"मज़ा ना आए तो...पैसे वापिस"

"मज़ा ना आए तो...पैसे वापिस"

***राजीव तनेजा***


"इस बार पक्का है ना!...या इस बार भी गोली देने का इरादा है जनाब का?"...


"किस बारे में?"...


"भूल गए?"...

"अरे!..उसी 'कम्मो चूरन वाली' की बात कर रहे हैँ हम जिसका तुम अपनी पिछली चार कहानियों से जिक्र करते आ रहे हो"


"पता नहीं ऐसा कैसा किरदार गढा है तुमने कि हवा तक नहीं लगने दे रहे हो उसकी"


"शर्मा जी!..इस बार राजीव ने 'कम्मो चूरन वाली' का छुई-मुई जैसा किरदार गढा है "...

"ज़रा सी झलक में ही मुर्झा जाएगा"गुप्ता जी हँसते हुए बोले


"क्या बात करते हो गुप्ता जी आप भी?"...

"एकदम सॉलिड करैक्टर है अपनी 'कम्मो'का"...

"शर्मा जी!..आप भी देखना....मज़ा ना आए तो पैसे वापिस"...


"पैसे?"...

"हमने दिए कौन से हैँ...जो वापिस करोगे?"अनुराग चौंका


"अरे बेवाकूफ!...तकिया कलाम है ये मेरा"...

"थोड़ा इंटरैस्ट तो जगाना पड़ता है ना पढने वालों का ऐसा कह के"

"बुद्धू!...इत्ती सी बात भी नहीं समझता"मैँ हँसता हुआ बोला...


"वर्ना टाईम ही किसके पास है कि वो मेरे किस्से-कहानियाँ पढता फिरे"

"अभी कौन सा मैँ इस लिखने-लिखाने से कमाता-धमाता हूँ?"...

"फिर भी अपनी कहानी पढने वालों को अपने पल्ले से टॉफी ज़रूर खिलाता हूँ" ...

"क्यों है कि नहीं?"...


"अब ये मेरी कहानियों को नैट पे पढने वाले सोचेंगे कि हमें तो नहीं मिलती टॉफी-शॉफी"...

"फिर हम क्यों पढें इसकी कहानियाँ?"

"तो दोस्तो!...कौन मना करता है आपको खिलाने-पिलाने से?"...

"कभी दिल्ली का चक्कर लगे तो ज़रूर पधारें मेरे गरीब खाने पे"...

"बन्दा आपकी सेवा में हमेशा हाज़िर मिलेगा"

"इसी कारण मैँ अपना पता और फोन नम्बर इस कहानी के आखिर में दे रहा हूँ"...

"जब मर्ज़ी चाहें आप मुझसे कांटेक्ट कर सकते हैँ"...

"चाहें तो ई-मेल भी भेज सकते हैँ"..


"तो क्या कहती हैँ मैडम जी आप?"...

"शुरू करें इस बार की कहानी?"...


"नेकी और पूछ..पूछ...बिलकुल करो जी शुरू"मैडम जी के बोलने से पहले ही शर्मा जी बोल पड़े...


"तो ठीक है...पहला डॉयलॉग मेरी तरफ से"मैँ शुरू होने को हुआ...


"हाँ-हाँ...क्यों नहीं...राईटर तुम हो कहानी के तो चलेगी भी तुम्हारी ही"अनुराग ने तुनक के जवाब दिया...

"बोलो...क्या बकते हो"...



"हाँ!..तो मैडम जी...क्या करती हैँ आप"अनुराग की बात पे ध्यान ना देते हुए मैँने अपना पहला डॉयलॉग बोला...

"हाउस वाईफ..या फिर...कोई जॉब-वॉब?"


"क्यों क्या बात है?"मैडम भी शुरू हो गई


"नहीं!...कुछ नहीं...बस ऐसे ही पूछ लिया"....

"नॉलेज के लिए"मैँ कुछ-कुछ सकपकाता हुआ सा बोला...


"देखना शर्मा जी!..ये नालेज-नॉलेज के चक्कर में पूरी जन्म-पत्री तक उगलवा लेगा"अनुराग शर्मा जी के कान में फुसफुसाता हुआ बोला

"अभी मैडम के बारे में पूछ रहा है"...

"थोड़ी ही देर में इनके पति से लेकर बच्चों तक...उसके बाद...

सास-ससुर..मौसा-मौसी...चाचे-तायों के बारे में जान लेगा"


"कुछ देर और लगा रहा तो पड़ोसियों से लेकर दुश्मनों की भी खोजखबर निकाल लाएगा"


"ये तो शुक्र है कि इन मैडम के साथ कोई बच्चा नहीं है वर्ना...


"वर्ना..?..."शर्मा जी अनुराग की बात को समझने की कोशिश करते हुए बोले...


"वर्ना!...तो इसका सीधा सरल फण्डा है कि अगर गाय का दूध पीना है तो पहले बछड़े को पुचकारो....

बाद में उसकी माँ पे हाथ डालो"...


"हम्म!...अब समझा...इसी कारण ये राजीव का बच्चा जहाँ कोई बच्चा देखता है तो झट से बैग खोल टॉफी थमा देता है कि...

ले बेटा!...आराम से चूस..."गुप्ता जी भी एक आँख दबा अनुराग के ही अन्दाज़ में फुस्फुसाते हुए बोले


"हाँ!..सही है...तू चूस...हम तसल्ली से चबाएंगे"अनुराग के स्वर में जलन की बू आ रही थी


"शैतानी खोपड़ी है इसकी ...मैँ तो इसे सीधा सरल इनसान समझता था लेकिन...

ये तो वाकयी...सच में..बड़ा चलता पुर्ज़ा इनसान है"गुप्ता जी भी उसी की हाँ में हाँ मिलाते हुए बोले



"जी!..मैँ टीचर हूँ"मैडम उनकी इस खुसर-पुसर पे ध्यान ना देते हुए बोली...


"सबजैक्ट?"मेरा अगला सवाल फिर उनका चेहरा ताक रहा था...


"हुँह!...ऐसे पूछ रहा है जैसे अपनी खुद की ट्यूशन लगवानी हो"अनुराग फिर बड़बड़ाया


"हिन्दी और संस्कृत"उधर से अनुराग की बडबड़ पे ध्यान न देते हुए संक्षिप्त सा जवाब मिला...


"गुड.."मैँ उनकी तरफ प्रशंसा से देखता हुआ बोला..


"इसका मतलब!..आप कामकाजी महिला है"...

"गुड!...वैरी गुड"शर्मा जी के स्वर में भी एडमायरेशन(प्रशंसा) वाला पुट था...


"हाँ!...नाम भर के लिए तो कामकाजी महिला ही हैँ ये"गुप्ता जी कुछ चिढते हुए से प्रतीत हो रहे थे


"मतलब?"शर्मा जी चौंके


"वैसे तो ये टीचर हैँ और पढाना इनका पेशा है लेकिन पूरा दिन स्टाफ रूम में गप्पें मारने और...

एक दूसरे की चुगली करने के बाद अगर थोड़ा बहुत वक्त मिल जाए तो पढा भी लेती होंगी"गुप्ता जी हँसते हुए बोले


"नहीं गुप्ता जी!..नहीं...

इन कामों के अलावा रोज़ाना के सास-बहू टाईप सभी सीरियलों का बारी-बारी से पोस्टमार्टम करने के बाद....

कहीं जाकर बड़ी ही मुश्किल से आता होगा पढाई-लिखाई का नम्बर"अनुराग अपना ज्ञान बघारता हुआ बोला


"और ये जो!...मेकअप के लेटेस्ट ट्रेंड चल रहे हैँ...उनके के बारे में डिसकस कौन करता है?"...

"तुम्हारा फूफ्फा..?"गुप्ता जी अनुराग से चिढते हुए बोले


"जी गुप्ता जी!..कभी भूल से भटकते हुए ये नेक काम भी हो ही जाता होगा"शर्मा जी बात संभालते हुए बोले


"तो फिर!..कोर्स कैसे पूरा होता होगा बच्चों का"मेरे चेहरे पे सवाल था


"हुँह!..कोर्स?...और ये स्कूल में पूरा करें?"...

"मॉय..फुट्ट"अनुराग आवेशित स्वर में बोला


"सवाल ही पैदा नहीं होता"गुप्ता जी की आवाज़ में भी अनुराग वाला ही पुट था


"वो क्यों?"मेरे चेहरे पे अभी भी अन्धकार के बादल छाए हुए थे...


"अगर स्कूल में ही सारा कुछ पढा दिया तो...

घर पे ट्यूशन पढाते वक्त कमरे में कौवे बोलेंगे"गुप्ता जी मेरा अज्ञान दूर करने की भरसक कोशिश कर रहे थे ...


"सही बात!...कौवे बोलेंगे और..

मैडम के सर पे नोटों का ऊदबिलाव...भूत बन नाचेगा"शर्मा जी अपने स्वभाव के विपरीत हँसते हुए बोले


"मतलब!...मतलब क्या है आपका?"मैडम को अचानक गुस्सा सा आने को हुआ...


"मतलब ये कि...

अगर सही ढंग से स्कूल में ही पढा दिया गया तो घर में ट्यूशन पढने कौन आएगा?"गुप्ता जी मैडम को शांत करते हुए बोले..


"लेकिन!...इन्हें तो पढाने के ही पैसे मिलते हैँ ना?"मैँ अज्ञानी एक और सवाल कर बैठा


"सही कह रहे हो राजीव जी आप"...

"बहुत पैसे देते हैँ ये प्राईवेट स्कूल वाले हमें कि..संभालना भी मुश्किल हो जाता है"...


"मैँ तो परेशान हो जाती हूँ कि ..कहाँ रखूँ..कैसे गिनुँ इतना पैसा?"...

