"क्यों!...है कि नहीं?"

"क्यों!...है कि नहीं?"


***राजीव तनेजा***


"अब बताओगे भी या नहीं?"...

"क्या?"...

"ये गट्ठर उठाए-उठाए कब से तुम्हारे आगे-पीछे घूम रही हूँ"..


"क्यों?...क्या हुआ?....क्या है इसमें?"...


"इतना टाईम नहीं है मेरे पास कि मैँ तुम्हें एक-एक बात समझाने में लगी रहूँ और...

तुम मज़े से कम्प्यूटर पे इन मुय्यी बेफिजूल की कहानियों को लिखने के चक्कर में उँगलियाँ टकटकाते रहो"...


"शश्श!...चुप ...एकदम चुप"..

"चुपचाप साईड पे बैठ के देखो कि मैँ क्या लिख रहा हूँ"...


"इतनी वेल्ली नहीं हूँ मैँ जो बेफाल्तू में कम्प्यूटर में आँखें गड़ाती फिरूँ या फिर. ..

बावलों की तरह चुपचाप तुम्हारा ये सड़ा सा थोबड़ा देखती फिरूँ"...


"मतलब?..मतलब क्या है तुम्हारा?"...

"मैँ वेल्ले काम करता हूँ?"...

"और ये मेरे चेहरे के बारे में क्या कहा अभी तुमने?"...

"ज़रा फिर से तो कहना"...

"अच्छा भला तो है"मैँ अपने चेहरे पे हाथ फिराता हुआ बोला...


"और भी काम हैँ मुझे...फटाफट बताओ कि कौन से कपड़े पहनोगे और कौन से नहीं ताकि...

बाकी बचे हुए कपड़ों को मैँ कुछ ले-लिवा के बन्ने मारूँ"बीवी गट्ठर को मेरी टेबल पे पटकते हुए बोली

"बताओ..बताओ"...

"बताते क्यों नहीं?"...


"क्या?...क्या बताऊँ?"...

"कोई जवाब नहीं है मेरे पास तुम्हारी इन बेफिजूल की बातों का"..


"यही बताओ कि क्या पहनोगे और क्या नहीं"बीवी लगभग चिल्लाती हुई बोली

"कुछ पता भी है कि ना-ना कर के भी पूरी डेढ सौ कमीज़ें इकट्ठी हो गई हैँ जनाब की और...

पतलूनों की तो कोई गिनती नहीं"...

"ना तो खुद पहनते हो और ना ही किसी गरीब-गराब को देने देते हो"...

"किसी के काम आ जाएं तो क्या बुरा है?...अगला दुआएँ देगा"...

"मेरी तो किस्मत ही खराब है जो इस कबाड़ी के पल्ले पड़ गई"...


"हुण तेरी किस्मत नूँ केहड़ी गोल्ली वज्ज गई?"..

"और ये कबाड़ी-कबाड़ी क्या लगा रखा है?"..

"मैँ तुम्हें कबाड़ी दिखता हूँ?"..


"और नहीं तो क्या?...कभी ढंग से शक्ल भी देखी है आईने में?"....

"ये बढी हुई दाढी...ये बेतरतीब सी पैंट से बाहर निकली हुई कमीज़"...

"कबाड़ी ना कहूँ तुम्हें तो और क्या कहूँ?"...


"वैसे एक चीज़ नोटिस की है तुमने?"...


"क्या?"...

"यही कि...ये गली-गली घूम कर टीन-टब्बर खरीदने-बेचने वाले कबाड़ी भी...

कई दफा तुमसे कहीं ज़्यादा हैंडसम दिखते हैँ"बीवी हँसकर मेरा मज़ाक उड़ाते हुए बोली...


"वो तो जब मेरा मूड ठीक नहीं होता है और मैँ टैंशन में होता हूँ तभी होता है ऐसा"...

"हमेशा थोड़े ही होता है ऐसा...ज़्यादातर तो मैँ खूब बन ठन के रहता हूँ"...

"क्यों...है कि नहीं?"...


"लेकिन हमारे घर की हालत को देख के तो सभी कहते हैँ कि कबाड़ियों का घर है ये...कबाड़ी बसते हैँ यहाँ"...


"अरे वो!...वो तो पहले कबाड़ी रहा करता था ना इस घर में...

और याद नहीं...मैँने उसी से तो खरीदा था पौने आठ लाख में ये घर पूरे आठ साल पहले"...

"और तुम्हीं को तो दिया था बर्थडे गिफ्ट"...


"गिफ्ट?..लाख रोई थी तुम्हारे सामने की पॉवर ऑफ ऑटार्नी मेरे नाम करवा दो लेकिन...

तुम टस से मस ना हुए थे"..


"हुँह!..बड़े आए गिफ्ट देने वाले"...

"वो शक्लें...वो चेहरे और हुआ करते हैँ जो अपनी पत्नियों से प्यार करते हैँ"...

"क्या-क्या सपने...क्या-क्या अरमान नहीं देखे थे मैँने"...

"सब के सब मिट्टी में मिल गए"....

"किसी और के साथ ब्याहती तो वो रानी बना के रखता...रानी"...


"यहाँ कौन सी कमी है तुम्हें?"...

"पूरा दिन ही तो पसरी रहती हो खटिया पे"...

"बस खाया-पिया और लेट गई टीवी देखने"...

"कितनी बार समझा चुका हूँ कि दिवान पे लेट के मत देखा करो टीवी...कमज़ोर है...टूट जाएगा"...

"अब तो कई बार दिवान खुद भी हाथ जोड़ तुमसे मॉफी माँगने को होता है कि...

रहम करो...बहुत हो लिया..अब तो बक्श दो मुझे"...


"झूठ...बिलकुल झूठ...सरासर झूठा इलज़ाम है ये"...

"हर वक्त कहाँ देखती रहती हूँ टीवी?"...

"ये जो तुम्हारे कपड़े समेटने में जो लगी रहती हूँ पूरा दिन"....

"उसका कुछ नहीं?"..

"पता नहीं कितनी बार तो जोड़-जोड़ के रखती हूँ लेकिन तुम्हारा ये छोटा वाला मुन्ना है ना...

उफ..तौबा!...ऐसी आफत की पुड़िया तो मैँने कहीं नहीं देखी"...

"मेरा तो कोई असर है ही नहीं इस पे...पूरा का पूरा तुम पे गया है"


"तुम तो चले जाते हो मज़े से ट्रेन में छुक्क-छुक्क करते हुए पानीपत"..

"पीछे से तुम्हारा ये लाडला हर वक्त मेरी नाक में दम किए रहता है"


"अच्छा लगता है क्या कि सारे घर में कपड़े ही कपड़े बिखरे पड़े रहे हरदम?"...

"इधर समेटूं तो उधर बिखेर देता है...उधर सम्भालूँ तो इधर की खैर नहीं"..


"घर...घर ना हो के यतीम खाना नज़र आता है हरदम"...

"बाहर से घर में कोई मेहमान आ जाए तो क्या कहेगा?"...


"क्या कहेगा?"...


"यही कि रहने की तमीज़ नहीं है इन्हें"...

"वो तो यही सोचेगा ना कि मैँ ही ख्याल नहीं रखती हूँ घर का"...


"अब कहने वालों का मुँह कोई रोक पाया है भला...जो हम रोक लेंगे?"...


"वैसे तुम्हारे डर के मारे हर कोई आने से कतराता भी तो है"बीवी हल्की सी आवाज़ में बुदबुदाई...


"क्यों?..तुम्हारी बहन पिछले साल गर्मियों की छुट्टियों में...

क्या घास छीलने आई थी?"उसकी आवाज़ मैँने सुन ली थी...सो..तमक के बोला...


"हाँ!..आई तो थी"...


"फिर?"...


"एक ही बार में कान पकड़ लिए थे कि दोबारा कभी नहीं आएगी"...


"डाक्टर ने नहीं कहा था उसे कि यहाँ...हमारे घर आ के डॆरा जमाए"...


"डेरा?..अरे!...कुल जमा एक हफ्ते के लिए ही तो आई थी"...


"पता भी है कि एक हफ्ता कितने दिन का होता है?"...

"पूरे सात दिनों का"...

"भूला नहीं हूँ मैँ कि उन सात दिन में ही वो और उसके नालायक बच्चे पूरे महीने भर का राशन तक डकार गए थे"...

"बाप रे!....क्या खुराक है उनकी"...


"उफ!..तुम जैसा कोरा इनसान तो मैँने आजतक नहीं देखा"...

"सालियों पे तो लोग अपनी जान तक छिड़कते हैँ...सब कुछ न्योछावर करने को तैयार रहते हैँ"...

"लेकिन तुम!...उफ...तौबा"...


"हाँ-हाँ!...मानी तुम्हारी बात कि...

जीजे न्योछावर रहते हैँ अपनी सालियों पर और रहने भी चाहिए...आखिर रिश्ता है ऐसा है"...

"लेकिन!...ये तो बताओ ज़रा कि कौन सी सालियों पर?"...


"कौन सी सालियों पर?"..


"अपनी छोटी सालियों पर...और वो भी कोई ऐसी-वैसी तुम्हारी बहन जैसी डिब्ब खड़िब्बी नहीं बल्कि...

स्मार्ट...क्यूट...और सैक्सी सालियों पर"

"ना कि तुम्हारी बहन की तरह जो मुझसे भी उम्र में बारह साल बड़ी है"...

"स्साली!...खूसट बुढी कहीं की"...


"शर्म करो...शर्म करो"...


"अरे हाँ!..एक आईडिया आया है दिमाग में...तुम कहो तो बताऊँ?"मैँ उसकी बात पे ध्यान ना देता हुआ बोला...


"बको...क्या बकना है"...


"एक काम क्यों नहीं करती तुम?"...


"क्या?"...


"अभी बहुत दमखम है तुम्हारे पिताजी में"...


"तो?"...


"उनसे कह के एक आध कयूट सी साली मेरे लिए तैयार करवाओ ना"...

"जान ना छिड़कूँ उस पर तो कहना"...

"तुम्हें बेशक कल का छोड़ता आज छोड़ दूँ लेकिन....

उसका हाथ जो थाम लिया ना एक बार तो कभी छोड़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता"...

"पक्का वायदा है ये राजीव का तुमसे"


"शर्म करो...शर्म करो...क्या ऊल-जलूल बके चले जा रहे हो?"..

"बोलने से पहले ज़रा सा सोच भी लिया करो कि क्या बोलना है और क्या नहीं"...

"अपने पिताजी को क्यों नहीं बोलते कि....

एक आध यंग...हॉट....टॉल...अच्छी फिज़ीक(सेहत)वाला देवर तैयार कर दें अपनी बहू के लिए"...

"बेचारी घर में अकेली तन्हा बैठी-बैठी बोर हो जाती है"..

"वैसे...तुम्हारे पिताजी में भी कोई कमी नहीं है...अच्छे खासे दिखते हैँ"..

"क्यों?...क्या ख्याल है तुम्हारा?"...


"क्या बक रही हो?"...


"क्यों लगी ना मिर्ची?...और फाल्तू बोलो"...

"याद रखो!...एक बोलोगे...तो दो सुनोगे"..

"हुँह!...बड़े आए बुढापे में मेरे पिताजी से पुट्ठे-सीधे काम करवाने वाले"...


"आज तक मेरी माँ पछता रही है कि कहाँ इस निरे कंजूस मक्खीचूस के घर फँसा बैठी अपनी फूल सी कोमल बेटी को"...


"फूल सी कोमल?...और तुम?"..

"हाह!...सपने देखना छोड़ दो ....कभी हुआ करती थी तुम फूल सी कोमल"...

"अब तो कड़वे कटहल सी कर्कश और...गोभी के फुल साईज़ फूल के माफिक मोटी हो तुम"...


"मेरी बहनें...मेरी माँ..मेरे सभी रिश्तेदार सब शिकायत करते हैँ कि दामाद जी कभी सीधे मुँह बात नहीं करते"...

"कभी भूले-भटके फोन भी करेंगे तो सीधा कॉल नहीं करेंगे बल्कि...मिस कॉल मार के छोड़ देंगे"...


"तो?"...


"अरे!..तुमने फोन मिलाया है...तुम्हें बात करनी है...तो फिर भला मिस कॉल क्यों?"

"ऐसा करते हुए शर्म नहीं आती तुम्हें?"...


"शर्म?..बचत में कैसी शर्म?"...

"हाह!..शर्म आनी चाहिए उन्हें...अपने दामाद से खर्चा करवाते हुए"...

"अपना तो सीधा सरल फण्डा है कि ....जिसने की शर्म..उसके फूटे कर्म"...

"हुँह!..बड़े आए ससुराल वाले"..

"करना-कराना कुछ है नहीं और...रुआब सहूँ दुनिया भर का?"...

"मॉय फुट"...

"कहने को तो चार-चार मुस्टंडे साले हैँ मेरे लेकिन...

इतनी शर्म भी नहीं है किसी में कि और कुछ नहीं तो कम से कम मेरा मोबाईल ही रिचार्ज करवा दिया करें हर महीने"


"क्यों?..ठेका ले रखा है उन्होंने तुम्हारा?"...

"जब दिल्ली छुड़वा के पानीपत बुला रहे हैँ मुझको...तो ठेका ही समझो"..

"लेते रहो सपने ...ना नौ मन तेल होगा और ना ही राधा नाचेगी"...


"अच्छा भला रह रहा था दिल्ली में...ऊँगली कर-कर के बिकवा दिया मेरा मकान"...

"अब पैसे हाथ में लिए-लिए फिर रहा हूँ लेकिन कोई ढंग का मकान मिले तब ना"...

"उफ!...बेचने जाओ तो स्साला सही दाम नहीं मिलता..खरीदने जाओ तो सही आवास नहीं मिलता"..


"बड़ा कहते थे तुम्हारे भाई कि...उठा अपना झुल्ली-बिस्तरा और आ जा पानीपत...यहीं सैटल हो जा"...

"काम धन्धा और घर दोनों नज़दीक के नज़दीक हो जाएंगे"...

"ज़्यादा ध्यान भी दिया जा सकेगा काम धन्धे की तरफ और रोज़ाना के सफर के पाँच घंटे भी बचेंगे"...

"लो आ गया हूँ तुम्हारी शरण में...कराओ मेरा जुगाड़...कराओ ना मुझे कहीं ढंग से सैटल"...

"हुँह!...बड़े आए मुझे सैट कराने वाले"...

"इस सैट-सैट के चक्कर में मेरी पूरी सैटिंग ही बिगाड़ के रख दी"...


"अब कह रहे हैँ कि मकान खरीदने की कोई ज़रूरत नहीं है साल दो साल...

किराए पे रहो फिलहाल...और जो पैसा मिलना है मकान का उसे बिज़नस में लगाओ"...


"स्साला!...मुझ से मूर्ख कोई और प्राणी भी होगा इस पूरे जहान में?"...


"क्यों क्या हुआ?"...


"मज्झ वेच्च के घोड़ी खरीद बैठा मैँ"(भैंस बेच के घोड़ी खरीद बैठा मैँ)...


"फिर क्या हुआ?"...


"दूध-घी से भी गया और घोड़े की लीद अलग से उठानी पड़ रही है अब मुझे"...


"मतलब?"...


"अरे!...जो किराया आता था अपने मकान से...उस से भी हाथ धो बैठा मैँ और...

अब आगे खुद को किराया भरना पड़ेगा"...


"यही सोच-सोच के तो परेशान हूँ मैँ"..


"तो पहले सोचना था ना...अब क्या फायदा?"...

"कितनी बार समझाया है कि एक से भले दो होते हैँ लेकिन तुम मानों तब ना"...

"कभी राय भी तो नहीं लेते हो मेरी"...

"एक बार कुछ जी में आ जाए सही ...

बस!..तुरंत बिना आगा-पीछा सोचे अमल कर डालते हो उस पर"...


"मुझ से अच्छी तो मेरी बहने हैँ...उनकी मर्ज़ी के बिना पत्ता तक नहीं हिलता है उनके घर में"...

"बहुत अच्छे हैँ मेरे दोनों जीजे...बड़ा ख्याल रखते हैँ मेरी बहनों का"...


"क्यों?...ऐसे क्या सुरखाब के पर लगे हैँ उनमें?"...


"मेरी बहनें चाहे कुछ भी करती रहें...कुछ भी कहती रहें लेकिन उनके पति उफ तक नहीं करते"..

"सुबह बैड टी से लेकर नाश्ता तक खुद ही बना के परोसते हैँ"...


"स्साले!...हलवाई रहे होंगे पिछले जन्म में दोनों के दोनों"...


"कई बार तो वाकयी रश्क(ईर्ष्या)होता है मुझे अपनी बहनों की किस्मत से"..


"ऐसी कोई अनोखी खूबी तो नहीं देखी मैँने उनकी किस्मत में"...


