो"


"और अगर मालवा में जाओ तो तीजी को रेलगाडी में 'नमस्ते मैडम जी...नमस्ते मैडम जी' कह...

जी हजूरी वाले अन्दाज़ में दुआ-सलाम करो"...


"टी.टी जो ठहरी". ..

"ऊपर से एक्स बॉक्सिंग चैपियन"

"वल्लाह...क्या रौब है उनका"

"गरज़दार आवाज़ कि असली शेर भी एक बार को थर्रा उठे"

"एक बार तो बिना ठुक्के पर्ची भी कटवा चुका हूँ चुपचाप"....

"मरना थोडी था मैँने जो नानुकुर करता"

"अब बार-बार यही काम करूँगा क्या?"...


"ये तो शुक्र है रिज़वी साहेब का जो बक्श देते हैँ ज़्यादातर"...

"वर्ना उनसे कडक ....उनसे गुस्सैल तो मैँने किसी 'टी.टी'को देखा नहीं है आजतक"...


"ये तो अल्लाह का करम है कि अभी हाल ही में हज हो के आए हैँ अपने रिज़वी साहेब"...

"सो!...गुस्सा तो उन्हें जैसे बिना छुए ही निकल जाता है दूर से"

"अभी हाल ही का एक किस्सा याद आ गया उनका"...

"रोज़मर्रा की तरह चैकिंग जारी थी जनाब की".. .

"एक लडकी ने उन्हीं के सामने ...उन्हीं के मुँह पे कह डाला कि..

"कर ले जो करना है...मैँ रिज़वी को जानती हूँ"...

"उन्हें पहचानती हूँ...अच्छे जानकार हैँ मेरे ..वगैरा...वगैरा"


"अब उस बेवाकूफ को कौन समझाता कि...

"बावली!...जिस बन्दे के सामने तू ये सब बखान गा रही है...

वही...खुद सोलह आने...सौ फीसदी शुद्ध रिज़वी ही है"


"उसका तो पता नहीं लेकिन सिहर तो हम उठे थे कि...

"बिना नहाए-धोए ही गयी इसकी भैंस पानी में"...

"कर लिया खुद ही सत्यानाश"

"तीन सौ बीस की पर्ची तो पक्की ही पक्की समझो"

"लेकिन मजाल है जो साहेब के माथे पे शिकन तक आई हो"...

"बस अपने एस्कार्ट लोगों से यही कहा कि "समझाओ यार इसको" और मंद-मंद मुस्काते चल दिए आगे"


"बाकी मैदमों से पिंड छूटे तो रात घर पहुँच अपनी पर्सनल मैडम जी की सुनो और अपनी आपबीती बतिआओ"


"अब इस चौथी मैडम का नाम ना ही लो तो बेहतर"...

"पिछली वालीयों ने तो कुछ का जीना ही दूभर किया है या किया होगा लेकिन...

यहाँ दिल्ली में इस चौथी वाली मैडम ने तो ऐसा कहर बरपाया है कि बस पूछो मत"...

"मुख्यमंत्री जो ठहरी"

"अब आप ना भी पूछे तो बताने से कैसे गुरेज़ करे ये राजीव..."....



"पहले नाश्ता तो ठूस लो ठीक से...

फिर करते रहना पूरे रस्ते बखान अपनी इन मैडमों का"....

"पानी कब से गर्म हो-हो ठंडा हो गया लेकिन जनाब को लिखने-लिखाने...और इधर-उधर की बतिआने से फुर्सत मिले तब ना"

"फिर कहोगे कि बोलती है"...

"जल्दी से नहा के खिसक लो पानीपत"...

"याद है ना कि मुन्ने की फीस भरनी है जुर्माने सहित?"

"कल-कल करके पूरा महीना बीत गया तुमसे लेकिन फीस भरते ही नहीं बनता"

"जब नाम कट जाएगा ना...तभी अक्ल आईगी तुम्हें"...

"पता नहीं आएगी भी या नहीं"बीवी खुद से ही बातें करते हुए बोले चली जा रही थी

"बीवी की डांट-डपट सुन लिखने से मन उचट गया मेरा"...

"भला कहीं ऐसे अशांति भरे माहोल में कुछ लिखा जा सकता है?"


"नहीं ना"...

"तो बस फटाफट ब्रैड के दो स्लाईस ठूसे मुँह में और सीधा घुस गया नहाने"...