"ले दे के घर में दो ही तो 'गोदरेज'अल्मारियाँ हैँ और दोनों की दोनों पहले से ही...फुल बटा फुल्ल भरी पड़ी हैँ"...

"अभी फिलहाल के लिए तो बिस्तर के नीचे ढंग से बण्डल बना...चट्टे लगा रखे हैँ नोटों के कि...

बेफाल्तू में इधर-उधर ना बिखरते फिरे"मैडम बोलती चली गयी...


"तो आप!..गद्दे का भी काम ले रही हैँ नोटों के साथ?"...

"दिस इज़ नॉट फेयर"मैँ नासमझ मैडम के व्यंग्य को बिना समझे बोल बैठा...

"गुप्ता जी!...आप ही बताएं कि...ये अबला नारी...क्या करे बेचारी?"मैँ तरस खाते हुए बोला


"मैडम जी!...मेरे होते हुए आप बेफिक्र रहें"..

"चिंता ना करें"...

"आप अपना पता बताएं...मैँ गेहूं के खाली बोरे भिजवा दूंगा"गुप्ता जी जेब से डायरी और पैन निकालते हुए बोले...


"आपके पास बोरों का क्या काम?"मैँ चौंकता हुआ बोला


"दरअसल!..बैंक में काम करने के अलावा आटा चक्की भी है मेरी"...

"छोटा भाई दिन में संभालता है और रात को ड्यूटी से आने के बाद मैँ संभाल लेता हूँ"गुप्ता जी पूरी बात समझाते हुए बोले


"गुप्ता!...तू क्यों दूसरे के फटे पांयचे में अपना हाथ घुसेड़ रहा है?"शर्मा जी कुछ शंकित से होते हुए गुप्ता जी से बोले


"शर्मा जी!...समझा करो...लेडीज़ का मामला है"...

"शायद!...अपनी ही किस्मत बलवान हो और चान्स लग जाए"गुप्ता जी के चेहरे पे मुस्कुराहट थी...


"और वैसे भी...कबाड़ी कोई ढंग का भाव तो देते नहीं हैँ इन अधफटे बोरों का"गुप्ता जी अनुराग के कान में फुसफुसा हँसते हुए बोले


"सही में!...वाय शुड ओंनली राजीव हैव ऑल दा फन?"

"क्यों है कि नहीं?"...


"गुप्ता जी!..

आपने क कभी ढंग से अपना मोल नहीं लगवाया होगा"उनकी बात मेरे कानों में पड़ चुकी थी सो..मैँ तड़प कर बोला..


"सच में!...बहुत मज़ा आएगा...एक बार लगवा के तो देखें...प्लीज़"अनुराग बच्चों के समान मचलता हुआ बोला...


"अगर किसी ने औने-पौने दाम लगा दिए तो?"शर्मा जी के स्वर में शंका का पुट शामिल था...


"मुँह ना नोच लूँगा उस कंबख्त मारे का"अनुराग अपना पंजा हवा में दूर तक लहराते हुए बोला...


"हम्म!..तो फिर ठीक है"...

"गुप्ता जी!..बिना परेशान हुए आप बेफिक्र हो अपना मोल लगवाएं"शर्मा जी भी हँसी-मज़ाक के मूड में आ गए थे ...


"शर्मा जी!...आप भी?"...

"ऐसी उम्मीद नहीं थी आपसे"गुप्ता जी के चेहरे पे नराज़गी साफ झलक रही थी


"फुल्ल गॉरंटी समझ लें मेरी तरफ से कि...एकदम सही..वाजिब दाम लगेगा आपका"उनकी नराज़गी से बेखबर शर्मा जी बोले ...


"वजह?..."मेरे चेहरे पे फिर सवाल था...


"वजह!...वैसे भी आजकल एंटीक आयटमज़ की बहुत डिमांड है ना विदेशों में"अब मैडम के हँसने की बारी थी


"पता नहीं क्या भाता है इन मुये फिरंगियों को...इन पुराने मालों में"मैँ गुप्ता जी के चेहरे को गौर से देखता हुआ बोला


"यू मस्ट बैटर नो!...तुम्हें पता होना चाहिए"...

"अरे बुद्धू!..ओल्ड इज़ गोल्ड"मैडम मेरे कन्धे पे धौल जमाते हुए हँस कर बोली

"गुप्ता जी!...बोरों के लिए थैंक्स...लेकिन एक प्राबलम है"गुप्ता जी से मुखातिब होती हुई मैडम बोली...


"क्या?.."अब गुप्ता जी के चेहरे पे भोलापन लिए सवाल खड़ा था...


"अरे यार!..आज के ज़माने में बोरों में करैंसी रखना ठीक नहीं"मैडम के बजाए शर्मा जी ने जवाब दिया


"हाँ!..कल को क्या पता पुलिस वाले ही पकड़ के ले जाएं और...

माल का माल जाए और जुर्माना भरना पड़े...सो अलग"मैँ कुछ सोचते हुए बोला


"जुर्माना?...किस इलज़ाम में?"गुप्ता जी चौंक के उठ खड़े हुए


"मिस हैण्डलिंग एण्ड मिसयूज़ ऑफ इंडियन करैंसी"शर्मा जी ने गुप्ता जी को बैठाते हुए कहा


"हाँ!...अगर मिस यूज़ का केस भी साथ में लगा दिया तो मुसीबत पे मुसीबत हो जाएगी"काफी देर से चुप दहिया बोल पड़ा

"लेने के देने पड़ जाएंगे"


"और नहीं तो क्या"मैँने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई...

"नहीं!...ये ठीक नहीं रहेगा"...

"बोरों में तो बिलकुल नहीं"


"ज़माना बड़ा खराब है तोलाराम..."आज शर्मा जी को 'मशाल' फिल्म के ये मशहूर डॉयलॉग पता नहीं कैसे याद आ गया



"और वैसे भी तो आए दिन चोरी चकारी होती रहती है हमारे मोहल्ले में"

"कोई सस्ती सी अल्मारी मिल जाए तो बात बने"मैडम भी अपनी मुसीबत का हल खोजने में जुट गयी


"क्यों राजीव!...तुम्हारा तो फर्नीचर का काम है ना?"


"जी!...जी शर्मा जी"


"तो फिर करो ना कोई जुगाड़...देख नहीं रहे कि मैडम कितनी अपसैट लग रही हैँ?"

"कोई अच्छी सी सैकेंडहैंड अलमारी आए लॉट में ..तो ध्यान रखना"शर्मा जी मुझसे बोले...


"अरे!..मैडम जी हुक्म तो करें सही...

सैकैंडहैंड तो क्या एकदम फ्रैश पीस दिलवा देगा बाज़ार से"बिना डिमांड के अनुराग का बोलना बदस्तूर जारी था


"जी!..ध्यान रखूँगा"उसकी टोकाटाकी पे कान न देता हुआ मैँ बोला


"वैसे!..कितने तक की मिल जाएगी?"मैडम मेरी तरफ देखती हुई बोली...


"पैसे की आप नाहक ही चिंता करती हैँ....उसके लिए ये राजीव है ना"गुप्ता जी उन्हें समझाते हुए बोले ....


"मतलब क्या है आपका?....

"क्या मैँ फ्री में मांग रही हूँ?"मैडम की त्योरियों पे बल पड़ चुके थे


"ज..जी.जी...मेरा मतलब था कि राजीव आपको एकदम सही दाम पे दिलवा देगा"गुप्ता जी सकपका कर हड़बड़ाते हुए बोले


"सब समझती हूँ मैँ"मैडम के माथे से बल अभी गए नहीं थे...


"आप सही समझ रही हैँ मैडम जी लेकिन गुप्ता जी बेचारे भी क्या करें?....

अपने राजीव का स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि हमेशा ये लड़कियों पे मेहरबान जो रहता है आजकल"अनुराग लीपापोती करता नज़र आया...


"हाँ!...किसी के एक इशारे पे उसके घर स्पैशल होली खेलने पहुँच जाता है...

वो भी अकेला नहीं...बीवी के साथ"गुप्ता जी की चुप हुई चिड़िया एक बार फिर बोलती नज़र आई


"तो दूसरे इशारे पे सब काम-धन्धा छोड़ जहाँ का हुक्म मिले...वहीं कार में घुमाने-फिराने पहुँच जाता है"अनुराग हँसते हुए बोला


"उसकी जगह हमारी बीवी हो तो कच्चा चबा जाए हमें" ...

"पता नहीं कैसी मीठी गोली देता है ये राजीव का बच्चा अपनी बीवी को कि...

वो तनिक सा भी एतराज़ नहीं करती"गुप्ता जी के चेहरे पे आश्चर्य का कबूतर गुटरगूम कर रहा था ...


"छोड़ो इसको!...इसकी माया...ये ही जाने"शर्मा जी बात को विराम देने के मकसद से बोले ..


"बिलकुल!..जिस दिन लगेगी सही से...तो भी ये ही तन जानेगा"अनुराग मेरी तरफ इशारा कर बड़बड़ा उठा


"हम अगर कभी भूले से भी कह दें कि यार...कल कार लेते आना..बँगला साहेब गुरुद्वारे चलेंगे....

तो जैसे..साँप सूँघ जाता है इस राजीव के बच्चे को"दहिया भी गढे मुर्दे उखाड़ने की जुगत में लगा नज़र आ रहा था


"अभी उस दिन की ही लो...पता भी था अगले को कि पैसैंजर गाड़ी कैंसिल हो गयी है...

सब लेट हो रहे हैँ लेकिन..इन महानुभाव ने कार ले जाने के नाम पे चूँ तक नहीं की"गुप्ता जी भी कटाक्ष करने से कहाँ चूक रहे थे


"हमारी बारी में तो इसे जैसे साँप सूँघ जाता है और कोई ना कोई बहाना पहले से ही तैयार मिलता है कि...

आज मैडम(घरवाली)ने फलानी फलानी जगह पे शापिंग करने जाना है...