"कोई एक खूबी हो तो बतलाऊँ"...


"मतलब?"...


"कहाँ मेरी बहनों के ससुराल में ये लम्बे चौड़े घर और कहाँ ये महज़ दो कमरों का सैट?"...

"मेरी तो किस्मत ही फूटी थी जो ब्याह के यहाँ चली आई"...


"क्यों?..इस दो कमरों के सैट में क्या बुराई है?"..

"बुराई तो कुछ नहीं लेकिन ज़रा ढंग से सैटिंग तो हो कम से कम"

"ये क्या कि पलंग पे...डायनिंग पे...कुर्सी पे...सोफे पे...

यहाँ तक कि ज़मीन पर भी ....बिखरे पड़े रहते हैँ तुम्हारे कपड़े"...

"उफ़!...जहाँ देखो...वहीं कपड़ॉं की भरमार"...

"कितना भी करीने से तह लगा के सजा के रख लो लेकिन...

अगले दिन सुबह होते ही जनाब को वही कपड़े चाहिए होते हैँ जो सबसे नीचे पड़े होते हैँ"...

"सारी की सारी तह ही बिगाड़ के रख देते हैँ"...

"मैँ भी इनसान हूँ कोई मशीन नहीं"...


"तो क्या ढंग के कपड़े भी ना पहनूँ?"...

"पता भी है कि प्रापर्टी डीलर का काम है मेरा..रोज़ रोज़ नई-नई पार्टियों से मिलना-जुलना होता है"..

"वही पुराने घिसे-पिटे कपड़े पहन के डील फॉयनल किया करूं उन सब से?"...


"सब पता है मुझे कि कितनी और कैसी डीलें फॉयनल करते हो तुम हर रोज़"...

"अनाड़ी नहीं हूँ मैँ...सब समझती हूँ कि रोज़-रोज़ ये नए-नए कपड़े पहन कर किस के साथ गुलछर्रे उड़ाते हो"...


"किस के साथ?"मैँ चौंका कहीं इसे सब पता तो नहीं चल गया है


"उसी मुय्यी कम्मो चूरनवाली के साथ ना?"...


"बेवाकूफ!...वो...वो तो मेरी धर्म बहन है"मैँने राहत की साँस ली...


"हाँ!..ये बात और है कि उसके अलावा और बहुत सी...

'चूरन वालियाँ' है जो हरदम तैयार रहती हैँ अपुन के साथ डेट पे जाने के लिए"मैँ मन ही मन हँसा...

"सीधी बात है...इस हाथ दे और उस हाथ ले"...


"मतलब?"...


"मतलब ये मेरी जॉन कि अगर तुम मेरा ख्याल रखोगी...तो यकीनन...मैँ भी तुम्हारा ख्याल रखूँगा"...


"मतलब तुम्हारी हर बात मानूँगा"...


"तो क्या मैँ तुम्हारा ख्याल नहीं रखती?"...

"अगर अभी मैँ तुम्हारा ख्याल नहीं रखती तो फिर दुनिया की कोई भी औरत तुम्हारा ख्याल कभी रख भी नहीं सकती"...


"हाँ!..ये मेरा ख्याल ही तो है जो मुझे. ..

ये टूटे हुए बटन वाली फटी कमीज़ पहन कर जाना पड़ता है"मैँ कमीज़ के टूटे बटन की तरफ इशारा करता शांत स्वर में बोला..


"हे भगवान!...मैँ इन्हें फटे-पुराने कपड़े पहनाती हूँ?"...

"तुम देख रहे हो ना भगवान कि. ..

कैसा इलज़ाम लगाया जा रहा है मुझ पर?"बीवी ऊपर की ओर देखती हुई हिस्टीरिआई अन्दाज़ में चिल्लाई...


"मैँ पूरा दिन काम करते-करते मर जाती हूँ और...

मेरी सेवाओं का...मेरी निष्ठा का ये सिला दिया जा रहा है मुझे"बीवी रुँआसी हो बोलती चली गई...


"ये देखो!...खुद ही देख लो...इस पैंट कि सिलाई उधड़ी पड़ी है पिछले चार हफ्ते से लेकिन...

मजाल है जो तुम्हारे कान पे जूँ भी रेंगे तो"...


"तुम भी तो उसी वक्त याद दिलाते हो जब टीवी पे मेरा कोई ना कोई फेवरेट प्रोग्राम चल रहा होता है"...


"अच्छा भला ये बताओ कि कौन सा प्रोग्राम तुम्हारा फेवरेट नहीं है?"...


"हर वक्त तो घुसी रहती हो इस मुय्ये बुद्धू बक्से में"...

"कभी सोनी...तो कभी स्टार प्लस...

कभी ज़ी टीवी...तो कभी सहारा..जो ना कभी हुआ हमारा"..


"कभी आजतक....तो कभी ज़ी न्यूज़"...

"और तो और ...जब कहीं कुछ देखने सुनने लायक नहीं मिलता तो बिज़नस न्यूज़ के चैनल ही देखने बैठ जाती हो"...

"कभी 'आवाज़' तो कभी 'सी.एन.बी.सी' देख आँखें फैला...बत्तीसी फाड़....अपने दीद्दे दिखा रही होती हो"...


"सच्ची-सच्ची बताना कि कुछ पल्ले भी पड़ता है उसमें?"...

"या यूँ ही बेफाल्तू में शोर-शराबा सुनने की हैबिचुअल हो गई हो?"...


"तुम क्या जानों?...उनमें भी मैँ अपने मतलब की आईटम छांट लेती हूँ"...


"जैसे?"...


"जैसे..एँकर की साड़ी का 'डिज़ाईन'...उसका 'मेकअप'..उसकी 'आईब्रो'..

उसका 'हेयर स्टाईल'...बालों में लगे 'हेयर पिन' ...'जूड़ों के नए-नए डिज़ाईन'...

बड़ी-बड़ी सैलीब्रिटीज़ के 'लिप लाईनर'...उनका बात करने का लहज़ा..वगैरा...वगैरा"...


"हम्म...अब समझा!...आजकल मुझसे यूँ होंठ भींच-भींच के बातें क्यों की जा रही है"...


"हाँ!..मैँ सलीब्रिटीज़ को फॉलो करती हूँ...अच्छा लगता है मुझे"...

"आखिर!...बुरा ही क्या है इसमें?"..


"चलो माना कि कोई बुराई नहीं है इसमें...झेला जा सकता है इतना सब कुछ लेकिन...

ये जो कई बार तुम बेशर्मों की तरह डिस्कवरी चैनल तो ..कभी ऐनीमल प्लैनैट देख रही होती हो..उसका क्या?"..


"क्यों इन चैनल्ज़ में क्या बुराई दिख गई आपको?"...

"अच्छे भले नॉलेज के चैनल हैँ...ज्ञान बढता है इनसे"...


"सब पता है मुझे कि कैसा ज्ञान बढाते हैँ ये चैनल"...

"जब कभी कुछ उल्टा-सीधा कर रहे होते हैँ ये बेचारे जानवर तो चोरी छुपे बना लिया जाता है उनका वीडियो"...


"तो?"...


"सीधे-सीधे उनकी प्राईवेसी में दखल है ये"...

"ये साफ तौर पे आघात है उनकी निजता पे"...

"जहाँ एक तरफ हम इनसानों का अगर कोई चोरी-छुपे...

ज़रा सा...छोटा सा...माईनर सा ...मिनट दो मिनट का भी 'एम.एम.एस' बना ले तो...

वो हाय-तौबा मचाई जाती है कि पूछो मत"...

"दिन-रात एक कर दिया जाता है कलप्रिट(मुजरिम) को पकड़ कर जकड़ने के लिए"...


"वहीं दूसरी तरफ इन भोले जानवरों की तो...

पूरी दो..पौने दो घंटे की फिल्म ही टैलीकास्ट कर दी जाती है और कोई कुछ नहीं कहता"...

"वैरी स्ट्रेंज"...

"और हम मतलबी इनसान उसे अपने मज़े के लिए खूब चटखारे ले ले के देखते हैँ"..

"यार-दोस्तों को फोन कर-कर के बतलाते हैँ कि फलाने फलाने चैनल पे धांसू आईटम दिखाई जा रही है...मिस मत करना"...


"और हाँ!...लोगों को भरमाने के लिए सरासर ब्लू फिल्म को 'वाईल्ड बीस्टस एट देयर एक्स्ट्रीम'और...

ना जाने क्या-क्या का नाम दे डाक्यूमैंटरी फिल्म का ठप्पा लगा दिया जाता है"

"दिस इज़ नॉट फेयर"...


"ब्लू फिल्म?"...


"हाँ!...ब्लू फिल्म..इनसानों की ना हुई तो क्या हुआ?"...

"है तो ब्लू फिल्म ही ना?"...

"सरासर ..दिनदहाड़े सैक्स परोसा जा रहा है धड़ाधड़ और कोई ऐतराज़ नहीं करता"...


"वाह रे ऊपरवाले!...देखा तेरा इंसाफ"...

"जहाँ एक अदना सा...छोटा सा 'एम.एम.एस' बनाने वाले को...

जेल की सलाखों के पीछे सड़ने के वास्ते डाल दिया जाता है और वहीं दूसरी तरफ ठीक इसके उल्ट...

इन ब्लू फिल्मों...ऊप्स सॉरी!...डॉक्यूमैंटरी फिल्मों के निर्माताओं को...

बैस्ट फिल्ममेकर..बैस्ट सिनेमैटोग्राफर...और ना जाने किस-किस बैस्ट अवार्ड से नवाज़ा जाता है"


"मुलज़िनों को सज़ा देना तो दूर ...उल्टे उन्हीं पे अवार्ड देने के नाम पर खूब धन वर्षा की जाती है"..

"हे ऊपरवाले!...तू मुझे उठा ले...

ऐसा घोर कलयुग मैँने कहीं नहीं देखा कि...

जहाँ मूक जानवरों की गरिमा को खंडित करने वालों को ही महिमा मंडित किया जाता है"


"मन तो ऐसा करता है कि इस टीवी के बच्चे को अभी के अभी उठा के बाहर फैंक दूँ"...


"खबरदार!...जो इस टीवी की तरफ आँख उठा के भी देखा तो...खून पी जाऊँगी तुम्हारा"...

"कहीं भूले में मत रहना कि तुम मुझ पे यूँ ज़ुल्म पे ज़ुल्म करते जाओगे और मैँ सब चुपचाप सहती जाऊँगी"...

"कलयुगी नारी हूँ मैँ कोई पुराने ज़माने की पतिवर्ता औरत नहीं "


"और हाँ!...कहीं मुगालते में ना रहना ...ये टीवी मेरा है...सिर्फ मेरा"...

"इस पर अपना हक जताने की सोचन भी मत"...

"सनद रहे कि मेरे दहेज में आया था 'एल.जी'का ये पूरे उनत्तीस इंच का कलर्ड टीवी"...

"साढे सोलह हज़ार नकद गिन के खर्चा किए थे मेरे बाप ने...पूरे साढे सोलह हज़ार"..


"बस इसी लिए चिपकी रहा करो इससे हरदम...और कोई काम करने की तो ज़रूरत ही नहीं है ना"...

"डाक्टर नहीं कहता है कि रात को दो-दो बजे तक डेल्ले फैला के टीवी देखो और फिर दिन में जब सूरज छत पे चढ आए

तब तक घोड़े बेच के सोई रहो आराम से"...

"उसके बाद भी बस खाया-पिया और पसर लिए दिवान पे टीवी देखने के वास्ते"...


"स्साला टीवी!...टीवी ना हुआ...खुदा का बच्चा हो गया कि मत्था टेकना ज़रूरी है हर वक्त"..


"तुम्हें क्या पता टीवी की महिमा...

घर के ड्राईंग रूम से लेकर बैडरूम तक ...वाया किचन होता हुआ...अब तो बाथरूम तक आ पहुँचा है"...


"अरे!...सब बड़े लोगों के चोंचले हैँ"...


"सुनो!..."


"कहो"...


"क्यों ना हम भी बड़े लोगों की तरह अपनी किचन और बाथरूम में भी टीवी लगवा बड़े बन जाएं?"...


"खाना बनाने और नहाने-धोने के चक्कर में कई दफा सीरियल मिस हो जाता है"...


"अरे!...मिस हो जाता है तो होने दो...रिपीट टलीकास्ट भी तो आता है ना अगले दिन"..

"लेकिन यहाँ भी तो प्राब्लम है मैडम को...दो-दो बार जो देखना होता है हर एपीसोड को"...


"पता नहीं खुर्दबीन(दूरबीन)लेकर क्या ढूँढती फिरती है इन बकवास सीरियलों में?"...


"अरी बावली!..तेरी किचन वाली बात तो फिर भी मान लूँ कि...

रसोई में रहेगी तो खाना तो मिलेगा टाईम पे कम से कम मुझे लेकिन...

ये बाथरूम वाला फंडा तो शुरू से लेकर आखिर तक गलत ही गलत है"...


"वो भला क्यों?"...


"अरी बावली!...बाथरूम होता है और कामों के लिए"...


"पता चले कि तीन घंटे तक मैडम जी बाथरूम में ही लगी रही....

मैँ खुश कि...चलो आज कई दिनों बाद चमक-धमक रही है...

सो!..चमकने दो..अपना ही फायदा है"...

"राते ठीकठाक कट जाया करेंगी लेकिन...

कहीं बाद में ये पता चले कि मैडम तो वैसी की वैसी बिना नहाई-धोई काली शॉ की काली शॉ ही निकली"...

"ऊपर से पूरे तीन घंटे नाहक में गवां दिए इस मुय्यी एकता कपूर के चक्कर में"


"अरे!...गुस्सा तो इतना आता है कि अभी के अभी इस एकता की बच्ची का गला घोंट के सारा का सारा टंटा ही खत्म कर दूँ"...

"ना रहेगा बाँस और ना बजने दूँगा कभी उसकी बाँसुरी"...

"अपनी कमाई के चक्कर में पूरी दुनिया की ऐसी की तैसी करने पे तुली है"...


"क्यों?...क्या कह रही है तुम्हें?"..

"अपना काम ही तो कर रही है चुपचाप"...


"हाँ!..जानता हूँ कि अपना काम कर रही है और उसका काम है पब्लिक को फुद्दू बना नोट कमाना"....

"सही है!..अपनी तिजोरी भरी रहे...भरती रहे धड़ाधड़ ...बाकि सारी दुनिया जाए भाड़ में"..

"अगर हम मर्दों से कभी पूछा जाए ना कि कौन है उनका दुश्मन नम्बर एक?"...

"तो सभी की ज़ुबान पे एक ही नाम होगा...

एकता कपूर...एकता कपूर और बस एकता कपूर"...


"पट्ठी!...पता नहीं किस जन्म के वैर निकाल रही है हम मर्दों से"...

"ऐसा सम्मोहित कर डाला है इसने आजकल की औरतों को कि बस पूछो मत"..

"ना खाना मिलता है टाईम पे..ना ही पहनने-ओढने को ढंग से कपड़े"...

"आखिर ऐसा क्या स्वाद मिलता है तुम औरतों को कि...

अपना आगा पीछा सब भूल के इस मुय्ये टीवी से चिपकी रहती हो हर हमेशा?"..


"बहुत कुछ मिलता है हमें...यूँ समझ लो कि वो सब...जो तुम पूरी ज़िन्दगी मुहय्या नहीं करवा सकते"..

"हमारे सपने...हमारे अरमान कुछ पल के लिए ही सही लेकिन हकीकत का जामा तो पहन लेते हैँ कम से कम"..

"हमारी वो सब चाहते...जो तुम जैसे मध्यम वर्ग के लोग कभी पूरी नहीं कर सकते ...

उन्हें ये 'एकता'हकीकत के नए आयाम देती है"


"इस टीवी की वजह से ही तुम्हारे संग नर्क योनि झेलते हुए भी हमें खुद के जन्नत में होने का सा सुखद अहसास होता है"...

"इसीलिए हम अपने सब दुख-दर्द भूल तुम मर्दों के ज़ुल्म ओ सितम हँस-हँस के सह लेती हैँ"...

"हमारे वो सब अरमान जिन्हें हम तुम मर्दों के डर की वजह से छुपा देती हैँ...दबा देती हैँ...कुचल देती हैँ...

वो सब सपने हमें साकार होते हुए से लगते हैँ"...


"वैसे एक बात बताओ"...


"क्या?"...


"कब से देखे जा रहे हैँ ये बेफाल्तू के...बेफिजूल से सपने?"...

"यही कोई दस बारह साल पहले से ही ना?"...


"हाँ...तो?"...


"मैँ यकीनी तौर पे दावे के साथ कह सकता हूँ कि उस से पहले नहीं देखें होंगे ऐसे बेतुके सपने"...


"इस यकीन की वजह?"...


