मैमराज़ी - जयंती रंगनाथन

1970-80 के दशक में जहाँ एक तरफ़ मारधाड़ वाली फिल्मों का ज़माना था तो वहीं दूसरी तरफ़ आर्ट फिल्में कहलाने वाला समांतर सिनेमा भी अपनी पैठ बनाना शुरू कर चुका था। इसी बीच व्यावसायिक सिनेमा और तथाकथित आर्ट सिनेमा की बीच एक नया रास्ता निकालते हुए हलकी-फुल्की कॉमेडी फिल्मों का निर्माण भी होने लगा जिनमें फ़ारुख शेख, दीप्ति नवल और अमोल पालेकर जैसे साधारण चेहरे-मोहरे वाले कलाकारों का उदय हुआ। इसी दौर की एक मज़ेदार हास्यप्रधान कहानी 'मैमराज़ी' को उपन्यास की शक्ल में ले कर इस बार हमारे समक्ष हाज़िर हुई हैं प्रसिद्ध लेखिका जयंती रंगनाथन। 


मूलतः इस उपन्यास के मूल में कहानी है दिल्ली के उस युवा शशांक की जो दिल्ली में अपनी गर्लफ्रैंड 'सुंदरी' को छोड़ कर  भिलाई के स्टील प्लांट में बतौर ट्रेनी इंजीनियर अपनी पहली सरकारी नौकरी करने के लिए आया है। भिलाई पहुँचते ही पहली रात उसके साथ कुछ ऐसा होता है कि वो भौचंक रह जाता है। 


अगले दिन सुबह पड़ोसन के घर से नाश्ता कर के निकले शशांक के साथ कुछ ऐसा होता है कि आने वाले दिनों में वह अपने अफ़सर से ले कर कुलीग तक का इस हद तक चहेता बन बैठता है कि उनकी पत्नियाँ उसके साथ अपनी बेटी, बहन या रिश्तेदार की लड़की को ब्याहने के लिए उतावली हो उठती हैं। अब देखना ये है कि क्या शशांक ऐसे किसी मकड़जाल में फँस वहीं का हो कर रह जाएगा अथवा दिल्ली में बेसब्री से अपना इंतज़ार कर रही गर्लफ्रेंड सुंदरी के पास वापिस लौट जाएगा? उपन्यास को पढ़ते वक्त अमोल पालेकर की कॉमेडी फिल्म "दामाद" जैसा भी भान हुआ। मज़ेदार परिस्थितियों से गुज़रते इस तेज़ रफ़्तार रोचक उपन्यास में पता ही नहीं चलता कि कब वह खत्म हो गया।


इस उपन्यास के पेज नम्बर 164 में एक पंजाबी भाषा के एक संवाद में लिखा दिखाई दिया कि..


'इडियट, सुंदरी की शादी किसी और से करवाएगा तू? बैन दे टके'

जो कि पंजाबी उच्चारण के हिसाब से सही नहीं है। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..


यहाँ 'बैन दे टके' की जगह 'भैंण दे टके' या 'भैन दे टके' 


184 पृष्ठीय इस दिलचस्प उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्द युग्म और YELLOW ROOTS India मिल कर और इसका मूल्य रखा गया है 249/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। 


आउट - नॉट आउट



"आउट - नॉट आउट"

    राजीव तनेजा

शोर-शराबे के तनाव भरे माहौल के बीच माथे पर चिंता के गहन भावों के साथ दर्शक दीर्घा में बेहद डर और उत्सुकता का मिलाजुला माहौल। हार या जीत का सारा दारोमदार मैदान में खेल रहे खिलाड़ियों के दम-खम पर। अब देखना ये है कि शातिर गेंदबाजों की तिकड़मी गेंदें हावी होती हैं या फ़िर बल्लेबाज की हिम्मत और धैर्य के साथ खेले गए शॉट।

लंबे रनअप के बाद निशाना साधे गेंदबाज़ की एक तेज़ बाउंसर बिना संभलने का मौका दिए सीधा बल्लेबाज की तरफ़ हावी होती हुई। हड़बड़ा कर बल्लेबाज ने तेज़ आक्रमण से बचने का भरपूर प्रयास किया मगर इससे पहले कि वो कामयाब हो, गेंद सीधा उसके हेलमेट से जा टकराई। बल्लेबाज ने लड़खड़ा कर गिरते हुए संभलने का प्रयास किया। पसीना पोंछते गेंदबाज के चेहरे पर एक विजयी मुस्कान। 

बल्लेबाज के चेहरे पर थकान मगर सधे अंदाज़ में गेंदबाज़ पर नज़रें गड़ाए सावधानी से  अगली गेंद खेलने के लिए तैयार। लंबे रनरअप के बाद ये एक और तेज़ गति से स्विंग होती हुई गेंद। पहले से तैयार खड़े मुस्तैद बल्लेबाज ने ज़ोर से हवा में बल्ला घुमाया और इसके साथ ही गेंद हवा में उड़ती हुई बाउंड्री पार चार रनों के लिए। तालियों की गड़गड़ाहट और करतल ध्वनि के बीच तेज़ गति से दौड़ते गेंदबाज की अगली गेंद थोड़ी धीमी गति के साथ बल्लेबाज की तरफ़ लपकी। सावधानी से खड़े बल्लेबाज से बल्ला घुमाया मगर ये क्या, बल्लेबाज को छकाती हुई गेंद ने अचानक टर्न लिया और सीधा मिडल विकेट की गिल्ली उड़ाती हुई पीछे विकेटकीपर द्वारा रोक ली गयी। अंपायर का 'आउट' का इशारा और थके कदमों से बल्लेबाज वापिस पवैलियन की तरफ़। 


"लो.. इतनी जल्दी इसकी विकेट भी उड़ गयी। अब देखते हैं कि अगला कब तक टिकता है।" नर्स ने मुस्कुराते हुए पास खड़े वार्ड ब्वाय से कहा और संजीदा चेहरे के साथ अगले पेशेंट की तरफ़ बढ़ गयी।

इसके साथ ही C.C.U (क्रिटिकल केयर यूनिट) के बाहर रिश्तेदारों के रोना-बिलखना शुरू हो चुका था। 

द डार्केस्ट डेस्टिनी - डॉ. राजकुमारी


आमतौर पर जब भी कभी किसी के परिवार में कोई खुशी या पर्व का अवसर होता है, तो हम देखते हैं कि हमारे घरों में हिजड़े (किन्नर) आ कर नाचते-गाते हुए बधाइयाँ दे कर इनाम वगैरह ले जाते हैं। किन्नर या हिजड़ों से अभिप्राय उन लोगों से है, जिनके किसी ना किसी कमी की वजह से जननांग पूरी तरह विकसित न हो पाए हों अथवा पुरुष होकर भी जिनका स्वभाव स्त्री जैसा हो या जिन्हें पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के बीच रहने में सहजता महसूस हो।


दोस्तों..आज मैं इसी महत्त्वपूर्ण मुद्दे से जुड़े एक ऐसे उपन्यास का जिक्र करने जा रहा हूँ जिसे 'द डार्केस्ट डेस्टिनी' के नाम से लिखा है डॉ. राजकुमारी ने। दलित लेखक संघ की अध्यक्ष, डॉ. राजकुमारी की रचनाएँ कई साझा संकलनों के अतिरिक्त अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं। प्रसिद्ध साहित्यकार रामदरश मिश्र जी के लेखन पर स्वतंत्र किताबों के अतिरिक्त इनका एक शायरी तथा एक कविता संग्रह भी आ चुका है। 


किन्नर विमर्श को केंद्र में रख आत्मकथ्य के रूप में लिखे गए इस उपन्यास के मूल में कहानी है लैंगिक विकृति के साथ पैदा  हुई एक आदिवासी लड़की अमृता की। उस अमृता की जिसे अपने बचपन से ले कर जवानी तक घृणा और तिरस्कार भरे जीवन से दो चार होना पड़ा। इस उपन्यास में कहीं अमृता के घर-परिवार से ले कर गाँव-समाज तक में कभी दैहिक तो कभी मानसिक रूप से प्रताड़ित..शोषित होने की बातें नज़र आती हैं तो कहीं किन्नर परंपराओं से जुड़ी बातें भी पढ़ने को मिलती हैं। 


इसी उपन्यास में कहीं शारीरिक रूप से एकदम ठीक होते हुए कुछ लड़कों के स्वेच्छा से किन्नर वेश अपना पैसे कमाने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं किसी को जबरन किन्नर बनाए जाने की बात भी होती नज़र आती है। इसी किताब में कहीं हालात से समझौता कर घुटने टेकने की बात होती नज़र आती है तो कहीं अधिकारों के लिए संघर्ष करने की बात भी पूरे दमख़म के साथ उभर कर सामने आती दिखाई देती है।


इसी उपन्यास में भीमराव अंबेडकर जी की विचारधारा से प्रेरणा लेते किन्नर नज़र आते हैं तो कहीं किन्नरों द्वारा अरावल राक्षस की मूर्ति से पूर्ण श्रंगार कर मंगलसूत्र इत्यादि पहन सामूहिक विवाह करने की बात और उसके मरने पर मंगलसूत्र तोड़ सामूहिक रूप से विलाप करने की परंपरा की बात होती नज़र आती है। 


पूरा उपन्यास अंततः एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाता दिखाई देता है कि जब कुछ व्यक्तियों को मात्र सैक्स का आनंद उठा पाने में सक्षम ना होने की वजह से किन्नर मान लिया जाता है तो जो पुरुष या स्त्री बच्चे पैदा करने में किसी भी वजह से सक्षम नहीं हो पाते, उन्हें भी किन्नर श्रेणी में डाल, उनका किन्नरों की ही भांति बहिष्कार क्यों नहीं किया जाता? जब उन्हें सामान्य श्रेणी में डाल, समाज का ही एक अटूट हिस्सा माना जा सकता है तो किन्नरों को क्यों नहीं? 


बतौर सजग पाठक होने के नाते मुझे इस उपन्यास के शुरुआती 30 पृष्ठ खामख्वाह में उपन्यास की लंबाई बढ़ाने के लिए लिखे गए दिखाई दिए जिनके होने या ना होने से कहानी पर कोई फ़र्क नहीं पड़ना था। साथ ही इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ लेखिका 'कि' और 'की' अन्तर को भी नहीं समझ पायी हैं तो वहीं दूसरी तरफ इस उपन्यास में हद से ज़्यादा वर्तनी की त्रुटियाँ दिखाई दीं। इसके अतिरिक्त प्रूफ़रीडिंग की कमियाँ भी ग़लतियों के मामले में वर्तनी की त्रुटियों से इस हद तक कड़ा मुकाबला करती दिखाई दीं कि 'किस में कितना है दम? उपन्यास को पढ़ते वक्त ऐसा प्रतीत हुआ कि लेखिका ने बिना प्रूफ़रीडिंग को चैक किए जल्दबाज़ी में किताब जस की तस छपवा ली है। 


पेज नंबर 43 में लिखा दिखाई दिया कि..