"अब नहाया ना नहाया...सब बराबर था क्योंकि पाने तो कब का ठंडा हो चुका था"

"बीवी!...और गीज़र फिर से ऑन कर देती?...सवाल ही नहीं पैदा होता"

"बस जैसे तैसे करके फ्रैश हुआ और कपडे पहन भाग लिया स्टेशन की ओर"


"बस!...यही कोई दो मिनट की कसर...और ट्रेन मुझे मुँह चिढाते हुए सरपट दौडी चली जा रही थी"...

"ले बेटा!...कर ले पीछा"

"भाग के भी कोई फायदा ना देख लटका सा मुँह ले बीवी की तरफ ताका तो वो मुँह बनाते हुए बोली...

"घर में कौन सा अण्डे पडे हैँ सेने को?"...

"चलो बाईपास छोडे देती हूँ"

"याद है ना कि मुन्ने की फीस ...."

"बीवी की बात अनसुनी कर मैँने बीच में ही मुण्डी हिला हामी भर दी"

"बाईपास आ चुका था ...सो!...बीवी से हैंड शेक कर मैँने बस पकड ली"


"आखरी सीट खाली थी सो वहीं बैठ गया"...

"टिकट कटवा कुछ देरे इधर-उधर ताकता रहा फिर बोर हो अपनी कॉपी पैंसिल निकाल शुरू हो गया"

"लेखकीय कीडा जो ठहरा...उभरे..उभरे...ना उभरे...ना उभरे"...

"कब उभर जाए कुछ पता नहीं"...

"चेहरे पे दर्द और होंठो पे मुस्कान लिए बिना रुके लिखता जा रहा था मैँ"...


"तुम इतना जो मुस्करा रहो..क्या गम है जो छुपा रहे हो"


"क्या हुआ राजीव बाबू?"...

"किस सोच में डूबे हो?"अचानक आई आवाज़ से मेरे विचारों की बनती बिगडती श्रंखला टूट गयी

"देखा तो बगल में अपने दहिया साहब खडे थे"

"उनकी भी छूट गयी थी"...

"अ..अ..कुछ खास नहीं ...बस ऐसे ही"मैँने खिडकी की तरफ खिसकते हुए कहा


"अब क्या मुँह लेकर अपना हाल ब्याँ करे ये राजीव?"

"मैँ खुद ही तो तारीफों के पुल बाँधा करता था उनके"...

"हाँ!..उन्हीं के"....

"जिनकी वजह से तो आज मेरा ये हाल है"...

"आज अगर मेरा काम-धन्धा...मेरा घरबार...

सब टूट की कगार पर है तो सिर्फ उन्हीं के कारण"


"दोराहे पे खडा आज मैँ सोच रहा हूँ कि किस ओर जाऊँ?"...

"इस ओर...या फिर उस ओर"...

"जाऊँ तो जाऊँ कहाँ...बता है दिल...कहाँ है मेरी मंज़िल?"



"कौन ऐसा नहीं होगा जो...मेरा मज़ाक...

मेरी खिल्ली नहीं उडाएगा?"....


"सब के सब यही कहेंगे कि बडा अपना 'टीन-टब्बर' सब उखाड ले गया था पानीपत कि..

अब तो वहीं सैट होना है"...

"वही मेरी कॉशी...वही मेरा मक्का"


"आ गए मज़े?"...

"ले लिए वडेवें?"...

"हर जगह अपनी ही चलाता था"...

"अब पता चला बच्चू को कि मंडी में आलू क्या भाव बिकता है?"जैसे ताने बारम्बार मेरे कानों के पर्दों को बेंध ना डालेंगे?"


"उनका भी क्या कसूर?"


"मैँ खुद ही जो छाती ठोंक बडे-बडॆ दावे करता था कि...

'मेरी दिल्ली मेरी शान'...

'दिल्ली पैरिस बन के रहेगी'...


"माँ दा सिरर बन्न के रहेगी"...

"ढेढ साल में तो कुछ हुआ नहीं"....

"अब वैसे भी वक्त ही कितना बचा है अपनी चौथी वाली मैडम जी के पास?"

"खेल सर पे तैयार खडे हैँ होने को और मैडम जी अभी 'फ्लाईओवर' भी पूरे नहीं बनवा पाई हैँ"...


