प्रीत लेखन का नंगा सच- योगेश मित्तल

अगर अपने पढ़ने के शौक की बात करूँ तो मेरी भी शुरुआत बहुतों की तरह चंपक, मधु मुस्कान, लोटपोट, नंदन, सरिता, मुक्ता, धर्मयुग.. वाया साप्ताहिक हिंदुस्तान, वेदप्रकाश शर्मा के थ्रिलर उपन्यासों से होती हुई गुलशन नंदा के सामाजिक उपन्यासों तक जा पहुँचती है। 

जी..हाँ, वही थ्रिलर उपन्यास और सामाजिक उपन्यास जिन्हें उस समय के तथाकथित दिग्गज साहित्यकारों ने लुगदी साहित्य कहते हुए सिरे से नकार दिया। हालांकि उस समय कर्नल रंजीत, इब्ने सफ़ी, जेम्स हेडली चेइस और गुलशन नंदा इत्यादि बहुत ज़्यादा बिकने और पढ़े जाने वाले लेखक थे मगर चूंकि ऐसे उपन्यास की लागत कम और मुनाफ़ा ज़्यादा रखने के लिए उन्हें बहुत ही हल्की क्वालिटी के सस्ते कागज़ पर छापा जाता था। तो इसी कमी को आधार बना कर उनके लेखन को लुगदी साहित्य या पल्प फिक्शन कहा जाने लगा। 

उस वक्त इन लेखकों के बाज़ार में लगभग हर महीने नया उपन्यास आने से बड़ी हैरानी होती थी कि ये सब इतना ज़्यादा और इतनी जल्दी कैसे लिख लेते हैं कि इधर कोई घटना घटी और उधर कुछ ही दिनों में उस पर उपन्यास हाज़िर। 

काफ़ी सालों बाद इस रहस्य से तब जा के पर्दा हटा जब पता चला कि घोस्ट राइटिंग यानि कि प्रेत लेखन क्या बला है। ऐसे में स्वतः इन बेनामी लेखकों के बारे में जानने की इच्छा मन में जाग उठी कि आख़िर.. किन वजहों से ये अपनी सारी मेहनत..सारा हुनर..सारा श्रेय किसी और को अपने नाम से इस्तेमाल करने के लिए दे देते हैं? 

दोस्तों..आज मैं ऐसे ही एक घोस्ट राइटर याने के प्रेत लेखक, योगेश मित्तल से उनकी ही आत्मकथा 'प्रेत लेखन का नंगा सच' के ज़रिए परिचय करवाने जा रहा हूँ। जिसमें उनके बचपन..जवानी और बीमारी से जुड़ी बातों के अतिरिक्त लुगदी साहित्य यानी कि पल्प फिक्शन से जुड़ी ऐसी जानकारियाँ हैं जिन्हें शायद इस किताब के न आने पर पाठक कभी नहीं जान पाते। 

 इस किताब के लेखक, योगेश मित्तल की बेशक आम लोगों के बीच कोई पहचान नहीं है लेकिन 1970 से ले कर 2000 के बीच यही योगेश मित्तल अनेक लेखकों एवं प्रकाशकों का चहेता हुआ करता था। 

इस किताब में कहीं देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता और भूतनाथ सीरीज का जिक्र होता दिखाई देता है जिनको पढ़ने के लिए उर्दू और अंग्रेजी भाषी लोगों ने हिंदी सीखें। तो कहीं किसी अन्य जगह पर योगेश जी बताते हैं कि 1969 में कलकत्ता से दिल्ली में आ कर बसने के बाद उन्होंने कभी अपने पड़ोसियों और दोस्तों के लिए घोस्ट राइटर के रूप में कहानियाँ लिखने के साथ साथ पड़ोस में ही किराए पर नॉवेल और मैगज़ीन किराए पर देने वाले विमल चटर्जी के साथ मिल कर पहले पहल मनोज पॉकेट बुक्स के बाल कहानियों के सैट के लिए घोस्ट राइटिंग शुरू की। उनकी लिखी कहानियों पर बतौर लेखक और संकलनकर्ता के रूप में 'प्रेम बाजपेयी' का नाम छपता था। जिसे बाद में बदल कर 'मनोज' कर दिया गया। 

मनोज पॉकेट बुक्स के अंतर्गत छपने वाले 'इमरान' और 'विनोद-हमीद' सीरीज़ के उपन्यास भी इनके द्वारा ही लिखे गए। जो क्रमशः 'फ़रेबी दुनिया' और 'डबल जासूस' पत्रिकाओं में छपे। 

कहीं वे भारती पॉकेट बुक्स के लिए 'जगत' सीरीज़ के नॉवेल 'ओम प्रकाश शर्मा' के नाम से लिखने का जिक्र करते नज़र आते हैं तो कहीं वे 'विजय सीरीज़' के ऐसे नॉवल लिखते नज़र आते हैं जो असलियत में 'ओमप्रकाश कम्बोज' के नाम से छपे। 
कहीं वे भारती पॉकेट बुक्स के लिए ही 'ललित भारती' बन कर प्रेत लेखन करते रहे तो कहीं वे 'जेम्स बॉन्ड' बन कर भी अपने गुमनाम लेखन का परचम लहराते नज़र आते हैं। 

इसी किताब में कहीं वे लेखक 'कुमारप्रिय' से अपनी जान पहचान और दोस्ती की बातें करते नज़र आते हैं तो कहीं वे 'पंकज पॉकेट बुक्स' के शुरुआती उपन्यास 'ओलंपिक में हंगामा' का जिक्र करते नज़र आते हैं। जिसे ओलंपिक खेलों के दौरान हुई इज़रायली खिलाड़ियों की हत्या को आधार बना कर लिखा गया यह। 'इमरान' सीरीज़ का यह उपन्यास एच. इकबाल के नाम से छपा था। कहीं वे 'रानो जीजी' तो कहीं वे इन्दर भैया' के छद्म नामों से अपना प्रेत लेखन जारी रखते नज़र आते हैं। 

इसी किताब में कहीं किसी जगह लेखक बताते नज़र आते हैं कि बड़े उपन्यासकारों जैसे कि राज भारती, ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश कंबोज, विमल चटर्जी, सुरेंद्र मोहन पाठक, परशुराम शर्मा, वेद प्रकाश शर्मा, लोटपोट मैगजीन के लिए मोटू पतलू एवं बहुत से प्रकाशकों एवं लेखकों ने अपने उपन्यासों के मैटर को बढ़वाने के लिए घोस्ट राइटिर  के रूप में इनकी लेखनी का सहारा लिया। इसी किताब के ज़रिए पता चलता है कि कई बार किसी उपन्यास में लेखन किसी का..नाम किसी का और फ़ोटो किसी और का हुआ करता था।

इसी किताब में कहीं कोई प्रेत लेखक अपनी लच्छेदार बातों के ज़रिए नए बकरों को फँसा उनका पब्लिशिंग की दुनिया में पदार्पण करवाता नज़र आता है तो कहीं लेखक स्वयं हिंद पॉकेट बुक्स के रजिस्टर्ड ट्रेडमार्क 'मेजर बलवंत' के नाम से किसी अन्य प्रकाशक के लिए छद्म लेखन का कार्य करता नज़र आता है। जिसे उन्हें बाद में हिंद पॉकेट बुक्स की कोर्ट केस की धमकी के बाद छोड़ना पड़ा जबकि असलियत में हिंद पॉकेट बुक्स ने लेखक का उपन्यास आने के बाद ही इस नाम 'मेजर बलवंत' को अपने नाम से रजिस्टर्ड करवाया था। 
इसी किताब में कहीं वयोगेश मित्तल मजबूरन अपने मित्र की एवज में बिना पारिश्रमिक लिए कई उपन्यास लिखते नज़र आते हैं कि उनका मित्र प्रकाशक से एडवांस में पैसा ले कर ग़ायब हो गया था।

 इसी किताब में कहीं बड़े तथाकथित नाम वाले साहित्यकारों द्वारा गुलशन नंदा और इब्ने सफ़ी जैसे लेखकों के लेखन को दोयम दर्ज़े का करार दे उन्हें सिरे से इस हद तक नाकारा जाता दिखाई देता है कि उनकी तुलना वेश्याओं से की जाती दिखाई देती है। इसी किताब में कहीं ग़रीबी और पैसे की ज़रूरतों के मद्देनज़र लेखक का स्वयं अपने नाम से लिखने और छपने की ख्वाहिश से मोहभंग होता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य जगह पर लेखक स्वयं यह स्वीकार करते नज़र आते हैं कि उन्होंने इतने ज़्यादा छद्म नामों एवं प्रतिष्ठित लेखकों के लिए छद्म लेखन किया कि उन्हें स्वयं भी उन सभी के नाम याद नहीं। 
 
इसी किताब कहीं लेखक छद्म लेखन के लिए लेखकों की ग़रीबी की वजह से हुई फटीचर हालात को ज़िम्मेदार ठहराते नज़र आते हैं। तो कहीं पैसे के लालच में प्रकाशकों से एडवांस ले कर भी उनके लिए लिख कर ना दे पाने की वजह से ऐसे छद्म लेखकों से प्रकाशकों का मोहभंग होता दिखाई देता है। 

इसी किताब के ज़रिए पता चलता है कि उस दौर के सर्वाधिक चर्चित लेखकों जैसे कर्नल रंजीत, राजवंश, लोकदर्शी, समीर, केशव पण्डित,मनोज, रायज़ादा, टाइगर, विक्की आनंद, राजहंस इत्यादि के वजूद के पीछे सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रकाशकों की सोच थी। असल में उनके नाम का कोई व्यक्ति था ही नहीं। प्रकाशकों द्वारा इन छद्म नामों की उपज के पीछे की वजह दरअसल यह थी कि पैसे की तंगी या लालच की वजह से उस दौर के लेखक अक्सर प्रकाशकों से पैसा एडवांस में लेने के बाद उपन्यास लिखने में असमर्थता जताते हुए मुकर जाते थे। ऐसे में अपने घाटे को कवर करने के लिए प्रकाशक किसी भी लेखक को पकड़ कर अपना उपन्यास पूरा करवाने लगे। 

 इसी किताब में कहीं लुगदी साहित्य के पतन और लगातार बंद होती विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के पीछे की वजह के लिए मनोरंजन के विभिन्न टीवी चैनलों..कंप्यूटर.. मोबाइल और इंटरनेट को ज़िम्मेदार बताया जाता दिखाई देता है तो कही अँग्रेज़ी एवं पाकिस्तान से ख़ास तौर पर मँगवाए गए उर्दू उपन्यास सीधे-सीधे चोला बदल हिंदी में छपते दिखाई देते हैं। इसी किताब में कहीं प्रेत लेखन के शहंशाह के रूप में आरिफ़ मारहवीं का नाम आता दिखाई देता है तो कहीं मनोज पॉकेट बुक्स के मनोज ट्रेड नेम के पीछे सैम्युअल अंजुम अर्शी उर्फ़ अंजुम अर्शी का नाम आता दिखाई देता है। कहीं उस्ताद लेखक के रूप में लेखक, फ़ारूक़ अर्गली का नाम लेते नज़र आते हैं तो कहीं गंभीर चेहरे के सधे लेखक के रूप में वे गोविन्द सिंह के नाम से पाठकों को रूबरू कराते दिखाई देते हैं। 

कहीं इस किताब में थ्रिलर उपन्यासों के सुपर स्टार बन चुके वेदप्रकाश शर्मा से अन्य लेखकों की ईर्ष्या और जलन की बातें पढ़ने को मिलती हैं तो कहीं ओमप्रकाश शर्मा जैसे बड़े नाम से प्रेरित हो अन्य प्रकाशक भी उन्हीं के नाम जैसे किसी अन्य शख्स की आड़ में ओमप्रकाश शर्मा के नाम से ही उन्हीं की शैली और उन्हीं के किरदारों वाले नकली उपन्यास धड़ल्ले से छापते दिखाई देते हैं।

कहीं विक्रांत जैसे करैक्टर को जन्म देने वाले कुमार कश्यप के प्रेत लेखक से असली लेखक में तब्दील होने की कहानी कही जाती दिखाई देती है। तो कहीं दवाओं के एजेंट केवल कृष्ण कालिया के ट्रेड नाम 'राजहँस' से लिख का छा जाने की बात होती नजर आती है कि उनकी लेखनी से उस दौर के अनेक लेखक इस हद तक प्रेरित हुए कि उनके लेखन की छाप फ़िल्मों तक में भी नज़र आने लगी। 

रोचक तथ्यों से भरी इस किताब को पढ़ते वक्त ज़ेहन में एक सवाल बार-बार उमड़ता दिखाई किया कि आख़िर एक आम पाठक किसी भी ऐसे व्यक्ति की आत्मकथा क्यों पढ़ना चाहेगा जिससे कि वह किसी भी भांति परिचित नहीं। ना वो कोई ऐसी जानी मानी शख्सियत या सेलिब्रिटी है कि उसके नाम का डंका पूरी दुनिया में बेशक न सही मगर कम से कम अपने देश में तो बज ही रहा हो। 


इस किताब में एक आध जगह प्रूफरीडिंग की कमी के अतिरिक्त दो जगहों पर वाक्य रिपीट होते दिखाई दिए। इसके अतिरिक्त कुछ बातें जैसे कि लेखक की बीमारी और रिश्तेदारों से जुड़ी बातों की बार-बार पुनरावृत्ति होती दिखाई दी। जिनसे बचा जा सकता था। बतौर एक सजग पाठक होने के नाते मुझे इस किताब के शुरुआती पेज थोड़े उकताहट भरे और अंतिम लगभग 100 पेज रोचकता के साथ तेज़ रफ़्तार भी पकड़ते दिखाई दिए। 


प्रेत लेखन एक ऐसा सच है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। सालों पहले से घोस्ट राइटिंग होती रही है और आने वाले समय में भी बेशक रूप बदल कर ही सही मगर होती रहेगी। ऐसे में इसमें किसी भी सच के उजागर होने से कोई सनसनी फैलने या हंगामा होने का डर नहीं। इसलिए इस किताब का शीर्षक 'प्रेत लेखन का नंगा सच' मुझे सनसनीखेज़ और बिकाऊ तो लगा मगर सार्थक करता कतई नहीं लगा। सही मायने में इस किताब का शीर्षक अगर 'प्रेत लेखन- पर्दे के पीछे का सच' या 'प्रेत लेखन की अंदरूनी कहानी' जैसा होता तो ज़्यादा सार्थक एवं विषयानुकूल होता। इसी किताब से पता चला कि पाठकों के रिस्पॉन्स को देखते हुए नयी जानकारियों भरा इसका अगला भाग भी लाया जा सकता है। ऐसे में बिना आत्मकथा वाले हिस्से के अगर किताब को सिर्फ़ कंटेंट बेस्ड फॉर्मेट में लॉन्च किया जाए तो मेरे हिसाब से किताब और ज़्यादा पाठकों तक अपनी पहुँच बनाने में कामयाब होगी।