'रंगीन दीवारें बीच-बीच में पंखे और बाहरी हवा के झोंकों से झूलती हुई नन्हे बल्बों की लाइनें और सुहागसेज के इर्द-गिर्द लगी पीले गेंदे की फूलों की लड़ियाँ अठखेलियाँ कर रही थी। कमरे में बिजली के बल्बों के अलावा भी बड़ी-बड़ी खूबसूरत और भिन्न-भिन्न रंगों की मामबत्तियां जल रही थी, जो उस कमरे के वातावरण को बहुत रोमांचक बना रही थी'


इस पैराग्राफ़ में परस्पर विरोधी बातें लिखी दिखाई दीं कि कमरे में पँखे की हवा के साथ-साथ बाहरी हवा भी आ रही थी और कमरे में बड़ी-बड़ी मोमबत्तियाँ भी जल रही थी। जबकि पँखे की या बाहरी हवा के आगे जलती मोमबत्तियों के लिए अपने वजूद को बचा पाना संभव ही नहीं है। 


 साथ ही सुहागरात के इस दृश्य में लेखिका ने यहाँ 'रोमांचक' शब्द का इस्तेमाल किया है जिसे मौके के हिसाब से बिल्कुल भी सही नहीं ठहराया जा सकता। इस मौके के लिए 'रोमांचक' की जगह सही शब्द 'रोमांटिक' होगा।


इसी पेज पर एक और कमी दिखाई दी कि इस पेज का काफ़ी बड़ा हिसा पेज नंबर 179-178 में रिपीट होता दिखा। हालांकि उसी पहले वाले दृश्य की पुनरावृत्ति हो रही थी लेकिन फिर भी शब्दों में अगर थोड़ा हेरफेर किया जाता तो बेहतर था। 


पेज नंबर 88 में लिखा दिखाई दिया कि..


'सर्दियों के होली डेज़ में तो आमतौर पर यही होता था' 


यहाँ लेखिका का 'होली डेज़' यानी कि हॉलीडेज़ से तात्पर्य सर्दियों की छुट्टियों से है जबकि शब्द में 'होली-डेज़' ग़लत जगह पर विच्छेद या स्पेस आने से इस शब्द के मायना ही बदल कर 'पवित्र दिन' हो गया है।


■ पेज नंबर 144 के दूसरे पैराग्राफ में लेखिका एक तरफ उपन्यास की नायिका अमृता बन किन्नर समाज की पैरवी करते-करते अचानक बीच पैराग्राफ के ही आम समाज की पैरवी करती दिखाई दी।


उदाहरण के तौर पर इसी पैराग्राफ में पहले लिखा दिखाई दिया कि..


'इन्हें मोरी में रहने वाला कीड़ा कहते हुए हमारी जुबान जरा भी नहीं लड़खड़ाती, ना ही लज्जा आती है। उनके चरित्र पर कीचड़ उछालकर उनकी छवि बिगाड़ने में हम तगड़ी मेहनत करते हैं'


■ पेज नंबर 148 से शुरू हुए एक ट्रेन यात्रा के दौरान छेड़खानी के दृश्य में किन्नरों द्वारा एक युवक को किसी लड़की के साथ छेड़खानी करने से रोका जाता है। इस प्रसंग के दौरान गुस्से में एक किन्नर उस युवक को झापड़ जड़ देता है जिससे उस युवक का मुँह लाल हो जाता है। उसके बाद तमाशा देखने के लिए भीड़ इकट्ठी हो जाती है। 


इसी दृश्य से संबंधित पेज नम्बर 149 में लिखा दिखाई दिया कि..


'उसने उसके गाल पर एक झापड़ जड़ दिया। उसका मुँह लाल पड़ गया। सभी लोग इकट्ठे हो गए। लड़का हाथों की पकड़ ढीली होते ही मौका का भाग खड़ा हुआ। 


अब यहाँ ये सवाल उठता है कि चलती ट्रेन में किन्नरों समेत अन्य लोगों की भीड़ में फँसा युवक भाग कैसे सकता है? और मान भी लिया जाए कि किस तरह भाग गया तो आख़िर वो भाग कर भला जा कहाँ सकता है? 


■ किसी भी किरदार को जीवंत करने के लिए लेखक को परकाया में प्रवेश कर उसी किरदार की भांति सोचना, समझना एवं बोलना पड़ता है मगर उपन्यास में लेखिका साफ़ तौर पर इस मुद्दे पर पिछड़ती दिखाई देती हैं कि किरदार के बजाय वे स्वयं लेखिका के रूप में अपने किरदार पर हावी हो 

किरदार के मुख से अपनी भाषा..अपने विचार बोलती दिखाई देती हैं। 


उदाहरण के लिए पेज नंबर 150 में लिखा दिखाई दिया कि...


ऐ लड़की तुम। हाँ, तुम! कपड़े तो मॉडर्न पहन लिए थोड़ी हिम्मत भी जुटा ले। तुम इन इंसानों की खाल में लैंगिकता का दंभ भरने वाले भेड़ियों से खुद को बचाने की कोशिश ना कर के हिम्मत बढ़ाती हो।


■ बाइंडर की ग़लती से जो किताब मुझे मिली उसमें पेज नंबर 109-110 उलटे चिपके हुए अर्थात पेज नंबर 110 पहले और पेज नंबर 109 बाद में था। 

इसके बाद पुनः यही ग़लती मुझे पेज नंबर 153-154 में दिखाई दी जिसमें पेज नंबर 154 पहले और 153 बाद में था। 


बतौर पाठक, लेखक एवं एक समीक्षक होने के नाते मेरा मानना है कि आधे-अधूरे मन से लिखी गयी रचना कभी सफ़ल नहीं हो सकती। दमदार लिखने के लिए आप में सजगता के साथ संयम का होना बेहद ज़रूरी है। दरअसल होता क्या है कि ज़्यादातर लेखक अपने लिखे के मोह में पड़ उसे ऐसा ब्रह्म वाक्य समझ लेते हैं कि उसके साथ कोई छेड़छाड़ या काट-छाँट संभव ही नहीं। इसका नतीजा अंतत रचना को ही भुगतना पड़ता है जिसका भविष्य लेखक की थोड़ी सी समझदारी और धैर्य से उज्ज्वल हो सकता था मगर उसकी हठधर्मिता की वजह से जिसका बेड़ागर्क हो गया। आप मान कर चलिए कि आधे-अधूरे मन से किया गया कोई भी काम अँधों में काना राजा तो हो सकता है मगर कभी पूर्णतः सफ़ल नहीं हो सकता। एक अच्छी और सफ़ल किताब या रचना के लिए स्वयं लेखक का एक ऐसा निर्दयी संपादक का होना निहायत ही ज़रूरी है जो स्वयं ही अपनी रचना के भले के लिए उसमें धड़ल्ले से काट-छाँट कर सके। 


■ पूरा उपन्यास पढ़ने के बाद स्वाभाविक रूप से मन में एक प्रश्न उमड़ता-घुमड़ता दिखाई देता है कि क्या बिना पढ़े, साहित्यजगत की प्रसिद्ध एवं नामचीन हस्तियों द्वारा, किसी किताब की भूमिका या प्रस्तावना के लिए अपना नाम एवं शब्द देना उचित है? 


उम्मीद की जानी चाहिए कि इस किताब में हुई ग़लतियों से संज्ञान लेते हुए लेखिका एवं प्रकाशक अपनी आने वाली किताबों में इस तरह की कमियों से बचने का प्रयास करेंगे कि इससे लेखक/प्रकाशक की साख पर बट्टा तो लगता ही है। 


यूँ तो लेखिका से यह उपन्यास मुझे उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस किताब के 192 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है देवसाक्षी पब्लिकेशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 199/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

सितारों में सूराख़ - अनिलप्रभा कुमार

अभी हाल-फिलहाल में ही एक ख़बर सुनने..पढ़ने एवं टीवी के ज़रिए जानने को मिली कि हमारे यहाँ किसी उन्मादी सिपाही ने चलती ट्रेन में अपनी सरकारी बंदूक से एक ख़ास तबके के निरपराध यात्रियों पर गोलियाँ बरसा, मानवता को तार-तार करते हुए उनकी हत्या कर दी। इसी तरह की कुछ ख़बरें भारत के पूर्वोत्तर में स्थित मणिपुर से भी लगातार आ रही हैं जहाँ, वहाँ के दो समुदायों, बहुसंख्यक मैतेई और अल्पसंख्यक कुकी के बीच हिंसक झड़पों में सैंकड़ों लोग रोज़ाना मारे जा रहे हैं। इस तरह की ख़बरों को देख या सुन कर हम सभी चौंके तो सही मगर ऐसा नहीं हुआ कि इससे एकदम से हाय तौबा मच गई हो या सत्ता के गलियारों की बुलंद इमारत और बुनियाद वगैरह हिल गयी हो। दरअसल इस तरह की ख़बरों की जानकारी होने के बावजूद भी हम सब चुप रहते हैं कि ये सब हम पर थोड़े ही ना बीत रहा है।  मगर हम सब यह नहीं जानते कि जो आग हमारे घरों के बाहर अभी फ़िलहाल जल रही है, एक न एक दिन हमारे घरों एवं परिवारों को भी अपनी चपेट में ले लेगी। कमोबेश इसी तरह की मनोस्थिति या विचारधारा को समर्थन करते लोग केवल  भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व भर में  फैले हुए हैं।

दोस्तों..आज इस तरह की त्रासदी से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं इसी गंभीर विषय से जुड़े एक प्रभावी उपन्यास 'सितारों में सूराख' की बात करने जा रहा हूँ जिसे लिखा है लेखिका अनिलप्रभा कुमार ने।

 इस उपन्यास के मूल में कहानी है अमेरिका के एक टीवी चैनल में अपनी आजीविका के लिए नौकरी कर रहे जय, उसकी पत्नी जैस्सी उर्फ़ जसलीन और उसकी नौवीं में पढ़ रही बेटी चिन्नी की। देर रात ओवर टाइम कर के घर लौट रहे जय, किसी अज्ञात नकाबपोश द्वारा बन्दूक की नोक पर लूट लिया जाने से चिंतित हो अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा के लिए अपने एक दोस्त की मदद से एक पिस्टल खरीद तो लेता है मगर...

इस उपन्यास में कहीं द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नाज़ियों द्वारा गैस चैम्बर में बंद कर 60 लाख से ज़्यादा यहूदियों के संहार किए जाने की बात होती नजर आती है। तो कहीं भारत विभाजन की त्रासदी से जुड़ी बातें होती नज़र आती हैं। इस उपन्यास में कहीं किसी दृश्य की भयावहता और विभीस्तता के ज़रिए उसके बिकाऊ होना या ना होना तय किया जाता दिखाई देता है। कहीं टीवी पत्रकारिता के लिए सच को तोड़ा मरोड़ा जाता दिखाई देता है तो कहीं किसी नाईट क्लब में बेगुनाह लोगों पर सरेआम गोलियां बरसा उनका क़त्ल कर देने  की बात को भी महज़ एक सनसनीखेज ख़बर के नज़रिए  से देखा जाता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं बतौर संदर्भ भारत-पाक विभाजन के दर्द से उपजी सोच की वजह से हिन्दू-मुस्लिम के बीच की संकीर्णता उभर कर मुखर होती दिखाई देती है। तो कहीं नफ़रत भूल आगे बढ़ने की बात सकारात्मक ढंग से होती दिखाई देती है। कहीं कोई  भारत-पाक़ विभाजन के 70 वर्षों बाद भी उस वक्त के भयावह मंज़र को गले लगाए बैठा नज़र आता है। तो कहीं कोई खुद ही अपनी बेटी को इस वजह से कुँए में धकेलता दिखाई देता है कि अगर उसने ऐसा नहीं किया तो उसकी मासूम बेटी दंगाइयों की भेंट चढ़ अपनी जान और आबरू दोनों ही खो बैठेगी। इसी उपन्यास में कहीं घर के दामाद के मुस्लिम होने की वजह से पूरा हिन्दू परिवार दंगाइयों के कहर से बचता दिखाई देता है कि इस घर के सभी सदस्य मुसलमान हैं।

इसी उपन्यास में कहीं सुरक्षा के मद्देनज़र तो कहीं फैशन..दिखावे या स्टेटस सिंबल के तौर पर दिन-रात पनपते गन कल्चर की बात होती दिखाई देती है। तो कहीं अपने वैलेट में हमेशा कुछ न कुछ डॉलर ले कर चलने की सलाह महज़ इस वजह से दी जाती दिखाई देती है कि किसी उठाइगीरे या लुटेरे से मुठभेड़ के दौरान नकद रकम मिलने की वजह से आप कम से कम जान से मारे नहीं जाएँगे। 

इसी उपन्यास में कहीं कोई असाध्य कैंसर से पीड़ित अपनी बेटी को असहनीय पीड़ा से मुक्ति दिलाने के नाम पर एक-एक कर के बंदूकों का अंबार खरीदता नज़र आता है। तो कहीं व्यस्क होने के मतलब को अपने निर्णय स्वयं लेने के अधिकार और सही-ग़लत के लिए खुद ज़िम्मेदार होने की बात से परिभाषित किया जाता दिखाई देता है। कहीं हाई स्कूल प्राॉम की पार्टी के लिए बेटी की ख़ुशी और उल्लास को देख कर उसकी माँ भी मन ही मन उत्साहित नज़र आती है कि उसके अपने समय में इस सब की छूट नहीं थी। बेहद ज़रूरी मुद्दे को उठाते इस महत्त्वपूर्ण उपन्यास में  कहीं भारत-पाकिस्तान के लोगों के एक जैसे खान-पान, बोली, रहन-सहन और परिधानों की बात कर इस बात पर प्रश्न मंडराता दिखाई देता है कि जब सब कुछ हम में एक जैसा है, तो फ़िर ये दुश्मनी..ये नफरत क्यों? 
 