तो आज फलाने-फलाने अस्पताल में पिताजी का चैकअप कराने जाना है"अनुराग आज अपने सभी शिकवे जाहिर करने के मूड में था


"वाह!..क्या टाईमिंग ढूँढी है पट्ठे ने सारे गिले-शिकवे दूर करने की..."मैँ मन ही मन बड़बड़ाया...


"हुँह!...बस हमारे टाईम पे ही इसकी कार ने बिज़ी होना होता है"अनुराग मेरी तरफ ध्यान दिए बिना बोलता ही चला गया...


"अरे बिज़ी होनी ही चाहिए...कोई एक..

हाँ!..कोई एक...लड़कियों जैसी खूबी तुम में हो तो बताओ"दहिया को भी ताव आ गया था


"मिस्टर!...कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है और तुम्हारे पास खोने के लिए है भी क्या?..

ये!..ये सड़ा सा बूत्था(चेहरा)?"मैँ भी चौड़ा हो गया


"शटअप"...

"क्या अनाप-शनाप बके जा रहे हो?"अनुराग अपना आपा खो चुका था

"देखा!...देखा मैडम जी...मै ना कहता था कि ये राजीव एकदम मतलबी इनसान है...

आप खुद ही देखिए कि कैसे ये खुद हीरो बनने के चक्कर में...

हमारे पहले से तय रोल कैँची चला उन्हें काटे डाल रहा है"अनुराग मैडम को पट्टी सी पढाता हुआ बोला...


"अभी चन्द मिनट पहले की ही लो ...आपने देखा ना कि जैसे ही आपका परफार्मैंस चालू होने लगा....

तड़ाक से खुद को ही महिमा मंडित करने लगा"अनुराग मैडम को भड़काने की कोशिश कर रहा था


"माना...

माना कि मैँ अपनी महिमा को मंडित करता हूँ...लम्बा रोल देता हूँ खुद को और..

क्यों ना दूँ?"मैँ गुस्से में लाल होता हुआ पीला हो बोल उठा...

"बेटे लाल!...

तुम तो मज़े से नींद के आगोश में बीवी के साथ या फिर...

किसी 'एक्स-वाई-ज़ैड' के साथ पलंग पे पसरे-पसरे खटिया तोड़ ...

'सरकाई लो खटिया जाड़ा लगे'..वाला गाना गा रहे होते हो ..

वहीं दूसरी तरफ!..मैँ रात-रात भर जाग-जाग कर...

अपने सभी पढने वालों के लिए नए-नए किस्से-कहानियाँ गढने की कोशिश में कागज़ काले करता फिरता हूँ...

उसका कुछ नहीं?"मेरा भड़कना जायज़ लगा मुझे...


"यहाँ!...यहाँ हमारे सामने गिला-शिकवा करने के बजाए ...

वहाँ...वहाँ ऊपर!...हाँ...ऊपर की तरफ मुँह करके अपने इष्टदेव से शिकायत करो कि...

तुम्हें व्यर्थ में...फोकट में लड़का क्यूं बनाया"मैँ अनुराग को बोलने का कोई मौका नहीं देना चाहता था

सो!...एक ओर ऊपर की तरफ उँगली उठा बोलता चला गया


"हाँ!...हो सकता है उस परवर दिगार को अब भी रहम आ जाए और...

तुम्हारा तुरंत ही एक झटके में...सैक्स चेंज हो जाए"दहिया पलटी मार मेरी तरफ हो लिया...


"इसके लिए इतने पापड़ बेलने की क्या ज़रूरत है?"गुप्ता जी बोल पड़े...


"बिलकुल ठीक!...

अब तो सैक्स बदलवाने की सुविधा मिल रही है दिल्ली के ही कई अस्पतालों में"शर्मा जी अखबार में एक वर्गीकृत विज्ञापन दिखाते हुए बोले


"वैसे भी नई तकनीक आ जाने की वजह से कोई खासा मँहगा शौक भी नहीं रहा ये अब तो"गुप्ता जी ने नहले पे दहला जड़ डाला...


"भतेरे करवा रहे हैँ...

सो!..तुम भी अपना काया पलट करवा के अनुराग से महिमा बन अपनी महिमा के गुण गवा लो मुझसे..

क्या दिक्कत है?"मैँ हँसता हुआ बोला


"क्यों?...हम क्या मर गए हैँ जो तुम..

हाँ ...तुम इसकी महिमा को मंडित करोगे"गुप्ता जी यहाँ भी मुझे हीरो गिरी झाड़ते देख आवेशित हो बोल पड़े...


"इसे कहते हैँ सोच सोच का फर्क"...

"गुप्ता जी!...मैँ इसकी महिमा को मंडित करने की कह रहा हूँ और...

आप हैँ कि इसकी महिमा को खंडित करने की सोच रहे हैँ"मेरा इतना कहते ही सभी की हँसी छूट पड़ी


"हाँ अनुराग!...सही में...

तुम तो बस आजकल में ही अपना सैक्स चेंज करवा लो"गुप्ता जी अनुराग को चिढाने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहते थे..


"लेकिन ये ना करना अनुराग कि गुप्ता जी के चक्कर में हमें ही भूल जाओ"....

"हम तो तेरे आशिक हैँ सदियों पुराने...चाहे तू माने...चाहे ना माने"दहिया ने लम्बी तान ली और शुरू हो गया


"कुट्टी!...कुट्टी...पक्की कुट्टी"...

"जाओ गुप्ता जी!...मैँ आपसे बात नहीं करती...

ऊप्स!..सॉरी...

जाओ मैँ आपसे बात नहीं करता"अनुराग रुआँसा हो बोल उठा


"हा हा हा!....आहा..."हम सभी को अनुराग को तंग करने में मज़ा आने लगा था


"देखा!..देखा मैडम जी...

जब भी कहीं कहानी बिखरने लगती है इस राजीव की...

तो ये कोई डायरैक्ट लिंक होते ना होते हुए भी घुसेड़ लाता है उल्टी-पुल्टी बातों को कहानी के बीच में"...


"इस बार कोई और नहीं मिला तो सैक्स चेंज का मुद्दा ही डाल दिया"

"और तो और!...इस बार तो दिल्ली....यू.पी...बिहार छोड़ जा पहुँचा सीधा मुम्बई"

"हुँह!..बड़ा आया फोकट में पब्लिसिटी दिलवाने वाला महिमा चौधरी को"


"अरे!..आजकल उसकी भद्द पिटी हुई है तो क्या हुआ?"...

"अभी भी लाखों दिलों पे राज करती है"

"तुम चाहे लाख चमचागिरी कर उसे अपनी कहानियों में नायिका या फिर खलनायिका की जगह दे दो...

फिर भी...वो तो क्या?...उसकी नौकरानी भी हत्थे नहीं चढने वाली"अनुराग बोलता चला जा रहा था


"उधर अनुराग बिना रुके बोलता रहा और इधर नौकरानी की बात सुनते ही मेरी तो जैसे सिट्टी-पिट्टी गुम हो चुकी थी"


"क्या हुआ राजीव?"मेरा फक्क चेहरा देख गुप्ता जी बोल पड़े


"कक्क..कुछ नहीं...कोई खास बात नहीं है"मैँ सकपका कर बोला...


"राजीव!...तुम कुछ और कह रहे हो और तुम्हारा चेहरा कुछ और कह रहा है"...

"साफ-साफ बताते क्यूँ नही?"शर्मा जी की आवाज़ में आदेश का पुट था...


"जी बस!...अभी कुछ दिन पहले ही ज़रा सा कन्धे पे हाथ क्या धर दिया था उसके?...

मेरी तो जान पे बन आई"मैँने शरमाते हुए कहा


"किसके कन्धे पे?...

बीवी के?..."अनुराग चौंका


"बेवाकूफ!...

अगर बीवी के कन्धे पे हाथ धरा होता ये इसकी ये हालत होती?"शर्मा जी मेरे पीले पड़े चेहरे की तरफ इशारा करते हुए बोले


"ज़रूर नौकरानी को ही छेड़ा होगा"गुप्ता जी निष्कर्ष पे पहुँचते हुए बोले


"अब मुझे क्या पता था कि बीवी ऐन मौके पे आ टपकेगी?"मैँ धीमे से अपने सर को नीचे की तरफ झुकाता हुआ बोला..


"और कोई नहीं मिली थी तुम्हें...जो उस बेचारी पे ही हाथ साफ करने की सोच रहे थे?"मैडम की आँखों में गुस्सा साफ झलक रहा था


"सोचा होगा कि ट्राई करने में क्या हर्ज़ है?...क्या पता बात बन जाए"अनुराग जले पे नमक छिड़कता हुआ बोला


"अरे छोड़ ये सब!...तुम बताओ...फिर क्या हुआ"गुप्ता जी चटखारा लेते हुए बोले


"मैँने सोचा कि जब बात खुल ही गई है तो अब शरमाने से क्या फायदा?"...

"सो!..सारी कहानी ब्यान करने लगा"...


"उस दिन तो हालत ऐसी पतली हो गई थी कि बस पूछो मत"..

"अन्दर ही अन्दर डर जो खाए जा रहा था कि पता नहीं कितनी डांट पड़ेगी और कितनी नहीं"...

"लेकिन बेचारी बहुत अच्छी है मेरी बीवी "...

"बोली जो कुछ नहीं"...

"बस कुछ देर अकेले में आँसू टपका...अपना जी हल्का करती रही"मैँ बोलता रहा


"अच्छा!...फिर?"सबको कहानी में मज़ा आने लगा था...


"बहुत मान-मनौवल के बाद कहीं जा के उसका मूड कुछ ठीक हुआ तो जान में जान आई"...

"अब तो मैँ क्या?...मेरे बाप की तौबा जो किसी नौकरानी की तरफ आँख उठा के भी देखा तो"मैँने अपनी बात पूरी की...

