मोमीना - गोविन्द वर्मा सिराज
नई इबारत - सुधा जुगरान
जब भी मैं किसी कहानी संकलन या उपन्यास को पढ़ने का विचार बनाता हूँ तो अमूमन सबसे पहले मेरे सामने ये दुविधा उत्पन्न हो जाती है कि मैं किस किताब से अपने नए साहित्यिक सफ़र की शुरुआत करूँ? एक तरफ़ वे किताबें होती हैं जो मुझे अन्य नए/पुराने लेखकों अथवा प्रकाशकों ने बड़े स्नेह और उम्मीद से भेजी होती हैं कि मैं उन पर अपनी पाठकीय समझ के हिसाब से कोई सारगर्भित प्रतिक्रिया अथवा सुझाव दे सकूँ। तो वहीं दूसरी तरफ़ मुझे अपनी ओर वे किताबें भी खींच रही होती हैं जिन्हें मैंने अपनी समझ के अनुसार इस आस में खरीदा होता है कि मुझे उनसे मुझे कुछ ना कुछ सीखने को अवश्य मिलेगा।
दोस्तों..आज मैं जिस कहानी संग्रह की बात करने जा रहा हूँ उसे 'नई इबारत' के नाम से लिखा है सुधा जुगरान ने।
इस कहानी संग्रह की एक कहानी 'अनाम रिश्ता', उस सविता की व्यथा व्यक्त करती है जो अपने दो बेटों, निक्की और सुहेल को किसी न किसी वजह से खो चुकी है। निक्की को अपने पहले पति अनुपम की अकाल मृत्यु के बाद, अपने दूसरा विवाह करने के निर्णय से और अश्विनी से उत्पन्न, सुहेल को एक बस एक्सीडेंट की वजह से। ऐसे में अपने बच्चों के वियोग में तड़पती सविता की बरसों बाद मुलाक़ात निक्की से होती तो है मगर..
इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'अपना-अपना नज़रिया' में लेखिका हाउसवाइफ भाभी और कामकाजी ननद के आपसी रिश्ते के ज़रिए इस बात को समझाने का प्रयास करती दिखाई देती हैं कि अपने-अपने कार्यक्षेत्र में किसी की किसी से कोई तुलना नहीं की जा सकती। घरेलू कामकाज के ज़रिए घर संभालना और बाहर जा कर जीविका अर्जित करने जैसे कामों का एक जैसा ही महत्व है। इनमें से कोई भी किसी से कमतर नहीं है। इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'अपना घर' में अमीर घर द्वारा गोद ली गयी स्मृति अपने असली माता-पिता के बारे में जानने..समझने के लिए बेचैन है कि उन्होंने उसे पैदा कर के उससे किनारा क्यों कर लिया। गोद लेने वाले माता-पिता से जब उसे उनके बारे में पता चलता है तो वह उनसे मिलने और उनके साथ रहने के लिए उतावली हो उठती है।
इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'आशियाना' में अपनी पत्नी, रूमा के निधन के बाद अकेले रह गए 62 वर्षीय योगेश, अपना समय व्यतीत करने के अपने नौकर के बच्चों को पढ़ाना शुरू तो करते हैं मगर बेटे-बहू की ज़िद पर उन्हें मुंबई, उनके पास रहने के लिए जाना पड़ता है। अब देखना ये है कि बड़े शहर की आबोहवा रास आती है या नहीं। इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'एक साथी की तलाश' में दो दिन पहले रिटायर हुए मधुप उस वक्त परेशान हो जाते हैं जब बरसों से उनकी सेवा कर रहा बिस्वा हमेशा-हमेशा के लिए अपने गाँव जाने की बात करता है। अब देखना यह है कि अपने अहम की वजह से बरसों से अपनी पत्नी श्यामला से अलग रह रहे मधुप क्या अपनी ग़लती महसूस कर अपनी पत्नी के पास वापिस लौट पाएँगे या नहीं।
इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'ख़ामोश कोलाहल' में प्रेम विवाह के बावजूद तन्वी और देवांश के रिश्ते में विवाह के तीन वर्षों के भीतर ही अजनबियत भरा सूनापन अपने पैर पसार चुका है। जिसे दूर करने के लिए दोनों के परिवार मिल कर कुछ ऐसा करते हैं कि उनका आपसी रिश्ता फ़िर से पटरी पर लौट आता है। एक अन्य कहानी 'तार-तार रिश्ते' में
13 वर्षीय संधू और उसका छोटा भाई बंटी उस वक्त खुशी के मारे पुलकित हो उठते हैं जब उन्हें पता चला है कि उनका 20 वर्षीय मामा सोनू, शहर में पढ़ाई के इरादे से उनके घर रहने के लिए आ रहा है। मगर देखना यह है कि दिन पर दिन समझदार होती संधू की वक्ती खुशी बरक़रार रह पाती है अथवा नहीं।
एक अन्य कहानी 'दूर के दर्शन का सुख' में जहाँ 10वीं पास करने के बाद ग़रीब घर का बसंत अपने परिवार का सहारा बनने के इरादे से एक जानकार की मदद से दुबई में नौकरी करने चला जाता है। मगर अब देखना यह है कि घर-परिवार की ज़िम्मेदारी निबटाने के बाद भी वह वापिस घर लौट कर आता है या फ़िर वहीं का हो कर रह जाता है। तो वहीं एक अन्य कहानी 'नई इबारत' एक तरह से स्त्री अधिकारों की पैरवी सी करती हुई प्रतीत होती है। जिसमें घरेलू कामकाज के लिए लेखिका के घर सर्वेंट क्वाटर में रंजना नाम की एक पहाड़ी लड़की अपने तीन बच्चों के साथ रहने के लिए आती है। जिसे उसके पति ने एक तरह से छोड़ रखा है। उसके संघर्ष की कहानी सुनकर लेखिका मन ही मन अपनी बेटी से उसकी तुलना करने लगती है।
इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'नया दौर' में जहाँ एक तरफ़ जब निविधा अपने पति को बताती है कि उसका उपन्यास साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हो रहा है तो वह हर्षित होने के साथ-साथ अपने भीतर ग्लानि का अनुभव भी करता है कि विवाह के बाद वर्षों तक उसने अपनी पत्नी के हुनर को उभरने का मौका नहीं दिया। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी 'फ़क़त रेत' में लेखिका ने एक डायनिंग टेबल के चार पायों के माध्यम से स्त्रियों की स्थिति में पीढ़ियों के साथ आए बदलाव को बतलाने का प्रयास किया है कि किस तरह पहले की स्त्रियाँ अपने माता-पिता एवं पति की बात मान उनकी इच्छानुसार ही चला करतीं थीं। समय के साथ आए बदलाव में अगली पीढ़ी अपने मन की इच्छा का करने का प्रयास तो करती रही मगर पूर्णतया कभी सफ़ल नहीं हो पाई जबकि आज की स्त्री अपने हक़ की लड़ाई को सफलतापूर्वक लड़ने के साथ-साथ सवाल भी कर रही है।
एक अन्य कहानी 'मन भये न दस बीस' में जहाँ 49 वर्षीय उस अविवाहित आरुषि की बात करती है जिसने कैरियर की चाह में अब तक विवाह नहीं किया है। अब उम्र के इस मुकाम पर जब वह एक साथी चाहती तो है मगर हर बार उसकी अफ़सरी की ठसक के बीच में आ जाने से कहीं भी उसकी बात नहीं बन पा रही। तो वहीं इस संकलन की अंतिम कहानी 'रिश्तों का आत्मघात' में जब शरद को उसके पिता की मृत्यु की बाद मकान के स्वामित्व को लेकर चाचा की तरफ़ से कानूनी नोटिस मिलता है वह हैरान रह जाता है कि जिस चाचा को बचपन से उसके पिता ने अपने पिता की मृत्यु के बाद पढ़ा-लिखा कर कमाने-धमाने लायक काबिल बनाया, उसी ने उस मकान पर अपने स्वामित्व के लिए नोटिस भेजा है जिसको बनाने के लिए सारा पैसा उसके पिता ने खर्च किया था।
धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस कहानी संग्रह की कुछ कहानियाँ मुझे थोड़ी सतही या फ़िर भाषण देतीं सी भी लगीं। पढ़ते वक्त कुछ एक जगहों पर प्रूफ़रीडिंग की कमियों के अतिरिक्त कुछ वर्तनी की त्रुटियाँ भी दिखाई दीं।
पेज नंबर 13 में लिखा दिखाई दिया कि..
'उन्हें ऐसा लग रहा था... उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे वह उसे बहुत अच्छी तरह से जानते हैं'
इस वाक्य में 'उन्हें ऐसा लग रहा था' ग़लती से दो बार छप गया है।
पेज नंबर 64 में लिखा दिखाई दिया कि..
'इतने वर्षों बाद अकेले घर में उनका दिल श्यामला की उपस्थिति में अजीब से कुतूहल से धड़क रहा था'
यहाँ 'कौतूहल' की जगह ग़लती से 'कुतूहल' छप गया है।
पेज नंबर 68 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'दोनों अब पाँच साल के रिश्ते को नाम देने का शिद्दत से सोचने की कोशिश कर रहे थे पर सोच पुख़्ता नहीं हो पा रही थी'
यह वाक्य सही नहीं बना। मेरे हिसाब से सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..
'दोनों अब पाँच साल के रिश्ते को नाम देने के बारे में शिद्दत से सोचने की कोशिश कर रहे थे पर सोच पुख़्ता नहीं हो पा रही थी'
पेज नंबर 69 में लिखा दिखाई दिया कि..
'वह कुछ-कुछ छिड़ता हुआ बोला'
यहाँ 'छिड़ता हुआ बोला' की जगह 'छेड़ता हुआ बोला' आएगा।
पेज नंबर 87 में लिखा दिखाई दिया कि..
'पहली बार बसंत के तयेरे भाई मातवर ने यह जानकारी बसंत को दी थी'
इस वाक्य में ग़लती से शायद 'चचेरे भाई' की जगह 'तयेरे भाई' छप गया है क्योंकि 'तयेरे भाई' जैसा शब्द कभी मेरे पढ़ने में नहीं आया।
इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..
'वहाँ यहाँ कि तरह छोटे-मोटे ढाबे नहीं होते'
यहाँ 'कि' की जगह 'की' आएगा।
पेज नंबर 89 में लिखा दिखाई दिया कि..
'दुबई का ऐसा नशा चढ़ा था बसंत को कि ख़्वाबों में भी ख़्याली दुबई ही दिखता'
यहाँ 'ख़्याली दुबई ही दिखता' की जगह 'ख़ाली दुबई ही दिखता' आए तो बेहतर।
इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..
'बस आने के कुछ दिन मातवर भाई ने थोड़ा बहुत घुमा दिया था ख़ास-ख़ास जगह'
यह वाक्य मेरे हिसाब से सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..
'बस आने के कुछ दिनों बाद तक मातवर भाई ने थोड़ा बहुत घुमा दिया था ख़ास-ख़ास जगहों पर'
इससे अगली पंक्ति मुझे सही से समझ नहीं आयी कि उसमें लिखा था कि..
'इस चमकती सुविधा-संपन्न दुबई में साधनहीन भला सामने कहाँ दिखेगा'
पेज नंबर 90 में लिखा दिखाई दिया कि..
'दो साल बाद बसंत का 10वीं पूरा हुआ'
यहाँ 'बसंत का 10वीं पूरा हुआ' की जगह 'बसंत की 10वीं पूरी हुई' आएगा।
इससे अगली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..
'उसके आसपास के जानने में कई लड़के बहरीन, क़तर वगैरह खाड़ी के कई दूसरे देशों में कुक, ड्राइवर, क्लीनर आदि की नौकरी के लिए गए हुए थे'
इस वाक्य में 'उसके आसपास के जानने में कई लड़के' की जगह 'उसके आसपास के जानने वालों में कई लड़के' आएगा।
पेज नंबर 91 में लिखा दिखाई दिया कि..
