फ़रेब का सफ़र - अभिलेख द्विवेदी

आजकल के इस आपाधापी भरे युग में कामयाब होने की ख़ातिर सब आँखें मूंद बढ़े चले जा रहे हैं। ऐसे समय में ना किसी को नैतिक मूल्यों की परवाह है ना ही इसकी कोई ज़रूरत समझी जा रही है। भविष्य की चिंता छोड़ महज़ आज को अच्छे से जीने की बात हो रही है। भले ही इसके लिए साम, दाम, दण्ड, भेद में से कुछ भी..किसी भी हद तक अपनाना पड़े या इसके लिए बेशक़ हमें, हमारे अपनों के प्रति ही भीतरघात करना पड़े या फ़िर फ़रेब का सहारा लेना पड़े। असली मकसद बस यही है कि कैसे भी कर सफ़लता हाथ लगनी चाहिए। 

दोस्तों, आज मैं ऐसे ही फ़रेबी विषय पर लिखे गए एक उपन्यास 'फ़रेब का सफ़र' की बात करने जा रहा हूँ जिसे लिखा है मिर्ची एफ.एम में बतौर सीनियर कॉपी राइटर काम कर रहे अभिलेख द्विवेदी ने।

इस उपन्यास के मूल में एक तरफ़ कहानी गेमिंग और गैजेट फ्रीक, टेक एक्सपर्ट रोहित की जो अपने दोस्त रॉबी के ज़रिए एक डेटिंग एप डेवेलप करवाना चाहता है। मगर एप के अन एथिकल सैक्शन की वजह से वो उससे इनकार कर देता है। ऐसे में मोटी तनख्वाह पर एप डेवेलप करने का काम मोहित को मिलता है। उस मोहित को जिसकी वजह से उनके कॉमन दोस्त सनी का ब्रेकअप सिमरन से हुआ है। 

सनी, जिसके किसी न किसी वजह से पहले ही दो ब्रेकअप हो चुके हैं। ऐसे में रोहित अपनी डेटिंग एप आज़माने के लिए सनी को कहता है। जिस पर सनी को एक-एक कर के रिया, तान्या और सोनल नाम के तीन मैच मिलते हैं। एक साथ तीनों से डेट करने वाला सनी अंततः फ़रेब के ऐसे जाल में फँसता है कि उसके हाथ कुछ नहीं आता है। फ़रेब के इस रोचक सफ़र में अब देखना ये है कि कौन किससे और किस हद तक फ़रेब कर रहा है या फ़िर इस हमाम में सभी नंगे हैं। 

शुरुआत से अंत तक रोचकता बनाए रखने वाले इस तेज़ रफ़्तार उपन्यास में कहीं डेटिंग एप के ज़रिए मनचाहा साथी खोजने की कवायद होती नज़र आती है तो कहीं आपसी सहमति से थ्रीसम सैक्स वजूद में आता दिखाई देता है। कहीं लिवइन में आने का आग्रह होता दिखाई देता है तो कहीं लिवइन से छुटकारा पाने को मन मचलता नज़र आता है। 

कहीं पहली ही चैट में मोबाइल नंबर एक्सचेंज होते नज़र आते हैं तो कहीं को कैरियर की ख़ातिर किसी को सीढ़ी बनाता दिखाई देता है। कहीं कैरियर के मद्देनज़र दोस्ती की बलि चढ़ती दिखाई देती है। कहीं आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के ज़रिए लोगों के मन पढ़ने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं कोई सबको अपनी उँगलियों पर कठपुतली माफ़िक नचाता नज़र आता है। 

एक आध जगह वर्तनी की त्रुटि के अतिरिक्त कुछ एक जगहों पर प्रूफ़रीडिंग की छोटी-छोटी कमियाँ दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नम्बर 75 में लिखा दिखाई दिया कि..

'जब तान्या ने फ्लाइट बोर्ड की तो साथ-ही-साथ उसने   सनी को भी मैसेज कर दिया की उसने फ्लाइट बोर्ड कर ली है'

यहाँ 'मैसेज कर दिया की उसने फ्लाइट बोर्ड कर ली है' में 'की' जगह 'कि' आएगा। 

पेज नंबर 77 में लिखा दिखाई दिया कि..

'लेकिन वो भी जनता था कि वह ऐसा कुछ नहीं करने वाला'

यहाँ 'जनता' की जगह 'जानता' आएगा। 

पेज नंबर 96 में लिखा दिखाई दिया कि..

'रिया ने के स्माइल के साथ पेपर्स को लहराते हुए सनी को दिया'

यहाँ 'रिया ने के स्माइल के साथ पेपर्स को लहराते हुए सनी को दिया' की जगह 'रिया ने स्माइल के साथ पेपर्स को लहराते हुए उन्हें सनी को दिया' आएगा। 

पेज नंबर 113 में लिखा दिखाई दिया कि..

'रियाज़ ने के बारे में सारे सवाल खड़े कर दिए'

यहाँ 'रियाज़ ने के बारे में' की जगह 'रियाज़ ने रिया के बारे में' आएगा। 

इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'अब इस नंबर से मैसेज आए तो मुझे यही लगा की वह वापस आ गई है'

यहाँ 'मुझे यही लगा की' में 'की' की जगह 'कि' आएगा। 

पेज नंबर 115 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसने सनी के किसी जवाब का इंतज़ार किया'

यहाँ 'किसी जवाब का इंतज़ार किया' की जगह 'किसी जवाब का इंतज़ार नहीं किया' आएगा। 

128 पृष्ठीय इस उम्दा पैसा वसूल उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है सन्मति पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 135/- रुपये जो कि कंटैंट की दृष्टि से बिल्कुल जायज़ अलबत्ता कुछ कम ही है। कोई आश्चर्य नहीं कि जल्द ही इस उपन्यास पर आधारित कोई फ़िल्म या वेब सीरीज़ देखने को मिले। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

मोमीना - गोविन्द वर्मा सिराज

भारत पर मुग़लों ने लगभग 800 वर्ष और अँग्रेज़ों ने 200 वर्षों तक हुकूमत की। मगर मुग़लों के 800 सालों में कभी ऐसा नहीं हुआ कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच आपस में दंगे भड़क उठे हों जबकि अँग्रेज़ों ने लगातार हिंदुओं और मुसलमानों के बीच आपस में फूट डाल कर उन्हें इस कदर आपस में लड़वाया कि वे एक-दूसरे को अपनी कौम का दुश्मन समझने लगे..एक-दूसरे से नफ़रत करने लगे। 

आज़ादी के बाद अँग्रेज़ों के ही नक़्शेकदम पर चल भारतीय राजनीतिज्ञ भी हमारी आपसी फ़ूट एवं दुश्मनी को हवा दे अपना उल्लू सीधा करते रहे। दोस्तों..आज मैं हिंदू-मुस्लिम दंगों पर आधारित एक ऐसे उपन्यास कर बारे में बात करने जा रहा हूँ जिसे 'मोमीना- एक नेकदिल औरत' के नाम से लिखा है प्रसिद्ध शायर एवं लेखक गोविन्द वर्मा सिराज जी ने। 

इस उपन्यास के मूल में एक तरफ़ कहानी है एक ही शहर में रहने वाली दो क़द्दावर हस्तियों, अखिलेश त्रिपाठी और मौलाना अब्दुल बिन शीरानी की। बतौर हिंदू चेहरा, अखिलेश त्रिपाठी वर्तमान सरकार में गृहमंत्री के पद पर काबिज़ है तथा मुसलमानों के स्वयंभू मसीहा के तौर पर मौलाना अब्दुल बिन शीरानी
तैनात है। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है एक ही फैक्ट्री में काम करने वाले विशंभर और माजिद नाम के दो दोस्तों और इनकी पत्नियों, केतकी और मोमीना के बीच आपसी स्नेह एवं भाईचारे की। 

मंथर गति से चल रही इस कहानी में उबाल तब आता है जब विधायक रामसुमेर मिश्र के बेटे, गोलू की वजह से कसाई जात के डल्ला की बेटी, नन्नी गर्भवती हो जाती है और डल्ला इस बात पर अड़ जाता है कि विधायक के बेटे से उसकी बेटी का निकाह पढ़वाया जाए। जो कि विधायक, रामसुमेर मिश्र और अखिलेश त्रिपाठी के मुताबिक़ नामुमकिन है। अखिलेश त्रिपाठी और मौलाना अब्दुल बिन शीरानी के बीच चल रहे इस शह और मात के खेल में अब देखना यह है कि ऊँट किस करवट बैठता है। 

इस उपन्यास में कहीं कोई अपनी ही कौम के प्रति ग़द्दारी करता नजर आता है तो कहीं हिंदू-मुस्लिम गठजोड़ मिल कर दंगों को अंजाम देता दिखाई देता है। कहीं कोई धार्मिक उन्माद फैला दंगे करवाने का ठेका लेता दिखाई देता है तो कोई कितने विकेट उड़ाए का हिसाब-किताब लगाता नज़र आता है। 

इसी उपन्यास में कहीं धन-दौलत के बलबूते सरकार को संकट में डालने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं कोई अपने समर्थकों के दम पर उछलता दिखाई देता है। कहीं पैसे के बल पे मीडिया मैनेज किया जाता दिखाई देता है तो कहीं मदद के बहाने विपक्ष आपदा में अवसर ढूँढता दिखाई देता है। कहीं कोई बेगुनाह अपनों को दंगाइयों के हाथों मरता देख बदला लेने को खुद भी उन्हीं की राह चलता नज़र आता है तो कहीं किसी दंगाई हृदयपरिवर्तन के बाद सीधी राह चलता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं एक-दूसरे की कम को सबक सिखाने के नाम पर समाज के विभिन्न तबक़े एकजुट होते नज़र आते हैं तो कहीं कोई पुलिस का जवान अफ़सर ही दंगा भड़काने के लिए अपने हथियार पेश करने और आँखें मूंद लेने की बात करता दिखाई देता है। कहीं अपने इलाकों की सुरक्षा हेतु गली मोहल्ले के लोग बिना हिंदू-मुस्लिम का भेदभाव किए, मिलकर सजगता बरतते नज़र आते हैं तो कहीं कोई हिंदू ही दंगाइयों के लिए हिंदू घरों की निशानदेही करता दिखाई देता है। 

कहीं शांति बहाली के बाद घरों से लाशें एकत्र करते आए सरकारी कर्मचारियों द्वारा शवों की बेकद्री होती दिखाई देती है तो कहीं किसी लाश के पास पराए बच्चे को बिलखते देख किसी की ममता जाग उठती है। कहीं अपहरण के ज़रिए करोड़ों की फिरौती के मंसूबे बाँधे जाते दिखाई देते हैं तो कहीं को नहले पे दहले के रूप में उसके अरमानों को मिट्टी में मिलाता नज़र आता है 

इसी उपन्यास में कहीं हिंदू-मुस्लिम मिल कर मंदिर की सुरक्षा के लिए मुस्तैद खड़े नज़र आते हैं तो कहीं कोई हथियारों के दम पर भीड़ को लूटपाट और कत्लेआम के लिए भड़काता दिखाई देता है। दंगे की चपेट में कहीं कोई निर्दोष बेवजह ही मौत के आगोश में पहुँचता नज़र आता है तो कहीं कोई अबला बलात्कार का शिकार होती दिखाई देती है।

किसी भी कहानी या उपन्यास के प्रभावी होने के लिए यह ज़रूरी होता है कि लेखक, स्वयं को भूल उस कहानी के किरदारों के ज़रिए ही कहानी को उसके अंजाम यानी कि अंत तक पहुँचाए। जबकि इस उपन्यास में बहुत सी जगहों पर लेखक स्वयं, आने वाले दृश्य के मद्देनज़र अपना नज़रिया पेश करते से लगे। 

■ पेज नम्बर 120 में लिखा दिखाई दिया कि..

'फैज़ल होंठों से "पुच्च" "पुच्च" की आवाज़ निकाल अफ़सोस ज़ाहिर करता है'

यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि "पुच्च" "पुच्च" की ध्वनी का इस्तेमाल किसी को (चूमने के समय किया जाता है जबकि यहाँ अफ़सोस प्रकट किया जा रहा है। इसलिए यहाँ इन शब्दों का प्रयोग सही नहीं है। अफ़सोस प्रकट करने के लिए सही शब्द "च्च" च्च" है। इसलिए सही वाक्य इस प्रकार बनेगा कि..

'फैज़ल होंठों से  "च्च- च्च" की आवाज़ निकाल अफ़सोस ज़ाहिर करता है'

■ पेज नंबर 157 के 29वें चैप्टर में दंगों के बाद शांति स्थापित करने के लिए सरकारी मंत्रालयों एवं एन.जी.ओ  द्वारा पीड़ितों में राहत सामग्री बाँटे जाने का काम शुरू किया गया है। इसी के अंतर्गत पेज नंबर 158 में लिखा दिखाई दिया कि..

'एक मज़े की बात और सामने आई है, एन.जी.ओ ने हिंदू इलाक़ों में जिन वॉलेंटियर्स को जिम्मेवारी दी है, उसकी देखरेख अबू फ़ज़ल के जिम्मे है और मुस्लिम हिस्सों में बांटे जाने वाली मदद की अगुवाई बैजन तोड़ा कर रहा है।'

यहाँ बतौर लेखक एवं पाठक के यह बात मुझे काबिल-ए-एतराज़ लगी कि जिन दंगों में सैंकड़ों की तादाद में बेगुनाह लोग मारे गए, उनके लिए वाक्य की शुरुआत "एक मज़े की बात और सामने आयी है" कह कर शुरू की जा रही है। यहाँ मेरे हिसाब से वाक्य की शुरुआत  "एक मज़े की बात और सामने आयी है" के बजाय अगर "बड़े दुख की बात" से शुरू होती तो ज़्यादा सही रहता।

■ पेज नंबर 165 से शुरू हुए चैप्टर नंबर 31 में बताया गया है कि किस तरह दंगों के बाद शांति के मद्देनज़र निकाली गयी प्रभात फेरी में से शीरानी और अखिलेश त्रिपाठी, अलग हो खंडहर में उस हिस्से में जा बैठते है, जिसमें भीड़ के डर से मोमीना छुपी हुई है। उन दोनों की तंजभरी आपसी बातचीत से मोमीना जान लेती है कि जिस लड़की 'नन्नी' की वजह से ये दंगा भड़क उठा था, शीरानी ने ही उसका ब्लात्कार करने के बाद उसकी लाश को इसी खंडहर में फिंकवा दिया है। उन दोनों के निकल जाने के बाद मोमीना कर उसकी छिपी हुई जगह से बाहर निकलने के प्रसंग में पेज नंबर 169 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उनके जाने के बाद मोमीना भी बाहर आकर कमर सीधी करती है। उसे अफ़सोस हो रहा है, इन लोगों की वजह से उसका यहाँ कितना वक़्त फुज़ूल में ही ज़ाया हो गया'

यहाँ मुझे ये हैरानी के साथ-साथ यह दुख की बात भी लगी कि इतने अहम राज़ के उजागर होने के बावजूद लिखा जा रहा है कि..

'मोमीना बाहर निकल कर आराम से अपनी कमर सीधी करती है और उसे, उसके वक़्त के फ़ुज़ूल जाया होने का अफ़सोस हो रहा है'

मेरे हिसाब से चैप्टर के इस हिस्से को संजीदगी भरे शब्दों में लिखा जाना चाहिए था। 

■ पेज नंबर 180 से शुरू हुए चैप्टर नंबर 34 में दंगों के बाद शहर में कर्फ़्यू लग चुका है और सत्तापक्ष एवं विपक्ष द्वारा घर-घर राहत सामग्री बाँटी जा रही है कि कर्फ़्यू की वजह से लोगबाग कहीं आ-जा नहीं सकते। इसी चैप्टर के अंतर्गत पेज नंबर 181 के शुरुआती पैराग्राफ़ में लिखा दिखाई दिया कि..