इस जानकारी भरी 268 पृष्ठीय आत्मकथात्मक किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है नीलम जासूस कार्यालय ने और इसका मूल्य रखा गया है 275/- रुपए जो कि मुझे कंटेंट एवं क्वालिटी के नज़रिए से ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 

क्वीन- कामिनी कुसुम


बात ज़्यादा पुरानी नहीं बस उस वक्त की है जब हिंदी फिल्मों की पटकथा लेखक के रूप में स्वर्गीय कादर खान की तूती बोला करती थी। लेखन के साथ साथ वे अभिनय के क्षेत्र में इस कदर व्यस्त थे कि चाह कर भी लेखन के लिए पर्याप्त समय या तवज्जो नहीं दे पा रहे थे। कहा जाता है कि ऐसे में  इस दिक्कत से निजात पाने के लिए उन्होंने अपने अंडर कई अन्य लेखकों को काम दिया जो उन्हीं की शैली और स्टाइल में..उन्हीं के निर्देशानुसार कहानियों के परिस्थितिनुसार संवाद लिखते थे। जिनका बाद में कादर खान के नाम के साथ फिल्मों में इस्तेमाल किया गया। 

ऐसा नहीं है कि इस तरह की घोस्ट राइटिंग या प्रेत लेखन सिर्फ़ हिंदी फिल्मों के लिए ही किया गया। पहले भी अनेकों बार ऐसा कभी किसी लेखक के लिखे को संवारने अथवा सुधारने के लिए..तो कभी बड़े नेताओं के भाषण अथवा आत्मकथा को लिखने के लिए किया गया। आमतौर पर मशहूर हस्तियां, बड़े अधिकारी या राजनीतिज्ञ अपनी आत्मकथाओं, संस्मरणों अथवा लेखों इत्यादि का मसौदा तैयार करने या उन्हें सुधारने करने के लिए घोस्ट राइटर्स को नियुक्त करते हैं।

मगर असल दुविधा या परेशानी तब होती जब अपने अन्तःकरण से पूर्णतः सही होते हुए हम जो लिख या कर अथवा जी रहे होते हैं, उसे ज़माने की नज़रों से मात्र इसलिए छुपाना पड़ता है कि..लोग क्या कहेंगे? 

"कुछ तो लोग कहेंगे..लोगों का काम है कहना"

दोस्तों..आज घोस्ट राइटिंग से जुड़ी बातें इसलिए कि आज यहाँ मैं इसी विषय से जुड़े एक ऐसे उपन्यास का जिक्र करने जा रहा हूँ जिसे 'क्वीन' के नाम से लिखा है अँग्रेज़ी की प्रसिद्ध लेखिका 'कामिनी कुसुम' ने। 5 अँग्रेज़ी किताबों के बाद ये उनका पहला हिंदी उपन्यास है। 

इस उपन्यास में कहानी है उस लेखिका नव्या की जिसे उसके दो उपन्यास आ चुकने के बावजूद प्रकाशक एवं संपादक के आग्रह/दबाव पर इरोटिक यानि कि कामुकता से भरा उपन्यास लिखने के लिए कहा जाता है। शुरुआती झिझक एवं हिचकिचाहट के बाद वो इसे एक चुनौती के रूप में 'क्वीन' के छद्म नाम से सफलतापूर्वक लेखन शुरू कर तो देती है मगर..

इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है उस नव्या की जो पति के साथ अपने वैवाहिक संबंधों को ले कर इस उम्मीद में जी रही है कि उसके प्रति उदासीन   हो चुका पति एक न एक दिन वापिस लौट कर उसके पास ज़रूर आएगा। दूसरी तरफ़ इसमें कहानी है एक ऐसे पति विवान की, जिसने परिवार के दबाव में आ, ना चाहते हुए भी नव्या से शादी कर ली कि उसकी प्रेमिका रायना हमेशा के लिए उसे छोड़ विदेश जा बसी है। अब चूंकि विदेश से मोहभंग होने के बाद रायना हमेशा हमेशा के लिए वापिस लौट आयी है। तो ऐसे में अब विवान भी अपनी बीवी- बच्चे को भूल रायना में ही अपनी पूरी ज़िन्दगी..पूरी दुनिया देख रहा है। 

मुख्य पात्रों के अतिरिक्त इस उपन्यास में सहायक किरदारों के रूप में एक तरफ़ मालती देवी के रूप में एक ऐसी सास है जिनके लिए घर की इज़्ज़त से बढ़ कर कुछ भी नहीं। तो वहीं दूसरी तरफ़ आग लगाने के लिए मानवी के रूप में नव्या की एक अदद ननद भी है। साथ ही मूक प्रेमी के रूप में आदित्य का चरित्र भी है जो कभी खुल कर नव्या से अपने मन की बात नहीं कह पाया।

दिलचस्प मोड़ों से गुजरते इस सफ़र में अब देखना यह है कि..

■ नव्या और विवान के रिश्ते का क्या होगा? 

■ क्या विवान, रायना के साथ अपनी मनचाही डगर..मनचाहे सफ़र पर जा पाएगा? 

■ क्या मानवी सब कुछ जान कर भी अनजान बनी रहेगी अथवा अपने भाई या फ़िर नव्या का साथ देगी? 

■ क्या कभी आदित्य, नव्या के समक्ष अपने मन के भावों को अभिव्यक्त कर पाएगा अथवा अस्वीकार्यता को ही अपनी किस्मत मान..चुप बैठ जाएगा? 

■ क्या कभी छद्म रूप से लिखने के बजाय नव्या अपने भीतर.. सच को स्वीकार करने की हिम्मत..शक्ति एवं जज़्बा ला पाएगी? या फ़िर जीवनपर्यंत मात्र एक छद्म लेखिका ही बन कर रह जाएगी? 

कहने तो धाराप्रवाह लेखन से सुसज्जित इस उपन्यास में एक सामान्य सी कहानी है मगर इरोटिक लेखन के तड़के ने इसे और ज़्यादा मज़ेदार और पठनीय बना दिया है। इस किताब से नए लेखकों को यह सीखने में मदद मिलेगी कि कैसे सीमा में रह कर बिना वल्गर हुए भी कामुक लेखन किया जा सकता है।

कुछ एक जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ कमियां दिखाई दी जैसे कि 'स्टूल' शब्द के लिए बार बार 'टूल' लिखा नज़र आया। उम्मीद की जानी चाहिए कि लेखिका की कलम अभी हिंदी में और जादू बिखेरेती नज़र आएगी।

यूँ तो यह मनोरंजक उपन्यास मुझे किसी मित्र ने उपहार स्वरूप भेजा मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके 122 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है Red Grab Books ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए जो कि कम पृष्ठ संख्या देखते हुए मुझे थोड़ा ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई।

ज़िन्दगी 50 50- भगवंत अनमोल

जब भी कभी आपके पास किसी एक चीज़ के एक से ज़्यादा विकल्प हों तो आप असमंजस से भर.. पशोपेश में पड़ जाते हैं कि आप उनमें से किस विकल्प को चुनें? मगर दुविधा तब और बढ़ जाती है जब सभी के सभी विकल्प आपके पसंदीदा हों। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि आप मोटे ताज़े गन्नों से भरे एक खेत में खड़े हैं और आपको वहाँ से अपनी पसन्द का एक गन्ना चुनने के लिए बोल दिया जाए। तो यकीनन आप दुविधा में फँस जाऍंगे कि कौन सा गन्ना चुनें क्योंकि वहाँ आपको हर गन्ना एक से बढ़ कर एक नज़र आएगा। 

मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ तब होता है जब मैं पढ़ने के लिए अपनी संग्रहीत किताबों की तरफ़ जाता हूँ तो अक्सर पशोपेश अथवा धर्मसंकट में पड़ जाता हूँ कि उनमें से किस किताब को चुनूँ और किसको नहीं? उनमें से बहुत सी किताबों को मैंने बड़े चाव से इस उम्मीद में खरीदा होता है कि मैं जल्द से जल्द इनका पूरा लुत्फ़ उठा सकूँ। तो वहीं दूसरी तरफ़ बहुत सी अन्य किताबों को मुझे लेखकों अथवा प्रकाशकों द्वारा इस उम्मीद में प्रेमपूर्वक भेंट किया गया होता है कि मैं यथाशीघ्र उन पर अपने पाठकीय नज़रिए से कुछ टिप्पणी कर सकूँ। मगर चूंकि किताबों की फ़ेहरिस्त इतनी लंबी हो जाती है कि कई बार अच्छी किताबें भी नज़र में आने से चूक जाती हैं। 

दोस्तों..आज मैं किन्नर विमर्श से जुड़े एक ऐसे उपन्यास का यहाँ जिक्र करने जा रहा हूँ। जिसे "ज़िन्दगी 50-50" के नाम से लिखा है भगवंत अनमोल ने। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के 'बालकृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार 2017' से अलंकृत इस बेहतरीन उपन्यास के तीसरे संस्करण को मैंने आज से लगभग दो साल पहले 6 मार्च, 2021 में खरीदा था। पिछले दो सालों में कई बार उलटा पलटा जाने के बाद अंततः इसका नम्बर अब जा के आया लेकिन वो कहते हैं ना कि..'देर आए..दुरस्त आए' या 'जब जागो..तभी सवेरा'। आइए अब सीधे- सीधे चलते हैं इस उपन्यास की कथावस्तु की तरफ़। 

किन्नर विमर्श के नए आयाम खोलता यह उपन्यास अपने मूल में एक साथ तीन अलग अलग कहानियों के ले कर चलता दिखाई देता है। जिनमें कहानी का मुख्य पात्र, अनमोल कहीं किसी ऐसे बड़े भाई की भूमिका निभाता दिखाई देता है जिसका छोटा भाई अपने शारीरिक अधूरेपन की वजह से घर-बाहर हर जगह प्रताड़ित..शोषित और अपमानित होता दिखाई देता है मगर वो (अनमोल) चाह कर भी उसकी कोई मदद नहीं कर पाता। 

दूसरी कहानी में वह एक ऐसे पिता की भूमिका निभाता नज़र आता है, जिसका इकलौता बेटा, सूर्या भी उसके(अनमोल के) छोटे भाई हर्षा की तरह शारीरिक कमी का शिकार है। ऐसे में अब देखना यह है कि क्या अनमोल अपने अधूरे बेटे को देख कर अपने पिता, जिन्होंने समाज में अपनी मूँछों के नीचे हो जाने के डर से अपने दुधमुँहे बेटे को ज़हर दे मार डालने का प्रयास किया, की तरह क्रूर रवैया अपनाएगा या फ़िर समाज की परवाह ना करते हुए अपने बेटे के सामान्य जीवन जीने में संबल बन कर उसे प्रेरित करेगा।

 इसी उपन्यास की तीसरी कहानी में अनमोल एक ऐसे प्रेमी के रूप में सामने आता है जो लाख चाहने के बावजूद भी, चेहरे पर जन्मजात दाग़ ले कर पैदा हुई अपनी दक्षिण भारतीय प्रेमिका, अनाया को अपना नहीं पाता कि उससे शादी कर के वो, अपने  पहले से ही दुखी पिता को और ज़्यादा दुखी नहीं करना चाहता था कि वो उनकी जाति, धर्म एवं समाज की नहीं है। 

कभी वर्तमान तो कभी फ्लैशबैक के बीच घूमते इस उपन्यास में कहीं आजकल के युवा इंजीनियरों और उसकी वीकेंड पर होने वाली दारू पार्टियों की बात होती नज़र आती है। तो कहीं किसी शारीरिक अपंगता की वजह से ही किसी के साथ घर-बाहर दुर्व्यवहार होता नज़र आता है। कहीं उपन्यास शारीरिक विकलांगता के बजाय मानसिक विकलांगता के अधिक खतरनाक होने की बात करता नज़र आता है। तो कहीं इसी उपन्यास में किसी का इस हद तक दैहिक शोषण होता दिखाई देता है कि वो आहत हो.. उस समाज/ परिवार को ही छोड़ने का फैसला कर लेता है जो उसका साथ देने के बजाय मात्र मूक दर्शक बन बस तमाशा देखता रहा। 

इस उपन्यास में कहीं कोई बाप अपनी ही औलाद को बसों इत्यादि में कमर मटकाते हुए ताली बजा भीख माँगते देख शर्म से पानी पानी होता दिखाई देता है। तो कहीं कोई बाप जीवन के हर छोटे बड़े फ़ैसले में अपने बेटे के साथ खड़ा नज़र आता है। 
इसी किताब में कहीं कोई अपनी तमाम शर्तों के साथ व्यवहारिक हो प्रेम करता दिखाई देता है तो कहीं कोई बिना शर्त संपूर्ण समर्पण करता नज़र आता है। कहीं इसमें कोई अपने पिता के दो मीठे बोलों को तरसता दिखाई देता है तो कहीं कोई पिता के वजूद से ही नफ़रत करता दिखाई देता है।

इसी उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ कोई इस वजह से विवाह नहीं करता कि जिसे वो चाहती है, वो उसका नहीं हो सकता। तो वहीं दूसरी तरफ़ कोई किसी और के साथ इस वजह से विवाह के बंधन में बंध जाता है कि जिसे वो चाहता है, उससे उसकी शादी नहीं हो सकती।

प्रभावी शैली में लिखे गए इस उपन्यास के शुरुआती कुछ पृष्ठ थोड़ी ढिलमुल करने के बाद अपनी पकड़ इस प्रकार बना लेते हैं कि अंत तक आते आते संवेदनशील पाठकों की भावुक हो..आँखें नम हो उठती हैं।

प्रूफरीडिंग की कमी के तौर पर मुझे पेज नंबर 7 पर लिखा दिखाई दिया कि एक तरफ हाथ में पकड़े फोन पर नज़र थी और दूसरी तरफ कंप्यूटर का माउस अपने बैग में डाल रहा था।

इससे पहले यहाँ उपन्यास में नायक लैपटॉप बैग में डालता दिखाया गया है जबकि अब उसी के लिए कंप्यूटर (की माउस) शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है जो कि पढ़ने में थोड़ा अजीब लग रहा है। 

