दिसंबर संजोग - आभा श्रीवास्तव

वैसे अगर देखा जाए तो हमारे आसपास के माहौल में इतनी कहानियाँ अपने किसी न किसी रूप में मौजूद रह इधर-उधर विचरती रहती है। जिन्हें ज़रूरत होती है पारखी नज़र..सुघड़ हाथों एवं परिपक्व सोच की, जो उन्हें किसी कहानी या उपन्यास का मुकम्मल जामा या फिर कोई छोटा सा हिस्सा ही बना सजा..संवार कर उभार सके।

आँखों के ऑपरेशन की वजह से लगभग 15 दिनों तक किताबों से दूरी के बाद ऐसे ही जिस उम्दा कहानी संकलन को पढ़ने का मौका मिला, उसे 'दिसंबर संजोग' के नाम से लिखा है प्रसिद्ध लेखिका आभा श्रीवास्तव ने। 650 से ज़्यादा रचनाएँ लिख चुकी आभा श्रीवास्तव जी अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं। 

धारा प्रवाह शैली में लिखी गयी इस संकलन की कहानियों में कहीं ज़िंदादिल स्वभाव की खूबसूरत प्रिया बनर्जी का अपने सगे मामा के दिलफैंक फौजी बेटे से प्रेम के बाद विवाह तो हो जाता है मगर कुछ ही महीनों के बाद वो एक विधवा के रूप में अपने मायके वापिस लौट आती है। इसके बाद कॉलेज में लैक्चरार लग चुकी प्रिया का अपने से कम उम्र के स्टूडेंट के अफ़ेयर होने के बाद विवाह तो हो जाता है मगर..

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में तीन बहनों और एक भाई में सबसे बड़ी रत्ना के ब्याह की तैयारियों में जुटे उसके गरीब माँ-बाप उस वक्त चिंता मुक्त नज़र आने लगते हैं जब ब्याह से एन पहले बुखार की वजह से रत्ना की मृत्यु हो जाती है कि अब उसके दहेज के लिए सहेजा गया सामान छोटी बेटी के दहेज में काम आ जाएगा।  

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ जब तीन खूबसूरत एवं गुणी बहनों में से दो बहनें अपने विवाह के पश्चात लड़का पैदा ना कर पाने की वजह से उपेक्षा/ कमज़ोरीवश मर जाती हैं तो सबसे छोटी बहन पूरी ज़िंदगी विवाह न करने के अपने फैसले पर अडिग हो जाती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में आँधी तूफ़ान से भरी अँधेरी रात में शहर के नामी गिरामी डॉक्टर श्रीवास्तव को एक बूढ़ा व्यक्ति बेहद गिड़गिड़ा कर मरणासन्न हालात में पड़ी अपनी बेटी का इलाज करने के लिए अपने साथ चलने के लिए राज़ी कर लेता है मगर वहाँ पहुँचने पर पता चलता है कि असल कहानी तो कुछ और ही है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ सब कुछ जानते समझते हुए भी अमीर घर के कैसेनोवा प्रवृति के गौतम का विवाह, उसकी माँ खूबसूरत दिव्या से कर देती है मगर किसी एक खूँटे से बँध कर रहना गौतम को मंज़ूर नहीं। अपनी गर्भवती पत्नी का त्याग कर गौतम के हमेशा-हमेशा के लिए घर छोड़ कर चले जाने पर गौतम की माँ पछतावे स्वरूप बुरी तरह से टूट कर डिप्रेशन में आ चुकी दिव्या के लिए संबल बनती है। ठीक होने के बाद गौतम की माँ उसका विवाह डॉ. शशांक से करवा देती है। ऐसे में क्या दिव्या, गौतम के साथ गुज़रे  लम्हों और पुरानी बातों को भूल नए सिरे..नयी शुरुआत कर पाएगी? तो वहीं एक अन्य कहानी में बिना अपनी किसी ग़लती के शोभा को अपने ही घर में अपने परिवार से इस हद तक उपेक्षित जीवन जीना पड़ा कि माता-पिता की उदासीनता के चलते अपनी पसन्द के लड़के से विवाह करने पर उसके लिए घर के दरवाजे हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो जाते हैं। अब पिता की मृत्यु के बाद असहाय हो चुकी माँ शोभा से उसे अपने साथ..अपने घर बाकी की बची ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए ले जाने की गुहार लगा रही है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी विवाह के छह महीनों बाद ही विधवा हो चुकी उस कल्याणी की बात करती दिखाई देती है। जिसके पड़ोस में रहने वाली भाभी के घर में उनका भाई, अमोल आ कर ठहरा हुआ है। शुरुआती परिचय के बाद कल्याणी के मन में अमोल के प्रति कुछ कोमल भावनाएँ जन्म लेने को होती हैं कि इतने में अमोल का रिश्ता कहीं और तय हो जाता है। क्या कल्याणी कभी अपनी भावनाएँ अमोल के समक्ष व्यक्त कर पाएगी अथवा मूक रह कर अपने मन की बात को मन में ही दबा रहने देगी? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी अधेड़ उम्र के अच्युत और कमसिन अरुंधति की बेमेल जोड़ी के बहाने से इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि समय के साथ जीव-निर्जीव में बदलाव तो हो कर ही रहते हैं। इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ दबंग जेठानी बन कर कोई औरत अपनी देवरानी के जीवन को नर्क बनाती दिखाई डेट तो वहीं दूसरी ओर कर्कश सास बन कर अपने दब्बू बेटे का जीवन भी तबाह करती नज़र आती है। लेकिन यह भी तो सच का ना कि अपने कर्मों का हिसाब हमें यहीं..इसी जन्म में भुगतना पड़ता है। 

कुछ एक जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त कुछ एक स्थानों पर मुझे प्रूफरीडिंग की कमियां भी दिखाएं दी जैसे कि..

पेज नंबर 60 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसी पार्टी में सुनयना को एक और बात पता चली कि सुनयना के साथ गौतम की गहरी दोस्ती थी'

यहाँ 'सुनयना' को नहीं बल्कि 'दिव्या' को पता चलता है कि 'सुनयना के साथ गौतम की गहरी दोस्ती थी' इसलिए सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

' उसी पार्टी में दिव्या को एक और बात पता चली कि सुनयना के साथ गौतम की गहरी दोस्ती थी'

इसी तरह पेज नंबर 61 में एक जगह लिखा है लिखा दिखाई दिया कि..

'मिस फ्रेशर का खिताब जीतने के बाद जब पहले सेमेस्टर में उसके सर्वाधिक अंक आए तो उसने 'ब्यूटी विद ब्रेन' की उक्ति को सार्थक कर दिया था।
 
लेकिन इसी पैराग्राफ में इसके बाद एक और पंक्ति लिखी हुई दिखाई दी जो पहली पंक्ति को ही काटती नज़र आयी कि..

'स्कूल से कॉलेज तक वह पढ़ाई के अलावा हर गतिविधि कार्यक्रम में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेती थी'
जो कि सही नहीं है। अतः सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'स्कूल से कॉलेज तक वह पढ़ाई के साथ-साथ हर गतिविधि, कार्यक्रम में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेती थी'

हालांकि 148 पृष्ठीय यह उम्दा कहानी संकलन मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके पेपरबैक संस्करण को छापा है सन्मति पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 160 /- जोकि कंटेंट एवं क्वालिटी के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

शैडो - जयंती रंगनाथन

अन्य मानवीय अनुभूतियों के अतिरिक्त विस्मय..भय..क्रोध..लालच की तरह ही डर भी एक ऐसी मानवीय अनुभूति है जिससे मेरे ख्याल से कोई भी अछूता नहीं होगा। कभी रामसे ब्रदर्स की बचकानी शैली में बनी डरावनी भूतिया फिल्मों को देख बेसाख़्ता हँसी छूटा करती थी तो वहीं रामगोपाल वर्मा के निर्देशन में बनी डरावनी फिल्मों को देख कर इस कदर डर भी लगने लगा कि देर रात जगने के बाद बॉलकनी का दरवाज़ा चैक करने में भी डर लगता था कि कहीं ग़लती से खुला ना रह गया हो। अब इसी डर में अगर थ्रिलर फिल्मों सा रहस्य और रोमांच भी भर जाए तो सोचिए कि क्या होगा? 

दोस्तों..आज रहस्य..रोमांच और डर से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं ऐसे ही विषय पर लिखे गए एक रोचक उपन्यास 'शैडो' की बात करने जा रहा हूँ। जिसे अपनी कलम के जादू से उकेरा है हमारे समय की प्रसिद्ध लेखिका जयंती रंगनाथन ने। कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का सफलतापूर्वक संपादन कर चुकी जयंती रंगनाथन उपन्यासों..कहानी संग्रहों के लेखन एवं संपादन के अतिरिक्त टीवी एवं ऑडियो बुक्स के क्षेत्र में भी खासी सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। 

उपन्यास के मूल में जहाँ एक तरफ़ कहानी है मयंक नाम के एक ऐसे लेखक की। जिसकी मिस्ट्री गर्ल, काम्या पर उपन्यास लिखने की कोशिश उस वक्त उसके लिए मुसीबतों का बायस बन जाती है जब उसे इस कहानी से दूर रहने के लिए sms या फ़िर ईमेल पर धमकियाँ मिलनी शुरू हो जाती हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है अपने से 30 वर्ष बड़े एक क्राइम मिस्ट्री राइटर,अभय जॉर्ज की ज़िद्दी और बोल्ड पत्नी, काम्या की जो अपने पति की हत्या हो जाने के बाद से ही ग़ायब है। 

सहयोगी किरदारों के रूप में इसमें कहानी है मयंक की मंगेतर बनने जा रही उसकी प्रेमिका, पूर्वा, जो कभी काम्या की सहेली हुआ करती थी, और मयंक के प्रति चाहत रखने वाली उसकी (मयंक की) दोस्त उमा की। मयंक से जुड़े होने के खामियाज़े के रूप में ये दोनों भी उस वक्त मुसीबत में फँस जाती हैं जब उसी तरह की धमकियाँ इन्हें भी मिलनी शुरू हो जाती हैं।

पूर्व जन्म और सम्मोहन पर आधारित इस कहानी में मारिया.. शोभित और रोजर जैसे रहस्यमयी किरदारों के आगमन के बाद कहानी और ज़्यादा उलझती चली जाती है। मारिया, उस शोभित की पत्नी है जो हवाई जहाज़ में मयंक के साथ अपनी सीट बदलने की वजह से प्लेन क्रैश में मारा जा चुका है और शहर का नामीगिरामी पास्ट लाइफ रिग्रेशन थेरेपिस्ट, रोजर शोभित को अपना गुरु बताता है। 


दिल्ली से वायनाड की तरफ़ बढ़ते इस तेज़ रफ़्तार  उपन्यास में कहानी है ईर्ष्या..द्वेष और वर्चस्व बनाए रखने की तमाम जद्दोजहद के बीच सम्मोहन भरे पुनर्जन्मों की। सहज..सरल शैली में लिखे इस बेहद रोचक और रहस्यमयी उपन्यास में एक के बाद एक रोमांच और उत्सुकता से भरे  ऐसे ट्विस्ट्स एण्ड टर्न्स आते हैं कि दर्शक सम्मोहित हुए बिना नहीं रह पाता।

तेज़ गति से चलती हुई इस कहानी में रोचकता और रोमांच और ज़्यादा तब बढ़ जाता है जब नए किरदारों से जुड़े नए प्रश्नों के उभरने से कहानी सुलझने के बजाय और ज़्यादा घुमावदार होती चली जाती है। 

इस बात के लिए जयंती रंगनाथन बधाई की पात्र है कि उलझन भरे किरदारों से लैस इस बेहद उलझी हुई कहानी के सभी घुमावदार पेंचों को उन्होंने आसानी से बिना कहीं भी बिखरे हुए आसानी से सुलझा दिया। 

प्रूफरीडिंग की एक छोटी सी कमी के रूप में पेज नंबर 53 मैं लिखा दिखाई दिया कि..