'जब वह दुबई पहुँचा तो कुछ ही दिनों में उसकी नौकरी एक मॉल के 'कैरफ़ोर' में लग गई'
यहाँ 'उसकी नौकरी एक मॉल के 'कैरफ़ोर' में लग गई' की जगह 'उसकी नौकरी एक मॉल, 'कैरफ़ोर' (कैरिफोर) में लग गई' आएगा।
पेज नंबर 101 में लिखा दिखाई दिया कि..
'और गाहे-बगाहे रंजना के ननद का पति भी'
यहाँ 'रंजना के ननद का पति भी' की जगह 'रंजना की ननद का पति भी' आएगा।
पेज नंबर 104 में लिखा दिखाई दिया कि..
'एक नाबालिग़ से बयान ने उसे इतने वर्षों का वनवास दे दिया'
यहाँ 'एक नाबालिग़ से बयान ने' की जगह 'एक नाबालिग़ के बयान ने' आएगा।
पेज नंबर 105 में लिखा दिखाई दिया कि..
'लेकिन इसके तबके की बात यदि छोड़ दी जाए तो'
यहाँ 'लेकिन इसके तबके की बात यदि छोड़ दी जाए तो' की जगह ''लेकिन इस तबके की बात यदि छोड़ दी जाए तो' आएगा।
पेज नंबर 108 में लिखा दिखाई दिया कि..
'35 की हो गई अनाया को माँ भी नहीं बनना है अभी भी'
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि
'35 की हो गई अनाया को माँ नहीं बनना है अभी'
पेज नंबर 116 का दिखाई दिया कि..
'उसके हाथ तो खज़ाने का नक्शा हाथ लग गया था'
इस वाक्य में दूसरी बार आए 'हाथ' शब्द की ज़रूरत ही नहीं है।
पेज नंबर 122 में लिखा दिखाई दिया कि..
'आज की लड़की माँ ही नहीं बनना चाहती... यह काफी सोचनीय प्रसंग है'
यहाँ 'सोचनीय प्रसंग है' की जगह 'शोचनीय प्रसंग है' आएगा।
पेज नंबर 132 में लिखा दिखाई दिया कि..
'यह एक नई प्रकार के असंतुलन को जन्म दे रहा है'
यहाँ 'नई प्रकार के असंतुलन को जन्म दे रहा है' की जगह 'नए प्रकार के असंतुलन को जन्म दे रहा है' आएगा।
पेज नंबर 132 में आगे लिखा दिखाई दिया कि..
'स्त्रियों से उनकी मनसा नहीं पूछी जाती थी'
यहाँ 'मनसा नहीं पूछी जाती थी' की जगह 'मंशा नहीं पूछी जाती थी' आएगा।
* रोब (जमाना) - रौब (जमाना)
* कुतूहल - कौतूहल
* कोराना काल - कोरोना काल
* अज़माया - आज़माया
अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 157 पृष्ठीय इस बढ़िया कहानी संग्रह के पेपरबैक संस्करण को छपा है अद्विक प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 240/- रुपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
घातक कथाएँ - अलंकार रस्तोगी
व्यंग्य से पहलेपहल मेरा वास्ता/परिचय नवभारत टाईम्स में छपने वाले शरद जोशी जी के अख़बारी कॉलम के ज़रिए हुआ। सरल शब्दों में उनकी लेखनी से निकला एक-एक व्यंग्य मुझे कहीं न कहीं..कुछ न कुछ सोचने एवं मुस्कुराने की वजह दे जाता था और मज़े की बात ये कि तब मुझे पता भी नहीं था कि व्यंग्य किस चिड़िया का नाम है और वो कहाँ..किस जंगल में और किस तरह के घोंसले में पाई जाती है।
शरद जोशी जी के लेखन में मुझे उनके द्वारा इस्तेमाल की गयी सरल भाषा एवं पठनीयता आकर्षित करती थी कि किस तरह गंभीर से गंभीर मुद्दों पर भी वे इतनी सरलता से लिख लेते हैं। दरअसल किसी भी कहानी, लेख, व्यंग्य अथवा उपन्यास में तत्व के साथ-साथ अगर मनोरंजन भरी पठनीयता भी हो तो उसे पढ़ना, समझना एवं उससे कुछ ग्रहण करना आसान हो जाता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए बहुत से लेखक/व्यंग्यकार अपनी बात को यथासंभव सरल तरीके से कहने का प्रयास करते हैं।
दोस्तों... आज मैं सरल भाषा में लिखे गए एक ऐसे ही व्यंग्य संग्रह की बात करने जा रहा हूँ जिसमें व्यंग्यकार अलंकार रस्तोगी ने पुरानी धुन 'जातक कथाओं' (बौद्ध धर्म की कथाएँ) के आधार पर अपनी नई धुन 'घातक कथाएँ' रचने का प्रयास किया है।अनेक पुरस्कारों से सम्मानित लेखक अलंकार रस्तोगी का यह सातवाँ व्यंग्य संग्रह है।
इस संकलन के किसी व्यंग्य में प्यासे कौवे के माध्यम से एक तरफ़ पानी की किल्लत से जूझने का मुद्दा उठाया जाता दिखाई देता है तो दूसरी तरफ़ शहर के पॉश इलाकों में स्विमिंग पूल इत्यादि के ज़रिए पानी की बरबादी पर भी तंज कसा जाता नज़र आता है। कहीं किसी व्यंग्य में साँप के माध्यम से डॉक्टरों द्वारा खामख्वाह के टेस्ट लिखे जाने एवं दलबदलू नेताओं की दल बदलने की आदत पर तंज कसने के प्रयास किया जाता दिखाई देता है।
इसी संकलन के एक अन्य व्यंग्य में गधों द्वारा संगठित होकर अपने उत्पीड़न के खिलाफ़ आवाज़ उठाने का प्रयास किया जाता दिखाई देता है। तो किसी अन्य व्यंग्य में पान मसाला चबाने वालों की भैंसों द्वारा जुगाली करने की आदत से तुलना की जाती नज़र आती है। कहीं भैंसों की बीच इस मुद्दे पर गहन चर्चा होती दिखाई देती है कि अक्ल उनसे छोटी होते हुए भी बड़ी कैसे है।