इसी उपन्यास में कहीं पुलिस कर्मियों द्वारा सरेआम किसी अश्वेत के साथ मानवाधिकारों के हनन का स्पष्ट मामला उजागर होता दिखाई देता है। तो कहीं कोई अज्ञात बंदूकधारी आवेश में आ किसी स्कूल में इस तरह अंधाधुंध गोलियाँ बरसाता दिखाई देता है कि उसकी चपेट में आ कई मासूम बच्चे मारे जाते हैं। इसी उपन्यास में कहीं कोई पत्नी अपने घर में पति के द्वारा  हथियार रखने से आहत दिखाई देती है। 

 तो कहीं यह उपन्यास इस बात की तस्दीक करता दिखाई देता है कि दुख  ना धर्म, ना जाति, ना देश और ना ही त्वचा के रंग के हिसाब से किसी के साथ कोई भेदभाव करता दिखाई देता है। 
 
इसी उपन्यास में कहीं किसी दफ़्तर में मोटी रकम ले नौकरी छोड़ने की गरिमामयी बर्खास्तगी को बाय आउट का नाम दिया जाता दिखाई देता है। तो कहीं नयी जानकारी के रूप में पता चलता है कि अमेरिका में हथियार खरीदने की अपेक्षा कोई कुत्ता गोद लेना ज़्यादा मुश्किल काम है।

कहीं कोई स्कूल तो कहीं कोई शॉपिंग मॉल या कैसीनो अंधाधुंध गोलाबारी का शिकार होते कभी ब्राज़ील से अमेरिका में अवैध तरीके से घुस आए लोग दिखाई देते हैं तो कभी उनके अपने ही लोग इस सब से हताहत होते नज़र आते हैं। तो कहीं दिन-रात परिपक्व होती इस गन कल्चर के खिलाफ़ व्यथित हो महिलाएँ स्वयं ही  एकजुट हो इस मुहिम को आगे बढ़ाती नज़र आती हैं कि घर में हथियार होने से सबसे ज़्यादा वे सब ही घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं। इसी उपन्यास में कहीं जगह-जगह होती इस गोलाबारी से आहट के बीच एक बेटी व्यथित हो अपने माता-पिता को अपनी वसीयत के रूप में एक पत्र लिखती दिखाई देती है कि वह उन दोनों से कितना प्यार करती है। 

इसी किताब में कहीं स्कूल-कॉलेज..सिटी एवं स्टेट काउन्सिल से ले कर सत्ता तक के गलियारों में महिलाओं का वर्चस्व बढ़ता दिखाई देता है।

कहीं कोई पुलिस वाला स्वयं ही पुलिस स्टेशन में हथियार सौंपने आए जय को अवैध तरीके से हथियार बेचने के लिए उकसाता दिखाई देता है। तो कहीं दुनिया की मात्र 4 प्रतिशत अमेरीकी आबादी के पास दुनिया के 42 प्रतिशत हथियार होने का आंकड़ा दिया जाता दिखाई देता है।

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस उपन्यास में कुछ एक जगहों पर मुझे प्रूफ़रीडिंग की कमियाँ दिखाई दीं। इसके अतिरिक्त उपन्यास की कहानी के हिसाब से जय विदेश में अपनी पत्नी के साथ रह कर वहाँ के टेलिविज़न चैनल के लिए काम कर रहा है। किसी भी ख़बर के नियत समय पर होने वाले टेलीकॉस्ट को ले कर शुरू हुई गहमागहमी और आपाधापी का दर्शाता दृश्य पेज नंबर 12 के दूसरे पैराग्राफ़ में आता है। इस पैराग्राफ़ की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'यही है दूरदर्शन की दुनिया'

आम धारणा एवं मान्यता के अनुसार भारत के सरकारी टीवी चैनल का नाम 'दूरदर्शन' है जबकि जय तो विदेश में रह कर वहाँ के किसी टीवी चैनल के लिए काम कर रहा है। ऐसे में यहाँ 'दूरदर्शन' का नाम लिया जाना सही नहीं है। 

बढ़िया क्वालिटी में छपे इस दमदार उपन्यास के 152 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 195/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

बेहटा कलां - इंदु सिंह

आज़ादी बाद के इन 76 सालों में तमाम तरह की उन्नति करने के बाद आज हम बेशक अपने सतत प्रयासों से चाँद की सतह को छू पाने तक के मुकाम पर पहुँच गए हैं मगर बुनियादी तौर पर हम आज भी वही पुराने दकियानूसी विचारों वाले पिछड़े के पिछड़े ही हैं। आज भी हमारे देश के गाँवों और अपवाद स्वरूप कुछ एक शहरों में लड़कों के मुकाबले लड़कियों के साथ जो भेदभाव बरसों पहले से होता आया है, कमोबेश वही सब अब भी किसी न किसी रूप में जारी है। 

इस तरह के भेदभाव के पीछे एक तरफ़ घरों में पितात्मक सत्ता का प्रभाव नज़र आता है तो दूसरी तरफ़ स्त्री से स्त्री की ईर्ष्या ही मुखरित हो स्पष्ट झलकती दिखाई  देती है। दोस्तों..आज महिलाओं से होते आए भेदभाव की बात इसलिए कि आज मैं इसी मुद्दे पर लिखे गए एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'बेहटा कलां' के नाम से लिखा है इंदु सिंह। 

इस उपन्यास के मूल में एक तरफ़ कहानी है पढ़ने-लिखने में रुचि रखने वाली उस अन्नु की जो पढ़-लिख कर डॉक्टर बनना चाहती थी मगर उसकी माँ ने अपनी ज़िद के चलते, अन्नु की और उसके पिता की इच्छा को दरकिनार कर मात्र 14 वर्ष की उम्र में ही उसका ऐसी जगह ब्याह कर दिया जहाँ तमाम तरह की बंदिशों और दबावों को झेलते हुए दिन-रात घर के कामों में खट कर उसने अपना जीवन इस हद तक होम कर दिया कि अंततः वह अपना मानसिक संतुलन भी खो बैठी।  

इसी उपन्यास में कहीं कोई माँ बड़े चाव से अपनी बेटी के सुखी भावी जीवन के मद्देनज़र उसे दहेज में वे सब चीज़ें देना चाहती है जिनसे कि उसे नए परिवार में जाने पर कोई दिक्कत या परेशानी ना हो। तो कहीं वह अपनी बेटी को ससुराल में हर दुःख.. हर कष्ट सह कर भी मायके का नाम खराब न करने की सलाह देती नज़र आती है। जिसकी वजह से अन्नु बिना किसी विरोध के ससुराल में धीमे बोलने, हर समय घूँघट में रहने और रेडियो ना सुनने तक के निर्देशों का पालन करती दिखाई देती है। इसी उपन्यास में कहीं घर की स्त्रियों के ज़ोर से हँसने पर रोक लगी होने की बात होती दिखाई देती है। 

इसी उपन्यास में कहीं दस-दस कमरों के घर में आराम से रहने वाली अन्नू अपनी माँ की ज़िद के चलते जल्दी विवाह करने के बाद महज़ एक कोठरी जितने बड़े कमरे में रहने के साथ-साथ दिशा मैदान के लिए भी लौटा ले बाहर खेतों में जाने को मजबूर कर दी जाती है। जहाँ मात्र इस वजह से उसे सुबह शौच जाने से जबरन रोका जाता दिखाई देता है कि वह सो कर देर से उठी है। तो कहीं उसे सुबह का बचा खाना रात को महज इस वजह से खाने के मजबूर किया जाता दिखाई देता है कि आज उसने दाल ज़्यादा बना दी थी। 

इसी उपन्यास में कहीं अन्नू को दहेज में उसके लिए मिली साड़ियों, कपड़ों, चप्पलों इत्यादि पर बड़ी ननद अपना हक़ जमाए दिखती है तो कहीं उसके दहेज के सामान को छोटी ननद अपने ब्याह में पूरी शानोशौकत और ठसक के साथ ले जाती नज़र आती है। कहीं महीनों से घर में टिकी ननद अपनी भाभी को महज इस वजह से प्रताड़ित करती नज़र आती है कि उसे, उसकी ससुराल में उसकी ननद द्वारा तंग किया जाता रहा है। तो कहीं अन्नु को उसके मायके लिवाने के लिए आए उसके भाई या पिता को वही ननद यह कह कर इनकार कर देती है कि हमारे यहाँ बहुएँ बार-बार मायके नहीं जाती है।  

कहीं सही पढ़ाई के अभाव में गाँवों के बच्चे पान, बीड़ी और गुटखे इत्यादि की शरण में जाते दिखाई देता है तो कहीं किसी को अपने जीवन में पढ़ने के अनुकूल मौके ना पा कर मलाल होता दिखाई देता है। कहीं कानपुर में फैले चमड़ा उद्योग की वजह से वहाँ फैले प्रदूषण और गन्दगी की बात की जाती दिखाई देती है। तो कहीं लखनऊ की साफ़ सफ़ाई और तहज़ीब की बात की जाती दिखाई देती है।कहीं हड़ताल के बाद महीनों तक तनख्वाह रुकने की परेशानी झेलता परिवार घर के राशन तक को तरसता दिखाई देता है। 

कहीं अन्नू की कर्मठता और कर्तव्यपरायणता देख घर की देवरानी भी आलसी हो अपने सारे काम अन्नु को सौंप निठल्ली बैठी दिखाई देती है। 
इसी उपन्यास में कहीं कोई सरकारी नौकरी से अवकाश प्राप्त पिता जानबूझ कर घर के  खर्चों के प्रति शुरू से अनभिज्ञ होने का दिखावा करता प्रतीत होता नज़र आता है। कहीं गाँव की नाउन सास और बहुओं में अँग्रेज़ों की तर्ज़ पर फूट डाल शासन करने यानी कि फ़ायदा उठाने के मंसूबे बाँध, दोनों हाथों से लड्डू बटोरती दिखाई देती है। 

इसी उपन्यास में कहीं पुराने तौर-तरीकों के रूप में अरहर की दाल को कल्हारने जैसी बात होती दिखाई देती है तो कहीं पुरानी हो चुकी परंपराओं के बेटियों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होने की बात होती नज़र आती है। 

इस उपन्यास में क्षेत्रीय भाषा अथवा हिंदी के अपभ्रंश शब्द भी काफ़ी जगहों पर पढ़ने को मिले। पृष्ठ के अंत में उनके हिंदी अर्थ भी साथ में दिए जाते तो बेहतर होता। साथ ही पूरे उपन्यास में संवादों के इनवर्टेड कॉमा में ना होने की वजह से भी कई जगहों पर कंफ्यूज़न क्रिएट होता दिखा कि संवाद कौन बोल रहा है। कुछ एक जगहों पर थोड़ी-बहुत वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग की भी कुछ कमियाँ दिखाई दीं। 

■ आमतौर पर किसी भी कहानी को लिखते वक्त कहानी का हल्का सा प्लॉट ज़ेहन में होता है जो कहानी में भावों का प्रवाह बढ़ने के साथ-साथ डवैलप या परिपक्व होता जाता है। ऐसे में कई शब्दों , वाक्यों या दृश्यों को पीछे जा कर जोड़ना, घटाना, बदलना अथवा पूर्णरूप से हटाना पड़ता है। इस उपन्यास में इस चीज़ की हल्की से कमी दिखाई दी ।  

उपन्यास में कुछ एक जगहों पर पुरानी बातों का इस तरह जिक्र होता नजर आया मानों वह चीज़ या बात पहले से ही होती आ रही है जैसे कि पेज नम्बर 95 मैं लिखा दिखाई दिया कि..

