थोडा-बहुत..सच…बहुत कुछ झूठ- राजीव तनेजा

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“सजन रे…बूट मत खोलो…अभी बाज़ार जाना है…

ना दालें हैं ..ना सब्जी है…अभी तो राशन लाना है"…

अरे!…ये क्या?….मैं तो असली गीत गाने के बजाय उसकी पैरोडी गाने लगा?…गा-गा मस्ताने लगा….असली गाना तो शायद…कुछ इस तरह से था ना?…

“सजन रे…झूठ मत बोलो…खुदा के पास जाना है…

ना हाथी है..ना घोड़ा है…वहाँ तो बस…पैदल ही जाना है"…

हाँ-हाँ…अब इस बुढियाती हुई उम्र के चालीसवें बसन्त में आप मुझे पैदल ही चलवाओगे?…हाथी…घोड़े तो सब भेज दिए ना चपड़गंजुओं की बारात में नाचने-गाने और हिनहिनाने के लिए?…और उम्मीद भी क्या की जा सकती है आप जैसे वेल्ली फूं फां करने वाले नामाकूल..दगाबाज़ और निर्लज्ज टाईप के टपोरी दोस्तों से?”…

खैर!…आप सबसे तो मैं बाद में निबटूँगा…लेकिन बाय गाड…कसम से….

“सजन रे…बूट मत खोलो…ऊप्स!…सॉरी…झूठ मत बोलो”….

क्या बढ़िया गाना था?…क्या बढ़िया इसके बोल थे?…कोई मुकाबला नहीं…कोई कम्पीटीशन नहीं...

कसम से!…सच्ची…बाय गाड…गुज़रा ज़माना याद आ गया सन पचपन का…याने के अपने बचपन का…

अरे-अरे…इस मुगालते में मत रहिएगा कि मैं सन पचपन से भी पहले की पैदाइश याने के एंटीक माल की जिंदा नुमाईश हूँ..ये तो बस…ऐसे ही तुक मिलाने के लिए लिखना पड़ा…वर्ना मैं?…मैं तो….

अब मैं भला आपको क्यों बताऊँ कि इन नशीली…सपनीली आँखों के सामने कितने पुराने किले अपने शिखर से ढह…मिटटी में मिल…धूमिल हो.. ध्वस्त हो चुके हैं या फिर होने की कगार पर हैं?….

अरे-अरे…आप तो फिर अनचाही सोच में पड़…बिना सोचे-समझे ही सोचने को मजबूर हो गए…कोई सच में ही थोड़े ही मैंने इन इतिहास के पन्नों में दर्ज हवा-हवाई किलों को उनकी बुलंदी से नीचे गिर..ज़मीन में नेस्तनाबूत हो…स्वाहा होते देखा है…वो तो बस…ऐसे ही कभी-कभार फिल्म डिवीज़न की पुरानी डाक्युमेंट्री फिल्मों के जरिये इस बाबत थोड़ी-बहुत खोज खबर हो जाया करती थी वर्ना आदमी तो हम कभी भी..किसी काम के ना थे…

खैर!…इस सब से हमें क्या?…हम तो बात कर रहे थे पुराने गीतों की…तो कोई वक़्त होता था इस तरह के गीतों को गाने-गुनगुनाने का लेकिन…किन्तु…परन्तु…बाय गाड…कसम से…अब तो ज़माना बदल गया है…लोग बदल गए हैं…शब्दों के मतलब…उनके मायने बदल गए हैं…अब तो सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो रहा है….होता जा रहा है…पता नहीं ज़माना किधर का किधर जा रहा है?…

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पहले लड़कियों के ये लंबे…घने और काले बाल हवा में लहरा-लहरा के बल खाते हुए गज़ब ढाया करते थे…अब लड़के इस मामले में उनसे आगे आ उन्हें ही कम्पीटीशन देने को ‘पोनी’… ‘जूडा’… ‘चोटी’..और ना जाने क्या-क्या बनाए घूम रहे हैं?…
पहले ३६ से ४० तक की मोरी वाली बैलबाटम टाईप पतलूनें पहन…लड़के आवारा दिलफैंक भंवरों के माफिक…तितली छाप लड़कियों के इर्द-गिर्द मंडरा…अपनी प्यास बुझाने को आतुर दिखाई दिया करते थे ..अब इसी काम को करने के लिए लड़कियों की तन से चिपकी एकदम फिटटम फिट…जांघिए टाईप कसी हुई जीन्सें आ गई हैं…कभी लड़कियाँ लबादे से एकदम ढकी-छिपी नज़र आती थी …अब उन्हीं के कपडे दिन पर दिन छोटे हो…गायब होने की कगार पे पहुँच…लुप्त होने की ओर तेज़ी से अग्रसर होते जा रहे हैं …

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क्यों?…सही कहा ना मैंने?”…

पहले मधुर गीतों की सुमधुर स्वर लहरियां कानों में रस घोल उन्हें गुंजायमान किया करती थी..अब रीमिक्स कान के पर्दे…पर डे(per day) के हिसाब से छप्पर तक फाड़े डाल रहा है …नतीजन…बिना बजाए ही कान खुद बा खुद अपने आप बजने लगे हैं…

एक बुज़ुर्ग को कभी कहते सुना भी तो था कि…

“पहले हुआ करती थी रोटी..अब आ गया है पिज्जा”…

“जिससे ना बची कोई बहन…ना बचा कोई जिज्जा”…

कहने का मतलब ये कि तब…तब था....और अब…अब है...पहले इज्ज़त-आबरू…अब निरी बे-हय्याई… 

खैर!…छोडो..क्या रखा है इन भूली-बिसरी बातों मे?"

“सजन रे झूठ मत बोलो"…
ये गाना भी तो पहले ज़माने का ही है..कौन सा अब का है?….अब तो हर बात के मायने बदल गए है...मतलब बदल गए हैँ…तब झूठ से तौबा और सच्चे का बोलबाला था…अब झूठे का मुँह रौशन और सच्चे का मुंह काला है …सौ बातों की एक बात कि अब तो सिर्फ झूठ और झूठों का ही ज़माना है …जितना बोल सकते हो…दिल खोल के…मुंह फाड़ के…गला खंखार के..बिना शर्माते हुए बेझिझक  बोलो…बोलते चले जाओ

“अब मालुम भी है कुछ कि…क्या कहना है?…क्या बोलना है?..या फिर इसके लिए भी मेरी ही तरफ मुंह करके अवाक दृष्टि से ताकते रहेंगे?”…

“क्या कहा?”…

“आदत पड़ चुकी है बिना कुछ जाने-बूझे दूसरों के सुर में अपना सुर मिला..हाँ में हाँ मिलाने की?"
"ओह!…अच्छा…

“ठीक है…तो फिर ज़रा जोर से....एकदम साफ-साफ…खुले शब्दों में…खुल कर इस खुशनुमा माहौल में सबको खुश करते हुए अपनी खुशी से सबके सामने खिलखिला कर कहो कि…मैं जो कुछ कह रहा हूँ…सच्चे दिल से कह रहा हूँ और सच के सिवा सब कुछ कह रहा हूँ”….

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“धत्त तेरे की…रह गए ना फिर वही बुडबक के बुडबक?…इत्ती देर से क्या समझा रहा हूँ मैं?…यही ना कि झूठ बोलना है…सिर्फ झूठ?…और आप हैं कि अभी भी यही गाए चले जा रहे हैं कि ….सिर्फ और सिर्फ सच बोलना है और सच के सिवा कुछ नहीं बोलना है"…

"वाह!…वाह रे मेरे बटुंकनाथ....वाह”...

“क्या दिमाग पाया है तुमने तो…भय्यी वाह"…

?…?…?…?