"वजह ये कि...उस से पहले इन एकता कपूर टाईप सीरियलों का...

कोई वजूद...कोई असितत्व ही नहीं था हिन्दुस्तान के वायुमण्डल में"


"उस वक्त भी तो लोग जिया करते थे...

वाह!...क्या मद को मस्त करने वाली ब्यार बहा करती थी उन दिनों हमारे वायुमंडल में"मैँ पुराने दिनों की याद में खो सा गया...


"तुम चाहे कुछ भी कहते रहो...कुछ भी बकते रहो लेकिन...

हम औरतें तो एकता कपूर की तहे दिल से एहसान मंद हैँ...शुक्रगुज़ार हैँ कि उसने हमें जीना सिखाया"...


"उसने हम में आगे बढने की होड़ जगाई...हम में सपने जगाए"....


"लेकिन!..उन्हें पूरा करने का कोई रास्ता नहीं सुझाया"...


"लेकिन खुशी तो मिलती है ना हमें ये सब देख के"...


"बहुत भोली हो तुम"...

"साईक्लॉजिकल प्रैशर डाल तुम्हारी सबकी भावनाओं से खेल रही है वो"..

"खिलवाड किया जा रहा है तुम्हारे इमोशनज़ के साथ"...


"हम औरतों के इमोशनज़ से ही तो खेलते हैँ सब"....

"हमारी भावनाओं को खेल समझ कर उनसे खेला जाता रहा है हमेशा"...

"पहले एकाधिकार था मर्दों का...अकेले वही खेला करते थे हमारी भावनाओं से"...

"अब मोनोपली का ज़माना नहीं रहा...

कम्पीटीशन के इस ज़माने में अगर एकता कपूर भी यही खेल खेलने लग गई है तो इसमें हैरत की बात क्या है?"...


"ह्यूमन साईक्लॉजी है ये तो कि हम किसी अपने को दुखी देख..परेशान हो उठते हैँ...

तो किसी खास को प्रसन्न देख उसकी खुशी में शरीक भी होते हैँ"...


"लेकिन मैडम जी!...सिर्फ फिल्मों और टीवी सीरियलों में ही होता है ऐसा"...

"वर्ना असल ज़िन्दगी में जहाँ एक तरफ किसी अपने को खुश देख हम जलभुन कोयला हो उठते हैँ...

उसकी कामयाबी देख हमें रोटी हज़म नहीं होती है"...

"वहीं दूसरी और जब हमारा कोई अपना...सगेवाला...

संकट के दौर में फँसा अपनी मुसीबतों से अकेला जूझ रहा होता है तो...

हमारे मन में शुद्ध देसी घी के मॉल-पुय्ये पक रहे होते हैँ और खुश्बुदार जलेबियाँ तली जा रही होती हैँ"..


"मैडम जी!...यहाँ हर कोई अपने दुख से...अपनी परेशानी से...दुखी नहीं है बल्कि...

वो दुखी है....परेशान है...दूसरे के सुख से...उसकी कामयाबी से"...


"इन मुय्ये सीरियलों को ही देखो...यही सब तो सिखा रहे हैँ ये हमें"...

"ईर्ष्या...द्वेश....जालसाज़ी....व्याभिचार...अनैतिक विवाहतेर सम्बन्ध इत्यादि..इत्यादि"...

"और हम इसी में खुश हैँ"..


"किसी सीरियल में किसी चहेते किरदार के साथ कोई हादसा हो जाए तो उसके गम में हमारे घर चूल्हा नहीं जलता...


"चूल्हा?...और आज के ज़माने में?"...


"मेरा मतलब...उस दिन हमें खाना नहीं मिलता"....

"किसी सीरियल में कोई खुशी का मौका हो तो मारे खुशी के मैडम जी का पेट तो वैसे फुल्ल हो फूल जाता है"...

"सो!..खाना बनाने और खिलाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता"


"जागो...मैडम जी जागो!...

नकली खुशियाँ परोस रही है वो तुम्हारे आगे और तुम उन्हें असली समझ अपने ही वजूद से खिलवाड़ कर रही हो"...


"सीरियल के अन्दर चल रहे किसी दुखद सीन के साथ -साथ तुम्हारी आँखे भी नम होती देखी है कई बार मैँने"

"एकता के सभी सीरियलों की कहानी ही ऐसी लिखी जाती है कि जिसमें...

इमोशन...ड्रामा...पैसा...सस्पैंस..थ्रिल...ईर्ष्या...

भरपूर मात्रा में हो ताकि खुद से जुड़ाव महसूस करने लगें औरतें"...


"सिर्फ औरतें ही क्यों?"...


"वो इसलिए..क्योंकि वो अच्छी तरह जानती है कि अगर औरतों को अपने वश में कर लिया गया तो...

मर्दों की जेब ढीली करवाना कोई बड़ी लम्बी चौड़ी बात नहीं है"...


"अब इसमें मर्दों की जेब कहाँ से टपक पड़ी?"...


"अरी बेवाकूफ!...रही ना तू बावली की बावली"...

"तू क्या समझती है कि ये एकता कपूर हमारे तुम्हारे मनोरंजन के लिए ये सब नाटक-वाटक परोस रही है?"...


"और क्या मकसद हो सकता है इस सब के पीछे?"...


"अरी मेरी भोली भंडारन!...बहुत बड़ा बाज़ार है इस सब के पीछे"...

"महज़ दस सैकैंड की एक एडवर्टाईज़मैंट को दिखाने की एवज़ में...

ये टीवी चैनल वाले कई-कई लाख वसूल करते हैँ कम्पनियों से"..

"और जानती है कि एक-एक एपीसोड के बीच में अन्दाज़न कितने मिनट तक ऐड दिखाई जाती है?"...


"यही कोई आधे घंटे के ऐपीसोड में दस से बारह मिनट"..


"तो सोच कि अगर दस सैकैंड की एक ऐड के दस लाख रुपए हुए तो एक मिनट के हो गए साठ लाख"....

"इस हिसाब से गिनों तो दस मिनट के हो गए छै करोड़"...


"छै करोड़?...बाप रे..."बीवी की आँखे आश्चर्य से फटी की फटी रह गई

"लेकिन मैँ भी कुछ कम नहीं हूँ...जैसे ही ऐड स्टार्ट होती है..मैँ फटाक से चैनल बदल लेती हूँ"...

"लेकिन एक बात नोटिस की है मैँने"...


"वो क्या?"...


"यही कि जब भी मैँ चैनल बदल किसी दूसरे चैनल पे जाती हूँ तो वहाँ भी कोई ना कोई ऐड ही चल रही होती है"...


"लगता है सब चैनल वाले आपस में मिल गए हैँ...

और कोई ऐसा प्रोग्राम या साफ्टवेयर इज़ाद कर डाला है इन लोगों ने जो सभी चैनलज़ को एक साथ मॉनीटर करता है"...

"एक साथ परफैक्ट टाईमिंग के साथ सभी प्रोग्रामज़ की व्यूइंग सैट की जाती है"


"और करें भी क्यों ना?"..बेइंतिहा पैसा जो जुड़ा हुआ है इस सब के साथ"...

"अभी हम जो हिसाब लगा रहे थे वो तो सिर्फ आधे घंटे की ही कहानी थी"...

"पूरे चौबीस घंटे इन चैनलों पे कोई ना कोई सीरियल धमाचौकड़ी मचा ही रहा होता है"....

"तो सोच कि कितने करोड़ का खेला होता होगा रोज़ाना"...


"इस हिसाब से तो पूरे महीने के हो गए....*&ं %$#@ रुपए"

"बाबा रे....इतना पईस्सा?"...

"मेरे लिए तो हिसाब लगाना ही मुश्किल हो रहा है"...


"मैँ तो कई बार हैरान होने के बाद परेशान हो उठता हूँ कि इतना सारा पैसा वो गिनते कैसे होंगे?"...


"कौन सा उन्हें तुम्हारी तरह थूक लगा उँगलियों से गिनना होता है?"...

"इस सारे काले-सफेद पैसे का हिसाब रखने के लिए सैंकड़ॉ की तादाद में तो उन्होंने मॉड्रन मुंशी रखे होंगे"...


"मॉड्रन मुंशी..माने?"...


"मेरा मतलब 'सी.ए' याने के चार्टेड एकाउंटेट से था"..


"हम्म!...तभी डेली के हिसाब से थोक के भाव में चैनल लाँच होते जा रहे हैँ आजकल"...


"और नहीं तो क्या?"...

"कहाँ पहले सिर्फ एक चैनल हुआ करता था अपना दूरदर्शन ...और अब तो डेढ सौ का आँकड़ा भी पार हो गया है"...


"कुछ ही महीनों में पूरे ढाई सौ हो जाने का कयास भी लगा रहे हैँ कुछ लोग"..



"खैर छोड़ो!...बड़े लोगों की बड़ी बातें"...

"हमने तुमने क्या लेना है इस सब से?"...

"हाँ तो बात हो रही थी कि ये एकता की बच्ची यूँ ही बेफाल्तू...कभी ना पूरे होने वाले सपनों का झुनझुना थमाती है"...


"तो क्या हुआ?...

हमें अपने सभी अरमान...सभी सपने साकार होते हुए से तो लगते हैँ ना"...


"साकार होते हुए से लगते हैँ...साकार होते तो नहीं ना?"

"रहने दो..रहने दो...तुम्हारे पास तो मेरी हर बात का कोई ना कोई जवाब तैयार मिलता है हमेशा"...


"मैँ तुमसे कुट्टी हूँ...पक्की कुट्टी"...


"वो भला क्यों?"...


"कभी हमारी एनीवर्सरी पे कोई ढंग की आईटम भी दी है तुमने मुझे?"...

"हर बार एक सड़ा सा बूके उठा के ले आते हो"...

"ज़्यादा हुआ तो कोने वाले चित्रकूट ढाबे पर दाल मक्खनी और शाही पनीर आर्डर कर दिया"...

"छुट्टियों में कहीं घुमाने ले जाने के लिए कहो तो...काफी ना नुकर के बाद जनाब अगर मानेंगे भी तो ...

हरिद्वार से आगे जाने की तो सोचेंगे भी नहीं"...


"तो क्या मैँ तुझे क्रूज़ पे मलेशिया ले जाऊँ घुमाने?"...


"अरे!..इतने की तो तुम्हारी औकात ही नहीं है...यहीं नार्थ इंडिया में ही घुमा-फिरा दो...यही बहुत है"...


"लेकिन कहाँ?"...


"कभी मनाली..कभी शिमला तो कभी नैनीताल तो जाया ही जा सकता है ना"...

"उस पर भी बहाना तैयार रहता है जनाब का हमेशा कि मुझे हिल स्टेशन पे गाड़ी चलाने की प्रैक्टिस नहीं है"...

"अरे!..नहीं है तो ...करो ना प्रैक्टिस...कौन रोकता है?"...

"सुना नहीं है तुमने कि...करत करत अभ्यास के..जड़मति सुजान"..


"और हाँ!...अगर कहीं हमें घुमाने ले जाने की सोचो भी तो पहले अपनी इस खटारा मारुति को ठीक करवा लेना"...

"पूरे आठ सौ दफा घिसड़-घिसड़ कर चल ली मैँ तुम्हारी इस खटारा 'मारुति आठ सौ'(Maruti 800) में"...

"अब बस का नहीं है मेरे"...


"मेरे होते हुए चिंता क्यूँ करती है?"...

"मैँ तेरे लिए सैंत्रो वालों की नई कार....

'आई 10"निकलवा देता हूँ शोरूम से अभी के अभी"मैँ ज़ोर से हँस उसकी भावनाओं का मज़ाक उड़ाता हुआ बोला..


"हाँ-हाँ क्यों नहीं...उड़ा लो जितना उड़ाना है मेरा मज़ाक"..

"एक तुम हो और एक वो है जिसने अभी पिछले हफ्ते ही अपनी पत्नी को नव्वीं-नकोर मर्सिडीज़ दी है गिफ्ट में"...

"तुम सफारी ही दिलवा दो...मैँ खुश हो जाऊँगी"...

"ये भी ना कर सको तो कम से कम 'नैनो' की लाँचिंग के वक्त ब्रैंड न्यू पीस ही दिलवा देना"


"मर्सीडीज़?..और गिफ्ट में?"...

"ऐसा बावला कौन पैदा हो गया हमारे मोहल्ले में?"...


"मोहल्ले में नहीं बल्कि...टीवी में..."


"ओह!...फिर तो ज़रूर एकता की बच्ची का ही सीरियल रहा होगा?"...


"जी"...


"इसलिए तो कहता हूँ हमेशा कि बेड़ागर्क कर के रख दिया है उसने हम मर्दों का"...

"उसके बाप का क्या जाता है?"...

"सिर्फ दिखाना भर ही तो होता है"...

"कौन सा सच में गिफ्ट देना होता है?"...

"इसीलिए उसके सीरियलों में कभी कोई किसी को बँगला गिफ़्ट कर रहा होता है तो कोई स्पेशियस फ्लैट"...


"कोई पता नहीं आने वाले सालों में भारत सरकार से परमिशन ले ...टैक्स चुका वो अपने सीरियलों में ...

कभी ताजमहल ..तो कभी कुतुबमिनार ही गिफ्ट ना करने लगे"...


"तुम तो इस साठ गज के डिब्ब-खड़िब्बे मकान को ही मेरे नाम करने से साफ नाट गए थे"

"और बात करते हो लम्बी चौड़ी...

"तुम चाहे कितने भी तर्क-वितर्क पेश कर लो लेकिन...

मैँ तो ये सीरियल देखना कभी नहीं छोड़ूँगी क्योंकि...

बहुत कुछ देखने...सीखने को मिलता है हमें इनसे"......


"मसलन?"...


"जैसे...कभी साड़ी का पल्लू का फैंसी डिज़ाईन...तो कभी ईयरिंग के लेटेस्ट सैट...

कभी लिपिस्टिक के शेड...तो कभी मौड्यूलर किचन के सैट ...

कभी लेटैस्ट फैशन के लहँगा चोली...तो कभी डिज़ायनर सोफा सैट ...

तो कभी अल्ट्रा माड्रन वॉडरोब(अल्मीराह)...तो कभी मार्बल फिनिश डायनिंग टेबल"...


"तुमसे चालू इनसान तो मैँने पूरी दुनिया में नहीं देखा"...

"अब क्या हुआ?"...कौन सा चालूपन्ना कर दिया मैँने तुम्हारे साथ?"...

"ये जो इधर-उधर की बातों में असली बात ही गोल कर गए...उसका क्या?"...

"कौन सी बात?"...

"ये जो तुम्हारी ड्यूटी लगाई थी मैँने कपड़े छांटने की"...


"पड़ा रहने दे ना यार...क्या फर्क पड़ता है?"...


"ये भी कोई बात हुई कि जब भी टोको...यही कहते हो कि पड़ा रहने दे सबको"...

"बड़ा होने पे अपना मुन्ना पहन लेगा"...

"अरे!..कोई ऐव्वें ही फाल्तू नहीं है मेरा बेटा जो तुम्हारे ये फटे-पुराने चिथड़े पहनेगा"...

"उसको तो मैँ राजा बनाऊँगी...राजा"

"और वैसे भी अभी तो कुल जमा पौने दो साल का हुआ है...कब पड़ा होगा?...कब पहनेगा?...


"और हाँ!..लिखवाना है तो बेशक अभी लिखवा लो मेरे से कि...

तुम्हारी ये बीड़ी से जली हुई पैंटे तो मैँ उसे बिलकुल ही नहीं पहनने दूँगी...कहे देती हूँ"..


"अरी बेवाकूफ!....पहनावे से गुरबत टपकनी चाहिए तो अच्छा रहता है"...


"वो भला क्यों?"...


"नज़र नहीं लगती है ज़माने की और बेवजह फाल्तू में नोटिस में आने से बचता है बन्दा"...


"हम्म!...लेकिन उस वक्त तो पता नहीं क्या फैशन चल रहा होगा और क्या नहीं?"...


"अरी बावली!...कोई भी चीज़ हमेशा ऊँची..और ऊँची नहीं उठ सकती"...

"एक ना एक दिन उसे नीचे उतरना ही पड़ता है"...

"कभी ना कभी तो ऊँट को पहाड़ के नीचे से गुज़रना ही पड़ता है "


"मेरी बात गांठ बान्ध लो कि लौट के वही पुराने दिन हमेशा वापिस आते है...

सो!...इस बार भी ज़रूर आवेंगे"...

"और तभी ये कपड़े भी काम आएंगे"...


"अब अपने बिग बी को ही लो...

पहले कहाँ सुपर स्टार के सिंहासन पे कई साल बिना किसी तगड़ी चुनौती के विराजमान रहा"...


"क्यों है कि नहीं?"..

"उसके बाद ऐसा नीचे गिरा धड़ाम कि...चारों खाने चित्त"....

