गुनाह क़ुबूल है मुझे- राजीव तनेजा

confess

ट्रिंग-ट्रिंग…ट्रिंग-ट्रिंग…

“हैलो"..

“इज इट फ़ादर डिकोस्टा स्पीकिंग?"…

“यैस…माय सन..मे आई नो हूज ऑन  दा लाइन?”..

“सर!…मैं राजीव…दिल वालों की नगरी दिल्ली से"…

“व्हाट कैन आई डू फॉर यू…माय सन?”…

“मैं आपसे मिलना चाहता हूँ"…

“किस सिलसिले में?”..

“मैं अपने गुनाह…अपने पाप कबूल करना चाहता हूँ”…

“यू मीन!…आप कन्फैस करना चाहते हैं?”…

“जी!…

“ओनली कन्फैस…या फिर प्रायश्चित भी?”…

“फिलहाल तो सिर्फ कन्फैस….बाद में कभी मौका मिला तो प्रायश्चित भी..शायद…अगले जन्म में"…

“ठीक है!…तो फिर कल सुबह…ठीक साढे नौ बजे आप मुझे घंटाघर के  बगल वाली पुलिस चौकी में आ के मिलें"…

“प्प…पुलिस चौकी में?”…

“जी!…मुझे तो वहाँ जाना है ही..आप भी आ जाइए…एक पंथ दो काज हो जाएंगे"…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“दरअसल..क्या है कि मुझे टाईम वेस्ट करना बिलकुल भी पसंद नहीं है…इसलिए वहीँ पे…यू नो…टाईम वेस्ट इज मनी वेस्ट?”..

“ल्ल…लेकिन पुलिस चौकी में ही क्यों?”…

“मेरे बेटे का मुंडन है वहाँ पर"…

“बब...बेटे का?"...

"जी!...

"लेकिन मैंने तो सुना है कि....

"ठीक सुना है आपने...पादरी होने के नाते मैंने आजन्म कुंवारे रहने की कसम खाई है"...

"तो फिर ये बेटा?"...

"गोद लिया हुआ है"...

"लेकिन पुलिस चौकी में ही उसका मुंडन क्यों?”…

"अपनी-अपनी श्रद्धा की बात है"…

“लेकिन आप तो फादर हैं"…

“तो?”…

“फादर हो के मुंडन?”…

“जी!…

“आप वो ‘क्राईस्ट’ जी  वाले ‘फादर' ही हैं ना?”मेरे मन में शंका उत्पन्न होने को हुई …

“हाँ!…तो?”…

“तो फिर ऐसे…कैसे?”..

“क्या…ऐसे-कैसे?”..

“ये मुंडन कैसे?”…

“अपनी मर्जी से थोड़े ही करवा रहा हूँ"…

“क्या मतलब?”…

“मेरा जिगरी दोस्त करवा रहा है ये सब"…

“कौन सा?”…

"वही जो पंडिताई भी करता है"…

“पंडिताई भी करता है…माने?”…

“उसका असली काम मुखबरी का है"…

“चोरों की?”…

“नहीं!…पुलिस की"…

“तो?”..

“इस बार पट्ठा लालच में आ…पलटी मार गया"…

“क्या मतलब?”..

“उस स्साले…हरामखोर की ही मुखबिरी पे तो मेरे बेटा रंगे हाथों चोरी करते पकड़ा गया"…

“ओह!…

“इसीलिए बतौर सजा उसका मुंह काला कर ..उसे गंजा किया जा रहा है"…

“ओह!…

……{कुछ सैकैंड के मौन के बाद}…..

“तो ये तय रहा कि आप कल सुबह ठीक साढे नौ बजे पुलिस चौकी आएंगे और अपना इकबाले जुर्म करेंगे?”..

“पागल समझ रखा है क्या?”..

“क्या मतलब?”…

“ये मत सोचिए फ़ादर कि इस दुनिया में ढेढ सयाने सिर्फ आप ही हैं…भूसा नहीं…भेजा भरा है मेरे दिमाग में"…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“इतने नासमझ तो नहीं लगते  आप कि ये भी ना समझ सकें कि वहाँ… थाने में इकबाले जुर्म करते ही मैं भी धर लिया जाऊँगा"…

”ओह!..तो फिर परसों या उसके अगले दिन का प्रोग्राम रखें?”…

“तब तक तो बहुत देर हो जाएगी"…

“तो फिर मेरे ख्याल से थोड़ा आगे-पीछे करके कल का ही प्रोग्राम तय कर लेते  हैं...यही बैटर रहेगा"...

“नहीं!..कल का नहीं…कुछ भी कर के आप आज ही का…बल्कि अभी का प्रोग्राम रखें तो ज्यादा अच्छा रहेगा"…

“अभी का?”…

“हाँ!…मैं अभी के अभी कन्फैस करना चाहता हूँ…यहीं..फोन पे"…

“फ्फ…फोन पे?”..

“जी!…

“लेकिन अभी तो सन…मैं थोड़ा बिजी हूँ….कुछ निजी मुश्किलात वगैरा हैं…उनसे निबट के ही मैं …आप एक काम करें…

“जी!…

“कल सुबह का ही वक्त रखें तो ज्यादा बेहतर होगा"…

“नहीं!…कल सुबह तो बिलकुल नहीं…इतना वक्त नहीं है मेरे पास"…

“लेकिन अभी तो जैसा मैंने कहा कि मैं थोड़ा बिजी हूँ किसी निजी काम में"…

“आपका ये निजी काम मेरी जान ले के रहेगा…ओ.के बाय”…

……{कुछ सैकैंड के मौन के बाद}…..