"पिछले ढेढ साल में और अब में कितना फर्क पड गया है?"...


"टट्टू जितना भी नहीं"


"दावे तो लम्बे चौडे कर रही है मैडम जी खुद और उनका लाव लश्कर भी लेकिन ...

हालात तो अभी भी जस के तस ही हैँ"...


"वही आँखे मूंद!..बेतरतीब दौडती भीड"....

"वही हमेशा!..दुर्घटनाएँ करती बेलगाम ब्लू लाईन बसें"....

"वही उनकी!..रोज़ाना की अन्धी भागमभाग"...

"वही उनकी!..लफूंडरछाप दादागिरी"...


"कुछ भी तो नहीं बदला है"


"वही सरे आम!..अवाम को ठगते-एंठते ऑटो-टैक्सी वाले"...

"वही केंचुए की चाल!..रेंगता ट्रैफिक"

"वही बिजली के!..लम्बे-लम्बे कट"..

और वही जम्बो जैट के माफिक!..बिजली के तेज़ दौडते मीटर"


"कुछ बदला भी है कहीं?"...


"हाँ!..बदला है अगर कुछ...तो वो है आम आदमी का मायूस चेहरा"...

"हाँ!..मायूस कहना ही सही रहेगा"...


"इनके मायूसियत लिए मासूम चेहरे के पीछे ज़रा ठीक से झांक कर तो देखो मैडम जी"

"कैसे मर-मर जीने की चाह में जिए चले जा रहे हैँ ये"

"लेकिन पराई पीड आप क्या जानो?"...

"आपका क्या है?"..

"कौन सा आपको भाग कर बस या गाडी पकडनी है?"...

"कौन सा आपको बिजली,पानी और मोबाईल के बिल भरने हैँ?"...


"कौन सा आपके मकान,दुकान या फैक्ट्री पे हथोडा बजाया जा रहा है?"


"कौन सा आपकी दुकान या बिल्डिंग को 'सील'लग रही है?"...


"दिल्ली 'पैरिस' बने ना बने लेकिन इतना तो सच है ...कि आपके घर ....

ऊप्स!...घर कहाँ हुए करते हैँ आपके?"...

"सॉरी!..घर तो हम जैसे मामूली लोगों के होते हैँ"...

"आप लोग तो बँगलो में रहा करते हैँ"...


"हैँ ना!...?"...


"आपके बँगले बनेंगे...ज़रूर बनेंगे लेकिन हम लोगों की जेबों के दम पर"..


"यही सच है ना?"...


"पैरिस क्या...फ्राँस क्या...और लंदन क्या...

दुनिया के हर देश...हर शहर..हर मोहल्ले की पॉश कालोनियों में बनेंगे"

"और!...वो भी एक से एक टॉप लोकेशन पर"


"हाँ!...हमीं लोगों की जेबों की कीमत पर"मेरा ऊँचा स्वर मायूस हो चला था


"पता नहीं कैसे पाई-पाई जोड कर हमने अपना ये छोटा सा आशियाना बनाया"..

"सालों साल एडियाँ रगड-रगड कर अपना रोज़गार जमाया"...

"जब कुछ खाने कमाने लायक हुए तो मैडम जी कहती हैँ कि...

"चलो!..भागो यहाँ से"...

"टॉट का पैबन्द हो तुम दिल्ली के नाम पर"..

"धब्बा हो दिल्ली की शान में"


"सील कर देंगे हम तुम्हारी ये दुकाने. ..ये फैक्ट्रियाँ"...

"तोड देंगे तुम्हारे ये फ्लैट..ये मकान"...

"नाजायज़ कब्ज़ा जमा रखा है तुमने"...


"अरे!...काहे का नाजायज़ कब्ज़ा?"..

"पूरे गिन के करारे-करारे नोट खर्चा किए थे हमने"


"पता भी है तुम्हें कि कितने सालों से?"...

"क्या-क्या जतन करके...कहाँ-कहाँ अँगूठा टेक के पैसा इकट्ठा कर हमने ये छोटा सा दो कमरों का मकान खरीदा और...

अब आप ये कहने चली हैँ कि ये ग्राम सभा की सरकारी ज़मीन है...या फिर एक्वायर की हुई ज़मीन है"...


"हमें कुछ नहीं पता कि ग्राम सभा क्या होती है और एक्वायर किस बिमारी का नाम है?"