कहीं किसी रचना में कछुए और ख़रगोश के बीच चुनावी जंग का माहौल बनता दिखाई देता है तो कहीं किसी अन्य रचना में पुरानी रचना के विपरीत एक लोमड़ी गधे को मूर्ख बना अंततः ऊँचाई पर लगे अँगूर पा ही लेती है। कहीं शेर, लोमड़ी और गधे के माध्यम से आम जनता के बार-बार नेताओं द्वारा मूर्ख बनाए जाने की बात का उल्लेख होता नज़र आता है।
कहीं किसी रचना में लेखक गधे के सिर से सींगों के ग़ायब होने वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए राजनीति के लंपट नेताओं का उदाहरण देते नज़र आते हैं कि शरीफ़ दिखने के लिए उन्होंने अपने सींग कटवा कर ग़ायब किए हुए होते हैं। तो कहीं किसी व्यंग्य में जंगल के विभिन्न जानवरों की तुलना उनकी आदतों को ध्यान में रखते हुए इंसान के साथ की जाती दिखाई देती है।
कहीं इंडियन आइडल सरीखे कार्यक्रमों में किसी प्रतिभागी को दीन-हीन दिखा, टीआरपी का खेल खेल जाने पर जनवरों के माध्यम से तंज कसने के साथ-साथ बिल्ली के गले में घंटी बाँधी जाती नज़र आती है। कहीं किसी रचना में कोई कुत्ता नदी में गिरी अपनी रोटी को फ़िर से पाने के लिए मछलियों को बरगलाता दिखाई देता है।
कहीं अजगर, शेर के साथ मिलकर अपनी सात पुश्तों के लिए भोजन का जुगाड़ करता दिखाई देता है। तो कहीं चींटी और टिड्डे के माध्यम से भारतीय राजनीति में सत्तापक्ष द्वारा बाँटे जाने वाले फ्री राशन इत्यादि पर हल्के फुल्के अंदाज़ में तंज कसा जाता दिखाई देता है। कहीं बिल्ली और चूहे का माध्यम से देश में बनने वाले मिलावटी दूध व अन्य चीज़ो के साथ-साथ देश के भ्रष्टतंत्र पर भी कटाक्ष किया जाता नज़र आता है।
कहीं कौवे के काले रंग को ज़रिया बना देश भर में बिक रही फेयरनैस क्रीमों की व्यर्थता पर सवाल उठता दिखाई देता है।
कहीं रोटी के पिछले बँटवारे से आहत बिल्लियाँ आपस में एका कर बन्दर को सबक सिखाने के लिए कमर कसती नज़र आती हैं। तो कहीं नौ सौ चूहे खा कर बिल्ली के हज पर चले जाने वाली कथा के माध्यम से इन्सान की तुलना विभिन्न जानवरों की डसने, रंग बदलने, धूर्तता आदि से की जाती नज़र आती है। कहीं रँगा सियार अपनी पिछली कथा से सबक लेता हुआ इस बार साधु का वेश बना जंगल-जंगल घूम कर अपने शिकार का प्रबंध करता दिखाई देता है।
कहीं बन्दर की नकलची प्रवृति और टोपीवाले की टोपियों से प्रभावित रचना मोदी जी द्वारा वरिष्ठ लालकृष्ण आडवाणी जी को साइड लाइन कर अपने रास्ते से हटाने की घटना पर भी कटाक्ष करती दृष्टिगोचर होती है। साथ ही कुएँ में शेर के प्रतिबिंब और खरगोश की कहानी से प्रेरित एक अन्य रचना में शेर, मीडिया को अपने काबू में कर ख़रगोश की जंगल मे चल रही वर्तमान सरकार के खिलाफ़ अनर्गल एवं झूठी बातें फैला तथा जनता को अच्छे दिनों का झुनझुना दिखा सत्ता पर काबिज़ हो अपने विरोधियों को देशद्रोही बता जेल में ठूँसता दिखाई देता है।
कहीं किसी रचना में अपनी रंग बदलने की खूबी का कॉपीराइट करवाने को आतुर गिरगिट उस वक्त शर्मिंदा हो उठती है जब वो देखती है कि इन्सान तो रंग बदलने की कला में उससे भी ज़्यादा माहिर हो चला है।
इस व्यंग्य संग्रह को पढ़ते वक्त मुझे कुछ एक जगहों पर तथ्यात्मक रूप से ग़लतियाँ दिखाई दीं जैसे कि
पेज नंबर 10 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..
'तब शायद अब की तरह लोगों का पानी मरा नहीं था'
यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि असली कहावत 'पानी मरना' नहीं बल्कि'आँख का पानी मरना' अर्थात बेशर्म होना है।
इसलिए यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
'तब शायद अब की तरह लोगों की आँख का पानी मरा नहीं था'
इसी तरह पेज नम्बर 72 में लिखा दिखाई दिया कि..
'मैं पहले ही काले रंग के कारण सामाज से बेदखल हूँ और उस पर तुर्रा ये कि मैं हंस कि चाल भी नहीं उड़ सकता हूँ'
यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि किसी की चाल, चला जाता है ना कि उड़ा जाता है। पुरानी कहावत 'कौवा चला हंस की चाल' है ना कि 'कौवा उड़ा हंस की उड़ान'
पढ़ते वक्त इस व्यंग्य संग्रह में जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना बहुत खला। साथ ही प्रूफ़रीडिंग और वर्तनी की स्तर पर हद से ज़्यादा त्रुटियाँ दिखाई दीं। जिससे ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे इस किताब की प्रूफ़रीडिंग की ही नहीं गयी है। किसी भी किताब में इतनी ज़्यादा प्रूफ़रीडिंग एवं वर्तनी की त्रुटियों का होना लेखक एवं प्रकाशक की साख पर बट्टा तो लगाता ही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस व्यंग्य संग्रह के आने वाले संस्करण एवं अन्य किताबों में इस तरह की कमियों को दूर करने का सार्थक प्रयास किया जाएगा।
पेज नंबर 21 में लिखा दिखाई दिया कि..