"डॉयलॉग मारने को तो मैँ मार गया"..

"अपने ऊपर तो मुझे सोलह ऑने विश्वास है लेकिन...पिताजी....कोई गारैंटी नहीं उनकी"

"अब नहीं तो ना सही"...

"जो बोल दिया...सो ...बोल दिया"...

"वैसे भी अब कर भी क्या सकता हूम मैँ?बिकाज़...

कमान से निकला तीर और ज़बान से निकला शब्द कभी वापिस नहीं हो सकता"..

"खैर छोड़ो ये सब!...बाद की बाद में देखेंगे कि...क्या गुल खिलते हैँ गुले-गुलशन में"


"हाँ तो मैँ क्या कह रहा था?"...

" अरे हाँ!...याद आया...बात हो रही थी नौकरानी की"..

"तो घर में तो सवाल ही नहीं पैदा होता ...बाहर की बात हो तो अलग बात है"...

"वहाँ बीवी को क्या पता चलना है कि मैँ क्या-क्या करता हूँ और क्या-क्या नहीं"...

"कहाँ-कहाँ...किस-किस के धोरे(पास)जाता हूँ और...किस-किस के नहीं"मैँ बिना कुछ बोले सोचता रहा


"क्या सोचने लगे राजीव?"कानों में हुई हल्की सी आवाज़ से मेरी तंद्रा भंग हुई

"देखा तो...गुप्ता जी मेरी ही तरफ ताक रहे थे"


"बस ऐसे ही"मैँने छोटा सा उत्तर दिया..

"फिर भी...पता तो चले"..

"अब अपनी इस भोली भंडारण बीवी को क्या और कैसे समझाऊँ कि...

घर में ही ऐश करने के कितने और...क्या-क्या फायदे हैँ?"मैँ आहिस्ता से गुप्ता जी के कान में फुस्फुसाता हुआ बोला


"क्या फायदे हैँ?"गुप्ता जी भी हौले से बोले...


"फायदा नम्बर एक...बाहर किसी के द्वारा देखे जाने का डर नहीं"...


"बिलकुल...और दूसरा?"गुप्ता जी को देख अनुराग के कान भी हमारी तरफ हो लिए थे


"फायदा नम्बर दो...होटल...रिसार्ट का खर्चा नहीं"मैँ हीरो बनता हुआ बोला....


"और मँहगे होटल या रैस्टोरैंट में खिलाने-पिलाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता"...

"सो!...हर तरफ से बचत ही बचत"गुप्ता जी मेरी समझदारी की तारीफ करते हुए बोले...

"सही है!...ऐश की ऐश भी करो और..बर्तन के बर्तन भी मंजवाओ"....


"जी!...बोथ ट्रैक्स एट दा सेम टाईम"मैँने हँस कर जवाब दिया...

"देसी शब्दों में...आम के आम और गुठलियों के दाम"...


"वाह रे मेरे राजीव सेठ!...वाह...

इधर-उधर की उल्टी-सीधी हाँक के बाँध लिया ना पब्लिक को और असली बात कब गोल कर गए"...

"किसी को इल्म ही नहीं"काफी देर से चुप बैठी मैडम सारा माजरा भांपते हुए बोली


"असली बात माने?"अब मैँ चौंका...


"जी हाँ!...असली बात....कहाँ मुझ से पूछ रहे थे कि क्या करती हूँ मैँ?...

"कहाँ रहती हूँ?...वगैरा वगैरा और अब मेरी छोड़ अपनी राम कहानी ले के बैठ गए"...

"ये तो शुक्र मनाओ कि...बीवी इतनी अच्छी मिली है तुम्हें जो सस्ते में छोड़ दिया"...


"उसकी जगह मैँ होती तो कान खेंच के इतने जूते मारती कि पिटते-पिटते कब...

सर से ये आधे घुंघराले बाल गायब हो जाते...पता भी ना चलता"मैडम मेरे सर में उँगलियाँ फिरा कंघी करती हुई बोली


"वाह!...फिर तो खूब मज़ा आता जब आप..मारती सौ और..गिनती एक "अनुराग मुय्या भी कौन सा कम था....


"मैडम जी!..आप भी ना..क्या बातें ले के बैठ गई?"...

"मेरी छोड़ ..आप अपनी बात पूरी कीजिए"मैँ हड़बड़ाहट में सकपकाता हुआ बोला


"अच्छा चलो!...इस बार बक्श देती हूँ....आईन्दा ध्यान रखना"....


"जी!....जी मैडम जी"...


"हाँ!...तो मैँ क्या कह रही थी?"...

"अरे हाँ!...याद आया....

मैँ कह रही थी कि हमारे साथ अन्याय हो रहा है"मैडम ने अपनी बात शुरू की...


"अन्याय!....वो भी आपके साथ?...बहुत बेइंसाफी है ये तो"बीच में टांग अड़ाना तो जैसे अनुराग का प्रिय शगल था


"हर महीने साईन कराए जाते हैँ हमारे से सात से आठ हज़ार तक के वाउचरों पे"उसकी बात पे ध्यान न दे मैडम आगे बोली...


"तो?.."मेरे चेहरे पे प्रश्न था...


"तो क्या!..दी जाती होगी महज़ ढाई से तीन हज़ार रुपल्ली"...

"क्यों!...है कि नहीं?"गुप्ता जी मैडम के सलोने मुखड़े को ताकते हुए हमदर्दी जताने वाले अन्दाज़ में बोले ...


"जी!...वो भी कभी टाईम पे मिल जाएं तो गनीमत समझो"मैडम ने जवाब दिया...


"जब माँगो...अगले हफ्ते की डेट दे देते होंगे?"अनुराग तुक्का लगाता हुआ बोला


"जी!...हमारी मजबूरी ही नहीं समझते"दुखी हो मैडम ने उत्तर दिया...


"पैसे के पीर हैँ ये प्राईवेट स्कूल चलाने वाले"मैँ गुस्से से बोला...


"इनको लेट भुगतान करने पे ब्याज देना पड़े तो पता चले"गुप्ता जी आवेशित होते हुए बोले


"क्या बात गुप्ता जी?...आपकी नज़र तो सीधा ब्याज के नाम पे जा टिकी"दहिया हँसता हुआ बोला


"बैंकर जो ठहरे"शर्मा जी हँसते हुए बोले


"अरे!...आप ब्याज की बात करते हैँ...मूल मिल जाए तो भी गनीमत समझो"मैडम का स्वर तल्खी भरा था


"और खुद जो लेंट फी के नाम पर बच्चों से दुनिया भर का जुर्माना वसूलते हैँ ये पब्लिक स्कूल वाले"..

"उसका क्या?..."मैडम को दुखी देख अनुराग से रहा ना गया


"अब हम अपना घर चलाने के लिए ट्यूशन ना पढाएं तो फिर क्या करें?"...


"तो क्या सभी बच्चे राज़ी हो जाते हैँ ट्यूशन के लिए?"मेरे चेहरे से प्रश्न टपक पड़ा...


"अजी कहाँ?...सीधी उँगली से कभी घी निकला है?"...

"जब तक एक या दो सबजैक्टस में फेल ना करो बच्चे को..तब तक कोई नहीं आता अपनी मर्ज़ी से"..


"हम्म!...अब समझ में आया कि पेपर ठीकठाक करने के बाद भी मैँ यूनिट टैस्ट में फेल क्यों हो जाता था"मैँ कुछ सोचता हुआ बोला


"छोड़ो मैडम जी!...आपको तो रो-धो के फिर भी हफ्ते-दो हफ्ते में थोड़ी बहुत..

हील हुज्जत के बात तनख्वाह तो मिल जाती है ना?"शर्मा जी मैडम की तरफ देखते हुए बोले ...


"जी!...मिल तो जाती है लेकिन..


"उन फैक्ट्री वाले मज़दूरो की हालत क्यों नहीं देखती?...

जिन्हें पिछले तीन महीने से वेतन का नामो निशान तक नहीं मिला"मैडम की बात पूरी होने से पहले ही शर्मा जी बोल पड़े


"शर्मा जी!..मर्द हैँ वो...काम चला लेंगे किसी तरह"गुप्ता जी शर्मा जी की तरफ देखते हुए बोले...

"आप उन आँगनवाड़ी में काम करने वाली औरतों की बात क्यों नहीं करते?"


"हाँ!..अभी कुछ ही दिन पहले तो धरना प्रदर्शन किया था...

आँगन वाड़ी महिलाओं ने जंतर-मंतर पर लेकिन कोई फायदा नहीं"

"अपनी सरकार ऐसी गहरी नींद सोयी पड़ी है कि लाख उठाने से भी नहीं उठ रही"मैँ बीच में ही बोल पड़ा


"पता नहीं कैसे इधर उधर से ले-लिवा के गुज़र बरस कर रही होंगी बेचारी...गरीब महिलाएं"गुप्ता जी तरस खाते हुए बोले


"स्टेमिना देखो अगलियों का...

पिछले छै-छै महीने का बकाया है सरकार पर फिर भी नौकरी पे जाना नहीं छोड़ा"अनुराग उनकी तारीफ करते हुए बोला...


"हाँ!..नहीं छोड़ती हैँ नौकरी पे जाना क्योंकि मोटी कमाई होती है वहाँ"शर्मा जी गुस्से से बोले


"मोटी कमाई?...क्या बात कर रहे हैँ?"मेरे स्वर में हैरानी थी...

"वो बेचारी तो गरीब महिलाएँ....


"अजी काहे की गरीब?...

दुनिया भर का सरकारी सामान तो पार कर ले जाती हैँ अपने घर"मेरी बात बीच में ही काट शर्मा जी आगे बोले...


"सामान?...कौन सा सामान?"अनुराग चौंकता हुआ बोला...