'ना जाने कर्फ़्यू कब तक चले'

आगे बढ़ने पर इसी चैप्टर की अंतिम पंक्तियों (पेज नंबर 183) में लिखा नज़र आया कि..

'तीनों मोमीना के घर की जानिब निकल पड़ते हैं'

अब यहाँ ये सवाल उठता है कि पूरे शहर में कर्फ़्यू लगा होने की वजह से जब सबका आना-जाना बंद है तो ऐसे में वे तीनों मोमीना के घर जाने के लिए कैसे निकल सकते हैं?

चैप्टर नंबर 35 में मोमीना में जब बच्चे को गोद में जब मोमीना घर से बाहर निकलती है तो उसे कुछ अनजान नौजवान मिलते हैं। उनमें से एक उसे कुछ राहत सामग्री देते हुए कहता है कि..

'लीजिये मैडम! निश्चिंत होकर घर जाईये और यह आपके बेटे के काम आयेगी'

यहाँ मेरे हिसाब से 'आपके बेटे के काम आयेगी' की जगह 'आपके बच्चे के काम आएगी' आए तो बेहतर क्योंकि उन नौजवानों को पता नहीं है कि मोमीना की गोद में जो बच्चा है, वह लड़का है अथवा लड़की।

ज़रूरी मुद्दे पर लिखे गए इस उपन्यास में वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त काफ़ी जगहों पर मुझे प्रिंटिंग मिस्टेक के रूप में मुझे कुछ एक जगहों पर शब्द आपस में जुड़े हुए दिखाई दिए। साथ ही प्रूफ़रीडिंग की काफ़ी कमियों से दोचार भी होना पड़ा। जिन्हें दूर किए जाने की आवश्यकता है।

पेज नम्बर 63 में लिखा दिखाई दिया कि..

'इंसानियत से कोसों का वास्ता नहीं'

यहाँ 'इंसानियत से कोसों का वास्ता नहीं' की जगह 'इंसानियत से कोसों दूर तक का वास्ता नहीं' आएगा। 

पेज नम्बर 65 में लिखा दिखाई दिया कि..

'मैं तो तुम्हारा नाम तक नहीं जानता और तुम हो मान ना मान मैं तेरा मेहमान'

यहाँ 'और तुम हो मान ना मान मैं तेरा मेहमान' की जगह और तुम हो कि मान ना मान मैं तेरा मेहमान' आएगा।

पेज नम्बर 115 में लिखा नज़र आया कि..

'उनके दामाद उनकी बेटी रुख़्सार का गौने की विदा कराने आये हैं और उसी ख़्वाबों ख़याल में बैठे वह  कभी मुस्करा उठते हैं, तो कभी संजीदा हो जाते हैं'

यहाँ 'उनकी बेटी का गौने की विदा कराने आये हैं  की जगह 'उनकी बेटी के गौने की विदा कराने आये हैं' आएगा तथा 'उसी ख़्वाबों ख़याल में बैठे' की जगह 'उन्हीं ख़्वाबों ख्यालों में बैठे' आना चाहिए।

इससे अगली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'उनकी ऐसे कैफ़ियत देख उनके पास बैठे शमशाद और रुख्सार मज़े ले रहे हैं'

यहाँ 'उनकी ऐसे कैफ़ियत देख' की जगह ''उनकी ऐसी कैफ़ियत देख' आएगा।

पेज नम्बर 124 में लिखा दिखाई दिया कि..

'सेंटर ने ही नहीं पड़ौस के राज्यों ने भी पी.ए.सी की बटालियनों का कुछ ही देर में शहर के इलाकों में गश्त करने का बताया जा रहा है'

यह वाक्य सही नहीं बना सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'सेंटर ने ही नहीं बल्कि पड़ोस के राज्यों ने भी पी.ए.सी की बटालियनों द्वारा कुछ ही देर में गश्त जारी करवाने का एलान कर दिया है' 
या फ़िर..

'सेंटर ने ही नहीं बल्कि पड़ोस के राज्यों ने भी पी.ए.सी की बटालियनों द्वारा कुछ ही देर में गश्त जारी करवाने के बारे में रज़ामंदी दे दी है'

पेज नम्बर 130 में लिखा दिखाई दिया कि..

'अनवर के साथ भी कुछ वैसा ही गुज़रते लम्हात ने उसे एहसास नहीं होने दिया है'

इसको अगर दो वाक्यों में इस तरह लिखा जाए तो मेरे ख्याल से ज़्यादा सही रहेगा कि..

 'अनवर के साथ भी कुछ वैसा ही हुआ है। गुज़रते लम्हात ने उसे एहसास नहीं होने दिया है'

पेज नम्बर 132 में लिखा दिखाई दिया कि..

'हिन्दू - मुसलामानों से बदला लें और मुसलमान - हिन्दुओं से, तो क्या ऐसे सारे हिसाब-किताब निबट जायेंगे...बराबर हो जाएगा इंसान' 

यहाँ 'हिन्दू - मुसलामानों से बदला लें' की जगह 'हिन्दू, मुसलामानों से बदला लें' और मुसलमान - हिन्दुओं से' की जगह 'और मुसलमान, हिन्दुओं से' आएगा तथा 'बराबर हो जाएगा इंसान' की जगह 'बराबर हो जाएगा इंसाफ़' आएगा।

इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'बच गया क्योंकि मैं कायर था'

यहाँ 'बच गया क्योंकि मैं कायर था' की जगह 'मैं बच गया क्योंकि मैं कायर था' आएगा।

यूँ तो बढ़िया क्वालिटी में छपा यह उपन्यास मुझे लेखक की तरफ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस उपन्यास के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है हंस प्रशासन ने और इसका मूल्य रखा गया है 695/- रुपए जो कि मुझे बहुत ज़्यादा लगा। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

नई इबारत - सुधा जुगरान

जब भी मैं किसी कहानी संकलन या उपन्यास को पढ़ने का विचार बनाता हूँ तो अमूमन सबसे पहले मेरे सामने ये दुविधा उत्पन्न हो जाती है कि मैं किस किताब से अपने नए साहित्यिक सफ़र की शुरुआत करूँ? एक तरफ़ वे किताबें होती हैं जो मुझे अन्य नए/पुराने लेखकों अथवा प्रकाशकों ने बड़े स्नेह और उम्मीद से भेजी होती हैं कि मैं उन पर अपनी पाठकीय समझ के हिसाब से कोई सारगर्भित प्रतिक्रिया अथवा सुझाव दे सकूँ। तो वहीं दूसरी तरफ़ मुझे अपनी ओर वे किताबें भी खींच रही होती हैं जिन्हें मैंने अपनी समझ के अनुसार इस आस में खरीदा होता है कि मुझे उनसे मुझे कुछ ना कुछ सीखने को अवश्य मिलेगा। 


दोस्तों..आज मैं जिस कहानी संग्रह की बात करने जा रहा हूँ उसे 'नई इबारत' के नाम से लिखा है सुधा जुगरान ने। 


इस कहानी संग्रह की एक कहानी 'अनाम रिश्ता', उस सविता की व्यथा व्यक्त करती है जो अपने दो बेटों, निक्की और सुहेल को किसी न किसी वजह से खो चुकी है। निक्की को अपने पहले पति अनुपम की अकाल मृत्यु के बाद, अपने दूसरा विवाह करने के निर्णय से और अश्विनी से उत्पन्न, सुहेल को एक बस एक्सीडेंट की वजह से। ऐसे में अपने बच्चों के वियोग में तड़पती सविता की बरसों बाद मुलाक़ात निक्की से होती तो है मगर..


इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'अपना-अपना नज़रिया' में लेखिका हाउसवाइफ भाभी और कामकाजी ननद के आपसी रिश्ते के ज़रिए इस बात को समझाने का प्रयास करती दिखाई देती हैं कि अपने-अपने कार्यक्षेत्र में किसी की किसी से कोई तुलना नहीं की जा सकती। घरेलू कामकाज के ज़रिए घर संभालना और बाहर जा कर जीविका अर्जित करने जैसे कामों का एक जैसा ही महत्व है। इनमें से कोई भी किसी से कमतर नहीं है। इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'अपना घर' में अमीर घर द्वारा गोद ली गयी स्मृति अपने असली माता-पिता के बारे में जानने..समझने के लिए बेचैन है कि उन्होंने उसे पैदा कर के उससे किनारा क्यों कर लिया। गोद लेने वाले माता-पिता से जब उसे उनके बारे में पता चलता है तो वह उनसे मिलने और उनके साथ रहने के लिए उतावली हो उठती है।


इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'आशियाना' में अपनी पत्नी, रूमा के निधन के बाद अकेले रह गए 62 वर्षीय योगेश, अपना समय व्यतीत करने के अपने नौकर के बच्चों को पढ़ाना शुरू तो करते हैं मगर बेटे-बहू की ज़िद पर उन्हें मुंबई, उनके पास रहने के लिए जाना पड़ता है। अब देखना ये है कि बड़े शहर की आबोहवा रास आती है या नहीं। इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'एक साथी की तलाश' में दो दिन पहले रिटायर हुए मधुप उस वक्त परेशान हो जाते हैं जब बरसों से उनकी सेवा कर रहा बिस्वा हमेशा-हमेशा के लिए अपने गाँव जाने की बात करता है। अब देखना यह है कि अपने अहम की वजह से बरसों से अपनी पत्नी श्यामला से अलग रह रहे मधुप क्या अपनी ग़लती महसूस कर अपनी पत्नी के पास वापिस लौट पाएँगे या नहीं।


इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'ख़ामोश कोलाहल' में प्रेम विवाह के बावजूद तन्वी और देवांश के रिश्ते में विवाह के तीन वर्षों के भीतर ही अजनबियत भरा सूनापन अपने पैर पसार चुका है। जिसे दूर करने के लिए दोनों के परिवार मिल कर कुछ ऐसा करते हैं कि उनका आपसी रिश्ता फ़िर से पटरी पर लौट आता है। एक अन्य कहानी 'तार-तार रिश्ते' में 

13 वर्षीय संधू और उसका छोटा भाई बंटी उस वक्त खुशी के मारे पुलकित हो उठते हैं जब उन्हें पता चला है कि उनका 20 वर्षीय मामा सोनू, शहर में पढ़ाई के इरादे से उनके घर रहने के लिए आ रहा है। मगर देखना यह है कि दिन पर दिन समझदार होती संधू की वक्ती खुशी बरक़रार रह पाती है अथवा नहीं। 


एक अन्य कहानी 'दूर के दर्शन का सुख' में जहाँ 10वीं पास करने के बाद ग़रीब घर का बसंत अपने परिवार का सहारा बनने के इरादे से एक जानकार की मदद से दुबई में नौकरी करने चला जाता है। मगर अब देखना यह है कि घर-परिवार की ज़िम्मेदारी निबटाने के बाद भी वह वापिस घर लौट कर आता है या फ़िर वहीं का हो कर रह जाता है। तो वहीं एक अन्य कहानी 'नई इबारत' एक तरह से स्त्री अधिकारों की पैरवी सी करती हुई प्रतीत होती है। जिसमें घरेलू कामकाज के लिए लेखिका के घर सर्वेंट क्वाटर में रंजना नाम की एक पहाड़ी लड़की अपने तीन बच्चों के साथ रहने के लिए आती है। जिसे उसके पति ने एक तरह से छोड़ रखा है। उसके संघर्ष की कहानी सुनकर लेखिका मन ही मन अपनी बेटी से उसकी तुलना करने लगती है।


इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'नया दौर' में जहाँ एक तरफ़ जब निविधा अपने पति को बताती है कि उसका उपन्यास साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हो रहा है तो वह हर्षित होने के साथ-साथ अपने भीतर ग्लानि का अनुभव भी करता है कि विवाह के बाद वर्षों तक उसने अपनी पत्नी के हुनर को उभरने का मौका नहीं दिया। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी 'फ़क़त रेत' में लेखिका ने एक डायनिंग टेबल के चार पायों के माध्यम से स्त्रियों की स्थिति में पीढ़ियों के साथ आए बदलाव को बतलाने का प्रयास किया है कि किस तरह पहले की स्त्रियाँ अपने माता-पिता एवं पति की बात मान उनकी इच्छानुसार ही चला करतीं थीं। समय के साथ आए बदलाव में अगली पीढ़ी अपने मन की इच्छा का करने का प्रयास तो करती रही मगर पूर्णतया कभी सफ़ल नहीं हो पाई जबकि आज की स्त्री अपने हक़ की लड़ाई को सफलतापूर्वक लड़ने के साथ-साथ सवाल भी कर रही है। 


एक अन्य कहानी 'मन भये न दस बीस' में जहाँ 49 वर्षीय उस अविवाहित आरुषि की बात करती है जिसने कैरियर की चाह में अब तक विवाह नहीं किया है। अब उम्र के इस मुकाम पर जब वह एक साथी चाहती तो है मगर हर बार उसकी अफ़सरी की ठसक के बीच में आ जाने से कहीं भी उसकी बात नहीं बन पा रही। तो वहीं इस संकलन की अंतिम कहानी 'रिश्तों का आत्मघात' में जब शरद को उसके पिता की मृत्यु की बाद मकान के स्वामित्व को लेकर चाचा की तरफ़ से कानूनी नोटिस मिलता है वह हैरान रह जाता है कि जिस चाचा को बचपन से उसके पिता ने अपने पिता की मृत्यु के बाद पढ़ा-लिखा कर कमाने-धमाने लायक काबिल बनाया, उसी ने उस मकान पर अपने स्वामित्व के लिए नोटिस भेजा है जिसको बनाने के लिए सारा पैसा उसके पिता ने खर्च किया था। 


धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस कहानी संग्रह की कुछ कहानियाँ मुझे थोड़ी सतही या फ़िर भाषण देतीं सी भी लगीं। पढ़ते वक्त कुछ एक जगहों पर प्रूफ़रीडिंग की कमियों के अतिरिक्त कुछ वर्तनी की त्रुटियाँ भी दिखाई दीं।



पेज नंबर 13 में लिखा दिखाई दिया कि..


'उन्हें ऐसा लग रहा था... उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे वह उसे बहुत अच्छी तरह से जानते हैं'


इस वाक्य में 'उन्हें ऐसा लग रहा था' ग़लती से दो बार छप गया है। 


पेज नंबर 64 में लिखा दिखाई दिया कि..


'इतने वर्षों बाद अकेले घर में उनका दिल श्यामला की उपस्थिति में अजीब से कुतूहल से धड़क रहा था'


यहाँ 'कौतूहल' की जगह ग़लती से 'कुतूहल' छप गया है। 


पेज नंबर 68 पर लिखा दिखाई दिया कि..


'दोनों अब पाँच साल के रिश्ते को नाम देने का शिद्दत से सोचने की कोशिश कर रहे थे पर सोच पुख़्ता नहीं हो पा रही थी'


यह वाक्य सही नहीं बना। मेरे हिसाब से सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..


'दोनों अब पाँच साल के रिश्ते को नाम देने के बारे में शिद्दत से सोचने की कोशिश कर रहे थे पर सोच पुख़्ता नहीं हो पा रही थी'


पेज नंबर 69 में लिखा दिखाई दिया कि..


'वह कुछ-कुछ छिड़ता हुआ बोला'


यहाँ 'छिड़ता हुआ बोला' की जगह 'छेड़ता हुआ बोला' आएगा। 


पेज नंबर 87 में लिखा दिखाई दिया कि..


'पहली बार बसंत के तयेरे भाई मातवर ने यह जानकारी बसंत को दी थी'


इस वाक्य में ग़लती से शायद 'चचेरे भाई' की जगह 'तयेरे भाई' छप गया है क्योंकि 'तयेरे भाई' जैसा शब्द कभी मेरे पढ़ने में नहीं आया। 


इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..


'वहाँ यहाँ कि तरह छोटे-मोटे ढाबे नहीं होते'


यहाँ 'कि' की जगह 'की' आएगा। 


पेज नंबर 89 में लिखा दिखाई दिया कि..