 इस उम्दा उपन्यास के 208 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है राजपाल एण्ड सन्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 265/- रुपए। किंडल सब्सक्राइबर्स के लिए यह फ्री में उपलब्ध है तथा अमेज़न पर डिस्काउंट के बाद 184/- रुपए में मिल रहा है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 


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उठा पटक- प्रभुदयाल खट्टर


आजकल की फ़िल्मों या कहानियों के मुकाबले अगर 60-70 के दशक की फिल्मों या कहानियों को देखो तो उनमें एक तहज़ीब..एक अदब..एक आदर्शवादिता का फ़र्क दिखाई देता है। आजकल की फ़िल्मों अथवा नयी हिंदी के नाम पर रची जाने वाली कहानियों में जहाँ एक तरफ़ भाषा..संस्कृति एवं तहज़ीब को पूर्णरूप से तिलांजलि दी जाती दिखाई देती है तो वहीं दूसरी तरफ़ पहले की फिल्मों एवं कहानियों में एक तहज़ीब वाली लेखन परंपरा को इस हद तक बनाए रखा जाता था कि उन फिल्मों के खलनायक या वैंप किरदार भी अपनी भाषा में तमीज़ का प्रयोग किया करते थे कि अगर ऐसा न किया गया तो उन्हें दर्शकों एवं पाठकों द्वारा स्वीकार करने के बजाय पूर्ण रूप से नकार दिया जाएगा।

दोस्तों..आज मैं उसी 60-70 की तहज़ीब वाली मर्यादित भाषा शैली में लिखे गए एक ऐसे कहानी संकलन की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'उठा पटक ' के नाम से लिखा है प्रभुदयाल खट्टर ने। बतौर स्क्रिप्ट राइटर एवं स्वर योगदान के क्षेत्र में दूरदर्शन और आल इंडिया रेडियो के लिए वर्षों तक अपनी सेवाएँ दे चुके प्रभुदयाल खट्टर जी की अब तक कई किताबें आ चुकी हैं। 

उनके इस कहानी संकलन की किसी कहानी में जहाँ एक तरफ़ सरकारी दफ़्तर में काम करने वाला विवेक जब अपनी बहन के रिश्ते की बात अपने सहकर्मी दोस्त राजेश से करता है तो वह उसकी दहेज ना लेने की शर्त पर चौंक जाता है।  क्या राजेश में कोई कमी या खोट था जिसकी वजह से वो शादी में दहेज नहीं लेना चाहता। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहने में कॉलेज में एक साथ पढ़ चुके नंदू और नंदिता की शादी करने से नंदू की माँ इस वजह से इनकार कर देती है कि नंदिता एक स्त्री हो कर पुलिस की मारधाड़ वाली नौकरी करती है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में आठ साल एक दूसरे से दूर रहने के बाद एक दिन अचानक आरती को समर का पत्र मिलता है तो पुरानी यादें फ़िर से ताज़ा होने लगती हैं कि किस तरह पिता के मना करने की वजह से उसका विवाह समर से नहीं हो पाया था। अब जहाँ एक तरफ़ आरती ने अब तक शादी नहीं की..वहीं दूसरी तरफ़ अमर शिखा से शादी कर तीन बच्चों का बाप बन चुका है और अब शिखा से अलग हो आरती को फ़िर से अपनाना चाहता है। अब देखना यह है कि आरती, समर से विवाह करने के लिए तैयार होती है अथवा उस युवक से शादी करने के लिए हाँ करती है जिससे उसके पिता 8 वर्ष पहले उसकी शादी करना चाहते थे। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ कमला अपने बेटे की शादी वंदना से तो कर तो देती है मगर अपनी उम्मीद से कम दहेज पा इस हद तक बौखला  उठती है कि अपनी ननद के साथ मिल कर अपनी ही बहु को जला कर मार डालने तक की साजिश रचने से भी नहीं चूकती। तो वहीं एक अन्य कहानी में लाला हजारीलाल के यहाँ नौकरी करने वाला सोमनाथ उनकी नौकरी छोड़ रेलवे स्टेशन पर इस वजह से कुलीगिरी करने लगता है कि लाला उसे अपनी बेटियों को ज़्यादा न पढ़ाने की सलाह दे रहा था। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में बंसी की मुलाकात अचानक अपने बचपन के दोस्त मेवा से होती है। जिसमें मेवा, अपने 8 वर्षीय बेटे का बंसी की 5 वर्षीया बेटी के साथ उनके बड़े होने पर विवाह करने का वचन देता है। उसी रात रसोई में अचानक लगी आग में झुलस कर बंसी की मौत हो जाती है। अब देखना ये है कि बच्चों के बड़े होने पर मेवा क्या अपने किए वादे को निभाएगा अथवा बंसी की पत्नी की कम हैसियत के बारे में सोच अपने बात से मुकर जाएगा? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में अणिमा के पिता के इनकार के बाद निराश हो दिल्ली छोड़ कर जा चुका अमर अब पाँच सालों बाद वापिस लौटने पर पाता है कि पिता की ज़िद पर जबरन ब्याह दी गयी अणिमा, जो अब एक तीन वर्षीय बेटी की माँ है,  का अब अपने शक्की पति से तलाक हो चुका है। बच्ची उस वक्त सदमे से ग्रस्त हो अस्पताल पहुँच जाती है जब उसे पता चलता है कि उसके नाना, उसे अनाथ आश्रम में भेज कर उसकी मॉ यानी कि अपनी बेटी की फ़िर से कहीं और शादी करवाना चाह रहे हैं। अब देखना ये है कि क्या अमर यह सब मूक दर्शक बन कर चुपचाप देखता रहेगा अथवा..

इसी संकलन की एक अन्य कहानी आठ महीने के दांपत्य जीवन के बाद विधवा हो चुकी आनंदी के माध्यम से इस बात की तस्दीक करती नज़र आती है कि एक न एक दिन हम सभी को मोह माया के बन्धनों से मुक्त हो कर अंततः अपनी मंज़िल..अपनी मुक्ति को पाना है। तो वहीं एक अन्य कहानी दहेज लोभियों के बुरे नतीजे की बात करती नज़र आती है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ एक साल पहले मोटरसाइकिल एक्सीडेंट में मृत्यु प्राप्त कर चुके मन्नू के नाम जब उसके दोस्त का पत्र और शादी का निमंत्रण आता है तो हैरान होती माँ भावुक हो उठती है कि उसकी शादी उसी लड़की से हो रही है जिससे वो खुद अपने बेटे मन्नू का विवाह करना चाहती थी। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में अविवाहित अणिमा परेशान हालात में  अपनी रूममेट सुनंदा को बताती है कि वह राजेश के बच्चे की माँ बनने वाली है और इस ख़बर से बेख़बर राजेश शहर में नहीं है। राजेश के वापिस लौट आने पर सुनंदा इसकी ख़बर राजेश को देने के लिए उसके घर जाती है तो वहाँ राजेश के बैडरूम में उसके साथ किसी अन्य युवती को कपड़े पहनते हुए पा चुपचाप वापिस लौट जाती है। क्या सुनंदा इस बात की ख़बर अणिमा को देगी अथवा अणिमा के गर्भवती होने की वजह से चुपचाप मौन धारण कर लेगी? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़  स्त्री..पुरुष में एक जैसे कार्य के लिए एक जैसे वेतन की माँग करती नज़र आती है तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में एक सेल्स गर्ल महिलाओं के प्रति भद्दी टिप्पणियों करने वालों के ख़िलाफ़ अन्य युवतियों को एकजुट करती नज़र आती है। 

इसी संकलन की एक कहानी में मनीषा के गर्भवती होने पर उसकी सास अल्ट्रासाउंड करवाने का फ़रमान सुना देती है कि उन्हें लड़की नहीं बल्कि लड़का चाहिए। अब देखा ये है कि क्या मनीषा अपने ससुराल वालों की बातों में उनकी बात मान लेती है अथवा उनके विरोध के काँटों भरे रास्ते पर अपने कदम बढ़ा देती है। 

पाठकीय नज़रिए से इस संकलन की कुछ कहानियाँ मुझे थोड़ी सपाट बयानी करती हुई दिखाई दीं तो कुछ कहानियाँ अपने आप में संपूर्ण होने के बजाय महज़ दृश्य मात्र भी लगीं। जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का इस्तेमाल ना किया जाना थोड़ा खला। 
  

पेज नंबर 47 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'अगले दिन शाम को ड्यूटी से लौटने पर उसे समर का व्हाट्सएप मैसेज मिला।  उसने पढ़ा, लिखा था, "जन्मदिन मुबारक हो, तुम्हारा रात का खाना मेरी तरफ़ से आठ बजे आऊँगा।" ' 

इसके बाद पेज नंबर 48 यानी कि अगले पेज पर लिखा दिखाई दिया कि..

' "हैप्पी बर्थडे।" समर दरवाज़े पर फूलों का गुलदस्ता लिए खड़ा था।

"थैंक्यू।" आरती ने कहा और फूलों का गुलदस्ता समर के हाथ से ले लिया।"

" कुछ लोगे?" आरती ने पूछा। 

"नहीं, नहीं, आज बाहर चलेंगे। तुम चलोगी?" समर ने पूछा तो आरती जैसे असमंजस में पड़ गई।'

अब यहाँ ये सवाल उठता है कि जब समर ने अपने व्हाट्सएप मैसेज में आरती को जन्मदिन की मुबारकबाद देने के बाद कह ही दिया था कि..

"तुम्हारा रात का खाना मेरी तरफ़ से, आठ बजे आऊँगा।" 

तो अब रात को आठ बजे आने के बाद फ़िर से पूछने की क्या ज़रूरत थी कि..

"तुम चलोगी?"

पेज नंबर 76 की एक कहानी 'रुलाई' में पाँच सालों बाद वापिस दिल्ली लौटे अमर की मुलाकात अपने दोस्त सतीश के घर में गुड्डी नाम की एक छोटी सी बच्ची से होती है। जो कभी उसकी प्रेमिका रह चुकी अणिमा की बेटी है। अणिमा के पिता की नज़र में अमर की हैसियत उनके जैसे अमीर परिवार की न होने के कारण उन दोनों की शादी नहीं हो पायी थी। अब अणिमा का अपने पति से तलाक हो चुका है और उसके पिता गुड्डी को अनाथ आश्रम भेजने की तैयारी कर रहे हैं। इस आघात से बच्ची डिप्रेशन में आ..अस्पताल पहुँच चुकी है।

ऐसे में अमर अस्पताल पहुँच गुड्डी को गोद लेने का प्रस्ताव रखता है। जिससे खुश हो कर अणिमा अपने पिता के विरोध के बावजूद भी पेज नम्बर 76 में कहती दिखाई देती  है कि..

'अणिमा दृढ़ हो कर, बाबूजी की अवज्ञा करते हुए सतीश से बोली,  "मैं गुड्डी की माँ हूँ, आप गुड्डी को गोद ले सकते हैं। लेकिन आपको मुझे यानी गुड्डी की माँ को, एक आया की तरह गुड्डी के साथ रहने की अनुमति देनी होगी।" 

सतीश की आँखों में आँसू आ गए। वह भर्राए स्वर में बोला, "अणिमा तुम आया की तरह नहीं, मेरी पत्नी बन कर भी रह सकती हो, अगर मंज़ूर हो।"

"मंज़ूर है।' अणिमा की रुलाई फूट पड़ी और वह सतीश के गले लग कर,फफक फफक कर रोने लगी।'

उपरोक्त सभी संवाद अणिमा ने अमर से कहने थे लेकिन वह इन्हें सतीश यानी कि अपने भाई से कहती नज़र आ रही है। जो कि सही नहीं है। 


धारा प्रवाह शैली में लिखा गया यह कहानी संकलन मुझे लेखक की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि बढ़िया क्वालिटी में छपे इस 182 पृष्ठीय कहानी संकलन के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है शारदा पब्लिकेशन, दिल्ली ने और इसका मूल्य रखा गया है 300/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

CIU क्रिमिनल्स इन यूनिफॉर्म- संजय सिंह/ राकेश त्रिवेदी


आजकल जहाँ एक तरफ़ बॉलीवुड की फिल्में अपनी लचर कहानी या बड़े..महँगे..नखरीले सुपर स्टार्स की अनाप शनाप शर्तों के तहत जल्दबाज़ी में बन बुरी तरह फ्लॉप हो.. धड़ाधड़ पिट रही हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ कसी हुई कहानी के साथ मंझे हुए अभिनय एवं निर्देशन के बल पर अनजान अथवा अपेक्षाकृत नए कलाकारों को ले कर बनीं वेब सीरीज़ लगातार हिट होती जा रही हैं। 

कहने का तात्पर्य ये कि बढ़िया दमदार अभिनय एवं निर्देशन के अतिरिक्त लेखन की परिपक्वता भी किसी फिल्म या वेब सीरीज़ के हिट होने के पीछे का एक अहम कारक होती है। दोस्तों..आज वेब सीरीज़ से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं वेब सीरीज़ की ही तर्ज़ पर लिखे गए एक तेज़ रफ़्तार उपन्यास 'CIU- क्रिमिनल्स इन यूनिफ़ॉर्म' का जिक्र करने जा रहा हूँ। जिसे लिखा है क्राइम इन्वेस्टिगेशन पत्रकारिता में दो दशक बिता चुके लेखकद्वय  संजय सिंह और राकेश त्रिवेदी ने।।

इस लेखकद्वय जोड़ी की ही लिखी कहानी पर जल्द ही सोनी लिव के ओटीटी प्लैटफॉर्म पर एक वेब सीरीज़ आ रही है। जो बहुचर्चित स्टैम्प पेपर घोटाले के मुख्य अभियुक्त अब्दुल करीम तेलगी के जीवन पर बनी है। आइए..अब सीधे सीधे चलते हैं उपन्यास की मूल कहानी और उससे जुड़ी बातों पर। 

हालिया ताज़ातरीन घटनाओं को अपने में समेटे इस उपन्यास में मूलतः कहानी है देश के सबसे अमीर कहे जाने वाले व्यवसायी 'कुबेर' के बहुचर्चित आवास 'कुबेरिया' के बाहर एक लावारिस गाड़ी के मिलने की। जिसमें कुबेर के नाम धमकी भरे पत्र एवं कुछ अन्य चीज़ों के साथ बिना डेटोनेटर के जिलेटिन की बीस छड़ें भी मौजूद थीं। 
 
कभी आतंकवाद तो कभी माफ़िया एंगल के बीच झूझती इस चौंकाने वाली घटना में पेंच की बात ये है कि बिना डेटोनेटर के जिलेटिन की छड़ी किसी काम की अर्थात विस्फ़ोट करने के काबिल नहीं। लेकिन अगर ऐसा था इस गाड़ी को वहाँ छोड़.. सनसनी या अफरातफरी फैलाने का असली मकसद..असली मंतव्य क्या था? 