"हमें तो बस इतना पता है कि ये दुकान..ये मकान हमारा है"


"चलो माना कि आप सच ही कह रही होंगी सोलह आने कि ये ग्राम सभा की ज़मीन है...

माने सरकारी ज़मीन लेकिन...

तब आपके मातहत कहाँ गए हुए थे जब पैस ए ले-ले यहाँ खेतों में धडाधड कलोनियाँ बसाई जा रही थी?"

"तब क्यों नहीं रोका था हमें?"

"तब क्यों नहीं अन्दर किए थे कॉलोनाईज़र और प्रापर्टी डीलर?"

"वो भी तो पैसे ले कर इधर-उधर हो गए थे"मैँ खुद से बातेँ करता हुआ बोला


"उस वक्त तो पाँच हज़ार रुपए पर 'शटर' के हिसाब से...

नकद गिन के धरवा लिए थे सरकारी बाबुओं ने चिनाई चालू होने से पहले ही कि...


"हाँ!...दल दो हमारे सीने पे दाल"..

"हम पत्थर दिल हैँ"...

"हमें कोई फर्क नहीं पडता"..


"ठीक उनके दफतर के सामने ही तो निकाली थी तीन दुकाने मैंने"...

"कोई रोकने वाला...कोई टोकने वाला नहीं था...

नोटों भरा जूता जो मार चुका था पहले ही" ..


"ये तो बाद में पता चला कि सालों ने पैसे भी डकार लिए और पीठ पीछे कंप्लेंट कर छुरा भी भौँक डाला सीने में"...

"सालों!..को अपनी कुर्सी जो प्यारी थी"

"सो!...बेदाग बचाने को सारी कसरतें की जा रही थी"...

"ऊपर दफतर में खिला-पिला के मेरे केस की फाईल दबवा दी कि कुछ भी हो साल दो साल ऊपर उभरने तक ना देना"...

"बाद में अपने आप निबटता रहेगा खुद ही"..

"वाह!...क्या सही तरीका छांटा है पट्ठों ने"...

"जेब की जेब भरी रही और कुर्सी की कुर्सी बची रही"


"कहने को तो जनता के सेवक हैँ"...

"सेवा करना इनका धर्म है...तनख्वाह मिलती है इन्हें इसकी"..


"अजी छोडो ये सब!...काहे के जनता-जनार्दन के सेवक?"...


"सेवा-पानी तो उल्टे अपनी ये करवाते हैँ हमसे"

"लानत है ऐसे जीवन पर"...

"इनकी सेवा भी करो और इनका पानी भी भरो"


"मैडम जी!...आपका डिपार्टमैंट कहता है कि सिर्फ दिल्ली जल बोर्ड का पानी ही पिएँ"..

"अरे!...पहले ठीक से घर-घर पहुँचाओ तो सही इसे"...

"फिर हम ना पिएँ तो कहना"


"वैसे एक बात बताएँगी आप सच्ची-सच्ची?"

"आपने कभी खुद भी पी के देखा है इसे?"....

"कैसे सडाँध मारता है ना कई बार?"


"है ना?"...


"इसका मटमैला रंग देख तो उबकाई भी आने से मना कर देती है"..


"ठीक है!...माना कि आप सिर्फ और सिर्फ फिल्टरड पानी ही इस्तेमाल करती हैँ....

नहाने के लिए भी और *&ं%$# के लिए भी"...


"किसी से सुना तो ये भी है कि आपके कुत्ते तक भी बिज़लरी के अलावा दूजा सूँघते तक नहीं हैँ"...

"अल्सेशियन जो ठहरे"

"अरे!...हमें उनसे भी गया गुज़रा तो ना बनाएँ आप"

"प्लीज़!..विनती है हमारी आपसे कि...

ढंग से बाल्टी दो बाल्टी पीने का पानी ही म्यस्सर करवा दिया करें"


"तब कहाँ गई थी मैडम जी आप?"

"जब पुलिस वाले बीट आफिसर बारम्बार मोटर साईकिल पे चक्कर काट काट अपना हिस्सा ले जा रहे थे और...

बाद में चौकी इंचार्ज को भेज दिया था कि जाओ तुम भी कर आओ मुँह मीठा"..