'एक गधे के लिए 'गठबंधन' जैसा भारी भरकम शब्द दिमाग दस हज़ार वाट का लोड डाल गया'
यहाँ 'दिमाग दस हज़ार वाट का लोड डाल गया' की जगह 'दिमाग में दस हज़ार वाट का लोड डाल गया' आएगा।
पेज नंबर 28 में लिखा दिखाई दिया कि..
'तुम्हें नहीं मालूम की नेता के लिए किसी को भी गधा बनाना कितना आसान काम है'
यहाँ 'तुम्हें नहीं मालूम की नेता के लिए' की जगह 'तुम्हें नहीं मालूम कि नेता के लिए' आएगा।
पेज नम्बर 29 की पहली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..
'शेर की तरह सत्ता पाने वाल बन जाता है'
यहाँ 'सत्ता पाने वाल बन जाता है' की जगह 'सत्ता पाने वाला बन जाता है' आएगा।
पेज नंबर 38 में लिखा दिखाई दिया कि..
'वैसे भी उस पर रोटी गंवाने के बावजूद लालची का ठप्पा लगाने ही वाला था'
यहाँ 'लालची का ठप्पा लगाने ही वाला था' की जगह
'लालची का ठप्पा लगने ही वाला था' आएगा।
पेज नंबर 41 में लिखा दिखाई दिया कि..
'जिसमे उसे भी खानदानी रवायत के कारण 'सन बाथ' लेते हुए गुनगुनाने का पूरा मूड कर रहा था'
यहाँ 'जिसमे उसे भी खानदानी रवायत के कारण' की जगह 'जिसमें उसका भी खानदानी रवायत के कारण' आएगा।
पेज नंबर 45 में लिखा दिखाई दिया कि..
'उसे लगने लगा मानो पूरी चिड़िया जाति पर नजर ना लगे इसी लगे इसलिए उसे नजरबट्टू बनाकर भेजा गया है'
नुक्तों की कमी के अतिरिक्त इस वाक्य में 'इसी लगे' शब्दों की कोई ज़रूरत नहीं थी।
पेज नंबर 55 में लिखा दिखाई दिया कि..
'बच्चे का नाम सुनते ही बकरी इमोशनल अत्याचार के आगे सियार के आगे नतमस्तक होते हुए बोली'
यहाँ 'इमोशनल अत्याचार के आगे' की जगह 'इमोशनल अत्याचार से डर कर' आएगा।
पेज नंबर 67 में लिखा दिखाई दिया कि नेताजी ने अपने श्रीमुख में पिछले आधे घंटे से भरे हुए पान मसाले पर रहम करते हुए उसे थूकते हुए कहा'
यहाँ 'पान मसाले पर रहम करते हुए उसे थूकते हुए कहा' की जगह 'पान मसाले पर रहम कर उसे थूकते हुए कहा' आएगा।
इससे अगली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..
'तुम सबसे एक ठौ सवाल पूछ रहा हूँ देखे कौन बता लेता है'
यहाँ ' देखे कौन बता लेता है' की जगह 'देखें कौन बता पाता है' आएगा।
पेज नंबर 70 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..
'कुत्ते के जलवे घर में भी है'
यहाँ 'कुत्ते के जलवे घर में भी है' की जगह 'कुत्ते के जलवे घर में भी हैं' आएगा।
पेज नंबर 72 में लिखा दिखाई दिया कि..
'वहाँ तो नेता से लेकर अभिनेता तक सब अपनी समस्या का समाधान करवाने के लिए वहाँ लाइन लगाए खड़े थे'
इस वाक्य में दो बार 'वहाँ' शब्द छप गया है जबकि दूसरे वाले 'वहाँ' शब्द की यहाँ कोई ज़रूरत ही नहीं थी।
इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..
'मैं पहले ही काले रंग के कारण सामाज से बेदखल हूँ और उसे पर तुर्रा ये कि मैं हंस कि चाल भी नहीं उड़ सकता हूँ'
यहाँ 'सामाज' की जगह 'समाज' आएगा।
साथ ही 'हंस कि चाल' की जगह 'हंस की चाल' आएगा।
पेज नंबर 77 में लिखा दिखाई दिया कि..
'किसी ने शेर के खिलाफ खिलाफ परचा तक दाखिल नहीं किया'
इस वाक्य में 'खिलाफ' शब्द ग़लती से दो बार छप गया है।
पेज नंबर 80 के अंतिम पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..
'ना रहने की जगह है और खाने-पीने का सामान बचा है'
यहाँ 'और खाने-पीने का सामान बचा है' की जगह 'और न खाने-पीने का सामान बचा है' आएगा।
यूँ तो यह संग्रह मुझे विमोचन के दिन, हिंदी भवन - दिल्ली में आयोजकों की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस 84 पृष्ठीय व्यंग्य संग्रह के पेपरबैक संस्करण को छापा है इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए जो कि मुझे कंटेंट की दृष्टि से बहुत ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
* बर्दास्त- बर्दाश्त
* उत्पीडन - उत्पीड़न
* फुल प्रूफ़ - फूलप्रूफ
* ख्रफिफ्टी - फिफ्टी
* अंतरमन - अंतर्मन
* बरसो से- बरसों से
* सिटी स्कैन - सी.टी स्कैन
* केचुल - केंचुल
* इन्ही - इन्हीं
* भैस - भैंस
* छटाक - छटाँक
* अकल - अक्ल
* डबल डोज - डबल डोज़
* झाडी - झाड़ी
* अशाश्वत - आश्वस्त
* अश्वासन - आश्वासन
* हडपने - हड़पने
* जिसमे - जिसमें
* चीटी - चींटी
* चौक कर - चौंक कर
* गाने गुनगाने - गाने गुनगुनाने
* गुनगुनी धुप - गुनगुनी धूप
* नजरबट्टू - नज़रबट्टू
* येन केन प्रकारेण - येन केन प्रकरेण
* साथ ख्रसाथ - (साथ-साथ)
* बाते - बातें
* कुंवे - कुँए
* नियत पाली हुई थी - नीयत पाली हुई थी
* मिडिया - मीडिया
* पलके - पलकें
* रिर्सर्च - रिसर्च
* श्री मुख - श्रीमुख
* देखे - देखें
* रिसोर्ट - रिज़ॉर्ट
* लुवी डुवी - (लवी-डवी)
* सोलहवे दिन - सोलहवें दिन
* लोमड - लोमड़
* कपडे - कपड़े
* जित्तना - जितना
* उन्ही - उन्हीं
* दिलावाओं - दिलवाओ
* (खुशी-खुसी) - (खुशी-खुशी)
* सामाज - समाज
* समस्या ग्रस्त मिले - समस्याग्रस्त मिलें
* ग्यारहवे - ग्यारहवें
* पैसा वसूल लेते है - पैसा वसूल लेते हैं