"कोई उठाने वाला नहीं..कोई संभालने वाला नहीं"...

"पूरे छै साल तक घर में खाली बैठा बैठा रोटियां तोड़ता रहा".....


"रोटियाँ तोड़ता रहा?"...


"हाँ!...जया बेचारी...सेकती रही और ये तोड़-तोड़ उन्हें खाता..चबाता रहा"...

"क्यों है कि नहीं?"...


"ये तो वो शुक्र मनाए...अमर सिंह का कि उसने मुलायम और अम्बानी के जरिए उसको अमरत्व का घूंट चखा दिया"...

"बेशक!..इस चक्कर में मुलायम की..खुद की लुटिया डूब गई और...

अब मायवती के जरिए अम्बानी की भी फुल्ल-फुल्ल तैयारी है"


"उन सब की मदद से या फिर सहारा इण्डिया की बैसाखी के सहारे अपने पैरों पे खुद बिग बी खड़ा हुआ कि नहीं"...

"बोल....हुआ कि नहीं?...


"ओफ्फो!...अभी कुछ देर पहले तो रट्टू तोते के माफिक रट लगाए बैठे थे...

क्यों है कि नहीं?...क्यों है कि नहीं?...के जाप की"...

"अब पता नहीं क्या सूझा है जनाब को कि अब बोले चले जा रहे हैँ...बोल है के नहीं...बोल है के नहीं"...

"आखिर इतना कंफ्यूज़न पैदा ही काहे को करते हो कि किसी के पल्ले कुछ भी ना पड़े?"...

"ज़रूर अपने बाप पे गए हो"


"अरी बावली!...रही ना तू निरी खोत्ती(गधी)की खोत्ती"...

"इसे कहते हैँ तकिया कलाम"....


"मैट्रिक पास पढी-लिखी हूँ मैँ ...अनपढ नहीं" ...

"जानती हूँ अच्छी तरह कि तकिया किसे कहते हैँ और गिलाफ किसे कहते हैँ"...

"लेकिन!..ये तकिया कलाम?.....

"कहीं ये अपने भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री अब्दुल कलाम जी का ही तो तकिया नहीं है कहीं?"

"तुम्हारे हत्थे कैसे लग गया?"..



"अगर कभी बचपन में हिन्दी पढी होती ढंग से तो आज ये नौबत ना आती"...

"ज़रूर...हैडमास्टर को छोल्ले दे के पास हुई होगी तुम"


"छोल्ले?"...


"हाँ...हाँ...छोल्ले माने चने"....

"पहले ज़माने में हैडमास्टर का रेट फिक्स हुआ करता था"...

"छोल्ले की बोरी दो और साठ परसैंट नम्बर लो...वैरी सिम्पल"


"तब नकद का रिवाज़ नहीं होता था ना"...

"हुँह....गाँव के निपट गँवार रहे तुम पूरी ज़िन्दगी और रहोगे भी"...

"मेरे बाप तो तो नोट खर्चे थे...नोट"...

"वो भी पूरे गिन के कड़-कड़ कर कड़कते हुए करारे नोट थमाए थे हैडमास्टर को"...

"वो भी सौ...दो सौ नहीं बल्कि...पूरे सात सौ छयासी रुपए धरे थे उसकी हथेली पे"...

"इतने में भी बड़ी मुश्किल से माना था हैडमास्टर ...वो भी तब ..

जब उसने एक नोट में सात सौ छयासी का नम्बर देख लिया था"...


"सात सौ छयासी?"...

"लेकिन तुम तो ब्राहमण के घर में पैदा हुई हो ना?"...

"या कहीं मुझे धोखे में रखा गया?"..


"अरे बेवाकूफ!....मैँ ब्राहमण घर की हुई तो क्या?"....

"वो हैडमास्टर का बच्चा तो मुस्लिम ही था ना"...

"कहने लगा कि या तो पूरे ग्यारह सौ रुपए दो अपने धर्म के हिसाब से"...

"या फिर मेरे हिसाब से चलते हुए सात सौ छयासी निकालो"...

"ना एक रुपया कम...ना एक रुपया ज़्यादा"


"चन्द रुपयों को बचाने की खातिर तुमने अपना ईमान...अपना धर्म बदल दिया?"...

"शेम ऑन यू"..


"वो बात दर असल ये है कि ...वैसे तो मैँ अपने धर्म पे सौ फीसदी टिकी रहती..लेकिन...

जहाँ पैसे का नाम आ जाए...वहाँ कौन सा धर्म?...और कैसा ईमान?"...

"क्या फर्क पड़ता है?"...

"ब अस...कैसे भी कर के बचत होनी चाहिए"....

"क्यों है कि नहीं?"...


"दूँ खींच के एक?"...शर्म नहीं आती मेरी नकल उतारते हुए?"...


"नकल!..और तुम्हारी?...भांग तो नहीं चढा रखी तुमने?"...

"पता है ना कि चार भाई हैँ मेरे...और चारों के चारों 'मास्टर चन्दगी राम' के अखाड़े के निकले हुए हैँ"...

"एक ही पटखनी में सब इंजर-पिंजर ढीले ना करवा दिए तुम्हारे तो कहना"...

"होश से बात किया करो मुझसे...बाद में शिकायत ना करते फिरना सबसे कि पहले चेताया नहीं था संजू ने"...


"और हाँ!...ये तुम में इतनी हिम्मत कहाँ से आ गई कि मुझे खींच के एक हाथ मारोगे?"...


"मैँने कब कहा कि मारूँगा?...


"अभी क्या बक रहे थे?"...


"मैँ...मैँ तो कह रहा था कि अगर कहीं तुम गिरने लगोगी तो एक हाथ बढा तुम्हारा हाथ थाम लूंगा"...


"हम्म!...फिर ठीक है"...

"और हाँ!...याद आया ...ये जो गट्ठर तुम्हारे सामने पड़ा है..इसको कब छांटोगे?"...


"बस अभी!...अभी छांट रहा हूँ"...


"याद है ना ...शाम को मेरे बड़े वाले भाई साहब आ रहे हैँ पानीपत से"....

"उनको इंटरनैशनल एयरपोर्ट पे छोड़ने भी जाना है"...

"इस बार लीबिया का टूर है उनका"...

"सो!..झट से काम निबटाओ और फटाफट तैयार हो जाओ "...


"जी!...जैसा आपका हुकुम"...

"संजू!..."...


"बोलो"...


"एक चाय मिलेगी?"...

"थक गया हूँ...ये कहानी लिखते-लिखते"...


"अभी लाई एक मिनट में"...


"साथ में कुछ मट्ठियाँ-शट्थियाँ भी लेती आना"...


"ठीक है"...

"कुछ देर बाद हम दोनों चाय की चुसकियाँ के बीच गट्ठर में से कपड़े छांट रहे थे"..


"तो दोस्तो...खेल खत्म और पैसा हज़म"...

"कैसी लगी ये कहानी आपको?"...

"उम्मीद तो है कि आपको पसन्द आई होगी"...

"कोई ज़रूरी नहीं है कि अच्छा और सिर्फ अच्छा ही कमैंट चाहिए मुझे"...

"अगर कहानी पसन्द नहीं भी आए तो बेझिझक जैसा चाहें वैसा कमैंट दें आप लेकिन कमैंट ज़रूर दें"...

"इसी से तो हम जैसे नौसिखियों की हिम्मत बढती है..हौसला अफज़ाई होती है"...

"क्यों!...है कि नहीं?"...


***राजीव तनेजा***



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rajivtaneja2004@gmail.com

Rajiv Taneja

Phone No:+919810821361,+919896397625

"रहम कर रहम कर रहम कर"

"रहम कर रहम कर रहम कर"

***राजीव तनेजा***

मेरी बाज़ुएँ मेरे कन्धे मेरी कमर
कर रही है सब की सब कड़-कड़
ओ बेरहम ..
ना धुलवा बरतन और कपड़े मुझसे
रहम कर रहम कर रहम कर








***राजीव तनेजा***

"मज़ा ना आए तो...पैसे वापिस"

"मज़ा ना आए तो...पैसे वापिस"

***राजीव तनेजा***


"इस बार पक्का है ना!...या इस बार भी गोली देने का इरादा है जनाब का?"...


"किस बारे में?"...


"भूल गए?"...

"अरे!..उसी 'कम्मो चूरन वाली' की बात कर रहे हैँ हम जिसका तुम अपनी पिछली चार कहानियों से जिक्र करते आ रहे हो"


"पता नहीं ऐसा कैसा किरदार गढा है तुमने कि हवा तक नहीं लगने दे रहे हो उसकी"


"शर्मा जी!..इस बार राजीव ने 'कम्मो चूरन वाली' का छुई-मुई जैसा किरदार गढा है "...

"ज़रा सी झलक में ही मुर्झा जाएगा"गुप्ता जी हँसते हुए बोले


"क्या बात करते हो गुप्ता जी आप भी?"...

"एकदम सॉलिड करैक्टर है अपनी 'कम्मो'का"...

"शर्मा जी!..आप भी देखना....मज़ा ना आए तो पैसे वापिस"...


"पैसे?"...

"हमने दिए कौन से हैँ...जो वापिस करोगे?"अनुराग चौंका


"अरे बेवाकूफ!...तकिया कलाम है ये मेरा"...

"थोड़ा इंटरैस्ट तो जगाना पड़ता है ना पढने वालों का ऐसा कह के"

"बुद्धू!...इत्ती सी बात भी नहीं समझता"मैँ हँसता हुआ बोला...


"वर्ना टाईम ही किसके पास है कि वो मेरे किस्से-कहानियाँ पढता फिरे"

"अभी कौन सा मैँ इस लिखने-लिखाने से कमाता-धमाता हूँ?"...

"फिर भी अपनी कहानी पढने वालों को अपने पल्ले से टॉफी ज़रूर खिलाता हूँ" ...

"क्यों है कि नहीं?"...


"अब ये मेरी कहानियों को नैट पे पढने वाले सोचेंगे कि हमें तो नहीं मिलती टॉफी-शॉफी"...

"फिर हम क्यों पढें इसकी कहानियाँ?"

"तो दोस्तो!...कौन मना करता है आपको खिलाने-पिलाने से?"...

"कभी दिल्ली का चक्कर लगे तो ज़रूर पधारें मेरे गरीब खाने पे"...

"बन्दा आपकी सेवा में हमेशा हाज़िर मिलेगा"

"इसी कारण मैँ अपना पता और फोन नम्बर इस कहानी के आखिर में दे रहा हूँ"...

"जब मर्ज़ी चाहें आप मुझसे कांटेक्ट कर सकते हैँ"...

"चाहें तो ई-मेल भी भेज सकते हैँ"..


"तो क्या कहती हैँ मैडम जी आप?"...

"शुरू करें इस बार की कहानी?"...


"नेकी और पूछ..पूछ...बिलकुल करो जी शुरू"मैडम जी के बोलने से पहले ही शर्मा जी बोल पड़े...


"तो ठीक है...पहला डॉयलॉग मेरी तरफ से"मैँ शुरू होने को हुआ...


"हाँ-हाँ...क्यों नहीं...राईटर तुम हो कहानी के तो चलेगी भी तुम्हारी ही"अनुराग ने तुनक के जवाब दिया...

"बोलो...क्या बकते हो"...



"हाँ!..तो मैडम जी...क्या करती हैँ आप"अनुराग की बात पे ध्यान ना देते हुए मैँने अपना पहला डॉयलॉग बोला...

"हाउस वाईफ..या फिर...कोई जॉब-वॉब?"


"क्यों क्या बात है?"मैडम भी शुरू हो गई


"नहीं!...कुछ नहीं...बस ऐसे ही पूछ लिया"....

"नॉलेज के लिए"मैँ कुछ-कुछ सकपकाता हुआ सा बोला...


"देखना शर्मा जी!..ये नालेज-नॉलेज के चक्कर में पूरी जन्म-पत्री तक उगलवा लेगा"अनुराग शर्मा जी के कान में फुसफुसाता हुआ बोला

"अभी मैडम के बारे में पूछ रहा है"...

"थोड़ी ही देर में इनके पति से लेकर बच्चों तक...उसके बाद...

सास-ससुर..मौसा-मौसी...चाचे-तायों के बारे में जान लेगा"


"कुछ देर और लगा रहा तो पड़ोसियों से लेकर दुश्मनों की भी खोजखबर निकाल लाएगा"


"ये तो शुक्र है कि इन मैडम के साथ कोई बच्चा नहीं है वर्ना...


"वर्ना..?..."शर्मा जी अनुराग की बात को समझने की कोशिश करते हुए बोले...


"वर्ना!...तो इसका सीधा सरल फण्डा है कि अगर गाय का दूध पीना है तो पहले बछड़े को पुचकारो....

बाद में उसकी माँ पे हाथ डालो"...


"हम्म!...अब समझा...इसी कारण ये राजीव का बच्चा जहाँ कोई बच्चा देखता है तो झट से बैग खोल टॉफी थमा देता है कि...

ले बेटा!...आराम से चूस..."गुप्ता जी भी एक आँख दबा अनुराग के ही अन्दाज़ में फुस्फुसाते हुए बोले


"हाँ!..सही है...तू चूस...हम तसल्ली से चबाएंगे"अनुराग के स्वर में जलन की बू आ रही थी


"शैतानी खोपड़ी है इसकी ...मैँ तो इसे सीधा सरल इनसान समझता था लेकिन...

ये तो वाकयी...सच में..बड़ा चलता पुर्ज़ा इनसान है"गुप्ता जी भी उसी की हाँ में हाँ मिलाते हुए बोले



"जी!..मैँ टीचर हूँ"मैडम उनकी इस खुसर-पुसर पे ध्यान ना देते हुए बोली...


"सबजैक्ट?"मेरा अगला सवाल फिर उनका चेहरा ताक रहा था...


"हुँह!...ऐसे पूछ रहा है जैसे अपनी खुद की ट्यूशन लगवानी हो"अनुराग फिर बड़बड़ाया


"हिन्दी और संस्कृत"उधर से अनुराग की बडबड़ पे ध्यान न देते हुए संक्षिप्त सा जवाब मिला...


"गुड.."मैँ उनकी तरफ प्रशंसा से देखता हुआ बोला..


"इसका मतलब!..आप कामकाजी महिला है"...

"गुड!...वैरी गुड"शर्मा जी के स्वर में भी एडमायरेशन(प्रशंसा) वाला पुट था...


"हाँ!...नाम भर के लिए तो कामकाजी महिला ही हैँ ये"गुप्ता जी कुछ चिढते हुए से प्रतीत हो रहे थे


"मतलब?"शर्मा जी चौंके


"वैसे तो ये टीचर हैँ और पढाना इनका पेशा है लेकिन पूरा दिन स्टाफ रूम में गप्पें मारने और...

एक दूसरे की चुगली करने के बाद अगर थोड़ा बहुत वक्त मिल जाए तो पढा भी लेती होंगी"गुप्ता जी हँसते हुए बोले


"नहीं गुप्ता जी!..नहीं...

इन कामों के अलावा रोज़ाना के सास-बहू टाईप सभी सीरियलों का बारी-बारी से पोस्टमार्टम करने के बाद....

कहीं जाकर बड़ी ही मुश्किल से आता होगा पढाई-लिखाई का नम्बर"अनुराग अपना ज्ञान बघारता हुआ बोला


"और ये जो!...मेकअप के लेटेस्ट ट्रेंड चल रहे हैँ...उनके के बारे में डिसकस कौन करता है?"...

"तुम्हारा फूफ्फा..?"गुप्ता जी अनुराग से चिढते हुए बोले


"जी गुप्ता जी!..कभी भूल से भटकते हुए ये नेक काम भी हो ही जाता होगा"शर्मा जी बात संभालते हुए बोले


"तो फिर!..कोर्स कैसे पूरा होता होगा बच्चों का"मेरे चेहरे पे सवाल था


"हुँह!..कोर्स?...और ये स्कूल में पूरा करें?"...

"मॉय..फुट्ट"अनुराग आवेशित स्वर में बोला


"सवाल ही पैदा नहीं होता"गुप्ता जी की आवाज़ में भी अनुराग वाला ही पुट था


"वो क्यों?"मेरे चेहरे पे अभी भी अन्धकार के बादल छाए हुए थे...


"अगर स्कूल में ही सारा कुछ पढा दिया तो...

घर पे ट्यूशन पढाते वक्त कमरे में कौवे बोलेंगे"गुप्ता जी मेरा अज्ञान दूर करने की भरसक कोशिश कर रहे थे ...


"सही बात!...कौवे बोलेंगे और..

मैडम के सर पे नोटों का ऊदबिलाव...भूत बन नाचेगा"शर्मा जी अपने स्वभाव के विपरीत हँसते हुए बोले


"मतलब!...मतलब क्या है आपका?"मैडम को अचानक गुस्सा सा आने को हुआ...