'दुबई का ऐसा नशा चढ़ा था बसंत को कि ख़्वाबों में भी ख़्याली दुबई ही दिखता'


यहाँ 'ख़्याली दुबई ही दिखता' की जगह 'ख़ाली दुबई ही दिखता' आए तो बेहतर।


इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..


'बस आने के कुछ दिन मातवर भाई ने थोड़ा बहुत घुमा दिया था ख़ास-ख़ास जगह'


यह वाक्य मेरे हिसाब से सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..


'बस आने के कुछ दिनों बाद तक मातवर भाई ने थोड़ा बहुत घुमा दिया था ख़ास-ख़ास जगहों पर' 


इससे अगली पंक्ति मुझे सही से समझ नहीं आयी कि उसमें लिखा था कि..


'इस चमकती सुविधा-संपन्न दुबई में साधनहीन भला सामने कहाँ दिखेगा'


पेज नंबर 90 में लिखा दिखाई दिया कि..


'दो साल बाद बसंत का 10वीं पूरा हुआ'


यहाँ 'बसंत का 10वीं पूरा हुआ' की जगह 'बसंत की 10वीं पूरी हुई' आएगा।


इससे अगली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..


'उसके आसपास के जानने में कई लड़के बहरीन, क़तर वगैरह खाड़ी के कई दूसरे देशों में कुक, ड्राइवर, क्लीनर आदि की नौकरी के लिए गए हुए थे'


इस वाक्य में 'उसके आसपास के जानने में कई लड़के' की जगह 'उसके आसपास के जानने वालों में कई लड़के' आएगा। 


पेज नंबर 91 में लिखा दिखाई दिया कि..

'जब वह दुबई पहुँचा तो कुछ ही दिनों में उसकी नौकरी एक मॉल के 'कैरफ़ोर' में लग गई'


यहाँ 'उसकी नौकरी एक मॉल के 'कैरफ़ोर' में लग गई' की जगह 'उसकी नौकरी एक मॉल, 'कैरफ़ोर' (कैरिफोर) में लग गई' आएगा।


पेज नंबर 101 में लिखा दिखाई दिया कि..


'और गाहे-बगाहे रंजना के ननद का पति भी'


यहाँ 'रंजना के ननद का पति भी' की जगह 'रंजना की ननद का पति भी' आएगा। 


पेज नंबर 104 में लिखा दिखाई दिया कि..


'एक नाबालिग़ से बयान ने उसे इतने वर्षों का वनवास दे दिया'


यहाँ 'एक नाबालिग़ से बयान ने' की जगह 'एक नाबालिग़ के बयान ने' आएगा। 


पेज नंबर 105 में लिखा दिखाई दिया कि..


'लेकिन इसके तबके की बात यदि छोड़ दी जाए तो'


यहाँ 'लेकिन इसके तबके की बात यदि छोड़ दी जाए तो' की जगह ''लेकिन इस तबके की बात यदि छोड़ दी जाए तो' आएगा। 


पेज नंबर 108 में लिखा दिखाई दिया कि..


'35 की हो गई अनाया को माँ भी नहीं बनना है अभी भी'


यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि 


'35 की हो गई अनाया को माँ नहीं बनना है अभी'


पेज नंबर 116 का दिखाई दिया कि..


'उसके हाथ तो खज़ाने का नक्शा हाथ लग गया था'


इस वाक्य में दूसरी बार आए 'हाथ' शब्द की ज़रूरत ही नहीं है।


पेज नंबर 122 में लिखा दिखाई दिया कि..


'आज की लड़की माँ ही नहीं बनना चाहती... यह काफी सोचनीय प्रसंग है'


यहाँ 'सोचनीय प्रसंग है' की जगह 'शोचनीय प्रसंग है' आएगा। 


पेज नंबर 132 में लिखा दिखाई दिया कि..


'यह एक नई प्रकार के असंतुलन को जन्म दे रहा है'


यहाँ 'नई प्रकार के असंतुलन को जन्म दे रहा है' की जगह 'नए प्रकार के असंतुलन को जन्म दे रहा है' आएगा।


पेज नंबर 132 में आगे लिखा दिखाई दिया कि..


'स्त्रियों से उनकी मनसा नहीं पूछी जाती थी'


यहाँ 'मनसा नहीं पूछी जाती थी' की जगह 'मंशा नहीं पूछी जाती थी' आएगा। 


* रोब (जमाना) - रौब (जमाना) 

* कुतूहल - कौतूहल

* कोराना काल - कोरोना काल

* अज़माया - आज़माया


अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 157 पृष्ठीय इस बढ़िया कहानी संग्रह के पेपरबैक संस्करण को छपा है अद्विक प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 240/- रुपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।



घातक कथाएँ - अलंकार रस्तोगी


व्यंग्य से पहलेपहल मेरा वास्ता/परिचय नवभारत टाईम्स में छपने वाले शरद जोशी जी के अख़बारी कॉलम के ज़रिए हुआ। सरल शब्दों में उनकी लेखनी से निकला एक-एक व्यंग्य मुझे कहीं न कहीं..कुछ न कुछ सोचने एवं मुस्कुराने की वजह दे जाता था और मज़े की बात ये कि तब मुझे पता भी नहीं था कि व्यंग्य किस चिड़िया का नाम है और वो कहाँ..किस जंगल में और किस तरह के घोंसले में पाई जाती है।


शरद जोशी जी के लेखन में मुझे उनके द्वारा इस्तेमाल की गयी सरल भाषा एवं पठनीयता आकर्षित करती थी कि किस तरह गंभीर से गंभीर मुद्दों पर भी वे इतनी सरलता से लिख लेते हैं। दरअसल किसी भी कहानी, लेख, व्यंग्य अथवा उपन्यास में तत्व के साथ-साथ अगर मनोरंजन भरी पठनीयता भी हो तो उसे पढ़ना, समझना एवं उससे कुछ ग्रहण करना आसान हो जाता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए बहुत से लेखक/व्यंग्यकार अपनी बात को यथासंभव सरल तरीके से कहने का प्रयास करते हैं। 


दोस्तों... आज मैं सरल भाषा में लिखे गए एक ऐसे ही व्यंग्य संग्रह की बात करने जा रहा हूँ जिसमें व्यंग्यकार अलंकार रस्तोगी ने पुरानी धुन 'जातक कथाओं' (बौद्ध धर्म की कथाएँ) के आधार पर अपनी नई धुन 'घातक कथाएँ' रचने का प्रयास किया है।अनेक पुरस्कारों से सम्मानित लेखक अलंकार रस्तोगी का यह सातवाँ व्यंग्य संग्रह है। 


इस संकलन के किसी व्यंग्य में प्यासे कौवे के माध्यम से एक तरफ़ पानी की किल्लत से जूझने का मुद्दा उठाया जाता दिखाई देता है तो दूसरी तरफ़ शहर के पॉश इलाकों में स्विमिंग पूल इत्यादि के ज़रिए पानी की बरबादी पर भी तंज कसा जाता नज़र आता है। कहीं किसी व्यंग्य में साँप के माध्यम से डॉक्टरों द्वारा खामख्वाह के टेस्ट लिखे जाने एवं दलबदलू नेताओं की दल बदलने की आदत पर तंज कसने के प्रयास किया जाता दिखाई देता है।


इसी संकलन के एक अन्य व्यंग्य में गधों द्वारा संगठित होकर अपने उत्पीड़न के खिलाफ़ आवाज़ उठाने का प्रयास किया जाता दिखाई देता है। तो किसी अन्य व्यंग्य में पान मसाला चबाने वालों की भैंसों द्वारा जुगाली करने की आदत से तुलना की जाती नज़र आती है। कहीं भैंसों की बीच इस मुद्दे पर गहन चर्चा होती दिखाई देती है कि अक्ल उनसे छोटी होते हुए भी बड़ी कैसे है। 


कहीं किसी रचना में कछुए और ख़रगोश के बीच चुनावी जंग का माहौल बनता दिखाई देता है तो कहीं किसी अन्य रचना में पुरानी रचना के विपरीत एक लोमड़ी गधे को मूर्ख बना अंततः ऊँचाई पर लगे अँगूर पा ही लेती है। कहीं शेर, लोमड़ी और गधे के माध्यम से आम जनता के बार-बार नेताओं द्वारा मूर्ख बनाए जाने की बात का उल्लेख होता नज़र आता है। 


कहीं किसी रचना में लेखक गधे के सिर से सींगों के ग़ायब होने वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए राजनीति के लंपट नेताओं का उदाहरण देते नज़र आते हैं कि शरीफ़ दिखने के लिए उन्होंने अपने सींग कटवा कर ग़ायब किए हुए होते हैं। तो कहीं किसी व्यंग्य में जंगल के विभिन्न जानवरों की तुलना उनकी आदतों को ध्यान में रखते हुए इंसान के साथ की जाती दिखाई देती है। 


कहीं इंडियन आइडल सरीखे कार्यक्रमों में किसी प्रतिभागी को दीन-हीन दिखा, टीआरपी का खेल खेल जाने पर जनवरों के माध्यम से तंज कसने के साथ-साथ बिल्ली के गले में घंटी बाँधी जाती नज़र आती है। कहीं किसी रचना में कोई कुत्ता नदी में गिरी अपनी रोटी को फ़िर से पाने के लिए मछलियों को बरगलाता दिखाई देता है।


कहीं अजगर, शेर के साथ मिलकर अपनी सात पुश्तों के लिए भोजन का जुगाड़ करता दिखाई देता है। तो कहीं चींटी और टिड्डे के माध्यम से भारतीय राजनीति में सत्तापक्ष द्वारा बाँटे जाने वाले फ्री राशन इत्यादि पर हल्के फुल्के अंदाज़ में तंज कसा जाता दिखाई देता है। कहीं बिल्ली और चूहे का माध्यम से देश में बनने वाले मिलावटी दूध व अन्य चीज़ो के साथ-साथ देश के भ्रष्टतंत्र पर भी कटाक्ष किया जाता नज़र आता है। 

कहीं कौवे के काले रंग को ज़रिया बना देश भर में बिक रही फेयरनैस क्रीमों की व्यर्थता पर सवाल उठता दिखाई देता है। 


कहीं रोटी के पिछले बँटवारे से आहत बिल्लियाँ आपस में एका कर बन्दर को सबक सिखाने के लिए कमर कसती नज़र आती हैं। तो कहीं नौ सौ चूहे खा कर बिल्ली के हज पर चले जाने वाली कथा के माध्यम से इन्सान की तुलना विभिन्न जानवरों की डसने, रंग बदलने, धूर्तता आदि से की जाती नज़र आती है। कहीं रँगा सियार अपनी पिछली कथा से सबक लेता हुआ इस बार साधु का वेश बना जंगल-जंगल घूम कर अपने शिकार का प्रबंध करता दिखाई देता है। 


कहीं बन्दर की नकलची प्रवृति और टोपीवाले की टोपियों से प्रभावित रचना मोदी जी द्वारा वरिष्ठ लालकृष्ण आडवाणी जी को साइड लाइन कर अपने रास्ते से हटाने की घटना पर भी कटाक्ष करती दृष्टिगोचर होती है। साथ ही कुएँ में शेर के प्रतिबिंब और खरगोश की कहानी से प्रेरित एक अन्य रचना में शेर, मीडिया को अपने काबू में कर ख़रगोश की जंगल मे चल रही वर्तमान सरकार के खिलाफ़ अनर्गल एवं झूठी बातें फैला तथा जनता को अच्छे दिनों का झुनझुना दिखा सत्ता पर काबिज़ हो अपने विरोधियों को देशद्रोही बता जेल में ठूँसता दिखाई देता है।


कहीं किसी रचना में अपनी रंग बदलने की खूबी का कॉपीराइट करवाने को आतुर गिरगिट उस वक्त शर्मिंदा हो उठती है जब वो देखती है कि इन्सान तो रंग बदलने की कला में उससे भी ज़्यादा माहिर हो चला है। 


इस व्यंग्य संग्रह को पढ़ते वक्त मुझे कुछ एक जगहों पर तथ्यात्मक रूप से ग़लतियाँ दिखाई दीं जैसे कि

पेज नंबर 10 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..


'तब शायद अब की तरह लोगों का पानी मरा नहीं था'


यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि असली कहावत 'पानी मरना' नहीं बल्कि'आँख का पानी मरना' अर्थात बेशर्म होना है।


इसलिए यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..


'तब शायद अब की तरह लोगों की आँख का पानी मरा नहीं था'


इसी तरह पेज नम्बर 72 में लिखा दिखाई दिया कि..


'मैं पहले ही काले रंग के कारण सामाज से बेदखल हूँ और उस पर तुर्रा ये कि मैं हंस कि चाल भी नहीं उड़ सकता हूँ'


यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि किसी की चाल, चला जाता है ना कि उड़ा जाता है। पुरानी कहावत 'कौवा चला हंस की चाल' है ना कि 'कौवा उड़ा हंस की उड़ान' 


पढ़ते वक्त इस व्यंग्य संग्रह में जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना बहुत खला। साथ ही प्रूफ़रीडिंग और वर्तनी की स्तर पर हद से ज़्यादा त्रुटियाँ दिखाई दीं। जिससे ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे इस किताब की प्रूफ़रीडिंग की ही नहीं गयी है। किसी भी किताब में इतनी ज़्यादा प्रूफ़रीडिंग एवं वर्तनी की त्रुटियों का होना लेखक एवं प्रकाशक की साख पर बट्टा तो लगाता ही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस व्यंग्य संग्रह के आने वाले संस्करण एवं अन्य किताबों में इस तरह की कमियों को दूर करने का सार्थक प्रयास किया जाएगा। 


पेज नंबर 21 में लिखा दिखाई दिया कि..


'एक गधे के लिए 'गठबंधन' जैसा भारी भरकम शब्द दिमाग दस हज़ार वाट का लोड डाल गया'


यहाँ 'दिमाग दस हज़ार वाट का लोड डाल गया' की जगह 'दिमाग में दस हज़ार वाट का लोड डाल गया' आएगा। 


पेज नंबर 28 में लिखा दिखाई दिया कि..


'तुम्हें नहीं मालूम की नेता के लिए किसी को भी गधा बनाना कितना आसान काम है'


यहाँ 'तुम्हें नहीं मालूम की नेता के लिए' की जगह 'तुम्हें नहीं मालूम कि नेता के लिए' आएगा। 


पेज नम्बर 29 की पहली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..


'शेर की तरह सत्ता पाने वाल बन जाता है'


यहाँ 'सत्ता पाने वाल बन जाता है' की जगह 'सत्ता पाने वाला बन जाता है' आएगा।


पेज नंबर 38 में लिखा दिखाई दिया कि..


'वैसे भी उस पर रोटी गंवाने के बावजूद लालची का ठप्पा लगाने ही वाला था'


यहाँ 'लालची का ठप्पा लगाने ही वाला था' की जगह 

'लालची का ठप्पा लगने ही वाला था' आएगा। 


पेज नंबर 41 में लिखा दिखाई दिया कि..


'जिसमे उसे भी खानदानी रवायत के कारण 'सन बाथ' लेते हुए गुनगुनाने का पूरा मूड कर रहा था'


यहाँ 'जिसमे उसे भी खानदानी रवायत के कारण' की जगह 'जिसमें उसका भी खानदानी रवायत के कारण' आएगा।


पेज नंबर 45 में लिखा दिखाई दिया कि..


'उसे लगने लगा मानो पूरी चिड़िया जाति पर नजर ना लगे इसी लगे इसलिए उसे नजरबट्टू बनाकर भेजा गया है'


नुक्तों की कमी के अतिरिक्त इस वाक्य में 'इसी लगे' शब्दों की कोई ज़रूरत नहीं थी। 


पेज नंबर 55 में लिखा दिखाई दिया कि..