“सॉरी!…मैं आज के बाद आपको कभी डिस्टर्ब नहीं करूँगा”..

“वेट!…वेट माय सन….कल सुबह तक की ही तो बात है"…

“कल सुबह का सूरज देखना मेरी किस्मत में नहीं लिखा है सर…मैं मरने जा रहा हूँ…बाय"…

“रुको!…रुको तो सही...ये पाप है"…

"जो मैंने किया है वो भी किसी पाप से कम नहीं है"...

"लेकिन...

“कोई फायदा नहीं…मैं पूरी तरह से निराश हो चुका हूँ अपने इस विशालकाय…नीरस एवं ऊबाऊ  जीवन से"मैं रुआंसा होता हुआ बोला…

“ऐसी बातें नहीं करते माय सन….अभी तुम्हारी उम्र ही कितनी है?”…

“कितनी है?”..

“ये तो आप मुझे बताएंगे कि कितनी है?”..

“आई एम् फोर्टी एट प्रैसैंट”…

“वैरी स्ट्रेन्ज….आप इतनी छोटी सी उम्र में ही मरना चाहते हैं?”…

“यैस!…फ़ादर"…

“क्या बच्चों जैसी बातें करते हो?…अभी तो तुम्हारे खेलने-कूदने की उम्र है”….

“मम्मी भी यही कहती है"..

“क्या?”…

“यही कि ये मेरे खेलने-कूदने की उम्र है"…

“तो?”…

“पापा खेलने नहीं देते और बीवी कूदने नहीं देती"…

“लेकिन क्यों?”..

“पापा कहते हैं कि…अब तुम बड़े हो गए हो"…

“और बीवी क्या कहती है?”..

“उसको लगता है कि मैं कूद ही नहीं सकता"…

“लेकिन क्यों?”…

“एक बार कोशिश करी थी"…

“कूदने की?”…

“जी!…

“तो फिर?”..

“मुंह के बल गिरा था"…

“वो कैसे?”…

“बीवी जो सामने से हट गई थी"…

“तुम बीवी के ऊपर कूद रहे थे?"…

“जी!…

“लेकिन क्यों?”…

“क्यों से क्या मतलब?…शादीशुदा हूँ"...

"तो?"..

“पंखे साफ़ करना मेरी ड्यूटी है"…

“टेबल वाले?”…

“नहीं!…छत वाले"….

“तो?”…

“अचानक बैलेंस बिगड़ गया”…

"छत का?"..

"नहीं!...मेरा"...

“तो?”..

“तो..क्या?…कूद पड़ा"…

“बीवी पर?”…

“नहीं!…पंखे पर"…

“लेकिन वो तो छत से टंगा हुआ था ना?”..

“जी!…

“तो फिर तुम किस पर कूदे थे?”..

“टेबल वाले पर"..

“वो कहाँ था?”..

“ज़मीन पे पड़ा था"…

“पड़ा था?”…

“नहीं!…खड़ा था"…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“मैं छत वाले पंखे को साफ़ कर रहा था और टेबल वाला ज़मीन पर खडा था"…

“तो बीवी पर कैसे कूद पड़े?"…

“ऐसे" मैं कान से फोन को लगाए-लगाए कूदने का उपक्रम करता हुआ बोला

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“और समझेंगे भी नहीं"…

“क्यों?”..

“दिमाग जो मोटा है आपका"…

“ओह!..तो एक बार फिर से कोशिश करते हैं"..

“कूदने की?”…

“नहीं!…समझने की"…

“ओ.के…तो फिर मैं शुरू से आपको समझाता हूँ"..

“शुरू से नहीं…बस…वहीँ से जहाँ से मुझे समझ नहीं आया था"…

“ओ.के…तो जैसा कि मैंने आपको बताया कि मैं पंखा साफ़ कर रहा था….

“छत वाला?”…

“जी!…

“ओ.के"…

“तो फिर हुआ ये कि अचानक से मुझे झटका लगा और निशाना चूकने की वजह से मैं बीवी के ऊपर धड़ाम जा गिरा"..

“लेकिन क्यों?”…

“क्यों से क्या मतलब?…ये बस में मेरे थोड़े ही था"…

“वही तो मैं भी पूछ रहा हूँ कि…लेकिन क्यों?”..

“करैंट जो मारा था बड़ी जोर से"…

“बीवी ने?”…

“नहीं!…पंखे ने"…

“ओह!…

“ओह!…नहीं…आह"…

“क्या मतलब?”..

“मेरे मुंह से ओह नहीं बल्कि…आह निकला था"…

“ओह!…

“फिर वही ओह?…अभी-अभी तो आपसे कहा कि ओह नहीं…आह"…

“एक ही बात है"…

“एक ही बात कैसे है?…ओह!…ओह होता है और आह…आह होता है"..

जी!..

……{कुछ सैकैंड के मौन के बाद}…..

“समय तो मेरे पास नहीं है लेकिन फिर भी…चलो..बताओ कि…क्या कन्फैस करना चाहते हो?”…

“अब क्या बताऊँ फादर साहब?…ज़िन्दगी पूरी तरह से झंड और जीना मुहाल हो चुका मेरा"…

“लेकिन कैसे?”…

“अब क्या बताऊँ फ़ादर जी कि कैसे?”…

“अरे!..अगर बताओगे नहीं तो मुझे कैसे पता चलेगा सन कि क्या दिक्कत है तुम्हें?”…

“दिक्कत एक हो तो मैं बताऊँ भी फादर जी आपको"…

“हम्म!…काम-धन्धे में नुक्सान वगैरा की वजह से तो कहीं परेशान नहीं हो तुम?”….