* खिलाफ - ख़िलाफ
* बढाने - बढ़ाने
* कोसो - कोसों
* सिलिब्रिटी - सैलिब्रिटी
अंजुरी भर नेह - रेणु गुप्ता
काला सोना - रेनु यादव
उंगलियाँ - मेघ राठी
पाकिस्तान मेल - खुशवंत सिंह - उषा महाजन (अनुवाद)
भारत-पाकिस्तान के त्रासदी भरे विभाजन ने जहाँ एक तरफ़ लाखों करोड़ों लोगों को उनके घर से बेघर कर दिया तो वहीं दूसरी तरफ़ जाने कितने लोग अनचाही मौतों का शिकार हो वक्त से पहले ही इस फ़ानी दुनिया से कूच कर गए। हज़ारों-लाखों लोग अब तक भी अपने परिवारजनों के बिछुड़ जाने के दुख से उबर नहीं पाए हैं। सैंकड़ों की संख्या में बलात्कार हुए और अनेकों बच्चे अपने परिवारजनों से बिछुड़ कर अनाथ के रूप में जीवन जीने को मजबूर हो गए। इसी अथाह दुःख और विषाद से भरी घड़ियों को ले कर अब तक अनेकों रचनाएँ लिखी जा चुकी हैं और आने वाले समय में भी लिखी जाती रहेंगी।
दोस्तों आज मैं इसी भयंकर राजनैतिक भूल से उपजी दुःख और अवसादभरी परिस्थितियों को ले कर रचे गए ऐसे उपन्यास के हिंदी अनुवाद की बात करने जा रहा हूँ जिसे मूलतः अँग्रेज़ी में 'ट्रेन टू पाकिस्तान' के नाम से लिखा था प्रसिद्ध अँग्रेज़ी लेखक 'खुशवंत सिंह' ने और इसी उपन्यास का 'पाकिस्तान मेल' के नाम से हिंदी अनुवाद किया है उषा महाजन ने।
इस उपन्यास की मूल कथा में एक तरफ़ कहानी है भारत-पाकिस्तान की सीमा पर बसे एक काल्पनिक गाँव 'मनो माजरा' में रहने वाले जग्गा नाम के एक सज़ायाफ्ता मुजरिम की। जिसने अपने गांव की ही एक मुस्लिम युवती के प्यार में पड़ सभी बुरे कामों से तौबा कर ली है। इसी बात से नाराज़ उसके पुराने साथियों को उसकी ये तौबा रास नहीं आती और वे जानबूझकर उसे फँसाने के लिए उसी के गांव में डाका डाल कर एक व्यक्ति की हत्या कर देते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है वामपंथी विचारधारा से प्रेरित एक पढ़े-लिखे सिख युवक इकबाल सिंह की, जिसे आम जनता के विचारों की टोह लेने एवं उन्हें प्रभावित करने के मकसद से 'मनो माजरा' में उसके नेताओं द्वारा भेजा गया है।
इस उपन्यास में कहीं भारत-पाक विभाजन की त्रासदी के दौरान पनपती आपसी नफ़रत और अविश्वास की बात होती नज़र आती है तो कहीं धार्मिक सोहाद्र और इंसानियत से भरी प्रेमभाव की बातें होती नज़र आती हैं। कहीं कत्लेआम के ज़रिए दोनों पक्षों (हिंदू और मुसलमान) के निरपराध नागरिक हलाक होते नज़र आते हैं तो कहीं अफसरों के ऐशोआराम और अय्याशियों की बात होती नजर आती है।
कहीं देश हित के नाम पर तख़्तापलट के ज़रिए सत्ता परिवर्तन के मंसूबों को हवा मिलती दिखाई देती है तो कहीं देश में बेहिसाब बढ़ती जनसंख्या की बात की जाती दिखाई देती है।
इसी उपन्यास में कहीं जबरन उलटे- सीधे आरोप लगा कर किसी को भी पुलिस अपने जाल में फँसाती नज़र आती है तो कहीं पुलिस थानों में होने वाली कागज़ी कार्यवाही में अपनी सुविधानुसार लीपापोती की जाती दिखाई देती है। कहीं जेल में कैदियों को दी जाने वाली सुविधाओं में भी कैदी-कैदी के बीच भेदभाव होता दिखाई देता है तो कहीं सरकारी महकमों में पद और योग्यता के हिसाब से ऊँच-नीच होती नज़र आती है।
इसी कहानी में कहीं हिन्दू लाशों से भर कर पाकिस्तान से ट्रेन के आने की बात के बाद सरकारी अमला अलर्ट मोड में आता दिखाई देता है तो कहीं गाँव घर से इकट्ठी की गई लकड़ी और मिट्टी के तेल की मदद से उन्हीं लाशों का सामुहिक दाहकर्म होता दिखाई देता है। कहीं लकड़ी और तेल की कमी के चलते सामूहिक रूप से लाशें दफनाई जाती नज़र आती हैं। तो कहीं सरकार एवं पुलिस महकमा अपने उदासीन रवैये के साथ पूरी शिद्दत से मौजूद नज़र आता है। कहीं लूट-खसोट, छीनाझपटी और बलात्कार इत्यादि में विश्वास रखने वाले हावी होते नज़र आते हैं तो कहीं पुलिसिया कहर और हुक्मरानों द्वारा जबरन अपनी इच्छानुसार किसी पर भी कोई भी इल्ज़ाम थोप देने की बात होती नज़र आती है।
इसी किताब में कहीं अंधविश्वास और सेक्स से जुड़ी बातों को लेकर भारतीय मानसिकता की बात की जाती दिखाई देती है। तो कहीं मिलजुल कर शांति और प्रेमभाव से रह रहे सिखों और मुसलमानों के बीच शक-शुबह के बीज बो नफ़रत पैदा करने के हुक्मरानी मंसूबो को हवा मिलती नज़र आती है। कहीं पाकिस्तान की तरफ़ से सतलुज नदी में कत्ल कर दिए गए बेगुनाह बच्चों, बूढ़ों और औरतों के कष्ट-विक्षत शवों के बह कर भारत की तरफ़ आने का रौंगटे खड़े कर देने वाला दृश्य पढ़ने को मिलता है। तो कहीं योजना बना कर मुसलमानों से भरी पाकिस्तान जा रही ट्रेन में सामूहिक नरसंहार को अंजाम दिया जाता दिखाई देता है। जिस पर पुलिस एवं स्थानीय प्रशासन भी अपने उदासीन रवैये के ज़रिए इस सब को होने देने के लिए रज़ामंद नज़र आता है।
इस तेज़, धाराप्रवाह, रौंगटे खड़े कर देने वाले रोचक उपन्यास
में कुछ एक जगहों पर मुझे प्रूफरीडिंग की कमियाँ दिखाई दीं। जिन पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है।
● पेज नंबर 100 में लिखा दिखाई दिया कि..