'बच्चे का नाम सुनते ही बकरी इमोशनल अत्याचार के आगे सियार के आगे नतमस्तक होते हुए बोली'


यहाँ 'इमोशनल अत्याचार के आगे' की जगह 'इमोशनल अत्याचार से डर कर' आएगा।


पेज नंबर 67 में लिखा दिखाई दिया कि नेताजी ने अपने श्रीमुख में पिछले आधे घंटे से भरे हुए पान मसाले पर रहम करते हुए उसे थूकते हुए कहा'


यहाँ 'पान मसाले पर रहम करते हुए उसे थूकते हुए कहा' की जगह 'पान मसाले पर रहम कर उसे थूकते हुए कहा' आएगा। 


इससे अगली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..


'तुम सबसे एक ठौ सवाल पूछ रहा हूँ देखे कौन बता लेता है'


यहाँ ' देखे कौन बता लेता है' की जगह 'देखें कौन बता पाता है' आएगा। 


पेज नंबर 70 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..


 'कुत्ते के जलवे घर में भी है'


यहाँ 'कुत्ते के जलवे घर में भी है' की जगह 'कुत्ते के जलवे घर में भी हैं' आएगा। 


पेज नंबर 72 में लिखा दिखाई दिया कि..


'वहाँ तो नेता से लेकर अभिनेता तक सब अपनी समस्या का समाधान करवाने के लिए वहाँ लाइन लगाए खड़े थे'


इस वाक्य में दो बार 'वहाँ' शब्द छप गया है जबकि दूसरे वाले 'वहाँ' शब्द की यहाँ कोई ज़रूरत ही नहीं थी।


इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..


'मैं पहले ही काले रंग के कारण सामाज से बेदखल हूँ और उसे पर तुर्रा ये कि मैं हंस कि चाल भी नहीं उड़ सकता हूँ'


यहाँ 'सामाज' की जगह 'समाज' आएगा। 

साथ ही 'हंस कि चाल' की जगह 'हंस की चाल' आएगा।


पेज नंबर 77 में लिखा दिखाई दिया कि..


'किसी ने शेर के खिलाफ खिलाफ परचा तक दाखिल नहीं किया'


इस वाक्य में 'खिलाफ' शब्द ग़लती से दो बार छप गया है।


पेज नंबर 80 के अंतिम पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..


'ना रहने की जगह है और खाने-पीने का सामान बचा है'


यहाँ 'और खाने-पीने का सामान बचा है' की जगह 'और न खाने-पीने का सामान बचा है' आएगा।


यूँ तो यह संग्रह मुझे विमोचन के दिन, हिंदी भवन - दिल्ली में आयोजकों की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस 84 पृष्ठीय व्यंग्य संग्रह के पेपरबैक संस्करण को छापा है इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए जो कि मुझे कंटेंट की दृष्टि से बहुत ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।


* बर्दास्त- बर्दाश्त

* उत्पीडन - उत्पीड़न

* फुल प्रूफ़ - फूलप्रूफ

* ख्रफिफ्टी - फिफ्टी

* अंतरमन - अंतर्मन

* बरसो से- बरसों से

* सिटी स्कैन - सी.टी स्कैन

* केचुल - केंचुल

* इन्ही - इन्हीं

* भैस - भैंस

* छटाक - छटाँक

* अकल - अक्ल

* डबल डोज - डबल डोज़

* झाडी - झाड़ी

* अशाश्वत - आश्वस्त

* अश्वासन - आश्वासन

* हडपने - हड़पने

* जिसमे - जिसमें

* चीटी - चींटी

* चौक कर - चौंक कर

* गाने गुनगाने - गाने गुनगुनाने

* गुनगुनी धुप - गुनगुनी धूप

* नजरबट्टू - नज़रबट्टू

* येन केन प्रकारेण - येन केन प्रकरेण 

* साथ ख्रसाथ - (साथ-साथ) 

* बाते - बातें

* कुंवे - कुँए

* नियत पाली हुई थी - नीयत पाली हुई थी

* मिडिया - मीडिया

* पलके - पलकें 

* रिर्सर्च - रिसर्च

* श्री मुख - श्रीमुख

* देखे - देखें

* रिसोर्ट - रिज़ॉर्ट

* लुवी डुवी - (लवी-डवी)

* सोलहवे दिन - सोलहवें दिन

* लोमड - लोमड़

* कपडे - कपड़े

* जित्तना - जितना

* उन्ही - उन्हीं

* दिलावाओं - दिलवाओ

* (खुशी-खुसी) - (खुशी-खुशी)

* सामाज - समाज

* समस्या ग्रस्त मिले - समस्याग्रस्त मिलें 

* ग्यारहवे - ग्यारहवें 

* पैसा वसूल लेते है - पैसा वसूल लेते हैं 

* खिलाफ - ख़िलाफ

* बढाने - बढ़ाने

* कोसो - कोसों 

* सिलिब्रिटी - सैलिब्रिटी

अंजुरी भर नेह - रेणु गुप्ता

अस्सी के दशक को लुगदी साहित्य का स्वर्णिम युग कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। युवाओं से लेकर अधेड़ों एवं बुज़ुर्गों तक के हाथ में इसी तरह के उपन्यास नज़र आते थे। घरों में पाबंदी होने के बावजूद किसी के तकिए के नीचे ऐसे उपन्यास नज़र आते तो कोई सबकी नज़र बचा इन्हें टॉयलेट अथवा स्टोर रूम इत्यादि में छिप कर पढ़ रहा होता था। बस अड्डों से लेकर रेलवे स्टेशनों तक, हर तरफ़ इन्हीं का बोलबाला था। गली मोहल्लों की छोटी-छोटी दुकानों में इस तरह के उपन्यास किराए पर मिला करते।
इन उपन्यासों में जहाँ एक तरफ़ रोमानियत से भरे ख़ुशनुमा पल नुमायां होते तो वहीं दूसरी तरफ़ घर-घर की कहानी के रूप में मौजूद घरेलू कलहों को इनमें भरपूर स्थान मिलता। इन उपन्यासों में कोई रोमांचक जासूसी कहानियों का दीवाना था तो कोई प्रेम कहानियों का। कहने का मतलब ये कि हर किसी को उसकी ज़रूरत एवं रुचि के अनुसार मनोरंजनहेतु उसके मतलब का सामान पढ़ने को मिल जाता। बॉलीवुड इन कहानियों से इतना ज़्यादा प्रेरित हुआ कि गुलशन नंदा सरीखे लुगदी साहित्य के लेखकों की कलम के ज़रिए कई फिल्में ब्लॉक बस्टर भी साबित हुईं। 
 दोस्तों...आज मैं 80 के दशक की कहानियों से प्रेरित एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे  'अंजुरी भर नेह' के नाम से लिखा है वरिष्ठ लेखिका रेणु गुप्ता जी ने। 
प्रेम के विभिन्न आयामों से गुज़रते हुए इस उपन्यास में मूल में एक तरफ़ कहानी है कॉलेज में वकालत की पढ़ाई कर रहे ग़रीब घर के देवव्रत और अमीर घर की चंदा के आपसी स्नेह, विश्वास एवं प्रेम की। किस्मत की मार कि जब जज बनने के बाद देवव्रत पहली बार चंदा से अपने प्रेम का इज़हार एक ऐसे प्रेमपत्र के ज़रिए करता है जो अपने लिखे जाने के अनेक वर्षों बाद तक दुर्भाग्य से चंदा को नहीं मिल पाता। पारिवारिक दबाव में आ चंदा को मिलनसार स्वभाव के एक आईपीएस अफ़सर वरदान से विवाह रचाना पड़ता है। बरसों बाद देवव्रत और चंदा फ़िर मिलते हैं मगर अब देखना ये है कि उनका रिश्ता कैसी और किस तरफ़ अपनी करवट बदलता है। 
कहने को तो इस उपन्यास के बारे में कहने को अभी बहुत कुछ बाक़ी है मगर बेहतर यही कि बाक़ी का मज़ा पाठकों की बेहतरी के लिए जस का तस छोड़ दिया जाए। 
सरल भाषा में लिखे गए इस तेज़ रफ़्तार में प्रूफरीडिंग की कुछ कमियों के अतिरिक्त दो-चार जगहों पर वर्तनी की त्रुटियाँ भी दिखाई दीं। साथ ही आवश्यकता होने पर भी बहुत सी जगहों पर नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला।
◆  पेज नंबर 125 में लिखा दिखाई दिया कि..
'ट्यूलिप आज संडे है और इस दिन तो गॉड ने भी हर काम की छुट्टी कर रखी है, फ़िर मुझे गरीब पर यह अत्याचार क्यों'
यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि छुट्टियों को गॉड यानी कि भगवान ने नहीं बल्कि हम जैसे इन्सानों द्वारा चुनी गयी सरकारों या फ़िर प्रतिष्ठानों ने छुट्टियों का दिन तय किया हुआ होता है। जो कि देश-देश या फ़िर राज्य-राज्य या फ़िर अलग-अलग प्रतिष्ठानों ने अपनी मर्ज़ी से नियत किया हुआ होता है। इनका एक जैसा होना कतई ज़रूरी नहीं है। इसलिए यह कहना कि छुट्टी का दिन गॉड तय करता है, कदापि सही नहीं है।
◆ किसी भी कहानी या उपन्यास में किसी भी पात्र की भाषा..लहज़ा उसके अभिभावकों की भाषा, माहौल, परिवेश एवं परवरिश अथवा प्रोफेशन के आधार पर तय होती है कि वह किरदार किस लहज़े या तरीके से बात करेगा। यहाँ इस उपन्यास की एक मुख्य पात्र 'ट्यूलिप' इस स्तर पर मुझे पिछड़ती हुई लगी कि कहानी के हिसाब से वह विदेशी माँ और भारतीय पिता की संतान है। 
उस पिता की संतान जिसका उसे सानिध्य महज़ 3 वर्ष की उम्र तक ही मिला। उसके बाद अभिभावकों का आपस में तलाक हो जाने की वजह से वह अपनी विदेशी माँ के साथ ही रही। ऐसे में उसका एकदम भारतीय लहज़े में चंद्रगुप्त इत्यादि की उक्तियाँ कोट करना या एकदम ख़ालिस उर्दू शब्दों का प्रयोग करना बतौर लेखक एवं पाठक मुझे अजीब लगा।  
यहाँ लेखिका को उसके संवाद लिखते वक्त अँग्रेज़ी/विदेशी लहज़े का ध्यान रखने के साथ-साथ उर्दू शब्दों से परहेज़ करना चाहिए था या फ़िर इसके पीछे किसी तार्किक वजह को बताना चाहिए था जैसे कि उसने विदेश में रह कर भारतीय संस्कृति एवं लहज़े की पढ़ाई इत्यादि की हुई थी। 
◆ उपन्यास में दो पात्रों के नामों 'आदि' और 'अभि' अन्य भिन्न अर्थ वाले शब्दों के नामों को लेकर थोड़ा भ्रम पैदा करते हैं।  'आदि' नामक पात्र का नाम (आदि, इत्यादि) शब्दों का तथा 'अभि' नामक पात्र का नाम 'अभी' शब्द  का। अतः इनके ये नाम ना हो कर कोई अन्य नाम होता तो बेहतर रहता।
इसके अतिरिक्त पेज नंबर 90 की दूसरी पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..
'पापा मल्टीनेशनल में प्रेसिडेंट हैं'
यहाँ 'मल्टीनेशनल में प्रेसिडेंट हैं' की जगह अगर 'मल्टीनेशनल कम्पनी में प्रेसिडेंट हैं' तो ज़्यादा अच्छे तरीके से क्लीयर होता।
इसके बाद पेज नंबर 91 में लिखा दिखाई दिया कि..
'उसने देखा, उनके पीछे एक बड़ी सी चट्टान पर बैठी धरा ज़ार-ज़ार रो रही थी'
यहाँ 'उसने देखा, उनके पीछे एक बड़ी सी चट्टान पर बैठी धरा ज़ार-ज़ार रो रही थी' की जगह 'उसने देखा कि उसके पीछे एक बड़ी सी चट्टान पर बैठी धरा ज़ार-ज़ार रो रही थी' आना चाहिए।
पेज नंबर 92 के अंतिम पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..
'वहाँ बीते घोर उतार-चढ़ाव भारी ट्रेनिंग ने अपने सभी ट्रेनीज़ को अपने देश की प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिदृश्य से परिचित कराया'
यहाँ ''वहाँ बीते घोर उतार-चढ़ाव भारी ट्रेनिंग ने' की जगह ''वहाँ बीती घोर उतार-चढ़ाव भारी ट्रेनिंग ने' आएगा। साथ ही 'अपने सभी ट्रेनीज़ को अपने देश की प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिदृश्य से परिचित कराया' की जगह 'सभी ट्रेनीज़ को अपने देश के प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिदृश्य से परिचित कराया' आएगा। 
पेज नंबर 101 में लिखा दिखाई दिया कि..
'रिश्तो में छलना से व्यथित, न जाने कितनी परतों में दबा-ढका उसका असली स्वरूप बहुत कम किसी की पकड़ में आता'
यहाँ 'रिश्तो में छलना से व्यथित' की जगह 'रिश्तों में छले जाने से व्यथित' आएगा। 
पेज नंबर 144 में लिखा दिखाई दिया कि..
'आई लव यू सो वेरी मच ट्यूलिप'
यहाँ 'सो' शब्द की ज़रूरत नहीं है। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
'आई लव यू वेरी मच ट्यूलिप'
* जियँ - जिएँ
* गिफ्टस् - गिफ्ट्स
* प्रेज़ेटस् - प्रेजेंट्स
* लाँ - लॉ
* प्राय - प्रायः
* होटेल - होटल
यूँ तो यह उपन्यास मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 179 पृष्ठीय इस बढ़िया उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है बोधरस प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 290/- जो कि मुझे थोड़ा ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। 

काला सोना - रेनु यादव

कुदरती तौर पर हर लेखक/कवि या किसी भी अन्य विधा में लिखने वाले साहित्यकार में यह गुण होता है कि वह अपने आसपास घट रही साधारण से दिखने वाली घटनाओं से भी कुछ न कुछ ग्रहण कर, उसे अपनी कल्पना एवं लेखनशक्ति के मिले-जुले श्रम से संवार कर किसी न किसी रचना का रूप दे देता है। अब यह उस लेखक या कवि पर निर्भर करता है कि उसने किस हुनर एवं संजीदगी से अपने रचनाकर्म को अंजाम दिया है। कई बार एक जैसा विषय होने पर भी किसी-किसी की रचना अपने धाराप्रवाह लेखन, भाषाशैली एवं ट्रीटमेंट की वजह से औरों की रचना से मीलों आगे पहुँच कामयाबी को प्राप्त करती है तो किसी-किसी की रचना में कोई न कोई ऐसी चूक हो जाती है कि रचना औंधे मुँह धड़ाम जा गिरती है।

दोस्तों ..आज मैं जिस कहानी संग्रह की यहाँ बात करने जा रहा हूँ उसे 'काला सोना' के नाम से लिखा है रेनु यादव ने। 

इस संकलन की पहली कहानी 'नचनिया' में जहाँ अपने अभिनय के शौक को पेशा बना चुका राजन, गाँव-देहात की दावतों में 'सोनपरी' के छद्म नाम से नारी वेश में नाच कर अपना तथा अपने परिवार का भरण पोषण करता है जबकि उसकी पत्नी को इस सब की जानकारी नहीं है। तो वहीं अगली कहानी 'काला सोना' देह व्यापार करने वाले 'बाछड़ समुदाय' की उस बच्ची, सुलेखा की व्यथा कहती है , जो 10-11 वर्ष की अवस्था में ही घरवालों के द्वारा देह व्यापार के धंधे में धकेले जाने पर घर छोड़ कर भाग जाती है और अनेक बुरे अनुभवों से गुज़रते हुए अंततः एक भले घर में शरण पाती है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ गाँव की होनहार, मेधावी लड़की वसुधा तमाम चेतावनियों के बावजूद अपने माँ-बाप से ज़िद कर के आगे पढ़ने के दिल्ली चली तो जाती है मगर दिल्ली जैसे बड़े शहर की आबोहवा क्या उसे रास आ पाती है? तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी घर से दूर रहकर अपनी ड्यूटी कर रहे उन सैनिकों की पत्नियों की व्यथा कहती है जो पीछे घर में अकेली रह जाती हैं। इस कहानी में कहीं कम तनख्वाह की वजह से घर में होने वाली दिक्कतों की बात होती नज़र आती है तो कहीं घर में रोज़मर्रा के खर्चों के लिए पैसों की किल्लत तो कहीं अकेली रह रही उन औरतों के पराए मर्दों की गिध्द दृष्टि का शिकार होने की बात होती दिखाई देती है। इसी कहानी में कहीं किसी कहानी में सेना के अफ़सरों द्वारा घर के निजी कामों के लिए भी सेना के सिपाहियों के इस्तेमाल होने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं भरे-पूरे घर में केवल एक ही व्यक्ति के कमाने से होने वाली दिक्कतों का जिक्र होता नज़र आता है। 