"हो जाएगी तुम्हारी भी दाढ गीली"


"आप कहती हैँ कि हमने अवैध कंस्ट्रक्शन की हुई है तो...

आप ये बताएं कि किसने नहीं किया है ये तथाकथित अवैध निर्माण?"

"क्या आप नेताओं के निर्माण दूध के धुले हैँ?"

"कुछ अनैतिक नहीं है उनमें?"

"क्या आपको ज़रूरत हो सकती है अतिरिक्त स्पेस की...हमें नहीं?"

"क्या आपकी ज़रूरतें जायज़ हो सकती हैँ...हमारी नहीं?"


"अच्छा किया जो आपने बुल्डोज़र चला हमारा आशियाँ मटियामेट कर दिया...ध्वस्त कर दिया लेकिन...

क्या आपके अपने अवैध निर्माणों की तरफ आप ही के बुल्डोज़र ने निगाह करना भी गवारा समझा?"

"उचित समझा?"


"नहीं ना!...?...


"किस मुँह से पत्थर फेंकते हो ए राजीव ...जब आशियाँ तुम्हारा भी शीशे का है"

"रेत के ढेर पे तुम भी खडे हो और हम भी पडे हैँ"...

"ना तुम सही हो...ना हम ही सही हैँ"


"अरे!..हमारा दिल देखो....हमारा जिगरा देखो"...

"आपने हथोडा बजाया"...

"कोई बात नहीं"...

आपने सील लगाई"...

"कोई बात नहीं"

"लेकिन इतना तो ज़रूर पूछना चाहूँगा आपसे कि...

अगर हमारे यहाँ से हथोडों की धमाधम आवाज़ें हमारे दिल ओ दिमाग को बेंधे जा रही थी तो

कम से कम आपके वहाँ से हथोडी की महीन सी ...बारीक सी आवाज़ भी हमें तसल्ली दे जाती कि ..

कानून सबके वास्ते एक है"...


"हम चुपचाप संतोष कर अपने रोते हुए दिल को शांत कर लेते कि...

"कोई छोटा...कोई बडा नहीं है कानून की नज़र में"

"वो सबको एक आँख से देखता है"

"लेकिन अफ्सोस!...जो हुआ...जैसा हुआ...

उस से तो लगता है कि इससे तो अच्छा था कि कानून की एक आँख भी ना ही होती"...

"यूँ भेदभाव तो नहीं कर पाता वो"..


"कहने को हम लोकतंत्र में जी रहे हैँ"..

"अगर ये भ्रम मात्र है हमारा तो प्लीज़...इसे भ्रम ही रहने दें"

"करो ना यूँ ज़मीनोदाज़ हमारे आशियाँ...जवाब तुम्हें ऊपर भी देना है"


"तब कहाँ चली जाती हैँ मैडम जी आप?...

जब चौक पे खडे हो ड्यूटी बजाने के बजाए आपके ट्रैफिक हवलदार झाडियों के पीछे छुप...

पहले तो आम आदमी को कानून तोडने के लिए प्रेरित करते हैँ और फिर...

चालान से सरकारी खजाना भरने से पहले अपनी जेब भरने को बाध्य करते हैँ"...


"ठीक है!...माना कि खर्चे बहुत हैँ सरकार के...कोई सीधे-सीधे दे के राज़ी नहीं है लेकिन...

ये कहाँ का इंसाफ है कि सीधे तरीके से जब घी ना निकले तो सरकार भी अपनी उँगलियाँ टेढी कर ले?"


"चालान तो आपने वही रखा सौ रुपए का ही लेकिन...टैक्स के नाम पर पाँच सौ का फटका अलग से लगा दिया"...

"वाह री शीला!...देख लिया तेरा इंसाफ"

"ज़ोर का झटका...सचमुच बडी ज़ोर से लगा दिया ना?"...


"आप कहती हैँ कि इससे तो गाडे-घोडे वालों को ही फर्क पडेगा...आम आदमी को नहीं"...

"ये तो बताओ मैडम जी कि ये फालतू का खर्चा कहाँ से ओटेंगे वो बेचारे?"


"किराए बढा दिए जाएँगे...आटा...दाल-चावल...कपडा-लत्ता सब मँहगा हो जाएगा"

"कुछ खबर भी है आपको?"


"एक तो पहले से ही बढे हुए कम्पीटीशन से कमाई में कमी...