'मयंक ने मुत्तू से हाथ मिलाया और सपाट आवाज़ में कहा.."मयंक, बिज़नेसमैन हूँ'

यहाँ "मयंक, बिज़नेसमैन हूँ' की जगह अगर "मैं मयंक, बिज़नेसमैन हूँ' आए तो ज़्यादा बेहतर होगा। 

इस 176 पृष्ठीय पैसा वसूल उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म ने और इसका मूल्य रखा गया है 199/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

बातें कम Scam ज़्यादा - नीरज बधवार

खुद भी एक व्यंग्यकार होने के नाते मुझे और भी कई अन्य व्यंग्यकारों का लिखा हुआ पढ़ने को मिला मगर ज़्यादातर में मैंने पाया कि अख़बारी कॉलम की तयशुदा शब्द सीमा में बँध अधिकतर व्यंग्यकार बात में से बात निकालने के चक्कर में बाल की खाल नोचते नज़र आए यानी कि बेसिरपैर की हांकते नज़र आए। ऐसे में अगर आपको कुछ ऐसा पढ़ने को मिल जाए कि हर दूसरी-तीसरी पंक्ति में आप मुस्कुरा का वाह कर उठें तो समझिए कि आपका दिन बन गया।

दोस्तों.. आज मैं ऐसे ही एक दिलचस्प व्यंग्य संग्रह की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'बातें कम Scam ज़्यादा' के नाम से लिखा है प्रसिद्ध व्यंग्यकार नीरज बधवार ने। इस व्यंग्य संग्रह में कहीं पुलसिया शह पर फुटपाथ और सड़के कब्ज़ा रहे रेहड़ी- पटरी वालों के ज़रिए दिन प्रतिदिन अमीर पर अमीर होते जा रहे पुलिसकर्मियों के वैभवशाली जीवन पर मज़ेदार अंदाज़ में तंज कसा जाता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य व्यंग्य में शादियों और पार्टियों में शगुन से ज़्यादा का खाना ठूँस-ठूँस कर खाने के तौर-तरीकों और कायदों की बात होती नजर आती है। 

कहीं आजकल के लड़के-लड़कियों के सैल्फ़ी के प्रति क्रेज़ पर बात होती नजर आती है तो कहीं किसी के नॉनवेज खरीदने के बजाय लौकी खरीदने की बात पर व्यंग्य उत्पन्न होता नज़र आता है। कहीं ट्रैफ़िक की ऑरेंज बत्ती पर गाड़ी भगाने और हरी बत्ती पर रोकने की बात को ले कर मज़ेदार अंदाज़ में सांप्रदायिकता के इंटरनेट की वजह से फ़ैलने की बात होती नज़र आती है। 

इसी संकलन के किसी व्यंग्य में हाहाकारी तरीके से युवाओं में दिन-प्रतिदिन सैल्फ़ी के बढ़ते क्रेज़ की धज्जियाँ उड़ाई जाती दिखाई देती हैं। कहीं हर समय जल्दी में रह ट्रैफ़िक के नियमों का उलंघन करने वालों पर तो कहीं बड़े नामी गिरामी कलाकारों को ले कर बनने वाली घटिया फिल्मों के करोड़ों रुपए कमाने पर लेखक तंज कसते दिखाई देते हैं। 
इसी संकलन के किसी अन्य व्यंग्य में सलमान खान के बहाने बॉलीवुड में बनने वाली बेसिरपैर की फिल्मों पर तंज कसा जाता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य व्यंग्य में स्कूलों-विश्वविद्यालयों में दूसरों की ज़्यादा परसेंटेज आने से औसत बच्चे की दुविधाओं का वर्णन किया जाता दिखाई देता है। 

इसी संकलन के किसी अन्य व्यंग्य में दूसरे के महँगे मोबाइल और खूबसूरत बीवी से अपनी बीवी और मोबाइल की तुलना की जाती दिखाई देती है। तो किसी अन्य व्यंग्य में खुद की कुंडली में भ्रष्टाचार का योग खोजा जाता दिखाई देता है। कहीं सोशल मीडिया कंपनियों द्वारा हमारे निजी डेटा का अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करने पर तंज कसा जाता दिखाई देता है। तो कहीं किसी बड़े देश या नाम की वजह से हमारी भावनाएँ आहत होती नज़र आती हैं। 

कहीं कोरोना के समय वैक्सिनेशन  सैंटरों पर फ़ैली अफरातफरी और लालफीताशाही पर कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य व्यंग्य में लेखक फेसबुक और वहाट्सएपीय ज्ञान की बदौलत बावले हुए लोगों पर मज़ेदार ढंग से अपनी लेखनी चलाता नज़र आता है। इसी संकलन में कहीं किसी अन्य रचना में देश भर में हो रहे घोटालों को लेखक अपनी सोच का शिकार बनाता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य व्यंग्य में अपने घर की आस में आम आदमी धक्के खाता दिखाई देता है। कहीं किसी अन्य रचना में ऑफिस में नयी इंटर्न के आ जाने से रौनक के आ जाने की बात की जाती दिखाई देती है। तो कहीं सरकारी अक्षमताओं को निजी कंपनियों द्वारा दूर कर आम आदमी की जेब काटी जाती दिखाई देती है। कहीं किसी व्यंग्य के ज़रिए टैक्स की चक्की में लगातार पिस रहे आम मध्यमवर्गीय की व्यथा व्यक्त की जाती नज़र आती है। तो कहीं किसी अन्य धारदार व्यंग्य में सिगरेट एवं शराब बिक्री को ले कर बनी सरकारी नीति में जनहित से पहले अपने हित की सरकारी पॉलिसी पर कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है।

कहीं दफ्तरों में औरों की अपेक्षा खुद को ज़्यादा मूर्ख सिद्ध करना अपना उल्लू सीधा करने के तौर तरीके बताए जाते दिखाई देते हैं तो कहीं आजकल के तथाकथित गुरुओं से आम आदमी का मोहभंग होता दिखाई देता है। कहीं गुरु की बताई सीख पर चलने के बजाय भगतजन उनकी मृत्य के बाद अपनी मनमानी करते नज़र आते हैं। इसी संकलन के किसी अन्य व्यंग्य में मोटिवेशनल स्पीकर खुद ही डिप्रेशन में जाता दिखाई दे रहा है तो कहीं किसीअन्य व्यंग्य में सस्ते में महँगा माल बेचने वाले भ्रामक विज्ञापनों से लेखक आहत होता नजर आता है। कहीं एफ़.एम के चैनल के घटिया जोक्स सुनाने वाले R.Js द्वारा खुद को खुराफाती, दबंग या डॉन बताने और सबका नम्बर वन RJ होने का दावा करने पर कटाक्ष किया जाता नज़र आता है। तो कहीं भारतीय रेल की लेटलतीफी और रेलवे स्टेशनों की दुर्दशा पर कटाक्ष होता दिखाई देता है।

इस व्यंग्य संग्रह के लेखक एवं प्रूफरीडर की तारीफ़ करनी होगी कि मात्र दो जगहों पर वर्तनी की छोटी त्रुटियों के अतिरिक्त खोजने पर भी बस एक प्रूफरीडिंग की कमी दिखाई दी जिसमें कि पेज नंबर 29 में लिखा दिखाई दिया कि..

'यूनिवर्सिटी ऑफ़ ढोलकपुर के स्टडी के मुताबिक इंसान को मरते वक्त इतना अफ़सोस सच्चा प्यार मिलने का नहीं रहता, जितना शादियों और बुफे में पैसे पूरे कर के ना आ पाने का रहता है'

यहाँ 'इतना अफ़सोस सच्चा प्यार मिलने का नहीं रहता' की जगह 'इतना अफ़सोस सच्चा प्यार नहीं मिलने का नहीं रहता' आएगा। 

*मुसकराहट- मुस्कुराहट
*मुसलिम- मुस्लिम

143 पृष्ठीय इस मज़ेदार व्यंग्य संग्रह के पेपरबैक संस्करण को छापा है प्रभात प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- जो कि मुझे आम हिंदी पाठक के नज़रिए से थोड़ा ज़्यादा लगा। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशित को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

कथा चलती रहे- स्नेह गोस्वामी

कई बार कोई खबर..कोई घटना अथवा कोई विचार हमारे मन मस्तिष्क को इस प्रकार उद्वेलित कर देता है  कि हम उस पर लिखे बिना नहीं रह पाते। इसी तरह कई बार हमारे ज़ेहन में निरंतर विस्तार लिए विचारों की एक लँबी श्रंखला चल रही होती है। उन बेतरतीब विचारों को श्रंखलाबद्ध करने के लिए हम उपन्यास शैली का सहारा लेते हैं और कई बार जब विचार कम किंतु ठोस नतीजे के रूप में उमड़ता है तो उस पर हम कहानी रचने का प्रयास करते हैं। मगर जब कोई विचार एकदम..एक छोटे से विस्फोट की तरह झटके से हमारे जेहन में उमड़ता है तो तात्कालिक  प्रतिक्रिया के रूप में लघुकथा का जन्म होता है।

दोस्तों आज लघुकथा से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं परिपक्व लेखन से लैस एक ऐसे लघुकथा संग्रह की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'कथा चलती रहे' के नाम से लिखा है प्रसिद्ध लेखिका स्नेह गोस्वामी ने। कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपने एवं अनेक पुरस्कारों से सम्मानित होने के अतिरिक्त अंतर्जाल पर भी स्नेह गोस्वामी जी अपनी कविताओं..कहानियों..लघुकथाओं एवं उपन्यासों के ज़रिए लगातार सक्रिय बनी हुई हैं। 

इसी संकलन की एक लघुकथा में जहाँ ज्ञान को छिपा कर रखने वाले गुरुओं पर कटाक्ष होता दिखाई देता तो वहीं एक अन्य लघुकथा इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि राजनीतिज्ञ और बड़े अफ़सरान ही देशों के बीच नफ़रत बोने का काम करते हैं बाकी आम जनता तो सभी देशों की एक जैसी ही होती है।

इसी संकलन की किसी अन्य रचना में व्यवसायीकरण की अँधी दौड़ में डॉक्टर/अस्पताल मानवता की साख़ पर बट्टा लगाते नज़र आते हैं। तो कहीं किसी अन्य रचना में बचपत से ले कर बड़े होने तक हर जगह लड़की की ही इच्छाओं पर अंकुश लगाने की प्रवृति पर कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है। कहीं किसी अन्य रचना में किसी कुशल गृहणी के सुबह से ले कर देर रात तक घर के कामों में ही खटते रहने की दिनचर्या का वर्णन किया जाता नज़र आता है तो कहीं कोई अन्य रचना आने वाले समय के भयावह मंज़र का वर्णन करती दिखाई देती है कि अब आने वाले समय में शोषण से ना लड़कियाँ और ना ही लड़के मुक्त रहने वाले हैं। 

इसी संकलन की किसी रचना में जहाँ ब्याह के बाद घर आयी नवविवाहिता के उसके शौहर से मोहभंग होने की प्रक्रिया सिलसिलेवार तरीके से वर्णन किया जाता दिखाई देता है। एक वहीं एक अन्य रचना बाहर दफ़्तर में बड़े ओहदे पर काम करने वाली उन स्त्रियों की व्यथा को व्यक्त करती नज़र आती है जिनकी उपलब्धियों को उनके घर में ही कम कर के आंका जाता है। इसी संकलन की एक अन्य रचना अपने लोगों को फिट करने के चक्कर में सिफ़ारिश के बावजूद भी किसी व्यक्ति को सरकारी नौकरी न मिल पाने की बात करती नज़र आती है। तो कहीं किसी रचना में निजी फ़ायदे के लिए सरकारी प्रॉपर्टी को औने पौने में बेचा जाता दिखाई देता है। इसी संकलन की एक अन्य रचना में सास-जेठानियों के साथ हुए कटु अनुभवों को सहती आयी युवती अपनी बहू को हर संभव सुख देने का प्रयास तो करती है मगर...