केन्द्र और राज्य सरकार के बीच की रस्साकशी और आपसी खींचतान का उदाहरण बनी इस घटना में केस की तहकीकात से जुड़ी तफ़्तीश का जिम्मा काफ़ी जद्दोजहद और लंबी बहस के बाद राज्य सरकार की इकाई CIU के जिम्मे आता है। जिसका हैड असिस्टेंट पुलिस इंस्पेक्टर यतीन साठे है। जो खुद  17 साल सस्पैंड रहने के बाद ख़ास इसी केस के लिए बहाल हुआ है। मगर यतीन साठे स्वयं भी तो दूध का धुला नहीं। 

इस उपन्यास में कहीं सरकारी महकमों की आपसी खींचतान अपने चरम पर दिखाई देती है तो कहीं नेशनल सिक्योरिटी, पाकिस्तान, आई एस आई और इस्लामिक मिलिटेंट्स के नाम पर सरकार एवं पुलिस द्वारा देश को बरगलाया जाता दिखाई देता है। इसी उपन्यास में कहीं मौकापरस्त पुलिस का गठजोड़ सत्ता पक्ष के साथ तो कहीं विपक्ष के साथ होता नज़र आता है।

इसी उपन्यास में कहीं करोड़ों रुपयों की घूस दे कर पुलिस की बड़ी पोस्ट्स को हथियाया जाता दिखाई देता है। तो कहीं कोई पुलिस का नामी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट नौकरी छोड़ पैसे..पॉवर और शोहरत के लालच में चुनाव लड़ता नज़र आता है। इसी किताब में कही किसी संदिग्ध को पुलिस अमानवीय तरीके से टॉर्चर करती दिखाई देती है। तो कहीं एजेंसियों की कोताही से असली मुजरिमों के बजाय समान नाम वाले निर्दोष प्रताड़ित होते नज़र आते हैं । 

इसी उपन्यास में कहीं दफ़्तरी सबूतों का इस्तेमाल अपने निजी फ़ायदे के लिए होता दिखाई देता है तो कहीं शक की बिनाह पर मातहत ही घर का भेदी बन अपने अफ़सर की लंका ढहाता दिखाई देता है।
इसी किताब में कहीं पुलिस महकमे में आपसी खींचतान और पावर बैलेंस की राजनीति होती दिखाई देती है तो कहीं खुद को फँसता पा बड़े अफ़सरान अपने मातहत को बलि का बकरा बनाते दिखाई देते हैं। कहीं अपनी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के चलते मीडिया और पुलिस की आपसी खुंदक सर उठाए खड़ी नज़र आती है। तो कहीं बड़े नेताओं और पुलिसिया शह पर अवैध वसूली का खेल बड़े स्तर पर साढ़े हुए ढंग से खेला जाता दिखाई देता है। 

इसी किताब में कही गहन जाँच के नाम पर यतीन साठे जैसे राज्य सरकार के पुलिस अफ़सर को एनआईए जैसी केंद्रीय एजेंसी के अफ़सर सरेआम ज़लील ..बेइज़्ज़त कर प्रताड़ित करते नज़र आते हैं।

इसी उपन्यास में कहीं अपने फ़ायदे के चलते सीनियर अफसरों के ओहदे और रुतबे को दरकिनार कर छोटे अफ़सर को सभी महत्त्वपूर्ण केसेज़ का हैड बनाया जाता दिखाई देता है। तो कहीं कोई जॉइंट कमिश्नर रैंक के अफ़सर अपने ही कमिश्नर के ख़िलाफ़ अपने मन में दबी भड़ास राजनैतिक आकाओं के आगे उजागर करते दिखाई देते हैं। 

इसी किताब में कहीं नहले पर दहले की तर्ज़ पर चल रही जाँच में लंबी तफ़्तीश के बाद केन्द्र सरकार की एजेंसियां पाती हैं कि उस गाड़ी को लावारिस छोड़ने वाला स्वयं CIU का हैड यतीन साठे ही था। क्या महज़ यतीन साठे अकेला ही इस सारे काँड का मास्टर माइंड था या फ़िर इस पूरे षड़यंत्र का वह एक छोटा सा मोहरा मात्र था? यह सब जानने के लिए तो आपको इस कदम कदम पर चौंकाते तेज़ रफ़्तार  उपन्यास को पढ़ना होगा। 

■ प्रूफरीडिंग की के रूप में मुझे पेज नंबर 52 की शुरुआत में बोल्ड हेडिंग में 2004 लिखा दिखाई दिया। उसके तुरंत बाद लिखा दिखाई दिया कि..

'बुलावा आने पर वह तुरंत निकला था'

यहाँ लगता है कि ग़लती से कुछ छपने से रह गया है क्योंकि इस वाक्य का कोई मतलब नहीं निकल रहा है। 

■ इस उपन्यास के चैप्टर नंबर 10 के पेज नम्बर 175 में एटीएस अफसर नित्या शेट्टी आईपैड पर स्टेशन के सीसीटीवी में यतीन साठे के चेहरा, सिर ढंक कर जाने और लोकल ट्रेन में सवार होने के फुटेज होम मिनिस्टर सरदेशपांडे को दिखाते हुए उन्हें पूरे घटनाक्रम के बारे में बताता है कि सब कुछ किस प्रकार घटा।

इसी घटनाक्रम के दौरान नित्या शेट्टी बताता है कि..

'साठे एक बार फिर से हंसमुख को CIU के ऑफिस में बुलाता है। जहाँ साठे समेत कुछ पूर्व और मौजूदा एनकाउंटर स्पेशलिस्ट मिल कर हंसमुख पर भारी दबाव बनाते हैं। बदहवास हंसमुख कुछ मिनटों के लिए बाहर आता है तब वह इस योजना के बारे में अपने आप से बड़बड़ा रहा होता है, जिसे CIU ऑफिस के बाहर बैठा एक बार मालिक सुन लेता है। इस बार मालिक को हफ़्ता देने के लिए साठे ने बुलाया था और वह बाहर बैठा इंतजार कर रहा था। हंसमुख बड़बड़ा रहा होता है कि वह क्यों अपने सिर पर झूठी ज़िम्मेदारी ले जब उसने कुछ किया नहीं और उस पर ज़बरदस्ती दबाव डाला जा रहा है। इस बात की पुष्टि बाद में उस बार मालिक ने एटीएस से की।'


यहाँ लेखक द्वय के अनुसार एक बार मालिक ने हसमुख की बड़बड़ाहट सुनी और फ़िर इस बात की पुष्टि एटीएस वालों के सामने भी की जबकि पूरा उपन्यास फ़िर से खंगालने के बावजूद भी मुझे ऐसा कोई दृश्य देखने को नहीं मिला।

हालांकि 269 पृष्ठीय यह रोचक उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके पेपरबैक संस्करण को छापा है आर.के.पब्लिकेशन, मुंबई ने और इसका मूल्य रखा गया है 395/- रुपए जो कि मुझे ज़्यादा लगा। आम हिंदी पाठकों तक किताब की पहुँच बनाने के लिए ज़रूरी है कि किताब के दाम आम आदमी की जेब के हिसाब से ही रखे जाएँ। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखकद्वय एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 

कुछ अनकही-

कुछ किताबें अपने आवरण से ही इस कदर आकर्षित करती हैं कि आप उनके मोहपाश से बच नहीं पाते। नीना गुप्ता की इस आत्मकथा के साथ भी ऐसा ही हुआ। कुछ हफ़्ते पहले साहित्य अकादमी में लगे पुस्तक मेले में पेंग्विन के स्टॉल पर इसके बारे में पता किया तो उपलब्ध नहीं थी..अगले दिन आने के लिए कहा गया। अगले दिन पहुँचा तो भी किताब पहुँची नहीं थी। एक ही हफ़्ते में कम से कम तीन चक्कर लगे लेकिन तीनों ही बार मायूस हो कर लौटना पड़ा। इसके बाद साहित्य आजतक के तीन दिवसीय मेले में भी ये किताब उपलब्ध नहीं थी। अंततः इस किताब को 25 फरवरी से लगने वाले पुस्तक मेले में लेने का फ़ैसला किया मगर कमबख्त इस दिल का क्या करें? बार बार किताब की तरफ़ खींचता था। अमेज़न की शॉपिंग लिस्ट में बहुत दिनों पड़ी ये किताब हर बार मुँह चिढ़ा कर हौले से हँस देती कि.. कब तक बकरे की माँ अपनी ख़ैर मनाएगी। 
कंबख्त खुद को अमेज़न से खरीदवा के ही मानी। अब देखना ये है कि कब इसे पढ़ने का नम्बर आता है और ये मेरी उम्मीदों पर खरी उतरती है कि नहीं। 

😊😊😊

वो फ़ोन कॉल- वंदना बाजपेयी

जब भी हम किसी लेखक या लेखिका की रचनाओं पर ग़ौर करते हैं तो पाते है कि बहुत से लेखक/लेखिकाएँ अपने एक ही सैट पैटर्न या ढर्रे पर चलते हुए..एक ही जैसे तरीके से अपनी रचनाओं का विन्यास एवं विकास करते हैं। उनमें से किसी की रचनाओं में दृश्य अपने पूरे विवरण के साथ अहम भूमिका निभाते हुए नज़र आते हैं। तो किसी अन्य लेखक या लेखिका की रचनाओं में श्रंगार रस हावी होता दिखाई देता है। कुछ एक रचनाकारों की रचनाएँ  बिना इधर उधर फ़ालतू की ताक झाँक किए सीधे सीधे मुद्दे की ही बात करती नज़र आती हैं। खुद मेरी अपनी स्वयं की रचनाओं में दो या तीन से ज़्यादा किरदार नहीं होते जो संवादों के ज़रिए अपनी बात को पूरा करते हैं। 

ऐसे में अगर कभी आपको विविध शैलियों में लिखने वाले किसी रचनाकार की रचनाएँ पढ़ने को मिल जाएँ तो इसे आप सोने पे सुहागा समझिए। 
दोस्तों.. आज मैं अपने आसपास के माहौल से प्रेरित होकर लिखी गई रचनाओं के एक ऐसे कहानी संकलन की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'वो फ़ोन कॉल' के नाम से लिखा है वंदना बाजपेयी ने।

इस संकलन की प्रथम कहानी में अपने अवसाद ग्रसित भाई, विवेक को पहले ही खो चुकी रिया के पास जब एक रात अचानक किसी अनजान नम्बर से मदद की चाह में एक अनचाही कॉल आती है तो वो खुद भी बेचैन हो उठती है कि दूसरी तरफ़ कोई अनजान युवती, आत्महत्या करने से पहले उससे अपना दुःख..अपनी तकलीफ़.. अपनी व्यथा सांझा करना चाहती है। ऐसी ही मानसिक परिस्थितियों को अपने घर में स्वयं देख चुकी रिया क्या ऐसे में उसकी कोई मदद कर पाएगी?

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में तरह-तरह के व्यंजन बनाने में निपुण ज्योति चाहती है कि उसका पति उसके बनाए खाने की तारीफ़ करे मगर उसे ना अपने पति से और ना ही बेटे से कभी किसी किस्म की तारीफ़ मिलती है। कहानी के अंत तक आते आते उसे अपने बनाए खाने की तारीफ़ मिलती तो है मगर..

तो वहीं एक अन्य कहानी उन मध्यमवर्गीय परिवारों की उस पित्तात्मक सोच को व्यक्त करती नज़र आती है जिसके तहत बेहद ज़रूरी होने पर भी घर की स्त्रियों को कभी झिझक..कभी इज़्ज़त तो कभी आत्म सम्मान के नाम पर बाहर काम कर के कमाने के लिए अनुमति नहीं दी जाती है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की प्रेरणा देती अपने अंत तक पहुँचते पहुँचते भावुक कर देती है। तो वहीं एक अन्य कहानी छोटे शहर से दिल्ली में नौकरी करने आयी उस वैशाली की बात करती है जो ऑफिस में अपने बॉस द्वारा खुद को लगातार घूरे जाने से परेशान है। नौकरी छोड़ वापिस अपने शहर लौटने का मन बना चुकी वैशाली क्या इस दिक्कत से निजात पा पाएगी या फ़िर इस सबके के आगे घुटने टेक यहीं की हो कर रह जाएगी? 