एक अन्य कहानी 'छोछक' एक तरफ़ कुरीतियाँ बन चुके पुराने रीति-रिवाज़ों पर प्रहार करती नज़र आती है तो दूसरी तरफ़ व्यर्थ के दिखावे और बिना हैसियत के अनाप-शनाप खर्च करने की आदतों के दुष्परिणामों के बारे में भी पाठकों को आगाह करने का प्रयास करती नज़र आती है कि किस तरह दिखावे के चक्कर में इस कदर कर्ज़े की चपेट में आ जाता है कि अंततः घर के मुखिया की चिंता की वजह से मृत्यु हो जाती है। एक अन्य कहानी जहाँ दस साल की छोटी उम्र में ही ब्याही जा चुकी उस फुलमतिया की व्यथा कहती है जिसके पेट में पनप रहे बच्चे को उसके सास-ससुर द्वारा जबरन गिरवा दिया गया। बच्चा गिराने के बाद जब वह दोबारा माँ ना बन सकी तो उसे गाँव वालों द्वारा एक ऐसी बाँझ का नाम दे दिया गया जो टोना टोटका करती है। अब तक गाँव वालों की गिद्ध नज़र से खुद को बचाती आ रही विधवा फुलमतिया, तानों से तंग आ कर एक बाबा की शरण में जाती है कि वह फ़िर से माँ बन सके।

 एक अन्य कहानी 'अमरपाली' में छोटी जाति की सोनवा पर गाँव का अधेड़ ठाकुर और उसका जवान बेटा, दोनों के दोनों मोहित हो उठते हैं। परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनती हैं कि सोनवा बड़े ठाकुर की रखैल बन कर हर तरह के सुख पा तो लेती है मगर क्या उसकी ऐशोआराम भरी ज़िन्दगी कायम रह पाती है? इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ बिना गौना हुए ही विधवा हो चुकी नीलम पर उसकी माँ, एक पाँच साल के बच्चे से ब्याह करने के लिए दबाव डालने लगती है कि उसके ससुराल वाले बाद में नीलम की छोटी बहन के ब्याह एवं दोनों भाइयों की पढ़ाई का सारा खर्चा भी वहन कर लेंगे। मगर अब देखना ये है कि क्या नीलम बिना आगा-पीछा सोचे माँ के इस फ़ैसले पर अपनी रज़ामंदी दे देगी।

एक अन्य कहानी में बड़े घर में बहु बन कर आने के बावजूद भी वो पैसे-पैसे की मोहताज रही कि घर की सारी आमदनी पर पुरुषों का ही कब्ज़ा रहता था। इसी वजह से वह अपनी बहुओं को कभी उनकी मुँह-दिखाई तक नहीं दे पाई, जिसका उसे मलाल था। अब देखना ये है कि क्या उसका यह दुख कभी दूर हो पाएगा। 

अच्छे विषय और बढ़िया ट्रीटमेंट होने के बावजूद भी अगर किसी किताब में हद से ज़्यादा कमियाँ नज़र आने लग जाएँ तो पाठकों का मज़ा किरकिरा होने में देर नहीं लगती। इस संकलन में ऐसी कमियाँ बहुत ज़्यादा दिखीं। लेखिका एवं प्रकाशक को चाहिए कि इस तरह की कमियों पर गौर कर इन्हें दूर करने का प्रयास करें। 

पढ़ते वक्त इस संकलन में आवश्यकता ना होने पर भी बहुत से शब्दों के ऊपर बिंदी लगी दिखाई दी। उदाहरण के तौर पर पेज नम्बर 63 में लिखा दिखाई दिया कि..

'कहाँ रह गयें भाई साहब'

यहाँ 'गयें' की जगह 'गए'/'गये' आना चाहिए। 

इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'हरिराम भी पीछे-पीछे लिफ्ट की ओर बढ़ गयें'

यहाँ भी 'गयें' की जगह 'गए'/'गये' आना चाहिए। 

इसी पेज पर आगे एक जगह 'रुके' शब्द की ज़रूरत होने पर भी 'रुकें' शब्द छपा दिखाई दिया। 

साथ ही आजकल के बहुत से लेखक स्त्रीलिंग और पुल्लिंग और एकवचन और बहुवचन के भेद में अंतर नहीं कर पाते और पुल्लिंग की जगह स्त्रीलिंग और स्त्रीलिंग की जगह पुल्लिंग का इस्तेमाल करने लग गए हैं। इस तरह की कमियाँ इस किताब में भी बहुत ज़्यादा दिखीं। जिन्हें ठीक किए जाने की ज़रूरत है।

पेज नंबर 8 में लिखा दिखाई दिया कि...

'पूरे नाच के दौरान उसकी एक गीत का सबको इंतजार रहता'

यहाँ 'उसकी एक गीत का' की जगह 'उसके एक गीत का' आएगा।

पेज नंबर 9 में लिखा दिखाई दिया कि..

'यह नचनिया की बड़ी कामयाबी मानी जाती है जब उसकी धड़कन के साथ होश होकर थिरक उठें'

यहाँ 'होश होकर थिरक उठें' की जगह 'होश खो कर थिरक उठें' आएगा। 

पेज नंबर 15 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उस समय रेखा की एक-एक बातें दीए की रोशनी की तरह लगने लगीं'

यहाँ 'एक-एक बातें' की जगह 'एक-एक बात' आएगा। 

पेज नंबर 17 में लिखा दिखाई दिया कि..

'आज उसकी नाच कजरी के रोकने से भी नहीं रुक रही'

यहाँ 'आज उसकी नाच कजरी के रोकने से भी नहीं रुक रही' की जगह 'आज उसका नाच कजरी के रोकने से भी नहीं रुक रहा' आएगा। 

पेज नंबर 19 में लिखा दिखाई दिया कि..

'और फिर डाइनिंग टेबल पर तीन-चार मुँह में हड्डियाँ कड़-कड़ तरड़-तरड़ करते हुए चूर-चूर होने लगीं'

यहाँ 'तीन-चार मुँह में हड्डियाँ कड़-कड़ तरड़-तरड़ करते हुए चूर-चूर होने लगीं' की जगह 'तीन-चार मुँहों में हड्डियाँ कड़-कड़ तरड़-तरड़ करते हुए चूर-चूर होने लगीं' आएगा।

पेज नंबर 20 में लिखा दिखाई दिया कि..

'इसलिए उसने नल की धार तेज़ कर लिया ताकि गाना सुनाई ना दे'

यहाँ 'नल की धार तेज़ कर लिया' की जगह 'नल की धार को तेज़ कर लिया' आएगा।

पेज नंबर 24 में लिखा दिखाई दिया कि..

'दूसरे दिन मैंने घर पर नज़र रखा'

यहाँ 'दूसरे दिन मैंने घर पर नज़र रखा' की जगह 'दूसरे दिन मैंने घर पर नज़र रखी' आएगा। 

पेज नंबर 31 में लिखा दिखाई दिया की ..

'गहरी विषाद से भर गई वसुधा'

यहाँ 'गहरी विषाद से भर गई वसुधा' की जगह 'गहरे विषाद से भर गई वसुधा' आएगा। 

पेज नंबर 35 में लिखा दिखाई दिया कि..

'हॉस्टल! एक दूसरी दुनिया की शुरुआत... खासकर हम जैसे गाँव से जाने वालों के लिए'

यहाँ 'गाँव से जाने वालों के लिए' की जगह 'गाँव से आने वालों के लिए' आएगा। 

पेज नंबर 46 में लिखा दिखाई दिया कि..

'इस समय उसे सब दिलासा देने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन झूठी'

यहाँ 'झूठी' नहीं बल्कि 'झूठा' आएगा। 

इसके बाद इसी पैराग्राफ में आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'कोई तो ऐसी तीर थी जो सीधा उसके दिल को चीर गई और खून भी नहीं निकला' 

यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'कोई तो ऐसा तीर था जो सीधा उसके दिल को चीर गया और ख़ून भी नहीं निकला'

पेज नंबर 64 में लिखा दिखाई दिया कि..

'देश-दुनियाँ की बातें करते हुए लोगों ने घंटों गुजार दी'

यहाँ 'दुनियाँ' की जगह 'दुनिया' आएगा और 'घंटों गुजार दी'
की जगह 'घंटों गुज़ार दिए' आएगा। 

इसके बाद पेज नंबर 65 में लिखा दिखाई दिया कि..

'वह अपने आप को झटकने की पूरी कोशिश कर रहा है पर शरीर पथरा गयी है'

यहाँ 'शरीर पथरा गयी है' की जगह 'शरीर पथरा गया है' आएगा। 

पेज नंबर 65 में दिखा दिखाई दिया कि..

'हरिराम सोने का बहाना बहुत देर तक नहीं कर सकें'

यहाँ 'सकें' की जगह 'सके' आएगा। 

इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'जिस लड़की की शादी है अगर सिर्फ उसके बारात और रिश्तेदारों को देखना हो तो अलग बात'

यहाँ 'अगर सिर्फ उसके बारात और रिश्तेदारों को देखना हो तो अलग बात' की जगह 'अगर सिर्फ़ उसकी बारात और रिश्तेदारों को देखना हो तो अलग बात' आएगा। 

इसी पेज पर आगे दिखा दिखाई दिया कि..

'उन्हें तो सोने की चेन देने ही थे फिर तीन बहनों के साथ नाइंसाफी कैसे किया जा सकता था' 

यहाँ 'उन्हें तो सोने की चेन देने ही थे' की जगह 'उन्हें तो सोने की चेन देनी ही थी' आएगा। साथ ही 'फिर तीन बहनों के साथ नाइंसाफी कैसे किया जा सकता था' की जगह 'फ़िर तीन बहनों के साथ नाइंसाफी कैसे की जा सकती थी' आएगा। 

पेज नंबर 66 में लिखा दिखाई दिया कि..

'मेरा भी चेन देखकर लोग कहते कि क्या चेन मिला है'

यहाँ 'क्या चेन मिला है' की जगह 'क्या चेन मिली है' आएगा।

पेज नंबर 67 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसी से अधिकतर लोगों ने आलीशान बंगला बनवा लिया'

यहाँ 'आलीशान बंगला बनवा लिया' की जगह 'आलीशान बंगले बनवा लिए' आएगा। 

इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि शेखर ने अपनी दायीं पैर के ऊपर बायीं पर चढ़ाते हुए कहा'

यहाँ 'दायीं पैर के ऊपर बायीं पर चढ़ाते हुए कहा' की जगह 'दाएं पैर के ऊपर बायां पेअर चढ़ाते हुए कहा' आएगा। 

पेज नंबर 68 में लिखा दिखाई दिया कि..

'सस्ता सस्ता सामान भी अगर खरीदेंगे तब भी नहीं हो पाएगा'

यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि 'सस्ते से सस्ता सामान खरीदेंगे तब भी नहीं हो पाएगा'। 

इससे अगली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसके घर में आदमी कितने हैं और औरत कितनी'

यहाँ 'औरत कितनी' की जगह 'औरतें कितनी' आएगा। 

पेज नंबर 69 में लिखा दिखाई दिया कि..

'शर्मा के रह गए हरिराम'

यहाँ 'शर्मा' की जगह 'शरमा' आएगा। 

पेज नंबर 69 में लिखा दिखाई दिया कि..

'अच्छा बताओ कितने दिन बचा है कुँआ पूजन में'

यहाँ 'कितने दिन बचा है कुँआ पूजन में' की जगह 'कितने दिन बचे हैं कुआँ पूजन में' आएगा। 

पेज नंबर 72 में लिखा दिखाई दिया कि..

'यह सब सुन कर फुले नहीं समा रही प्रेमवती'

यहाँ 'फुले नहीं समा रही प्रेमवती' की जगह 'फूले नहीं समा रही प्रेमवती' आएगा। 

पेज नंबर 73 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'हरिराम के हाथों से चाय का प्याला छुटकर नीचे गिर चुका था' 

यहाँ 'छुटकर नीचे गिर चुका था' की जगह 'छूट कर नीचे गिर चुका था' आएगा। 

पेज नंबर 83 में लिखा दिखाई दिया कि..

'हरिया ने भी पूरी ज़ोर लगा दी'

यहाँ ये ध्यान देने वाली बात है कि 'ताकत' लगाई जाती है जबकि 'ज़ोर' लगाया जाता है। इसलिए यहाँ 'पूरी ज़ोर लगा दी' की जगह 'पूरा ज़ोर लगा दिया' आएगा। 

पेज नंबर 85 में दिखा दिखाई दिया कि..

'मैं तुम्हें मरने दुँगा तब तो मरोगी मेरी जान'

यहाँ 'मैं तुम्हें मरने दुँगा' की जगह 'मैं तुम्हें मरने दूँगा' आएगा। 

पेज नंबर 85 के अंतिम पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसके मुँह में घुँट-धुँट  करके  पानी डाला जा रहा था'

यहाँ 'घुँट-धुँट  करके  पानी डाला जा रहा था' की जगह 'घूँट-घूँट करके  पानी डाला जा रहा था' आएगा। 

पेज नंबर 86 में लिखा दिखाई दिया कि..

'बस पुक्का फाड़कर रोना बाकी था'

यहाँ 'पुक्का फाड़कर रोना बाकी था' की जगह 'बुक्का फ़ाड़कर रोना बाक़ी था' आएगा।

पेज नंबर 90 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसका मुँह ठीक उन हाँफती साँसों की ओर था जिसे देख हाँफती साँसें हक्का-बक्का रह गयीं'

यहाँ 'हाँफती साँसें हक्का-बक्का रह गयीं' की जगह 'हाँफती साँसें हक्की-बक्की रह गयीं' आएगा।

इसी पेज पर आगे दिखा दिखाई दिया कि..

'दोनों पड़ोसी हैं और यहाँ इ गुड़ खिला रहे हैं'

यहाँ 'गुड़ खिला रहे हैं' की जगह 'गुल झील रहे हैं' आएगा। 

इसके अगले पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..

'फुलमतिया जोर से उबकाई लेते हुए घर की ओर भागी और सीधे घर में पहुँचकर कूंड़ी मार ली'

यहाँ 'कूंड़ी मार ली' की जगह 'कुंडी मार ली' आएगा। 

इसी पेज पर आगे दिखा दिखाई दिया कि..

'उसने अपने को पानी से तर करना चाहा लेकिन पानी भी आग ऊगल रहा था'

यहाँ 'पानी भी आग ऊगल रहा था' की जगह 'पानी भी आग उगल रहा था' आएगा। 

पेज नंबर 92 में लिखा दिखाई दिया कि एक दिन तो शिवरात्रि की मेला से खूब सुन्दर-सी गुड़िया भी लाया'

यहाँ 'शिवरात्रि की मेला से' की जगह 'शिवरात्रि के मेले से' आएगा। 

पेज नंबर 94 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसकी देह पर काले-लाल चकत्ते पड़े थे, जो लाठी घूसे के निशान थे'

यहाँ 'लाठी घूसे के निशान थे' की जगह 'लाठी घूसों के निशान थे' आएगा। 

पेज नंबर 104 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'बिस्तर पर करवट बदल बदल कर उसकी शरीर दुखने लगती'

यहाँ ' उसकी शरीर दुखने लगती' की जगह 'उसका शरीर दुखने लगता' आएगा। 

पेज नंबर 107 में लिखा दिखाई दिया कि..