इसी संकलन की कुछ अन्य रचनाओं में ग़रीबी की चर्चा से अपना नाम चमकाया जाता दिखाई देता तो कहीं किसी अन्य रचना में मामूली सी बात पर हुए झगड़े को सांप्रदायिक रंग दे कर अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकी जाती दिखाई देती हैं। कहीं घोंसला बनाने की जुगत में डूबे कबूतर- कबूतरी के ज़रिए शहरों के कंक्रीट के जंगलों तब्दील होने पर कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है कि शहरों में साफ़ हवा भी मिल पाना मुमकिन नहीं रह गया है। इसी संकलन की एक रचना जहाँ इस बात की तस्दीक करती नज़र आती है कि सरकारी दफ्तरों का हर कर्मचारी कामचोर या बेईमान नहीं है। तो वहीं एक अन्य रचना बाल मज़दूरी पर बात करती नज़र आती है। 

इसी संकलन में कहीं दफ्तर में मातहत,अफ़सर की चमचागिरी करते नज़र आते हैं। तो कहीं नेताओं की मौकापरस्ती पर तंज कसा जाता दिखाई देता है। कहीं आने वाले खर्चों की चिंता पति-पत्नी को मन मार उस जगह काम पर जाने के लिए मजबूर करती दिखाई देती जहाँ उनका शोषण होना तय है। तो कहीं किसी रचना में गाँव की शांत जिन्दगी से अपने बेटे के पास शहर आयी माँ वहाँ की व्यस्त और बेतरतीब जीवन शैली देख कर बेचैन हो उठती है। 
कहीं किसी रचना में कोई थाली के बैंगन सा अपनी ही बात से पलटता दिखाई देता है। 

इसी संकलन की एक रचना में जहाँ एक तरफ़ सुनीता खुद को और अपनी कामवाली को कमोबेश एक जैसी ही स्थिति में पा, उसकी ही तरह अपने पति का विरोध करने की ठान लेती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य रचना पारिवारिक बँटवारे से पैदा हुई रंजिश की बात करती नज़र आती है कि किस तरह आपसी झगड़े में परिवार के परिवार बरबाद हो जाते हैं। कहीं किसी रचना में पिछले दस सालों से लगातार अपमानित और प्रताड़ित होती रही पत्नी भी अपने स्वाभिमान की ख़ातिर आख़िर एक दिन कड़ा कदम उठाने का फ़ैसला कर ही लेती है। तो कहीं किसी अन्य रचना में नए प्रयोग के तौर पर लघुकथा को बेटी समान माना जाता दिखाई देता है। 

इसी संकलन की एक अन्य रचना फ़िर चुहिया की चुहिया वाली पुरानी कहानी की तर्ज़ पर आजकल की दफ़्तरी लालफीताशाही की पोल खोलती नज़र आती है। तो कहीं किसी अन्य रचना में ग़रीब झोंपड़ी वालों को मोहरा बना भर्ष्टाचार के ज़रिए बड़े नेता नोट कूटते दिखाई देते हैं। इसी संकलन की एक अन्य रचना मध्यमवर्गीय परिवारों की व्यथा व्यक्त करती नज़र आती है कि इनमें बरसों पुरानी हसरतों के पूरा होने पर भी अफ़सोस होता कि पैसे व्यर्थ के काम में बेकार कर दिए। कहीं किसी रचना में हिंदी की ज़रूरत और महत्ता को दर्शाया गया नज़र आता है। तो कहीं किसी रचना में घर में बुजुर्गों के होने की महत्ता को दर्शाया जाता दिखाई देता है। कहीं किसी अन्य रचना में हिंदी ही अपने देश में अपनी बेकद्री होते देख विदेश में बस जाने का प्रयास करती दिखाई देती है। 


इसी संकलन की कुछ रचनाएँ मुझे बेहद प्रभावी लगीं। जिनके नाम इस प्रकार हैं...

* कथा चलती रहे
* एक सुर
* विशेषज्ञ
* द्विदाम्नी
* ये शहर तो...
* तीन तलाक़
* पत्थर में दूब
* नो प्रॉब्लम
* काम
* आँखों की ज्योति
* विश्वास की न्यूज़
* छोटी बहू का स्वागत
* रंग बदलता गिरगिट
* विद्रोहिणी
* अपराजेय
* नया सच
* समर्था
* बड़ा होता बचपन
* चक्र-दुष्चक्र
* पत्थर
* फ़ुर्सत
* हसरत
* सुक़ून


इसी संकलन की एक रचना 'कोटा' मुझे थोड़ी तर्कसंगत नहीं लगी कि क्लर्क जैसी छोटी नौकरी पर शिक्षामंत्री जैसा बड़ा नेता अपने बेटे को फिट करवा रहा है। 

पेज नंबर 22 के प्रथम पैराग्राफ में दिखा दिखाई दिया कि..

'मायके से आया सारा उपहार के नाम पर घर भर का सामान बेदर्दी से बिखरा पड़ा था।'

यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'मायके से आए उपहार के नाम पर सारा घर का सामान बेदर्दी से बिखरा पड़ा था'
या फ़िर..

'उपहार के नाम पर मायके से आया सारा घर का सामान बेदर्दी से बिखरा पड़ा था'

हालांकि धाराप्रवाह शैली में लिखा गया है यह लघुकथा संग्रह मुझे लेखिका की तरफ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके पेपरबैक संस्करण को छापा है बोधि प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से जायज़ है। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

बाली उमर- भगवंत अनमोल

"सोलह बरस की बाली उमर को सलाम
ए प्यार तेरी पहली नज़र को सलाम"

जीवन में कभी ना कभी हम सभी को उम्र के ऐसे दौर से गुज़रना पड़ता है जहाँ हम ना बड़ों की गिनती में ही आते हैं और ना ही छोटों की फ़ेहरिस्त में खुद को मौजूद खड़ा पाते हैं। हर सही-ग़लत को समझने की चाह रखने वाले उम्र के उस दौर में जिज्ञासा अपने चरम पर होती है। हम वांछित-अवांछित..हर तरह की जानकारी से रूबरू होना चाहते हैं। साथ ही यह एक भी एक सार्वभौमिक सत्य है कि किसी को अगर किसी बात या कार्य के लिए बिना सही कारण बताए रोका जाता है तो उसमें सहज प्रवृति के चलते उस बात को जानने..समझने की इच्छा.. उत्सुकता जागृत होती है। 

दोस्तों..आज मैं जीवन के इसी पड़ाव और उम्र के किरदारों को ले कर लिखे गए एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ। जिसे 'बाली उमर' के नाम से लिखा है प्रसिद्ध लेखक भगवंत अनमोल ने। 

इस उपन्यास में मूलतः कहानी है नवाबगंज नाम के एक गाँव के दौलतपुरवा मोहल्ले और और उसमें रहने वाले वहाँ के बाशिंदों की। इस उपन्यास में बातें हैं बाली उम्र के दौर से गुज़र रहे उन पाँच बच्चों की जिन्हें उनके स्वभाव या आदतों की वजह से आशिक, ख़बरीलाल, गदहा, पोस्टमैन और पागल है जैसे नाम दे दिए गए। 

इस उपन्यास में एक तरफ़ आशिक के आशिकी भरे कारनामें हैं तो दूसरी तरफ़ छोटी से छोटी बात को भी देर से समझने वाले गदहे की अज्ञानता भरी बातें हैं। इसी उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ इधर की बातें उधर करने वाले को ख़बरीलाल तो वहीं दूसरी तरफ़ बड़ों के प्रेम पत्र इधर-उधर पहुँचाने वाले को पोस्टमैन की उपाधि मिली है। इसी उपन्यास का एक अन्य पात्र पूरे गाँव और मोहल्ले  में 'पागल है' के नाम से जाना जाता है कि दक्षिण भारत के किसी दूरदराज के गाँव से भटक कर यहाँ पहुँचे इस बालक की भाषा, ना कोई समझता और ना ही इसे वहाँ की स्थानीय भाषा, हिंदी का ज्ञान है। 

इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है बाली उमर के इन बच्चों की नादानी भरी वयस्क शरारतों की तो दूसरी तरफ़ इसमें कहानी है भूख-प्यास से तड़पते माँ-बाप के एक ऐसे लाडले बालक की जिसे उसके सगे चाचा ने ही अपनी ईर्ष्या के चलते उसके परिवार से बहुत दूर यहाँ-वहाँ भटकने के लिए छोड़ दिया है। 

इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है भूख प्यास से तड़पते समृद्ध परिवार के ऐसे कई दिनों के भूखे बालक की जिसे कूड़े में फेंके गए बासी भोजन तक में अपना अपना पेट भरने के लिए मजबूर होना पड़ा। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है किसी की अज्ञानता का फायदा उठा  शोषण..अत्याचार और लालच के ज़रिए जबरन बँधुआ मज़दूर बनाने की। 

इस उपन्यास में कहीं ऊलजलूल तर्कों के ज़रिए पृथ्वी को गोल नहीं बल्कि चपटा करार दिया जाता दिखाई देता है तो कहीं इसमें ब्याह के बाद सैक्स को लेकर बाल मन ऐसी ऐसी कल्पनाएँ करता दिखाई देता है कि बेसाख्ता हँसी छूटने को आमादा हो उठती है। इसी उपन्यास में लेखक अनपढ़ों के नेता बनने पर कटाक्ष करता दिखाई देता है तो कहीं लोगों की आशिक़ प्रवृति पर तंज कसता नज़र आता है।

इसी उपन्यास में कहीं उन सरकारी नौकरी वालों पर कटाक्ष होता नज़र आता है जो बिना रिश्वत लिए कुछ काम कर के राज़ी नहीं। तो कहीं नए लेखकों पर तंज कसा जाता दिखाई देता है कि वे लिखने के लिए औरों को पढा जाना ज़रूरी नहीं समझते। इसी उपन्यास में कहीं गाँव के लोगों की राजनीति के प्रति उत्साह एवं रुचि को ले कर बात होती नजर आती है। 

इसी किताब में कहीं गाँव के लोगों को इस वजह से दूरदर्शी बताया जाता दिखाई देता है कि वे अपने बच्चों को उनके साइज़ के नहीं बल्कि बड़े साइज़ के कपड़े ख़रीदवाते हैं कि उनके बड़े होने पर भी वही कपड़े उनके काम आ सकें। तो कहीं पहली बार किसी शादी में बफ़े भोजन का आनंद लेने को आतुर गाँव वाले इसे कुकुर भोज का दर्जा देते दिखाई देते हैं। तो कहीं जीवन में पहली बार ठंडे (कोल्डड्रिंक) को पी कर उसका आनंद लेने की बच्चों की सारी अधीरता.. उत्सुकता निराशा में तब्दील होती दिखाई देती है।

इसी किताब में कहीं नए लेखकों पर तंज कसा जाता दिखाई देता है कि वे लिखने के लिए औरों को पढा जाना ज़रूरी नहीं समझते। तो कहीं गाँव के लोगों की राजनीति के प्रति उत्साह एवं रुचि को ले कर बात होती नजर आती है। 

इसी किताब में कहीं प्राइमरी का कोई बालक अपनी अँग्रेज़ी की अध्यापिका से ही किस(Kiss) का मतलब जानने के लिए सवाल पूछता दिखाई देता है। तो कहीं बच्चे पैकेट वाले गुब्बारे (कंडोम) को ले कर भ्रमित नज़र आते हैं कि आख़िर ये ऐसे किस घृणित पदार्थ से बने हुए होने हैं कि उनके अभिभावक उन्हें इनसे दूर रहने के लिए हड़काते नज़र आते हैं। 

लगभग आधी किताब तक पाठक इससे इस कदर जुड़ा रहता है कि उसके ज़ेहन में लेखक से बार-बार इस सवाल को पूछने का मन करने लगता है कि..

"अबे!...कितना हँसाओगे बे?"

बतौर एक सजग पाठक होने के नाते रोचक शैली में तेज़ रफ़्तार से चलता हुआ यह उपन्यास बाद के किसी-किसी चैप्टर में मुझे थोड़ा बोझिल एवं जबरन खिंचा हुआ भी लगा। अंत थोड़ा फ़िल्मी और पहले से अपेक्षित भी लगा। क्लाइमैक्स वाले सीन पर अगर और  ज़्यादा मेहनत की जाए तो इस बढ़िया उपन्यास की लोकप्रियता में और अधिक इज़ाफ़ा हो सकता है। 

127 पृष्ठीय इस मज़ेदार उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है राजपाल एण्ड सन्ज़ ने और इसका मूल्य रखा गया है 175/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। किंडल अनलिमिटेड के सब्सक्राइबर्स के लिए यह उपन्यास फ्री में उपलब्ध है तथा अमेज़न पर डिस्काउंट के बाद फिलहाल यह उपन्यास मात्र 123/- रुपए में मिल रहा है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 

प्रेत लेखन का नंगा सच- योगेश मित्तल

अगर अपने पढ़ने के शौक की बात करूँ तो मेरी भी शुरुआत बहुतों की तरह चंपक, मधु मुस्कान, लोटपोट, नंदन, सरिता, मुक्ता, धर्मयुग.. वाया साप्ताहिक हिंदुस्तान, वेदप्रकाश शर्मा के थ्रिलर उपन्यासों से होती हुई गुलशन नंदा के सामाजिक उपन्यासों तक जा पहुँचती है। 

जी..हाँ, वही थ्रिलर उपन्यास और सामाजिक उपन्यास जिन्हें उस समय के तथाकथित दिग्गज साहित्यकारों ने लुगदी साहित्य कहते हुए सिरे से नकार दिया। हालांकि उस समय कर्नल रंजीत, इब्ने सफ़ी, जेम्स हेडली चेइस और गुलशन नंदा इत्यादि बहुत ज़्यादा बिकने और पढ़े जाने वाले लेखक थे मगर चूंकि ऐसे उपन्यास की लागत कम और मुनाफ़ा ज़्यादा रखने के लिए उन्हें बहुत ही हल्की क्वालिटी के सस्ते कागज़ पर छापा जाता था। तो इसी कमी को आधार बना कर उनके लेखन को लुगदी साहित्य या पल्प फिक्शन कहा जाने लगा। 

उस वक्त इन लेखकों के बाज़ार में लगभग हर महीने नया उपन्यास आने से बड़ी हैरानी होती थी कि ये सब इतना ज़्यादा और इतनी जल्दी कैसे लिख लेते हैं कि इधर कोई घटना घटी और उधर कुछ ही दिनों में उस पर उपन्यास हाज़िर। 

काफ़ी सालों बाद इस रहस्य से तब जा के पर्दा हटा जब पता चला कि घोस्ट राइटिंग यानि कि प्रेत लेखन क्या बला है। ऐसे में स्वतः इन बेनामी लेखकों के बारे में जानने की इच्छा मन में जाग उठी कि आख़िर.. किन वजहों से ये अपनी सारी मेहनत..सारा हुनर..सारा श्रेय किसी और को अपने नाम से इस्तेमाल करने के लिए दे देते हैं? 