इसी संकलन की एक अन्य रचना में लेखिका ने विभिन्न पत्रों के माध्यम से एक माँ के अपने बेटे के साथ जुड़ाव और उसमें आए बदलाव को बेटे के जन्म से ले कर उसके (बेटे के) प्रौढ़ावस्था तक पहुँचने की यात्रा के ज़रिए वर्णित किया है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में माँ समेत सभी बच्चे पिताजी के गुस्से की वजह से सहमे और डरे हुए हैं कि माँ, अपनी बार बार भूलने की आदत की वजह से, इस बार भी अपने हाथ की दोनों अँगूठियों को कहीं रख कर भूल कर चुकी है। जो अब एक हफ़्ते बाद भी लाख ढूँढने के बावजूद भी नहीं मिल रही हैं। क्या माँ समेत सभी बच्चों की उन्हें ढूँढने की सारी मेहनत..सारी कवायद रंग लाएगी अथवा अब उन अँगूठियों को इतने दिनों बाद भूल जाना ही बेहतर होगा? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी  एक ऐसे दंपत्ति की बात करती दिखाई देती देती है जो, समाज में दिखावे के लिए खरीदे गए, बड़े फ्लैट और महँगी गाड़ी इत्यादि की ई.एम.आई भरने की धुन में दिन रात ओवरटाइम कर पैसा तो कमा रहे हैं। मगर इस चक्कर में वे अपने इकलौते बेटे तक को भी उसकी परवरिश के लिए ज़रूरी समय और तवज्जो नहीं दे पाते। नतीजन टी.वी, मोबाइल और लैपटॉप  के ज़रिए अपने अकेलेपन से जूझ रहा उनका बेटा एक दिन आत्महत्या को उकसाती  एक भयावह वीडियो गेम के चंगुल में फँसता चला जाता है। अब देखना ये है कि क्या समय रहते उसके माँ-बाप चेत पाएँगे अथवा अन्य हज़ारों अभिभावकों की तरह वे भी अपने बच्चे की जान से हाथ धो बैठेंगे? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी ऑर्गेनिक फल-सब्ज़ियों से होती आजकल के तथाकथित फ़टाफ़ट वाले डिस्पोजेबल प्यार के ज़रिए इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि कई बार हम सब कुछ पास होते हुए ख़ाली हाथ होते हैं। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ प्रतिशोध की ज्वाला में जलते हुए उस सफ़ल व्यवसायी नीरज की बात करती है जिसे उसके बचपन में दादा ने अपने बेटे की अचानक हुई मौत के बाद ये कहते हुए उसकी माँ के साथ घर से दुत्कार कर निकाल दिया था कि वो उसके बेटे को खा गयी और ये एक नाजायज़ औलाद है। तो वहीं एक अन्य कहानी घर भर के सारे काम करती उस छोटी बहू, राधा की बात करती है जिसकी सौतेली माँ और पिता ने उसे , उसके ब्याह के बाद बिल्कुल भुला ही दिया है। घर में बतौर किराएदार रखे गए कुंवारे जीवन की निस्वार्थ भाव से मदद करने की एवज में उस पर घर की जेठ-जेठानियों द्वारा झूठे लांछन लगाए तो जाते हैं मगर अंततः सच की जीत तो हो कर रहती है। 

इसी संकलन की एक कहानी एक ऐसी नयी लेखिका की व्यथा व्यक्त करती नज़र आती है जो एक तरफ़ अपनी रचनाओं के लगातार अस्वीकृत होने से परेशान है तो दूसरी तरफ़ लोगों की साहित्य के प्रति अरुचि के चलते फुटपाथ पर रद्दी के भाव बिकती साहित्यिक किताबों को देख कर टूटने की हद तक आहत है। 

इस संकलन की एक आध कहानी मुझे थोड़ी फिल्मी लगी। कुछ कहानियाँ जो मुझे ज़्यादा बढ़िया लगी। उनके नाम इस प्रकार हैं।

*वो फ़ोन कॉल
*तारीफ़
*अम्मा की अँगूठी
*ज़िन्दगी की ई.एम.आई
*बददुआ
*वज़न

इस कहानी संकलन की जो कॉपी मुझे पढ़ने को मिली, उसमें बाइंडिंग के स्तर पर कमी दिखाई दी कि पेज एक तरतीब में सिलसिलेवार ढंग से लगने के बजाय अपने मन मुताबिक आगे पीछे लगे हुए दिखाई दिए जैसे कि पेज नम्बर 52 के बाद सीधे पेज नम्बर 65 और 68 के बाद 77 दिखाई दिया। इसके बाद पेज नम्बर 80 के बाद पेज नम्बर 61 लगा हुआ दिखाई दिया। ठीक इसी तरह आगे भी आगे के पेज पीछे और पीछे के पेज आगे लगे हुए दिखाई दिए। जिस पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है। 

वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का इस्तेमाल ना किया जाना थोड़ा खला। प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी काफ़ी जगहों पर 'कि' की जगह पर 'की' लिखा हुआ नज़र आया। इसके अतिरिक्त पेज नंबर 50 पर लिखा दिखाई दिया कि..

एक दिन निशा की एक सहेली उससे मिलने आयी और छोटे से फोन पर फेसबुक करते हुए बोली'

यहाँ निशा की सहेली ने निशा को छोटे से फोन पर फेसबुक करते हुए देख कर बोला है यह वाक्य बोला है जबकि वाक्य पढ़ने से ऐसा लग रहा है जैसे निशा की सहेली ने ही छोटे फोन का इस्तेमाल किया है जबकि ऐसा नहीं है। इसलिए यह वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..

'एक दिन निशा की एक सहेली उससे मिलने आयी और उसे छोटे से फोन पर फेसबुक करते हुए देख बोली'


पेज नंबर 122 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'मजाल है दफ़्तर जाने में किसी को देर ना हो जाए'

यहाँ घर की छोटी बहू के काम की पाबंद होने की बात कही जा रही है लेकिन ये वाक्य इसी बात को काटता दिखाई दिया। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'मजाल है दफ़्तर जाने में किसी को देर हो जाए' 

इसी संकलन की एक कहानी का प्रसंग मुझे तथ्यात्मक रूप से सही नहीं लगा जिसमें पति की अचानक हुई मृत्यु के बाद अपने पाँच वर्षीय बेटे के भविष्य की चिंता में उसे ले कर जब उसकी माँ अपने गुस्सैल ससुर के पास जाती है। तो उनके अंतरजातीय विवाह से नाराज़ उसका ससुर उसे व उसके बेटे यानी कि अपने पोते को ये कह कर दुत्कारते हुए भगा देता है कि "वो उसके बेटे को खा गयी है और ये उसकी नहीं बल्कि किसी और की नाजायज़ औलाद है।" अपनी माँ को रोता गिड़गिड़ाता हुआ देख पोता, अपने दादा से इस अपमान का बदला लेने की कसम खाते हुए गुस्से में वहाँ से अपनी माँ के साथ लौट जाता है और ईंटों के एक भट्ठे पर काम कर के अपना तथा अपनी माँ का पेट भरने के साथ साथ दसवीं तक की पढ़ाई भी करता है। 

यहाँ मेरे ज़ेहन में ये सवाल कौंधा कि क्या मात्र पाँचवीं में पढ़ने वाला बच्चा स्वयं में इतना सक्षम था या हो सकता है कि पढ़ने के साथ- साथ वो कड़ी मेहनत से अपना व अपनी माँ का पेट भी भर सके?  हो सकता है जिजीविषा और हिम्मत के बल पर ऐसा हो पाना संभव हो मगर फ़िर यहाँ सवाल उठ खड़ा होता है कि अगर ऐसा संभव है 
भी तो क्या उसकी माँ स्वयं, खुद हाथ पे हाथ धरे बैठ, अपने बेटे को कड़ी मशक्कत कर पसीना बहाते देखती रही? 

यूँ तो धारा प्रवाह शैली में लिखा गया ये उम्दा कहानी संकलन मुझे लेखिका से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस 167 पृष्ठीय बढ़िया कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 225/- रुपए जो कि क्वॉलिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई।

मास्टरबा- कुमार विक्रमादित्य

किसी भी देश..राज्य..इलाके अथवा समाज के उद्धार के लिए ये बहुत ज़रूरी है कि वहाँ के ज़्यादा से ज़्यादा लोग पढ़े लिखे यानी कि समझदार हों। क्योंकि सिर्फ़ पढ़ा लिखा समझदार व्यक्ति ही अपने दिमाग का सही इस्तेमाल कर अपने अच्छे बुरे का फ़ैसला कर सकता है। लेकिन ये भी सार्वभौमिक सत्य है कि किसी भी इलाके का कोई भी शासक ये कदापि नहीं चाहेगा कि उसके क्रिया कलापों पर नज़र रख उससे सवाल करने वाला..उसकी आलोचना कर उसे सही रास्ते पर पर लाने या लाने का प्रयास करने वाला कोई मौजूद हो। 

ऐसे में हमारे भारत जैसे देश में जहाँ राजनीति की बिसात ही जाति.. धर्म और बाहुबल के आधार पर बनती-बिगड़ती और बिछती-बिखरती हो, भला कौन सी सरकार..नेता या हुक्मरान चाहेगा कि उसके किए फ़ैसलों पर कोई उँगली उठा..उसे ही कठघरे में खड़ा कर सके? ऐसे में सभी राजनैतिक पार्टियों के हुक्मरानों और अफ़सरशाही ने मिल कर ऐसा कुचक्र रचा कि बस जनता की संतुष्टि के लिए मात्र इतना भर दिखता रहे कि कुछ हो रहा है मगर असल में कुछ हो ही नहीं रहा हो। 

दोस्तों..आज मैं हमारे देश में शिक्षा की हो रही इस दुर्गति..इस दुर्दशा से जुड़ी बातों का जिक्र इसलिए कर रहा हूँ कि आज मैं इसी विषय पर आधारित एक उपन्यास 'मास्टरबा' का जिक्र करने जा रहा हूँ जिसे गहन शोध..मेहनत और अध्यन के बाद लिखा है कुमार विक्रमादित्य ने। 

मूलतः इस उपन्यास में कहानी है शिक्षा को एक ध्येय..एक पवित्र कार्य की तरह लेने वाले ईमानदार शिक्षक कुंदन सर की। जिनकी राह में बार-बार रोड़े अटकाने के काम को बखूबी अंजाम दिया है स्कूल के प्रधान कहे जाने वाले प्रधानाध्यापक ने। इस उपन्यास में एक तरफ़ बातें हैं उस राज्य सरकार की जिसने जहाँ एक तरफ़ माँग होने के बावजूद भी शिक्षकों की भर्ती पर ये कहते हुए रोक लगा दी कि उनके पास इस काम के लिए बजट नहीं है। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में बातें हैं उस सरकार की जिसने शिक्षा की ज़रूरत को बहुत ही कम आंकते हुए महज़ रिक्त स्थानों को पूरा करने के बिना किसी योग्यता को जाँचे हर गधे घोड़े को इस आधार पर नौकरी दे दी कि उसके पास, जायज़ या नाजायज़, किसी भी तरीके की डिग्री होनी चाहिए। भले ही वो बिना किसी योग्यता के महज़ पैसे दे कर क्यों ना खरीदी गयी हो।

इसी उपन्यास में एक तरफ़ आनंद जैसे पढ़ने लिखने के शौकीन कई बालक दिखाई देते हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ ऐसे बच्चों की भी कमी नहीं है जिन्हें स्कूल जाना ही किसी आफ़त..किसी मुसीबत  से कम नहीं लगता। इस उपन्यास में एक तरफ़ कुंदन और संतोष जैसे अध्यापक हैं जिनके लिए बच्चों को अच्छी शिक्षा देना किसी ध्येय..किसी मनोरथ से कम नहीं तो वहीं दूसरी तरफ इस उपन्यास में प्रधान और मीनू मैडम जैसे अध्यापक भी दिखाई देते हैं जिनकी बच्चों की पढ़ाई में कोई रुचि नहीं। 

इसी उपन्यास में कहीं नियोजित शिक्षक की व्यथा व्यक्त की जाती दिखाई देती है कि समाज द्वारा सभी नियोजित शिक्षकों, योग्य/अयोग्य को एक ही फीते से नाप उन्हें हेय की दृष्टि से देखा जाता है। इसी किताब में कहीं नकली डिग्री के आधार पर नौकरी मिलने की बात नज़र आती है तो कहीं पैसे दे के डिग्री खरीदने की। 

इसी किताब में कहीं लाखों रुपए की सरकारी तनख्वाह ले कर भी बच्चों को पढ़ाने के लिए कभी क्लास में ना जाने वाला अध्यापक दिखाई देता है। तो कहीं बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए दिन रात प्रयासरत रहता अध्यापक दिखाई देता है। कहीं कोई दबंग अभिभावक अपने बच्चे के अध्यापक को महज़ इसलिए धमकाता दिखाई देता है कि उसने,उसके बच्चे को भरी क्लास में डाँट दिया था। 

इसी उपन्यास में कहीं बच्चों के शैक्षिक भ्रमण की अनुदान राशि आपसी बंदरबाँट के चलते अध्यापकों में ही बँटती दिखाई दी तो कहीं महज़ खानापूर्ति के नाम पर पूरा भ्रमण ही हवाहवाई बन सरकारी फाइलों में गुम होता दिखाई दिया। कहीं विद्यालयों में शिक्षकों की कमी तो कहीं किसी अन्य विद्यालय में महज़ पाँच विद्यार्थी ही महज़ शिक्षा ग्रहण की औपचारिकता निभाते दिखाई देते हैं।

इसी किताब में कहीं किसी सरकार की छत्रछाया में शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय खामख्वाह के खर्च कह करबन्द किए जाते दिखाई दिए तो कहीं प्रतियोगिता के माध्यम से चुने गए शिक्षक भी उचित प्रशिक्षण के अभाव में अपने काम को सही से कर पाने में असफल रहने पर अन्य सरकारी विभागों में खपाए जाते नज़र आए।

कहीं बड़े अफ़सरों के मातहत तबादला करवाने या तबादला ना करवाने की एवज में अन्य शिक्षकों से पैसे ऐंठते दिखाई दिए। तो कहीं नौकरी जाने का डर दिखा शिक्षकों को जबरन चुनाव ड्यूटी करने के लिए मजबूर किया जाता दिखाई दिया। 

इसी उपन्यास में कहीं पिछले घोटालों को छुपाने के लिए घटिया फर्नीचर और बच्चों की उत्तर पुस्तकें आग में जलाई जाती दिखीं तो कहीं बिना आंसर शीट जाँचे ही परीक्षा परिणाम घोषित कर बच्चे पास किए जाने की बात भी उजागर होती दिखाई दी।कहीं सिफ़ारिश और रिश्वत के दम पर अयोग्य व्यक्तियों के ऊँचे पदों पर आसीन होने की बात दिखाई देती है। 

इसी उपन्यास में कहीं नाजायज़ होते हुए भी सरकार की नीति और ग्रामीण अभिभावकों के दबाव के चलते पढ़ाई में कमज़ोर बच्चों को फेल करने के बजाय पास करने की बात दिखाई देती है। 
तो कहीं कोई सरकार महज़ खानापूर्ति के लिए स्कूलों में अध्यापकों की खाली जगहों को भरती दिखाई देती है। 

यह उपन्यास कहीं इस बात की तस्दीक भी करता दिखाई देता है कि चपरासी..क्लर्क..अध्यापक और प्रधानाचार्य से ले कर ऊपर तक के सभी अफ़सर इस हमाम में इस हद तक नंगे हैं कि शरीफ़ आदमी का जायज़ काम भी बिना कमीशन खिलाए या रिश्वत दिए हो पाना असंभव है। 

तो कहीं महज़ पाँच रुपए के खर्च पर बच्चों के मध्याह्न भोजन के तैयार होने की बात कही जाती दिखाई देती है। कहीं स्कूल में बच्चों से प्रैक्टिकल एग्ज़ाम की एवज में ऐंठे गए पैसे की बंदरबाँट की प्लॉनिंग चलती दिखाई देती है। तो कहीं गढ़े मुर्दे खोदने की तर्ज़ पर हर पास हुए बिल में विधायक से ले कर ऊपर..अफ़सर तक अपना हिस्सा खोजते दिखाई देते हैं। 


इस पूरे उपन्यास में कुछ जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के साथ साथ जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। साथ ही ज़रूरत होने के बावजूद भी बहुत सी जगहों से अल्पविराम (,) नदारद दिखे। इसके साथ ही संवादों की भरमार होने के बावजूद मुझे उनके इन्वर्टेड कौमा ("___°) में ना होने की कमी काफ़ी खली। प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ कमियाँ दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर 

पेज  नंबर 29 में दिखा दिखाई दिया कि..