'राघव भी बचपन से ही कैलाश की तरह गंभीर व्यक्तित्व का स्वामी था। राघव को अच्छी नौकरी मिल जाए इसके लिए अन्नु सालों से बृहस्पतिवार का व्रत रखती आ रही थी' 

इसी तरह पेज नंबर 128 के अंतिम पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..

'कैलाश खुद खेलकूद में बहुत अच्छे थे क्रिकेट और बैडमिंटन उनके प्रिय खेल थे। बैडमिंटन में तो पूरे जिले में कैलाश को कोई नहीं हरा सकता था। अनेक प्रतियोगिताओं में कैलाश ने भाग लिया था और हमेशा जीत उन्हीं की होती थी जबकि इन बातों का इससे पहले कहीं जिक्र होता नहीं दिखाई दिया। अगर इस तरह की कमियों से बचा जाए तो बेहतर है। 

साथ ही घर-जायदाद के बंटवारे की बात को शुरू कर अधूरा छोड़ दिया गया। 

■ पेज नम्बर 120 में राघव की बेटी यानी कि अन्नू की पोती अपनी दादी को रोबोट से संबंधित के कहानी सुना उसका अर्थ पूछती है। बच्ची की कम उम्र और समझ के हिसाब से  कहानी की भाषा मुझे कुछ ज़्यादा ही परिपक्व लगी। स्कूल की किताब के हिसाब से कहानी की भाषा सरल होती तो ज़्यादा बेहतर होता।


 ■ तथ्यात्मक ग़लती के रूप में पेज नम्बर 67 में लिखा दिखाई दिया कि..

'अन्नु की सास को हमेशा ही साँस लेने में दिक़्क़त रहती थी ख़ास कर तब जब मौसम बदल रहा हो तो उनकी तकलीफ़ बहुत बढ़ जाती थी। शहर में डॉक्टर से जाँच करवायी गयी तो पता चला कि उन्हें दमे की बीमारी थी। डॉक्टर ने उन्हें धूल और धुएँ से बचने के लिए कहा था साथ ही कुछ इनहेलर भी दिए थे कि यदि कभी अचानक ज़्यादा साँस उखड़े तो इससे आराम आ जाएगा। गाँव में तो धूल और धुएँ से बचना संभव ही नहीं है जिस कारण वह गाँव नहीं आ पा रही थी।'

आम डॉक्टरी मान्यता के अनुसार शहरों में गाँवों के अपेक्षाकृत प्रदूषण ज़्यादा होता है। इसलिए दमे इत्यादि के मरीजों को शहरों के बजाय गाँवों में जा कर रहने की सलाह दी जाती है लेकिन इस उपन्यास में इससे ठीक उलट बताया जा रहा है कि..'गाँव में तो धूल और धुएँ से बचना संभव नहीं था' जो कि सही नहीं है। 

अंत में चलते-चलते एक महत्त्वपूर्ण बात कि किसी भी कहानी, उपन्यास या किताब में रुचि जगाने के लिए उसके शीर्षक का प्रभावी..तर्कसंगत एवं दमदार होना बेहद ज़रूरी होता है। कहानी के किसी महत्त्वपूर्ण हिस्से..सारांश या मूड को आधार बना कर ही अमूमन किसी कहानी, उपन्यास या किताब का शीर्षक तय किया जाता है। इस कसौटी पर अगर कस कर देखें तो इस उपन्यास का शीर्षक 'बेहटा कलां' मुझे प्रभावी तो लगा मगर तर्क संगत नहीं क्योंकि उपन्यास की मुख्य किरदार, अन्नु बेशक 'बेहटा कलां' में पैदा हुई मगर पूरे उपन्यास की कहानी नज़दीकी गाँव 'पनई खुर्द' के इर्दगिर्द ही घूमती है जहाँ वह मात्र 14 वर्ष की उम्र में ही ब्याह कर चली गयी थी और जीवनपर्यंत वहीं रही। 

बेहद ज़रूरी मुद्दे को उठाते इस बढ़िया क्वालिटी में छपे प्रभावी उपन्यास के 136 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए जो कि मुझे ज़्यादा लगा। आम हिंदी पाठक तक इस ज़रूरी उपन्यास की पहुँच एवं पकड़ बनाने के लिए ज़रूरी है कि इसके दाम आम आदमी की जेब के अनुसार रखे जाएँ। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। 

स्तुति - सौरभ कुदेशिया

ईसा पूर्व हज़ारों साल पहले कौरवों और पांडवों के मध्य हुए संघर्ष को आधार बना कर ऋषि वेद व्यास द्वारा उच्चारित एवं गणेश द्वारा लिखी गयी महाभारत अब भी हमें रोमांचित करती है। इस महागाथा में कृष्ण का चरित्र अपनी तमाम कूटनीतियों और छल-कपट के साथ अपने विराट स्वरूप में हमारे समक्ष आता है। तमाम उलट फेरों और रहस्यमयी साजिशों एवं चरित्रों से सुसज्जित इस कहानी के मोहपाश से नए पुराने रचनाकार भी बच नहीं पाए हैं। परिणामतः इस महान ग्रंथ की मूल कहानी पर आधारित कभी कोई फ़िल्म..नाटक..कहानी या उपन्यास समय समय पर हमारे सामने अपने वजूद में आता रहा है।

इसी रोमांचक कहानी के कुछ लुप्तप्राय तथ्यों को ले कर सौरभ कुदेशिया हमारे समक्ष अपना पाँच खंडों वाला थ्रिलर उपन्यास ले कर आए हैं। इस वृहद उपन्यास के प्रथम खंड 'आह्वान' की कहानी में एक रोड एक्सीडेंट में मारे गए व्यक्ति के लॉकर में रखी गयी उसकी वसीयत में एक अजीबोगरीब चित्र के अलावा और कुछ नहीं मिलता है। गूढ़ पहेली की तरह लिखी गयी वसीयत की गुत्थी सुलझाने की कोशिशों के तहत की जा रही तहकीकात के दौरान गुप्त संकेतों और अजीबोगरीब लाशों के मिलने से सिंपल मर्डर मिस्ट्री जैसी नज़र आने वाली यह कहानी हर बढ़ते पेज के साथ सुलझने के बजाय मकड़जाल की भांति तब और अधिक उलझती जाती है जब एक एक कर के और भी कई हत्याएँ तथा अनहोनी घटनाएँ सर उठा..सामने आने लगती हैं।

नए और पुराने के फ्यूज़न से रची इस हॉलीवुडीय स्टाइल की कहानी में एक तरफ़ महाभारत और गीता के गूढ़ रहस्य हैं तो दूसरी तरफ़ उन्हीं गूढ़ रहस्यों से परत दर परत निकलते गुप्त संकेतों को समझने..उन्हें डिकोड करने को दिमागी कसरत एवं कवायद करते कुछ लोग। 

दोस्तों..अब बात कल्पना और मिथक के समावेश से लिखे गए इस वृहद उपन्यास के अगले यानी कि दूसरे खंड 'स्तुति' की। अनेक दबे या छिपे रह गए रहस्यों की परतें उधेड़ते इस उपन्यास में महाभारत युद्ध से पहले की परिस्थितियों को आधार बना कर कल्पना एवं तथ्यों के मिले जुले स्वरूप से एक ऐसी दिलचस्प कहानी को गढ़ा गया है जिसमें कृष्ण की सामान्य सी दिखने वाली चाल..हरकत या हल्की सी जुम्बिश के पीछे भी कोई न कोई गहरी सोच या ठोस योजना मूर्त रूप लेती दिखाई देती है। 

इस दिलचस्प उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है उस वीर बाल शोण की जिसने आर्य होते हुए भी विसर्पियों के दुःख.. उनकी वेदना को अपना समझ उसका निराकरण करने का अपनी तरफ़ से भरसक प्रयास किया। विसर्पी वो, जो नागों और मनुष्यों के संगम से उत्पन्न हुए और अपने मूल ठिकाने खाण्डव वन के उजड़ने के बाद से नागों की शरणस्थली में मात्र इस वजह से उनके दास बने बैठे थे कि आर्य उन्हें अपना नहीं मान दुत्कार रहे थे और नागों ने अपने लोभ की वजह से उनका दोहन करने को उन्हें जैसे-तैसे स्वीकार कर लिया था। 

दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है उस युवा शोण की जिसे नागलोक के निकटवर्ती राज्यों, चिरपुंज और अनंतपुर को आपसी दुश्मनी भूल कौरवों के पांडवों से होने वाले संभावित युद्ध में पांडव पक्ष का समर्थन देने के लिए मनाने के लिए कृष्ण ने अपने संदेश के साथ भेजा है। एक सीधे से दिख रहे पंथ के पीछे कृष्ण की मंशा अनेक काज निबटाने की है जिसमें नागवंश के नाश के साथ- साथ विसर्पियों की नागवंश से मुक्ति भी है। 

इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है विसर्पियों के नागों के प्रति तमाम समर्पण..प्रतिबद्धता एवं एकनिष्ठा की तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में बात है उनके प्रति नागों की बर्बरता एवं क्रूरता से भरे पैशाचिक अत्याचार की। इसी उपन्यास में कहीं कृष्ण की हर क्रिया-प्रक्रिया और मंशा के पीछे ढकी-छिपी गहरी कूटनीतिक सोच दिखाई देती है जो समय आने पर पांडवों और स्वयं कृष्ण के पक्ष में अपने पूरे वजूद के साथ उजागर होती नज़र आती है। 

इस बात के लिए लेखक की तारीफ़ करनी होगी कि कल्पना, गहन अध्ययन एवं गहरे शोध के बाद लिखे गए इस कदम-कदम पर चौंकाने वाले बेहद रोमांचक उपन्यास में लेखक ने अपने हुनर से रहस्य, गुप्तचरी और युद्ध कौशल का ऐसा बेहतरीन समां बाँधा है कि पाठक कहानी के साथ उसकी रौ में अंत तक बहता चला जाता है। दिलचस्प अंदाज़ में लिखे गए इस उपन्यास में लेखक ने अपनी बात को तथ्यात्मक रूप से सही एवं प्रमाणित साबित करने के लिए जगह-जगह पर विभिन्न ग्रंथों के दर्ज श्लोकों का उनकी पृष्ठ संख्या के साथ उदाहरण दिया है। 

इसी तरह की शैली और विषय को ले कर अँग्रेज़ी में लिखे गए एक प्रसिद्ध उपन्यास के हिंदी अनुवाद की लचर भाषा की बनिस्बत इस उपन्यास की भाषा समय, काल एवं वातावरण के हिसाब से एकदम सही समय लगी। साथ ही उपन्यास में एक दो जगहों पर 'गपक लिया' जैसे शब्दों का प्रयोग 'निगलने' के लिए किया गया जो कि थोड़ा अजीब लगा।

उम्मीद की जानी चाहिए कि इस वृहद उपन्यास श्रृंखला पर जल्द की कोई बड़े बजट की हॉलीवुड या राजामौली टाइप की फ़िल्म या वेब सीरीज़ देखने को मिलेगी। 

प्रूफरीडिंग की कमी के तौर पर पेज नंबर 35 के अंतिम पैराग्राफ़ में लिखा दिखाई दिया कि..