'आग की लाल लपटें काले आकश में लपक रही थीं'
यहाँ 'काले आकश में' की जगह 'काले आकाश में' आएगा।
● पेज नंबर 109 में लिखा दिखाई दिया कि..
'बादलों के काले पंखों में हवा भर रही है। हवा से प्रकाश को लजा जाती है। बादलों के काले पंखों में हवा भर रही है।
यहाँ 'हवा से प्रकाश को लजा जाती है' की जगह 'हवा से प्रकाश को लज्जा आती है' या फ़िर 'हवा से प्रकाश को लज्जा आ रही है' आना चाहिए।
इसके बाद अगली पंक्ति में एक बार फ़िर से लिखा दिखाई दिया कि..
'बादलों के काले पंखों में हवा भर रही है'
यह पंक्ति ग़लती से दो बार छप गई है।
● पेज नंबर 123 में लिखा दिखाई दिया कि..
'हफ्ते-भर तक इकबाल अपनी कोठी में अकेला ही था'
इस दृश्य में इकबाल थाने में बंद है। इसलिए यहाँ 'कोठी' नहीं 'कोठरी' आना चाहिए।
● पेज नंबर 125 में लिखा दिखाई दिया कि..
'इनका मनो-मस्तिष्क हमेशा इससे त्रस्त रहता है'
यहाँ 'मनो-मस्तिष्क' की जगह 'मन-मस्तिष्क' आना चाहिए।
● पेज नंबर 142 में लिखा दिखाई दिया कि..
'पुलिस ककने डकैती के सिलसिले में मल्ली को गिरफ़्तार कर दिया है'
यहाँ 'पुलिस ककने डकैती के सिलसिले में' की जगह 'पुलिस ने डकैती के सिलसिले में' आएगा।
पेज नंबर 151 की पहली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..
'जाते वक्त मेरे साथ ऐसी निठुर ना बन'
यहाँ 'ऐसी निठुर ना बन' की जगह 'ऐसी निष्ठुर ना बन' आएगा।
पेज नंबर 183 में लिखा दिखाई दिया कि..
'मैं जानता हूँ कि आज मेरे से नाराज होंगे'
यहाँ 'आज मेरे से नाराज होंगे' की जगह 'आप मेरे से नाराज होंगे' आएगा।
* जँभाई - जम्हाई
इस बेहद रोचक उपन्यास के बढ़ियाअनुवाद के लिए उषा महाजन जी बधाई की पात्र हैं। इस 208 पृष्ठीय दमदार उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है राजकमल पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 299/- जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
राघव - खंड - 1- विनय सक्सेना
पूतोंवाली - शिवानी
आजकल के इस आपाधापी से भरे माहौल में हम सब जीवन के एक ऐसे फेज़ से गुज़र रहे हैं जिसमें कम समय में ज़्यादा से ज़्यादा पा लेने की चाहत की वजह से निरंतर आगे बढ़ते हुए बहुत कुछ पीछे ऐसा छूट जाता है जो ज़्यादा महत्त्वपूर्ण या अच्छा होता है। उदाहरण के तौर पर टीवी पर कोई उबाऊ दृश्य या विज्ञापन आते ही हम झट से चैनल बदल देते हैं कि शायद अगले चैनल पर कुछ अच्छा या मनोरंजक देखने को मिल जाए। मगर चैनल बदलते-बदलते इस चक्कर में कभी हमारा दफ़्तर जाने का समय तो कभी हमारा सोने का समय हो जाता है और हम बिना कोई ढंग का कार्यक्रम देखे ख़ाली के ख़ाली रह जाते हैं। कुछ ऐसी ही बात किताबों के क्षेत्र में भी लागू होती है कि हम ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ने की चाह में आगे बढ़ते हुए पीछे कुछ ऐसा छोड़ जाते हैं जो ज्ञान या मनोरंजन की दृष्टि से ज़्यादा अहम..ज़्यादा फायदेमंद होता है।
दोस्तों..आज मैं इस बात को अपने समय की प्रसिद्ध लेखिका शिवानी की रचनाओं के बारे कह रहा हूँ जिनकी रचनाओं को पढ़ने का मौका तो मुझे कई बार मिला मगर किसी न किसी वजह से मैं उनका लिखा पढ़ने से हर बार चूक गया। आज से तीन महीने पहले उनकी लिखी "पूतोंवाली" किताब को पढ़ने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ है कि मैं कितना कुछ पढ़ने से वंचित रह गया। लेकिन फ़िर कुछ ऐसा हुआ कि चाह कर भी इस बेहद रोचक किताब पर कुछ लिख नहीं पाया। अब लिखने के बारे में सोचा तो एक बार पुनः किताब पर नज़र दौड़ाने के बहाने इस किताब को फ़िर से पढ़ा गया।
दोस्तों हिन्द पॉकेट बुक्स के श्रद्धांजलि संस्करण 2003, में छपी इस किताब 'पूतोंवाली' में उनके लिखे दो लघु उपन्यास और तीन कहानियाँ शामिल हैं।
'पूतोंवाली' नाम लघु उपन्यास है उस औसत कद-काठी और चेहरे मोहरे वाली 'पार्वती' की जिसे उसकी माँ की मृत्यु के बाद सौतेली माँ की चुगली की वजह से पिता के हाथों रोज़ मार खानी पड़ी। पिता के आदेश पर मोटे दहेज के लालच में सुंदर, सजीले युवक से ब्याह दी गयी।
अपने रूपहीन चेहरे और कमज़ोर कद-काठी की वजह से पति की उपेक्षा का शिकार रही 'पार्वती' को आशीर्वाद के रूप में मिले 'दूधो नहाओ पूतों फलो' जैसे शब्द सच में ही साकार हुए जब उसने एक-एक कर के पाँच पुत्रों को जन्म तो दिया मगर..