'खेतों में मजूरी करने के लिए उसने दूसरे गाँव के चमार बस्ती से गुहार लगाई'

यहाँ 'दूसरे गाँव के चमार बस्ती से गुहार लगाई' की जगह 'दूसरे गाँव की चमार बस्ती से गुहार लगाई' आएगा।

पेज नंबर 117 की प्रथम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'कहीं बवंडर तो कहीं सोंय सोंय कर ऊबड़-खाबड़ पर पसरी हवा'

यहाँ 'सोंय सोंय कर ऊबड़-खाबड़ पर पसरी हवा' की जगह 'सांय सांय कर ऊबड़-खाबड़ पर पसरी हवा' आएगा। 

इसी वाक्य में आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'मानो उसने सारी धरती और आसमान को किसी वियोगात्मक जिद्द में जाकर मेल कराने की ठान लिया हो'

यहाँ ' वियोगात्मक जिद्द में आकर मेल कराने की ठान लिया हो' की जगह 'वियोगात्मक ज़िद में आकर मेल कराने की ठान  ली हो' आएगा।

इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'एक के बाद एक चीख और उसके ऊपर से बादलों की कड़कड़ाहट-गड़गड़ाहट कानों को फाड़े जा रहे हैं'

यहाँ 'कानों को फाड़े जा रहे हैं' की जगह 'कानों को फाड़े जा रही है' आएगा। 

इसी पेज के अंतिम पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..

'सर्प उसके सीने पर डंक मारने की खातिर मुँह उचका कर आगे की ओर बढ़ें कि सुधीर चिल्ला उठा'

यहाँ 'मुँह उचका कर आगे की ओर बढ़ें कि सुधीर चिल्ला उठा' की जगह 'मुँह उचका कर आगे की ओर बढ़े कि सुधीर चिल्ला उठा' आएगा। 

पेज नंबर 119 की पहली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि.. 

'वह उन भभाते और खुजलाते जगहों को सहला नहीं सकता'

यहाँ 'भभाते और खुजलाते जगहों को सहला नहीं सकता' की जगह 'भंभाती और खुजलाती जगहों को सहला नहीं सकता' आएगा। 

पेज नंबर 120 में लिखा दिखाई दिया कि किसी को उनके मकानमालीक ने तो किसी को नौकरी से ही निकाल दिया गया है'

यह सही वाक्य नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि 'किसी को उनके मकान मालिक ने नौकरी से ही निकाल दिया है'

पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'उस मृतक व्यक्ति का फोटो और उसके घर वालों का रोना- बिलखना सुधीर को देखा नहीं जा रहा'

यहाँ 'उसके घर वालों का रोना- बिलखना सुधीर को देखा नहीं जा रहा' की जगह 'उसके घर वालों का रोना- बिलखना सुधीर से देखा नहीं जा रहा' आएगा। 

पेज नंबर 123 में लिखा दिखाई दिया कि..

'सब्र की बाँध टूट गई'

यहाँ 'सब्र की बाँध टूट गई' की जगह 'सब्र का बाँध टूट गया' आएगा। 

पेज नंबर 124 में लिखा दिखाई दिया कि..

'घर में रखे राशन-पानी अब समाप्त हो चुके हैं'

यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'घर में रखा राशन-पानी अब समाप्त हो चुका है'

इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'शायद इस देश के न्यूज़ चैनल पर प्रतिबंध लग गया है'

यहाँ 'न्यूज़ चैनल पर प्रतिबंध लग गया है' की जगह 'न्यूज़ चैनलों पर प्रतिबंध लग गया है' आएगा। 

इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'लेकिन सांकेतिक रूप से कभी कभार कुछ रिपोर्टर्स आ जाते हैं कि उन सप्लाई का फायदा सबसे पहले मददगार देश के सैनिकों और नागरिकों को दी जाने लगी है'

यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

''लेकिन सांकेतिक रूप से कभी कभार कुछ रिपोर्टर्स आ जाते हैं कि उस सप्लाई का फायदा सबसे पहले मददगार देश के सैनिकों और नागरिकों को दिया जाने लगा है' आएगा। 

यहाँ एक बात और ध्यान देने वाली है कि लेखिका की कहानी के हिसाब से कोरोना काल में कोई मददगार देश भारत को खाना और दवाइयाँ इत्यादि दे कर हमारी मदद कर रहा है लेकिन उपरोक्त वाक्य में लेखिका खुद कंफ्यूज़न का शिकार हो गयी हैं कि मददगार देश आखिरकार किसकी मदद कर रहा है। उनके लिखे अनुसार मददगार देश हमारे देश की मदद करने के बजाय खुद अपने ही देश के सैनिकों एवं नागरिकों
को आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई कर रहा है। 

पेज नंबर 124 में आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'मददगार देश ने इस देश के लोगों को घर से निकलने पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी है'

यहाँ 'इस देश के लोगों को घर से निकलने पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी है' की जगह 'इस देश के लोगों पर घर से निकलने पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी है' आएगा।

पेज नंबर 125 की पहली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'मददगार देश के सैनिकों ने एक साथ पूरे परिवार की लाश निकाली'

यहाँ 'एक साथ पूरे परिवार की लाश निकाली' की जगह 'एक साथ पूरे परिवार की लाशें निकालीं' आएगा। 

इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'लेकिन उसे पता है कि हर जगह मददगार देश सी.सी.टी.वी कैमरे के जरिए घात लगाए बैठी है'

यहाँ 'मददगार देश सी.सी.टी.वी कैमरे के जरिए घात लगाए बैठी है' की जगह 'मददगार देश सी.सी.टी.वी कैमरे के जरिए घात लगाए बैठा है' आएगा। 

पेज नंबर 130 में लिखा दिखाई दिया कि..

'बुढ़ापे में पैसों की इतनी लालच कहाँ से घेर लिया मलिकाइन को'

यहाँ 'पैसों की इतनी लालच कहाँ से घेर लिया मलिकाइन को' की जगह 'पैसों का इतना लालच कहाँ से घेर लिया मलिकाइन को' आएगा। 

पेज नंबर 132 में लिखा दिखाई दिया कि..

'अपमान से उपजे बदले की भावना को सकारात्मक रूप में स्थानांतरित कर दो'

यहाँ ''अपमान से उपजे बदले की भावना को' की जगह ''अपमान से उपजी बदले की भावना को' आएगा। 

पेज नंबर 136 में लिखा दिखाई दिया कि..

'इसलिए उसने अपने विषय में लोगों के सोच की कभी परवाह नहीं की'

यहाँ 'लोगों के सोच की कभी परवाह नहीं की' की जगह 'लोगों की सोच की कभी परवाह नहीं की' आएगा।

पेज नंबर 138 में लिखा दिखाई दिया कि..

'लड़कियों पर लगाम लगाना ही चाहिए'

यहाँ 'लगाम लगाना ही चाहिए' की जगह 'लगाम लगानी ही चाहिए' आएगा। 

पेज नंबर 139 में लिखा दिखाई दिया कि..

'इतनी तकलीफ तो एसिड ने भी नहीं दिया जितना कि पंचायत ने'

यहाँ 'इतनी तकलीफ तो एसिड ने भी नहीं दिया जितना कि पंचायत ने' की जगह 'इतनी तकलीफ तो एसिड ने भी नहीं दी जितनी कि पंचायत ने' आएगा। 

इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'यह जान लो, कानून तुम्हारी मुट्ठी में होगी लेकिन मेरा कानून अब मैं खुद लिखूँगी'

यहाँ 'कानून तुम्हारी मुट्ठी में होगी' की जगह 'कानून तुम्हारी मुट्ठी में होगा' आएगा। 

इसी पैराग्राफ में आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'द्रौपदी की तरह महाभारत करवा के सब का नाश नहीं कर दी, तो मेरा नाम भी रूपा नहीं' 

यहाँ 'द्रौपदी की तरह महाभारत करवा के सब का नाश नहीं कर दी' की जगह 'द्रौपदी की तरह महाभारत करवा के सब का नाश नहीं कर दिया' आएगा।

पेज नंबर 140 की पहली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'पहली बार महसूस हुआ कि भगवान कहे जाने वाले पवित्र आत्माएँ ऊँचे चबूतरे पर बैठकर भी डरते बहुत हैं।

यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'पहली बार महसूस हुआ कि भगवान कही जाने वाली पवित्र आत्माएँ भी पंचायत के ऊँचे चबूतरे पर बैठकर डरती बहुत हैं। 

इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'अपनापन के लिए रूपा तरसकर रह गई'

यहाँ 'अपनापन के लिए रूपा तरसकर रह गई' की जगह 'अपनेपन के लिए रूपा तरस कर रह गई' आएगा। 

पेज नंबर 141 के शुरू में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसके चेहरे पर खिंचीं हजारों रेखाएँ उभर आयीं और हजारों रेखाएं मन पर खींच आयीं'

यहाँ 'हजारों रेखाएं मन पर खींच आयीं' की जगह ' हज़ारों रेखाएँ मन पर खिंच आयीं' आएगा।

पेज नंबर 142 में लिखा दिखाई दिया कि..

'हमें खुद को तीसरे की नज़रिए से बचाना होगा'

यहाँ 'तीसरे की नज़रिए से बचाना होगा' की जगह 'तीसरे के नज़रिए से बचाना होगा' आएगा।

इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'ईज़्जत और प्यार के नाम पर अपने खिलाफ रचे जा रहे साजिशों को रोकना होगा'

यहाँ 'ईज़्जत और प्यार के नाम पर अपने खिलाफ रचे जा रहे साजिशों को रोकना होगा' की जगह 'इज़्ज़त और प्यार के नाम पर अपने खिलाफ़ रची जा रही साज़िशों को रोकना होगा' आएगा। 

इसी किताब में वर्तनी की त्रुटियाँ भी हद से ज़्यादा दिखाई दीं। जिन्हें ठीक किए जाने की ज़रूरत है।

* मूर्ती - मूर्ति
* तीरछे - तिरछे
* फूर्ती - फुर्ती
* कूर्सी - कुर्सी
* ढीबरी का तेल - ढिबरी का तेल
* दूबारा - दुबारा
* मेकप - मेकअप
* बेतहासा- बेतहाशा
* बारीश - बारिश
* बारीस - बारिश
* बेवशी- बेबसी
* कूकर- कुक्कर
* ससूर जी - ससुर जी
* भलेमानूष - भलेमानस/भलेमानुष
* साफ-सूथरा - साफ़-सूथरा
* तुफान- तूफ़ान
* कूल्फी - कुल्फ़ी
* महिने - महीने
* खुंखार - खूँखार
* टिसती - टीसती
* बेवश - बेबस
* बेवस - बेबस
* मूर्गी - मुर्गी
* नोएड़ा - नॉएडा/नोएडा
* सूनसान - सुनसान
* नाबालिक - नाबालिग़
* किडनैपिक - किडनैपिंग
* ससूर - ससुर
* खुशीहाली - खुशहाली
* खातीर - खातिर
* (हाड-माँस) - (हाड़-माँस)
* घुमती - घूमती
* घुमने - घूमने
* घुमते - घूमते
* (टीप-टॉप) - (टिप-टॉप)
* सपाचट्ट - सफ़ाचट
* घुमना - घूमना
* जिंस - जीन्स
* (वेश-भुषा) - वेशभूषा
* इक्ज़ाम - एग्ज़ाम
* आतूर - आतुर
* आश्रीत - आश्रित
* ईज्ज़त - इज़्ज़त
* दुसरे दिन - दूसरे दिन
* किसमत - किस्मत
* खींचवा - खिंचवा
* एड़मिशन - एडमिशन
* दुनियाँ - दुनिया
* रूक - रुक
* ठंड़ी - ठंडी
* बुढ़ी - बूढ़ी
* बुढ़ा - बूढ़ा
* टूकड़ा - टुकड़ा
* श्वसूर - श्वसुर
* जाय - जाए
* ठड़ें - ठंडे
* महिने - महीने
* पूरखों - पुरखों
* बरक्कत - बरक़त
* कोल्ड्रिंक - कोल्ड ड्रिंक
* मुँछें - मूँछें 
* मुँछ - मूँछ
* बुजूर्गों - बुज़ुर्गों
* खेल-खुद - खेलकूद
* चुल्हे चूल्हे
* निर्भिक - निर्भीक
* दूलराने - दुलराने
* पूचकारने - पुचकारने
* छूआ - छुआ
* चुम - चूम
* गुडिया - गुड़िया
* चेकप - चेकअप
* होठ - होंठ
* भष्म - भस्म
* मालीक - मालिक
* ठाकूरों - ठाकुरों
* भलेमानूस - भलेमानुस
* बेहुदगी - बेहूदगी
* शुकून - सुकून
* खातीर - ख़ातिर
* दूलहे - दूल्हे
* घुँट - घूँट
* सटिक - सटीक
* जबाब - जवाब
* (खुसूर-फुसूर) - (खुसर-फुसर)
* दूआरे - दुआरे
* बिमारी - बीमारी
* जूटाने - जुटाने
* जिद्द - ज़िद
* फण (साँप का) - फन (साँप का)
* जीव्हाएँ - जिव्हाएँ
* झाँग (विष की)  - झाग
* झाँगों (विष भरे) - झागों
* डंसने - डसने
* भनभना - भिनभिना
* भनभनाती - भिनभिनाती
* फूँफकार (साँप की) - फुँफकार
* फूँफकारी - फुँफकारी
* जिह्वा - जिव्हा
* बेड़रूम - बैडरूम
* चेहरा भभा रहा है - चेहरा भंभा रहा है
* भभाते - भंभाते
* नज़र गडाए - नज़र गड़ाए
* मकानमालीक - मकान मालिक
* नास्ता - नाश्ता
* सदमें - सदमे
* जीवन बीता दिया - जीवन बिता दिया
* (कूल-खानदान) - (कुल-खानदान)
* मुर्छित - मूर्छित
* अर्धमुर्छित - अर्धमूर्छित
* (लात-घुसों) - लात-घुसों
* नातीनों - नातिनों
* नातीन - नातिन
* मसक्कत - मशक्क़त
* रिक्वेष्ट - रिक्वेस्ट
* घुँघट - घूँघट
* शकी - शक्की
* ऊभर - उभर (उभरना)
* (ऊल-जलुल) - (ऊल-जलूल)

142 पृष्ठीय इस कहानी संकलन को छापा है शिवना प्रकाशन ने और अमेज़न पर फ़िलहाल यह किताब 200/- रुपए में मिल रही है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत- बहुत शुभकामनाएं।

उंगलियाँ - मेघ राठी

मृत्य के बाद के जीवन को लेकर विभिन्न लोगों के बीच भिन्न-भिन्न मत या भ्रांतियाँ हैं। कुछ का कहना है कि मृत्यु की प्राप्ति अगर शांतिपूर्वक ढंग से ना हुई हो या मरते वक्त कोई अथवा कुछ इच्छाएँ अधूरी रह जाएँ तो आत्मा/रूह 
को मुक्ति नहीं मिल पाती है और वो तब तक इस संसार में भटकती रहती हैं जब तक कि उनकी वे मनवांछित इच्छाएँ पूरी नहीं हो जाती। 

इन्हीं भटकती आत्माओं के डर के आगे बहुतों ने भयभीत हो घुटने टेक दिए तो इनसे निजात दिलाने के नाम पर कईयों ने तंत्र-मंत्र के ज़रिए इन आत्माओं साधने का दावा किया तो किसी ने झाड़-फूँक के ज़रिए इन पर काबू पाने के उपाय बता इस काम को अपनी कमाई का ज़रिया बना लिया तो किसी ने समाज सेवा के नाम पर इस काम को बिना किसी लालच के करना शुरू किया।

दोस्तों...आज भूत-प्रेत और आत्माओं से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं इसी विषय पर आधारित एक ऐसे उपन्यास का यहाँ जिक्र करने जा रहा हूँ जिसे "उंगलियाँ" के नाम से लिखा है मेघा राठी ने। 