'मर्मर ध्वनियां असहमति और असहमति विवाद में बदलने लगीं'

इस वाक्य में मेरे ख्याल से 'असहमति और असहमति विवाद में बदलने लगीं'की जगह 'सहमति और असहमति के विवाद में बलने लगीं' आना चाहिए। 

रोमांचक सफ़र पर ले जाते इस दिलचस्प उपन्यास के 455 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्द युग्म ने और इसका मूल्य रखा गया 250/- जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। 

धनिका - मधु चतुर्वेदी

आज भी हमारे समाज में आम मान्यता के तहत लड़कियों की बनिस्बत लड़कों को इसलिए तरजीह दी जाती है कि लड़कियों ने तो मोटा दहेज ले शादी के बाद दूसरे घर चले जाना है जबकि लड़कों ने परिवार के साथ आर्थिक एवं सामाजिक स्तर पर साथ खड़े रह उनकी वंशबेल को और अधिक विस्तृत एवं व्यापक कर आगे बढ़ाना है। लड़की की शादी में मोटा दहेज देने जैसी कुप्रथा से तंग आ कर बहुत से परिवारों में लड़की के जन्मते ही या फिर उसके भ्रूण रूप में ही उसे खत्म कर देने का चलन चल निकला।

दोस्तों..आज इस सामाजिक मुद्दे से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं इसी विषय से जुड़े एक ऐसे उपन्यास की यहाँ बात करने जा रहा हूँ जिसे 'धनिका' के नाम से लिखा है मधु चतुर्वेदी ने। 

इस उपन्यास के मूल में एक तरफ़ कहानी है एक ऐसी माँ की जिसे अपनी पूरी ज़िन्दगी इस बात का मलाल रहा कि उसका पूरा जीवन बच्चे पैदा करने और उनके लालन-पोषण में ही गुज़र गया। दूसरी तरफ इस उपन्यास में कहानी है घर के कामकाज में निपुण उस धनिका की जो अपने तमाम गुणों के बावजूद महज़ इस वजह से अपनी दादी की तारीफ़ को तरसती रही कि उसकी माँ ने बेटियाँ क्यों जनी हैं।  

मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि की इर्दगिर्द बने गए इस उपन्यास में कहीं कोई अपनी पत्नी के जीवित होने के बावजूद उसी घर में उसी की छोटी बहन को उसकी सौतन के रूप में ब्याह के ले आता है कि बड़ी बहन बच्चे पैदा करने में सक्षम नहीं। तो कहीं कोई नौकरीपेशा मध्यमवर्गीय जीव वाजिब दामों पर मौसमी फल व सब्ज़ियाँ पा कर अथवा किसी सरकारी काम के बिना रिश्वत दिए ही पूरे हो जाने पर या बॉस के मुँह से तारीफ़ के दो बोल सुन लेने पर ही परम संतोष अनुभव करता दिखाई देता है। 

 इसी उपन्यास में कहीं कोई अपनी सास से इस वजह से नफ़रत करती दिखाई देती है कि उसने कोई बेटी नहीं बल्कि सब बेटे ही जने हैं। इसी उपन्यास में कहीं कोई किसी की बेवफ़ाई से आहत हो कर भी हर समय उसकी वापसी की बाट जोहता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं चार-चार बेटियों का ग़रीब पिता अपनी बेटियों के ब्याह के लिए होने वाले समधियों के आगे गिड़गिड़ाता..चिरौरी करता नज़र आता है। तो कहीं कोई दहेज लोलुप पिता अपने पढ़े-लिखे इंजीनियर बेटे को ऊँचे दामों में बेचने का प्रयास करता दिखाई देता है। इस उपन्यास में कहीं कॉलेज लाइफ को ले कर कोई लड़की रोमानी ख्वाबों में इस हद तक डूबी दिखाई देती है कि असलियत से रु-ब-रु ही नहीं होना चाहती। तो कहीं बेटियों की शिक्षा एवं स्वायत्ता की बात होती दिखाई देती है कि उनके लिए शिक्षित हो कर आत्मनिर्भर बनना कितना जरूरी है। 

इसी किताब में कहीं शादी-ब्याह की तैयारियों और रीति-रिवाज़ों के बारीक चित्रण से पाठक दो चार होता नज़र आता है तो कहीं शादी में बारातियों और घरातियों के खाने में फ़र्क होता दिखाई देता है।

 इसी उपन्यास में कहीं बारात के खाने में बफ़े की आइटम्स में मौजूद पनीर और आइसक्रीम को ज़्यादा से ज़्यादा हड़पने का दृश्य व्यंग्यात्मक हो मज़ेदार बनता नज़र आता है। तो कहीं शादी के दौरान होने वाली अफरातफरी का सजीव चित्रण पढ़ने को मिलता है। कहीं बचपन में देखे गए मेलों का सजीव वर्णन पढ़ने को मिलता है। तो कहीं होली की रंग-गुलाल भरी मस्ती और धमाचौकड़ी में बचपन पुनः मूर्त रूप लेता दिखाई देता है। 

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस दमदार उपन्यास में एक प्रेमपत्र की भाषा को चमत्कृत बनाने के चक्कर में भाषा का प्रवाह मुझे टूटता हुआ प्रतीत हुआ। साथ ही कॉलेज की पिकनिक के एक दृश्य में ठठा कर हँसने का मौका मिला। कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की कमियों के दिखाई देने के अतिरिक्त तथ्यात्मक ग़लती के रूप में इस उपन्यास में पेज नंबर 88 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'बाबा को लिफ़ाफ़े में रसीदी टिकट चिपकाता देख श्रद्धा भगवान से मनाती है कि कहीं भी शादी तय हो जाए।'

यहाँ ग़ौर करने वाली बात यह है कि रसीदी टिकट का इस्तेमाल विशेष तौर से लेनदेन के लिए किया जाता है। ये एक प्रकार से शासन को भुगतान किया जाने वाला टैक्स (राजस्व) है जबकि साधारण डाक को भेजने के लिए डाक टिकट का इस्तेमाल किया जाता है। इसलिए सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'बाबा को लिफ़ाफ़े में डाक टिकट चिपकाता देख श्रद्धा भगवान से मनाती है कि कहीं भी शादी तय हो जाए।'

संग्रहणीय क्वालिटी के 159 पृष्ठीय इस दमदार उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से बिल्कुल जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

चौसर - जितेन्द्र नाथ


थ्रिलर उपन्यासों का मैं शुरू से ही दीवाना रहा हूँ। बचपन में वेदप्रकाश शर्मा के उपन्यासों से इस क़दर दीवाना बनाया की उनका लिखा 250-300 पेज तक का उपन्यास एक या दो सिटिंग में ही पूरा पढ़ कर फ़िर अगले उपन्यास की खोज में लग जाया करता था। इसके बाद हिंदी से नाता इस कदर टूटा कि अगले 25-26 साल तक कुछ भी नहीं पढ़ पाया। 2015-16 या इससे कुछ पहले न्यूज़ हंट एप के ज़रिए उपन्यास का डिजिटल वर्ज़न ख़रीद कर फ़िर से वेदप्रकाश शर्मा जी का लिखा पढ़ने को मिला। उसके बाद थ्रिलर उपन्यासों के बेताज बादशाह सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के लेखन ने ऐसा दीवाना बनाया कि 2020 के बाद से मैं उनके लगभग 100 उपन्यास पढ़ चुका हूँ। इस बीच कुछ नए लेखकों के थ्रिलर उपन्यास भी पढ़ने को मिले। आज उसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए मैं एक ऐसे तेज़ रफ़्तार थ्रिलर उपन्यास 'चौसर' का यहाँ जिक्र करने जा रहा हूँ जिसे अपनी प्रभावी कलाम से लिखा है जितेन्द्र नाथ ने। 

इस उपन्यास के मूल में कहानी है कॉन्फ्रेंस पर मुंबई आए हुए विस्टा टेक्नोलॉजी के पंद्रह एम्प्लॉईज़ के अपने होटल में वापिस ना पहुँच एक साथ ग़ायब हो जाने की। जिसकी वजह से मुम्बई पुलिस से ले कर दिल्ली तक के राजनैतिक गलियारों में हड़कंप मचा हुआ है। अहम बात यह कि उन पंद्रह इम्प्लाईज़ में से एक उत्तर प्रदेश के उस बाहुबली नेता का बेटा है जिसकी पार्टी के समर्थन पर केंद्र और राज्य की सरकार टिकी हुई है। इंटेलिजेंस और पुलिस की विफलता के बाद बेटे की सुरक्षित वापसी को ले कर चल रही तनातनी उस वक्त अपने चरम पर पहुँचने लगती है जब इसकी वजह से सरकार के अस्तित्व पर ख़तरा मंडराने लगता है। 

इसी उपन्यास में कहीं किसी बड़े राजनीतिज्ञ के बेटे के अपहरण की वजह से राजनीतिक गलियारों में चल रही सुगबुगाहट बड़ी हलचल में तब्दील होती नज़र आती है। तो कहीं अपहर्ताओं को पकड़ने में हो रही देरी की वजह से सरकार चौतरफ़ा घिरती नज़र आती है कि उसके वजूद पर ही संकट मंडराता मंडराने लगता है। इसी किताब में कहीं कोई संकटमोचक बन कर सरकार बचाने की कवायद करता नज़र आता है तो कहीं कोई तख्तापलट के ज़रिए सत्ता पर काबिज होने के मंसूबे बनाता दिखाई देता है।

इसी उपन्यास में कहीं देश के जांबाज़ सिपाही अपनी जान को जोख़िम में डाल देश के दुश्मनों का ख़ात्मा करते नज़र आते हैं तो कहीं कोई टीवी चैनल अपनी टी आर पी के चक्कर में पूरे मामले की बखिया उधेड़ता नज़र आता है। कहीं अपहरण का शक लोकल माफ़िया और अंडरवर्ल्ड से होता हुआ आतंकवादियों के ज़रिए पाकिस्तानी खुफ़िया एजेंसी आई.एस.आई की तरफ़ स्थान्तरित होता दिखाई देता है। तो कहीं किसी बड़ी कंपनी को हड़पने की साजिशों के तहत किसी की शह पर कंपनी के शेयरों को गिराने के लिए मंदड़ियों हावी होते दिखाई देते हैं। राजनीति उतार चढ़ाव से भरपूर एक ऐसी घुमावदार कहानी जो अपनी तेज़ रफ़्तार और पठनीयता भरी रोचकता के चलते पाठकों को कहीं सोचने समझने का मौका नहीं देती। 

कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की कमियों के अतिरिक्त इस उपन्यास के शुरू और अंत के पृष्ठ मुझे बाइंडिंग से उखड़े हुए दिखाई दिए। इस ओर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। 

पेज नंबर 103 में लिखा दिखाई दिया कि..