"भईय्या मेरे...वो ज़माना तो कब का रफूचक्कर हो के फुर्र हो…उड़नछू हो   गया जब…टके सेर भाजी और टके सेर खाजा मिला करता था"…
“अब तो मियाँ सिर्फ और सिर्फ झूठ बोलो…खूब दबा के बोलो...बढ-चढ के बोलो... भला कौन रोकता है तुम्हें इस सबसे?…और भला रोके भी क्यों?… इसमें कौन सा टैक्स लग रहा है?”… 

"क्यों?…सही कहा ना मैंने?”..

“अब वो एक 'फिल्लम' में अपने चीची भईय्या याने के गोविंदा जी भी तो यही समझा रहे थे ना?"...
"देखा!....कितनी सफाई से झूठ पे झूठ बोले चले जा रहे थे पूरी फिल्लम में और कोई माई का लाल उन्हें पकड़ तो क्या?…छू भी नहीं पा रहा था…भय्यी वाह!…इसे कहते हैँ अपने पेशे को पूर्ण समर्पित कलाकार" …

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'अरे!..यार...अब आखिर में तो थोड़ा-बहुत सच बोलना ही पड़ेगा ना फिल्लम में?…‘रील' लाईफ है वो…रीयल लाईफ नहीं कि आप डंके की चोट पे झूठ् पे झूठ बोलते चले जाओ और कोई रोके-टोके भी नहीं…और वैसे भी ये आदर्श-वादर्श नाम की बीमारी भी तो होती है ना हमारे देश के कुछ एक  फिल्मकारों को…सो!..ना चाहते हुए दिखाना पड़ता है थोडा-बहुत सच…और बहुत कुछ झूठ ..ऊपर से सेंसर बोर्ड का डंडा भी तो तना रहता है हरदम…कि इधर कुछ ज्यादा ही पुट्ठा लिखा या दिखाया तो उधर तुरंत ही कैंची की कचर-कचर चालू”…
"वैसे!…अपनी शर्मीला आँटी भी तो पुराने ज़माने की ठहरी...बिना काट-छाँट के पास कैसे होने देती?…अहम के साथ-साथ प्रोफैशनल मजबूरी भी कुछ होती है कि नहीं?…

और फिर थोड़ा-बहुत काम्प्रोमाईज़ तो यार…करना ही पड़ता है वाईफ के साथ भी और लाईफ के साथ भी …सो!…करना पड़ गया होगा समझौता वर्ना आप तो अपनी एकता कपूर को जानते ही हैं… अब एक साथ…एक ही पुश्ते पे दो-दो अड़ियल घोडियां अड जाएँ किसी एक बात को लेकर तो नतीजे  का अनुमान तो आप खुद ही लगा सकते हैं…सो!…करना पड गया होगा मन मार के समझौता नहीं तो पास कहाँ होने देना था पट्ठी ने फिल्लम को?..

भगवान ना करे अगर अड गयी होती उनमें से कोई एक भी किसी जंगली भैंसे की तरह तो आज...गोविन्दा और एकता कपूर तो घर बैठे ही पोपकार्न चबाते हुए फिल्लम को देख रहे होते ना बाकी सब कलाकारों के साथ?…हाल पे तो रिलीज़ ही कहाँ हो पाना था इसने?…

"समझे कुछ?..दिखाना पडता है कभी-कभार...थोडा-बहुत..सच और बहुत कुछ झूठ”..  वैसे…देखा जाए तो अब भी भला कौन सी नयी बात हुई थी?…हाल तो अब भी सफाचट मैदान ही थे ना?…खाली पडे रहे ...कोई आया ही नही फिल्लम देखने…बुरा हो इन मुय्ये टी.वी चैनल वालों का…सारी पोल-पट्टी खोल के रख दी मिनट भर में ही कि ये अंग्रेज़ी फिल्म ‘Liar…Liar…Liar’ की सीन दर सीन बस…नकल मात्र है”…

अब कौन समझाए इन बावली पूंछों को?…एडियाँ रगड़-रगड़ के ना जाने कितनी पीढियाँ  गुजर गई इन चपड़गंजुओं की इस मायानगरी में फिल्में बनाते-बनवाते लेकिन पता नहीं ढंग से नकल करना भी  इन्हें कब आएगा?…ओए!…कुछ दम भी तो हो 'स्टोरी'....'एक्टिंग' और ..'डाईरैक्शन' में....ये क्या कि चार-पाँच' फिरंगी' फिल्में उठाई...पाँच-सात गाने ठूसे… दो-एक रेप सीन.. एक आध आईटम नम्बर...एक वक़्त-बेवक़्त टपक पडने वाला 'मसखरा'... और सबको मिक्सी में घोटा लगा अपना परचम फहरा दिया कि …. “लो जी...हो गयी एक ओरिजिनल 'फिल्लम' पूरी"…

ना जाने कब अकल आएगी इन लोगों को लेकिन एक बात तो आप भी मानेंगे कि फिल्लम भले ही चली हो या ना चली हो लेकिन अपनी ‘सुश्मिता’ उसमें लग बड़ी ही मस्त रही थी…अब ‘आईटम गर्ल' ना होते हुए भी वो आईटम ऐसी है कि बस…पूछो मत… सुबह-सुबह ऊपरवाला झूठ ना बुलवाए…अपुन तो एक ही झटके में सैंटी हो के फ़्लैट याने के शैंटी-फ़्लैट हो गए थे… 

"उफ़!..किसकी याद दिला दी मियाँ?…कुछ तो तरस खाओ मेरी ढल कर टल्ली होती इस बेदाग़…निश्छल जवानी पर…वर्ना आपका तो कुछ बिगडेगा नहीं और मेरा कुछ रहेगा नहीं"…
वैसे…एक बात बताओ मियाँ…ये सुश्मिता कहाँ से टपक पडी हमारी आपस की इस मस्त होती पर्सनल गुफ्त्गू में?…कसम से…बाय गाड…आप भी ना...बस…आप ही हो…कुछ अपना दिमाग भी तो होता है या नहीं मियां कि गाड़ी अगर पटरी से उतर रही है तो उसे कम से कम धक्का देकर या फिर ठेल कर ही रस्ते पर ले आओ?…अगर इतना सब भी नहीं होता है आपसे तो कम से कम गाड़ी के ड्राईवर को या फिर
गार्ड को ही..इतला कर दो...सूचित कर दो...खबर कर दो कि …भईय्या…हांक ले अपने छकडे को पिछवाड़े से मंजिल की ओर" …

“ये क्या…कि निरीह बन बस…टुकुर-टुकुर ताकते फिरो सामने वाले का चौखटा?…उसमें  का सुरखाब के पर लगे हैं?”..

कहने को तो कहते हो कि गाँधी-नेहरु के अजब ज़माने की गज़ब सन्तान हैं हम लेकिन मजाल है जो कभी किसी को टोक भी दिया हो तो…हद हो यार..तुम भी…बात हो रही थी सच और झूठ की…बीच में ये बिना बुलाए सुश्मिता कहाँ से महारानी बन के टपक पडी?..