"अरे!...वही सब सामान जो उनको दिया जाता है वर्ल्ड बैंक और....

ना जाने किन-किन संस्थाओं की तरफ से गरीबों में मुफ्त बाँटने के लिए"

"और वो भर रही होती हैँ उस सब से अपना पेट्टा"शर्मा जी उनकी पोल खोलने के मूड में आ चुके थे


"अपना पेट्टा माने?"अनुराग के चेहरे पे सवाल था...


"अपना पेट्टा माने...अपना घर"मैँ उस मूर्ख को समझाते हुआ बोला

"हमारे मोहल्ले में भी कईयों ने खुद अपने घरों में ही दुकान खोल रखी है इस सब सामान की"...

"कुछ-एक तो औने-पौने में ही मोहल्ले के बनिए को दे दा के निबट लेती हैँ कि...

कौन कंबख्त पूरा दिन झक्क मारता फिरे रुपल्ली-दो रुपल्ली फाल्तू के लिए"मैँ बोलता चला गया


"तो क्या सभी ऐसी हैँ वहाँ?"अनुराग पूछ बैठा...


"ऐसा मैँने कब कहा?"...

"लेकिन...आटे के साथ घुन्न भी पिस ही जाया करता है"मैँने जवाब दिया...


"सही है!..एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है"शर्मा जी अपने चिरपरिचित अन्दाज़ में बोले


"ऐसा नहीं करें तो कैसे पालें अपने बच्चों को?"हम सब को एक तरफ हुआ देख मैडम आवेशित होते हुए बोली...

"गुरुद्वारे में जा के लंगर छक्कें रोज़ाना?"...

"या फिर राजीव!...हर महीने तुम खुद ही क्यों नहीं पहुँचा देते उनके घरों में राशन-पानी?"


"बस मैडम जी!..बस"...

"बहुत बोल ली आप...अब चुप...एकदम चुप्प...कोई आवाज़ नहीं"

"बहुत फुटेज खा ली आपने....अब मेरी बारी है"...

"कान खोल के सुन लो सभी"..

"कोई टांग नहीं अड़ाएगा इस बार"...

"हद हो गई...सबकी"...

"जिसे देखो जब चाहे मुँह उठा के नए-नए डॉयलॉग इज़ाद कर अपने अन्दाज़ में बोलना शुरू कर देता है"...

"वो भी बिना अपनी बारी के"...


"क्या यही तय हुआ था हम में?..

"उस टाईम तो ये राजीव का बच्चा बड़ा कह रहा था कि...सबको बराबर रोल दूंगा"....

"टीम स्पिरिट से काम होगा वगैरा वगैरा"...

"कहाँ गई टीम स्पिरिट?...कहाँ गई यारी-दोस्ती?"अनुराग ऐसा उखड़ा कि उखड़ता ही चला गया...


"अच्छा बाबा!...तुम भी कर लो अपनी हसरत पूरी".. .

"हम कुछ नहीं कहेंगे...अब खुश?"शर्मा जी उसे शांत करते हुए बोले


"जी"अनुराग के चेहरे पे हल्की सी मुस्कान तैर उठी...


"क्या सोचने लगे अनुराग?"...

"आगे बढो..लेकर अपनी नई कहानी"गुप्ता जी ने उसका हौंसला बढाया...


"कहानी?...गुप्ता जी ये कहानी...कहानी नहीं...हकीकत है"अनुराग भूमिका सी बाँधता हुआ बोला...



"हाँ!..हाँ बताओ अनुराग...क्या कहना चाहते हो?"मैडम उत्सुकता भरे स्वर में बोली....

"कौन सा कांड?....क्या हुआ था?"काफी देर से चुप मैडम के साथ बैठे सज्जन मानों नींद से जाग उठे


"बताओ...क्या हुआ था?"सबकी निगाहें अनुराग के चेहरे पे आ के रुक गई..


"घोर अनर्थ".....

"राम ...राम!...घोर अनर्थ हुआ है"अनुराग मेरे कानों को हाथ लगाता हुआ बोला


"बेवाकूफ!...अपने कान पकड़...मेरे क्यों पकड़ रहा है?"


"ओह!...सॉरी...बॉय मिस्टेक....सॉरी...सॉरी अगेन"अनुराग सकपका कर मेरे कान छोड़ता हुआ बोला


"सोच के भी जी सिहर उठता है"अनुराग फिर शुरू हो गया


"कुछ बताओगे भी या यूँ ही घोर अनर्थ...घोर अनर्थ का जाप करते रहोगे"

"सीधी तरह बताओ ना...क्या हुआ था "अनुराग को हीरो बनते देख मुझे मजबूरन उसे टोकना ही पड़ा


"आखिर हुआ क्या?...पता तो चले"शर्मा जी भी पूछ बैठे...


"अब क्या बताऊँ?...कैसे बताऊँ?"

"अभी तक जी मिचला रहा है"अनुराग कसैला सा मुँह बनाता हुआ बोला


"ले स्साले!..कर ले जी भर के उल्टी"कहते हुए मैँने जबरन अनुराग की मुण्डी पकड़कर उसे खिड़की की तरफ धकेला ...


"क्या कर रहा है बेवाकूफ?....छोड़ मुझे"अनुराग ने कसमसा कर मेरी पकड़ से छूटने की कोशिश की...


"राजीव!...छोड़ो उसे...छोड़ो"...

"सुनाई नहीं दे रहा क्या?"शर्मा जी का गुस्से से लालपीला होता हुआ चेहरा देख मेरी पकड़ ढीली पड़ गई


"अब कुछ बकोगे भी या....यूँ ही बेफाल्तू में"उसे चुप देख मुझे ज़ोर से चिल्लाना पड़ा


"रेलगाड़ी से कटकर पूरी चौबीस गाएं मर गई गन्नौर स्टेशन के पास"....


"कब?....."

"कैसे?..."

"क्या बात कर रहे हो?"सबके चेहरे पे सवाल मंडरा रहे थे...


"शुभ-शुभ बोल...क्यों संध्या के वक्त मज़ाक कर रहे है?"गुप्ता जी अविश्वास भरे स्वर में कानों को हाथ लगाते हुए बोले


"सच्ची!...कसम से....काले कुत्ते की कसम"अनुराग कानों को हाथ लगाता हुआ बोला...


"बाप रे!...क्या भयंकर नज़ारा रहा होगा ना?"मैडम की आँखें फैल कर चौड़ी हो चुकी थी


"ओह...शिट!...मैँ क्यों नहीं था वहाँ?"मैँ अपने आप से ही बात करता हुआ बोला


"चारों तरफ खून ही खून...इधर उधर बिखरी पड़ी लाशें"...

"आँते तक बाहर निकली पड़ी थी कईयों की तो"

"तडप-तड़प के जान निकले रही थी बेचारी गायों की"अनुराग मानों किसी हॉरर फिल्म की कहानी सुना रहा था ....

"लोग बस चुपचाप खड़े तमाशा देखने के अलावा कुछ नहीं कर रहे थे"...


"तुम क्या कर रहे थे?"...

"तुम भी तो वहीं ही थे ना?"मैँ अनुराग के चेहरे के भाव पढता हुआ बोला


"हाँ!..था तो वहीं"...


"फिर...कुछ किया क्यों नहीं?"..


"कसम से!..अगर मुझे शादी में नहीं जाना होता तो...अपने बूते लायक मदद तो ज़रूर करता"अनुराग लीपापोती करता नज़र आया


"हुँह!...सब कहने की बाते हैँ"....

"मौका पड़ने पर सभी पीठ दिखा इधर उधर हो लेते हैँ"मैँ मज़ाक सा उड़ाते हुए बोला


"अरे यार!..समझा कर ...कल ही ड्राईक्लीन कराया था सूट"...

"खराब हो जाने का डर नहीं होता तो...कसम से.....कुछ ना कुछ जुगाड अवश्य करता"


"ड्राईवर स्साला!...अन्धा था क्या?"काफी देर से हमारी बातें सुन रहे सज्जन बोल उठे


"वो भी क्या करता बेचारा?"...

"अगले ने चेतावनी के लिई कई बार हूटर(Hooter) तो बजाया था"अनुराग ने उत्तर दिया....


"हाँ-हाँ!...गाएं बेचारियों ने तो जैसे म्यूज़िक में 'संगीत विशारद' की डिग्री ली हुई थी ना...

जो उन्हें 'हूटर' की मधुर ध्वनि का पता होता"मैँ अनुराग की बात सुन तड़्प कर बोला


"हूटर बजते ही घबरा के बिदक खड़ी हुई होंगी बेचारी निरीह गाएं"शर्मा जी अफसोस प्रगट करते हुए बोले...


"बिलकुल!..यही हुआ होगा"गुप्ता जी भी हाँ में हाँ मिलाते हुए बोल पड़े


"अब इन बेचारी भोली गायों को क्या पता कि ये हूटर-शूटर किस बला का नाम है"मैडम ने भी हमारा साथ दिया...


"उन्होंने तो तेज़ आवाज़ सुनी होनी है और...

बस घबरा के जिधर रस्ता दिखा होगा...भाग खड़ी हुई होंगी"गुप्ता जी भी कहाँ चुप रहने वाले थे


"अरे!..अगर भाग जाती तो ये सारा लफड़ा थोड़े ही होता"अनुराग ने जवाब दिया...


"फिर?"सबके चेहरे पे सवालिया निशान ...


"इधर ड्राईवर ने हूटर बजाया...उधर गायों में अफरा तरफी मची"...

"बेचारी पता नहीं क्या सोच आगे की ओर दौड़ ली सारी की सारी"अनुराग कहानी में रोमांच भरता हुआ बोला...


"स्साले!..ड्राईवर को एमरजैंसी ब्रेक लगाना था ना"मैडम के साथ बैठे सज्जन को ताव आ चुका था ...