"मतलब ये कि...

अगर सही ढंग से स्कूल में ही पढा दिया गया तो घर में ट्यूशन पढने कौन आएगा?"गुप्ता जी मैडम को शांत करते हुए बोले..


"लेकिन!...इन्हें तो पढाने के ही पैसे मिलते हैँ ना?"मैँ अज्ञानी एक और सवाल कर बैठा


"सही कह रहे हो राजीव जी आप"...

"बहुत पैसे देते हैँ ये प्राईवेट स्कूल वाले हमें कि..संभालना भी मुश्किल हो जाता है"...


"मैँ तो परेशान हो जाती हूँ कि ..कहाँ रखूँ..कैसे गिनुँ इतना पैसा?"...

"ले दे के घर में दो ही तो 'गोदरेज'अल्मारियाँ हैँ और दोनों की दोनों पहले से ही...फुल बटा फुल्ल भरी पड़ी हैँ"...

"अभी फिलहाल के लिए तो बिस्तर के नीचे ढंग से बण्डल बना...चट्टे लगा रखे हैँ नोटों के कि...

बेफाल्तू में इधर-उधर ना बिखरते फिरे"मैडम बोलती चली गयी...


"तो आप!..गद्दे का भी काम ले रही हैँ नोटों के साथ?"...

"दिस इज़ नॉट फेयर"मैँ नासमझ मैडम के व्यंग्य को बिना समझे बोल बैठा...

"गुप्ता जी!...आप ही बताएं कि...ये अबला नारी...क्या करे बेचारी?"मैँ तरस खाते हुए बोला


"मैडम जी!...मेरे होते हुए आप बेफिक्र रहें"..

"चिंता ना करें"...

"आप अपना पता बताएं...मैँ गेहूं के खाली बोरे भिजवा दूंगा"गुप्ता जी जेब से डायरी और पैन निकालते हुए बोले...


"आपके पास बोरों का क्या काम?"मैँ चौंकता हुआ बोला


"दरअसल!..बैंक में काम करने के अलावा आटा चक्की भी है मेरी"...

"छोटा भाई दिन में संभालता है और रात को ड्यूटी से आने के बाद मैँ संभाल लेता हूँ"गुप्ता जी पूरी बात समझाते हुए बोले


"गुप्ता!...तू क्यों दूसरे के फटे पांयचे में अपना हाथ घुसेड़ रहा है?"शर्मा जी कुछ शंकित से होते हुए गुप्ता जी से बोले


"शर्मा जी!...समझा करो...लेडीज़ का मामला है"...

"शायद!...अपनी ही किस्मत बलवान हो और चान्स लग जाए"गुप्ता जी के चेहरे पे मुस्कुराहट थी...


"और वैसे भी...कबाड़ी कोई ढंग का भाव तो देते नहीं हैँ इन अधफटे बोरों का"गुप्ता जी अनुराग के कान में फुसफुसा हँसते हुए बोले


"सही में!...वाय शुड ओंनली राजीव हैव ऑल दा फन?"

"क्यों है कि नहीं?"...


"गुप्ता जी!..

आपने क कभी ढंग से अपना मोल नहीं लगवाया होगा"उनकी बात मेरे कानों में पड़ चुकी थी सो..मैँ तड़प कर बोला..


"सच में!...बहुत मज़ा आएगा...एक बार लगवा के तो देखें...प्लीज़"अनुराग बच्चों के समान मचलता हुआ बोला...


"अगर किसी ने औने-पौने दाम लगा दिए तो?"शर्मा जी के स्वर में शंका का पुट शामिल था...


"मुँह ना नोच लूँगा उस कंबख्त मारे का"अनुराग अपना पंजा हवा में दूर तक लहराते हुए बोला...


"हम्म!..तो फिर ठीक है"...

"गुप्ता जी!..बिना परेशान हुए आप बेफिक्र हो अपना मोल लगवाएं"शर्मा जी भी हँसी-मज़ाक के मूड में आ गए थे ...


"शर्मा जी!...आप भी?"...

"ऐसी उम्मीद नहीं थी आपसे"गुप्ता जी के चेहरे पे नराज़गी साफ झलक रही थी


"फुल्ल गॉरंटी समझ लें मेरी तरफ से कि...एकदम सही..वाजिब दाम लगेगा आपका"उनकी नराज़गी से बेखबर शर्मा जी बोले ...


"वजह?..."मेरे चेहरे पे फिर सवाल था...


"वजह!...वैसे भी आजकल एंटीक आयटमज़ की बहुत डिमांड है ना विदेशों में"अब मैडम के हँसने की बारी थी


"पता नहीं क्या भाता है इन मुये फिरंगियों को...इन पुराने मालों में"मैँ गुप्ता जी के चेहरे को गौर से देखता हुआ बोला


"यू मस्ट बैटर नो!...तुम्हें पता होना चाहिए"...

"अरे बुद्धू!..ओल्ड इज़ गोल्ड"मैडम मेरे कन्धे पे धौल जमाते हुए हँस कर बोली

"गुप्ता जी!...बोरों के लिए थैंक्स...लेकिन एक प्राबलम है"गुप्ता जी से मुखातिब होती हुई मैडम बोली...


"क्या?.."अब गुप्ता जी के चेहरे पे भोलापन लिए सवाल खड़ा था...


"अरे यार!..आज के ज़माने में बोरों में करैंसी रखना ठीक नहीं"मैडम के बजाए शर्मा जी ने जवाब दिया


"हाँ!..कल को क्या पता पुलिस वाले ही पकड़ के ले जाएं और...

माल का माल जाए और जुर्माना भरना पड़े...सो अलग"मैँ कुछ सोचते हुए बोला


"जुर्माना?...किस इलज़ाम में?"गुप्ता जी चौंक के उठ खड़े हुए


"मिस हैण्डलिंग एण्ड मिसयूज़ ऑफ इंडियन करैंसी"शर्मा जी ने गुप्ता जी को बैठाते हुए कहा


"हाँ!...अगर मिस यूज़ का केस भी साथ में लगा दिया तो मुसीबत पे मुसीबत हो जाएगी"काफी देर से चुप दहिया बोल पड़ा

"लेने के देने पड़ जाएंगे"


"और नहीं तो क्या"मैँने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई...

"नहीं!...ये ठीक नहीं रहेगा"...

"बोरों में तो बिलकुल नहीं"


"ज़माना बड़ा खराब है तोलाराम..."आज शर्मा जी को 'मशाल' फिल्म के ये मशहूर डॉयलॉग पता नहीं कैसे याद आ गया



"और वैसे भी तो आए दिन चोरी चकारी होती रहती है हमारे मोहल्ले में"

"कोई सस्ती सी अल्मारी मिल जाए तो बात बने"मैडम भी अपनी मुसीबत का हल खोजने में जुट गयी


"क्यों राजीव!...तुम्हारा तो फर्नीचर का काम है ना?"


"जी!...जी शर्मा जी"


"तो फिर करो ना कोई जुगाड़...देख नहीं रहे कि मैडम कितनी अपसैट लग रही हैँ?"

"कोई अच्छी सी सैकेंडहैंड अलमारी आए लॉट में ..तो ध्यान रखना"शर्मा जी मुझसे बोले...


"अरे!..मैडम जी हुक्म तो करें सही...

सैकैंडहैंड तो क्या एकदम फ्रैश पीस दिलवा देगा बाज़ार से"बिना डिमांड के अनुराग का बोलना बदस्तूर जारी था


"जी!..ध्यान रखूँगा"उसकी टोकाटाकी पे कान न देता हुआ मैँ बोला


"वैसे!..कितने तक की मिल जाएगी?"मैडम मेरी तरफ देखती हुई बोली...


"पैसे की आप नाहक ही चिंता करती हैँ....उसके लिए ये राजीव है ना"गुप्ता जी उन्हें समझाते हुए बोले ....


"मतलब क्या है आपका?....

"क्या मैँ फ्री में मांग रही हूँ?"मैडम की त्योरियों पे बल पड़ चुके थे


"ज..जी.जी...मेरा मतलब था कि राजीव आपको एकदम सही दाम पे दिलवा देगा"गुप्ता जी सकपका कर हड़बड़ाते हुए बोले


"सब समझती हूँ मैँ"मैडम के माथे से बल अभी गए नहीं थे...


"आप सही समझ रही हैँ मैडम जी लेकिन गुप्ता जी बेचारे भी क्या करें?....

अपने राजीव का स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि हमेशा ये लड़कियों पे मेहरबान जो रहता है आजकल"अनुराग लीपापोती करता नज़र आया...


"हाँ!...किसी के एक इशारे पे उसके घर स्पैशल होली खेलने पहुँच जाता है...

वो भी अकेला नहीं...बीवी के साथ"गुप्ता जी की चुप हुई चिड़िया एक बार फिर बोलती नज़र आई


"तो दूसरे इशारे पे सब काम-धन्धा छोड़ जहाँ का हुक्म मिले...वहीं कार में घुमाने-फिराने पहुँच जाता है"अनुराग हँसते हुए बोला


"उसकी जगह हमारी बीवी हो तो कच्चा चबा जाए हमें" ...

"पता नहीं कैसी मीठी गोली देता है ये राजीव का बच्चा अपनी बीवी को कि...

वो तनिक सा भी एतराज़ नहीं करती"गुप्ता जी के चेहरे पे आश्चर्य का कबूतर गुटरगूम कर रहा था ...


"छोड़ो इसको!...इसकी माया...ये ही जाने"शर्मा जी बात को विराम देने के मकसद से बोले ..


"बिलकुल!..जिस दिन लगेगी सही से...तो भी ये ही तन जानेगा"अनुराग मेरी तरफ इशारा कर बड़बड़ा उठा


"हम अगर कभी भूले से भी कह दें कि यार...कल कार लेते आना..बँगला साहेब गुरुद्वारे चलेंगे....

तो जैसे..साँप सूँघ जाता है इस राजीव के बच्चे को"दहिया भी गढे मुर्दे उखाड़ने की जुगत में लगा नज़र आ रहा था


"अभी उस दिन की ही लो...पता भी था अगले को कि पैसैंजर गाड़ी कैंसिल हो गयी है...

सब लेट हो रहे हैँ लेकिन..इन महानुभाव ने कार ले जाने के नाम पे चूँ तक नहीं की"गुप्ता जी भी कटाक्ष करने से कहाँ चूक रहे थे


"हमारी बारी में तो इसे जैसे साँप सूँघ जाता है और कोई ना कोई बहाना पहले से ही तैयार मिलता है कि...

आज मैडम(घरवाली)ने फलानी फलानी जगह पे शापिंग करने जाना है...

तो आज फलाने-फलाने अस्पताल में पिताजी का चैकअप कराने जाना है"अनुराग आज अपने सभी शिकवे जाहिर करने के मूड में था


"वाह!..क्या टाईमिंग ढूँढी है पट्ठे ने सारे गिले-शिकवे दूर करने की..."मैँ मन ही मन बड़बड़ाया...


"हुँह!...बस हमारे टाईम पे ही इसकी कार ने बिज़ी होना होता है"अनुराग मेरी तरफ ध्यान दिए बिना बोलता ही चला गया...


"अरे बिज़ी होनी ही चाहिए...कोई एक..

हाँ!..कोई एक...लड़कियों जैसी खूबी तुम में हो तो बताओ"दहिया को भी ताव आ गया था


"मिस्टर!...कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है और तुम्हारे पास खोने के लिए है भी क्या?..

ये!..ये सड़ा सा बूत्था(चेहरा)?"मैँ भी चौड़ा हो गया


"शटअप"...

"क्या अनाप-शनाप बके जा रहे हो?"अनुराग अपना आपा खो चुका था

"देखा!...देखा मैडम जी...मै ना कहता था कि ये राजीव एकदम मतलबी इनसान है...

आप खुद ही देखिए कि कैसे ये खुद हीरो बनने के चक्कर में...

हमारे पहले से तय रोल कैँची चला उन्हें काटे डाल रहा है"अनुराग मैडम को पट्टी सी पढाता हुआ बोला...


"अभी चन्द मिनट पहले की ही लो ...आपने देखा ना कि जैसे ही आपका परफार्मैंस चालू होने लगा....

तड़ाक से खुद को ही महिमा मंडित करने लगा"अनुराग मैडम को भड़काने की कोशिश कर रहा था


"माना...

माना कि मैँ अपनी महिमा को मंडित करता हूँ...लम्बा रोल देता हूँ खुद को और..

क्यों ना दूँ?"मैँ गुस्से में लाल होता हुआ पीला हो बोल उठा...

"बेटे लाल!...

तुम तो मज़े से नींद के आगोश में बीवी के साथ या फिर...

किसी 'एक्स-वाई-ज़ैड' के साथ पलंग पे पसरे-पसरे खटिया तोड़ ...

'सरकाई लो खटिया जाड़ा लगे'..वाला गाना गा रहे होते हो ..

वहीं दूसरी तरफ!..मैँ रात-रात भर जाग-जाग कर...

अपने सभी पढने वालों के लिए नए-नए किस्से-कहानियाँ गढने की कोशिश में कागज़ काले करता फिरता हूँ...

उसका कुछ नहीं?"मेरा भड़कना जायज़ लगा मुझे...


"यहाँ!...यहाँ हमारे सामने गिला-शिकवा करने के बजाए ...

वहाँ...वहाँ ऊपर!...हाँ...ऊपर की तरफ मुँह करके अपने इष्टदेव से शिकायत करो कि...

तुम्हें व्यर्थ में...फोकट में लड़का क्यूं बनाया"मैँ अनुराग को बोलने का कोई मौका नहीं देना चाहता था

सो!...एक ओर ऊपर की तरफ उँगली उठा बोलता चला गया


"हाँ!...हो सकता है उस परवर दिगार को अब भी रहम आ जाए और...

तुम्हारा तुरंत ही एक झटके में...सैक्स चेंज हो जाए"दहिया पलटी मार मेरी तरफ हो लिया...


"इसके लिए इतने पापड़ बेलने की क्या ज़रूरत है?"गुप्ता जी बोल पड़े...


"बिलकुल ठीक!...

अब तो सैक्स बदलवाने की सुविधा मिल रही है दिल्ली के ही कई अस्पतालों में"शर्मा जी अखबार में एक वर्गीकृत विज्ञापन दिखाते हुए बोले


"वैसे भी नई तकनीक आ जाने की वजह से कोई खासा मँहगा शौक भी नहीं रहा ये अब तो"गुप्ता जी ने नहले पे दहला जड़ डाला...


"भतेरे करवा रहे हैँ...

सो!..तुम भी अपना काया पलट करवा के अनुराग से महिमा बन अपनी महिमा के गुण गवा लो मुझसे..

क्या दिक्कत है?"मैँ हँसता हुआ बोला


"क्यों?...हम क्या मर गए हैँ जो तुम..

हाँ ...तुम इसकी महिमा को मंडित करोगे"गुप्ता जी यहाँ भी मुझे हीरो गिरी झाड़ते देख आवेशित हो बोल पड़े...


"इसे कहते हैँ सोच सोच का फर्क"...

"गुप्ता जी!...मैँ इसकी महिमा को मंडित करने की कह रहा हूँ और...

आप हैँ कि इसकी महिमा को खंडित करने की सोच रहे हैँ"मेरा इतना कहते ही सभी की हँसी छूट पड़ी


"हाँ अनुराग!...सही में...

तुम तो बस आजकल में ही अपना सैक्स चेंज करवा लो"गुप्ता जी अनुराग को चिढाने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहते थे..


"लेकिन ये ना करना अनुराग कि गुप्ता जी के चक्कर में हमें ही भूल जाओ"....

"हम तो तेरे आशिक हैँ सदियों पुराने...चाहे तू माने...चाहे ना माने"दहिया ने लम्बी तान ली और शुरू हो गया


"कुट्टी!...कुट्टी...पक्की कुट्टी"...

"जाओ गुप्ता जी!...मैँ आपसे बात नहीं करती...

ऊप्स!..सॉरी...

जाओ मैँ आपसे बात नहीं करता"अनुराग रुआँसा हो बोल उठा


"हा हा हा!....आहा..."हम सभी को अनुराग को तंग करने में मज़ा आने लगा था


"देखा!..देखा मैडम जी...

जब भी कहीं कहानी बिखरने लगती है इस राजीव की...

तो ये कोई डायरैक्ट लिंक होते ना होते हुए भी घुसेड़ लाता है उल्टी-पुल्टी बातों को कहानी के बीच में"...


"इस बार कोई और नहीं मिला तो सैक्स चेंज का मुद्दा ही डाल दिया"

"और तो और!...इस बार तो दिल्ली....यू.पी...बिहार छोड़ जा पहुँचा सीधा मुम्बई"

"हुँह!..बड़ा आया फोकट में पब्लिसिटी दिलवाने वाला महिमा चौधरी को"


"अरे!..आजकल उसकी भद्द पिटी हुई है तो क्या हुआ?"...