"उफ!...तौबा...ये लड़कियाँ भी ना…पता नही क्या कयामत बरपाएँगी?…गज़ब ये ढाती हैँ और तोहमत..हम बेचारे…मासूम लड़कों के जिम्मे आती है…पता नहीं इन हिरणियों की नज़र ए इनायत में ये कैसा नशा है कि इनके आगे-पीछे चक्करघिन्नी के माफिक चक्कर काट-काट डोलने को मन करता  है?...आखिर क्यूँ इन बावलियों के चक्कर में फँस अपना वक्त और पैसा ज़ाया करते फिरते हैँ हम लोग जब अच्छी तरह से पता भी है कि…टाईम वेस्ट इज़ मनी वेस्ट?… 

ज़्यादातर केसेज़ में तो पहले से पता भी होता है कि..मिलना-मिलाना कुछ है नहीं लेकिन फिर भी ना जाने क्यों और किस उम्मीद पे पैसा फूंकने को बेताब हो लगे रहते हैँ हम इनके पीछे लाईन में?….और फिर ऊपर से ये कमभख्त मारियाँ फिरती भी तो ग्रुप बना के हैं कि कोई ना कोई तो किसी ना किसी के साथ…कहीं ना कहीं…किसी ना किसी मोड पे…कैसे ना कैसे करके ज़रूर सैट हो जायेगी…मानों चलता फिरता मॉल हो गया कि सब की सब वैराइटी एक ही जगह हाज़िर कि… “ले बेटा!..चुन ले अपनी मनपसंद”… अब अगले अगर मॉल के माफिक दुकान सजा के बैठे हैँ तो मन तो कर ही जाता है ना कि..कुछ ना कुछ ले के बोहनी ही करा दो कम से कम?…

“पक्के आदमजात जो ठहरे…क्या करें?…कंट्रोल ही नहीं होता.. अब…जब अपने विश्वामित्र सरीखे ‘नारायण दत्त बिहारी' जी भी इस सब के मोहपाश से नहीं बच पाए तो हमारी-आपकी तो औकात ही क्या है?…लेकिन बस…इसी बात का थोड़ा-बहुत डर सा लगा रहता है हर समय कि इनमें से किसी के भी सर पे कहीं… ‘विनाश काले…विपरीत बुद्धि’ वाली कहावत का असर ना हो जाए और वो या फिर उसका बेटा मीडिया में यहाँ-वहाँ जुगाली कर अपना मुँह रौशन और हमारा मुँह काला करता फिरे…

लेकिन क्या महज़ इसी डर से कि… ‘मेरा मुँह करेगा काला…जग में मेरा राज दुलारा' …हम बाहर…शिकार पे निकलने के बजाय…बुजदिलों की भांति अपने-अपने घरों में छुप के बैठ जाएँ?…दुबक के बैठ जाएँ?…

“नहीं!…बिलकुल नहीं…कदापि नहीं”…

अगर घर में छुपना ही है…पलंग के नीचे दुबकना ही है तो हमें नहीं…इन निगोड़ी लड़कियों को छुपाइये…इन्हें समझाइये कि…

“यूँ धूप में निकला ना करे ये रूप की रानी…गोरा रंग काला ना पड़ जाए”..

“अब!..पड़ जाए तो पड़ जाए…मुझे परवाह नहीं……मैं तो काली क्या?…काणी के साथ भी कैसे ना कैसे करके एडजस्ट कर लूँगा…आप अपनी सोचो…क्योंकि…मेरे लिए तो ‘जैसी सूरत रानी की…वैसी सूरत काणी की’…

बस!…आपका अपना याने के खुद का दिल साफ़ होना चाहिए लेकिन हाँ…इतना भी साफ़ ना हो कि हर कोई ‘यूज इट एण्ड थ्रो इट' की पोलिसी को अपनाता हुआ आपका इस्तेमाल करे और फिर आपको…आपके ग़मों के साथ अकेला छोड़…खुद अपने रस्ते चलता बने”…

“बस!…इसी बात का ध्यान रखें कि दूसरों के पलीतों में आग लगा…उनका घर रौशन करने के चक्कर में आप अपना मकां ना स्वाहा कर बैठें…मैं ये नहीं कहता कि आप दूध ना पिएं लेकिन बस…हो सके तो उसकी छाछ को भी फूंक-फूंक के पिएं क्योंकि आजकल तो सच्ची…कसम से…बाय गाड…ज़माना बड़ा खराब है"…

पहले की तो बात ही निराली हुआ करती थी…वो दिन भी क्या दिन थे?…लक्कड-पत्थर…सब मिनटों में हज़म कर जाया करते थे…जहाँ तक याद है मुझे…बात है सन पचपन की याने के अपने….

खैर!…छोडो…क्या रखा है इन बेफिजूल की बातों में?…असली मुद्दे की बात तो ये है कि अपनी पूरी भरी-पूरी जिंदगी में मैंने कभी किसी को ना नहीं कहा लेकिन अब?…अब तो ढंग से एक ही टिक जाए…यही बहुत है…लेकिन इस ससुरी..अपनी अफ्लातूनी सोच का क्या करें?….

‘एक से मेरा क्या होगा?’  वाली पोलिसी तो अब भी हमारे दिल औ दिमाग पे छायी रहती है …

"किस?...किसको?...किसको प्यार करूँ?...

कैसे प्यार करूँ?…ये भी है...वो भी है...हाय!...
किसको?...किसको प्यार करूँ?"
 

उफ!...ये सुहानी-चाँदनी रातें हमें…सोने नहीं देती… 

अब सोने नहीं देती तो ऐसे ही बेकार में आँखें मूँद के क्या करेंगे?…चलिए!…एक किस्सा सुनाता हूँ…

बात कुछ ज्यादा पुरानी नहीं है…यही कोई सात-आठ बरस पहले जब नया-नया कम्प्यूटर  लिया था नैट के साथ तो ऐसे ही…महज़ टाईम पास के लिए कुछ ‘याहू ग्रुप’ जायन कर लिए थे और बिना किसी कायदे के दूसरों के साथ बकायदा जंक मेलज का आदान-प्रदान भी होने लग गया था…तो जनाब…एक दिन…ऐसे ही बैठे बिठाए एक आईडिया सा कौंधिया के कौंधा अपुन के दिमागे शरीफ…याने के भेजे में और तुरंत ही मगज में घुस गयी ये बात कि जाल-जगत के इस सुनहरे मकडजाल में छायी इन सुंदरियों को अगर पटाना है तो उनकी चाहत के अनुरूप ही उन्हें दाना डालना पड़ेगा…जैसे किसी को हंसी-मजाक बहुत पसंद है तो उस पर लेटेस्ट तकनीक याने की आडियो-विजुअल…दोनों तरीकों से नए-पुराने…मौलिक-अमौलिक चुटकुलों की बमबारी करनी होगी…किसी को अगर फैशन पसंद है तो उस पर मेहंदी के बरसों पुराने डिजाईनों को नया बताने से लेकर लेटेस्ट कपड़ों तक के धुयाँधार चित्रों का ताबड-तोड़ आक्रमण करना होगा….किसी को ताजातरीन खबरों के बारे में जान…खुद को ज़माने के साथ अपडेट रहने का शौक है तो उस पर दुनिया भर की वैब साईटों से कापी-पेस्ट की गयी खबरों का परमाणु हमला करना ही होगा …और नाज़ुक टाईप की छुई-मुई टाईप लड़कियों के लिए इधर-उधर से मारी हुई शायरी के तीर तो पहले से ही मौजूद थे ही मेरे तरकश में…तो…उन्हें…उन्हीं से सैट करने की सोची…
बस!…फिर क्या था जनाब?…अपनी तो निकल पड़ी…आठ-दस के तो पहले ही हफ्ते में रिप्लाई भी आ गए तो पलक झपकते ही दिल गार्डन-गार्डन होने को उतारू हो बावला हो उठा….

“दिल तो बच्चा है जी"…

पर ये क्या?…उनमें से तीन-चार तो खुद ही 'चार-चार' बच्चों वाली निकली…

बेडागर्क हो जाए तुम्हारा…

और एक पागल की बच्ची ने तो फटाक से भैय्या कह…मेरा दिल ही तोड़ दिया…

“पता है…उसी के डर से कई दिन तक मुझे दहशत के मारे ऑफलाइन भी रहना पड़ा कि कहीं इस होली…दिवाली और वैलैंनटाईंन के मनोहारी सीज़न में मुझे गलती से रक्षाबंधन का त्योहार ना मनाना पड़ जाए?”..