'आज क्या तो पोशाक के पैसे, आज क्या साइकिल के पैसे, आज नैपकिन, आज छात्रवृत्ति, आज प्रीमैट्रिक, तो आज पोस्ट मैट्रिक, आज पोस्ट इंटरमीडिएट तो आज प्री इंटरमीडिएट, ऐसे कितने सारे स्कीम हैं जो रह-रह कर आते रहते हैं' 

इस वाक्य में बार बार 'आज' शब्द का प्रयोग वाक्य विन्यास को कमज़ोर कर रहा है। यहाँ 'आज' शब्द के बजाय 'कभी' शब्द का इस्तेमाल किया जाना ज़्यादा उचित रहेगा। 

पेज नम्बर 37 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'तब तक विद्यालय का मुख्य द्वार आ चुका था, बस वाले ने बस रोक दी, आनंद उसे पैसे दिए और अपने विद्यालय की तरफ बढ़ गया।'

कायदे से तो बस का टिकट, बस में चढ़ते वक्त ही लिया जाना चाहिए लेकिन यहाँ, इस उपन्यास में लिखा जा रहा है कि बस से उतरते वक्त आनंद ने बस वाले को पैसे दिए। 

पेज नंबर 178 की प्रथम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि...

'खैर हमारे शिक्षकों को भी कुछ दिनों के बाद मज़ा आने लगा, जो कल तक अलग-थलग थे वह भी हमारा साथ देने लगे। अब उपस्थिति पचहत्तर प्रतिशत ही नहीं थी, सौ प्रतिशत का आंकड़ा भी कम पड़ने लगा था।'

यहाँ ये ध्यान देने वाली बात है कि सौ प्रतिशत मतलब संपूर्ण यानी कि चाहे गिनती सैंकड़ों..हज़ारों अथवा लाखों..करोड़ों या फ़िर अरबों..खरबों तक जा पहुँचे, सौ प्रतिशत का मतलब सब कुछ इसमें आ गया। ऐसे में ये कहना कि..'सौ प्रतिशत का आंकड़ा भी कम पड़ने लगा था', एक तरह से बेमानी ही है। इसलिए इस वाक्य की यहाँ ज़रूरत ही नहीं थी। 


पाठकीय नज़रिए से अगर कहूँ तो पूरा उपन्यास मुझे  कई जगहों पर उपन्यास के बजाय किसी वृतचित्र यानी कि डॉक्यूमेंट्री जैसा लगा। 

मेरे हिसाब से पूरी कहानी एक ही फॉरमैट में कही जानी चाहिए या तो लेखक के हवाले से या फ़िर पात्रों के हवाले से लेकिन इस उपन्यास में लेखक कहीं स्वयं ही कहानी के सूत्रधार पर कहानी को आगे बढ़ाते दिखाई दिए तो कहीं स्वयं उन्होंने ही कहानी के मुख्य पात्र, कुंदन सर का लबादा ओढ़ लिया। जो कि थोड़ा अटपटा सा लगा।  पूरी कहानी को अगर स्वयं कुंदन सर ही अपने नज़रिए से पेश करते तो ज़्यादा बेहतर होता।

साथ ही किसी भी कहानी या उपन्यास में विश्वसनीयता लाने के लिए ये बेहद ज़रूरी होता है कि लेखक अपने किरदारों के हिसाब से परकाया प्रवेश कर उन्हीं की तरह बोले-चाले.. उन्हीं की तरह सोचे-समझे और उनकी समझ एवं स्वभाव के हिसाब से ही अपने बर्ताव को रखे। अगर इन कसौटियों पर कस कर देखें तो मुझे ये उपन्यास इस कार्य में पिछड़ता हुआ दिखाई दिया कि छोटे बच्चे से ले कर माँ बाप..सेना के अफ़सर.. अध्यापक..प्रधानाचार्य तक सभी के सभी एक जैसी भाषा में बोलते..बतियाते और सोचते हुए दिखाई दिए। बहुत सी जगह पर ऐसा भी प्रतीत हुआ कि उपन्यास के सभी पात्र अपने स्वभाविक चरित्र या भाषा के बजाय लेखक की ही ज़बान में उसके ही एजेंडे को पेश कर रहे हों। 


उपन्यास की रोचकता बढ़ाने के लिए ये ज़रूरी है कि पूरे उपन्यास के बीच में कहीं कहीं रिलैक्सेशन के लिए राहत के छींटों के तौर पर कुछ दृश्यों के होने के ज़रूरत के हिसाब से पात्रों की भाव भंगिमाओं और उनकी बॉडी लैंग्वेज का भी उसमें विवरण ज़रूर हो लेकिन इस उपन्यास को पढ़ते वक्त ऐसा लगा जैसे पूरा उपन्यास एक टेंशन..एक तनाव के तहत बिना किस दृश्य बदलाव के एक ही सैट पर एक नाटक की तरह लिखा या खेला जाता दिखाई दिया। उपन्यास की शुरुआत में दिखाई देने वाला छोटा सा बालक, आनंद कब बड़ा हो कर उपन्यास के अंत तक पहुँचते-पहुँचते जिले का कलैक्टर बन गया, पता ही नहीं चला सिवाय उपन्यास के बीच में आयी एक पंक्ति के कि.. आनंद अब दसवीं में हो गया है। 


साथ ही विद्यालय की कक्षा को 'कक्षा' कहने के बजाय बार-बार 'वर्ग' कहना तथा इसी तरह के कई अन्य शब्दों का शुद्ध हिंदी या दफ़्तरी भाषा के नाम पर प्रयोग करना मुझे मेरी समझ से परे का लगा। ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक अपनी कृति को पहुँचाने के लिए ये आवश्यक है कि किसी भी कृति या किताब की भाषा आम आदमी या ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को समझ में आने के हिसाब से ही लिखी गयी हो। 

भड़ास या आत्मालाप शैली में लिखे गए इस उपन्यास में सीधी..सरल..सपाट बातों के अतिरिक्त कहानी के दृश्य भी आपस में गडमड हो..बिखरते दिखाई दिए लेकिन इसे मैं लेखक की कुशलता कहूँगा कि शिथिल या बोझिल तरीके से धीमे धीमे चलता हुआ यह उपन्यास अपने आधे रास्ते के बाद एकाएक रफ़्तार पकड़ रोचक होता चला गया।


अगर पुनः संपादन के प्रयास किए जाएँ तो आसानी से महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर लिखे गए इस बेहद ज़रूरी उपन्यास को 191 पृष्ठों के बजाय 150 पृष्ठों में समेट कर रोचक बनाया जा सकता है। 

यूँ तो शिक्षाजगत में हो रही धांधलियों को उजागर करता यह उपन्यास मुझे लेखक की तरफ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 191 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है अंजुमन प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 


रूपसिंह चन्देल की लोकप्रिय कहानियाँ- रूपसिंह चन्देल

मैं जब भी किसी कहानी संकलन या उपन्यास को पढ़ने का विचार बनाता हूँ तो अमूमन सबसे पहले मेरे सामने ये दुविधा उत्पन्न हो जाती है कि मैं किस किताब से अपने नए साहित्यिक सफ़र की शुरुआत करूँ? एक तरफ़ वे किताबें होती हैं जो मुझे अन्य नए/पुराने लेखकों अथवा प्रकाशकों ने बड़े स्नेह और उम्मीद से भेजी होती हैं कि मैं उन पर अपनी पाठकीय समझ के हिसाब से, किताब की खूबियों एवं ख़ामियों को इंगित करते हुए, कोई सारगर्भित प्रतिक्रिया अथवा सुझाव दे सकूँ। तो वहीं दूसरी तरफ़ मुझे अपनी ओर वे किताबें भी खींच रही होती हैं जिन्हें मैंने अपनी समझ के हिसाब से इस आस में खरीदा होता है कि उनसे मुझे कुछ ना कुछ सीखने को अवश्य मिलेगा। 

दोस्तों आज मैं प्रसिद्ध लेखक रूपसिंह चंदेल जी की चुनिंदा कहानियों के एक ऐसे संकलन की बात करने जा रहा हूँ। जिसका शीर्षक 'रूपसिंह चंदेल की लोकप्रिय कहानियाँ' ही उन कहानियों के जगप्रसिद्ध होने की बात करता है। बाल साहित्य..कहानियों और उपन्यासों से होती हुई इनकी साहित्यिक यात्रा अब तक 68 किताबों के आँकड़े अथवा पड़ाव को पार कर चुकी है और ये सफ़र अब भी जारी है। 

इसी संकलन की एक कहानी जहाँ उस ग़रीब..बेबस सरजुआ की बात करती है जिसे भारी ओलावृष्टि के बीच साहूकार रमेसर सिंह से उसके सभी अत्याचारों का बदला लेने का मौका उस वक्त मिल जाता है जब तूफ़ानी बारिश के बीच ठंड से कांपता रमेसर और वो एक ही पेड़ के नीचे खड़े होते हैं। मगर क्या सरजुआ अपने दीन ईमान को ताक पर रख कर उससे अपना..अपने पुरखों बदला ले पाएगा? तो वहीं एक कहानी अपने मूल में एक साथ कई समस्याओं को समेटे नज़र आती है। कहीं इसमें पूरा जीवन ईमानदार रह सादगी से अपना जीवन बिता रहे रघुनाथ बाबू की व्यथा नज़र आती है जो पैसे की तंगी के चलते अपनी पत्नी का ठीक से इलाज तक नहीं करवा सके। तो कहीं इसमे बच्चों की अवहेलना झेल रहे बुज़ुर्ग के किराएदार ही उसके मकान पर एक तरह से कब्ज़ा करने की फ़िराक में दिखाई देते हैं। कहीं पोते के तिलक में जाने के लिए तैयार खड़े रघुनाथ बाबू को उस वक्त निराश हो..घर बैठना पड़ता है कि उनके अपने बेटे को ही उन्हें बुलाने की सुध नहीं है। तो कहीं घर की शादी में घर का सबसे बड़ा बुज़ुर्ग भी नज़रअंदाज़ हो भीड़ में गुम होता दिखाई देता है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी एक तरफ़ अपने पिता के साथ बँधुआ मज़दूरी कर रहे उस मक्कू की बेबसी व्यक्त करती दिखाई देती है जिसका पिता पैसे ना होने की वजह से बिना इलाज मर जाता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ उसकी होने वाली बीवी, उस सावित्तरी की व्यथा कहती नज़र आती है जिसका मक्कू के मालिक का बेटा अपने दोस्तों एवं गाँव के पुजारी के साथ मिल कर बलात्कार कर देता है।

एक अन्य कहानी एक तरफ़ देश के महानगरों में ठगी के नए आयामों के साथ पुलसिया शह पर गुण्डों की बढ़ती दीदादिलेरे  की बात करती है तो दूसरी तरफ़ उन लोगों की भी बात करती नज़र आती है जो विपरीत परिस्थितियों में भी अपने सहज..सरल मानवीय स्वभाव को बदल नहीं पाते।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ भारत-पाक विभाजन के वक्त बड़े शौक से पाकिस्तान जा कर बसे व्यक्तियों की व्यथा व्यक्त कहती नज़र आती है कि उन्हें अब इतने वर्षों बाद भी अपना नहीं बल्कि पराया करार दे वहाँ मुहाजिर कहा जाता है। एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ विश्वविद्यालय में नियुक्ति को ले कर चल रहे सिफ़ारिश तंत्र और उसमें राजनैतिक हस्तक्षेप के बोलबाले की बात करने के साथ साथ बड़े लोगों द्वारा बिना मेहनत के भूत लेखन(घोस्ट राइटिंग) के ज़रिए झटपट नाम..शोहरत कमाने की इच्छा को परिलक्षित करती दिखाई देती है। इसी कहानी में कहीं स्वच्छ छवि वाले लोगों की उज्ज्वल छवि, धूमिल हो ध्वस्त होती दिखाई देती है तो कहीं कोई अपने उज्ज्वल अथवा सुरक्षित भविष्य की चाह में गलत बात के आगे भी घुटने टेक उसका समर्थन करता दिखाई देता है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी एक बूढ़े की व्यथा के रूप में सामने आती है जिसके होनहार.. वैज्ञानिक बेटे को आंदोलनकारियों का साथी होने के शक में सरकारी शह प्राप्त पुलिस द्वारा सरेआम बर्बरता से मार दिया गया है। तो वहीं एक अन्य कहानी पढ़ने लिखने की उम्र में, बीच किनारे सैलानियों के बीच घूम घूम कर छोटी छोटी वस्तुएँ बेच अपना पेट भरते गरीब बच्चों के माध्यम से पूरी सामजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था पर ग़हरा तंज कसती नज़र आती है। 

धाराप्रवाह लेखनशैली से सुसज्जी इस संकलन की कुछ कहानियाँ मुझे बेहतरीन लगीं। जिनके नाम इस प्रकार हैं..

*आदमख़ोर
*भीड़ में
*पापी
*हादसा
*हासिम का
*क्रांतिकारी
*ख़ाकी वर्दी
*मुन्नी बाई 

दो चार जगह वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियों के अतिरिक्त कुछ एक शब्दों में जायज़ होते हुए भी नुक्ते का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। साथ ही कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की कमी के चलते कुछ शब्द/वाक्य अधूरे या ग़लत छपे हुए भी दिखाई दिए। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 46 पर एक सिख किरदार, सतविंदर सिंह द्वारा बोले गए पंजाबी संवाद मुझे सही नहीं लगे। वहाँ लिखा दिखाई दिया कि..

"मैं ते पहले वी कया सी। होन नी की```।"

यहाँ 'होन नी की' की जगह 'होर नय्यी ते की' आएगा। 

इससे अगले पैराग्राफ़ में लिखा दिखाई दिया कि..