"अभी भी लाखों दिलों पे राज करती है"

"तुम चाहे लाख चमचागिरी कर उसे अपनी कहानियों में नायिका या फिर खलनायिका की जगह दे दो...

फिर भी...वो तो क्या?...उसकी नौकरानी भी हत्थे नहीं चढने वाली"अनुराग बोलता चला जा रहा था


"उधर अनुराग बिना रुके बोलता रहा और इधर नौकरानी की बात सुनते ही मेरी तो जैसे सिट्टी-पिट्टी गुम हो चुकी थी"


"क्या हुआ राजीव?"मेरा फक्क चेहरा देख गुप्ता जी बोल पड़े


"कक्क..कुछ नहीं...कोई खास बात नहीं है"मैँ सकपका कर बोला...


"राजीव!...तुम कुछ और कह रहे हो और तुम्हारा चेहरा कुछ और कह रहा है"...

"साफ-साफ बताते क्यूँ नही?"शर्मा जी की आवाज़ में आदेश का पुट था...


"जी बस!...अभी कुछ दिन पहले ही ज़रा सा कन्धे पे हाथ क्या धर दिया था उसके?...

मेरी तो जान पे बन आई"मैँने शरमाते हुए कहा


"किसके कन्धे पे?...

बीवी के?..."अनुराग चौंका


"बेवाकूफ!...

अगर बीवी के कन्धे पे हाथ धरा होता ये इसकी ये हालत होती?"शर्मा जी मेरे पीले पड़े चेहरे की तरफ इशारा करते हुए बोले


"ज़रूर नौकरानी को ही छेड़ा होगा"गुप्ता जी निष्कर्ष पे पहुँचते हुए बोले


"अब मुझे क्या पता था कि बीवी ऐन मौके पे आ टपकेगी?"मैँ धीमे से अपने सर को नीचे की तरफ झुकाता हुआ बोला..


"और कोई नहीं मिली थी तुम्हें...जो उस बेचारी पे ही हाथ साफ करने की सोच रहे थे?"मैडम की आँखों में गुस्सा साफ झलक रहा था


"सोचा होगा कि ट्राई करने में क्या हर्ज़ है?...क्या पता बात बन जाए"अनुराग जले पे नमक छिड़कता हुआ बोला


"अरे छोड़ ये सब!...तुम बताओ...फिर क्या हुआ"गुप्ता जी चटखारा लेते हुए बोले


"मैँने सोचा कि जब बात खुल ही गई है तो अब शरमाने से क्या फायदा?"...

"सो!..सारी कहानी ब्यान करने लगा"...


"उस दिन तो हालत ऐसी पतली हो गई थी कि बस पूछो मत"..

"अन्दर ही अन्दर डर जो खाए जा रहा था कि पता नहीं कितनी डांट पड़ेगी और कितनी नहीं"...

"लेकिन बेचारी बहुत अच्छी है मेरी बीवी "...

"बोली जो कुछ नहीं"...

"बस कुछ देर अकेले में आँसू टपका...अपना जी हल्का करती रही"मैँ बोलता रहा


"अच्छा!...फिर?"सबको कहानी में मज़ा आने लगा था...


"बहुत मान-मनौवल के बाद कहीं जा के उसका मूड कुछ ठीक हुआ तो जान में जान आई"...

"अब तो मैँ क्या?...मेरे बाप की तौबा जो किसी नौकरानी की तरफ आँख उठा के भी देखा तो"मैँने अपनी बात पूरी की...

"डॉयलॉग मारने को तो मैँ मार गया"..

"अपने ऊपर तो मुझे सोलह ऑने विश्वास है लेकिन...पिताजी....कोई गारैंटी नहीं उनकी"

"अब नहीं तो ना सही"...

"जो बोल दिया...सो ...बोल दिया"...

"वैसे भी अब कर भी क्या सकता हूम मैँ?बिकाज़...

कमान से निकला तीर और ज़बान से निकला शब्द कभी वापिस नहीं हो सकता"..

"खैर छोड़ो ये सब!...बाद की बाद में देखेंगे कि...क्या गुल खिलते हैँ गुले-गुलशन में"


"हाँ तो मैँ क्या कह रहा था?"...

" अरे हाँ!...याद आया...बात हो रही थी नौकरानी की"..

"तो घर में तो सवाल ही नहीं पैदा होता ...बाहर की बात हो तो अलग बात है"...

"वहाँ बीवी को क्या पता चलना है कि मैँ क्या-क्या करता हूँ और क्या-क्या नहीं"...

"कहाँ-कहाँ...किस-किस के धोरे(पास)जाता हूँ और...किस-किस के नहीं"मैँ बिना कुछ बोले सोचता रहा


"क्या सोचने लगे राजीव?"कानों में हुई हल्की सी आवाज़ से मेरी तंद्रा भंग हुई

"देखा तो...गुप्ता जी मेरी ही तरफ ताक रहे थे"


"बस ऐसे ही"मैँने छोटा सा उत्तर दिया..

"फिर भी...पता तो चले"..

"अब अपनी इस भोली भंडारण बीवी को क्या और कैसे समझाऊँ कि...

घर में ही ऐश करने के कितने और...क्या-क्या फायदे हैँ?"मैँ आहिस्ता से गुप्ता जी के कान में फुस्फुसाता हुआ बोला


"क्या फायदे हैँ?"गुप्ता जी भी हौले से बोले...


"फायदा नम्बर एक...बाहर किसी के द्वारा देखे जाने का डर नहीं"...


"बिलकुल...और दूसरा?"गुप्ता जी को देख अनुराग के कान भी हमारी तरफ हो लिए थे


"फायदा नम्बर दो...होटल...रिसार्ट का खर्चा नहीं"मैँ हीरो बनता हुआ बोला....


"और मँहगे होटल या रैस्टोरैंट में खिलाने-पिलाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता"...

"सो!...हर तरफ से बचत ही बचत"गुप्ता जी मेरी समझदारी की तारीफ करते हुए बोले...

"सही है!...ऐश की ऐश भी करो और..बर्तन के बर्तन भी मंजवाओ"....


"जी!...बोथ ट्रैक्स एट दा सेम टाईम"मैँने हँस कर जवाब दिया...

"देसी शब्दों में...आम के आम और गुठलियों के दाम"...


"वाह रे मेरे राजीव सेठ!...वाह...

इधर-उधर की उल्टी-सीधी हाँक के बाँध लिया ना पब्लिक को और असली बात कब गोल कर गए"...

"किसी को इल्म ही नहीं"काफी देर से चुप बैठी मैडम सारा माजरा भांपते हुए बोली


"असली बात माने?"अब मैँ चौंका...


"जी हाँ!...असली बात....कहाँ मुझ से पूछ रहे थे कि क्या करती हूँ मैँ?...

"कहाँ रहती हूँ?...वगैरा वगैरा और अब मेरी छोड़ अपनी राम कहानी ले के बैठ गए"...

"ये तो शुक्र मनाओ कि...बीवी इतनी अच्छी मिली है तुम्हें जो सस्ते में छोड़ दिया"...


"उसकी जगह मैँ होती तो कान खेंच के इतने जूते मारती कि पिटते-पिटते कब...

सर से ये आधे घुंघराले बाल गायब हो जाते...पता भी ना चलता"मैडम मेरे सर में उँगलियाँ फिरा कंघी करती हुई बोली


"वाह!...फिर तो खूब मज़ा आता जब आप..मारती सौ और..गिनती एक "अनुराग मुय्या भी कौन सा कम था....


"मैडम जी!..आप भी ना..क्या बातें ले के बैठ गई?"...

"मेरी छोड़ ..आप अपनी बात पूरी कीजिए"मैँ हड़बड़ाहट में सकपकाता हुआ बोला


"अच्छा चलो!...इस बार बक्श देती हूँ....आईन्दा ध्यान रखना"....


"जी!....जी मैडम जी"...


"हाँ!...तो मैँ क्या कह रही थी?"...

"अरे हाँ!...याद आया....

मैँ कह रही थी कि हमारे साथ अन्याय हो रहा है"मैडम ने अपनी बात शुरू की...


"अन्याय!....वो भी आपके साथ?...बहुत बेइंसाफी है ये तो"बीच में टांग अड़ाना तो जैसे अनुराग का प्रिय शगल था


"हर महीने साईन कराए जाते हैँ हमारे से सात से आठ हज़ार तक के वाउचरों पे"उसकी बात पे ध्यान न दे मैडम आगे बोली...


"तो?.."मेरे चेहरे पे प्रश्न था...


"तो क्या!..दी जाती होगी महज़ ढाई से तीन हज़ार रुपल्ली"...

"क्यों!...है कि नहीं?"गुप्ता जी मैडम के सलोने मुखड़े को ताकते हुए हमदर्दी जताने वाले अन्दाज़ में बोले ...


"जी!...वो भी कभी टाईम पे मिल जाएं तो गनीमत समझो"मैडम ने जवाब दिया...


"जब माँगो...अगले हफ्ते की डेट दे देते होंगे?"अनुराग तुक्का लगाता हुआ बोला


"जी!...हमारी मजबूरी ही नहीं समझते"दुखी हो मैडम ने उत्तर दिया...


"पैसे के पीर हैँ ये प्राईवेट स्कूल चलाने वाले"मैँ गुस्से से बोला...


"इनको लेट भुगतान करने पे ब्याज देना पड़े तो पता चले"गुप्ता जी आवेशित होते हुए बोले


"क्या बात गुप्ता जी?...आपकी नज़र तो सीधा ब्याज के नाम पे जा टिकी"दहिया हँसता हुआ बोला


"बैंकर जो ठहरे"शर्मा जी हँसते हुए बोले


"अरे!...आप ब्याज की बात करते हैँ...मूल मिल जाए तो भी गनीमत समझो"मैडम का स्वर तल्खी भरा था


"और खुद जो लेंट फी के नाम पर बच्चों से दुनिया भर का जुर्माना वसूलते हैँ ये पब्लिक स्कूल वाले"..

"उसका क्या?..."मैडम को दुखी देख अनुराग से रहा ना गया


"अब हम अपना घर चलाने के लिए ट्यूशन ना पढाएं तो फिर क्या करें?"...


"तो क्या सभी बच्चे राज़ी हो जाते हैँ ट्यूशन के लिए?"मेरे चेहरे से प्रश्न टपक पड़ा...


"अजी कहाँ?...सीधी उँगली से कभी घी निकला है?"...

"जब तक एक या दो सबजैक्टस में फेल ना करो बच्चे को..तब तक कोई नहीं आता अपनी मर्ज़ी से"..


"हम्म!...अब समझ में आया कि पेपर ठीकठाक करने के बाद भी मैँ यूनिट टैस्ट में फेल क्यों हो जाता था"मैँ कुछ सोचता हुआ बोला


"छोड़ो मैडम जी!...आपको तो रो-धो के फिर भी हफ्ते-दो हफ्ते में थोड़ी बहुत..

हील हुज्जत के बात तनख्वाह तो मिल जाती है ना?"शर्मा जी मैडम की तरफ देखते हुए बोले ...


"जी!...मिल तो जाती है लेकिन..


"उन फैक्ट्री वाले मज़दूरो की हालत क्यों नहीं देखती?...

जिन्हें पिछले तीन महीने से वेतन का नामो निशान तक नहीं मिला"मैडम की बात पूरी होने से पहले ही शर्मा जी बोल पड़े


"शर्मा जी!..मर्द हैँ वो...काम चला लेंगे किसी तरह"गुप्ता जी शर्मा जी की तरफ देखते हुए बोले...

"आप उन आँगनवाड़ी में काम करने वाली औरतों की बात क्यों नहीं करते?"


"हाँ!..अभी कुछ ही दिन पहले तो धरना प्रदर्शन किया था...

आँगन वाड़ी महिलाओं ने जंतर-मंतर पर लेकिन कोई फायदा नहीं"

"अपनी सरकार ऐसी गहरी नींद सोयी पड़ी है कि लाख उठाने से भी नहीं उठ रही"मैँ बीच में ही बोल पड़ा


"पता नहीं कैसे इधर उधर से ले-लिवा के गुज़र बरस कर रही होंगी बेचारी...गरीब महिलाएं"गुप्ता जी तरस खाते हुए बोले


"स्टेमिना देखो अगलियों का...

पिछले छै-छै महीने का बकाया है सरकार पर फिर भी नौकरी पे जाना नहीं छोड़ा"अनुराग उनकी तारीफ करते हुए बोला...


"हाँ!..नहीं छोड़ती हैँ नौकरी पे जाना क्योंकि मोटी कमाई होती है वहाँ"शर्मा जी गुस्से से बोले


"मोटी कमाई?...क्या बात कर रहे हैँ?"मेरे स्वर में हैरानी थी...

"वो बेचारी तो गरीब महिलाएँ....


"अजी काहे की गरीब?...

दुनिया भर का सरकारी सामान तो पार कर ले जाती हैँ अपने घर"मेरी बात बीच में ही काट शर्मा जी आगे बोले...


"सामान?...कौन सा सामान?"अनुराग चौंकता हुआ बोला...


"अरे!...वही सब सामान जो उनको दिया जाता है वर्ल्ड बैंक और....

ना जाने किन-किन संस्थाओं की तरफ से गरीबों में मुफ्त बाँटने के लिए"

"और वो भर रही होती हैँ उस सब से अपना पेट्टा"शर्मा जी उनकी पोल खोलने के मूड में आ चुके थे


"अपना पेट्टा माने?"अनुराग के चेहरे पे सवाल था...


"अपना पेट्टा माने...अपना घर"मैँ उस मूर्ख को समझाते हुआ बोला

"हमारे मोहल्ले में भी कईयों ने खुद अपने घरों में ही दुकान खोल रखी है इस सब सामान की"...

"कुछ-एक तो औने-पौने में ही मोहल्ले के बनिए को दे दा के निबट लेती हैँ कि...

कौन कंबख्त पूरा दिन झक्क मारता फिरे रुपल्ली-दो रुपल्ली फाल्तू के लिए"मैँ बोलता चला गया


"तो क्या सभी ऐसी हैँ वहाँ?"अनुराग पूछ बैठा...


"ऐसा मैँने कब कहा?"...

"लेकिन...आटे के साथ घुन्न भी पिस ही जाया करता है"मैँने जवाब दिया...


"सही है!..एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है"शर्मा जी अपने चिरपरिचित अन्दाज़ में बोले


"ऐसा नहीं करें तो कैसे पालें अपने बच्चों को?"हम सब को एक तरफ हुआ देख मैडम आवेशित होते हुए बोली...

"गुरुद्वारे में जा के लंगर छक्कें रोज़ाना?"...

"या फिर राजीव!...हर महीने तुम खुद ही क्यों नहीं पहुँचा देते उनके घरों में राशन-पानी?"


"बस मैडम जी!..बस"...

"बहुत बोल ली आप...अब चुप...एकदम चुप्प...कोई आवाज़ नहीं"

"बहुत फुटेज खा ली आपने....अब मेरी बारी है"...

"कान खोल के सुन लो सभी"..

"कोई टांग नहीं अड़ाएगा इस बार"...

"हद हो गई...सबकी"...

"जिसे देखो जब चाहे मुँह उठा के नए-नए डॉयलॉग इज़ाद कर अपने अन्दाज़ में बोलना शुरू कर देता है"...

"वो भी बिना अपनी बारी के"...


"क्या यही तय हुआ था हम में?..

"उस टाईम तो ये राजीव का बच्चा बड़ा कह रहा था कि...सबको बराबर रोल दूंगा"....

"टीम स्पिरिट से काम होगा वगैरा वगैरा"...

"कहाँ गई टीम स्पिरिट?...कहाँ गई यारी-दोस्ती?"अनुराग ऐसा उखड़ा कि उखड़ता ही चला गया...


"अच्छा बाबा!...तुम भी कर लो अपनी हसरत पूरी".. .

"हम कुछ नहीं कहेंगे...अब खुश?"शर्मा जी उसे शांत करते हुए बोले


"जी"अनुराग के चेहरे पे हल्की सी मुस्कान तैर उठी...


"क्या सोचने लगे अनुराग?"...

"आगे बढो..लेकर अपनी नई कहानी"गुप्ता जी ने उसका हौंसला बढाया...


"कहानी?...गुप्ता जी ये कहानी...कहानी नहीं...हकीकत है"अनुराग भूमिका सी बाँधता हुआ बोला...



"हाँ!..हाँ बताओ अनुराग...क्या कहना चाहते हो?"मैडम उत्सुकता भरे स्वर में बोली....

"कौन सा कांड?....क्या हुआ था?"काफी देर से चुप मैडम के साथ बैठे सज्जन मानों नींद से जाग उठे


"बताओ...क्या हुआ था?"सबकी निगाहें अनुराग के चेहरे पे आ के रुक गई..