"क्या कहा?…बाकी बची चार का क्या हुआ?”…

उनमें से एक तो यार…क्या बताऊँ?…

“मिल गई वो..जो चाहत थी मेरी…पर अफसोस…अंकल कह के पलट गई…उम्र जो कुछ ज्यादा थी मेरी”

सीधे ही अँकल कह के उसने जो शुरूआत की तो अपुन तो खिसक लिए पतली गली से…बाकि की बची तीन में से दो ऐसे गायब हुई जैसे गधे के सिर से सींग... उनके पतियों को जो मालुम हो गया था इस सब के बारे में…

अब बची आख़िरी याने के इकलौती तो अपुन ने भी ठान लिया कि इसको तो किसी ना किसी तरीके से सैट करके ही दम लेना है…सो!..बडे ही ध्यान से...सोची-समझी रणनीति के तहत बड़ी ही मीठी और प्यारी-प्यारी बातें करता रहा…पता जो था कि...'फर्स्ट इम्प्रैशन इस लास्ट इम्प्रैशन' 

अपुन ने तबियत से दाना डाला और वो चिडिया बिना चुगे रह ना प आई….खूब इम्प्रैस हुई…सावधानी पूरी थी कि किसी भी वजह से कहीँ बिदक ना जाए बावली घोडी की तरह…इसलिए किसी भी तरह की कोई फ़ालतू बात नहीं…कोई उलटा-सीधा परपोज़ल नहीं….धीरे-धीरे अपनी मेहनत ने रंग लाना शुरू किया और मेलज के जरिये रिप्लाई-शिप्लाई का सिलसिला शुरू हुआ…तीन-चार बड़े ही प्यारे रिप्लाई भी आए मेरी मेलज के जवाब में ..आना ज़रुरी भी तो था…अपुन ने भी जैसे सारा का सारा प्यार उढेल डाला था उसकी हर मेल के जवाब में….
"दु:ख भरे दिन बीते रे भैय्या ...अब सु:ख आयो रे" ….

लेकिन शायद होनी को कुछ् और ही मंज़ूर था..उस दिन बिल्ली जो रास्ता काट गई थी सपने में और मैं पागल इसे बस..वहम मात्र समझ…पूरी रात दिल्ली से पानीपत तक का सफर अप-डाउन…अप-डाउन करता रहा…लेकिन कहीं ना कहीं मन ज़रूर खटक रहा था कि कहीं कोई अपशकुन ना हो जाए…

बेवाकूफ!…दो पल ठहर नहीं सकता था?…क्या जल्दी थी तुझे वहाँ जा के अपनी ऐसी-तैसी करवाने की?…अगर थी भी तो घर से ही जल्दी निकालना चाहिए था…पानीपत ही तो जाना था...कौन सा इंग्लैंड जाना था?"…

"गाडी छूट जाती...तो छूट जाती...वैसे भी भला कौन सा तीर मार के आता है हर रोज़?…खाली हाथ ही आता है ना?"अंतर्मन बिना रुके लगातार बोलता चला गया…

उसी के तानों ने और सोने ना दिया…

"शुक्र है ऊपरवाले का कि रात सही सलामत गुज़र गई…वैसे ही वहम-शहम करते फिरते हैं लोग-बाग…मुझे कुछ हुआ?”…

“नहीं ना?…देख लो …एकदम सही सलामत भला-चंगा हूँ मैं?”आईने के सामने खडा होकर तैयार होते समय मैं खुद से ही बात कर रहा था…

"पुराने...दकियानूसी लोग…दुनिया पता नहीं कहाँ कि कहाँ जाती जा रही है और ये बैठे है अभी भी कुएँ के मेंढक की तरह…

आगे बढो और दुनिया देखो...लोग चाँद पे कालोनियाँ बसाने की सोच रहे हैँ और ये हैँ कि कोई बस छींक भर मार दे ..पूरा दिन इसी इंतज़ार में बिता देंगे कि...अनहोनी अब आई कि अब आई"मैं घर से बाहर निकल सड़क पर आने-जाने वाले लोगों को हिकारत भरी नज़र से देखता हुआ बोला…

बिना किसी मकसद और हील-हुज्जत के पूरा दिन बस…ठीकठाक ही गुज़र गया लेकिन रात…रात तो फिर आने वाली थी और मुझे फिर उसी बिल्ली के फिर से रास्ता काटने का डर बेचैन किये जा रहा था..खैर!…जैसे-तैसे करके घर पहुंचा और मन न होने के बावजूद खाना खाते-खाते मेल बाक्स खोला…खोलते ही मुरझाई हुई बांछें फिर से खिल उठी….उसी का मेल जो था…सब कुछ भूल दिल बस यही गाने लगा…
"होSsss….जिसका मुझे था इंतज़ार...वो घडी आ गई...आ गई"..

बडी ही प्यारी-प्यारी बाते जो लिखी थी उसने अपनी मेल में….एक-एक 'हरफ' प्यार भरी चासनी में लिपटा उसके निश्छल प्रेम की गवाही दे रहा था…मन तो कर रहा था कि ये प्यार भरी पाती कभी खत्म ही ना हो..पढता जाऊँ...बस…पढता जाऊँ…

“हैँ?...ये क्या?"…

“उफ्फ़!..ये तूने क्या किया?…कुछ समय और तो रुक जाती इन सब बातों के लिए…अभी बहुत वक़्त था मेरे पास…कैसे ना कैसे करके मैनेज कर लेता मैं ये सब …अभी तो सिर्फ चिट्ठी-पत्री तक ही सीमित थे हम लोग…कुछ और तो बढने दी होती बात…कम से कम एक दो बार पर्सनली मिलते…जान-पहचान बढती...थोडा-बहुत...घूमते-फिरते...एक-आध फिल्लम-शिल्लम देखते…पार्क-शार्क जाते...मॉल-शाल  जा के शापिंग-वापिंग करते…तब जा के इस मुद्दे पे आना था”…

“ये क्या बात हुई कि इधर प्यार के इंजन ने ठीक से सीटी भी नहीं मारी और एक्सीडैंट करवा दिया रब्बा-रब्बा"…

पागल की बच्ची ने तुरंत ही बिना कुछ सोचे-समझे पूछताछ शुरू कर डाली कि…

“उम्र कितनी है?”…

“तुम्हें टट्टू लेना है?”…

"शादी-वादी हुई कि नही?"...

"अब तुमसे पूछ के मैं शादी करूँगा?"… 

"बच्चे कितने है?"… 

"अरे!…बेवाकूफ...एक तरफ तो पूछ रही हो कि…शादी हुई कि नही?…और दूसरी तरफ अगला सवाल दाग रही हो कि…बच्चे कितने हैँ?"…

"मैडम!…ये इण्डिया है इण्डिया…यहाँ रिवाज़ नहीं है कि बच्चे भी बारात में अपने बाप संग ठुमके लगते फिरें…और सबसे बड़ी बात कि… ‘आई लव माय इण्डिया' “…

अब कौन समझाए इन बावलियों को कि सवाल तो कम से कम ढंग से पूछें…और ऊपर से मैं स्साला राजा हरीशचंद्र की अनजानी औलाद…साफ़-साफ़ कह बैठा कि…

“जी!…मैं शादी-शुदा हूँ और ऊपरवाले की दुआ से तीन अच्छे-खासे तन्दुरस्त मोटे-ताज़े बच्चों का बाप हूँ"…

बस!…यहीं तो मार खा गया इण्डिया…पता नहीं क्या एलर्जी थी उसे शादी-शुदा मर्दों से?…

अब इसके बाद क्या हुआ? और क्या नहीं हुआ?…बस!…बीती बातों पे मिटटी डालो और कुछ ना पूछो…होनी को शायद यही मंज़ूर था…नसीब में मेरे सुख नहीं लिखा था…सो…नहीं मिला…बस!…इतना ही साथ था शायद हमारा….यही किस्मत थी मेरी..