"वोही तो लगाई थी....तभी तो सिर्फ चौबीस का ही काम तमाम हुआ है"अनुराग ने जवाब दिया....

"नहीं तो..पक्का!...गई थी कई सौ लपेटे में"...

"सोचो!...तब कितना बुरा हाल होता"अनुराग हम सभी की तरफ देखता हुआ बोला


"बस!..इसी अफरा तफरी में इंजन तक पटरी से उतर गया"


"ऐसी...'डीरेलमैंट'तो पहले कभी सुनी नहीं"शर्मा जी बोल उठे

"एक आध जानवर तो यदा-कदा आता ही रहता है गाड़ी के नीचे लेकिन इतनी बडी संख्या में...बाप रे.."


"सोच के ही मन कांप उठता है..."गुप्ता जी मन ही मन सीन की कल्पना करते हुए बोले


"गायों के साथ कोई उनके वली-वारिस नहीं थे क्या?"शर्मा जी अनुराग से पूछ बैठे...


"थे क्यों नहीं!...पूरे पाँच गडरिए हाँक रहे थे गायों को"...


"उन्होंने बचाने की कोशिश नहीं की?"मैडम अनुराग का ही मुँह ताक रही थी...


"बचाने की?...उनकी तो अपनी जान ही आफत में फंसी पड़ी थी"

"ऐसे दुमदबा के भागे कि फिर कहीं नज़र ही नहीं आए"


"जो नुकसान होना था!...सो तो हो चुका था....

फिर उन गडरियों को भागने की क्या ज़रूरत थी?"बात मेरे पल्ले नहीं पड़ रही थी


"ज़रूरत क्यों नहीं थी?"...

"कुछ पता भी है कि रेलवे का डण्डा कितना तगड़ा है?"...


"मतलब?"दहिया चौंका...


"फी गाय के हिसाब से एक लाख रुपए का जुर्माना है"...

"सोचो कि चौबीस गायों के पूरे चौबीस लाख हो गए"...

"और फिर!..चौबीस लाख से ही छुटकारा कहाँ मिलने वाला था?"..


"क्या मतलब?"अब शर्मा जी चौंके...


"बाकी गाएं जो बच गई...उन्हें भी रेलवे ने जब्त कर लेना था और...

उन पाँचों गडरियों ने कई साल अम्बाला जेल की चक्की पीसनी पड़ती...सो अलग"


"ओह!..."हम सब के मुँह खुले रह गए


"मुझे तो सब ड्राईवर की ही साजिश मालुम होती है"मैडम के साथ वाले बेनाम सज्जन बोले...


"सुना है कि...कटुआ है ड्राईवर"अनुराग धीमी आवाज़ में मानों राज़ सा खोलता हुआ बोला...


"इसीलिए परवाह नहीं की होगी पट्ठे ने "बेनाम सज्ज्न बात को मज़हबी रंग देते हुए बोले


"सही कह रहे हो आप...अगर हिन्दु होता तो....

सवाल ही नहीं पैदा होता कि इतना बड़ा कांड उसके रहते हो जाता"गुप्ता जी ने हाँ में हाँ मिलाई...


"असल हिन्दू अपनी जान दे देगा लेकिन 'गौ माता' पे कोई आँच नहीं आने देगा"शर्मा जी भी गौ वन्दना में शामिल हो लिए


"चारों तरफ चीखपुकार मची थी"अनुराग बातचीत में खुद को पीछे छूटता देख बोला....


"सब स्साले!..नामर्द कहीं के....चुपचाप खड़े तमाशा देख रहे होंगे"मेरा गुस्सा मुझे बोलने पे मजबूर कर रहा था...

"कोई माई का लाल उन बेचारी गायों को बचाने आगे नहीं आया होगा"...

"शिट..शिट....शिट!...मैँ क्यों नहीं था वहाँ?"मुझे खुद से ग्लानी हो रही थी...


"मूक जानवर जो ठहरी...सो कौन बचाता"मैडम जी हमदर्दी से बोली...


"हाँ!..यही कसूर था उनका"...

"बेज़ुबान की आवाज़ सुने भी तो कौन?"शर्मा जी ने उदासी भरे स्वर में कहा...


"सुन रही हो ना मेनका?...या 'जोधा-अकबर' से ही फुरसत नहीं मिली अभी तक?"

"अचानक मुझे पता नहीं क्या हुआ और मैँ एमरजैंसी विण्डो से बाहर झांकते हुए ज़ोर से चिल्ला पड़ा"....


"सही कह रहे हो!....

बड़ा उछल-उछल कर जोधा अकबर का विरोध कर रही है आजकल"शर्मा जी पुन:अखबार खोल के दिखाने लगे

"ये देखो!...साफ लिखा है कि ...

'जोधा अकबर' में जानवरों के साथ अत्याचार किया गया है फिल्म के निर्माण के दौरान"


"हाथी...ऊँट...घोड़ों...चील...कबूतरों को भूखा रख कर उनसे ज़बरदस्ती काम लिया गया है"मैँ अखबार पढता हुआ बोला


"हुह!...उन्होंने खुद मेनका के 'जानवरी थाने' में 'एफ.आई.आर' लिखवाई होगी"गुप्ता जी उपहास सा उड़ाते हुए बोले


"सब स्सालों को!.. पब्लिसिटी चाहिए"

"बड़े-बड़े सैलिब्रिटी नाम जो जुड़े हुए हैँ फिल्म के साथ"शर्मा जी बोले


'आशुतोष गौरीकर...ह्रितिक रौशन...एश्वर्या राय बच्चन वगैरा...वगैरा"मैँ अखबार में लम्बी फेहरिस्त पढता हुआ बोला

"उन्होंने करोड़ों फूंक दिए एक उम्दा फिल्म बनाने में और...लोग हैँ कि विरोध पे विरोध"...


"अब जैसा उसने स्कूल कालेज की किताबों में पढा...वैसी फिल्म बना दी"

"अब ये क्या बात हुई कि जोधा..अकबर की बीवी नहीं...बहू थी"...

"अब..थी तो थी"मैडम जी बोली


"क्यों गढे मुर्दों को हवा दे फिल्म से जुड़े हर छोटे-बड़े शक्स की नींदे हराम कर रहे हो?"मैँ गुस्से से भरा बैठा था

"सीधे-सीधे वैसे ही माँग लो ना आशुतोष से"...

"पक्की बात है...जितने मांगोगे...दे देगा"...


"कभी बिना रोए माँ ने कभी दूध पिलाया है?...जो आशुतोष पिला देगा?"शर्मा जी मेरी तरफ देखते हुए बोले


"और चारा भी क्या है उसके पास?"बेनाम सज्जन बोल उठे ...


"वो बेचारा भी सोच लेगा कि जहाँ इतने करोड़ फूंक दिए..वहाँ एक दो और स्वाहा सही"शर्मा जी सहमति जताते हुए बोले


"हाँ यार!...ये बात तो मैँने सोची ही नहीं"मैँ मन ही मन सोचता हुआ बोला

"वैसे देखा जाए तो कुछ गलत भी नहीं हैँ वो लोग"...

"आखिर राजपूत हैँ....उन्ही के चरित्र को तोड़-मरोड़ के पेश किया गया है फिल्म में"...

"वो भी बिना उनकी सहमति के"...

"मानहानि के बदले कुछ करोड़ पे तो हक बनता ही है उनका"मेरी आँखों में लालच साफ चमकने लगा था

"राजपूत ना हुआ तो क्या?...उनके घर ब्याहा तो ज़रूर गया हूँ"...


"आखिर!..ये हादसा हुआ कब?"काफी देर से चुप मैडम अनुराग से पूछ बैठी...


"यही कोई!..शाम के साढे छै बजे"....


"मेरा मतलब कितने दिन पहले से था?"


"ओह!..अब ठीक से तो याद नहीं लेकिन अन्दाज़ा है कि...

जब ट्रेन से अठारह लोग मरे थे...उससे कुछ दिन ही पहले हुआ था ये हादसा"


"और तुम अब बता रहे हो...इतनी देर से चुप लगाए क्यों बैठे थे?"...

"पहले क्यों नहीं बताया?"...

"शर्मा जी!..आपके सामने ही तो है...

कई बार कोशिश की लेकिन हर बार मेरी बात बीच में काट ..ये राजीव कोई और ही कहानी शुरू कर देता था"...

"बोलने का मौका ही कहाँ दे रहा था?"

"ये तो जब देखा कि पानी सर के ऊपर से गुज़रने वाला है..तो मैँ भड़क उठा और....

आप सब के कारण इसे मजबूरन मुझे मौका देना पड़ा"

"वर्ना इसका बस चले तो खुद ही पूरी कहानी पे छाया रहे"


"खैर छोड़ो!...आगे बताओ..क्या हुआ था"..


"कोई पता नहीं इसका कि फिर शुरू हो जाए"अनुराग मुझे घूरता हुआ बोला


"सर्दी की वजह से घुप्प अन्धेरा हो चुका था और ट्रेन बीच जंगल के खड़ी थी"अनुराग का फिल्मी स्टाईल फिर शुरू हो गया....


"पैसैंजर ट्रेन जो ठहरी...सो!...किसी ने परवाह नहीं की होगी"शर्मा जी कह उठे...


"हाँ..सवारियां बेशक जिएं चाहे मरें....किसी को कोई फिक्र नहीं"गुप्ता जी बोले


"ये स्साली!...बकवास 'इंडियन रेलवे'...कोई टॉयलेट-शायलेट भी तो नही होता ना पैसैंजर ट्रेन में"...

"ऊपर से रात का समय ठहरा...बच्चे और मर्द तो पटरी किनारे खड़े-खड़े निबट लिए लेकिन ..

ये औरतें बेचारी जाएं भी तो जाएं कहाँ"अनुराग औरतों पे तरस खाते हुए बोला...