"घोर अनर्थ".....

"राम ...राम!...घोर अनर्थ हुआ है"अनुराग मेरे कानों को हाथ लगाता हुआ बोला


"बेवाकूफ!...अपने कान पकड़...मेरे क्यों पकड़ रहा है?"


"ओह!...सॉरी...बॉय मिस्टेक....सॉरी...सॉरी अगेन"अनुराग सकपका कर मेरे कान छोड़ता हुआ बोला


"सोच के भी जी सिहर उठता है"अनुराग फिर शुरू हो गया


"कुछ बताओगे भी या यूँ ही घोर अनर्थ...घोर अनर्थ का जाप करते रहोगे"

"सीधी तरह बताओ ना...क्या हुआ था "अनुराग को हीरो बनते देख मुझे मजबूरन उसे टोकना ही पड़ा


"आखिर हुआ क्या?...पता तो चले"शर्मा जी भी पूछ बैठे...


"अब क्या बताऊँ?...कैसे बताऊँ?"

"अभी तक जी मिचला रहा है"अनुराग कसैला सा मुँह बनाता हुआ बोला


"ले स्साले!..कर ले जी भर के उल्टी"कहते हुए मैँने जबरन अनुराग की मुण्डी पकड़कर उसे खिड़की की तरफ धकेला ...


"क्या कर रहा है बेवाकूफ?....छोड़ मुझे"अनुराग ने कसमसा कर मेरी पकड़ से छूटने की कोशिश की...


"राजीव!...छोड़ो उसे...छोड़ो"...

"सुनाई नहीं दे रहा क्या?"शर्मा जी का गुस्से से लालपीला होता हुआ चेहरा देख मेरी पकड़ ढीली पड़ गई


"अब कुछ बकोगे भी या....यूँ ही बेफाल्तू में"उसे चुप देख मुझे ज़ोर से चिल्लाना पड़ा


"रेलगाड़ी से कटकर पूरी चौबीस गाएं मर गई गन्नौर स्टेशन के पास"....


"कब?....."

"कैसे?..."

"क्या बात कर रहे हो?"सबके चेहरे पे सवाल मंडरा रहे थे...


"शुभ-शुभ बोल...क्यों संध्या के वक्त मज़ाक कर रहे है?"गुप्ता जी अविश्वास भरे स्वर में कानों को हाथ लगाते हुए बोले


"सच्ची!...कसम से....काले कुत्ते की कसम"अनुराग कानों को हाथ लगाता हुआ बोला...


"बाप रे!...क्या भयंकर नज़ारा रहा होगा ना?"मैडम की आँखें फैल कर चौड़ी हो चुकी थी


"ओह...शिट!...मैँ क्यों नहीं था वहाँ?"मैँ अपने आप से ही बात करता हुआ बोला


"चारों तरफ खून ही खून...इधर उधर बिखरी पड़ी लाशें"...

"आँते तक बाहर निकली पड़ी थी कईयों की तो"

"तडप-तड़प के जान निकले रही थी बेचारी गायों की"अनुराग मानों किसी हॉरर फिल्म की कहानी सुना रहा था ....

"लोग बस चुपचाप खड़े तमाशा देखने के अलावा कुछ नहीं कर रहे थे"...


"तुम क्या कर रहे थे?"...

"तुम भी तो वहीं ही थे ना?"मैँ अनुराग के चेहरे के भाव पढता हुआ बोला


"हाँ!..था तो वहीं"...


"फिर...कुछ किया क्यों नहीं?"..


"कसम से!..अगर मुझे शादी में नहीं जाना होता तो...अपने बूते लायक मदद तो ज़रूर करता"अनुराग लीपापोती करता नज़र आया


"हुँह!...सब कहने की बाते हैँ"....

"मौका पड़ने पर सभी पीठ दिखा इधर उधर हो लेते हैँ"मैँ मज़ाक सा उड़ाते हुए बोला


"अरे यार!..समझा कर ...कल ही ड्राईक्लीन कराया था सूट"...

"खराब हो जाने का डर नहीं होता तो...कसम से.....कुछ ना कुछ जुगाड अवश्य करता"


"ड्राईवर स्साला!...अन्धा था क्या?"काफी देर से हमारी बातें सुन रहे सज्जन बोल उठे


"वो भी क्या करता बेचारा?"...

"अगले ने चेतावनी के लिई कई बार हूटर(Hooter) तो बजाया था"अनुराग ने उत्तर दिया....


"हाँ-हाँ!...गाएं बेचारियों ने तो जैसे म्यूज़िक में 'संगीत विशारद' की डिग्री ली हुई थी ना...

जो उन्हें 'हूटर' की मधुर ध्वनि का पता होता"मैँ अनुराग की बात सुन तड़्प कर बोला


"हूटर बजते ही घबरा के बिदक खड़ी हुई होंगी बेचारी निरीह गाएं"शर्मा जी अफसोस प्रगट करते हुए बोले...


"बिलकुल!..यही हुआ होगा"गुप्ता जी भी हाँ में हाँ मिलाते हुए बोल पड़े


"अब इन बेचारी भोली गायों को क्या पता कि ये हूटर-शूटर किस बला का नाम है"मैडम ने भी हमारा साथ दिया...


"उन्होंने तो तेज़ आवाज़ सुनी होनी है और...

बस घबरा के जिधर रस्ता दिखा होगा...भाग खड़ी हुई होंगी"गुप्ता जी भी कहाँ चुप रहने वाले थे


"अरे!..अगर भाग जाती तो ये सारा लफड़ा थोड़े ही होता"अनुराग ने जवाब दिया...


"फिर?"सबके चेहरे पे सवालिया निशान ...


"इधर ड्राईवर ने हूटर बजाया...उधर गायों में अफरा तरफी मची"...

"बेचारी पता नहीं क्या सोच आगे की ओर दौड़ ली सारी की सारी"अनुराग कहानी में रोमांच भरता हुआ बोला...


"स्साले!..ड्राईवर को एमरजैंसी ब्रेक लगाना था ना"मैडम के साथ बैठे सज्जन को ताव आ चुका था ...


"वोही तो लगाई थी....तभी तो सिर्फ चौबीस का ही काम तमाम हुआ है"अनुराग ने जवाब दिया....

"नहीं तो..पक्का!...गई थी कई सौ लपेटे में"...

"सोचो!...तब कितना बुरा हाल होता"अनुराग हम सभी की तरफ देखता हुआ बोला


"बस!..इसी अफरा तफरी में इंजन तक पटरी से उतर गया"


"ऐसी...'डीरेलमैंट'तो पहले कभी सुनी नहीं"शर्मा जी बोल उठे

"एक आध जानवर तो यदा-कदा आता ही रहता है गाड़ी के नीचे लेकिन इतनी बडी संख्या में...बाप रे.."


"सोच के ही मन कांप उठता है..."गुप्ता जी मन ही मन सीन की कल्पना करते हुए बोले


"गायों के साथ कोई उनके वली-वारिस नहीं थे क्या?"शर्मा जी अनुराग से पूछ बैठे...


"थे क्यों नहीं!...पूरे पाँच गडरिए हाँक रहे थे गायों को"...


"उन्होंने बचाने की कोशिश नहीं की?"मैडम अनुराग का ही मुँह ताक रही थी...


"बचाने की?...उनकी तो अपनी जान ही आफत में फंसी पड़ी थी"

"ऐसे दुमदबा के भागे कि फिर कहीं नज़र ही नहीं आए"


"जो नुकसान होना था!...सो तो हो चुका था....

फिर उन गडरियों को भागने की क्या ज़रूरत थी?"बात मेरे पल्ले नहीं पड़ रही थी


"ज़रूरत क्यों नहीं थी?"...

"कुछ पता भी है कि रेलवे का डण्डा कितना तगड़ा है?"...


"मतलब?"दहिया चौंका...


"फी गाय के हिसाब से एक लाख रुपए का जुर्माना है"...

"सोचो कि चौबीस गायों के पूरे चौबीस लाख हो गए"...

"और फिर!..चौबीस लाख से ही छुटकारा कहाँ मिलने वाला था?"..


"क्या मतलब?"अब शर्मा जी चौंके...


"बाकी गाएं जो बच गई...उन्हें भी रेलवे ने जब्त कर लेना था और...

उन पाँचों गडरियों ने कई साल अम्बाला जेल की चक्की पीसनी पड़ती...सो अलग"


"ओह!..."हम सब के मुँह खुले रह गए


"मुझे तो सब ड्राईवर की ही साजिश मालुम होती है"मैडम के साथ वाले बेनाम सज्जन बोले...


"सुना है कि...कटुआ है ड्राईवर"अनुराग धीमी आवाज़ में मानों राज़ सा खोलता हुआ बोला...


"इसीलिए परवाह नहीं की होगी पट्ठे ने "बेनाम सज्ज्न बात को मज़हबी रंग देते हुए बोले


"सही कह रहे हो आप...अगर हिन्दु होता तो....

सवाल ही नहीं पैदा होता कि इतना बड़ा कांड उसके रहते हो जाता"गुप्ता जी ने हाँ में हाँ मिलाई...


"असल हिन्दू अपनी जान दे देगा लेकिन 'गौ माता' पे कोई आँच नहीं आने देगा"शर्मा जी भी गौ वन्दना में शामिल हो लिए


"चारों तरफ चीखपुकार मची थी"अनुराग बातचीत में खुद को पीछे छूटता देख बोला....


"सब स्साले!..नामर्द कहीं के....चुपचाप खड़े तमाशा देख रहे होंगे"मेरा गुस्सा मुझे बोलने पे मजबूर कर रहा था...

"कोई माई का लाल उन बेचारी गायों को बचाने आगे नहीं आया होगा"...

"शिट..शिट....शिट!...मैँ क्यों नहीं था वहाँ?"मुझे खुद से ग्लानी हो रही थी...


"मूक जानवर जो ठहरी...सो कौन बचाता"मैडम जी हमदर्दी से बोली...


"हाँ!..यही कसूर था उनका"...

"बेज़ुबान की आवाज़ सुने भी तो कौन?"शर्मा जी ने उदासी भरे स्वर में कहा...


"सुन रही हो ना मेनका?...या 'जोधा-अकबर' से ही फुरसत नहीं मिली अभी तक?"

"अचानक मुझे पता नहीं क्या हुआ और मैँ एमरजैंसी विण्डो से बाहर झांकते हुए ज़ोर से चिल्ला पड़ा"....


"सही कह रहे हो!....

बड़ा उछल-उछल कर जोधा अकबर का विरोध कर रही है आजकल"शर्मा जी पुन:अखबार खोल के दिखाने लगे

"ये देखो!...साफ लिखा है कि ...

'जोधा अकबर' में जानवरों के साथ अत्याचार किया गया है फिल्म के निर्माण के दौरान"


"हाथी...ऊँट...घोड़ों...चील...कबूतरों को भूखा रख कर उनसे ज़बरदस्ती काम लिया गया है"मैँ अखबार पढता हुआ बोला


"हुह!...उन्होंने खुद मेनका के 'जानवरी थाने' में 'एफ.आई.आर' लिखवाई होगी"गुप्ता जी उपहास सा उड़ाते हुए बोले


"सब स्सालों को!.. पब्लिसिटी चाहिए"

"बड़े-बड़े सैलिब्रिटी नाम जो जुड़े हुए हैँ फिल्म के साथ"शर्मा जी बोले


'आशुतोष गौरीकर...ह्रितिक रौशन...एश्वर्या राय बच्चन वगैरा...वगैरा"मैँ अखबार में लम्बी फेहरिस्त पढता हुआ बोला

"उन्होंने करोड़ों फूंक दिए एक उम्दा फिल्म बनाने में और...लोग हैँ कि विरोध पे विरोध"...


"अब जैसा उसने स्कूल कालेज की किताबों में पढा...वैसी फिल्म बना दी"

"अब ये क्या बात हुई कि जोधा..अकबर की बीवी नहीं...बहू थी"...

"अब..थी तो थी"मैडम जी बोली


"क्यों गढे मुर्दों को हवा दे फिल्म से जुड़े हर छोटे-बड़े शक्स की नींदे हराम कर रहे हो?"मैँ गुस्से से भरा बैठा था

"सीधे-सीधे वैसे ही माँग लो ना आशुतोष से"...

"पक्की बात है...जितने मांगोगे...दे देगा"...


"कभी बिना रोए माँ ने कभी दूध पिलाया है?...जो आशुतोष पिला देगा?"शर्मा जी मेरी तरफ देखते हुए बोले


"और चारा भी क्या है उसके पास?"बेनाम सज्जन बोल उठे ...


"वो बेचारा भी सोच लेगा कि जहाँ इतने करोड़ फूंक दिए..वहाँ एक दो और स्वाहा सही"शर्मा जी सहमति जताते हुए बोले


"हाँ यार!...ये बात तो मैँने सोची ही नहीं"मैँ मन ही मन सोचता हुआ बोला

"वैसे देखा जाए तो कुछ गलत भी नहीं हैँ वो लोग"...

"आखिर राजपूत हैँ....उन्ही के चरित्र को तोड़-मरोड़ के पेश किया गया है फिल्म में"...

"वो भी बिना उनकी सहमति के"...

"मानहानि के बदले कुछ करोड़ पे तो हक बनता ही है उनका"मेरी आँखों में लालच साफ चमकने लगा था

"राजपूत ना हुआ तो क्या?...उनके घर ब्याहा तो ज़रूर गया हूँ"...


"आखिर!..ये हादसा हुआ कब?"काफी देर से चुप मैडम अनुराग से पूछ बैठी...


"यही कोई!..शाम के साढे छै बजे"....


"मेरा मतलब कितने दिन पहले से था?"


"ओह!..अब ठीक से तो याद नहीं लेकिन अन्दाज़ा है कि...

जब ट्रेन से अठारह लोग मरे थे...उससे कुछ दिन ही पहले हुआ था ये हादसा"


"और तुम अब बता रहे हो...इतनी देर से चुप लगाए क्यों बैठे थे?"...

"पहले क्यों नहीं बताया?"...

"शर्मा जी!..आपके सामने ही तो है...

कई बार कोशिश की लेकिन हर बार मेरी बात बीच में काट ..ये राजीव कोई और ही कहानी शुरू कर देता था"...

"बोलने का मौका ही कहाँ दे रहा था?"

"ये तो जब देखा कि पानी सर के ऊपर से गुज़रने वाला है..तो मैँ भड़क उठा और....

आप सब के कारण इसे मजबूरन मुझे मौका देना पड़ा"

"वर्ना इसका बस चले तो खुद ही पूरी कहानी पे छाया रहे"


"खैर छोड़ो!...आगे बताओ..क्या हुआ था"..


"कोई पता नहीं इसका कि फिर शुरू हो जाए"अनुराग मुझे घूरता हुआ बोला


"सर्दी की वजह से घुप्प अन्धेरा हो चुका था और ट्रेन बीच जंगल के खड़ी थी"अनुराग का फिल्मी स्टाईल फिर शुरू हो गया....


"पैसैंजर ट्रेन जो ठहरी...सो!...किसी ने परवाह नहीं की होगी"शर्मा जी कह उठे...


"हाँ..सवारियां बेशक जिएं चाहे मरें....किसी को कोई फिक्र नहीं"गुप्ता जी बोले


"ये स्साली!...बकवास 'इंडियन रेलवे'...कोई टॉयलेट-शायलेट भी तो नही होता ना पैसैंजर ट्रेन में"...

"ऊपर से रात का समय ठहरा...बच्चे और मर्द तो पटरी किनारे खड़े-खड़े निबट लिए लेकिन ..

ये औरतें बेचारी जाएं भी तो जाएं कहाँ"अनुराग औरतों पे तरस खाते हुए बोला...


"क्यों!...वैसे तो बड़ी हम मर्दों से बराबरी करती फिरती हैँ"गुप्ता जी मैडम की तरफ ताकते हुए तैश में बोले

"निबट के दिखाएं ना यूँ ही सड़्क किनारे...तब पता चलेगा"


"हाँ...हाँ..तुम स्साले मर्द तो यही चाहते हो"मैडम अचानक बिफर पड़ी


"कोई 'शर्म-ओ-हया' ही बाकी नहीं रही तुम मर्दों में"...

"हम ही मिलती हैँ इन्हें अपनी मर्दानगी दिखाने को"उनका बोलना जारी था

"अरे!..अगर असली मर्द हो तो बचाया क्यों नहीं गायों को?"..

"क्यों चुपचाप बैठ के तमाशा देखते रहे?"


"क्या करता मैँ?"...

"और क्या कर लेती आप?"...

"कुछ खबर भी है कि कितना बुरा हाल था?"...

"सबकी ऊपर की सांस ऊपर और...नीचे की सांस नीचे अटकी पड़ी थी"अनुराग अपने रोल पे मैडम को हावी कैसे होने देता


"भूख के मारे जान निकली जा रही थी बेचारे बच्चों की" ...