"येदे मम्मी डैडी ते छोटे भा अशोकनगर न रहंदे।"

यह वाक्य भी सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'एदे मम्मी डैडी ते छोटे भ्रा/प्रा अशोकनगर च रहंदे ने।"

इसके बाद पेज नंबर 65 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

*'मक्कू पैर पटकता लौट आया था अपनी झोपड़ी में। वह झोंपड़ी उसके बापू ने कुछ महीने पहले ही गाँव पंचायत से मिली ज़मीन पर बनाई थी, जब वह लौट कर आया, बापू काम पर जा चुका था। वह बेचैन सा झोपड़ी में पड़ा रहा'

आगे बढ़ने पर पेज नंबर 69 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"कहना का बेटा, सावित्तरी के लिए ही रो रही थी बेचारी। वो तेरे साथ उसका बियाह-- मना मत करना, मक्कू। मैंने ओको हाँ कह दी है। बिन बाप की बेटी।" छत की कड़ियां गिनने लगा था बापू।

अब सवाल उठता है कि मक्कू के बापू ने तो पंचायत से मिली ज़मीन पर अपनी झोंपड़ी बनाई हुई थी जबकि बाद में कहा जा रहा है कि..मक्कू का बापू छत की कड़ियां गिन रहा था। यहाँ ग़ौरतलब है कि झोंपड़ी, फूस यानी कि सूखी घास/पुआल इत्यादि से बनती है जबकि कड़ी, कम से कम 4 इंच बाय 3 (4x3) या 4 बाय 4 (4x4) इंच अथवा 5 बाय 4 (5x4) इंच का  कम से कम 9-12 फुट  लंबा लकड़ी का सिंगल पीस होता है। जिन्हें 2 या फ़िर 2.5 फुट की दूरी पर कमरे के छत पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक लगाया जाता है और उनके ऊपर पत्थर के टुकड़े या फ़िर लकड़ी की फट्टीयाँ लगायी जाती हैं। इस तरह के मकान को झोंपड़ी नहीं बल्कि सैमी पक्का कहा जाना चाहिए। 

166 पृष्ठीय इस दिलचस्प कहानी संकलन के बढ़िया छपे पेपरबैक संस्करण को छापा है प्रभात पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए जो कि अगर थोड़ा कम रहता तो ज़्यादा बेहतर रहता। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

बेहया- विनीता अस्थाना

आमतौर पर जब भी कोई लेखक किसी कहानी या उपन्यास को लिखने की बात अपने ज़ेहन में लाता है तो उसके मन में कहानी की शुरुआत से ले कर उसके अंत तक का एक ऐसा रफ़ खाका खिंचा रहता है। जिसमें उसके अपने निजी अनुभवों को इस्तेमाल करने की पर्याप्त गुंजाइश होती है या फ़िर किताब की तैयारी से पहले उसने, उस लिखे जाने वाले विषय को ले कर ज़रूरी शोध एवं मंथन किया हुआ होता है। बाक़ी फिलर का काम तो ख़ैर वो अपनी कल्पना शक्ति के सहारे भी पूरा कर लेता है। उदाहरण के तौर पर 300 से ज़्यादा थ्रिलर उपन्यास लिख चुके सुरेन्द्र मोहन पाठक जी ने अपने एक लेखकीय में लिखा था कि उनके 'विमल' एवं 'जीत सिंह' सीरीज़ के अधिकांश उपन्यासों की पृष्ठभूमि मुंबई रही है जबकि इन सीरीज़ के अधिकांश उपन्यासों के लिखे जाने तक उन्होंने कभी मुंबई की धरती पर कदम नहीं रखा था। 

इस सारी जानकारी के लिए उन्होंने मुंबई और उसके आसपास के इलाकों के नक्शे का गहन अध्ययन करने के साथ साथ वहाँ की सड़कों के एवं व्यक्तियों के आकर्षक मराठा नामों की बाकायदा लिस्ट बना कर रखी हुई थी। ख़ैर..कहने का मंतव्य बस यही कि आज मैं निजी तजुर्बे..शोध एवं कल्पना से लैस जिस उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ उसे 'बेहया' के नाम से लिखा है विनीता अस्थाना जी ने। 

कॉर्पोरेट जगत को पृष्ठभूमि बना कर लिखे गए इस उपन्यास में मूलतः कहानी है बहुराष्ट्रीय कंपनी 'बेंचमार्क कंसल्टेंट्स प्राइवेट लिमिटेड' में बतौर कंट्री हैड बेहद सफ़ल तरीके से काम करने वाली, उस दो बच्चों की माँ, सिया की जिसका बेहद शक्की प्रवृति का अरबपति पति, यशवर्धन राठौर एक अय्याश तबियत का आदमी है और जिसे अपनी बीवी पर झूठे.. मिथ्या लांछन लगाने..उसे मानसिक एवं शारिरिक तौर पर प्रताड़ित करने में बेहद मज़ा आता है। इसी उपन्यास में कहानी है सिया के अधीनस्थ काम कर रही उस तृष्णा की जिसके सिया के पति के भी अतिरिक्त अनेक पुरुषों से दैहिक संबंध रह चुके हैं और वह दफ़्तर में रह कर सिया के पति, यशवर्धन के लिए उसकी पत्नी की जासूसी करती है। जिसकी एवज में उसे यशवर्धन से शारीरिक सुख के अतिरिक्त इस जासूसी के पैसे भी मिलते हैं। 

साथ ही इस उपन्यास में कहानी है प्यार में विश्वास खो चुके उस अभिज्ञान की जिसे ऑस्ट्रेलिया से ख़ास तौर पर बेंचमार्क कम्पनी की छवि एवं गुडविल में बढ़ोतरी के इरादे कम्पनी के मालिकों द्वारा भारत भेजा गया है। इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ तृष्णा को अभिज्ञान के रूप में एक नया साथी..एक नया शिकार दिखाई देता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ अभिज्ञान शुरू से ही सिया के प्रति आकर्षित दिखाई देता है जबकि पति के दिए घावों को गहरे मेकअप की परतों में छिपाने वाली सिया के लिए वह महज़ एक कुलीग..एक अच्छे दोस्त से ज़्यादा कुछ नहीं है। अब देखने वाली बात ये है कि किताब के अंत तक पहुँचते पहुँचते..

• क्या तृष्णा कभी अपने शातिर मंसूबों को पूरा कर पाएगी?
• क्या अपने पति के अत्याचारों को चुपचाप सहने वाली सिया को उसके दुराचारी पति से कभी छुटकारा  मिल पाएगा?
• क्या अभिज्ञान और सिया कभी आपस में मिल पाएँगे या फ़िर महज़ अधूरी इच्छा का सबब बन कर रह जाएँगे। 

इस उपन्यास में कहीं उच्च रहन सहन और दिखावे से लैस कॉरपोरेट वर्ल्ड और उसकी कार्यप्रणाली से जुड़ी बातें दिखाई देती हैं। तो कहीं शारीरिक संबंधों से दूर एक ऐसे प्लेटोनिक लव की अवधारणा पर बात होती नज़र आती है जिसमें शारीरिक आकर्षण एवं दैहिक संबंधों की ज़रूरत एवं महत्त्व को दरकिनार  किया जा रहा है। इसी उपन्यास में कहीं अपना खून ना होने की बात पर झूठे ताने दे खामख्वाह में अपना तथा बच्चों का डीएनए टैस्ट तक होता दिखाई देता है। तो कहीं इस उपन्यास में कहीं जीवन दर्शन से जुड़ी बातें गूढ़ पढ़ने को मिलती हैं। कहीं ये उपन्यास हमें अन्याय से लड़ने..उसके विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित करता दिखाई देता है। 

धाराप्रवाह लेखन से जुड़े इस उपन्यास की कहानी के थोड़ी फिल्मी लगने के साथ साथ इसमें ट्विस्ट्स एण्ड टर्न्स की भी कमी दिखाई दी। अगर प्लेटोनिक लव की बात को छोड़ दें तो कहानी भी थोड़ी प्रिडिक्टेबल सी लगी।  कहानी में जीवन दर्शन से जुड़ी बातों में एकरसता होने की वजह से बतौर पाठक मन किया कि ऐसे बाद के हिस्से को पढ़ते वक्त स्किप करने का भी मन किया। प्रभावी एवं सशक्त लेखन के लिए ज़रूरी है कि इस तरह की कमियों से बचा जाना चाहिए।

इस उपन्यास में एक दो जगह प्रूफरीडिंग की कमियाँ दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर 

पेज नंबर 40 पर लिखा दिखाई दिया कि..

" तुम गे हो नाम्या?"

"शटअप! नो!"

"सही में? मेरा मतलब है... जिस तरह से तुम सिया की हमेशा तारीफ किया करती हो, मुझे शक होता है।" उसने बात को बदल दिया और अपने कैबिनेट की तरफ चला गया।

यहाँ अभिज्ञान ने नाम्या को सिया की तारीफ़ करते हुए देख कर उससे पूछा कि.. " तुम गे हो नाम्या?"

यहाँ ये बात ग़ौरतलब है 'गे' शब्द को पुरुषों के लिए इस्तेमाल किया जाता है जबकि महिलाओं के लिए 'लेस्बियन' शब्द का प्रयोग किया जाता है। अतः सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

" तुम लेस्बियन हो नाम्या?"

इसके बाद पेज नम्बर 99 पर सिया को याद कर अभिज्ञान ने गाना लिखा जो कि अँग्रेज़ी में। हिंदी उपन्यास में होने के नाते अगर अँग्रेज़ी की जगह अगर वह गीत हिंदी में होता तो ज़्यादा प्रभावित करता। 

बतौर पाठक एवं खुद भी एक लेखक होने के नाते मेरा मानना है किसी भी कहानी या उपन्यास का प्रभावी शीर्षक एक तरह से उस कहानी या उपन्यास का आईना होता है। इस कसौटी पर अगर कस कर देखें तो यह शीर्षक मुझे प्रभावी लेकिन कहानी की नायिका, सिया के बजाय एक छोटे गौण करैक्टर 'तृष्णा' पर ज़्यादा फिट होता दिखाई दिया। ऐसे में उसके उत्थान से ले कर पतन तक की कहानी को ज़्यादा बड़ा..फोकस्ड और ग्लोरीफाई किया जाता तो ज़्यादा बेहतर होता।

अंत में चलते चलते एक ज़रूरी बात कि..हाल ही में प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री सुभाष चन्दर जी ने भी ज़्यादा पढ़ने की बात पर ज़ोर देते हुए कहा कि..

"लिख तो आजकल हर वह व्यक्ति लेता है जिसके शब्दकोश में पर्याप्त शब्द हों एवं उसे भाषा का सही ज्ञान हो। मगर ज़्यादा पढ़ना हमें यह सिखाता है कि हमें क्या नहीं लिखना है।" 

पाठकों को बाँधने की क्षमता रखने वाले इस 155 पृष्ठीय रोचक उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

द= देह, दरद और दिल! - विभा रानी

कई बार किसी किताब के कठिन या अलग़ से शीर्षक को देख कर अथवा लेखक की बड़े नाम वाली नामीगिरामी शख़्सियत को देख कर स्वतः ही मन में एक धारणा बनने लगती है कि..इस किताब को पढ़ना वाकयी में एक कठिन काम होगा अथवा किताब की बातें बड़ी गूढ़..ज्ञान से भरी एवं रहस्यमयी टाईप की होंगी। अतः इसे आराम से पहली फ़ुरसत में तसल्लीबख्श ढंग से पढ़ा जाना चाहिए। मगर तब घोर आश्चर्य के साथ थोड़ा अफ़सोस सा भी होने लगता है जब हम उस किताब को पढ़ने बैठते हैं कि.. 'उफ्फ़ इतने अच्छे कंटेंट से अब तक हम खामख्वाह ही वंचित रहे।'

दोस्तों आज मैं प्रसिद्ध रंगकर्मी एवं लेखिका विभा रानी जी के कहानी संकलन 'द= देह, दरद और दिल!' की। बहुमुखी प्रतिभा की धनी विभा रानी जी हिन्दी एवं मैथिली की लेखिका, ब्लॉगर एवं अनुवादक होने के साथ साथ एक प्रसिद्ध रंगकर्मी एवं फ़िल्म कलाकार भी हैं। फोक प्रैज़ेंटर होने के साथ साथ वे एक कॉर्पोरेट ट्रेनर, मोटिवेशनल स्पीकर एवं 'अवितोको रूम थिएटर' की प्रणेता भी हैं। विभिन्न पुरस्कारों की स्वामिनी, विभा रानी जी कला क्षेत्र से जुड़ी विभिन्न गतिविधियों में ख़ासी सक्रिय हैं एवं इनकी अब तक 22 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। 


इसी संकलन की रामायण काल को आधार बना कर लिखी गयी एक काल्पनिक कहानी के माध्यम से अपनी बेटे को खो चुकी उस हिरणी की व्यथा व्यक्त की गई है जिसके अबोध बच्चे का राम जन्म के जश्न के दौरान होने वाली शाही दावत में परोसे जाने के लिए शिकार कर लिया गया। 
 
इसी संकलन की एक अन्य कहानी में लोकल ट्रेन के सफ़र के दौरान नबीला को उसके धर्म की वजह से छीटाकशी और ताने झेलने पड़ते हैं। ऐसे में फ़ौरी सहानुभूति के तहत उसकी तरफ़ से उसके हक़ में आवाज़ उठाने वाली आवाज़ें भी क्या सही मायनों में उसकी तरफ़दार थीं? तो वहीं एक अन्य कहानी सरकारी रेडियो स्टेशन में नवनियुक्त हुई रोहिणी के माध्यम से हमें आगाह करती हुई नज़र आती है कि रेडियो स्टेशन जैसे बड़े..प्रतिष्ठित संस्थान भी यौन शोषण के मामलों में अपवाद नहीं हैं। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ अस्पतालों में डॉक्टरों एवं स्टॉफ की लापरवाही को इंगित करते हुए, मरीज़ के डॉक्टर के नाम पत्र के माध्यम से, मौत की कगार पर खड़ी उस युवती की व्यथा को व्यक्त करती है जो प्रेग्नेंसी के दौरान संक्रमित खून के चढ़ाए जाने से स्वयं भी एच. आई.वी पॉज़िटिव हो चुकी है। तो वहीं एक अन्य कहानी एक तरफ़ घरों में काम कर अपना गुज़ारा करने वाली उस जवान सुरजी की बात करती है जिसका, कमाने के लिए शहर गया, पति वापिस आने का नाम नहीं ले रहा। तो वहीं दूसरी तरफ़ यही कहानी छोटी सोच के कुंठित प्रवृति वाले उस सुरजबाबू की बात करती है, जो अपनी पत्नी को इसलिए पसन्द नहीं करता कि वो सुन्दर एवं पढ़ी लिखी है। सुरजबाबू और सुरजी के बीच अवैध संबंध संबंध पनप तो उठते हैं मगर एक दिन सुरजी के इनकार करने पर उसे भी सुरजबाबू के अहं और कुंठा का खामियाज़ा पिटाई..प्रताड़ना एवं ज़िल्लत के रूप में झेलना पड़ता है। थोड़ी सहानुभूति की चाह में वह मालकिन के पास जाती तो है मगर मालकिन भी तो अपने पति के रंग में रंग कुछ कुछ उसके जैसी ही हो चुकी है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ उन अभागी स्त्रियों की व्यथा कहती है जिनके पतियों ने उनसे अलग हो कर अपनी नयी दुनिया बसा ली और अब, पहली पत्नी से प्राप्त हुए अपने बच्चों को भूल नयी पत्नी के पेट में ही मर चुके बच्चे का मातम ये कह कर मना रहे हैं कि.. वो उनका पहला बच्चा था। तो वही दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी समाज के अलग़ अलग़ तबके से आने वाली जयलक्ष्मी और नागम्मा के माध्यम से प्रदेश की राजनीति के घरों की देहरी तक खिसक आने की बात कहती है कि किस तरह घर का मुखिया चाहता है कि उसकी मर्जी से..उसकी पसंद के व्यक्ति को ही वोट दिया जाए। मगर कहानी के अंत में नागम्मा और जयलक्ष्मी का अपनी अपनी समझ से ठठा कर हँसना तो कुछ और ही कहानी कहता दिखाई देता है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी चित्रकार प्रवृति के उन राधारमण बाबू की बात करती है जो पारिवारिक दबाव के चलते अपनी मर्ज़ी की लड़की से ब्याह नहीं कर पाए। अवसाद..बिछोह एवं पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते छूट चुका उनका कलाप्रेमी मन उस वक्त फ़िर सिर उठाने लगता है जब उनके बच्चे, बतौर पेंटर, अपना बड़ा नाम बना चुके होते हैं। क्या अब इस रिटायर बाद की अवस्था में उनकी तमन्ना..उनका शौक पूरा हो पाएगा अथवा वे अपनी पत्नी..अपने बच्चों की नज़र में मात्र उपहास का पात्र बन कर रह जाएँगे? 