"क्यों!...वैसे तो बड़ी हम मर्दों से बराबरी करती फिरती हैँ"गुप्ता जी मैडम की तरफ ताकते हुए तैश में बोले

"निबट के दिखाएं ना यूँ ही सड़्क किनारे...तब पता चलेगा"


"हाँ...हाँ..तुम स्साले मर्द तो यही चाहते हो"मैडम अचानक बिफर पड़ी


"कोई 'शर्म-ओ-हया' ही बाकी नहीं रही तुम मर्दों में"...

"हम ही मिलती हैँ इन्हें अपनी मर्दानगी दिखाने को"उनका बोलना जारी था

"अरे!..अगर असली मर्द हो तो बचाया क्यों नहीं गायों को?"..

"क्यों चुपचाप बैठ के तमाशा देखते रहे?"


"क्या करता मैँ?"...

"और क्या कर लेती आप?"...

"कुछ खबर भी है कि कितना बुरा हाल था?"...

"सबकी ऊपर की सांस ऊपर और...नीचे की सांस नीचे अटकी पड़ी थी"अनुराग अपने रोल पे मैडम को हावी कैसे होने देता


"भूख के मारे जान निकली जा रही थी बेचारे बच्चों की" ...

"उन्हें देखते या फिर देखते उन मरणासन्न गायों को?"...

"जिनका जीना...अब जीना नहीं रहा था"...

"किसी की अगली...तो किसी की पिछली टांगे कटी पड़ी थी"...

"किसी-किसी का तो धड़ ही बाकी बदन से अलग पड़ा-पड़ा तड़प रहा था"..

"कोई-कोई तो बीच से ही दो-फाड़ हुई पड़ी थी"

"अगर कुछ ना कुछ कर के किसी तरीके से उन्हें बचा भी लिया जाता..तो भी भला वो किस काम की थी?".....

"मैडम जी!..गाय-भैंस को पाला जाता है घी-दूध और दही के लिए और वो ये सब देने-दिलाने के काबिल ही नहीं रही थी"...


"अंतिम समय में सेवा तो कर ही सकते थे उनकी?"....


"मैडम जी!...अंतिम समय में सेवा की जाती है इनसानों की...

और वो भी उन इनसानों की..जो अपने सगे हों..गैर नहीं...और...

सगे भी वो..जो तगड़ा माल-पानी संभाले बैठे हों आखिर तक कि....

जाते जाते अपनी सारी जायदाद वसीयत में हमारे नाम कर जाएं"


"हुँह!..ऐसी फोक्की सेवा गई तेल लेने"...

"ऐसी सेवा का क्या करना है जिससे..मेवा ही ना मिले?"


"क्या यार!...ये कहानी है या क्या?"...

"कभी कोई किरदार आपस में भिड़ पड़ता है तो कभी कोई"...

"हद हो गई बेवाकूफी की"बेनाम सज्जन गुस्से से भर चिल्लाते हुए बोले


"अनुराग!...तुम्हें अपनी कहानी कहनी है तो...चुपचाप अपने मतलब से मतलब रखो"...

"कोई कुछ भी बोलता रहे...तुम ध्यान मत दो"शर्मा जी अनुराग को समझाते हुए बोले...


"ठीक है शर्मा जी!..जैसा आप उचित समझें"...

"अब मेरी तरफ से आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा"..


"ठीक है!...फिर कहो...जो कहना चाहते हो"..


"कोई चना दाल...कोई आलू चिप्स वाला तक नहीं दिखाई दे रहा था"अनुराग फिर शुरू हो गया..


"वो सब भी तो अपना माल निबटा निकल लिए होंगे पतली गली से"मैँ भी लीपापोती सी करता हुआ बोला


"घबराहट में लोग मदद के लिए धड़ाधड़ स्टेशन पर फोन मिलाए जा रहे थे लेकिन किसी का फोन मिले तब ना"....


"और मिले भी तो कैसे?...बिज़ी ही इतना जा रहा होगा"गुप्ता जी बोल उठे


"भूले भटके अगर किसी एक-आध का नम्बर मिल भी गया होगा तो चीख पुकार और होहल्ले के बीच ना तो...

आप्रेटर को इनकी आवाज़ सुनाई दी होगी ढंग से और ना ही इन्हें आप्रेटर की"शर्मा जी लगातार बातचीत में हमारा साथ दे रहे थे ...


"बार-बार एक सा जवाब देते देते तंग आ कर...

उधर से भी रिसीवर क्रैडिल से हटा कर टेबल पे रख दिया गया होगा"मैँ कुछ सोचते हुए बोला...


"जो भी फोन मिलाए...सिवा 'अंगेज़ टोन' की घूँ घूँ के अलावा कुछ नहीं" ..

"बार बार डायल करने के चक्कर में कईयों की बैटरियाँ चूं तक बोल गई"अनुराग आगे की कहानी सुनाता हुआ बोला

"कुछ तो कोई और चारा ना देख हैड फोन लगा म्यूज़िक सुन कर टाईम को पास करने की कोशिश में थे"......


"लेकिन इस तरह के टैंशन भरे माहौल में संगीत के मधुर सुरों ने भी कहाँ आनंद दिया होगा?"मैडम अनुराग की तरफ देखती हुई बोली


"अब बेचारे पैसैंजर...सुनसान जंगल में करते भी तो क्या?..

"कुछ ना कुछ तो चाहिए था ना टाईम पास के लिए"मैँ मैडम की जिज्ञासा शांत करता हुआ बोला


"कुछ एक हिम्मत वाले तो पैदल ही निकल लिए थे वापिस गन्नौर की तरफ"अनुराग मेरी बात को भाव ना देने की गरज़ से आगे बोल पड़ा


"बाकी क्यों नहीं गए?"..मैडम के चेहरे पे फिर एक सवाल


"ढाई तीन किलोमीटर तक पैदल चलना हर किसी के बस का कहाँ है? ...जो हर कोई निकल लेता"

"बाकि सब कोई चारा ना देख चुपचाप वहीं बैठे रहे".....


"पीछे से कोई गाड़ी नहीं आई मदद के लिए?"मैडम के चेहरे पे फिर एक नया सवाल...



"मदद के लिए आती भी कैसे?...सिंगल लाईन होने की वजह से...

पीछे से आने वाली सारी गाड़ियाँ रोक दी गई होंगी"अनुराग के बोलने से पहले ही मैँने ही झट से मैडम की जिज्ञासा शांत कर दी


"कोई और चारा ना देख सबको मजबूरन सब्र के साथ बैठना पड़ रहा था"...

"कुछ एक तो छड़े मलंग तो ताश के जरिए टाईम पास करने की कोशिश कर रहे थे"....

"कुछ के अलावा सबके के चेहरे निराश से दिखाई दे रहे थे"...


"क्यों?...क्या कुछ खुश भी हो थे इस सब झमेले से?"मैडम हैरान होती हुई बोली


"और नहीं तो क्या..."अनुराग ने मुस्कुरा कर जवाब देना चाहा


"एक तो वैलैनटाईन का महीना....ऊपर से साथ बिताने को बोनस स्वरूप चार-पाँच घंटे एक्स्टरा"...

"और क्या चाहिए आजकल के युवा जोड़ों को?"मैँने हँस कर जवाब दिया


"ह्म्म!...सही कह रहे हो...बात में वज़न है तुम्हारी"मैडम भी मुस्कुरा उठी....


"खाक वज़न है?....नाक काटे डाल रहे हैँ सरासर अपने माँ बाप की"हम दोनों में खिचड़ी से पकती देख बेनाम सज्जन बिफर उठे...


"उनके अरमानों को यूँ सरेआम रौंदे डाल रहे हैँ"गुप्ता जी भी उनसे सहमत होते हुए बोले

"घर बैठे माँ बाप तो बेचारे यही सोच रहे होंगे कि उनके लाडले पढाई में जुटे हैँ"...

"आगे चलकर माँ-बाप का नाम रौशन करेंगे"...


"माँ दा सिर रौशन करेंगे"शर्मा जी को भी गुस्सा आ चुका था...


"वहाँ कोने की अंधेरी सीटों पर पूरे खानदान के नाम का फातिया पढा जा रहा होगा और..

घरवाले सोच रहें होंगे कि घर का चिराग रौशन हो रहा है"बेनाम सज्जन बोल उठे


"हुह!....पापा कहते हैँ ..बड़ा नाम करेगा...बेटा हमारा घणा सुथरा काम करेगा..."


"अगले दिन मैँने देखा कि कुछ ट्रैक्टर-ट्रालियाँ आई खड़ी हैँ और...

दिनरात एक कर के लाशॉं को ढोने में जुटी हैँ"अनुराग आगे की कहानी ब्याँ करता हुआ बोला

"कुछ एक गाएं तो तब भी तड़प रहीं थी"अनुराग की आँखों से आँसुओं की महीन रेखा बह निकली


"रेलवे वाले रहे होंगे"...

"नहीं!...उन्हें कहाँ फुरसत थी कि इतनी जल्दी सब माल-मसाला समेट लेते"अनुराग रुमाल से अपनी आँखे पोंछता हुआ बोला

"किसी को कहते सुना था कि बाहरले राज्य से खबर लगते ही कसाई दौड़े चले आए रात को ही"...

"वोही ले जा रहे थे चोरी छुपे...वो भी दिन दहाड़े"...

"कोई रोकने-टोकने वाला जो नहीं था"


"रेलवे पुलिस ने भी नहीं रोका?"...

"नहीं?"..


"वजह?"मैडम ने सवाल किया...


"पब्लिक समेत बो भी यही चाहते थे कि जितनी जल्दी हो सके..ये कूड़ा-करकट साफ हो"

"पूरा माहौल में तगड़ी दुर्गंध जो भरी पड़ी थी...साँस लो तो भी उबकाई आने को हो रही थी"


"ये तो सरासर गलत बात है"ना चाहते हुए भी मेरा गुस्सा...मेरा अफसोस एक साथ मेरे चेहरे पे हावी हो चुका था


"क्यों?"अनुराग मेरी तरफ देखने लगा...