इसी संकलन के एक बेहद रोचक लघु उपन्यास 'बदला' की कहानी पुलिस महकमे के ठसकदार अफ़सर 'त्रिभुवनदास' की नृत्य कला में निपुण बेहद खूबसूरत बेटी 'रत्ना' की बात करती है। जो अपनी मर्ज़ी के युवक से शादी करना चाहती है मगर उसका दबंग पिता उस युवक को रातों रात ग़ायब करवा उसका ब्याह किसी और युवक से करवा देता है। अब देखना यह है कि अपने प्रेमी के वियोग में तड़पती 'रत्ना' क्या उसे भूल नयी जगह पर अपने पति के साथ राज़ीखुशी घर बसा लेती है अथवा...
इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'श्राप' में रात के वक्त सोते-सोते लेखिका अचानक किसी ऐसे सपने की वजह से हड़बड़ा कर उठ बैठती है जो उसे फ़्लैशबैक के रूप में दस वर्ष पीछे की उस घटना की तरफ़ ले जाता है जिसमें वह अपनी मकान मालकिन के कहने पर, उसकी बहन के रहने के लिए, उसे अपने पोर्शन के दो कमरे कुछ दिनों के लिए इसलिए इस्तेमाल करने के लिए दे देती है कि उसे वर पक्ष वालों की ज़िद के चलते अपनी सुंदर, सुशील बेटी की शादी उनके शहर में आ कर करनी पड़ रही है। वधु पक्ष की तरफ़ से दिल खोल कर पैसा खर्च करने के बावजूद भी इस बेमेल शादी में कहीं ना कहीं कुछ खटास बची रह जाती है।
विवाह के कुछ महीनों बाद लेखिका को अचानक पता चलता है कि शादी के चार महीनों बाद एक दिन ससुराल में रसोई में काम करते वक्त लापरवाही की वजह से उनकी बेटी की जलने की वजह से मौत हो गयी।
इसी संकलन की एक अन्य कहानी में अचानक एक दिन लेखिका की मुलाक़ात बरसों बाद अपनी उस ख़ूबसूरत सहेली 'प्रिया' से रेलवे स्टेशन पर मुलाक़ात होती है, जिनकी दोस्ती कॉलेज वालों के लिए एक मिसाल बन चुकी थी। और उसकी उसी सहेली ने एक दिन बिना कोई वजह बताए अचानक से कॉलेज छोड़ दिया था। इस ट्रेन वाली मुलाक़ात में 'प्रिया' लेखिका के साथ गर्मजोशी तो काफी दिखाती है मगर अपना पता ठिकाना बताने से साफ़ इनकार कर देती है।
इस बात के काफ़ी वर्षों के बाद एक दिन नैनीताल के किसी उजाड़ पहाड़ी रास्ते पर लेखिका की मुलाक़ात अचानक एक लंबे चौड़े..मज़बूत कद काठी के नितांत अजनबी व्यक्ति से होती है जो 'प्रिया' और लेखिका के बीच घट चुकी निजी बातों और घटनाओं का बिल्कुल सही एवं सटीक वर्णन करता है। जिससे लेखिका घबरा जाती है। अब सवाल उठता है कि आख़िर कौन था वो अजनबी जो उन दोनों के बीच घट चुकी एक-एक बात को जानता था?
इसी संकलन की अंतिम कहानी में ट्रेन में रात का सफ़र कर रही लेखिका के कूपे में बड़ा सा चाकू लिए एक लुटेरा घुस आता है और सब कुछ लूट कर जाने ही वाला होता है कि अचानक कुछ ऐसा होता है कि लूटने के बजाय वही लुटेरा लेखिका के पास फॉरन करैंसी से भरा हुआ एक बटुआ छोड़ कर चला जाता है।
127 पृष्ठीय इस बेहद रोचक और पठनीय किताब के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है 'सरस्वती विहार' (हिन्द पॉकेट बुक्स का सजिल्द विभाग है) ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 125/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
About This Blog
Online Readers: |
Popular Posts
-
“आ…लौट के आ जा मेरे मीत रे….तुझे मेरे गीत बुलाते हैं"… “क्या बात तनेजा जी…आज बड़े खुश हो…मस्ती में खुशी के गीत गए जा रहे हैं?...
-
***राजीव तनेजा*** "हैलो!…इज़ इट...+91 804325678 ?”... "जी!..कहिये"... "सैटिंगानन्द महराज जी है?"… "ह...
-
***राजीव तनेजा*** “ठक्क……ठक्क- ठक्क”…. “ओ….कुण्डी ना खड़का …सोणया सिद्धा अन्दर आ"… “ठक्क……ठक्क- ठक्क”…. “अरे!…कौन है भाई?...
-
**राजीव तनेजा*** “ओह्हो…शर्मा आप?..आज ये सूरज अचानक पश्चिम से कैसे निकल पड़ा?…कहिए सब खैरियत तो है?”… “जी…बिलकुल”…. “तो फिर आज अचानक…यह...
-
***राजीव तनेजा*** “ओह!…श्श…शिट ट…ट…निकल गई”…. चींssssssचींssss…..धडाम…. “अरे!….तनेजा जी…गाड़ी काहे रोक दिए?..इत्ता मजा आ रहा था"...