दोस्तों..आज मैं ऐसे ही एक घोस्ट राइटर याने के प्रेत लेखक, योगेश मित्तल से उनकी ही आत्मकथा 'प्रेत लेखन का नंगा सच' के ज़रिए परिचय करवाने जा रहा हूँ। जिसमें उनके बचपन..जवानी और बीमारी से जुड़ी बातों के अतिरिक्त लुगदी साहित्य यानी कि पल्प फिक्शन से जुड़ी ऐसी जानकारियाँ हैं जिन्हें शायद इस किताब के न आने पर पाठक कभी नहीं जान पाते। 

 इस किताब के लेखक, योगेश मित्तल की बेशक आम लोगों के बीच कोई पहचान नहीं है लेकिन 1970 से ले कर 2000 के बीच यही योगेश मित्तल अनेक लेखकों एवं प्रकाशकों का चहेता हुआ करता था। 

इस किताब में कहीं देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता और भूतनाथ सीरीज का जिक्र होता दिखाई देता है जिनको पढ़ने के लिए उर्दू और अंग्रेजी भाषी लोगों ने हिंदी सीखें। तो कहीं किसी अन्य जगह पर योगेश जी बताते हैं कि 1969 में कलकत्ता से दिल्ली में आ कर बसने के बाद उन्होंने कभी अपने पड़ोसियों और दोस्तों के लिए घोस्ट राइटर के रूप में कहानियाँ लिखने के साथ साथ पड़ोस में ही किराए पर नॉवेल और मैगज़ीन किराए पर देने वाले विमल चटर्जी के साथ मिल कर पहले पहल मनोज पॉकेट बुक्स के बाल कहानियों के सैट के लिए घोस्ट राइटिंग शुरू की। उनकी लिखी कहानियों पर बतौर लेखक और संकलनकर्ता के रूप में 'प्रेम बाजपेयी' का नाम छपता था। जिसे बाद में बदल कर 'मनोज' कर दिया गया। 

मनोज पॉकेट बुक्स के अंतर्गत छपने वाले 'इमरान' और 'विनोद-हमीद' सीरीज़ के उपन्यास भी इनके द्वारा ही लिखे गए। जो क्रमशः 'फ़रेबी दुनिया' और 'डबल जासूस' पत्रिकाओं में छपे। 

कहीं वे भारती पॉकेट बुक्स के लिए 'जगत' सीरीज़ के नॉवेल 'ओम प्रकाश शर्मा' के नाम से लिखने का जिक्र करते नज़र आते हैं तो कहीं वे 'विजय सीरीज़' के ऐसे नॉवल लिखते नज़र आते हैं जो असलियत में 'ओमप्रकाश कम्बोज' के नाम से छपे। 
कहीं वे भारती पॉकेट बुक्स के लिए ही 'ललित भारती' बन कर प्रेत लेखन करते रहे तो कहीं वे 'जेम्स बॉन्ड' बन कर भी अपने गुमनाम लेखन का परचम लहराते नज़र आते हैं। 

इसी किताब में कहीं वे लेखक 'कुमारप्रिय' से अपनी जान पहचान और दोस्ती की बातें करते नज़र आते हैं तो कहीं वे 'पंकज पॉकेट बुक्स' के शुरुआती उपन्यास 'ओलंपिक में हंगामा' का जिक्र करते नज़र आते हैं। जिसे ओलंपिक खेलों के दौरान हुई इज़रायली खिलाड़ियों की हत्या को आधार बना कर लिखा गया यह। 'इमरान' सीरीज़ का यह उपन्यास एच. इकबाल के नाम से छपा था। कहीं वे 'रानो जीजी' तो कहीं वे इन्दर भैया' के छद्म नामों से अपना प्रेत लेखन जारी रखते नज़र आते हैं। 

इसी किताब में कहीं किसी जगह लेखक बताते नज़र आते हैं कि बड़े उपन्यासकारों जैसे कि राज भारती, ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश कंबोज, विमल चटर्जी, सुरेंद्र मोहन पाठक, परशुराम शर्मा, वेद प्रकाश शर्मा, लोटपोट मैगजीन के लिए मोटू पतलू एवं बहुत से प्रकाशकों एवं लेखकों ने अपने उपन्यासों के मैटर को बढ़वाने के लिए घोस्ट राइटिर  के रूप में इनकी लेखनी का सहारा लिया। इसी किताब के ज़रिए पता चलता है कि कई बार किसी उपन्यास में लेखन किसी का..नाम किसी का और फ़ोटो किसी और का हुआ करता था।

इसी किताब में कहीं कोई प्रेत लेखक अपनी लच्छेदार बातों के ज़रिए नए बकरों को फँसा उनका पब्लिशिंग की दुनिया में पदार्पण करवाता नज़र आता है तो कहीं लेखक स्वयं हिंद पॉकेट बुक्स के रजिस्टर्ड ट्रेडमार्क 'मेजर बलवंत' के नाम से किसी अन्य प्रकाशक के लिए छद्म लेखन का कार्य करता नज़र आता है। जिसे उन्हें बाद में हिंद पॉकेट बुक्स की कोर्ट केस की धमकी के बाद छोड़ना पड़ा जबकि असलियत में हिंद पॉकेट बुक्स ने लेखक का उपन्यास आने के बाद ही इस नाम 'मेजर बलवंत' को अपने नाम से रजिस्टर्ड करवाया था। 
इसी किताब में कहीं वयोगेश मित्तल मजबूरन अपने मित्र की एवज में बिना पारिश्रमिक लिए कई उपन्यास लिखते नज़र आते हैं कि उनका मित्र प्रकाशक से एडवांस में पैसा ले कर ग़ायब हो गया था।

 इसी किताब में कहीं बड़े तथाकथित नाम वाले साहित्यकारों द्वारा गुलशन नंदा और इब्ने सफ़ी जैसे लेखकों के लेखन को दोयम दर्ज़े का करार दे उन्हें सिरे से इस हद तक नाकारा जाता दिखाई देता है कि उनकी तुलना वेश्याओं से की जाती दिखाई देती है। इसी किताब में कहीं ग़रीबी और पैसे की ज़रूरतों के मद्देनज़र लेखक का स्वयं अपने नाम से लिखने और छपने की ख्वाहिश से मोहभंग होता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य जगह पर लेखक स्वयं यह स्वीकार करते नज़र आते हैं कि उन्होंने इतने ज़्यादा छद्म नामों एवं प्रतिष्ठित लेखकों के लिए छद्म लेखन किया कि उन्हें स्वयं भी उन सभी के नाम याद नहीं। 
 
इसी किताब कहीं लेखक छद्म लेखन के लिए लेखकों की ग़रीबी की वजह से हुई फटीचर हालात को ज़िम्मेदार ठहराते नज़र आते हैं। तो कहीं पैसे के लालच में प्रकाशकों से एडवांस ले कर भी उनके लिए लिख कर ना दे पाने की वजह से ऐसे छद्म लेखकों से प्रकाशकों का मोहभंग होता दिखाई देता है। 

इसी किताब के ज़रिए पता चलता है कि उस दौर के सर्वाधिक चर्चित लेखकों जैसे कर्नल रंजीत, राजवंश, लोकदर्शी, समीर, केशव पण्डित,मनोज, रायज़ादा, टाइगर, विक्की आनंद, राजहंस इत्यादि के वजूद के पीछे सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रकाशकों की सोच थी। असल में उनके नाम का कोई व्यक्ति था ही नहीं। प्रकाशकों द्वारा इन छद्म नामों की उपज के पीछे की वजह दरअसल यह थी कि पैसे की तंगी या लालच की वजह से उस दौर के लेखक अक्सर प्रकाशकों से पैसा एडवांस में लेने के बाद उपन्यास लिखने में असमर्थता जताते हुए मुकर जाते थे। ऐसे में अपने घाटे को कवर करने के लिए प्रकाशक किसी भी लेखक को पकड़ कर अपना उपन्यास पूरा करवाने लगे। 

 इसी किताब में कहीं लुगदी साहित्य के पतन और लगातार बंद होती विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के पीछे की वजह के लिए मनोरंजन के विभिन्न टीवी चैनलों..कंप्यूटर.. मोबाइल और इंटरनेट को ज़िम्मेदार बताया जाता दिखाई देता है तो कही अँग्रेज़ी एवं पाकिस्तान से ख़ास तौर पर मँगवाए गए उर्दू उपन्यास सीधे-सीधे चोला बदल हिंदी में छपते दिखाई देते हैं। इसी किताब में कहीं प्रेत लेखन के शहंशाह के रूप में आरिफ़ मारहवीं का नाम आता दिखाई देता है तो कहीं मनोज पॉकेट बुक्स के मनोज ट्रेड नेम के पीछे सैम्युअल अंजुम अर्शी उर्फ़ अंजुम अर्शी का नाम आता दिखाई देता है। कहीं उस्ताद लेखक के रूप में लेखक, फ़ारूक़ अर्गली का नाम लेते नज़र आते हैं तो कहीं गंभीर चेहरे के सधे लेखक के रूप में वे गोविन्द सिंह के नाम से पाठकों को रूबरू कराते दिखाई देते हैं। 

कहीं इस किताब में थ्रिलर उपन्यासों के सुपर स्टार बन चुके वेदप्रकाश शर्मा से अन्य लेखकों की ईर्ष्या और जलन की बातें पढ़ने को मिलती हैं तो कहीं ओमप्रकाश शर्मा जैसे बड़े नाम से प्रेरित हो अन्य प्रकाशक भी उन्हीं के नाम जैसे किसी अन्य शख्स की आड़ में ओमप्रकाश शर्मा के नाम से ही उन्हीं की शैली और उन्हीं के किरदारों वाले नकली उपन्यास धड़ल्ले से छापते दिखाई देते हैं।

कहीं विक्रांत जैसे करैक्टर को जन्म देने वाले कुमार कश्यप के प्रेत लेखक से असली लेखक में तब्दील होने की कहानी कही जाती दिखाई देती है। तो कहीं दवाओं के एजेंट केवल कृष्ण कालिया के ट्रेड नाम 'राजहँस' से लिख का छा जाने की बात होती नजर आती है कि उनकी लेखनी से उस दौर के अनेक लेखक इस हद तक प्रेरित हुए कि उनके लेखन की छाप फ़िल्मों तक में भी नज़र आने लगी। 

रोचक तथ्यों से भरी इस किताब को पढ़ते वक्त ज़ेहन में एक सवाल बार-बार उमड़ता दिखाई किया कि आख़िर एक आम पाठक किसी भी ऐसे व्यक्ति की आत्मकथा क्यों पढ़ना चाहेगा जिससे कि वह किसी भी भांति परिचित नहीं। ना वो कोई ऐसी जानी मानी शख्सियत या सेलिब्रिटी है कि उसके नाम का डंका पूरी दुनिया में बेशक न सही मगर कम से कम अपने देश में तो बज ही रहा हो। 


इस किताब में एक आध जगह प्रूफरीडिंग की कमी के अतिरिक्त दो जगहों पर वाक्य रिपीट होते दिखाई दिए। इसके अतिरिक्त कुछ बातें जैसे कि लेखक की बीमारी और रिश्तेदारों से जुड़ी बातों की बार-बार पुनरावृत्ति होती दिखाई दी। जिनसे बचा जा सकता था। बतौर एक सजग पाठक होने के नाते मुझे इस किताब के शुरुआती पेज थोड़े उकताहट भरे और अंतिम लगभग 100 पेज रोचकता के साथ तेज़ रफ़्तार भी पकड़ते दिखाई दिए। 