ऊपर से सीलिंग और मँहगाई की मार"...


"वाह मैडम जी...देखा तेरा पलटवार"

"अरे!...अगर खर्चे ही पूरे करने हैँ तो अपने मातहतों की जेबें...उनके बैंक एकाउंट...

उनके बँगले...उनकी जायदादें आदि...सब खंगाल मारो"...

"गारैंटी है कि उम्मीद से दुगना क्या...चौगुना क्या और सौ गुना भी मिल जाए तो कम होगा"

"क्यों ठिठक के रुक क्यों गयी आप?"...

"अपनों के लपेटे में आने का डर सता रहा होगा?"


"ये कहाँ की भलमनसत है कि उन्हें बक्श..आम आदमी को चौ तरफी मार मारें आप?"


"एक तरफ सीलिंग का डंडा"...

"मँहगाई की मार".. .

"हर समय घरोंदो के टूटने-बिखरने का सताता डर"


"आप ही के मुँह से सुना है कि आप दिल्ली को इंटरनैशनल लैवल का बनाने जा रही हैँ"...

"आप कहती हैँ कि मैट्रो दिन दूनी रात चौगुनी तेज़ी से बन रही है लेकिन...

फिर भी आम जनता बसों में बाहर तक लटकी क्योँ नज़र आ रही है?"


"आप कहती हैँ कि मॉल रातोंरात ऊँचे पे ऊँचे हुए जा रहे रहे हैँ लेकिन...

फिर भी छोटे अनाअथोराईज़्ड कॉलोनियों में बाज़ार अभी भी भीड से क्योँ अटे पडे हैँ?...क्योँ भरे पडे हैँ?"..


"आप कहती हैँ कि सडकों की लम्बाई-चौडाई बढ रही है लेकिन...

फिर भी रेहडी-पटरी वाले अभी भी जस के तस सडकों पे कब्ज़ा जमाए क्योँ जमे खडे हैँ?"


"आप कहती हैँ कि फ्लाईओवर बन रहे हैँ ..बनते चले जा रहे है लेकिन...

फिर भी सडको से जाम क्योँ खुलने का नाम नहीं ले रहे हैँ?"


"कहने को...लिखने...बहुत कुछ है बाकी था ए राजीव लेकिन...

बोल बोल के...सोच सोच के थक चुके मेरे विचारों ने मेरा साथ छोड नींद का दामन थामने का एलान कर दिया"

"आँखे अब बोझिल सी होने लगी थी...पता नहीं कब आँख लगी...ना लगी"


"उठो तनेजा साहेब!...देखो क्या नया जुगाड लाया हूँ मोबाईल में"दहिया साहब की आँखो में चमक थी

"आप भी क्या याद करोगे कि किसी टीचर से यारी की है आपने "...

"एकदम से लेटेस्ट हरियाणवी 'एम.एम.एस'"वो फुसफुसाते हुए बोले

"नीला दाँत(ब्लू टुथ)ओपन करो अपने मोबाईल का"

"बस एक मिनट में पहुँच जाएगा"

"वैसे भी पानीपत आने ही वाला है"

"क्या करनाल जा के ही उठोगे आप?"दहिया साहब मुझे झकझकोड कर जगाते हुए बोले

"मैँ तो पूरे रास्ते इंतज़ार करता आया कि...अब जागेंगे कि अब जागेंगे"

"लगता है रात भर भाभी ने सोने नहीं दिया"दहिया साहब शरारत से मुस्कुराते हुए बोले

"इतना ज़्यादा कसरत ना किया करें आप कि अगला दिन जम्हाई और अँगडाई लेते लेते ही गुज़रे"


उनकी बात की तरफ ध्यान न दे मैँने खिडकी से बाहर झाँका तो देखा पानीपत आ चुका था"...

"कॉपी की तरफ नज़र दौडाई तो पहले सफे के बाद खाली की खाली थी"...

"लगता है कि मैँ सपने में ही अपनी भडास लिखता रहा...निकालता रहा"...


"खैर!...कोई बात नहीं...एक नया टॉपिक जो मिल गया था लिखने को"....

"यहाँ बस में ना सही तो ना सही"...

"कौन सा दुकान पे जा कल के दिए अण्डे सेने हैँ?"


"जय हिन्द"...

"भारत माता की जय"



***राजीव तनेजा***
 
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