“क्या बात कर रहे हैं फादर जी आप भी?…काम मैंने कभी कोई किया नहीं और धन्धा मेरा दिन दूनी और रात चौगुनी तेज़ी से फल-फूल रहा है"…

“रात चौगुनी?”…

“जी!…दो नंबर का काम है ना…इसलिए"मैं कुछ सकुचाता हुआ बोला…

“ओह!…

“ओह!…नहीं…आह"…

“हाँ!…ओह नहीं…आह"…

“नाओ…दैट साउंडज बैटर”…

“तो क्या घर में बीवी-बच्चों से कोई पंगा?”…

“क्या बात करते हैं फादर जी आप भी?…बीवी तो मेरी एकदम साक्षात भारतीय नारी”…

“निरूपा राय के जैसी?”…

“नहीं!…राखी सावंत के जैसी”…

“हम्म!..और बच्चे?”..

“बच्चे तो ऐसे गुणी कि ‘रणजीत’…’शक्ति कपूर’ और ‘गुलशन ग्रोवर’ को भी मात करते हैं"..

“पर्सनैलिटी में?"...

"नहीं!..आदतों में”…

“हम्म!… तो क्या कोई माशूका वगैरा नाराज़ चल रही है तुमसे?”…

“अरे!…वो भला क्यों नाराज़ रहने लगी मुझसे?…उसका तो मैं उसके सभी आशिकों के मुकाबले ज्यादा ख्याल रखता हूँ…कोई दिक्कत…कोई परेशानी नहीं आने देता हूँ"…

“ओ.के…तो क्या माता-पिता की तरफ से तुम्हें कोई परेशानी है?”…

“क्या बात कर रहे हैं फादर जी आप भी?…पिताजी तो मेरे एकदम माता समान हैं"…

“अक्ल में?”..

“नहीं!…शक्ल में"…

“और माता जी?”…

“माताजी तो एकदम पितातुल्य हैं"…

“पितातुल्य…माने?”…

“उनका वज़न पिताजी के बराबर है…

“हम्म!...

"पूरे 124 किलो"…

“बाप रे”…

“एक का नहीं…दोनों का"…

"ओह!…तो कहीं कोई रेप-राप का लफड़ा तो नहीं"फादर का संशकित स्वर

“क्या बच्चों जैसी बात कर रहे हैं फादर जी आप भी…रेप तो उलटा मेरा हो चुका है पूरे तीन बार"…

“ओह!…रियली?”…

“यैस फादर"मेरा गौरान्वित स्वर …

"कब?"…

"पहली बार जब मैं …चौथी क्लास में था….

“च्च…चौथी क्लास में?…

“जी!...तब मुझे पता नहीं था कि ये रेप आखिर होता क्या है?”…

“ओह!…लेकिन इतनी छोटी उम्र में तुम्हारा रेप…सो सैड ना?”…

“किसने कहा कि छोटी उम्र में मेरा रेप हो गया?”…

“अभी आपने ही तो कहा"…

“क्या?”..

“यही कि जब आप चौथी क्लास में थे तो आपका रेप हो गया था"…

“मैंने कब कहा?"...

"अभी?"..

"ध्यान से अपने दिमाग पे जोर डाल के देखिये कि मैंने ये कहा था कि...जब मैं चौथी क्लास में था…तब मुझे पता ही नहीं था कि ये रेप आखिर होता क्या है?”..

“ओह!..

“इसके बारे में तो पता मुझे तब चला जब मैं नौवी क्लास में पहुंचा"...

“ओह!..तो इसका मतलब तब आप नौवी क्लास में थे..जब पहली बार आपका  रेप हुआ?”…

“आपका दिमाग क्या घास चरने गया है?”..

"क्या मतलब?”…

“मैं स्कूल में पढ़ने-लिखने के लिए जाता था ना कि ये सब उलटे-पुलते काम करने"…

“ओह!…लेकिन अभी आप ही ने तो कहा कि जब आप नौवी क्लास में पहुंचे तो आपको पहली बार पता चला कि...ये रेप आखिर होता क्या है?"...

"तो?...मैं क्या किसी ज़रुरी काम से नौवी क्लास में नहीं जा सकता?"...

"ज़रुरी काम से?"...

"हाँ!...टीचर ने मुझे डस्टर लेने भेजा था"...

"तो इसका मतलब आप उस समय नौवी क्लास में नहीं पढते थे?"..

“नहीं!...उस वक्त तो मैं छठी क्लास में पढता था"...

"ओह!...तो फिर तुम्हें कैसे पता चला?"...

"रेप के बारे में?"...

"जी!...

"उस क्लास में बच्चे आपस में बात कर रहे थे तो मैंने भी सुन लिया"...

"ओह!...

"इन चक्करों में तो मैं काफी बाद में...लगभग कालेज के दिनों में ही मुझे इस सब की आदत पड़ी थी"…

रेप की?”…

जी!…

"ओह!...तो फिर ऐसा क्या कर दिया तुमने कि आज तुम्हें यूँ पछताते हुए अपने पापों का प्रायश्चित करना पड़ रहा है"...

"प्रायश्चित नहीं...ओनली कन्फैस...प्रायश्चित के बारे में तो मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि उनके बारे में मैं अपने अगले जन्म में सोचूंगा...अभी से उनके बारे  में सोच के क्यों अपना दिमाग खराब करूँ?"..

"जी!...लेकिन ऐसी क्या वजह हो सकती है कि तुम ऐसे कन्फैस करने पे मजबूर हो गए?"...