आज बेशक इन बातों को हुए कई साल बीत चुके हैं लेकिन भूला नहीं हूँ मैं उसे…भूल भी कैसे सकता हूँ?… आज भी दिल के किसी कोने से ये आवाज़ निकलती है कि…

"किसी नज़र को तेरा…इंतज़ार…आज भी है.... 

ओSsss….किसी नज़र को तेरा इंतज़ार आज भी है".. 

लेकिन उसे ना आना था और...वो आई भी नहीं..

उस दिन से ऐसे गायब हुई कि फिर कभी ऑनलाइन ही नहीं दिखाई दी…शायद!…ब्लैक लिस्ट कर डाला हो मुझे…

पता नहीं..ये नयी फसल कब समझेगी हम जैसे तजुर्बेकारों के फलसफे को कि... दोस्ती किसी कुँवारे या फिर...किसी कुँवारी से करने के बजाय किसी शादीशुदा से करने में ही समझदारी है…

"तजुर्बा...आखिर तजुर्बा होता है"… 

अपुन ने ये बाल यूँ ही धूप में क्रिकेट की बाल को फैंक कर सफेद नहीं किए हैं बकायदा फील्डिंग से लेकर बैटिंग तक हर फील्ड में पी.एच.डी की है मैंने…अरे!…यार…सिम्पल सी बात है...सबसे बड़ा प्लस प्वाइंट तो ये कि एक तो शादीशुदा एक्सपीरियंसड होते हैँ...सो!…किसी भी किस्म की कोई दिक्कत पेश नहीं आती है…ऊपर से उनके चेप होने का खतरा भी ना के बराबर होता है"…

अब ये गूढ़ ज्ञान की बातें उस बावली को समझाता भी तो कौन?…मेरी शक्ल तक देखने को राज़ी जो नहीं थी कि…भय्यी!..चौखटा तो देख ले मेरा कम से कम…शायद दिल पसीज ही जाए”…

मेरी किसी मेल का जवाब तक देना जायज़ नहीं समझा उस नामुराद ने…कभी-कभी सोच में पड़ जाता हूँ कि…

“क्या मैंने उसे सब कुछ सच-सच बता के गलती की?”..

अगर गलती की तो इससे अच्छा तो यही रहता कि मैँ उसे प्यार कि चासनी में लिपटे झूठ पे झूठ बोले चला जाता और आज…वो मेरी बाँहो में होती…यही समझ में भी बैठता उसके…

"खैर!…जो बीत गया...सो...बीत गया…मेरी बातें छोड़ो और अपनी जवानी पे तरस खाते हुए एक बात गाँठ में बाँध लो आप सब लोग कि….आज के बाद सिर्फ और सिर्फ शुद्ध 'झूठ'...वो भी बिना किसी मिलावट के...और कुछ नहीं”..

"भले ही ये कलियाँ एक ही बात को घुमा-फिरा कर सौ-सौ बार क्यूँ ना पूछ लें लेकिन जवाब हमेशा क्या रहेगा?"...

"झूठ...बिलकुल झूठ...सोलह आने पक्का झूठ"… 

"बिलकुल…सही”...

“अच्छा दोस्तों…आज की क्लास तो बस…अब यहीं खत्म हुई… अब दूसरे कालेज भी जाना है कुछ स्टूडेंटस को प्राईवेट ट्यूशन देने”…..

“ओ.के…बाय"..

***राजीव तनेजा***

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यैस्स!.. वी आर दा बैस्ट कॅपल-राजीव तनेजा

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"ओफ्फो!…कुछ याद भी रहता है इसे?....आज…इस वैलैंटाईन के दिन को तो बक्श देना था कम से कम लेकिन नहीं...’बरसों से पाल-पोस कर परिपक्व की हुई बुरी आदत को भला एक दिन के लिए भी क्यों त्यागा जाए?’....यही सोचा होगा ना शायद उसने?"...

"आगे-पीछे भले ही जो कर लेती लेकिन आज के दिन का तो कम से कम ख्याल रखना चाहिए था उसे…ये क्या कि बाकि दिनों की तरह इस दिन भी खुशी के वजूद को ठेंगा दिखा चलता कर दिया जाए?"…
"ओफ्फो!...इस अशांति भरे माहौल में कोई कुछ लिखे भी तो कैसे?”….मैँ कीबोर्ड पर उँगलियाँ चटखाता हुआ गुस्से से बस यही तो चिल्लाया था…और मेरी आवाज़ दिवारों से टकरा वापिस मेरी तरफ ही लौट आई थी..
देखा तो!...मुझे सुनने वाला कोई आस-पास था ही नहीं….बीवी लड़-झगड़ कर कब कमरे से बाहर निकल गई पता भी ना चला….
"हे ऊपरवाले!...कुछ तो मेहर कर....पता लगा उस कंबख्तमारी का कि कहाँ सिर सड़ा रही है?..यहाँ मैँ बावलों की तरह अकेला भौंक-भौंक के दिवारों पे अपनी भड़ास निकाले जा रहा हूँ और उसे कोई फ़िक्र ही नहीं है…
"क्या फायदा ऐसे..यूँ फोकट में गला फाड़ चिल्लाने से जब कोई सुनने वाला ही आस-पास ना हो?"मैँ डायरैक्ट ऊपरवाले से बात कर उसे समझाता हुआ बोला
"अरे!...यहीं कहीं होगी आस-पास…जाएगी कहाँ?…जाने वाली शक्लें कुछ और हुआ करती हैँ"मैँ खुद को तसल्ली देने की कोशिश कर रहा था
"हाँ!...कहीं नहीं जाने वाली वो…..मज़ाक कर रही होगी मेरे साथ...उस दिन भी तो पूरे दो घंटे तक नचाती रही थी मुझे…कभी इधर...तो कभी उधर…और मैँ बावला भी तो नाहक परेशान हो उसे पूरे मोहल्ले में ढूँढता फिर रहा था कभी इसके घर तो कभी उसके घर…कहाँ-कहाँ नहीं फोन घुमा मारा था मैंने?…और आखिर में मिली भी तो कहाँ?…अपने ही घर की सीढ़ियों के नीचे बने स्टोर रूम में….नॉटी कहीं की"...
"हाँ!…अपनाप ही लौट आएगी….रोज का ही तो ये ड्रामा है उसका”मैं खुद अपने आप से ही बात किए चला जा रहा था लेकिन शायद...अन्दर ही अन्दर कुछ चिंतित…कुछ विचलित सा भी था मैँ...तीन घंटे से ज़्यादा जो हो चुके थे उसे घर से निकले हुए....पहले तो हमेशा पंद्रह-बीस मिनट में ही इधर-उधर मटरगश्ती कर के वापिस लौट आया करती थी...आज पता नहीं क्या हुआ है इसे...जो अभी तक नहीं लौटी?"मेरे चेहरे पे चिंता भरी शिकन का भाव था
"शायद!..कुछ ज़्यादा ही डांट दिया था मैँने उसे…अब...डांट दिया तो डांट दिया...प्यार भी तो करता हूँ ….आखिर पति हूँ उसका...इतना हक तो बनता ही है मेरा...
"क्यों!...है कि नहीं?…और वो भी तो कई…कई क्या?…कई-कई बार मेरे साथ इससे भी बुरा बरताव कर गुज़रती है लेकिन मैंने तो कभी उफ़ नहीं की…चूं नहीं की…घर-बार छोड़ के कहीं इधर-उधर नहीं गया…हमेशा मोर्चे पे ही डट के हर मुश्किल…हर विपत्ति का सामना किया"…