प्रेत लेखन एक ऐसा सच है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। सालों पहले से घोस्ट राइटिंग होती रही है और आने वाले समय में भी बेशक रूप बदल कर ही सही मगर होती रहेगी। ऐसे में इसमें किसी भी सच के उजागर होने से कोई सनसनी फैलने या हंगामा होने का डर नहीं। इसलिए इस किताब का शीर्षक 'प्रेत लेखन का नंगा सच' मुझे सनसनीखेज़ और बिकाऊ तो लगा मगर सार्थक करता कतई नहीं लगा। सही मायने में इस किताब का शीर्षक अगर 'प्रेत लेखन- पर्दे के पीछे का सच' या 'प्रेत लेखन की अंदरूनी कहानी' जैसा होता तो ज़्यादा सार्थक एवं विषयानुकूल होता। इसी किताब से पता चला कि पाठकों के रिस्पॉन्स को देखते हुए नयी जानकारियों भरा इसका अगला भाग भी लाया जा सकता है। ऐसे में बिना आत्मकथा वाले हिस्से के अगर किताब को सिर्फ़ कंटेंट बेस्ड फॉर्मेट में लॉन्च किया जाए तो मेरे हिसाब से किताब और ज़्यादा पाठकों तक अपनी पहुँच बनाने में कामयाब होगी।

इस जानकारी भरी 268 पृष्ठीय आत्मकथात्मक किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है नीलम जासूस कार्यालय ने और इसका मूल्य रखा गया है 275/- रुपए जो कि मुझे कंटेंट एवं क्वालिटी के नज़रिए से ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 

क्वीन- कामिनी कुसुम


बात ज़्यादा पुरानी नहीं बस उस वक्त की है जब हिंदी फिल्मों की पटकथा लेखक के रूप में स्वर्गीय कादर खान की तूती बोला करती थी। लेखन के साथ साथ वे अभिनय के क्षेत्र में इस कदर व्यस्त थे कि चाह कर भी लेखन के लिए पर्याप्त समय या तवज्जो नहीं दे पा रहे थे। कहा जाता है कि ऐसे में  इस दिक्कत से निजात पाने के लिए उन्होंने अपने अंडर कई अन्य लेखकों को काम दिया जो उन्हीं की शैली और स्टाइल में..उन्हीं के निर्देशानुसार कहानियों के परिस्थितिनुसार संवाद लिखते थे। जिनका बाद में कादर खान के नाम के साथ फिल्मों में इस्तेमाल किया गया। 

ऐसा नहीं है कि इस तरह की घोस्ट राइटिंग या प्रेत लेखन सिर्फ़ हिंदी फिल्मों के लिए ही किया गया। पहले भी अनेकों बार ऐसा कभी किसी लेखक के लिखे को संवारने अथवा सुधारने के लिए..तो कभी बड़े नेताओं के भाषण अथवा आत्मकथा को लिखने के लिए किया गया। आमतौर पर मशहूर हस्तियां, बड़े अधिकारी या राजनीतिज्ञ अपनी आत्मकथाओं, संस्मरणों अथवा लेखों इत्यादि का मसौदा तैयार करने या उन्हें सुधारने करने के लिए घोस्ट राइटर्स को नियुक्त करते हैं।

मगर असल दुविधा या परेशानी तब होती जब अपने अन्तःकरण से पूर्णतः सही होते हुए हम जो लिख या कर अथवा जी रहे होते हैं, उसे ज़माने की नज़रों से मात्र इसलिए छुपाना पड़ता है कि..लोग क्या कहेंगे? 

"कुछ तो लोग कहेंगे..लोगों का काम है कहना"

दोस्तों..आज घोस्ट राइटिंग से जुड़ी बातें इसलिए कि आज यहाँ मैं इसी विषय से जुड़े एक ऐसे उपन्यास का जिक्र करने जा रहा हूँ जिसे 'क्वीन' के नाम से लिखा है अँग्रेज़ी की प्रसिद्ध लेखिका 'कामिनी कुसुम' ने। 5 अँग्रेज़ी किताबों के बाद ये उनका पहला हिंदी उपन्यास है। 

इस उपन्यास में कहानी है उस लेखिका नव्या की जिसे उसके दो उपन्यास आ चुकने के बावजूद प्रकाशक एवं संपादक के आग्रह/दबाव पर इरोटिक यानि कि कामुकता से भरा उपन्यास लिखने के लिए कहा जाता है। शुरुआती झिझक एवं हिचकिचाहट के बाद वो इसे एक चुनौती के रूप में 'क्वीन' के छद्म नाम से सफलतापूर्वक लेखन शुरू कर तो देती है मगर..

इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है उस नव्या की जो पति के साथ अपने वैवाहिक संबंधों को ले कर इस उम्मीद में जी रही है कि उसके प्रति उदासीन   हो चुका पति एक न एक दिन वापिस लौट कर उसके पास ज़रूर आएगा। दूसरी तरफ़ इसमें कहानी है एक ऐसे पति विवान की, जिसने परिवार के दबाव में आ, ना चाहते हुए भी नव्या से शादी कर ली कि उसकी प्रेमिका रायना हमेशा के लिए उसे छोड़ विदेश जा बसी है। अब चूंकि विदेश से मोहभंग होने के बाद रायना हमेशा हमेशा के लिए वापिस लौट आयी है। तो ऐसे में अब विवान भी अपनी बीवी- बच्चे को भूल रायना में ही अपनी पूरी ज़िन्दगी..पूरी दुनिया देख रहा है। 

मुख्य पात्रों के अतिरिक्त इस उपन्यास में सहायक किरदारों के रूप में एक तरफ़ मालती देवी के रूप में एक ऐसी सास है जिनके लिए घर की इज़्ज़त से बढ़ कर कुछ भी नहीं। तो वहीं दूसरी तरफ़ आग लगाने के लिए मानवी के रूप में नव्या की एक अदद ननद भी है। साथ ही मूक प्रेमी के रूप में आदित्य का चरित्र भी है जो कभी खुल कर नव्या से अपने मन की बात नहीं कह पाया।

दिलचस्प मोड़ों से गुजरते इस सफ़र में अब देखना यह है कि..

■ नव्या और विवान के रिश्ते का क्या होगा? 

■ क्या विवान, रायना के साथ अपनी मनचाही डगर..मनचाहे सफ़र पर जा पाएगा? 

■ क्या मानवी सब कुछ जान कर भी अनजान बनी रहेगी अथवा अपने भाई या फ़िर नव्या का साथ देगी? 

■ क्या कभी आदित्य, नव्या के समक्ष अपने मन के भावों को अभिव्यक्त कर पाएगा अथवा अस्वीकार्यता को ही अपनी किस्मत मान..चुप बैठ जाएगा? 

■ क्या कभी छद्म रूप से लिखने के बजाय नव्या अपने भीतर.. सच को स्वीकार करने की हिम्मत..शक्ति एवं जज़्बा ला पाएगी? या फ़िर जीवनपर्यंत मात्र एक छद्म लेखिका ही बन कर रह जाएगी? 

कहने तो धाराप्रवाह लेखन से सुसज्जित इस उपन्यास में एक सामान्य सी कहानी है मगर इरोटिक लेखन के तड़के ने इसे और ज़्यादा मज़ेदार और पठनीय बना दिया है। इस किताब से नए लेखकों को यह सीखने में मदद मिलेगी कि कैसे सीमा में रह कर बिना वल्गर हुए भी कामुक लेखन किया जा सकता है।

कुछ एक जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ कमियां दिखाई दी जैसे कि 'स्टूल' शब्द के लिए बार बार 'टूल' लिखा नज़र आया। उम्मीद की जानी चाहिए कि लेखिका की कलम अभी हिंदी में और जादू बिखेरेती नज़र आएगी।

यूँ तो यह मनोरंजक उपन्यास मुझे किसी मित्र ने उपहार स्वरूप भेजा मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके 122 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है Red Grab Books ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए जो कि कम पृष्ठ संख्या देखते हुए मुझे थोड़ा ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई।

ज़िन्दगी 50 50- भगवंत अनमोल

जब भी कभी आपके पास किसी एक चीज़ के एक से ज़्यादा विकल्प हों तो आप असमंजस से भर.. पशोपेश में पड़ जाते हैं कि आप उनमें से किस विकल्प को चुनें? मगर दुविधा तब और बढ़ जाती है जब सभी के सभी विकल्प आपके पसंदीदा हों। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि आप मोटे ताज़े गन्नों से भरे एक खेत में खड़े हैं और आपको वहाँ से अपनी पसन्द का एक गन्ना चुनने के लिए बोल दिया जाए। तो यकीनन आप दुविधा में फँस जाऍंगे कि कौन सा गन्ना चुनें क्योंकि वहाँ आपको हर गन्ना एक से बढ़ कर एक नज़र आएगा। 

मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ तब होता है जब मैं पढ़ने के लिए अपनी संग्रहीत किताबों की तरफ़ जाता हूँ तो अक्सर पशोपेश अथवा धर्मसंकट में पड़ जाता हूँ कि उनमें से किस किताब को चुनूँ और किसको नहीं? उनमें से बहुत सी किताबों को मैंने बड़े चाव से इस उम्मीद में खरीदा होता है कि मैं जल्द से जल्द इनका पूरा लुत्फ़ उठा सकूँ। तो वहीं दूसरी तरफ़ बहुत सी अन्य किताबों को मुझे लेखकों अथवा प्रकाशकों द्वारा इस उम्मीद में प्रेमपूर्वक भेंट किया गया होता है कि मैं यथाशीघ्र उन पर अपने पाठकीय नज़रिए से कुछ टिप्पणी कर सकूँ। मगर चूंकि किताबों की फ़ेहरिस्त इतनी लंबी हो जाती है कि कई बार अच्छी किताबें भी नज़र में आने से चूक जाती हैं। 

दोस्तों..आज मैं किन्नर विमर्श से जुड़े एक ऐसे उपन्यास का यहाँ जिक्र करने जा रहा हूँ। जिसे "ज़िन्दगी 50-50" के नाम से लिखा है भगवंत अनमोल ने। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के 'बालकृष्ण शर्मा नवीन पुरस्कार 2017' से अलंकृत इस बेहतरीन उपन्यास के तीसरे संस्करण को मैंने आज से लगभग दो साल पहले 6 मार्च, 2021 में खरीदा था। पिछले दो सालों में कई बार उलटा पलटा जाने के बाद अंततः इसका नम्बर अब जा के आया लेकिन वो कहते हैं ना कि..'देर आए..दुरस्त आए' या 'जब जागो..तभी सवेरा'। आइए अब सीधे- सीधे चलते हैं इस उपन्यास की कथावस्तु की तरफ़। 

किन्नर विमर्श के नए आयाम खोलता यह उपन्यास अपने मूल में एक साथ तीन अलग अलग कहानियों के ले कर चलता दिखाई देता है। जिनमें कहानी का मुख्य पात्र, अनमोल कहीं किसी ऐसे बड़े भाई की भूमिका निभाता दिखाई देता है जिसका छोटा भाई अपने शारीरिक अधूरेपन की वजह से घर-बाहर हर जगह प्रताड़ित..शोषित और अपमानित होता दिखाई देता है मगर वो (अनमोल) चाह कर भी उसकी कोई मदद नहीं कर पाता। 

दूसरी कहानी में वह एक ऐसे पिता की भूमिका निभाता नज़र आता है, जिसका इकलौता बेटा, सूर्या भी उसके(अनमोल के) छोटे भाई हर्षा की तरह शारीरिक कमी का शिकार है। ऐसे में अब देखना यह है कि क्या अनमोल अपने अधूरे बेटे को देख कर अपने पिता, जिन्होंने समाज में अपनी मूँछों के नीचे हो जाने के डर से अपने दुधमुँहे बेटे को ज़हर दे मार डालने का प्रयास किया, की तरह क्रूर रवैया अपनाएगा या फ़िर समाज की परवाह ना करते हुए अपने बेटे के सामान्य जीवन जीने में संबल बन कर उसे प्रेरित करेगा।

 इसी उपन्यास की तीसरी कहानी में अनमोल एक ऐसे प्रेमी के रूप में सामने आता है जो लाख चाहने के बावजूद भी, चेहरे पर जन्मजात दाग़ ले कर पैदा हुई अपनी दक्षिण भारतीय प्रेमिका, अनाया को अपना नहीं पाता कि उससे शादी कर के वो, अपने  पहले से ही दुखी पिता को और ज़्यादा दुखी नहीं करना चाहता था कि वो उनकी जाति, धर्म एवं समाज की नहीं है। 