"ओह!..शिट...मुझे होना चाहिए था सबसे पहले वहाँ"मैँ अनुराग की बात अनसुनी करते हुए बोल पड़ा


"तुम!...तुम क्या कर लेते?"शर्मा जी के चेहरे पे ऐसा सवाल था जिसका मैँ जवाब नहीं देना चाहता था


"मैँ चुप रहा...उन्होंने फिर पूछा...लेकिन मैँ चुप रहा"...

"तुझे मेरी कसम...बता क्या बात है?"...


"शर्मा जी!...कम से कम तीन सौ से ..चार सौ किलो के बीच...

वज़न रहा होगा ना एक एक गाय का?"मैँ उल्टा शर्मा जी से प्रश्न कर बैठा


"हाँ!...इतना तो रहा ही होगा कम से कम"

"क्यों...?"शर्मा जी क्या...किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था...


"शिट..."मुझे होना चाहिए था वहाँ...


"क्यों क्या हुआ?"सबके चेहरे पे यही सवाल था


"मेरे होते हुए ऐसा घोर अन्याय?"....

"पाप चढेगा स्सालों को...पाप"

"पता नहीं कैसे बेदर्दों ने बेरुखी से लादा होगा उन बेचारी तड़पती गायों को"

"मुझे पता होता तो मैँ खुद ही आराम से ...सेवा भाव से सीधा गाज़ी पुर की कसाई मण्डी छोड़ आता लेकिन...

मजाल है जो किसी को इतना तड़पने देता"....


"बात तो एक ही है...उन्होंने पहुँचाया या फिर तुमने पहुँचाया...क्या फर्क पड़ता है?"


"अरे वाह!..एक ही बात कैसे है?...और फर्क क्यों नहीं पड़ता है?"...

"वे ले गए तो माल उनका हुआ...मैँ ले जाता तो सारा मालपानी मेरे पल्ले आता"


"शर्म कर राजीव!...शर्म कर..गऊ माता के लिए ..ऐसे शब्द?"...

"राम-राम...तौबा तौबा"...

"छी!..कितने गन्दे विचार हैँ तुम्हारे...छी"...

"हमें पता होता तो हम कभी तुझसे किसी भी किस्म का नाता नहीं रखते"


"शर्मा जी!..आप भी ज़रा सी बात का बतंगड़ बनाने पे तुले हैँ"...

"वो कमा जाएं तो ठीक?"...और राजीव कमाए तो पाप?"...

"वाह!..मान गया शर्मा जी आपको"...

"क्या पते की बात कर रहे हैँ आप..वाह"

"रोज़ ही तो हज़ारों जानवर कटते हैँ...

चौबीस नग मेरी तरफ से बढ जाते तो कौन सी ज़मीन फट जाती?...या कौन सा भूचाल आ जाता?"

"हुँह...बेकार में ...फोकट में कई हज़ार गवाँ बैठा"मेरे चेहरे पे लालच का परचम लहराता देख सभी अवाक हो मेरी शक्ल देख रहे थे


"सब साले!...मुफ्त में उठा के ले गए"मैँ किसी की परवाह ना करता हुआ बोले चला जा रहा था


"वाह!...वाह राजीव बाबू....वाह"...

"क्या कहने तुम्हारे....वाह"

"पलट के देखा तो पीछे कम्मो खड़ी थी. ..मेरी कहानी की जान"...

"पता नहीं पागल की बच्ची..कब से पीछे खड़ी-खड़ी हमारी बातें सुन रही थी"


"सब सुन लिया है मैँने...और सब देख भी लिया है कि कौन कितने पानी में है"..

"उस दिन तो बड़ा नेक चलनी का पाठ पढा रहे थे ना मुझे कि मैँ ऐसी हूँ...मैँ वैसी हूँ"...

"अब ये क्या है?".....


"अरे!...मैँ तो अपने बच्चों की खातिर ये सब गलत-शलत काम करती हूँ"...

"बच्चे मेरे ठीकठाक पल जाए बस..और कोई लालच नहीं है मुझे"...

"आज मेरा घरवाला सुधर जाए और कमाने-धमाने लगे तो...आज ही मैँ ये गन्दा काम छोड़ दूँ"...

"कोई मैँ अपनी खुशी से इस धन्धे में नहीं उतरी"...

"मुझे इस धन्धे में तेरे जैसा ही कोई सफेदपोश लाया"...

"कहने को तो उसने मुझे अपने दफ्तर में सैक्रेटरी के पद पर रखा था"...

"मैँ भी बहुत खुश थी कि...चलो ढंग की नौकरी तो मिली"

"सबकुछ ठीकठाक चल रहा था"...

"मैँने अपने बच्चों का एक अच्छे स्कूल में एडमिशन भी करवा दिया था"...

"एक दिन मालिक ने मुझे दो घंटे देर तक काम करने को कहा और वायदा किया कि ओवरटाईम के एक्स्ट्रा पैसे मिलेंगे"..

"मैँ पैसों के लालच में मान गई"

"मुझे क्या पता था कि उसकी नीयत में खोट है...हर समय मुझे बेटी-बेटी कह के ही तो पुकारता था वो"

"मैँने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि ओवरटाईम के बहाने मुझे देर रात तक रोके रखने के पीछे उसकी मंशा कुछ और ही थी"

"उस रात जो मेरे साथ हो हुआ...भगवान ना करे कि ऐसा कभी किसी के साथ हो"

"उस रात उसने अपने तीन दोस्तों को भी बुला लिया था और ...उन सभी ने बारी-बारी....."कहते हुए कम्मो फफक कर रो पड़ी


"मैँ कुछ ना कर सकी"...

"ये सब मैँ सहन ना कर सकी और बेहोश हो गई"...

"जब होश आया तो देखा कि वो जा चुके थे और जाते-जाते पाँच सौ रुपए मेरे पास फैंक कर चले गए थे"...

"कुछ देर मैँ चुपचाप रोती रही...फिर कुछ ठान मैँने ज़मीन पे पड़ा पाँच सौ का नोट उठाया और अपने घर चली गई"...

"किसी को कुछ नहीं बताया"...

"बता कर फायदा भी क्या था?"...


"ज़्यादा से ज़्यादा पुलिस के पास जाती"...

"लेकिन पुलिस के पास जाती भी तो कैसे?..

"उन चारों में से एक उसी इलाके का 'एस.एच.ओ'जो था "...

"कौन सुनता मेरी शिकायत...मेरी पुकार?"...

"अदालत में झूठे गवाहों के बल पर मुझी को बदचलन साबित कर दिया जाता"...

"तो फिर कौन दिलाता सज़ा उन्हें?"..

"कौन दिलाता न्याय मुझे?"...

"जब देखा कि कुछ नहीं कर पाऊँगी मैँ...कुछ नहीं बिगाड़ पाऊँगी उनका"...

"तो मैँने सोचा कि अगर ऊपरवाले को यही मंज़ूर है ...तो यही सही"


"बस..उसके बाद मैँ कभी उस दफ्तर नहीं गई"...

"मैँने ठान लिया कि जब यही सब होना है मेरे साथ या यही सब करना है मुझे तो किसी की गुलाम बन कर क्यों?"

"बस वो दिन है और आज का दिन है...

आज मैँ अपने पैरों पे खुद खड़ी हूँ और तसल्ली है मुझे कि अपनी मर्ज़ी की खुद मालकिन हूँ मैँ"


"और तू राजीव!..चन्द रुपयों के लालच में अपना धर्म ..अपना ईमान सब बेच खाया तूने?"...

"शर्म आनी चाहिए तुझे"...


"बोल!...बोल तुझे कितने पैसे चाहिए?...मैँ देती हूँ"...

"ले!...और ले..."कहते हुए उसने अपना पर्स खोल सारे पैसे मेरे मुँह पे फैँक दिए...


"उसकी बातें सुन मेरा तना चेहरा कब झुक गया...पता नहीं"....

"वो बोलती रही ...मैँ चुपचाप सुनता रहा"....

"कोई और चारा भी नहीं था मेरे पास"


***राजीव तनेजा***


http://hansteraho.blogspot.com

rajivtaneja2004@gmail.com

Rajiv Taneja

Phone No:+919810821361,+919896397625

5 comments:

Udan Tashtari said...

भले पैसा वापस मत करो मगर ऐसा भी जुल्म न करो भाई...थोड़ा बच्चे की लम्बाई कम कर देते तो ठीक से निहार कर बता पाते कि पैसा वापस चाहिये!!

बुरा न मानें मात्र आदतन सुझाव पुनः दे रहा हूँ..इसका १/४ तक भी चलेगा. :)

Kirtish Bhatt said...

वाकई आपके लेखों की लम्बाई कभी कभी अधिक हो जाती है. और उसे खाली समय में पढने के लिए छोड़ना पढता है.
बुरा न मानें... यह सिर्फ़ सुझाव है. आप ना भी मानें तो भी आपके मज़ेदार व्यंग्य हम पढ़ते तो रहेंगे ही. वैसे इस लेख को में शाम को काम निपटाकर पढूंगा. मजेदार तो होगा ही...हमेशा की तरह.. :)

Anonymous said...

यार राजीव सच में मजा नही आया.कितने पैसे मिलेगे मुझे जरा जल्दी से फोन करके बताना.यार मिल जाऐगे एक आधा लाख.

छोडो यार,अच्छा तमाचा मारा हम सब(समाज) पर.आखिर में मंटो की याद आ गई.

Anonymous said...

भाइजी, पूरा ऊपन्यास लिख डाला, कम्मो के प्यार मेँ ।

Unknown said...

व्यंग कम बोरियत ज्यादा है

 
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