"हुँह!...नहीं आती तो ना आए...मेरी बला से…एक गई है…बदले में छत्तीस ढूँढ लाउंगा लेकिन स्साली...ढंग से जाती भी तो नहीं है...ये क्या कि धमकी तो दे दी फुल्ल बटा फुल्ल कि... "अबकी बार लौट के ना आऊँगी" …लेकिन अभी ठीक से पूरा स्माईल भी चेहरे पे फिट नहीं हो पाता कि उससे पहले ही वापिस आ धमकती थी कि...
"हाँ-हाँ! ...तुम तो यही चाहते हो कि मैँ चली आऊँ…लौट के ना आऊँ और तुम ले आओ उसी छम्मक-छल्लो को…कान खोल के सुन लो...इतनी आसानी से पीछा नहीं छोड़ने वाली...इस धोखे में मत रहना कि मेरे होते हुए कोई दूसरी तुम्हारी छाती पे बैठ..मूंग दल जाएगी और मैं चुपचाप दूर खड़ी तमाशा देखती रहूंगी"…

“हाँ!…आपसी सहमति से बेशक किसी को भी ला के बैठा दो चौके में...मुझे कोई परवाह नहीं लेकिन उससे पहले पूरे पंद्रह हज़ार रुपए हर महीने के हिसाब से तैयार रखना मेरे लिए"…

“प्प…पन्द्रह हज़ार रूपए?…ल्ल…लेकिन तुम तो पिछली बार ब्ब…बारह हज़ार मांग रही थी"….

“तो?…तुमने कौन सा हामी भर दी थी?”…

“ठ..ठीक है…हामी नहीं भरी थी ल्ल…लेकिन जुबान नाम की भी तो कोई चीज़ होती है कि नहीं?”…

“तो चाट लो बैठ के इस कलमुँही जुबान को”बीवी जीभ चिढा अपनी आँखें नचाती हुई बोली..…

?…?…?…?

“पता भी है कि महंगाई कितनी बढ़ गई है?…प्याज तीस से शुरू होकर अस्सी रूपए किलो तक पहुँच गया है और सी.एन जी के दाम तो एक साल में…

सी.एन.जी से याद आया कि ये 'वैगन ऑर' भी मेरे ही नाम पे  रजिस्टर्ड है…किसी मुगालते में ना रहना" साक्षात ताड़का का ही कलयुगी अवतार नज़र आ रही थी उस दिन वो मुझे
"हुँह!...वैगन आर जाएगी तो आईटैन ले आऊँगा…ऐसा भी क्या डरना?…अगर उसे घर-गृहस्ती परवाह नहीं है तो मुझे भी नहीं है..मैँ अकेला ही क्यों नाहक परेशान होता फिरूँ?…राज़ी-राज़ी आती है तो आए...नहीं तो भाड़ में जाए,,,मुझे कोई परवाह नहीं”…

“बच्चे ही तो पालने हैँ ना?....पाल लूंगा किसी तरीके औक्खे-सौक्खे….और वैसे भी इस दुनिया में सब बच्चों को कहाँ मिलता है माँ का प्यार?"…
"ज़्यादा हुआ तो थोड़ा बहुत ध्यान तो मैँ रख ही लूँगा कुछ ना कुछ कर के…कोई माँ के पेट से थोड़े ही सीख के आया जाता है ये सब?…यहीं…इसी दुनिया में वक्त और ज़रूरत अपनेआप सब सिखा देती है"…
"ये भी नहीं हुआ बावली से कि...कम से कम छोटे को तो अपने साथ लेती जाती...पता भी है कि रात को दो-दो दफा सू-सू करता है बिस्तर पे... अब मैँ रात भर जाग-जाग के अपनी कहानियाँ लिखूं या फिर उठ-उठ के उस मरदूद के लंगोट बदलता फिरूँ?”….

“ले जाती अपने साथ तो मेरी थोड़ी परेशानी ही कम हो जाती...उसका क्या बिगड़ जाता?...लेकिन नहीं..कैसे गवारा होता उसे मेरा सुख?…अगर उसे इतना ही ध्यान होता मेरा तो आज ये लफड़ा ही नहीं होना था...पता भी है बावली को कि सुबह-सुबह काम पे जाना होता है बन्दे ने"...

"अब मैं बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करता फिरूं या खुद तैयार हौऊँ?…ओफ्फो!...मैडम जी को भी आज ही उड़नछू होना था"…
"अरे!...अगर ऐसा ही करना था तो पहले करना था ना जब...मेरे आसपास छत्तीस क्या चौआलिस मंडराया करती थी लेकिन नहीं...तब तो गली मोहल्ले में कैज़ुअली घूमते फिरते वक्त भी अपना हाथ मेरी कमर में ऐसे डाल के चलती थी कि सब जान लें कि...इस मटुकनाथ की जूली यही है"…

गलती से या फिर जानबूझ कर कभी किसी ने आँख उठा कर मेरी तरफ देख भी लिया तो समझो उसकी खैर नहीं…

"खबरदार!...जो एक इंच भी नज़र इधर दौड़ाई तो...खुला सांड नहीं है मेरा पति जो यूँ आँखे फाड़-फाड़ देखे चली जा रही हो…कभी हैंडसम लड़के नहीं देखे हैँ क्या?"बीवी गर्व से तने चेहरे के साथ बरस पड़ती थी 
"हाँ!...इस झोट्टे की मालकिन मैँ हूँ...मेरे ही खूंटे से बन्धा है"बीवी मंगलसूत्र हाथ से नचाती हुई बोलती थी 

नतीजन अच्छी भली भी आती-आती बिदक जाती थी कि… “चलो यहाँ से!..ये मैडम दाल नहीं गलने देगी"..

“और अब?….अब जबकि पता है कि कोई नहीं पटने वाली इस उम्र में इनसे...तो..

तो रुआब दिखाती है स्साली”...

"पता भी है कि बिना प्रापर खाने का मज़ा नहीं आता है बन्दे को लेकिन नहीं...कोई ना कोई कसर तो बाकि रखनी ही है ना...कभी खाने की प्लेट से सलाद गायब तो कभी पापड़-अचार खत्म"...

"ये भी नहीं होता कि कम से कम रायता ही डाल ले हफ्ते में एक आध बार…करना ही क्या होता है?...बस…रैडेमेड बूंदी का पकैट खोला और टपका डाला दही में थोड़ा सा...हो गया रायता तैयार...सिम्पल”…

"चलो!…माना कि खत्म हो गया होगा सामान लेकिन..अगर खत्म हो गया है तो बाज़ार से तो लाया जा सकता है ना?”…

सुबह से ही तो बिना बात लड़े चली जा रही थी…पता नहीं क्या मज़ा मिलता है इन औरतों को हम मर्दों से बहस करने में?…ये नहीं कि...मर्द ज़ात हैँ हम....जो हुकुम कर दिया...सो कर दिया…चुपचाप मान लें…खुद भी चैन से जिएं और हमें भी चैन से रहने दें लेकिन नहीं...हमारी तो जैसे कोई औकात ही नहीं है ना?"...

"पुट्ठा उसूल जो बना लिया है अपनी लाईफ का कि कभी हमारी कोई बात माननी ही नहीं है"....

"ये भी क्या बात हुई कि कभी शलगम में मटर नहीं होंते तो कभी बे-इंतहा डले नज़र आते हैँ?"...