कभी वर्तमान तो कभी फ्लैशबैक के बीच घूमते इस उपन्यास में कहीं आजकल के युवा इंजीनियरों और उसकी वीकेंड पर होने वाली दारू पार्टियों की बात होती नज़र आती है। तो कहीं किसी शारीरिक अपंगता की वजह से ही किसी के साथ घर-बाहर दुर्व्यवहार होता नज़र आता है। कहीं उपन्यास शारीरिक विकलांगता के बजाय मानसिक विकलांगता के अधिक खतरनाक होने की बात करता नज़र आता है। तो कहीं इसी उपन्यास में किसी का इस हद तक दैहिक शोषण होता दिखाई देता है कि वो आहत हो.. उस समाज/ परिवार को ही छोड़ने का फैसला कर लेता है जो उसका साथ देने के बजाय मात्र मूक दर्शक बन बस तमाशा देखता रहा। 

इस उपन्यास में कहीं कोई बाप अपनी ही औलाद को बसों इत्यादि में कमर मटकाते हुए ताली बजा भीख माँगते देख शर्म से पानी पानी होता दिखाई देता है। तो कहीं कोई बाप जीवन के हर छोटे बड़े फ़ैसले में अपने बेटे के साथ खड़ा नज़र आता है। 
इसी किताब में कहीं कोई अपनी तमाम शर्तों के साथ व्यवहारिक हो प्रेम करता दिखाई देता है तो कहीं कोई बिना शर्त संपूर्ण समर्पण करता नज़र आता है। कहीं इसमें कोई अपने पिता के दो मीठे बोलों को तरसता दिखाई देता है तो कहीं कोई पिता के वजूद से ही नफ़रत करता दिखाई देता है।

इसी उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ कोई इस वजह से विवाह नहीं करता कि जिसे वो चाहती है, वो उसका नहीं हो सकता। तो वहीं दूसरी तरफ़ कोई किसी और के साथ इस वजह से विवाह के बंधन में बंध जाता है कि जिसे वो चाहता है, उससे उसकी शादी नहीं हो सकती।

प्रभावी शैली में लिखे गए इस उपन्यास के शुरुआती कुछ पृष्ठ थोड़ी ढिलमुल करने के बाद अपनी पकड़ इस प्रकार बना लेते हैं कि अंत तक आते आते संवेदनशील पाठकों की भावुक हो..आँखें नम हो उठती हैं।

प्रूफरीडिंग की कमी के तौर पर मुझे पेज नंबर 7 पर लिखा दिखाई दिया कि एक तरफ हाथ में पकड़े फोन पर नज़र थी और दूसरी तरफ कंप्यूटर का माउस अपने बैग में डाल रहा था।

इससे पहले यहाँ उपन्यास में नायक लैपटॉप बैग में डालता दिखाया गया है जबकि अब उसी के लिए कंप्यूटर (की माउस) शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है जो कि पढ़ने में थोड़ा अजीब लग रहा है। 

 इस उम्दा उपन्यास के 208 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है राजपाल एण्ड सन्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 265/- रुपए। किंडल सब्सक्राइबर्स के लिए यह फ्री में उपलब्ध है तथा अमेज़न पर डिस्काउंट के बाद 184/- रुपए में मिल रहा है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 


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उठा पटक- प्रभुदयाल खट्टर


आजकल की फ़िल्मों या कहानियों के मुकाबले अगर 60-70 के दशक की फिल्मों या कहानियों को देखो तो उनमें एक तहज़ीब..एक अदब..एक आदर्शवादिता का फ़र्क दिखाई देता है। आजकल की फ़िल्मों अथवा नयी हिंदी के नाम पर रची जाने वाली कहानियों में जहाँ एक तरफ़ भाषा..संस्कृति एवं तहज़ीब को पूर्णरूप से तिलांजलि दी जाती दिखाई देती है तो वहीं दूसरी तरफ़ पहले की फिल्मों एवं कहानियों में एक तहज़ीब वाली लेखन परंपरा को इस हद तक बनाए रखा जाता था कि उन फिल्मों के खलनायक या वैंप किरदार भी अपनी भाषा में तमीज़ का प्रयोग किया करते थे कि अगर ऐसा न किया गया तो उन्हें दर्शकों एवं पाठकों द्वारा स्वीकार करने के बजाय पूर्ण रूप से नकार दिया जाएगा।

दोस्तों..आज मैं उसी 60-70 की तहज़ीब वाली मर्यादित भाषा शैली में लिखे गए एक ऐसे कहानी संकलन की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'उठा पटक ' के नाम से लिखा है प्रभुदयाल खट्टर ने। बतौर स्क्रिप्ट राइटर एवं स्वर योगदान के क्षेत्र में दूरदर्शन और आल इंडिया रेडियो के लिए वर्षों तक अपनी सेवाएँ दे चुके प्रभुदयाल खट्टर जी की अब तक कई किताबें आ चुकी हैं। 

उनके इस कहानी संकलन की किसी कहानी में जहाँ एक तरफ़ सरकारी दफ़्तर में काम करने वाला विवेक जब अपनी बहन के रिश्ते की बात अपने सहकर्मी दोस्त राजेश से करता है तो वह उसकी दहेज ना लेने की शर्त पर चौंक जाता है।  क्या राजेश में कोई कमी या खोट था जिसकी वजह से वो शादी में दहेज नहीं लेना चाहता। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहने में कॉलेज में एक साथ पढ़ चुके नंदू और नंदिता की शादी करने से नंदू की माँ इस वजह से इनकार कर देती है कि नंदिता एक स्त्री हो कर पुलिस की मारधाड़ वाली नौकरी करती है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में आठ साल एक दूसरे से दूर रहने के बाद एक दिन अचानक आरती को समर का पत्र मिलता है तो पुरानी यादें फ़िर से ताज़ा होने लगती हैं कि किस तरह पिता के मना करने की वजह से उसका विवाह समर से नहीं हो पाया था। अब जहाँ एक तरफ़ आरती ने अब तक शादी नहीं की..वहीं दूसरी तरफ़ अमर शिखा से शादी कर तीन बच्चों का बाप बन चुका है और अब शिखा से अलग हो आरती को फ़िर से अपनाना चाहता है। अब देखना यह है कि आरती, समर से विवाह करने के लिए तैयार होती है अथवा उस युवक से शादी करने के लिए हाँ करती है जिससे उसके पिता 8 वर्ष पहले उसकी शादी करना चाहते थे। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ कमला अपने बेटे की शादी वंदना से तो कर तो देती है मगर अपनी उम्मीद से कम दहेज पा इस हद तक बौखला  उठती है कि अपनी ननद के साथ मिल कर अपनी ही बहु को जला कर मार डालने तक की साजिश रचने से भी नहीं चूकती। तो वहीं एक अन्य कहानी में लाला हजारीलाल के यहाँ नौकरी करने वाला सोमनाथ उनकी नौकरी छोड़ रेलवे स्टेशन पर इस वजह से कुलीगिरी करने लगता है कि लाला उसे अपनी बेटियों को ज़्यादा न पढ़ाने की सलाह दे रहा था। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में बंसी की मुलाकात अचानक अपने बचपन के दोस्त मेवा से होती है। जिसमें मेवा, अपने 8 वर्षीय बेटे का बंसी की 5 वर्षीया बेटी के साथ उनके बड़े होने पर विवाह करने का वचन देता है। उसी रात रसोई में अचानक लगी आग में झुलस कर बंसी की मौत हो जाती है। अब देखना ये है कि बच्चों के बड़े होने पर मेवा क्या अपने किए वादे को निभाएगा अथवा बंसी की पत्नी की कम हैसियत के बारे में सोच अपने बात से मुकर जाएगा? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में अणिमा के पिता के इनकार के बाद निराश हो दिल्ली छोड़ कर जा चुका अमर अब पाँच सालों बाद वापिस लौटने पर पाता है कि पिता की ज़िद पर जबरन ब्याह दी गयी अणिमा, जो अब एक तीन वर्षीय बेटी की माँ है,  का अब अपने शक्की पति से तलाक हो चुका है। बच्ची उस वक्त सदमे से ग्रस्त हो अस्पताल पहुँच जाती है जब उसे पता चलता है कि उसके नाना, उसे अनाथ आश्रम में भेज कर उसकी मॉ यानी कि अपनी बेटी की फ़िर से कहीं और शादी करवाना चाह रहे हैं। अब देखना ये है कि क्या अमर यह सब मूक दर्शक बन कर चुपचाप देखता रहेगा अथवा..

इसी संकलन की एक अन्य कहानी आठ महीने के दांपत्य जीवन के बाद विधवा हो चुकी आनंदी के माध्यम से इस बात की तस्दीक करती नज़र आती है कि एक न एक दिन हम सभी को मोह माया के बन्धनों से मुक्त हो कर अंततः अपनी मंज़िल..अपनी मुक्ति को पाना है। तो वहीं एक अन्य कहानी दहेज लोभियों के बुरे नतीजे की बात करती नज़र आती है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ एक साल पहले मोटरसाइकिल एक्सीडेंट में मृत्यु प्राप्त कर चुके मन्नू के नाम जब उसके दोस्त का पत्र और शादी का निमंत्रण आता है तो हैरान होती माँ भावुक हो उठती है कि उसकी शादी उसी लड़की से हो रही है जिससे वो खुद अपने बेटे मन्नू का विवाह करना चाहती थी। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में अविवाहित अणिमा परेशान हालात में  अपनी रूममेट सुनंदा को बताती है कि वह राजेश के बच्चे की माँ बनने वाली है और इस ख़बर से बेख़बर राजेश शहर में नहीं है। राजेश के वापिस लौट आने पर सुनंदा इसकी ख़बर राजेश को देने के लिए उसके घर जाती है तो वहाँ राजेश के बैडरूम में उसके साथ किसी अन्य युवती को कपड़े पहनते हुए पा चुपचाप वापिस लौट जाती है। क्या सुनंदा इस बात की ख़बर अणिमा को देगी अथवा अणिमा के गर्भवती होने की वजह से चुपचाप मौन धारण कर लेगी? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़  स्त्री..पुरुष में एक जैसे कार्य के लिए एक जैसे वेतन की माँग करती नज़र आती है तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में एक सेल्स गर्ल महिलाओं के प्रति भद्दी टिप्पणियों करने वालों के ख़िलाफ़ अन्य युवतियों को एकजुट करती नज़र आती है। 

इसी संकलन की एक कहानी में मनीषा के गर्भवती होने पर उसकी सास अल्ट्रासाउंड करवाने का फ़रमान सुना देती है कि उन्हें लड़की नहीं बल्कि लड़का चाहिए। अब देखा ये है कि क्या मनीषा अपने ससुराल वालों की बातों में उनकी बात मान लेती है अथवा उनके विरोध के काँटों भरे रास्ते पर अपने कदम बढ़ा देती है। 

पाठकीय नज़रिए से इस संकलन की कुछ कहानियाँ मुझे थोड़ी सपाट बयानी करती हुई दिखाई दीं तो कुछ कहानियाँ अपने आप में संपूर्ण होने के बजाय महज़ दृश्य मात्र भी लगीं। जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का इस्तेमाल ना किया जाना थोड़ा खला। 
  

पेज नंबर 47 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'अगले दिन शाम को ड्यूटी से लौटने पर उसे समर का व्हाट्सएप मैसेज मिला।  उसने पढ़ा, लिखा था, "जन्मदिन मुबारक हो, तुम्हारा रात का खाना मेरी तरफ़ से आठ बजे आऊँगा।" ' 

इसके बाद पेज नंबर 48 यानी कि अगले पेज पर लिखा दिखाई दिया कि..

' "हैप्पी बर्थडे।" समर दरवाज़े पर फूलों का गुलदस्ता लिए खड़ा था।

"थैंक्यू।" आरती ने कहा और फूलों का गुलदस्ता समर के हाथ से ले लिया।"

" कुछ लोगे?" आरती ने पूछा। 

"नहीं, नहीं, आज बाहर चलेंगे। तुम चलोगी?" समर ने पूछा तो आरती जैसे असमंजस में पड़ गई।'

अब यहाँ ये सवाल उठता है कि जब समर ने अपने व्हाट्सएप मैसेज में आरती को जन्मदिन की मुबारकबाद देने के बाद कह ही दिया था कि..

"तुम्हारा रात का खाना मेरी तरफ़ से, आठ बजे आऊँगा।" 

तो अब रात को आठ बजे आने के बाद फ़िर से पूछने की क्या ज़रूरत थी कि..

"तुम चलोगी?"