"एक मिनट...फॉर यूअर काईंड इन्फार्मेशन ...मुझे किसी ने मजबूर नहीं किया है...ये सब तो मैं अपनी खुशी से …खुद ही अपने ज़मीर के चलते अपने आप से  शर्मिंदा होकर कर रहा हूँ"...

"ओ.के...ओ.के...जैसा भी आप सोचें लेकिन किसी भी केस या मामले की तह तक जाने के लिए मुझे पहले उसकी पृष्ठभूमि में तो कूदना ही पड़ेगा ना?"...

"पृष्ठभूमि माने?"...

"बैक ग्राउंड"..

"ओह!...तो फिर ऐसा कहिये ना"...

"तो फिर बताइए"...

"क्या?”…

“यही कि ये सब कैसे शुरू हुआ?"..

"शुरुआत से?”..

“जी!...

"इसकी भी एक लंबी कहानी है"...

"आप शार्ट में करके सुनाइए"..

"ओ.के"...

"वो दिन भी क्या दिन थे जब मैं फिल्मों का बहुत बड़ा दीवाना हुआ करता था"...

"ओ.के"...

"एक-एक फिल्म को चालीस-चालीस बार देखता था"...

"च्च...चालीस-चालीस बार"...

"जी!...सिनेमा घर में प्रोजेक्टर चलाने की जिम्मेदारी मेरी ही होती थी ना"...

"ओह!...

"बाद  में बस..शादी होने के बाद मैंने वो नौकरी छोड़ दी"...

"कोई खास वजह?"...

"बीवी घर में ही जो अपना सनीमा ऊप्स!...सॉरी...सिनेमा दिखाने लगी थी"...

"कैसे?”…

“अपने दहेज में वो ‘वी.सी.डी’ प्लेयर और ‘होम थिएटर’ जो लाई थी फिलिप्स के टी.वी के साथ"

"फिलिप्स के ‘टी.वी' के साथ?”…

"जी!...

"नाईस चायस"...

"बीवी की?”…

“नहीं!…टी.वी की"…

“थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट"...

"फिर क्या हुआ?"..

"होना क्या था?..एक दिन मेरा दिमाग फिर गया और मैंने...

"बीवी को झापड दे मारा?"...

"नहीं!..मैं भला अपनी गऊ जैसी बीवी को क्यों मारने लगा...पूरे बारह लीटर दूध देती है"...

"गऊ?"...

"नहीं!..बीवी"...

"क्क्या?"..

"हाँ!...वो बेचारी खुद भूखी रहती है और पूरे बारह लीटर दूध मुझे दे देती है"...

"रोजाना?"..

"इतने अमीर नहीं हैं हम"...

"तो क्या हफ्ते में?"...

"नहीं!..इतनी हसीन भी मेरी  किस्मत कहाँ?...वो तो..

"तो  क्या पूरे महीने में वो आपको बारह लीटर दूध देती है?"....

"इतनी फिजूलखर्च भी वो नहीं"...

"तो क्या पूरे साल में ...

"एग्जैकटली!…अब सही पहचाना आपने"...

……{कुछ सैकैंड के मौन के बाद}…..

"आप फिल्मों की बात कर रहे थे"...

"जी!...तो जैसा कि मैंने आपको बताया कि मैं फिल्मों का बहुत बड़ा दीवाना था और…

“एक-एक फिल्म को चालीस-चालीस बार देखते थे?"…

“जी!…

“फिर क्या हुआ?”…

“वक्त के साथ-साथ मैं बोर होता चला गया"…

“फिल्मों से?”…

“नहीं!…

“बीवी से?”…

“नहीं!..’टी.वी' से"..

“ओ.के!…फिर क्या हुआ?”…

“मैंने टी.वी पर फिल्में देखना छोड़ फिर से सिनेमा घरों का रुख किया?”…

“तुम्हारी नौकरी बची हुई थी अब तक?”…

“नहीं!…इसी बात का तो अफ़सोस है कि उसने मुझे पहचानने से इनकार कर दिया"…

“सिनेमा हाल के मैनेजर ने?”…

“नहीं!…वो भला क्यों मुझे पहचानने से इनकार करने लगा?…वो तो मेरा जिगरी दोस्त था…उसने तो मुझे ‘पेप्सी'  भी पिलाई और मुफ्त में फिल्म भी दिखाई"…

“तो फिर किसने आपको पहचानने से इनकार कर दिया?”..

“बीवी ने"…

“क्यों?”..

“मैंने ‘शान’ फिल्म जो देखी थी"…

“तो?”…

“फिल्म देखने के बाद ‘शाकाल' का जादू कुछ ऐसा सर चढा कर बोला कि….

“आपने सर ही मुंडवा डाला?”…

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“एग्जैक्टली!…आपको कैसे पता?”..

“मैं भी एक बार ऐसे ही अपने इमोशनज से वशीभूत हो गया था और…

“गंजे हो गए थे?”…

“नहीं!…

“तो फिर?”..

“मुझ पर ‘सड़क’ फिल्म का जादू सर चढ कर बोला था"…

“तो आपने संजय दत्त के माफिक बाल रख लिए थे?”…sadak

“नहीं!…

“उसके माफिक बलिष्ठ बॉडी बना ली थी?"…

“नहीं!…

“तो फिर?”…

“महारानी के माफिक बोलना-चालना और उठना-बैठना शुरू कर दिया था"…Sadashiv Amrapurkar Sadak

“ओह!…

“फिर क्या हुआ?”…

“ये तो आप बताएँगे कि फिर क्या हुआ?”..