"अरे!...कुछ भी बनाना है तो सलीके से बनाओ...तमीज़ से बनाओ...ये क्या कि बस…जैसे फॉरमैलिटी भर ही पूरी करनी हो?…कई बार तो कह चुका हूँ…कह-कह के देख चूका हूँ कि…. ‘तड़का ज़रा ढंग से लगा दिया करो’..लेकिन कोई हमारी सुने तब ना"...
"कितनी बार तो भौंक-भौंक के थक लिया कि…. ‘कुक्कड़ सिंह के यहाँ चायनीज़ कुक्कडी ऊप्स…सॉरी कुकरी की क्लासेज़ जायन कर लो’ ...लेकिन नहीं...टाईम ही नहीं है ना मैडम जी के पास इस सब के लिए लेकिन कोई ये बताएगा कि....
डांस क्लासेज़ और अंग्रेज़ी में गिटर-पिटर सीखने के लिए टाईम ही टाईम कैसे निकल जाता है मैडम जी के पास?"
"स्साले!..अँग्रेज़ चले गए अपनी गिटर-पिटर यहीं छोड़ के" मैँ अब हिन्दी प्रेमी होने के नाते अँग्रेज़ी की माँ-बहन एक करने लगा था
"अब!..अपने को अँग्रेज़ी नहीं आती तो नहीं आती...क्या करें?…जिससे जो बनता हो..बिगाड़ ले”…

"खाने की शिकायत करो तो टका सा जवाब मिलता है कि.. "ज्यादा ही चस्के लगे हुए हैं जुबान को तो जो पकवाना होता है ला कर दे दिया करो"…

"यहाँ स्साला भूले भटके कुछ खरीद के भी ले आओ तो माथे पे हाथ मारते हुए ये शिकायत ये कि..."आय-हाय!…ये क्या कबाड़ उठा लाए?…दिखाई नहीं देता कि अमरूद कच्चे हैँ"... 

"अब!..कच्चे हैँ तो कच्चे हैँ....मैँ क्या करूँ?…भट्ठी में भून के पका लो" …

मेरी लाई चीज़ें तो एक मिनट में कच्ची हो जाती हैं और जब खुद…उसके खाने की शिकायत करो तो एक ही रता-रटाया जवाब कि…. “फालतू ना बोलो…तुम्हारी माँ से अच्छा ही पकाती हूँ"..

पता भी है कि कल वैलैंटाईन है लेकिन नहीं...लड-लड़ के अपने साथ-साथ मेरी भी ऐसी की तैसी करनी है ना…इसलिए दो दिन पहले से ही तैयारी शुरू कर दी कि कहीं ऐन मौके पे बन्दे का मुरझाया चेहरा खुशी के मारे खिल ना उठे…

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उफ्फ़!..पता नहीं कित्थे उड्ड गई ये कम्भख्त मारी?…कब से चाय की तलब लगी पड़ी है लेकिन इसे चिंता हो तब ना…पता भी है कि…किसी और के हाथ की बनी चाय इसे पसन्द नहीं आएगी…काम वाली बाई के हाथ की तो बिलकुल नहीं...इसीलिए शायद..ज्यादा भाव खाने लगी है आजकल"मैँ कुछ सोचता हुआ बोला 

यहाँ आज दिल उदास पे उदास हुए चला जा रहा है और इसे कोई फिक्र ना फाका...ऐसे घुट-घुट के अकेले जीने से तो अच्छा है कि मैं मर ही जाऊँ…हाँ!...यही ठीक भी रहेगा...ख़ुदकुशी के अलावा और कोई चारा नहीं मेरे पास…आज जो हुआ...जैसा हुआ पता नहीं उस सब में किसका दोष था और किसका नहीं लेकिन इतना जानता हूँ कि नहीं होना चाहिए था ये सब…

ये?...ये क्या होता जा रहा है मुझे?...क्यूँ अन्दर ही अन्दर आहत हो के टूटने-बिखरने लगा हूँ मैं?…कहने को तो हमने प्रेम विवाह किया था लेकिन रोज़ाना की आपाधापी में प्रेम..कब का उड़नछू हो हमारी ज़िन्दगी से जा चुका है"मैँ सोच में डूबा जा रहा था

"ये जीना भी कोई जीना है?...वही रोज़-रोज की रोजाना होती रूटीनी बहस…वही बेकार का लड़ना-झगड़ना…वही फालतू की चिक-चिक"... 
मुझे हमेशा यही शिकायत रही कि जिससे मैँने प्रेम विवाह किया...वो ये नहीं...कोई और है…पहले जैसी कोई बात ही नहीं थी उसमें…वो मोहिनी मुस्कुराहट...वो उसका चहकना...वो शोखी...वो चंचल अदाएं"मेरे दिमाग में उसकी पुरानी यादें ताज़ा हो चली थी...
लेकिन अफसोस...वैसा कुछ भी तो नहीं बचा था अब उसमें…और ऊपर से उसे लगता है कि मैँ बदल गया हूँ"... “हुँह!...उल्टा चोर कोतवाल को डांटे...शिकायत सुनो इनकी कि... “मैँ बात-बात पे डांटने लगा हूँ...गुस्सा मेरी नाक पर हमेशा चढा रहता है वगैरा..वगैरा"... 

अब गुस्सा ना चढा रहे तो और क्या करे?... हर तरफ टैंशन ही टैंशन...कोई भी दिन ऐसा नहीं गुज़रता जिस दिन मैँ सुकून से बैठ सकूँ….कभी बिजली के बिल तो कभी टेलीफोन के बिल...कभी बच्चों की फीस…तो कभी कम्प्यूटर खराब...ऊपर से ये कहानियाँ लिखने का चस्का…टाईम ही कहाँ होता है मेरे पास कि उसकी छोटी-छोटी बातों में सर खपा अपना कीमती वक्त जाया करता फिरूँ?…जानता जो हूँ कि…टाईम वेस्ट इज़ मनी वेस्ट...

मनी से याद आया कि यहाँ स्साले!... देने वाले तो देने का नाम नहीं लेते और दो-चार लेने वाले ज़रूर घर के बाहर रोज़ाना सुबह-शाम कतार बाँधे नज़र आते हैँ

"अब ऐसी हालत में आप ही बताओ कि इस आपाधापी भरे माहौल में टैंशन ना हो तो और क्या हो?"…

जिससे मैँने प्रेम किया....अपने घर वालों से लड़-झगड़े कर उनकी मर्ज़ी के खिलाफ ब्याह रचाया…कम से कम उसे तो मेरा ख्याल रखना चाहिए"मैँ अपने आप से बात करता जा रहा था
ठीक इसके उलट...आज उसी के साथ मेरी नहीं बन रही है…हालात ऐसे हैँ कि ना चाहते हुए भी हफ्ते में कम से कम तीन या चार दफा हम लड़ बैठते हैँ…कभी किसी बात पर तो कभी बिना किसी बात पर…मैँने कभी भी उसे किसी काम के लिए…किसी चीज़ के लिए नहीं टोका..कहीं आने-जाने से मना नहीं किया…किसी भी तरह के कपडे पहनने-ओढने से नहीं रोका …कभी उसकी इच्छाओं पर हावी नहीं हुआ मैँ... उसने कहा…
“डांस सीखना है"...
मैंने कहा…
“सीख लो"…
"उसने कहा…. “अँग्रेज़ी सीखनी है"…

मैँने कहा… “ज़रूर सीखो... 

“कहने का मतलब ये कि मैँ उसकी हर खुशी से खुश था लेकिन फिर…ये सब मेरे ही साथ क्यों?..क्या मैँ चाहता था कि हम में अनबन हो?…हम लड़ें...लड़ते रहें?"... 

"या फिर वो ही चाहती थी कि हम हमेशा झगड़ते रहें?"... 