'स्वर्ण भास्कर के प्रोग्राम में नीलेश के साथ एक दर्जन से ज़्यादा कर्मचारियों के अगवा होने के साथ डेढ़ हज़ार करोड़ की फ़िरौती की बात को भी बहुत तूल दिया गया था'

जबकि इससे पहले पेज नंबर 52, 68 और 90 पर इस रक़म को एक हज़ार करोड़ बताया गया है यानी कि फ़िरौती की रक़म में सीधे-सीधे 500 करोड़ का फ़र्क आ गया है। इसी बाद इसी बात को ले कर फ़िर विरोधाभास दिखाई दिया कि पेज नंबर 116 में अपहर्ताओं का आदमी मुंबई पुलिस कमिश्नर से एक हज़ार करोड़ रुपयों की फ़िरौती माँगते हुए उन्हें एक ईमेल भेजी होने की बाबत बताता है लेकिन अगली पेज पर फिर जब उस रक़म का जिक्र ईमेल में आया तो उसे एक हज़ार करोड़ से बढ़ा कर फ़िर से एक हज़ार पाँच सौ करोड़ रुपए कर दिया गया। हालांकि इस पेज पर इस बाबत सफ़ाई भी दी गयी है कि अपहर्ताओं ने माँग की शर्तों में बदलाव कर दिया लेकिन इस तरह की बातों ने बतौर पाठक मुझे थोड़ा सा कन्फ्यूज़ किया। 

साथ ही इस तेज़ रफ़्तार रोचक उपन्यास में एक बात और ख़ली कि फ़िरौती की रक़म भारतीय रुपयों में क्यों माँगी जा रही है? पाकिस्तानियों के सीधे-सीधे तो वो काम नहीं आने वाले। बेहतर होता कि फ़िरौती की रक़म को भारतीय रुपयों के बजाय किसी अंतरराष्ट्रीय करैंसी मसलन अमेरिकन डॉलर या फ़िर यूरो में माँगा जाता । 

हालांकि 279 पृष्ठीय यह बेहद रोचक उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके पेपरबैक संस्करण को छापा है सूरज पॉकेट बुक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 225/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

बर्फ़खोर हवाएँ - हरप्रीत सेखा - अनुवाद (सुभाष नीरव)


साहित्य को किसी देश या भाषा के बंधनों में बाँधने के बजाय जब एक भाषा में अभिव्यक्त विचारों को किसी दूसरी भाषा में जस का तस प्रस्तुत किया जाता है तो वह अनुवाद कहलाता है। ऐसे में किसी एक भाषा में रचे गए साहित्य से रु-ब-रू हो उसका संपूर्ण आनंद लेने के ज़रूरी है कि उसका सही..सरल एवं सधे शब्दों में किए गए अनुवाद को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाया जाए। 

अब रचना प्रक्रिया से जुड़ी बात कि आमतौर पर यथार्थ से जुड़ी रचनाओं के सृजन के लिए हम लेखक जो कुछ भी अपने आसपास घटते देखते..सुनते या महसूस करते हैं, उसे ही अपनी रचनाओं का आधार बना कर कल्पना के ज़रिए कुछ नया रचने या गढ़ने का प्रयास करते हैं। क्षेत्र, स्थानीयता.. परिवेश एवं भाषा का असर स्वतः ही हमारी रचनाओं में परिलक्षित होता दिखाई देता है। 

दोस्तों आज अनुवाद और रचना प्रक्रिया से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं कनाडा की पृष्ठभूमि पर..वहीं के मुद्दों को ले कर रची गयी कहानियों के एक ऐसे संकलन की बात करने जा रहा हूँ जिसे मूल रूप से लिखा है पंजाबी लेखक हरप्रीत सेखा ने और 'बर्फ़खोर हवाएँ" के नाम से इसका हिंदी अनुवाद किया है प्रसिद्ध लेखक एवं अनुवादक सुभाष नीरव जी ने।  

इस संकलन की एक कहानी इस बात पर सवाल खड़ा करती नज़र आती है कि विवाह के बाद महिला के लिए पति का सरनेम ही ज़रूरी क्यों?
तो वहीं एक अन्य कहानी उस दुःखी पिता की व्यथा व्यक्त करती नज़र आती है जिसका, अपने साढ़ू की बेटी का विवाह की तैयारी करवाने के लिए भारत आया जवान बेटा, अपनी पत्नी और छोटे बच्चों को अकेला छोड़ रोड एक्सीडेंट में मारा जा चुका है मगर विडंबना ये कि एक्सीडेंट के कुछ दिनों के भीतर ही विवाह का होना तय हुआ है जिसमें उन सभी को शामिल होना है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ झूठी शान के चक्कर में फँसे ऐसे व्यक्ति की बात कहती नज़र आती है जो विदेश में अपनी लगी-लगाई नौकरी महज़ इस वजह से छोड़ कर घर बैठ जाता है कि उसकी सुपरवाइज़र से जिस हरिजन युवक से शादी की है, उसका पिता कभी उनके खेतों में काम किया करता था। तो वहीं एक अन्य कहानी कहानी जॉर्ज और वांडा के पड़ोस में बसने आए उद्दण्ड पड़ोसी के हश्र से इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि सेर को भी सवा सेर कभी ना कभी..कहीं ना कहीं  ज़रूर मिलता है। 

इसी संकलन की अन्य कहानी जहाँ घर से हफ़्तों दूर रहने वाले बिज़ी ट्रक ड्राइवर की पत्नी, रूप के एकाकीपन की बात करती है जो खुद को मसरूफ़ रखने के लिए लेखन के ज़रिए फेसबुक में सहारा ढूँढती है। उसकी देखादेखी पति भी अपना फेसबुक एकाउंट बना तो लेता है मगर..
तो वहीं एक अन्य कहानी में कैंसर की वजह से मृत्यु प्राप्त कर चुकी पत्नी, जगजीत के वियोग में तड़पता सुखचैन सिंह अंततः अपनी पत्नी की खुशियों में ही अपनी खुशी ढूँढ़ लेता दिखाई देता है। 

एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ सीमा के साथ हमेशा मारपीट करने वाले शक्की पति को जब एक्सीडेंट के बाद अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है तो ना चाहते हुए भी सीमा का झुकाव अस्पताल में अपनी बीमार माँ की देखभाल के लिए रुके एक अन्य युवक नवदीप की तरफ़ होने तो लगता है मगर ..
तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी एक ऐसे सैक्स एडिक्ट की बात करती दिखाई देती है जिसकी पत्नी, उसकी बुरी आदतों की वजह से उसे छोड़ कर चुकी है और इस सबसे बाहर निकलने की अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद भी उसका भटकाव जारी है। 

 इसी संकलन की एक अन्य कहानी में कंजूस प्रवृति के जग्गा को ना चाहते हुए भी मन मार कर अपनी बेटी, रूबी का विवाह पूरी शानोशौकत के साथ करना तो पड़ जाता है मगर विवाह के कुछ दिनों बाद ही बेटी अपने मायके से फ़ोन कर के यह कह देती है कि वो अपनी हुक्म चलाने वाली सास के साथ ससुराल में नहीं रह सकती। तो वहीं एक अन्य कहानी खेलों के प्रति लोगों के जोश और उन्माद को ज़ाहिर करती नज़र आती है कि किस तरह अपनी चहेती टीम के हारने पर उनके फैन उन्मादी हो जहाँ-तहाँ उत्पात मचाने लगते हैं। 
 
इसी संकलन की एक अन्य कहानी खोखले आदर्शों के साये तले जी रहे लोगों के दोगले रवैये पर चोट करती नज़र आती है। तो वहीं एक अन्य कहानी संकीर्ण सोच के उन लोगों की बात करती नज़र आती है जो वक्त एवं ज़रूरत के हिसाब से बदलने के बजाय अब भी पुराने संस्कारों और झूठी शान से जुड़े रहना चाहते हैं। 

धाराप्रवाह शैली में लिखे इस दमदार कहानी संकलन में कुछ एक जगहों पर मुझे प्रूफरीडिंग की छोटी-छोटी कमियाँ दिखाई दीं। 

संग्रहणीय क्वालिटी के इस 176 पृष्ठीय उम्दा कहानी संकलन के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है राही प्रकाशन, दिल्ली ने और इसका मूल्य रखा गया है 350/- रुपए। पाठकों पर ज़्यादा से ज़्यादा पकड़ बनाने के लिए ज़रूरी है कि इस प्रभावी कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को जल्द से जल्द उपलब्ध कराया जाए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक, अनुवादक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

दरकते दायरे - विनीता अस्थाना

कहा जाता है कि हम सभी के जीवन में कुछ न कुछ ऐसा अवश्य अवश्य होता है जिसे हम अपनी झिझक..हिचक..घबराहट या संकोच की वजह से औरों से सांझा नहीं कर पाते कि.. लोग हमारा सच जान कर हमारे बारे में क्या कहेंगे या सोचेंगे? सच को स्वीकार ना कर पाने की इस कशमकश और जद्दोजहद के बीच कई बार हम ज़िन्दगी के संकुचित दायरों में सिमट ऐसे समझौते कर बैठते हैं जिनका हमें जीवन भर मलाल रहता है कि..काश हमने हिम्मत से काम ले सच को स्वीकार कर लिया होता।

 दोस्तों..आज मैं भीतरी कशमकश और आत्ममंथन के मोहपाश से बँधे कुछ दायरों के बनने और उनके दरकने की बातें इसलिए कर रहा हूँ कि आज मैं 'दरकते दायरे' नाम से रचे गए एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे लिखा है विनीता अस्थाना ने। 

दूरदर्शन से ओटीटी की तरफ़ बढ़ते समय के बीच इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है कानपुर और लखनऊ के मोहल्लों में बसने वाले मध्यमवर्गीय परिवारों की। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसमें बातें हैं दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों की आपाधापी भरी दौड़ की।

फ्लैशबैक और वर्तमान के बीच बार-बार विचरते इस उपन्यास में कहीं कोई चाहते हुए भी अपने प्रेम का इज़हार नहीं कर पाता तो कहीं कोई इसी बात से कन्फ्यूज़ है कि आखिर..वो चाहता किसे है? कहीं कोई अपनी लैंगिकता को ही स्वीकार करने से बचता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं कोई बड़े बैनर के लिए लिखी कहानी के कंप्यूटर के क्रैश होने को वजह से नष्ट हो जाने की वजह से परेशान नज़र आता है। तो कहीं स्थानीयता के नाम पर फिल्मों में दो-चार जगह देसी शब्दों को घुसा के देसी टच दिए जाने की बात पर कटाक्ष होता दिखाई देता है।  कहीं देसी टच के नाम पर फिल्मों में लोकल गालियों की भरमार भर देने मात्र से ही इस कार्य को पूर्ण समझा जाता दिखाई देता है। तो कहीं दूर से देखा-देखी वाली नई-पुरानी आशिक़ी को 'सिटियारी' के नाम से कहे जाने की बात का पता चलता है। 

इसी उपन्यास में कहीं लड़कियाँ आस-पड़ोस और घर वालों की अनावश्यक रोकटोक और समय-बेसमय मिलने वाले तानों से आहत दिखाई देती हैं कि लड़कों से मेलमिलाप बढ़ाएँ तो आवारा कहलाती हैं और लड़कियों से ज़्यादा बोलें-बतियाएँ तो गन्दी कहलाती हैं। तो कहीं भावी दामाद के रूप में देखे जा रहे लड़के के जब हिंदू के बजाय मुसलमान होने का पता चलता है तो बेटी को शह देती माँ भी एकदम से दकियानूसी हो उठती दिखाई देती है।  कहीं हिंदूवादी सोच की वजह से गंगा-जमुनी तहज़ीब के ख़त्म होने की बात उठती दिखाई देती है। तो कहीं खुद की आस्था पर गर्व करने के साथ-साथ दूसरे की आस्था के सम्मान की बात भी की जाती दिखाई देती है। कहीं मीडिया द्वारा सेकुलरिज़्म की आड़ में लोगों को धर्म और जाति में बाँटने की बात नज़र आती है। तो कहीं कोई पति हिटलर माफ़िक अपनी तानाशाही से अपनी पत्नी को अपने बस में करता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं बॉलीवुड हस्तियों के पुराने वीडियोज़ को मिक्स कर के गॉसिप हैंडल्स के लाइक बटोरने की बात का पता चलता है। तो कहीं कोई प्यार में निराश हो, नींद की गोलियाँ खा, आत्महत्या करने का प्रयास करता दिखाई देता है। कहीं कोई तांत्रिक की मदद से वशीकरण के ज़रिए अपने खोए हुए प्यार को पाने के लिए प्रयासरत नज़र आता है। तो कहीं कोई मौलाना किसी को किसी की यादें भुलाने के मामले में मदद के नाम पर खुद उसके कुछ घँटों के लिए हमबिस्तर होने की मंशा जताता दिखाई देता है। 