"उन्हें देखते या फिर देखते उन मरणासन्न गायों को?"...

"जिनका जीना...अब जीना नहीं रहा था"...

"किसी की अगली...तो किसी की पिछली टांगे कटी पड़ी थी"...

"किसी-किसी का तो धड़ ही बाकी बदन से अलग पड़ा-पड़ा तड़प रहा था"..

"कोई-कोई तो बीच से ही दो-फाड़ हुई पड़ी थी"

"अगर कुछ ना कुछ कर के किसी तरीके से उन्हें बचा भी लिया जाता..तो भी भला वो किस काम की थी?".....

"मैडम जी!..गाय-भैंस को पाला जाता है घी-दूध और दही के लिए और वो ये सब देने-दिलाने के काबिल ही नहीं रही थी"...


"अंतिम समय में सेवा तो कर ही सकते थे उनकी?"....


"मैडम जी!...अंतिम समय में सेवा की जाती है इनसानों की...

और वो भी उन इनसानों की..जो अपने सगे हों..गैर नहीं...और...

सगे भी वो..जो तगड़ा माल-पानी संभाले बैठे हों आखिर तक कि....

जाते जाते अपनी सारी जायदाद वसीयत में हमारे नाम कर जाएं"


"हुँह!..ऐसी फोक्की सेवा गई तेल लेने"...

"ऐसी सेवा का क्या करना है जिससे..मेवा ही ना मिले?"


"क्या यार!...ये कहानी है या क्या?"...

"कभी कोई किरदार आपस में भिड़ पड़ता है तो कभी कोई"...

"हद हो गई बेवाकूफी की"बेनाम सज्जन गुस्से से भर चिल्लाते हुए बोले


"अनुराग!...तुम्हें अपनी कहानी कहनी है तो...चुपचाप अपने मतलब से मतलब रखो"...

"कोई कुछ भी बोलता रहे...तुम ध्यान मत दो"शर्मा जी अनुराग को समझाते हुए बोले...


"ठीक है शर्मा जी!..जैसा आप उचित समझें"...

"अब मेरी तरफ से आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा"..


"ठीक है!...फिर कहो...जो कहना चाहते हो"..


"कोई चना दाल...कोई आलू चिप्स वाला तक नहीं दिखाई दे रहा था"अनुराग फिर शुरू हो गया..


"वो सब भी तो अपना माल निबटा निकल लिए होंगे पतली गली से"मैँ भी लीपापोती सी करता हुआ बोला


"घबराहट में लोग मदद के लिए धड़ाधड़ स्टेशन पर फोन मिलाए जा रहे थे लेकिन किसी का फोन मिले तब ना"....


"और मिले भी तो कैसे?...बिज़ी ही इतना जा रहा होगा"गुप्ता जी बोल उठे


"भूले भटके अगर किसी एक-आध का नम्बर मिल भी गया होगा तो चीख पुकार और होहल्ले के बीच ना तो...

आप्रेटर को इनकी आवाज़ सुनाई दी होगी ढंग से और ना ही इन्हें आप्रेटर की"शर्मा जी लगातार बातचीत में हमारा साथ दे रहे थे ...


"बार-बार एक सा जवाब देते देते तंग आ कर...

उधर से भी रिसीवर क्रैडिल से हटा कर टेबल पे रख दिया गया होगा"मैँ कुछ सोचते हुए बोला...


"जो भी फोन मिलाए...सिवा 'अंगेज़ टोन' की घूँ घूँ के अलावा कुछ नहीं" ..

"बार बार डायल करने के चक्कर में कईयों की बैटरियाँ चूं तक बोल गई"अनुराग आगे की कहानी सुनाता हुआ बोला

"कुछ तो कोई और चारा ना देख हैड फोन लगा म्यूज़िक सुन कर टाईम को पास करने की कोशिश में थे"......


"लेकिन इस तरह के टैंशन भरे माहौल में संगीत के मधुर सुरों ने भी कहाँ आनंद दिया होगा?"मैडम अनुराग की तरफ देखती हुई बोली


"अब बेचारे पैसैंजर...सुनसान जंगल में करते भी तो क्या?..

"कुछ ना कुछ तो चाहिए था ना टाईम पास के लिए"मैँ मैडम की जिज्ञासा शांत करता हुआ बोला


"कुछ एक हिम्मत वाले तो पैदल ही निकल लिए थे वापिस गन्नौर की तरफ"अनुराग मेरी बात को भाव ना देने की गरज़ से आगे बोल पड़ा


"बाकी क्यों नहीं गए?"..मैडम के चेहरे पे फिर एक सवाल


"ढाई तीन किलोमीटर तक पैदल चलना हर किसी के बस का कहाँ है? ...जो हर कोई निकल लेता"

"बाकि सब कोई चारा ना देख चुपचाप वहीं बैठे रहे".....


"पीछे से कोई गाड़ी नहीं आई मदद के लिए?"मैडम के चेहरे पे फिर एक नया सवाल...



"मदद के लिए आती भी कैसे?...सिंगल लाईन होने की वजह से...

पीछे से आने वाली सारी गाड़ियाँ रोक दी गई होंगी"अनुराग के बोलने से पहले ही मैँने ही झट से मैडम की जिज्ञासा शांत कर दी


"कोई और चारा ना देख सबको मजबूरन सब्र के साथ बैठना पड़ रहा था"...

"कुछ एक तो छड़े मलंग तो ताश के जरिए टाईम पास करने की कोशिश कर रहे थे"....

"कुछ के अलावा सबके के चेहरे निराश से दिखाई दे रहे थे"...


"क्यों?...क्या कुछ खुश भी हो थे इस सब झमेले से?"मैडम हैरान होती हुई बोली


"और नहीं तो क्या..."अनुराग ने मुस्कुरा कर जवाब देना चाहा


"एक तो वैलैनटाईन का महीना....ऊपर से साथ बिताने को बोनस स्वरूप चार-पाँच घंटे एक्स्टरा"...

"और क्या चाहिए आजकल के युवा जोड़ों को?"मैँने हँस कर जवाब दिया


"ह्म्म!...सही कह रहे हो...बात में वज़न है तुम्हारी"मैडम भी मुस्कुरा उठी....


"खाक वज़न है?....नाक काटे डाल रहे हैँ सरासर अपने माँ बाप की"हम दोनों में खिचड़ी से पकती देख बेनाम सज्जन बिफर उठे...


"उनके अरमानों को यूँ सरेआम रौंदे डाल रहे हैँ"गुप्ता जी भी उनसे सहमत होते हुए बोले

"घर बैठे माँ बाप तो बेचारे यही सोच रहे होंगे कि उनके लाडले पढाई में जुटे हैँ"...

"आगे चलकर माँ-बाप का नाम रौशन करेंगे"...


"माँ दा सिर रौशन करेंगे"शर्मा जी को भी गुस्सा आ चुका था...


"वहाँ कोने की अंधेरी सीटों पर पूरे खानदान के नाम का फातिया पढा जा रहा होगा और..

घरवाले सोच रहें होंगे कि घर का चिराग रौशन हो रहा है"बेनाम सज्जन बोल उठे


"हुह!....पापा कहते हैँ ..बड़ा नाम करेगा...बेटा हमारा घणा सुथरा काम करेगा..."


"अगले दिन मैँने देखा कि कुछ ट्रैक्टर-ट्रालियाँ आई खड़ी हैँ और...

दिनरात एक कर के लाशॉं को ढोने में जुटी हैँ"अनुराग आगे की कहानी ब्याँ करता हुआ बोला

"कुछ एक गाएं तो तब भी तड़प रहीं थी"अनुराग की आँखों से आँसुओं की महीन रेखा बह निकली


"रेलवे वाले रहे होंगे"...

"नहीं!...उन्हें कहाँ फुरसत थी कि इतनी जल्दी सब माल-मसाला समेट लेते"अनुराग रुमाल से अपनी आँखे पोंछता हुआ बोला

"किसी को कहते सुना था कि बाहरले राज्य से खबर लगते ही कसाई दौड़े चले आए रात को ही"...

"वोही ले जा रहे थे चोरी छुपे...वो भी दिन दहाड़े"...

"कोई रोकने-टोकने वाला जो नहीं था"


"रेलवे पुलिस ने भी नहीं रोका?"...

"नहीं?"..


"वजह?"मैडम ने सवाल किया...


"पब्लिक समेत बो भी यही चाहते थे कि जितनी जल्दी हो सके..ये कूड़ा-करकट साफ हो"

"पूरा माहौल में तगड़ी दुर्गंध जो भरी पड़ी थी...साँस लो तो भी उबकाई आने को हो रही थी"


"ये तो सरासर गलत बात है"ना चाहते हुए भी मेरा गुस्सा...मेरा अफसोस एक साथ मेरे चेहरे पे हावी हो चुका था


"क्यों?"अनुराग मेरी तरफ देखने लगा...


"ओह!..शिट...मुझे होना चाहिए था सबसे पहले वहाँ"मैँ अनुराग की बात अनसुनी करते हुए बोल पड़ा


"तुम!...तुम क्या कर लेते?"शर्मा जी के चेहरे पे ऐसा सवाल था जिसका मैँ जवाब नहीं देना चाहता था


"मैँ चुप रहा...उन्होंने फिर पूछा...लेकिन मैँ चुप रहा"...

"तुझे मेरी कसम...बता क्या बात है?"...


"शर्मा जी!...कम से कम तीन सौ से ..चार सौ किलो के बीच...

वज़न रहा होगा ना एक एक गाय का?"मैँ उल्टा शर्मा जी से प्रश्न कर बैठा


"हाँ!...इतना तो रहा ही होगा कम से कम"

"क्यों...?"शर्मा जी क्या...किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था...


"शिट..."मुझे होना चाहिए था वहाँ...


"क्यों क्या हुआ?"सबके चेहरे पे यही सवाल था


"मेरे होते हुए ऐसा घोर अन्याय?"....

"पाप चढेगा स्सालों को...पाप"

"पता नहीं कैसे बेदर्दों ने बेरुखी से लादा होगा उन बेचारी तड़पती गायों को"

"मुझे पता होता तो मैँ खुद ही आराम से ...सेवा भाव से सीधा गाज़ी पुर की कसाई मण्डी छोड़ आता लेकिन...

मजाल है जो किसी को इतना तड़पने देता"....


"बात तो एक ही है...उन्होंने पहुँचाया या फिर तुमने पहुँचाया...क्या फर्क पड़ता है?"


"अरे वाह!..एक ही बात कैसे है?...और फर्क क्यों नहीं पड़ता है?"...

"वे ले गए तो माल उनका हुआ...मैँ ले जाता तो सारा मालपानी मेरे पल्ले आता"


"शर्म कर राजीव!...शर्म कर..गऊ माता के लिए ..ऐसे शब्द?"...

"राम-राम...तौबा तौबा"...

"छी!..कितने गन्दे विचार हैँ तुम्हारे...छी"...

"हमें पता होता तो हम कभी तुझसे किसी भी किस्म का नाता नहीं रखते"


"शर्मा जी!..आप भी ज़रा सी बात का बतंगड़ बनाने पे तुले हैँ"...

"वो कमा जाएं तो ठीक?"...और राजीव कमाए तो पाप?"...

"वाह!..मान गया शर्मा जी आपको"...

"क्या पते की बात कर रहे हैँ आप..वाह"

"रोज़ ही तो हज़ारों जानवर कटते हैँ...

चौबीस नग मेरी तरफ से बढ जाते तो कौन सी ज़मीन फट जाती?...या कौन सा भूचाल आ जाता?"

"हुँह...बेकार में ...फोकट में कई हज़ार गवाँ बैठा"मेरे चेहरे पे लालच का परचम लहराता देख सभी अवाक हो मेरी शक्ल देख रहे थे


"सब साले!...मुफ्त में उठा के ले गए"मैँ किसी की परवाह ना करता हुआ बोले चला जा रहा था


"वाह!...वाह राजीव बाबू....वाह"...

"क्या कहने तुम्हारे....वाह"

"पलट के देखा तो पीछे कम्मो खड़ी थी. ..मेरी कहानी की जान"...

"पता नहीं पागल की बच्ची..कब से पीछे खड़ी-खड़ी हमारी बातें सुन रही थी"


"सब सुन लिया है मैँने...और सब देख भी लिया है कि कौन कितने पानी में है"..

"उस दिन तो बड़ा नेक चलनी का पाठ पढा रहे थे ना मुझे कि मैँ ऐसी हूँ...मैँ वैसी हूँ"...

"अब ये क्या है?".....


"अरे!...मैँ तो अपने बच्चों की खातिर ये सब गलत-शलत काम करती हूँ"...

"बच्चे मेरे ठीकठाक पल जाए बस..और कोई लालच नहीं है मुझे"...

"आज मेरा घरवाला सुधर जाए और कमाने-धमाने लगे तो...आज ही मैँ ये गन्दा काम छोड़ दूँ"...

"कोई मैँ अपनी खुशी से इस धन्धे में नहीं उतरी"...

"मुझे इस धन्धे में तेरे जैसा ही कोई सफेदपोश लाया"...

"कहने को तो उसने मुझे अपने दफ्तर में सैक्रेटरी के पद पर रखा था"...

"मैँ भी बहुत खुश थी कि...चलो ढंग की नौकरी तो मिली"

"सबकुछ ठीकठाक चल रहा था"...

"मैँने अपने बच्चों का एक अच्छे स्कूल में एडमिशन भी करवा दिया था"...

"एक दिन मालिक ने मुझे दो घंटे देर तक काम करने को कहा और वायदा किया कि ओवरटाईम के एक्स्ट्रा पैसे मिलेंगे"..

"मैँ पैसों के लालच में मान गई"

"मुझे क्या पता था कि उसकी नीयत में खोट है...हर समय मुझे बेटी-बेटी कह के ही तो पुकारता था वो"

"मैँने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि ओवरटाईम के बहाने मुझे देर रात तक रोके रखने के पीछे उसकी मंशा कुछ और ही थी"

"उस रात जो मेरे साथ हो हुआ...भगवान ना करे कि ऐसा कभी किसी के साथ हो"

"उस रात उसने अपने तीन दोस्तों को भी बुला लिया था और ...उन सभी ने बारी-बारी....."कहते हुए कम्मो फफक कर रो पड़ी


"मैँ कुछ ना कर सकी"...

"ये सब मैँ सहन ना कर सकी और बेहोश हो गई"...

"जब होश आया तो देखा कि वो जा चुके थे और जाते-जाते पाँच सौ रुपए मेरे पास फैंक कर चले गए थे"...

"कुछ देर मैँ चुपचाप रोती रही...फिर कुछ ठान मैँने ज़मीन पे पड़ा पाँच सौ का नोट उठाया और अपने घर चली गई"...

"किसी को कुछ नहीं बताया"...

"बता कर फायदा भी क्या था?"...


"ज़्यादा से ज़्यादा पुलिस के पास जाती"...

"लेकिन पुलिस के पास जाती भी तो कैसे?..

"उन चारों में से एक उसी इलाके का 'एस.एच.ओ'जो था "...

"कौन सुनता मेरी शिकायत...मेरी पुकार?"...

"अदालत में झूठे गवाहों के बल पर मुझी को बदचलन साबित कर दिया जाता"...

"तो फिर कौन दिलाता सज़ा उन्हें?"..

"कौन दिलाता न्याय मुझे?"...

"जब देखा कि कुछ नहीं कर पाऊँगी मैँ...कुछ नहीं बिगाड़ पाऊँगी उनका"...

"तो मैँने सोचा कि अगर ऊपरवाले को यही मंज़ूर है ...तो यही सही"


"बस..उसके बाद मैँ कभी उस दफ्तर नहीं गई"...

"मैँने ठान लिया कि जब यही सब होना है मेरे साथ या यही सब करना है मुझे तो किसी की गुलाम बन कर क्यों?"

"बस वो दिन है और आज का दिन है...

आज मैँ अपने पैरों पे खुद खड़ी हूँ और तसल्ली है मुझे कि अपनी मर्ज़ी की खुद मालकिन हूँ मैँ"


"और तू राजीव!..चन्द रुपयों के लालच में अपना धर्म ..अपना ईमान सब बेच खाया तूने?"...

"शर्म आनी चाहिए तुझे"...


"बोल!...बोल तुझे कितने पैसे चाहिए?...मैँ देती हूँ"...

"ले!...और ले..."कहते हुए उसने अपना पर्स खोल सारे पैसे मेरे मुँह पे फैँक दिए...


"उसकी बातें सुन मेरा तना चेहरा कब झुक गया...पता नहीं"....

"वो बोलती रही ...मैँ चुपचाप सुनता रहा"....

"कोई और चारा भी नहीं था मेरे पास"


***राजीव तनेजा***


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