इसी किताब की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ पढ़ी लिखी उस नसीबा की बात करती है जिसने अपनी मर्ज़ी के पढ़े लिखे..तरक्की पसन्द रियाज़ खान से निकाह पढ़वाने के लिए अपने घरवालों को मना..अपने नाम, नसीबा अर्थात नसीब वाली को सार्थक तो कर दिया मगर क्या वाकयी वह उस वक्त नसीबों वाली रह पाती है जब उसका शौहर महज़ इस बात पर उसे घर से बाहर का रास्ता दिखाने को उद्धत हो उठता है जब वह ग़रीब बच्चों को पढ़ाने के बारे में बात करती है? अब देखना यह है कि अपनी अस्मिता..अपने मान सम्मान को बचाने के लिए नसीबा क्या करती है? तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में खूबसूरत जवां मर्द मेजर रंगाचारी को, उसके पिता के निजी स्वार्थ के लिए, सामान्य  शक्ल सूरत की मीनाक्षी से नाजायज़ दबाव डाल ब्याह दिया जाता है। बिन माँ का बेटा रंगाचारी ना पिता की इच्छा का विरोध कर पाता है और ना ही मीनाक्षी को दिल से अपना पाता है। पति- पत्नी के इस बर्फ़ समान ठंडे हो जम चुके रिश्ते में गर्माहट लाने का संयुक्त प्रयास, उनकी बेटी, प्रीति एवं मेजर के अधीन काम कर रहा शंकरन, करते तो हैं मगर देखना यह है कि उन्हें इस काम में सफलता प्राप्त हो पाती है या नहीं। 

इसी संकलन की अंतिम कहानी कुदरती कमी से अधूरे जन्में ट्रांसजेंडर बच्चों की समाज में स्वीकार्यता को बनाने एवं बढ़ाने के प्रयास के साथ साथ इस समस्या का हल भी सुझाती दिखाई देती है। 

धाराप्रवाह लेखन से सुसज्जित इस संकलन की कहानियाँ कहीं सोचने पर मजबूर करती दिखाई देती हैं तो कहीं किसी अच्छे की आस जगाती दिखाई देती हैं। इस प्रभावी कहानी संकलन में मुझे दो चार जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ स्थानों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। एक दो जगह प्रूफरीडिंग की कमियाँ भी दिखाई दी जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 88 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'हाँ, मैं थर्ड रेड टॉर्चर में यकीन रखता हूँ'

यहाँ 'हाँ, मैं थर्ड रेड टॉर्चर में यकीन रखता हूँ' की जगह 'हाँ, मैं थर्ड डिग्री टॉर्चर में यकीन रखता हूँ' आएगा। 

इसी तरह पेज नंबर 89 के दूसरे पैराग्राफ़ में  लिखा दिखाई दिया कि..

'दिल्ली के सेंट स्टीफन कॉलेज से एमए, अँग्रेज़ी की स्टूडेंट नसीबा, मिसेज़ आईएएस नसीबा'

यहाँ नसीबा को मिसेज़ आईएएस बताया जा रहा है जबकि लेखिका इसके पहले पेज पर नसीबा के पति को आईपीएस अफ़सर बता चुकी हैं।


इसके साथ ही इसी संकलन की रेडियो स्टेशन वाली कहानी मुझे अपनी तमाम खूबियों के बावजूद कुछ अधूरी या थोड़ी कम असरदार लगी। कहानी के अंत में रोहिणी को कल्पना करते दिखाया गया है कि काश.. वो सरेआम रेडियो पर एनाउंसर की भूमिका निभाते वक्त अपने सभी बड़े लंपट अफ़सरान की पोल खोल दे। 

यहाँ "काश'..के बजाय अगर सच में दृढ़ निश्चय के साथ उसके कदम इस ओर बढ़ते हुए दिखाए जाते तो मेरे ख्याल से कहानी का इम्पैक्ट ज़्यादा नहीं तो कम से कम दुगना तो हो ही जाता। 

यूँ तो प्रभावी लेखन से जुड़ा ये कहानी संकलन मुझे प्रकाशक की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा की इस 120 पृष्ठीय उम्दा कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू- रश्मि रविजा


70- 80 के दशक के तक आते आते बॉलीवुडीय फिल्मों में कुछ तयशुदा फ़ॉर्मूले इस हद तक गहरे में अपनी पैठ बना चुके थे कि उनके बिना किसी भी फ़िल्म की कल्पना करना कई बार बेमानी सा लगने लगता था। उन फॉर्मूलों के तहत बनने वाली फिल्मों में कहीं खोया- पाया या फ़िर पुनर्जन्म वाला फंडा हावी होता दिखाई देता था तो कोई अन्य फ़िल्म प्रेम त्रिकोण को आधार बना फ़लीभूत होती दिखाई देती थी।

 कहीं किसी फिल्म में नायक तो किसी अन्य फ़िल्म में नायिका किसी ना किसी वजह से अपने प्रेम का बलिदान कर सारी लाइम लाइट अपनी तरफ़ करती दिखाई देती थी। कहीं किसी फिल्म में फिल्म में भावनाएँ अपने चरम पर मौजूद दिखाई देतीं थी तो कहीं कोई अन्य फ़िल्म अपनी हल्की फुल्की कॉमेडी या फ़िर रौंगटे खड़े कर देने वाले मार धाड़ के दृश्यों के बल पर एक दूसरे से होड़ करती दिखाई देती थी। 

उस समय जहाँ बतौर लेखक एक तरफ़ गुलशन नंदा  सरीखे रुमानियत से भरे लेखकों का डंका चारों तरफ़ बज रहा था तो वहीं दूसरी तरफ़ सलीम-जावेद की जोड़ी को भी उनकी मुँह माँगी कीमतों पर एक्शन प्रधान फिल्मों की कहानी लिखने के लिए अनुबंधित किया जा रहा था। ऐसे ही दौर से मिलती जुलती एक भावनात्मक कहानी को प्रसिद्ध लेखिका, रश्मि रविजा हमारे समक्ष अपने उपन्यास 'स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू'  के माध्यम से ले कर आयी हैं। 

मूलतः इस उपन्यास में कहानी है
कॉलेज में एक साथ पढ़ रहे शची और अभिषेक की। इस कहानी में जहाँ एक तरफ़ बातें हैं कॉलेज की हर छोटी बड़ी एक्टिविटी में बड़े उत्साह से भाग लेने वाले मस्तमौला तबियत के अभिषेक की तो वहीं दूसरी तरफ़ इसमें बातें हैं साधारण नयन- नक्श की सांवली मगर आकर्षक व्यक्तित्व की प्रतिभाशाली  युवती शची की। मिलन और बिछोह से जुड़े इस उपन्यास में शुरुआती नोक-झोंक के बाद शनैः
शनैः उनमें आपस में प्रेम पनपता तो है लेकिन कुछ दिनों बाद शची, अभिषेक को अचानक नकारते हुए उसके प्रेम को ठुकरा देती है और बिना किसी को बताए  अचानक कॉलेज छोड़ किसी अनजान जगह पर चली जाती है। 

किस्मत से बरसों बाद उनकी फ़िर से मुलाकात तो होती है मगर क्या इस बार उनकी किस्मत में एक होना लिखा है या फ़िर पिछली बार की ही तरह वे दोनों अलग अलग रास्तों पर चल पड़ेंगे? 

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस भावनात्मक उपन्यास में प्रूफरीडिंग के स्तर पर कुछ कमियाँ भी दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 13 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'वैसे यह भी ज्ञात हुआ कि एक्स्ट्रा करिकुलर 'सुबह सवेरा' काफ़ी हैं उसकी।'

इस वाक्य में लेखिका बताना चाह रही हैं कि 'शची  की रुचि एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज़ में काफ़ी रुचि है लेकिन वाक्य में ग़लती से 'एक्टिविटीज़' या इसी के समान अर्थ वाला शब्द छपने से रह गया। इसके साथ ही त्रुटिवश 'सुबह सवेरा' नाम के एक अख़बार का नाम छप गया है जिसकी इस वाक्य में  ज़रूरत नहीं थी। 

सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

वैसे यह भी ज्ञात हुआ कि एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज़ काफ़ी हैं उसकी।'


इसी तरह पेज नंबर 36 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'सारा गुस्सा, मनीष पर उतार दिया। मनीष चुपचाप उसकी  स्वगतोक्ति सुनता रहा। जानता था, यह अभिषेक नहीं उसका चोट खाया स्वाभिमान बोल रहा है। उसने ज़रा सा रुकते ही पूछा, "कॉफी पियोगे?"

"पी लूँगा".. वैसी ही मुखमुद्रा बनाए कहा उसने और फिर शुरू हो गया।'

इसके पश्चात एक छोटे पैराग्राफ़ के बाद मनीष, अभिषेक से कहता दिखाई दिया कि..

'ऐसा तो कभी कहा नहीं शची ने..चल जाने दे..चाय ठंडी हो रही है..शुरू कर।'


अब यहाँ ये सवाल उठता है कि जब कॉफ़ी के लिए पूछा गया और हामी भी कॉफ़ी पीने के लिए ही दी गयी तो अचानक से कॉफी , चाय में कैसे बदल गयी? 


इसके आगे पेज नंबर 44 में कॉलेज के प्रोफ़ेसर अपने पीरियड के दौरान अभिषेक से कोर्स से संबंधित कोई प्रश्न पूछते हैं और उसके प्रति उसकी अज्ञानता को जान कर भड़क उठते हैं। इस दौरान वे छात्रों में बढ़ती अनुशासनहीनता, फैशन परस्ती, पढ़ाई के प्रति उदासीनता, फिल्मों के दुष्प्रभाव इत्यादि को अपने भाषण में समेट लेते हैं जो बेल लगने के बाद तक चलता रहता है।

यहाँ लेखिका ने पीरियड समाप्त होने की घंटी के लिए 'बेल बजने' में 'Bell' जैसे अँग्रेज़ी शब्द का इस्तेमाल किया जबकि 'Bell' हिंदी उच्चारण के लिए 'बेल' शब्द का प्रयोग किया जो कि संयोग से 'Bail' याने के अदालत से ज़मानत लेने के लिए प्रयुक्त होता है। 

अब अगर 'Bell' के उच्चारण के हिसाब से अगर लेखिका यहाँ हिंदी में 'बैल' लिखती तो अर्थ का अनर्थ होते देर नहीं लगती कि एक घँटी जैसी निर्जीव चीज़ को सजीव जानवर, बैल में बदल दिया जाता। 

अतः अच्छा तो यही रहता है कि ऐसे कंफ्यूज़न पैदा करने वाले शब्द की जगह देसी शब्द जैसे 'घँटी बजने' का ही प्रयोग किया जाता।


अब चलते चलते एक महत्त्वपूर्ण बात कि जब भी हम कोई बड़ी कहानी या उपन्यास लिखने बैठते हैं तो हमें उसकी कंटीन्यूटी का ध्यान रखना होता है कि हम पहले क्या लिख चुके हैं और अब हमें उससे जुड़ा हुआ आगे क्या लिखना चाहिए। लेकिन जब पहले के लिखे और बाद के लिखे के बीच में थोड़े वक्त का अंतराल आ जाता है तो हमें ये तो याद रहता है कि मूल कहानी हमें क्या लिखनी है मगर ये हम अक्सर ये भूल जाते हैं कि हम पहले क्या लिख चुके हैं। 

पहले के लिखे और बाद के लिखे में एक दूसरे की बात को काटने वाली कोई बात नहीं होनी चाहिए। इसी तरह की एक छोटी सी कमी इस उपन्यास में भी मुझे दिखाई दी। उदाहरण के तौर पर  पेज नंबर 125 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'जब वह 'कणिका' को याद नहीं कर पा रहा था तो बड़ी गहरी मुस्कुराहट के साथ बोली थी, 'कभी तो तुम्हारी बड़ी ग़हरी छनती थी उससे' इसका अर्थ है वह भूली नहीं है कुछ।'

यहाँ शची, अभिषेक को कणिका के बारे में बताती हुई उसे याद दिलाती है कि कणिका से कभी उसकी यानी कि अभिषेक की बड़ी ग़हरी छना करती थी। 

अब यहाँ ग़ौरतलब बात ये है कि इससे पहले कणिका का जिक्र पेज नम्बर 121 की अंतिम पंक्तियों में आया और जो पेज नम्बर 122 तक गया लेकिन इस बीच कहीं भी उपरोक्त बात का जिक्र नहीं आया जो पेज नंबर 125 पर दी गयी है।

इस उपन्यास में कुछ जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। मनमोहक शैली में लिखे गए 136 पृष्ठीय इस बेहद रोचक एवं पठनीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है प्रलेक प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- जो कि कंटेंट एवं क्वालिटी के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।
 
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