कहीं कोई एक साथ..एक ही वक्त में एक जैसे ही फॉर्म्युले से अनेक लड़कियों से फ़्लर्ट करता दिखाई देता है। तो कहीं ऑनलाइन निकाह करने के महीनों बाद बताया जाता दिखाई देता है कि वो निकाह जायज़ ही नहीं था। कहीं किसी की बेवफ़ाई के बारे में जान कर कोई ख़ुदकुशी को आमादा होता दिखाई देता है। तो कहीं कोई किसी से प्यार होने के बावजूद प्यार ना होने का दिखावा करता नज़र आता है। कहीं कोई अपनी लैंगिकता के भेद को छुपाने के लिए किसी दूसरे के रिश्ते में दरार डालने का प्रयास करता नज़र आता है। तो कहीं कोई किसी को जबरन अपने रंग में रंगने का प्रयास करता दिखाई देता है। 

इस बात के लिए लेखिका की तारीफ़ करनी पड़ेगी कि जहाँ एक तरफ़ बहुत से लेखक स्थानीय भाषा के शब्दों को अपनी रचनाओं में जस का तस लिख कर इसे पाठक पर छोड़ देते हैं कि वो अपने आप अंदाजा लगाता फायर। तो वहीं दूसरी तरफ़ ऐसे स्थानीय एवं अँग्रेज़ी शब्दों के अर्थ को लेखिका ने पृष्ठ के अंत में दे कर पाठकों के लिए साहूलियत का काम किया है। 

कुछ एक जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग की ग़लतियाँ भी दिखाई दीं जैसे कि..

पेज नम्बर 72 के अंतिम पैराग्राफ में उर्दू का एक शब्द 'तफ़्सील' आया है। जिसका मतलब किसी चीज़ के बारे में विस्तार से बताना होता है लेकिन पेज के अंत में ग़लती से हिंदी में इसका अर्थ 'मापदंड' दे दिया है।

पेज नम्बर 155 में दिए गए अँग्रेज़ी शब्द 'जस्टिफाई' का हिंदी अर्थ 'उत्पन्न' दिया गया है जो कि सही नहीं है। 'जस्टिफाई' का सही अर्थ 'सफ़ाई देना' है। 

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस उपन्यास में ज़्यादा किरदारों के होने की वजह से उनके आपसी रिश्ते को ले कर पढ़ते वक्त कई बार कंफ्यूज़न हुआ। बेहतर होता कि उपन्यास के आरंभ या अंत में किरदारों के आपसी संबंध को दर्शाता एक फ्लो चार्ट भी दिया जाता कि पाठक दिक्कत के समय उसे देख कर अपनी दुविधा दूर कर सके।

हालांकि यह उम्दा उपन्यास मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके 206 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है नोशन प्रेस की इकाई 'प्रतिबिम्ब' ने और इसका मूल्य रखा गया है 267/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए 200/- रुपए तक होता तो ज़्यादा बेहतर था। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

शुद्धि - वन्दना यादव

कहते हैं कि सिर्फ़ आत्मा अजर..अमर है। इसके अलावा पेड़-पौधे,जीव-जंतु से ले कर हर चीज़ नश्वर है। सृष्टि इसी प्रकार चलती आयी है और चलती रहेगी। जिसने जन्म लिया है..वक्त आने पर उसने नष्ट अवश्य होना है। हम मनुष्य भी इसके अपवाद नहीं लेकिन जहाँ एक तरफ़ जीव-जंतुओं की मृत देह को कीड़े-मकोड़ों एवं बैक्टीरिया इत्यादि द्वारा आहिस्ता-आहिस्ता खा-पचा उनके वजूद को खत्म कर दिया जाता है। तो वहीं दूसरी तरफ़  स्वयं के तथाकथित सभ्य होने का दावा करने वाले मनुष्य ने अपनी-अपनी मान्यता एवं तौर-तरीके के हिसाब से मृत देह को निबटाने के लिए ज़मीन में दफ़नाने, ताबूत में बंद कर मिट्टी में दबाने, मीनार जैसी ऊँची छत पर कीड़े-मकोड़ों और पक्षियों की ख़ुराक बनाने    या जला कर सम्मानित तरीके से निबटाने के विभिन्न तरीके अपना लिए। 

सनातन धर्म की मान्यता अनुसार आत्मा फ़िर से जन्म ले किसी नई योनि..किसी नए शरीर को प्राप्त करती है मगर इससे पहले वह तेरह दिनों तक उसी घर में विचरती रहती है। मृतक की आत्मा की शांति के लिए इन तेरह दिनों में घर में गरुड़ पूजा की जाती है। दोस्तों..आज मृत्यु और गरुड़ पूजा से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं इन्हीं सब बातों से लैस एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे "शुद्धि" के नाम से लिखा है प्रसिद्ध लेखिका वन्दना यादव ने। वन्दना यादव जी मोटिवेशनल स्पीकिंग एवं समाज सेवा के अतिरिक्त साहित्य के क्षेत्र में भी खासी सक्रिय हैं। 

इस उपन्यास के मूल में कहानी है राजस्थान के एक गाँव उदयरामसर में एक के बाद एक कर के हुई चार मौतों को झेल रहे एक ऐसे परिवार की जिसके दूरदराज से शोक मनाने आए रिश्तेदार भी इन एक के बाद एक हो रही मौतों की वजह से सभी रस्मों के पूरे होने तक एक साथ..एक ही छत के नीचे रहने को मजबूर हो जाते हैं। जिनमें से एक की पत्नी एवं लिव इन पार्टनर भी शामिल है। अपने-अपने व्यस्त जीवन से निकल कर सालों बाद मिल रहे इन रिश्तेदारों में एक तरफ़ मातम का दुःख है तो दूसरी तरफ़ आपस में मिलने जुलने का उल्लास भी। यही खुशी..यही उमंग..यही उल्लास तब खीज..क्रोध एवं हताशा में बदलता जाता है जब उनके वहाँ रहने का समय एक के बाद एक होने वाली मौतों की वजह से और आगे खिसकता चला जाता है। 

इसी उपन्यास में कहीं मृत्य प्राप्त कर चुके व्यक्ति के श्रद्धावश चरण छूने के लिए आयी महिलाएँ अपने हाथ में पकड़े चढ़ावे के बड़े नोट के ज़रिए अपनी संपन्नता का प्रदर्शन करती दिखाई देती हैं तो कहीं  शवयात्रा के ऊबड़ खाबड़ रास्ते में महिलाओं के नंगे पैर जाने या फ़िर आधे रास्ते से ही वापिस लौट जाने की परंपरा की बात होती दिखाई देती है। साथ ही यह उपन्यास, शवयात्रा में पुरुषों के जूते-चप्पल पहन कर और महिलाओं के नंगे पैर जाने की कुप्रथा पर सवाल उठाने के साथ-साथ मृतक के शरीर पर सोना-चाँदी रख कर जलाने के औचित्य पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता नज़र आता है। 

इसी उपन्यास में कहीं लेखिका अपने मुख्य किरदार, शेर सिंह के माध्यम से पंडितों द्वारा कही गयी हर बात पर आँखें मूंद कर विश्वास कर लेनी वाली जमात पर भी कटाक्ष करती नज़र आती हैं तो कहीं वे स्त्री-पुरुष के एक समान होने की बात करती नज़र आती हैं। इसी उपन्यास में कहीं किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी तेरहवीं तक उसकी पसंद के खान-पान और उसी की तरह के जीवन को जीने वाले परिवार के पुरुष सदस्य को बीकानेर से सटे उदयरामसर गाँव के अहीर समाज द्वारा 'इकोळिया' कहे जाने की बात का पता चलता है। तो कहीं खामख्वाह के आडंबरों को चलती आयी रीतों के नाम पर ढोया जाता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं किसी से जाति के नाम पर भेदभाव करने की बात दिखाई देती है तो कहीं मृत्यु के बाद निकट संबंधियों के लेनदेन पर होने वाले खर्चों को ले कर चिंताग्रस्त बड़ी बहू और बेटे में विमर्श होता दिखाई देता कि इस सबका का खर्चा वही सब क्यों करें। कहीं मर चुके पिता द्वारा छोड़ी गई संपत्ति के बंटवारे को ले कर चिखचिख होती नज़र आती है। 

इसी उपन्यास में कहीं समाप्त होने की कगार पर खड़े ऐसे रिश्तों की बात होती नजर आती है जिन्होंने वर्तमान बुजुर्ग पीढ़ी के नहीं रहने पर खुद-ब-ख़ुद समाप्त हो जाना है। तो कहीं चोरी से औरों की बातें सुनने की आदत पर कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है। कहीं किसी नज़दीकी के  मृत्यु जैसे समय पर भी नहीं आने के बहाने बनाने की बात की जाती नज़र आती है तो कहीं कौन-कौन नहीं आया का सारा हिसाब-किताब दिमाग़ी बहीखाते में नोट किया जाता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं कोई महिला शमशान की तरफ़ जाते हुए कच्चे रास्ते को देख कर अपने मताधिकार की बात करती नज़र आती है कि इस बार मैं वोट उसी को दूँगी जो यहाँ तक की पक्की सड़क बनवा देगा। तो वहीं दूसरी तरफ़ कोई महिला वोट भी अपने-अपने पतियों की मर्ज़ी से देने की वकालत करती नज़र आती है। कहीं स्त्री-पुरुष के एक समान होने के बावजूद महिलाओं के शमशान तक जाने और अंतिम क्रियाकर्म में भाग लेने में मनाही की बात होती नज़र आती है। तो कहीं गर्मी के दिनों में मृतक के घर में तेरहवीं तक रिश्तेदारों के जमावड़ा,  किसी की चिंता का इस वजह से बॉयस बनता दिखाई देता है कि दिन-रात कूलरों और पंखों के चलने से इस बार बिजली का बिल ज़्यादा आने वाला है।

इसी उपन्यास में कहीं पिता की मूर्ति बनवाने के नाम पर तो कहीं तेरहवीं के भोज में खाने की आइटमों को ले कर तनातनी बढ़ती दिखाई देती है। तो कहीं किसी की मृत्य शैय्या पर एक के बाद एक कर के दो महिलाएँ अपनी चूड़ियाँ तोड़ती नज़र आती है। कहीं किसी की संपन्नता के आगे उसकी ग़लत बात को भी मान्यता मिलती नज़र आती है। तो कहीं किसी का बेटा अपने पिता को मुखाग्नि देने से पहले मुंडन कराने से साफ़ इनकार करता नज़र आता है। 

इसी उपन्यास में कहीं किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके सगे-संबंधी इस वजह से पशोपेश में पड़े नज़र आते हैं कि जिसे उसने संपूर्ण समाज के सामने पूरे धार्मिक रीति रिवाजों से पत्नी स्वीकार किया था, उस स्त्री को पत्नी के रूप में उसने स्वयं मान्यता नहीं दी और जिसके साथ वह स्वयं भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ अपने प्राण त्याग देता है, उसे अब समाज उसकी पत्नी के रूप में मान्यता नहीं देन चाहता।