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“अरे!…ये तो आप बताएँगे ना कि ‘महारानी' के गेटअप को अपनाने के बाद आपके साथ क्या हुआ था?”…

“वही हुआ जिसका अंदेशा था"…

“कुत्ते पीछे पड़ गए थे?”…

“एग्जैक्टली!…आपको कैसे पता चला?”..

“एक बार मेरे पीछे भी …छोड़िये…इस राम कहानी को…वैसे भी कहानी बहुत लंबी होती जा रही है"…

“जी!…आप आगे बताइये कि फिर क्या हुआ?”…

“हिंदी फिल्मों का ऐसा जुनून सा छाया था दिल औ दिमाग पर कि हर फिल्म के साथ मैं नए गेटअप आजमाने लगा"…

“खुद पर?”…

“नहीं!…बीवी पर”..

ओह!…

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“कभी बुलन्द आवाज़ में  उससे ‘मोगैम्बो!…खुश हुआ' का कालजयी नारा जोर-शोर से लगवाता तो कभी ‘गज़नी' के माफिक गंजा कर…उसके पूरे बदन पे अंट-संट लिखवा डालता"….

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“परमानैंटली?”…

“एग्जैक्टली”…

“फिर क्या हुआ?”…

“फिर मैं थोड़ा चूज़ी हो गया और आलतू-फालतू की नौटंकियां देखनी मैंने बन्द कर दी"…

“ऐसे अनोखे बदलाव की वजह?”…

“सिनेमा हाल के मैनेजर ने जो वहाँ से नौकरी छोड़ दी"…

“तो?”…

“अब मुफ्त में सिनेमा कौन दिखाता?”…

“हम्म!…अच्छा किया जो वक्त रहते ही संभल गए…कुछ नहीं धरा है बेफाल्तू में नोट फूंकने से"…

“जी!…लेकिन कुछ ही दिनों तक मैं अपने आप को काबू में रख पाया"…

“क्या मतलब?”…

“उसके बाद अपने ‘सल्लू' मियां की ‘वांटेड' जो रिलीज़ हो गई"…Wanted-2009

“तो?”…

“सारे के सारे प्रण धरे के धरे रह गए”….

“ओह!…

“इस स्साले!…इस प्रभुदेवा के बच्चे ने फिल्म ही धाँसू बनाई है कि मुझसे रहा नहीं गया और मैंने….

“और आपने उसे चालीस-चालीस बार देखा?”..

“प्रभुदेवा को?”…

“नहीं!…फिल्म को"…

“पागल समझ रखा है क्या मुझे?”…

“क्या मतलब?”..

“इतना पागल भी मैं नहीं कि अपने पल्ले से एक ही फिल्म को चालीस-चालीस बार देखूं”…

“ओ.के…

“दरअसल!…मन तो मेरा बहुत कर रहा था इस फिल्म को बार-बार देखने का लेकिन बारह बार के बाद ही उसने भी मुझे जवाब दे दिया"…

“प्रभुदेवा ने?”..

“नहीं!…

फिल्म ने?”…

नहीं!…

“आपकी साँसों ने?”…

“नहीं!…मेरे बटुए ने"…

ओह!…फिर क्या हुआ?”…

“फिर कुछ महीनों बाद मैंने ‘दबंग' देख ली…वो भी एक बार नहीं…दो बार…पूरे तीन बार"…

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ओ.के"…

“क्या ओ.के?”…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“यही तो कन्फैस करना था मुझे"…

क्या?”..

“यही कि मैंने ‘दबंग' तीन बार देख ली"…

“तो?”…

“मुझसे पाप हो गया"…

दबंग फिल्म देख कर?”…

“जी!…

“आपने ‘मुन्नी' को बदनाम कर दिया है?”…

“नहीं!…वही तो फिल्म की सबसे बड़ी एट्रेक्शन थी…मैं भला उसे क्यों बदनाम करने लगा?”…

”तो फिर?”…

दबंग जैसी घटिया और वाहियात फिल्म देखने का गुनाह मुझसे एक बार नहीं…दो बार नहीं…पूरे तीन बार हुआ है…इसकी सजा मुझे मिलनी चाहिए…ज़रूर मिलनी चाहिए”…

“ओह!…

“मति मारी गई थी मेरी जो एक बार की बोरियत से सबक नहीं लिया मैंने और जा पहुंचा टिकट खरीद फिर उसी बन्दर की शक्ल को फिर से देखने”…

“ओह!…

“भरमा दिया था मुझे इन पैसे खाऊ ‘टी.वी’…’रेडियो’ और ‘अखबार’ वालों की ***+ रेटिंग ने…अपनी ही समझ…अपने ही दिमाग पे शक करने लग गया था मैं…

उफ़!…कितना नादाँ था मैं"…

“तो क्या अब नहीं हैं?”…

“अब अगर होता तो कन्फैस करने की सोचता ही क्यों?”..

“हम्म!..तो अब क्या इरादा है?”..

“जमना जी में कूद के डूब मरने की ठानी है"…

“लेकिन क्यों?”…

“क्योंकि मैं दुनिया-जहाँ को बतलाना चाहता हूँ कि…

दबंग महा बकवास फिल्म है?”..

“नहीं!..

“तो फिर तुमने जमना जी में डूब कर मरने की क्यों ठानी है?”..

“क्योंकि मैं दुनिया-जहान जो बतलाना चाहता हूँ कि…

‘जमना जी में डूब के मरने की ठानी है क्योंकि हिम्मत में कोई मुझसा सानी नहीं है"..