पेज नंबर 76 की एक कहानी 'रुलाई' में पाँच सालों बाद वापिस दिल्ली लौटे अमर की मुलाकात अपने दोस्त सतीश के घर में गुड्डी नाम की एक छोटी सी बच्ची से होती है। जो कभी उसकी प्रेमिका रह चुकी अणिमा की बेटी है। अणिमा के पिता की नज़र में अमर की हैसियत उनके जैसे अमीर परिवार की न होने के कारण उन दोनों की शादी नहीं हो पायी थी। अब अणिमा का अपने पति से तलाक हो चुका है और उसके पिता गुड्डी को अनाथ आश्रम भेजने की तैयारी कर रहे हैं। इस आघात से बच्ची डिप्रेशन में आ..अस्पताल पहुँच चुकी है।

ऐसे में अमर अस्पताल पहुँच गुड्डी को गोद लेने का प्रस्ताव रखता है। जिससे खुश हो कर अणिमा अपने पिता के विरोध के बावजूद भी पेज नम्बर 76 में कहती दिखाई देती  है कि..

'अणिमा दृढ़ हो कर, बाबूजी की अवज्ञा करते हुए सतीश से बोली,  "मैं गुड्डी की माँ हूँ, आप गुड्डी को गोद ले सकते हैं। लेकिन आपको मुझे यानी गुड्डी की माँ को, एक आया की तरह गुड्डी के साथ रहने की अनुमति देनी होगी।" 

सतीश की आँखों में आँसू आ गए। वह भर्राए स्वर में बोला, "अणिमा तुम आया की तरह नहीं, मेरी पत्नी बन कर भी रह सकती हो, अगर मंज़ूर हो।"

"मंज़ूर है।' अणिमा की रुलाई फूट पड़ी और वह सतीश के गले लग कर,फफक फफक कर रोने लगी।'

उपरोक्त सभी संवाद अणिमा ने अमर से कहने थे लेकिन वह इन्हें सतीश यानी कि अपने भाई से कहती नज़र आ रही है। जो कि सही नहीं है। 


धारा प्रवाह शैली में लिखा गया यह कहानी संकलन मुझे लेखक की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि बढ़िया क्वालिटी में छपे इस 182 पृष्ठीय कहानी संकलन के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है शारदा पब्लिकेशन, दिल्ली ने और इसका मूल्य रखा गया है 300/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

CIU क्रिमिनल्स इन यूनिफॉर्म- संजय सिंह/ राकेश त्रिवेदी


आजकल जहाँ एक तरफ़ बॉलीवुड की फिल्में अपनी लचर कहानी या बड़े..महँगे..नखरीले सुपर स्टार्स की अनाप शनाप शर्तों के तहत जल्दबाज़ी में बन बुरी तरह फ्लॉप हो.. धड़ाधड़ पिट रही हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ कसी हुई कहानी के साथ मंझे हुए अभिनय एवं निर्देशन के बल पर अनजान अथवा अपेक्षाकृत नए कलाकारों को ले कर बनीं वेब सीरीज़ लगातार हिट होती जा रही हैं। 

कहने का तात्पर्य ये कि बढ़िया दमदार अभिनय एवं निर्देशन के अतिरिक्त लेखन की परिपक्वता भी किसी फिल्म या वेब सीरीज़ के हिट होने के पीछे का एक अहम कारक होती है। दोस्तों..आज वेब सीरीज़ से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं वेब सीरीज़ की ही तर्ज़ पर लिखे गए एक तेज़ रफ़्तार उपन्यास 'CIU- क्रिमिनल्स इन यूनिफ़ॉर्म' का जिक्र करने जा रहा हूँ। जिसे लिखा है क्राइम इन्वेस्टिगेशन पत्रकारिता में दो दशक बिता चुके लेखकद्वय  संजय सिंह और राकेश त्रिवेदी ने।।

इस लेखकद्वय जोड़ी की ही लिखी कहानी पर जल्द ही सोनी लिव के ओटीटी प्लैटफॉर्म पर एक वेब सीरीज़ आ रही है। जो बहुचर्चित स्टैम्प पेपर घोटाले के मुख्य अभियुक्त अब्दुल करीम तेलगी के जीवन पर बनी है। आइए..अब सीधे सीधे चलते हैं उपन्यास की मूल कहानी और उससे जुड़ी बातों पर। 

हालिया ताज़ातरीन घटनाओं को अपने में समेटे इस उपन्यास में मूलतः कहानी है देश के सबसे अमीर कहे जाने वाले व्यवसायी 'कुबेर' के बहुचर्चित आवास 'कुबेरिया' के बाहर एक लावारिस गाड़ी के मिलने की। जिसमें कुबेर के नाम धमकी भरे पत्र एवं कुछ अन्य चीज़ों के साथ बिना डेटोनेटर के जिलेटिन की बीस छड़ें भी मौजूद थीं। 
 
कभी आतंकवाद तो कभी माफ़िया एंगल के बीच झूझती इस चौंकाने वाली घटना में पेंच की बात ये है कि बिना डेटोनेटर के जिलेटिन की छड़ी किसी काम की अर्थात विस्फ़ोट करने के काबिल नहीं। लेकिन अगर ऐसा था इस गाड़ी को वहाँ छोड़.. सनसनी या अफरातफरी फैलाने का असली मकसद..असली मंतव्य क्या था? 

केन्द्र और राज्य सरकार के बीच की रस्साकशी और आपसी खींचतान का उदाहरण बनी इस घटना में केस की तहकीकात से जुड़ी तफ़्तीश का जिम्मा काफ़ी जद्दोजहद और लंबी बहस के बाद राज्य सरकार की इकाई CIU के जिम्मे आता है। जिसका हैड असिस्टेंट पुलिस इंस्पेक्टर यतीन साठे है। जो खुद  17 साल सस्पैंड रहने के बाद ख़ास इसी केस के लिए बहाल हुआ है। मगर यतीन साठे स्वयं भी तो दूध का धुला नहीं। 

इस उपन्यास में कहीं सरकारी महकमों की आपसी खींचतान अपने चरम पर दिखाई देती है तो कहीं नेशनल सिक्योरिटी, पाकिस्तान, आई एस आई और इस्लामिक मिलिटेंट्स के नाम पर सरकार एवं पुलिस द्वारा देश को बरगलाया जाता दिखाई देता है। इसी उपन्यास में कहीं मौकापरस्त पुलिस का गठजोड़ सत्ता पक्ष के साथ तो कहीं विपक्ष के साथ होता नज़र आता है।

इसी उपन्यास में कहीं करोड़ों रुपयों की घूस दे कर पुलिस की बड़ी पोस्ट्स को हथियाया जाता दिखाई देता है। तो कहीं कोई पुलिस का नामी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट नौकरी छोड़ पैसे..पॉवर और शोहरत के लालच में चुनाव लड़ता नज़र आता है। इसी किताब में कही किसी संदिग्ध को पुलिस अमानवीय तरीके से टॉर्चर करती दिखाई देती है। तो कहीं एजेंसियों की कोताही से असली मुजरिमों के बजाय समान नाम वाले निर्दोष प्रताड़ित होते नज़र आते हैं । 

इसी उपन्यास में कहीं दफ़्तरी सबूतों का इस्तेमाल अपने निजी फ़ायदे के लिए होता दिखाई देता है तो कहीं शक की बिनाह पर मातहत ही घर का भेदी बन अपने अफ़सर की लंका ढहाता दिखाई देता है।
इसी किताब में कहीं पुलिस महकमे में आपसी खींचतान और पावर बैलेंस की राजनीति होती दिखाई देती है तो कहीं खुद को फँसता पा बड़े अफ़सरान अपने मातहत को बलि का बकरा बनाते दिखाई देते हैं। कहीं अपनी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के चलते मीडिया और पुलिस की आपसी खुंदक सर उठाए खड़ी नज़र आती है। तो कहीं बड़े नेताओं और पुलिसिया शह पर अवैध वसूली का खेल बड़े स्तर पर साढ़े हुए ढंग से खेला जाता दिखाई देता है। 

इसी किताब में कही गहन जाँच के नाम पर यतीन साठे जैसे राज्य सरकार के पुलिस अफ़सर को एनआईए जैसी केंद्रीय एजेंसी के अफ़सर सरेआम ज़लील ..बेइज़्ज़त कर प्रताड़ित करते नज़र आते हैं।

इसी उपन्यास में कहीं अपने फ़ायदे के चलते सीनियर अफसरों के ओहदे और रुतबे को दरकिनार कर छोटे अफ़सर को सभी महत्त्वपूर्ण केसेज़ का हैड बनाया जाता दिखाई देता है। तो कहीं कोई जॉइंट कमिश्नर रैंक के अफ़सर अपने ही कमिश्नर के ख़िलाफ़ अपने मन में दबी भड़ास राजनैतिक आकाओं के आगे उजागर करते दिखाई देते हैं। 

इसी किताब में कहीं नहले पर दहले की तर्ज़ पर चल रही जाँच में लंबी तफ़्तीश के बाद केन्द्र सरकार की एजेंसियां पाती हैं कि उस गाड़ी को लावारिस छोड़ने वाला स्वयं CIU का हैड यतीन साठे ही था। क्या महज़ यतीन साठे अकेला ही इस सारे काँड का मास्टर माइंड था या फ़िर इस पूरे षड़यंत्र का वह एक छोटा सा मोहरा मात्र था? यह सब जानने के लिए तो आपको इस कदम कदम पर चौंकाते तेज़ रफ़्तार  उपन्यास को पढ़ना होगा। 

■ प्रूफरीडिंग की के रूप में मुझे पेज नंबर 52 की शुरुआत में बोल्ड हेडिंग में 2004 लिखा दिखाई दिया। उसके तुरंत बाद लिखा दिखाई दिया कि..

'बुलावा आने पर वह तुरंत निकला था'

यहाँ लगता है कि ग़लती से कुछ छपने से रह गया है क्योंकि इस वाक्य का कोई मतलब नहीं निकल रहा है। 

■ इस उपन्यास के चैप्टर नंबर 10 के पेज नम्बर 175 में एटीएस अफसर नित्या शेट्टी आईपैड पर स्टेशन के सीसीटीवी में यतीन साठे के चेहरा, सिर ढंक कर जाने और लोकल ट्रेन में सवार होने के फुटेज होम मिनिस्टर सरदेशपांडे को दिखाते हुए उन्हें पूरे घटनाक्रम के बारे में बताता है कि सब कुछ किस प्रकार घटा।

इसी घटनाक्रम के दौरान नित्या शेट्टी बताता है कि..

'साठे एक बार फिर से हंसमुख को CIU के ऑफिस में बुलाता है। जहाँ साठे समेत कुछ पूर्व और मौजूदा एनकाउंटर स्पेशलिस्ट मिल कर हंसमुख पर भारी दबाव बनाते हैं। बदहवास हंसमुख कुछ मिनटों के लिए बाहर आता है तब वह इस योजना के बारे में अपने आप से बड़बड़ा रहा होता है, जिसे CIU ऑफिस के बाहर बैठा एक बार मालिक सुन लेता है। इस बार मालिक को हफ़्ता देने के लिए साठे ने बुलाया था और वह बाहर बैठा इंतजार कर रहा था। हंसमुख बड़बड़ा रहा होता है कि वह क्यों अपने सिर पर झूठी ज़िम्मेदारी ले जब उसने कुछ किया नहीं और उस पर ज़बरदस्ती दबाव डाला जा रहा है। इस बात की पुष्टि बाद में उस बार मालिक ने एटीएस से की।'


यहाँ लेखक द्वय के अनुसार एक बार मालिक ने हसमुख की बड़बड़ाहट सुनी और फ़िर इस बात की पुष्टि एटीएस वालों के सामने भी की जबकि पूरा उपन्यास फ़िर से खंगालने के बावजूद भी मुझे ऐसा कोई दृश्य देखने को नहीं मिला।

हालांकि 269 पृष्ठीय यह रोचक उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके पेपरबैक संस्करण को छापा है आर.के.पब्लिकेशन, मुंबई ने और इसका मूल्य रखा गया है 395/- रुपए जो कि मुझे ज़्यादा लगा। आम हिंदी पाठकों तक किताब की पहुँच बनाने के लिए ज़रूरी है कि किताब के दाम आम आदमी की जेब के हिसाब से ही रखे जाएँ। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखकद्वय एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 