शायद!…हम दोनों ही कभी एक दूसरे को ठीक से समझ नहीं पाए…शादी हुए बरसों बीत गए लेकिन हमारा लड़ना आज भी बदस्तूर जारी है…कई बार तो लड़ाई इतनी बढ जाती है कि गुस्से में चाहे-अनचाहे मेरा हाथ भी उठने लगा है उस पर  जिसका मुझे हमेशा अफसोस रहा है और ताउम्र रहेगा लेकिन मैँ करूँ भी तो क्या करूँ?…कंट्रोल नहीं रख पाता अपने ऊपर…वो बात ही ऐसी जली-भुनी कर देती है कि ना चाहते हुए भी मेरे पास इसके अलावा कोई चारा नहीं रहता है..पता नहीं क्यों मैँ इतना ज्यादा उतेजित हो अपने आपे से बाहर हो उठता हूँ?…संयम से काम लेना चाहिए मुझे"मेरी उँगलियाँ अब धीमी गति से टाईप कर रही थी…

कई बार सोचता भी हूँ कि मैँ जो कर रहा हूँ वो गलत है...सही नहीं है लेकिन जब बर्दाश्त करने की हद मेरे बूते से बाहर हो जाया करती है...तभी ऐसा होता है…वैसे!..सच कहूँ तो ऐसा आजकल अक्सर होने लगा है…बाद में पछतावा भी बहुत होता है हर बार कि उसे ना सही लेकिन कम से कम मुझे तो अपने आपे में रह खुद पर कंट्रोल करना चाहिए…जानता हूँ कि आज जो हुआ...जैसा हुआ...सही नहीं हुआ…नहीं होना चाहिए था ऐसा लेकिन मैँ करूँ भी तो क्या करूँ?"मैँ जैसे खुद…अपनेआप से ही सवाल कर रहा था… हर बार कोई ना कोई ऐसी कड़वी...दिल को अन्दर तक चुभने वाली बात वो कर देती है कि मुझसे चुप नहीं रहा जाता जिसके नतीजन...हम फिर बैठे बिठाए बिना किसी तुक के लड़ पड़ते हैँ…

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पता नहीं क्यों हमें शर्म भी नहीं आती है कि...बच्चे बड़े हो रहे हैँ…क्या तमाशा दिखाते रहते हैँ हम उन्हें रोज़-रोज़?…क्या सोचते होंगे वो हमारे बारे में?" मुझे खुद से ही नफरत सी होने लगी थी… 

कई बार मैँ नितांत अकेला बैठ विचार करने लगता हूँ कि… “आखिर हम लड़ते क्यों हैँ?….क्या हम में प्रेम नहीं है?...अगर नहीं है तो फिर हमने ये शादी क्यों की?...क्या हम दोनों का प्रेम…प्रेम नहीं...सिर्फ विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण भर था?" 

"नहीं!…ऐसा तो हर्गिज़ नहीं था…अगर ऐसा होता तो आज मैँ संजू का नहीं...किसी और का पति होता...शायद...’मोनिका'…. ‘प्रोमिला’... ‘शशि’ या फिर  ‘कंचन' का?....कुछ और नाम भी तो थे शायद"मैं अपने मानसपटल पे जोर डाल सोचने लगा…

“ओह!…शिट…‘चम्पा’… ‘चमेली' और ‘कुलवंत’को मैं कैसे भूल गया?”पुरानी माशूकाओं और उनके साथ गुज़ारे उन रुमानियत भरे हसीन लम्हों की याद आते ही मेरा चेहरा शर्म से लाल हो उठा था…सभी के सभी किस्से मेरे दिमागी भंवर में एकसाथ किलोल जो करने लगे थे 
"उफ्फ़!…तौबा...वो दिन भी क्या दिन थे?"मैँ पुरानी यादों से पीछा छुड़ाने की गर्ज़ से अपने सर को एक झटके में झटकता हुआ बोला..

संजू का चेहरा एक बार फिर मेरे सामने था…क्या मैँ ही गलत होता हूँ हर बार?…बहुत सोच विचारने के बाद घूम फिर के मैँ इस नतीजे पे पहुँचा कि...मुझे उसकी टोकाटाकी पसन्द नहीं और उससे बिना टोके रहा नहीं जाता…शायद…अपनी गल्तियों को ढांपने के लिए मेरी यही सोच जायज़ थी…ऐसा ही कुछ वो भी सोचती होगी शायद कि... वो ठीक है और राजीव गलत….सच!…अपनी गलतियाँ किसे नज़र आती हैँ?..

“बहुत हो ली लड़ाई....बहुत लड़ लिए हम…अब चाहे जो हो जाए मैँ कभी भी उस पर हाथ नहीं उठाउँगा"मैँने फैसला सा कर लिया
"हाँ!...यही ठीक रहेगा..उसकी चुभने वाली बातों को मैँ भूल जाउंगा...इग्नोर कर दूंगा..ज़्यादा हुआ तो चुपचाप बाथरूम या फिर टायलेट में जा के अकेले में रो लूंगा लेकिन उसे कुछ नहीं कहूँगा"…

"सच!..एक बात तो है पट्ठी में....जितना वो मुझसे लड़ती है...उतना प्यार भी तो करती है…अब देखो ना...उसके माँ-बाप लाख बुलाते रहते हैँ कि… “छुटियाँ आ रही हैँ बच्चों की...इस बार यहीं आ जाना…एक साथ रहेंगे...खूब मज़ा आएगा"... 

कोई ना कोई बहाना कर के टाल देती है हर बार कि… “इस बार नहीं...अगली बार"... 

“जानती जो है कि उसके बिना मैं रह नहीं पाउंगा…क्या हुआ जो हम लड़ते हैँ?...किस घर में लड़ाई नहीं होती है?...ज़रा बताओ तो?...अब चाहें हम रोज़ लड़्ते फिरें लेकिन सुलह भी तो कर ही लेते हैँ ना?…ये तो नहीं करते कि मुँह फुलाए बैठे रहें?...बात ही ना करें एक दूसरे से?...अपनी गलती मान सौरी भी तो खुद ही कहने आ जाती है कई बार" मैँ भावुक हो चला था
याद है मुझे आज भी वो दिन जब हम हनीमून पर मनाली गए थे…वहाँ हमने 'बैस्ट कपल' का अवार्ड भी तो जीता था ना?…संयोग देखो कि लगातार तीन साल तक 'बैस्ट कॅपल' का अवार्ड जीतते रहे हम"..

"सुनो!…

"हूँ!...

"क्या कर रहे हो?"…
"क्क...क्कुछ भी तो नहीं…..म्म…मैं तो बस…ऐसे ही..."मैँ फटाफट मॉनीटर बन्द करने की असफल कोशिश करता हुआ बोला

"हैप्पी वैलैनटाईन"....

पलट के देखा तो बीवी हाथों में गुलाब का फूल लिए खड़ी थी…
 
"सॉरी...."मेरे मुँह से बस यही निकला और मैँने उसका हाथ थाम लिया..जाने कब हम दोनों की आँखो से आँसू बह निकले….पता भी ना चला…

"चाय पिओगे?"...
"हूँ!..."मैँने चुपचाप सहमति जता दी
"यैस्स!...वी ऑर दा बैस्ट कॅपल" बीवी के किचन में जाते ही मैँ खुशी से हाथ हवा में लहराता हुआ बोला
कुछ ही देर में बीवी चाय और बिस्कुट ले कर आ गई… "एक बात बताओ ज़रा...."चाय की चुस्की लेते हुए बीवी शांत स्वर में बोली
"क्या?"मेरे चेहरे पे प्रश्न था..

"तुम्हारा ‘मोनिका' के साथ सचमुच में चक्कर था ना?"…

"न्न्…नहीं तो”मेरी आवाज़ में सकपकाहट थी
"झूठे!...मैँने सब पढ लिया है"संजू खिलखिला के हँस दी… "और वो ‘शशि'… ‘कंचन' और प्रोमिला?”…

“प्प..पागल हो गई हो क्या?…वव…वो तो बस…ऐसे ही…
"तुम भी ना बस…एक नंबर के फ्लर्ट हो फ्लर्ट"बीवी की हँसी रुक नहीं रही थी 

मेरी सकपकाई सी हँसी भी उसकी हँसी में शामिल हो चुकी थी" 

***राजीव तनेजा*** 

नोट:संजू (मेरी पत्नी)को समर्पित

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