इसी उपन्यास में कहीं संजीदा विचार विमर्श तो कहीं निंदा पुराण चलता दिखाई देता है। कहीं किसी के अवैध संबंधों पर गुपचुप मंत्रणा होती नज़र आती है। तो कहीं घर का बेटा ही घर के हिसाब-किताब में हेराफेरी करता नज़र आता है। कहीं ओढ़े मुखौटों से इतर लोगों के  असली चेहरे सामने आते दिखाई देते हैं तो कहीं रिश्तों की सरेआम बखिया उधड़ती नज़र आती है।
 
व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गया यह प्रभावी उपन्यास थोड़ा खिंचा हुआ एवं कहीं-कहीं स्वयं को रिपीट करता हुआ लगा। साथ ही बहुत ज़्यादा किरदारों  के जमावड़े को अपने में समेटे इस उपन्यास में उनके आपसी रिश्ते को ले कर कंफ्यूज़न हुआ। बेहतर होता कि कहानी के आरंभ या अंत में फ्लो चार्ट के ज़रिए सभी का आपसी रिश्ता स्पष्ट किया जाता। कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की छोटी छोटी कमियाँ दिखाई दीं जिन्हें दूर किया जाना चाहिए।

संग्रहणीय क्वालिटी के इस 200 पृष्ठीय विचारोतेजक उपन्यास के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है भारतीय ज्ञानपीठ (वाणी प्रकाशन) ने और इसका मूल्य रखा गया है 425/- रुपए जो कि मुझे आम हिंदी पाठक की जेब के हिसाब से काफ़ी ज़्यादा लगा। ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक पहुँच बनाने के लिए ज़रूरी है कि जायज़ कीमत पर इस उपन्यास का पेपरबैक संस्करण भी उपलब्ध कराया जाए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। 

कैलेण्डर पर लटकी तारीखें - दिव्या शर्मा

आमतौर पर किसी भी रचना को पढ़ने पर चाहत यही होती है कि उससे कुछ न कुछ ग्रहण करने को मिले। भले ही उसमें कुछ रुमानियत या फ़िर बचपन की यादों से भरे नॉस्टेल्जिया के ख़ुशनुमा पल हों या फ़िर हास्य से लबरेज़ ठहाके अथवा खुल कर मुस्कुराने के लम्हे उससे प्राप्त हों। अगर ऐसा नहीं हो तो कम से कम कुछ ऐसा मजबूत कंटैंट हो जो हमें सोचने..समझने या फ़िर आत्ममंथन कर स्वयं खुद के गिरेबान में झाँकने को मजबूर कर दे। 
दोस्तों आज मैं आत्ममंथन करने को मजबूर करते एक ऐसे लघुकथा संग्रह की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'कैलेण्डर पर लटकी तारीखें' के नाम से लिखा है दिव्या शर्मा ने। 
इस संकलन की रचनाओं में कहीं हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात होती दिखाई देती है तो कहीं कुछ अन्य रचनाओं में देह व्यापार से जुड़ी युवतियों की व्यथा व्यक्त कही जाती दिखाई देती है।  कुछ अन्य रचनाओं में लेखिका अपने साहित्यिक संसार से प्रेरित हो रचनाएँ रचती नज़र आती है तो कहीं कुछ अन्य रचनाओं में बिंब एवं प्रतीकों के ज़रिए वे मन के उद्गार व्यक्त करती नज़र आती हैं। साथ ही साथ इस संकलन की कुछ रचनाओं में लेखिका विज्ञान को आधार बना कर अपने मन की बात कहती नज़र आती है। 
इस संकलन की किसी रचना में जहाँ कोई इस बात से परेशान है कि हर बार उसके गर्भवती होंने की उम्मीद जब नाउम्मीदी में बदल जाती है तो उसके श्वसुर का चहकता चेहरा बुझ जाता है। तो वहीं एक अन्य रचना जन्नत की चाह में काफ़िरों का कत्ल-ए-आम कर रही कौम को आईना दिखाती नज़र आती है। एक अन्य रचना में जहाँ एक तरफ़ समाज की बर्बरता के ख़िलाफ़ मानवता के धर्म से मदद माँगने पर वह भी अपनी असमर्थता में अपने हाथ खड़े करता दिखाई देता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य रचना, बाप हो या बेटा, दोनों की एक जैसी पुरुषवादी सोच की तरफ़ इशारा करती नज़र आती है। 
एक संकलन की एक अन्य रचना में कोई युवती इस बात के बिल्कुल उलट कि 'सैक्सुअल हैरेसमेंट सिर्फ़ लड़कियों का ही होता है' किसी युवक का शोषण करती नज़र आती है। तो वहीं एक अन्य रचना एक तरफ़ नाबालिग़ द्वारा अपनी मर्ज़ी से बनाए गए सेक्स संबंध तो दूसरी तरफ़ विवाह के बाद जबरन बनाए गए दैहिक संबंधों की बात करती नज़र आती है। एक अन्य रचना जहाँ एक तरफ़ किसी वेश्या की व्यथा व्यक्ति करती दिखाई देती है तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी अन्य रचना में एक वेश्या अपने विवाह के प्रस्ताव को ठुकरा कर आत्महत्या कर लेती है कि अपने प्रेमी से विवाह कर वो उसका भविष्य खराब नहीं करना चाहती थी। 
इसी संकलन की एक अन्य रचना में जहाँ चित्रकार के लिए बतौर मॉडल कार्य करने वाली युवती, खुद को दुत्कारे जाने पर चित्रकार को ही आईना दिखाती नज़र आती है। तो वहीं एक अन्य रचना में उस अर्धविक्षिप्त लड़की की बात करती नज़र आती है जो खुद के जैसे ही बलात्कार का शिकार होती बच्ची को अपनी दिलेरी की वजह से बचा लेती है। एक अन्य रचना में एक बलात्कार पीड़िता अदालत में जज के सामने इस बात के लिए सरेंडर करती दिखाई देती है कि उसने देश की कानून व्यवस्था पर विश्वास कर के बहुत बड़ा गुनाह किया । तो वहीं एक अन्य रचना विक्रम बेताल के बहाने हम सब में संवेदनाओं के मर जाने की बात की तस्दीक करती नज़र आती है।
इसी संकलन की एक अन्य रचना नदी में निर्वस्त्र नहाते हुए योगी के उदाहरण के माध्यम से पुरुष मानसिकता का परिचय देती प्रतीत होती है कि पुरुष वस्त्र उतार कर योगी बन जाता है और स्त्री वस्त्र उतारने पर भोग्या। इसी संकलन में कहीं कोई दृढ़ निश्चयी माँ, अपनी सास के दबाव के बावजूद, कम उम्र में अपनी बेटी का ब्याह नहीं करने की के फ़ैसले पर डट के खड़ी दिखाई देती है। तो कहीं किसी अन्य रचना में घर की प्रॉपर्टी में भाई-बहन, दोनों का बराबर का हिस्सा बताया जाता दिखाई देता है। 
इसी संकलन की किसी अन्य रचना में जहाँ एक तरफ़ ऑफिस में कार्यरत किसी युवती का शोषण करने का प्रयास होता दिखाई देता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य रचना में जहाँ इंडवा (सर पर रखे पानी भरे मटके को सहारा देने रखा जाने वाला गोल कपड़ा) के बहाने पुराने दिनों को याद किया जाता दिखाई देता है। इसी संकलन की एक अन्य रचना में बूढ़ी सास, अपनी बहू का ध्यान अपनी तरफ़ आकर्षित करने के लिए बीमारी का बहाना करती नज़र आती है। तो कहीं किसी रचना में साड़ी बाँधने के सही तरीके के ज़रिए रिश्तों को संभालने की बात की जाती दिखाई देती है। कहीं किसी रचना में माँ की मृत्यु के बाद घर में सौतेली माँ के आ जाने से नाराज़ हो घर छोड़ चुकी काव्या का मन अपनी नई माँ की व्यथा देख, पिघल जाता है। तो कहीं जीवन की आपाधापी में व्यस्त जोड़ा जब 35 साल बाद, 60 की उम्र में पहली बार पहाड़ों पर घूमने के लिए जाता है। तो बाहर बर्फ़ गिरती देख पत्नी, बरसों पुरानी अपनी ख्वाहिश के पूरा होने से खुश होती नज़र आती है। 
 कहीं किसी लघुकथा में बूढ़े होने पर पिता, बेटे की भूमिका में और बेटा, पिता की भूमिका निभाता नज़र आता है। तो कहीं किसी दूसरी रचना में लिव-इन और विवाह के बीच के फ़र्क को समझाया जाता दिखाई देता है। इसी संकलन की एक अन्य जहाँ एक तरफ़ लघुकथा विधवा विवाह का समर्थन करती नज़र आती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य रचना मोहब्बत और इश्क की अलग-अलग परिभाषा पर बात करती नज़र आती है।  कहीं किसी लघुकथा में भारत-पाकिस्तान के बीच बँटवारे के दर्द को घर-परिवार के बीच बँटवारे के दर्द के ज़रिए समझने का प्रयास किया जाता दिखाई देता है। इसी संकलन की एक अन्य रचना हवा-पानी के माध्यम से आपसी भाईचारे का संदेश देती दिखाई देती है कि उन पर किसी एक कौम का हक़ नहीं होता।  तो एक अन्य रचना भगवान राम द्वारा सीता का त्याग किए जाने को नए नज़रिए से सोचने को मजबूर करती दिखाई देती है। 
इसी संकलन की एक अन्य कहानी आरक्षण की साहूलियतों का फ़ायदा उन तक पहुँचने की वकालत करती नज़र आती है, जिन्हें सच में इसकी जरूरत है।  तो वहीं एक अन्य रचना लोगों की कथनी और करनी में फ़र्क की बात करती दिखाई देती है। कहीं किसी रचना में कोई किसान सूखे की आशंका से आने वाली दिक्कतों की बात करता दिखाई देता है। तो कहीं कोई अन्य लघुकथा पुरुषों की बनिस्बत स्त्रियों की केयरिंग नेचर की बात करती दिखाई देती है। कहीं किसी अन्य रचना में शहरों के विकास के साथ-साथ गाँवों के सिकुड़ने की बात की जाती दिखाई देती है तो कहीं किसी अन्य रचना में कोई पुरुष लेखक किसी लेखिका को उसके लेखन की सीमाएँ निर्धारित करने के लिए कहता दिखाई देता है। कहीं किसी अन्य लघुकथा में बाहर साहित्यजगत में औरों को प्रेरित करने वाली मज़बूत इमेज की लेखिका भीतर से बेहद कमज़ोर निकलती नज़र आती है। 
इसी संकलन की एक रचना में पानी को व्यर्थ बहाने वालों पर कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है। तो कहीं किस अन्य रचना में आने वाले भयावह समय को ले कर चिंता जताई जाती दिखाई देती है कि लड़कियों को उनके लड़की होने की वजह से पेट में ही मार दिए जाने की वजह से ऐसी स्थिति आ पहुँची है कि लड़कियाँ अब विलुप्तप्राय होती जा रही हैं। 

इस संकलन की कुछ लघुकथाएँ मुझे बेहद प्रभावी लगीं। उनके नाम इस प्रकार हैं : 
1. कैलेण्डर पर लटकी तारीखें
2. आमाल
3. भूखा
4. बेड़ियाँ
5. छिपा हुआ सच
6. रेशमा
7. अर्धविक्षिप्त
8. अंतर
9. रसूलन बी
10. सिसकी
11. वक्त
12. मिलन
13. कुलटा
14. प्यास
15. तिलिस्म
16. इंसानी करामात
17. एक जोड़ी चप्पल
18. विवादित लेखन
19. प्रसिद्धि
20. परदा
21. चमकता आसमान
22. चीख
23. दो बूँद पानी
24. दुर्लभ प्रजाति
हालांकि धाराप्रवाह शैली में लिखा गया यह उम्दा लघुकथा संकलन मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा बढ़िया लघुकथाओं से सुसज्जित इस किताब के 177 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है साहित्य विमर्श ने और इसका मूल्य रखा गया है 199/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।
 
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