इस उपन्यास की मूल में कहानी है उस कमल की जो मिहिर से अपने ब्याह के बाद उसके साथ रहने के लिए पहली बार उस शहर में आयी है जहाँ उसके पति की नौकरी है। पहली रात से ही उनके साथ कुछ ऐसी अप्रत्याशित घटनाएँ घटने लगती हैं कि वे घबरा जाते हैं। अनिष्ट की आशंका से डरे हुए दंपत्ति के घर अनुष्ठान के लिए आया पंडित घर में हो रही असामान्य घटनाओं का कारण  प्रेतबाधा बताता है। जिससे मुक्ति के सफ़र में उनकी मुलाकात एक अन्य तंत्र साधक लड़की से होती है जिसके द्वारा वे अपनी समस्या के समाधान के लिए उसके गुरूजी से मिलते हैं। जो तांत्रिक क्रियाओं के ज़रिए उनके कष्ट दूर करने का प्रयास करते हैं।

वर्तमान और भूत के बीच भटकती इस कहानी में कहीं राजे-रजवाड़ों और ज़मींदारों से जुड़ी बातें पढ़ने को मिलती हैं तो कहीं स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी बातों से पाठक दो चार होता नजर आता है। पुनर्जन्म के गलियारों के बीच विचरती इस कौतूहल भरे रोमांच से लबरेज़ कहानी में कहीं आपका सामना औघड़, डाकिनी एवं पिशाचिनी से होता है तो कहीं कहानी के बीच कोई शापित वृक्ष अपनी मौजूदगी दर्ज कराने को उतावला हो उठता है। कहीं अतृप्त प्रेम की याद में तड़पती कोई यक्षिणी बदला लेने कोई उतारू दिखाई देती है तो कहीं पाठक अचानक टपक पड़ी रहस्यमयी घटनाओं से रूबरू होता नज़र आता है। इसी उपन्यास में कहीं मरणोपरांत आत्मा की गति, पुनर्जन्म, कापालिक एवं औघड़ अनुष्ठानों से जुड़ी बातों के ज़रिए पाठकों को रहस्य एवं जिज्ञासाभरे माहौल के बीच सिहरन, रोमांच, भय और वीभत्स रस की मिश्रित अनुभूतियों से दोचार होना पड़ता है। 

उपन्यास पढ़ते वक्त वर्तनी की त्रुटियों एवं वाक्य विन्यास की कमियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग की ग़लतियाँ भी दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 103 में लिखा दिखाई दिया कि..

'हर तरफ से आश्वस्त होने के बाद उन्होंने कमल और मिहिर को पूजा घर में बैठ कर काली माँ का गायत्री मंत्र जपने के लिए कहा'

यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि 'गायत्री मंत्र' का जाप काली माँ के लिए नहीं बल्कि वैदिक ऋचाओं की देवी, जिन्हें वेद माता के नाम से भी जाना जाता है, को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है। 'वेद माता' यानी कि 'गायत्री' के तीन सिर होने की वजह से उन्हें त्रिमूर्ति की देवी भी कहा जाता है जो कि देवी सरस्वती, देवी पार्वती और देवी लक्ष्मी का ही अवतार हैं।

पेज नम्बर 135 में बाज़ार से गुजरते हुए साधना और कमल को एक दुकान में एक शॉल पसन्द आ जाती है लेकिन उस वक्त उनका उसे खरीदने का कोई इरादा नहीं होता। दुकानदार के खरीदने के लिए कहने पर भी वे इनकार कर देती हैं। तभी उन्हें दुकान के भीतर बने हुए दुकानदार के घर में एक बुढ़िया दिखाई देती है लेकिन उनके पता करने पर दुकानदार घर में किसी बुढ़िया के होने से इनकार कर देता है।

इसके बाद छठे पेज में अचानक दुकानदार के नाम 'नवीन' का जिक्र टपक पड़ता है। जो कि पहले कहीं नहीं था।

आमतौर पर होता क्या है कि लेखक अपनी कहानी का आरंभ और अंत सोच लेता है कि उसे कहाँ से शुरू करेगा और कहाँ ले जा कर ख़त्म करेगा। मगर यह उपन्यास मुझे आजकल के डिमांड एण्ड सप्लाई वाले तरीके के जैसे लगा कि कहानी को चैनल, प्रोड्यूसर या एप की डिमांड के हिसाब से लंबा खींचना है, तो लो जी आप जितना लंबा चाहो, लंबा खींच देते हैं।

इसी वजह से यह उपन्यास मुझे एक मुकम्मल कहानी के बजाय किश्तों में बँटी हुई कहानी जैसा लगा मानो एकता कपूर सरीखा कोई सीरियल चल रहा हूँ कि हर एपिसोड में कोई नयी तांत्रिक विधि या किसी अलग ही विधान का कोई नया पंगा डाल कर कहानी को जबरन आगे बढ़ाया जा रहा हो।

उपन्यास के कवर पेज के आकर्षक और छपाई के बढ़िया होने के बावजूद इस तरह की कमियाँ अखरती हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि लेखिका एवं प्रकाशक इस तरह की कमियों को दूर करने का यथासंभव प्रयास करेंगे। इस 204 पृष्ठीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है फ्लाई ड्रीम्स पब्लिकेशंस ने और इसका मूल्य रखा गया है 249/-  रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

पाकिस्तान मेल - खुशवंत सिंह - उषा महाजन (अनुवाद)


भारत-पाकिस्तान के त्रासदी भरे विभाजन ने जहाँ एक तरफ़ लाखों करोड़ों लोगों को उनके घर से बेघर कर दिया तो वहीं दूसरी तरफ़ जाने कितने लोग अनचाही मौतों का शिकार हो वक्त से पहले ही इस फ़ानी दुनिया से कूच कर गए। हज़ारों-लाखों लोग अब तक भी अपने परिवारजनों के बिछुड़ जाने के दुख से उबर नहीं पाए हैं। सैंकड़ों की संख्या में बलात्कार हुए और अनेकों बच्चे अपने परिवारजनों से बिछुड़ कर अनाथ के रूप में जीवन जीने को मजबूर हो गए। इसी अथाह दुःख और विषाद से भरी घड़ियों को ले कर अब तक अनेकों रचनाएँ  लिखी जा चुकी हैं और आने वाले समय में भी लिखी जाती रहेंगी। 


दोस्तों आज मैं इसी भयंकर राजनैतिक भूल से उपजी दुःख और अवसादभरी परिस्थितियों को ले कर रचे गए ऐसे उपन्यास के हिंदी अनुवाद की बात करने जा रहा हूँ जिसे मूलतः अँग्रेज़ी में 'ट्रेन टू पाकिस्तान' के नाम से लिखा था प्रसिद्ध अँग्रेज़ी लेखक 'खुशवंत सिंह' ने और इसी उपन्यास का 'पाकिस्तान मेल' के नाम से हिंदी अनुवाद किया है उषा महाजन ने।


इस उपन्यास की मूल कथा में एक तरफ़ कहानी है भारत-पाकिस्तान की सीमा पर बसे एक काल्पनिक गाँव 'मनो माजरा' में रहने वाले जग्गा नाम के एक सज़ायाफ्ता मुजरिम की। जिसने अपने गांव की ही एक मुस्लिम युवती के प्यार में पड़ सभी बुरे कामों से तौबा कर ली है। इसी बात से नाराज़ उसके पुराने साथियों को उसकी ये तौबा रास नहीं आती और वे जानबूझकर उसे फँसाने के लिए उसी के गांव में डाका डाल कर एक व्यक्ति की हत्या कर देते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है वामपंथी विचारधारा से प्रेरित एक पढ़े-लिखे सिख युवक इकबाल सिंह की, जिसे आम जनता के विचारों की टोह लेने एवं उन्हें प्रभावित करने के मकसद से 'मनो माजरा' में उसके नेताओं द्वारा भेजा गया है। 


इस उपन्यास में कहीं भारत-पाक विभाजन की त्रासदी के दौरान पनपती आपसी नफ़रत और अविश्वास की बात होती नज़र आती है तो कहीं धार्मिक सोहाद्र और इंसानियत से भरी प्रेमभाव की बातें होती नज़र आती हैं। कहीं कत्लेआम के ज़रिए दोनों पक्षों (हिंदू और मुसलमान) के निरपराध नागरिक हलाक होते नज़र आते हैं तो कहीं अफसरों के ऐशोआराम और अय्याशियों की बात होती नजर आती है। 


कहीं देश हित के नाम पर तख़्तापलट के ज़रिए सत्ता परिवर्तन के मंसूबों को हवा मिलती दिखाई देती है तो कहीं देश में बेहिसाब बढ़ती जनसंख्या की बात की जाती दिखाई देती है।

इसी उपन्यास में कहीं जबरन उलटे- सीधे आरोप लगा कर किसी को भी पुलिस अपने जाल में फँसाती नज़र आती है तो कहीं पुलिस थानों में होने वाली कागज़ी कार्यवाही में अपनी सुविधानुसार लीपापोती की जाती दिखाई देती है। कहीं जेल में कैदियों को दी जाने वाली सुविधाओं में भी कैदी-कैदी के बीच भेदभाव होता दिखाई देता है तो कहीं सरकारी महकमों में पद और योग्यता के हिसाब से ऊँच-नीच होती नज़र आती है।


इसी कहानी में कहीं हिन्दू लाशों से भर कर पाकिस्तान से ट्रेन के आने की बात के बाद सरकारी अमला अलर्ट मोड में आता दिखाई देता है तो कहीं गाँव घर से इकट्ठी की गई लकड़ी और मिट्टी के तेल की मदद से उन्हीं लाशों का सामुहिक दाहकर्म होता दिखाई देता है। कहीं लकड़ी और तेल की कमी के चलते सामूहिक रूप से लाशें दफनाई जाती नज़र आती हैं। तो कहीं  सरकार एवं पुलिस महकमा अपने उदासीन रवैये के साथ पूरी शिद्दत से मौजूद नज़र आता है। कहीं लूट-खसोट, छीनाझपटी और बलात्कार इत्यादि में विश्वास रखने वाले हावी होते नज़र आते हैं तो कहीं पुलिसिया कहर और हुक्मरानों द्वारा जबरन अपनी इच्छानुसार किसी पर भी कोई भी इल्ज़ाम थोप देने की बात होती नज़र आती है। 


इसी किताब में कहीं अंधविश्वास और सेक्स से जुड़ी बातों को लेकर भारतीय मानसिकता की बात की जाती दिखाई देती है। तो कहीं मिलजुल कर शांति और प्रेमभाव से रह रहे सिखों और मुसलमानों के बीच शक-शुबह के बीज बो नफ़रत पैदा करने के हुक्मरानी मंसूबो को हवा मिलती नज़र आती है। कहीं पाकिस्तान की तरफ़ से सतलुज नदी में कत्ल कर दिए गए बेगुनाह बच्चों, बूढ़ों और औरतों के कष्ट-विक्षत शवों के बह कर भारत की तरफ़ आने का रौंगटे खड़े कर देने वाला दृश्य पढ़ने को मिलता है। तो कहीं योजना बना कर मुसलमानों से भरी पाकिस्तान जा रही ट्रेन में सामूहिक नरसंहार को अंजाम दिया जाता दिखाई देता है। जिस पर पुलिस एवं स्थानीय प्रशासन भी अपने उदासीन रवैये के ज़रिए इस सब को होने देने के लिए रज़ामंद नज़र आता है। 


इस तेज़, धाराप्रवाह, रौंगटे खड़े कर देने वाले रोचक उपन्यास 

में कुछ एक जगहों पर मुझे प्रूफरीडिंग की कमियाँ दिखाई दीं। जिन पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है। 


● पेज नंबर 100 में लिखा दिखाई दिया कि..


'आग की लाल लपटें काले आकश में लपक रही थीं'


यहाँ 'काले आकश में' की जगह 'काले आकाश में' आएगा। 


● पेज नंबर 109 में लिखा दिखाई दिया कि..


'बादलों के काले पंखों में हवा भर रही है। हवा से प्रकाश को लजा जाती है। बादलों के काले पंखों में हवा भर रही है।


यहाँ 'हवा से प्रकाश को लजा जाती है' की जगह 'हवा से प्रकाश को लज्जा आती है' या फ़िर 'हवा से प्रकाश को लज्जा आ रही है' आना चाहिए।


इसके बाद अगली पंक्ति में एक बार फ़िर से लिखा दिखाई दिया कि..


'बादलों के काले पंखों में हवा भर रही है'


यह पंक्ति ग़लती से दो बार छप गई है। 


● पेज नंबर 123 में लिखा दिखाई दिया कि..


'हफ्ते-भर तक इकबाल अपनी कोठी में अकेला ही था'


इस दृश्य में इकबाल थाने में बंद है। इसलिए यहाँ 'कोठी' नहीं 'कोठरी' आना चाहिए। 


● पेज नंबर 125 में लिखा दिखाई दिया कि..


'इनका मनो-मस्तिष्क हमेशा इससे त्रस्त रहता है'


यहाँ 'मनो-मस्तिष्क' की जगह 'मन-मस्तिष्क' आना चाहिए। 


● पेज नंबर 142 में लिखा दिखाई दिया कि..


'पुलिस ककने डकैती के सिलसिले में मल्ली को गिरफ़्तार कर दिया है'


यहाँ 'पुलिस ककने डकैती के सिलसिले में' की जगह 'पुलिस ने डकैती के सिलसिले में' आएगा। 


पेज नंबर 151 की पहली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'जाते वक्त मेरे साथ ऐसी निठुर ना बन'

यहाँ 'ऐसी निठुर ना बन' की जगह 'ऐसी निष्ठुर ना बन' आएगा। 

पेज नंबर 183 में लिखा दिखाई दिया कि..