“ओह!…अभी तुम कहाँ पर हो?”…

“जमना जी के पुराने वाले पुल पर"…

“लोहे वाले?”…

“जी!…

“थोड़ी देर रुको…मैं भी आ रहा हूँ"…     

“लेकिन क्यों?”…

“मैंने ‘रावण' चार बार देखी है"…

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“क्क्या?”…

***राजीव तनेजा***

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ऐसी आज़ादी से तो गुलामी ही भली थी- राजीव तनेजा

 marriage 

मुँह में पानी ने जो आना शुरू किया तो फिर रुकने का नाम नहीं लिया…कभी पेट पकड़ कर मन मसोसते हुए..कलैंडर को ताक खुद ही…खुद को थोड़ा सब्र रखने की दकियानूसी सलाह देता तो कभी मनभावन मिठाईयों और पकवानों की वर्चुअल खुशबु के जरिये मुंह में अनायास ही पैदा हो गई लार रुपी चासनी को..एक ही झटके में सटक कर अंदर करते हुए उस ऊपर बैठे परम पिता परमात्मा को पानी पी-पी कर..जी भर कोसता कि…. “इतनी देर क्यों लगा रहा है कमबख्त…इस नेक काम को असलियत का जामा पहनाने में?”…

मेरी ऐसी  मरमरी सी हालत देख बीवी से रहा ना गया....तुनक के बोली...

"अभी तो सिर्फ न्योता भर ही आया है शादी का और तुम हो कि..लगे बल्लियों उछलने”…

“तो?…मेरे मामा की शादी है…उछलूँ क्यों नहीं?”…

“पता है…पता है…सब पता है…मेरे देखते ही देखते चौथी बार शादी कर रहे हैं…कोई नई बात नहीं है इसमें"बीवी अपने हाथ नचाती हुई बोली …

“तो?…अगर कोई टिक के ही राजी ना हो तो वो क्या करें?”…

“हुँह!…क्या करे?…चुल्लू भर पानी तो मिलता है ना बाज़ार में…उसी में डूब मरे"…

“ब्ब…बाज़ार में?”…

“हाँ!…बाज़ार में…पानी आता ही कहाँ है घरों में आजकल?…सब के सब स्साले…माफिया वाले…कब्ज़ा जमाये बैठे हैं सरकारी नलकूपों पर कि…पैसे दो…तभी भरने देंगे"…

“यहाँ?…दिल्ली में?”…

“नहीं!…राजस्थान में"…

“तो?…उससे हमें क्या फर्क पड़ता है?”…

“अरे!…वाह फर्क क्यों नहीं पड़ता?…बहुत फर्क पड़ता है"…

“वो कैसे?”…

“पानी की कमी के चलते दुखी और परेशान हो वहाँ के लोग जो अन्य शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं”…

“तो?”…

“उनमें से बहुतेरे लोग दिल्ली में भी आ…तम्बू गाड़…अपना डेरा जमा रहे हैं"…

“तम्बू गाड़?”…

“हम्म!…

“तो क्या सिर्फ गरीब-गुरबा लोग ही….अमीर कोई नहीं?…

“मुझे क्या पता?”..

“अभी तुम ही तो कह रही हो"…

“क्या?”..

“यही कि…तम्बू गाड़…

“अरे!…ऐसा सिर्फ कहा जाता है….असलियत में थोड़े ही….

“तो फिर गाड़ने दो ना…क्या फर्क पड़ता है?….दिल्ली तो दिल वालों की नगरी है…सबको हज़म कर लेगी"…

“लेकिन कितने दिनों तक?…ऐसे ही अगर निर्बाध रूप से लोगों का बदस्तूर आना-जाना लगा रहा तो वो दिन दूर नहीं जब तुम एक ही झटके में मुझे ठकुराइन का चोगा छोड़…पलक झपकते ही ठाकरे बन  ‘राज' करता पाओगे"…

”ठठ…ठकुराइन?…लेकिन तुम तो….

”ठेठ पंजाबन हुई तो क्या हुआ?…काम तो ठाकुरों वाले..ऊप्स!…सॉरी…ठाकरे वाले करूंगी"…

“क्या मतलब?”…

“बहुत हो चूका..’अतिथि देवो भव' का नारा…अब तो कसम से इन अतिथियों को तबियत से…जी भर पेलने का मन करता है…स्साले!…मेहमान बन के आते हैं और फिर कुछ ही दिनों में हमारी ही छाती पे मूंग दल…सांप बन के लोटने लगते हैं"…

“हाँ!..ये तो है…बाहरी लोगों से निबटने का एक ही तरीका है…इनका एक सिरे से विरोध कर इन्हें दिल्ली से बाहर पटक दिया जाए"…

“स्साले…मेरी दिल्ली…..मेरी शान मिटाने चले हैं"बीवी गुस्से से हुंकार सी भरती हुई बोली..….

”तत्…तुम दिल्ली में पैदा हुई थी?”…

“नहीं!…अमृतसर में…क्यों क्या हुआ?”…

“फिर दिल्ली तुम्हारी कैसे हो गई?”…

“जैसे उस ठाकरे की मुंबई हो गई?”…

“ओह!…

“खैर!…हमें क्या?..कोई मरे या जिए…हमें तो अपने काम से मतलब होना चाहिए"…

“वोही तो"…

“इसलिए तो इतनी देर से समझा रही हूँ तुम्हें कि थोड़ा सब्र से काम लिया करो”….

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“और समझोगे भी नहीं"बीवी खीज कर अपने माथे पे हाथ मारती हुई बोली ..