कुछ अनकही-

कुछ किताबें अपने आवरण से ही इस कदर आकर्षित करती हैं कि आप उनके मोहपाश से बच नहीं पाते। नीना गुप्ता की इस आत्मकथा के साथ भी ऐसा ही हुआ। कुछ हफ़्ते पहले साहित्य अकादमी में लगे पुस्तक मेले में पेंग्विन के स्टॉल पर इसके बारे में पता किया तो उपलब्ध नहीं थी..अगले दिन आने के लिए कहा गया। अगले दिन पहुँचा तो भी किताब पहुँची नहीं थी। एक ही हफ़्ते में कम से कम तीन चक्कर लगे लेकिन तीनों ही बार मायूस हो कर लौटना पड़ा। इसके बाद साहित्य आजतक के तीन दिवसीय मेले में भी ये किताब उपलब्ध नहीं थी। अंततः इस किताब को 25 फरवरी से लगने वाले पुस्तक मेले में लेने का फ़ैसला किया मगर कमबख्त इस दिल का क्या करें? बार बार किताब की तरफ़ खींचता था। अमेज़न की शॉपिंग लिस्ट में बहुत दिनों पड़ी ये किताब हर बार मुँह चिढ़ा कर हौले से हँस देती कि.. कब तक बकरे की माँ अपनी ख़ैर मनाएगी। 
कंबख्त खुद को अमेज़न से खरीदवा के ही मानी। अब देखना ये है कि कब इसे पढ़ने का नम्बर आता है और ये मेरी उम्मीदों पर खरी उतरती है कि नहीं। 

😊😊😊

वो फ़ोन कॉल- वंदना बाजपेयी

जब भी हम किसी लेखक या लेखिका की रचनाओं पर ग़ौर करते हैं तो पाते है कि बहुत से लेखक/लेखिकाएँ अपने एक ही सैट पैटर्न या ढर्रे पर चलते हुए..एक ही जैसे तरीके से अपनी रचनाओं का विन्यास एवं विकास करते हैं। उनमें से किसी की रचनाओं में दृश्य अपने पूरे विवरण के साथ अहम भूमिका निभाते हुए नज़र आते हैं। तो किसी अन्य लेखक या लेखिका की रचनाओं में श्रंगार रस हावी होता दिखाई देता है। कुछ एक रचनाकारों की रचनाएँ  बिना इधर उधर फ़ालतू की ताक झाँक किए सीधे सीधे मुद्दे की ही बात करती नज़र आती हैं। खुद मेरी अपनी स्वयं की रचनाओं में दो या तीन से ज़्यादा किरदार नहीं होते जो संवादों के ज़रिए अपनी बात को पूरा करते हैं। 

ऐसे में अगर कभी आपको विविध शैलियों में लिखने वाले किसी रचनाकार की रचनाएँ पढ़ने को मिल जाएँ तो इसे आप सोने पे सुहागा समझिए। 
दोस्तों.. आज मैं अपने आसपास के माहौल से प्रेरित होकर लिखी गई रचनाओं के एक ऐसे कहानी संकलन की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'वो फ़ोन कॉल' के नाम से लिखा है वंदना बाजपेयी ने।

इस संकलन की प्रथम कहानी में अपने अवसाद ग्रसित भाई, विवेक को पहले ही खो चुकी रिया के पास जब एक रात अचानक किसी अनजान नम्बर से मदद की चाह में एक अनचाही कॉल आती है तो वो खुद भी बेचैन हो उठती है कि दूसरी तरफ़ कोई अनजान युवती, आत्महत्या करने से पहले उससे अपना दुःख..अपनी तकलीफ़.. अपनी व्यथा सांझा करना चाहती है। ऐसी ही मानसिक परिस्थितियों को अपने घर में स्वयं देख चुकी रिया क्या ऐसे में उसकी कोई मदद कर पाएगी?

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में तरह-तरह के व्यंजन बनाने में निपुण ज्योति चाहती है कि उसका पति उसके बनाए खाने की तारीफ़ करे मगर उसे ना अपने पति से और ना ही बेटे से कभी किसी किस्म की तारीफ़ मिलती है। कहानी के अंत तक आते आते उसे अपने बनाए खाने की तारीफ़ मिलती तो है मगर..

तो वहीं एक अन्य कहानी उन मध्यमवर्गीय परिवारों की उस पित्तात्मक सोच को व्यक्त करती नज़र आती है जिसके तहत बेहद ज़रूरी होने पर भी घर की स्त्रियों को कभी झिझक..कभी इज़्ज़त तो कभी आत्म सम्मान के नाम पर बाहर काम कर के कमाने के लिए अनुमति नहीं दी जाती है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की प्रेरणा देती अपने अंत तक पहुँचते पहुँचते भावुक कर देती है। तो वहीं एक अन्य कहानी छोटे शहर से दिल्ली में नौकरी करने आयी उस वैशाली की बात करती है जो ऑफिस में अपने बॉस द्वारा खुद को लगातार घूरे जाने से परेशान है। नौकरी छोड़ वापिस अपने शहर लौटने का मन बना चुकी वैशाली क्या इस दिक्कत से निजात पा पाएगी या फ़िर इस सबके के आगे घुटने टेक यहीं की हो कर रह जाएगी? 

इसी संकलन की एक अन्य रचना में लेखिका ने विभिन्न पत्रों के माध्यम से एक माँ के अपने बेटे के साथ जुड़ाव और उसमें आए बदलाव को बेटे के जन्म से ले कर उसके (बेटे के) प्रौढ़ावस्था तक पहुँचने की यात्रा के ज़रिए वर्णित किया है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में माँ समेत सभी बच्चे पिताजी के गुस्से की वजह से सहमे और डरे हुए हैं कि माँ, अपनी बार बार भूलने की आदत की वजह से, इस बार भी अपने हाथ की दोनों अँगूठियों को कहीं रख कर भूल कर चुकी है। जो अब एक हफ़्ते बाद भी लाख ढूँढने के बावजूद भी नहीं मिल रही हैं। क्या माँ समेत सभी बच्चों की उन्हें ढूँढने की सारी मेहनत..सारी कवायद रंग लाएगी अथवा अब उन अँगूठियों को इतने दिनों बाद भूल जाना ही बेहतर होगा? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी  एक ऐसे दंपत्ति की बात करती दिखाई देती देती है जो, समाज में दिखावे के लिए खरीदे गए, बड़े फ्लैट और महँगी गाड़ी इत्यादि की ई.एम.आई भरने की धुन में दिन रात ओवरटाइम कर पैसा तो कमा रहे हैं। मगर इस चक्कर में वे अपने इकलौते बेटे तक को भी उसकी परवरिश के लिए ज़रूरी समय और तवज्जो नहीं दे पाते। नतीजन टी.वी, मोबाइल और लैपटॉप  के ज़रिए अपने अकेलेपन से जूझ रहा उनका बेटा एक दिन आत्महत्या को उकसाती  एक भयावह वीडियो गेम के चंगुल में फँसता चला जाता है। अब देखना ये है कि क्या समय रहते उसके माँ-बाप चेत पाएँगे अथवा अन्य हज़ारों अभिभावकों की तरह वे भी अपने बच्चे की जान से हाथ धो बैठेंगे? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी ऑर्गेनिक फल-सब्ज़ियों से होती आजकल के तथाकथित फ़टाफ़ट वाले डिस्पोजेबल प्यार के ज़रिए इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि कई बार हम सब कुछ पास होते हुए ख़ाली हाथ होते हैं। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ प्रतिशोध की ज्वाला में जलते हुए उस सफ़ल व्यवसायी नीरज की बात करती है जिसे उसके बचपन में दादा ने अपने बेटे की अचानक हुई मौत के बाद ये कहते हुए उसकी माँ के साथ घर से दुत्कार कर निकाल दिया था कि वो उसके बेटे को खा गयी और ये एक नाजायज़ औलाद है। तो वहीं एक अन्य कहानी घर भर के सारे काम करती उस छोटी बहू, राधा की बात करती है जिसकी सौतेली माँ और पिता ने उसे , उसके ब्याह के बाद बिल्कुल भुला ही दिया है। घर में बतौर किराएदार रखे गए कुंवारे जीवन की निस्वार्थ भाव से मदद करने की एवज में उस पर घर की जेठ-जेठानियों द्वारा झूठे लांछन लगाए तो जाते हैं मगर अंततः सच की जीत तो हो कर रहती है। 

इसी संकलन की एक कहानी एक ऐसी नयी लेखिका की व्यथा व्यक्त करती नज़र आती है जो एक तरफ़ अपनी रचनाओं के लगातार अस्वीकृत होने से परेशान है तो दूसरी तरफ़ लोगों की साहित्य के प्रति अरुचि के चलते फुटपाथ पर रद्दी के भाव बिकती साहित्यिक किताबों को देख कर टूटने की हद तक आहत है। 

इस संकलन की एक आध कहानी मुझे थोड़ी फिल्मी लगी। कुछ कहानियाँ जो मुझे ज़्यादा बढ़िया लगी। उनके नाम इस प्रकार हैं।

*वो फ़ोन कॉल
*तारीफ़
*अम्मा की अँगूठी
*ज़िन्दगी की ई.एम.आई
*बददुआ
*वज़न

इस कहानी संकलन की जो कॉपी मुझे पढ़ने को मिली, उसमें बाइंडिंग के स्तर पर कमी दिखाई दी कि पेज एक तरतीब में सिलसिलेवार ढंग से लगने के बजाय अपने मन मुताबिक आगे पीछे लगे हुए दिखाई दिए जैसे कि पेज नम्बर 52 के बाद सीधे पेज नम्बर 65 और 68 के बाद 77 दिखाई दिया। इसके बाद पेज नम्बर 80 के बाद पेज नम्बर 61 लगा हुआ दिखाई दिया। ठीक इसी तरह आगे भी आगे के पेज पीछे और पीछे के पेज आगे लगे हुए दिखाई दिए। जिस पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है। 

वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का इस्तेमाल ना किया जाना थोड़ा खला। प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी काफ़ी जगहों पर 'कि' की जगह पर 'की' लिखा हुआ नज़र आया। इसके अतिरिक्त पेज नंबर 50 पर लिखा दिखाई दिया कि..

एक दिन निशा की एक सहेली उससे मिलने आयी और छोटे से फोन पर फेसबुक करते हुए बोली'

यहाँ निशा की सहेली ने निशा को छोटे से फोन पर फेसबुक करते हुए देख कर बोला है यह वाक्य बोला है जबकि वाक्य पढ़ने से ऐसा लग रहा है जैसे निशा की सहेली ने ही छोटे फोन का इस्तेमाल किया है जबकि ऐसा नहीं है। इसलिए यह वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..

'एक दिन निशा की एक सहेली उससे मिलने आयी और उसे छोटे से फोन पर फेसबुक करते हुए देख बोली'


पेज नंबर 122 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'मजाल है दफ़्तर जाने में किसी को देर ना हो जाए'

यहाँ घर की छोटी बहू के काम की पाबंद होने की बात कही जा रही है लेकिन ये वाक्य इसी बात को काटता दिखाई दिया। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'मजाल है दफ़्तर जाने में किसी को देर हो जाए' 

इसी संकलन की एक कहानी का प्रसंग मुझे तथ्यात्मक रूप से सही नहीं लगा जिसमें पति की अचानक हुई मृत्यु के बाद अपने पाँच वर्षीय बेटे के भविष्य की चिंता में उसे ले कर जब उसकी माँ अपने गुस्सैल ससुर के पास जाती है। तो उनके अंतरजातीय विवाह से नाराज़ उसका ससुर उसे व उसके बेटे यानी कि अपने पोते को ये कह कर दुत्कारते हुए भगा देता है कि "वो उसके बेटे को खा गयी है और ये उसकी नहीं बल्कि किसी और की नाजायज़ औलाद है।" अपनी माँ को रोता गिड़गिड़ाता हुआ देख पोता, अपने दादा से इस अपमान का बदला लेने की कसम खाते हुए गुस्से में वहाँ से अपनी माँ के साथ लौट जाता है और ईंटों के एक भट्ठे पर काम कर के अपना तथा अपनी माँ का पेट भरने के साथ साथ दसवीं तक की पढ़ाई भी करता है। 

यहाँ मेरे ज़ेहन में ये सवाल कौंधा कि क्या मात्र पाँचवीं में पढ़ने वाला बच्चा स्वयं में इतना सक्षम था या हो सकता है कि पढ़ने के साथ- साथ वो कड़ी मेहनत से अपना व अपनी माँ का पेट भी भर सके?  हो सकता है जिजीविषा और हिम्मत के बल पर ऐसा हो पाना संभव हो मगर फ़िर यहाँ सवाल उठ खड़ा होता है कि अगर ऐसा संभव है 
भी तो क्या उसकी माँ स्वयं, खुद हाथ पे हाथ धरे बैठ, अपने बेटे को कड़ी मशक्कत कर पसीना बहाते देखती रही? 

यूँ तो धारा प्रवाह शैली में लिखा गया ये उम्दा कहानी संकलन मुझे लेखिका से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस 167 पृष्ठीय बढ़िया कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 225/- रुपए जो कि क्वॉलिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई।
 
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