'मैं जानता हूँ कि आज मेरे से नाराज होंगे'

यहाँ 'आज मेरे से नाराज होंगे' की जगह 'आप मेरे से नाराज होंगे' आएगा। 

* जँभाई - जम्हाई

इस बेहद रोचक उपन्यास के बढ़ियाअनुवाद के लिए उषा महाजन जी बधाई की पात्र हैं। इस 208 पृष्ठीय दमदार उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है राजकमल पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 299/- जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। 

राघव - खंड - 1- विनय सक्सेना

बॉलीवुड की फ़िल्मों में आमतौर पर आपने देखा होगा कि ज़्यादातर प्रोड्यूसर एक ही ढर्रे या तयशुदा फॉर्मयुलों पर आधारित फ़िल्में बनाते हैं या बनाने का प्रयास करते हैं। एक समय था जब खोया-पाया या कुंभ के मेले में बिछुड़े भाई-बहन का मिलना हो अथवा बचपन में माँ-बाप के कत्ल का बदला नायक द्वारा जवानी में लिया जाना हो इत्यादि फॉर्मयुलों पर आधारित फिल्मों की एक तरह से बाढ़ आ गयी थी। 

इसी तरह किसी एक देशभक्ति की फ़िल्म के आने की देर होती है कि उसी तर्ज़ पर अनेक फिल्में अनेक भाषाओं में बनने लगती हैं। एक बाहुबली क्या ब्लॉग बस्टर साबित हुई कि उसके बाद ऐश्वर्या रॉय (बच्चन) और विक्रम समेत दक्षिण के बड़े-बड़े सितारे तक राजमहलों और युध्दों से संबंधित षड़यंत्रकारी फिल्मों में व्यस्त होते चले गए। 

कुछ-कुछ ऐसा ही हाल हमारे देश में साहित्य का भी है। आमतौर पर कोई भी लेखक अथवा कवि अपने सोच एवं विचारों से वशीभूत होकर किसी ऐसे विषय पर अपनी कलम चलाता है या चलाने का प्रयास करता है जो उसे उसकी सोच के हिसाब से सही लगते हैं लेकिन बहुत से लेखक ऑन डिमांड भी किसी की मॉंग के अनुसार उसके सुझाए या दिए गए विषय पर भी उतनी ही सहजता से अपनी कलम चला लेते हैं जितनी सुगमता से वे अपने मन की इच्छा एवं रुचिनुसार विषय पर अपनी सोच के घोड़ों को दौड़ाते हुए लिखते हैं। लेकिन कई बार भेड़चाल को देखते हुए हम किसी ऐसे ट्रेंडिंग विषय पर भी अपनी सोच की नैय्या खेने लगते हैं जिस पर पहले ही बहुत से लेखक लिख चुके हैं या लिखने जा रहे हैं। उदाहरण के तौर पर मूल कहानी के एक ही होते हुए भी तुलसीदास या बाल्मीकि द्वारा रचित रामायण के ही लगभग 300 से ज़्यादा अलग-अलग वर्ज़न आ चुके हैं जो भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न देशों में विभिन्न लोगों द्वारा लिखे या रचे गए। इसी रामायण की प्रसिद्ध कहानी को अँग्रेज़ी लेखक अमीश त्रिपाठी द्वारा बड़े स्तर पर हॉलीवुड स्टाइल में लिखा गया जिसकी बिक्री के आँकड़े चौंकाते हैं। ख़ैर.. इस विषय में ज़्यादा बातें फ़िर कभी किसी अन्य पोस्ट में। फिलहाल मैं यहाँ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर पाँच खण्डों में लिखे गए उपन्यास 'राघव' के पहले खंड की बात करने या रहा हूँ जिसे लिखा है विनय सक्सेना ने।

इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है किशनूर राज्य पर नज़रें गड़ाए उसके पड़ोसी राज्यों प्रकस्थ एवं तितार की षड़यंत्रभरी कोशिशों की। जिनके तहत एक तरफ़ किशनूर के युवाओं को रूपवती युवतियों के ज़रिए वासना के जाल में उलझा अपनी तरफ़ मिलाया जा रहा है तो वहीं दूसरी तरफ़ उन्हें नशे की 
गिरफ्त में ले नाकारा किया जा रहा है। 

 इस उपन्यास में एक तरफ़ 'राघव' राज्य से निकाले जा चुके अपराधियों/बेगुनाहों को संगठित करने में जुटा दिखाई देता है तो वहीं दूसरी तरफ़ मंथरा सरीखी 'रूपा' की षड़यंत्रभरी चालबाज़ियों में फँस, ममतामयी राजमहिषी भी अपने पुत्र को राजा बनने के मोह में अपने सौतेले पुत्र 'राघव' के लिए महाराज से देशनिकाला माँगती नज़र आती है। 

इस उपन्यास में कहीं युवराज और राजनर्तकी के मध्य प्रेम पनपता दिखाई देता है तो कहीं अत्याचारी राजा के अमानवीय अत्याचार होते दिखाई देते हैं। कहीं खंडहर हो चुके भव्य महल  का राघव के दिशानिर्देशोंनुसार जीर्णोद्धार होता दिखाई देता है तो कहीं इस कार्य में विशालकाय पक्षी भी राघव की मदद करते नज़र आते हैं। 

इसी उपन्यास में कहीं अस्त्रों-शास्त्रों के संचालन, व्यूह रचना एवं युध्दकौशल से जुड़ी बातें नज़र आती हैं तो कहीं शतरंज की बिसात पर शह और मात के खेल के ज़रिए रणनीति की गूढ़ बातें सरल अंदाज़ में समझाई जाती दिखाई देती हैं। इसी किताब में कहीं औषधीय चिकित्सा में वन्य वनस्पतियों का महत्त्व समझाया जाता दिखाई देता है। 

◆ किसी भी गुप्तचर या दुश्मन के क्षेत्र में घुसे सैनिक का कर्तव्य होता है कि वह पकड़े जाने पर अपने देश या राज्य की कोई भी जानकारी अपने शत्रुओं को न लगने दे लेकिन इस उपन्यास में युवराज राघव के गुप्त रूप से प्रकस्थ की राजकुमारी से मिलने के प्रयास के दौरान जब वह जानबूझकर अचानक अपनी सुरक्षा में तैनात सैनिकों की दृष्टि से ओझल हो ग़ायब हो जाता है। तो उसकी खोज में जंगल में भटकते हुए जब दमन और उसके सैनिक पकड़े जाते हैं तो उनका एक ही बार में सब राज़ उगल देना बड़ा हास्यास्पद एवं अजीब लगता है कि ऐसे ढीले लोगों को राज्य की सेना में शामिल ही क्यों किया गया। 

◆ पेज नम्बर 22-23 पर दिए गए एक प्रसंग में महाराज ऊँचे लंबे कद के बलिष्ठ देव से राज्य की सुरक्षा के संदर्भ में एक दूसरे से आदरपूर्वक भाषा में विचारविमर्श कर रहे हैं। इसी प्रसंग के दौरान  महाराज देव को निर्देश देते हुए कहते हैं कि..

'कुछ भी संशयात्मक लगे तो वह तुझे और तू मुझे सूचित करेगा' 

यहाँ एक राजा के मुख से सम्मानपूर्वक भाषा के बजाय 'तुझे' और 'तू' की भाषा में देव को संबोधित करना थोड़ा अटपटा लगा। इसके बजाय अगर 'तुम्हें' और 'तुम' शब्दों का प्रयोग किया जाता तो बेहतर था।

इसी तरह की 'तू-तड़ाक' वाली भाषा का आगे भी उपन्यास में कई जगह पर प्रयोग दिखाई दिया। जिससे बचा जाना चाहिए था। 

◆ इसी किताब में सेना में नौसिखियों की भर्ती के लिए रँगरूट शब्द का उपयोग किया गया जो कि एक उर्दू शब्द है। उर्दू शब्दों जैसे 'मजलिस', 'शुबह' , 'शक', 'खैरख्वाह', 'सेहत', 'तरक्की' इत्यादि का इस्तेमाल बहुतायत में दिखा।

◆ पेज नंबर 103 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'यहाँ की जलवायु में प्राय: गंभीर रोग नहीं होते किंतु वर्षा के समय संक्रामक रोग, हैजा, मलेरिया आदि हो जाते हैं'

कहानी के समय-काल के हिसाब से कहानी की भाषा में यथासंभव हिंदी शब्दों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए था लेकिन यहाँ इस्तेमाल किया गया 'मलेरिया' शब्द एक अँग्रेज़ी शब्द है। 

◆ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया यह काल्पनिक उपन्यास कहीं अँग्रेज़ी लेखक अमीश त्रिपाठी की लेखनी से प्रेरित लगा तो कुछ एक जगहों पर ऐसा प्रतीत हुआ जैसे रामायण, महाभारत इत्यादि पौराणिक ग्रंथों के कुछ दृश्यों को हूबहू बस नाम, स्थान और पात्र संख्या बदल कर नए सिरे से पाठकों के समक्ष परोस दिया गया हो। उदाहरण के तौर पर ऋषि विश्वामित्र द्वारा राम-लक्ष्मण को शिक्षा-दीक्षा एवं युद्ध कौशल एवं जीवन के नैतिक मूल्यों की शिक्षा प्रदान किए जाने के दृश्यों को लेखक द्वारा जस का तस वाले अन्दाज़ में पुनः लिख दिया गया। 

दरअसल हम लेखक अपने लिखे के मोह में इस कदर पड़ जाते हैं कि उसे ही ऐसा ब्रह्म वाक्य समझ लेते हैं जिसे किसी भी सूरत में काटा या छाँटा नहीं जा सकता जबकि किसी भी लेखक का स्वयं में एक अच्छा पाठक होना बेहद ज़रूरी है जो कि स्वयं अपने लिखे को ही पढ़ कर उसकी पठनीयता/अपठनीयता  की जाँच कर सके। साथ ही उसमें एक निर्दयी संपादक का गुण होना भी बहुत ज़रूरी है जो बेदर्दी से स्वयं लिखे हुए में से अनावश्यक हिस्से को काट-छाँट कर रचना को उम्दा एवं अव्वल दर्जे का बना सके। 

पाठकीय दृष्टि से अगर कहूँ तो यह उपन्यास मुझे बेहद खिंचा हुआ लगा। राघव की शिक्षा-दीक्षा से संबंधित दृश्य मुझे अनावश्यक रूप से ज़्यादा बड़े लिखे गए प्रतीत हुए जिनकी वजह से कई जगहों पर उपन्यास बोझिल एवं उबाऊ सा भी लगा। अगर कोशिश की जाती तो इस 286 पृष्ठीय उपन्यास को आसानी से 200 पेजों में समेटा जा सकता था। बतौर सजग पाठक एवं स्वयं के भी एक लेखक होने की वजह से मुझे इस तरफ़ ध्यान दिए जाने की आवश्यकता प्रतीत हुई।

यूँ तो लेखक द्वारा इस उपन्यास के पाँचों खण्ड मुझे उपहारस्वरूप प्रदान किए गए परंतु अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा की इस उपन्यास के 286 पृष्ठीय प्रथम खण्ड 'राघव - युगप्रवर्तक' के पेपरबैक संस्करण को छापा है वाची प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 300/- रुपए जो कि कंटैंट के हिसाब से मुझे ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

पूतोंवाली - शिवानी

आजकल के इस आपाधापी से भरे माहौल में हम सब जीवन के एक ऐसे फेज़ से गुज़र रहे हैं जिसमें कम समय में ज़्यादा से ज़्यादा पा लेने की चाहत की वजह से निरंतर आगे बढ़ते हुए बहुत कुछ पीछे ऐसा छूट जाता है जो ज़्यादा महत्त्वपूर्ण या अच्छा होता है। उदाहरण के तौर पर टीवी पर कोई उबाऊ दृश्य या विज्ञापन आते ही हम झट से चैनल बदल देते हैं कि शायद अगले चैनल पर कुछ अच्छा या मनोरंजक देखने को मिल जाए। मगर चैनल बदलते-बदलते इस चक्कर में कभी हमारा दफ़्तर जाने का समय तो कभी हमारा सोने का समय हो जाता है और हम बिना कोई ढंग का कार्यक्रम देखे ख़ाली के ख़ाली रह जाते हैं। कुछ ऐसी ही बात किताबों के क्षेत्र में भी लागू होती है कि हम ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ने की चाह में आगे बढ़ते हुए पीछे कुछ ऐसा छोड़ जाते हैं जो ज्ञान या मनोरंजन की दृष्टि से ज़्यादा अहम..ज़्यादा फायदेमंद होता है। 


दोस्तों..आज मैं इस बात को अपने समय की प्रसिद्ध लेखिका शिवानी की रचनाओं के बारे कह रहा हूँ जिनकी रचनाओं को पढ़ने का मौका तो मुझे कई बार मिला मगर किसी न किसी वजह से मैं उनका लिखा पढ़ने से हर बार चूक गया। आज से तीन महीने पहले उनकी लिखी "पूतोंवाली" किताब को पढ़ने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ है कि मैं कितना कुछ पढ़ने से वंचित रह गया। लेकिन फ़िर कुछ ऐसा हुआ कि चाह कर भी इस बेहद रोचक किताब पर कुछ लिख नहीं पाया। अब लिखने के बारे में सोचा तो एक बार पुनः किताब पर नज़र दौड़ाने के बहाने इस किताब को फ़िर से पढ़ा गया। 


दोस्तों  हिन्द पॉकेट बुक्स के श्रद्धांजलि संस्करण 2003, में छपी इस किताब 'पूतोंवाली' में उनके लिखे दो लघु उपन्यास और तीन कहानियाँ शामिल हैं। 


'पूतोंवाली' नाम लघु उपन्यास है उस औसत कद-काठी और चेहरे मोहरे वाली 'पार्वती' की जिसे उसकी माँ की मृत्यु के बाद सौतेली माँ की चुगली की वजह से पिता के हाथों रोज़ मार खानी पड़ी। पिता के आदेश पर मोटे दहेज के लालच में सुंदर, सजीले युवक से ब्याह दी गयी। 


अपने रूपहीन चेहरे और कमज़ोर कद-काठी की वजह से पति की उपेक्षा का शिकार रही 'पार्वती' को आशीर्वाद के रूप में मिले 'दूधो नहाओ पूतों फलो' जैसे शब्द सच में ही साकार हुए जब उसने एक-एक कर के पाँच पुत्रों को जन्म तो दिया मगर..


इसी संकलन के एक बेहद रोचक लघु उपन्यास 'बदला' की कहानी पुलिस महकमे के ठसकदार अफ़सर 'त्रिभुवनदास' की नृत्य कला में निपुण बेहद खूबसूरत बेटी 'रत्ना' की बात करती है। जो अपनी मर्ज़ी के युवक से शादी करना चाहती है मगर उसका दबंग पिता उस युवक को रातों रात ग़ायब करवा उसका ब्याह किसी और युवक से करवा देता है। अब देखना यह है कि अपने प्रेमी के वियोग में तड़पती 'रत्ना' क्या उसे भूल नयी जगह पर अपने पति के साथ राज़ीखुशी घर बसा लेती है अथवा...


इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'श्राप' में रात के वक्त सोते-सोते लेखिका अचानक किसी ऐसे सपने की वजह से हड़बड़ा कर उठ बैठती है जो उसे फ़्लैशबैक के रूप में  दस वर्ष पीछे की उस घटना की तरफ़ ले जाता है जिसमें वह अपनी मकान मालकिन के कहने पर, उसकी बहन के रहने के लिए, उसे अपने पोर्शन के दो कमरे कुछ दिनों के लिए इसलिए इस्तेमाल करने के लिए दे देती है कि उसे वर पक्ष वालों की ज़िद के चलते अपनी सुंदर, सुशील बेटी की शादी उनके शहर में आ कर करनी पड़ रही है। वधु पक्ष की तरफ़ से दिल खोल कर पैसा खर्च करने के बावजूद भी इस बेमेल शादी में कहीं ना कहीं कुछ खटास बची रह जाती है। 


विवाह के कुछ महीनों बाद लेखिका को अचानक पता चलता है कि शादी के चार महीनों बाद एक दिन ससुराल में रसोई में काम करते वक्त लापरवाही की वजह से उनकी बेटी की जलने की वजह से मौत हो गयी। 


इसी संकलन की एक अन्य कहानी में अचानक एक दिन लेखिका की मुलाक़ात बरसों बाद अपनी उस ख़ूबसूरत सहेली 'प्रिया' से रेलवे स्टेशन पर मुलाक़ात होती है, जिनकी दोस्ती कॉलेज वालों के लिए एक मिसाल बन चुकी थी। और उसकी उसी सहेली ने एक दिन बिना कोई वजह बताए अचानक से कॉलेज छोड़ दिया था। इस ट्रेन वाली मुलाक़ात में 'प्रिया' लेखिका के साथ गर्मजोशी तो काफी दिखाती है मगर अपना पता ठिकाना बताने से साफ़ इनकार कर देती है। 


इस बात के काफ़ी वर्षों के बाद एक दिन नैनीताल के किसी उजाड़ पहाड़ी रास्ते पर लेखिका की मुलाक़ात अचानक एक लंबे चौड़े..मज़बूत कद काठी के नितांत अजनबी व्यक्ति से होती है जो 'प्रिया' और लेखिका के बीच घट चुकी निजी बातों और घटनाओं का बिल्कुल सही एवं सटीक वर्णन करता है। जिससे लेखिका घबरा जाती है। अब सवाल उठता है कि आख़िर कौन था वो अजनबी जो उन दोनों के बीच घट चुकी एक-एक बात को जानता था? 


इसी संकलन की अंतिम कहानी में ट्रेन में रात का सफ़र कर रही लेखिका के कूपे में बड़ा सा चाकू लिए एक लुटेरा घुस आता है और सब कुछ लूट कर जाने ही वाला होता है कि अचानक कुछ ऐसा होता है कि लूटने के बजाय वही लुटेरा लेखिका के पास फॉरन करैंसी से भरा हुआ एक बटुआ छोड़ कर चला जाता है। 


127 पृष्ठीय इस बेहद रोचक और पठनीय किताब के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है 'सरस्वती विहार' (हिन्द पॉकेट बुक्स का सजिल्द विभाग है) ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 125/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।




 
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