“क्या मतलब?”…

“अरे!..अभी तो पूरे दो दिन पड़े हैं ब्याह को और तुम्हारा  ये हाल हुए जा रहा है..असलियत में जब मौका आएगा तो कुछ खान पड़ेगा नहीं आपसे"..

मैं बोला "अरी!…भागवान..कभी तो अपनी चोंच बन्द कर लिया करो...ये नहीं कि हर वक्त बस…बकर-बकर…ऊपरवाले ने अगर ज़ुबान दे के तुम्हें नेमत बक्शी है तो वो बक्शी है तर माल पाड़ने के लिए...ये नहीं कि जब देखो करती जाओ ...बस..चबड़-चबड़ और कुछ नहीं"...

“अरे!…वाह…उलटा चोर कोतवाल को डांटे…इतनी देर से मैं भी यही समझाने की कोशिश कर रही हूँ तुम्हें और तुम हो कि मुझे ही लैक्चर पिलाने लगे?”… 

“मैं?…मैं तुम्हें लैक्चर पिला रहा हूँ?”…

“और नहीं तो क्या?….कुछ भी बोलने से पहले ज़रा आगा-पीछा तो सोच लिया करो कम से कम..ये क्या कि बस बोलते जाओ…बोलते जाओ…वो भी बिना किसी तुक के"..

“मैं?…मैं बिना किसी तुक्क के बोल रहा हूँ?”मैं उखाड़ने को हुआ 
"जानती हूँ आपको...बातें तो ये लम्बी-चौड़ी जनाब की और जब खाने की बारी आए तो टाँय-टाँय-फिस्स…पिछली बार का याद है ना...जब गए थे शर्मा जी के बेटे की बारात में...क्या खाक माल पाड़ा था?...बस…दो-चार आल्तू-फाल्तू की चीज़ों में ही पेट पस्त हो गया था जनाब का"…
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“वव…वो तो दरअसल…उस दिन मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं थी तो….

“अरे!...वो तो मैँ ही थी जो पूरे हफ्ते भर का माल-पानी बटोर लाई थी एक ही झटके में…तुम्हारे भरोसे रहती तो कई-कई दिन फाके में गुज़ारने पड़ते"…

“ये बात तो यार तुम बिलकुल सही कह रही हो…दरअसल…उस दिन मैं थोडा कन्फ्यूज हो गया था कि ….क्या ले जाऊं और क्या नहीं?"…

“इस बार भी कहीं यही गलती फिर से ना कर बैठना…अकेले जा रहे हो…हिम्मत से काम लेना और घबराना बिलकुल भी नहीं”…

“हम्म!…

“ये सोच के कतई परेशान नहीं होना कि मैं तुम्हारे साथ नहीं हूँ”…

“हम्म!…

“और किसी की परवाह नहीं करना कि इसने देख लिया…तो क्या होगा? या उसने भांप लिया तो क्या होगा?”…

“हम्म!…

“और हाँ...खबरदार..जो खाली हाथ घर वापिस आए…घुसने तक न दूंगी…कहे देती हूँ…कसम से"…

“अरे!…यार..चिंता क्यों करती हो?…मैं हर तरफ से अपने आँख…नाक और कान बंद करके इस नेक काम को अंजाम दूंगा..ये देखो…मैंने तो अभी से अपने रूमाल में गाँठ बाँध ली है"…

“हम्म!…वैसे…तुम्हारी करनियों के चलते अकेले भेजने का मन तो नहीं कर रहा है तुम्हें लेकिन अगर मम्मी ने नहीं आना होता इसी हफ्ते तो मैं भी चलती तुम्हारे साथ”…

"हम्म!…

“और हाँ...वो नई वाली जैकेट ले जाना मत भूल जाना कहीं…बड़ी मुश्किल से वाटर-प्रूफ जेबें लगवाई हैँ उसमें गुलाब जामुन और रसमलाई के लिए"...

“हम्म!… (मैं मुंडी हिला अपनी सहमति जताता हुआ बोला)

"और ये नहीं कि 'वाटर प्रूफ' जेबों में पकोड़े लाद लो और गुलाब जामुन  दूसरी जेब में कि पूरे रस्ते चासनी टपकती रहे"... 

“हम्म!…

"पता है ना पिछली बार कितनी चींटियाँ चिपक गयी थी मिठाई से?…पूरा का पूरा बदन सुजा मारा था कम्भखत मारियों ने काट-काट के"....

“हम्म!… 
"एक-एक को मिठाई से उखाड़ कर फैंकने से मिठाई खाना भी कितना बदमज़ा हो गया था ना?”…

“और भला सारी छूट भी कहाँ पायी थी?…आठ-दस को तो निगलना ही पड़ा था"मैं बुरा सा मुंह बनाते हुआ बोला 

"वोही तो...ध्यान रखना इस बार कि सबसे पहले किस चीज़ पे हाथ साफ करना है और बाद में किस चीज़ पर"... dsaefdsfd
"हम्म!…

“और खबरदार...जो पनीर के अलावा किसी और चीज़ को अपनी चोंच भी लगाई तो…मुझसे बुरा कोई ना होगा"..

“तो क्या स्नैक्स वगैरा भी ….

"हुंह!…तुम्हारे ये साँप(स्नेक्स) तुम्हीं को मुबारक…मेरे लिए तो तुम…

“स्प्रिंग रोल लेता आऊँ?…बड़े स्वाद होते हैं सच्ची…कसम से"मैं चटखारा लेता हुआ बोला….

“हुंह!..स्प्रिंग रोल लेता आऊँ…घोड़ा जब भी करेगा…लीद की ही बात करेगा”…

?…?…?…?

“अरे!..खानी है तो कोई ढंग की चीज़ खाओ...ये क्या…कि बस यूँ ही मज़ाक-मज़ाक में उलटी-सीधी चीज़ों से स्वाद-स्वाद में ही निबट लो?"…

“लेकिन दावत में तो….

"हुंह!…दावत में तो….अरे..ये भी कोई दावत है?…..दावत तो होती थी हमारे टाईम में...महीने भर पहले ही जा धमकते थे न्योता देने वालों के यहाँ कि...
"ले बेटा!..कर ले सेवा-पानी जितनी तेरी श्रद्धा है…हमारा आशीर्वाद तेरे साथ है"…

“हम्म!…

"अब तो बस नाम भर का ही रह गया है ये मिलना-मिलाना"…

“हम्म!…

"किसे फुर्सत है अब एक दूसरे का हाल-चाल पूछने की?…अब तो बस...जाओ...शक्ल दिखाओ…थोड़ा बहुत पेट में ठूसो-ठासो  और लिफाफा थमा…अपनी डगर चलते बनो"….

“हम्म!…

"ऊपर से ये मुय्या प्लेट सिस्टम….खाने का तो मज़ा ही बिलकुल बदमज़ा सा  होता जा रहा है आजकल….ये भी क्या बात हुई कि बस…चुपचुपाते हुए खाने-पीने का आर्डर करो..थोड़ी-बहुत अंटी ढीली करो और हो जाओ मिनटों में ही फ्री"…
"और नहीं तो क्या?…ये भी क्या बात हुई कि पड़ोसियों तक को भी ना पता चले कि कोई दावत-शावत का प्रोग्राम इनके यहाँ?…कितना इन्सलटिड सा फील होता है ना जब तक घर के आँगन से मनभावन पकवानों की महक ना उठे…तंदूर से काले-घने…और गहरे-पीले रंग के धुंए के गुबार ना उठे"..

“हुंह!…गुबार ना उठे…तो आग लगा लो  ना सीधे-सीधे अपने घर को…लाल रंग का भी दिख जाएगा”...

“म्म…मैं तो बस…

“देख!…कैसे मिमिया रहा है…पागल का बच्चा…जब भी बात करेगा…पुट्ठी ही करेगा”बीवी अपने माथे पे हाथ मार…दीवार पे टंगी मेरी माँ कि तस्वीर को देख बुरा सा मुंह बनाते हुए बोली

“अरे!…कमाल करती हो तुम भी…म्म…मैं तो बस यही कहना चाहता था कि…ये स्साले…'केटरिंग' वाले बड़े ही चालू होते हैं…जब रेट फाईनल करने का वक्त होता है तो...

"जी!..ये-ये परोसेंगे...और...वो-वो भी परोसेंगे”...

“माँ....दा...सिर्...परोसेंगे…स्साले…इतनी लंबी-चौड़ी लिस्ट रट्टू तोते के माफिक सुना डालते हैं कि बन्दा  तो बस बावला हो उनकी ही डायलाग बाज़ी सुनता रहे"...
"और नहीं तो क्या?..स्साले!…बातों की ही खाते हैँ और...बातों की ही खिलाते हैँ"..
"और बन्दा बेचारा…ये सोच के चुप लगा जाता है कि …कोई कसर बाकी न रह जाए कहीं..इज़्ज़त जो प्यारी होती है सब को"…

“किसी को अपनी बिटिया के हाथ पीले करने होते हैँ तो किसी को अपने पैसे की नुमाईश और इसी चक्कर में ये तक भूल जाते हैं कि कम्भख्त..स्साला…पेट तो एक ही है…क्या-क्या ठूसा जाएगा इसमें भला?"…
"और ईमानदारी की बात तो ये कि…बन्दा अगर ढंग से खाने बैठे तो एक या दो आईटम में ही पेट टैं बोलने को होता है लेकिन वो कहते हैं ना कि लालच बुरी बला है...सो!...खाने वाला सोचता है कि…अपने बाप का क्या जा रहा है?...थोड़ा खाओ...थोड़ा फैंको"
"चीज़ पसन्द भी आ जाए बेशक...लेकिन जैसे दूसरे की बीवी ज़्यादा सुन्दर लगती है…ठीक वैसे ही दूसरे की प्लेट में पड़ा खाना ज्यादा लज़्ज़तदार दिखाई देता है…इसलिए एक कौर मुँह में डाला नहीं कि बाकि सारा सीधा डस्टबिन का मुंह ताकता नज़र आता है"…

"और फिर से नयी प्लेट में नयी आईटम ये सोच के कि…पट्ठे के पास दो नंबर का बड़ा माल है…कुछ तो कम हो"…

“हाँ!..कुछ तो कम हो वर्ना टैक्स-वैक्स के लपेटे में आ गया तो वैसे ही लेने के देने पड जाएंगे…कुछ तो भला हो किसी का"
"और वैसे भी हर कोई सोचता है कि…कौन सा उसकी जेब से नोट लग रहे हैं जो वो एक ही प्लेट में सब कुछ खाने की सोचे?”…

"स्साले!…इतना रंग-बिरंगा और खुशबूदार माल सजा देते हैं सामने टेबलों पे कि ना चाहते हुए बन्दा खाने का ऐसा हाल कर बैठता है जैसा किसी ज़माने में दिल्ली की 'डी.टी.सी' बसों में सवारियों का हुआ करता था….पनीर के ऊपर गोभी चढी दिखाई देती है तो नीचे से दही-भल्ला बांग दे अपनी आफत खुद बुला रहा होता है”.... 
“और दाल मक्खनी जो चुपके से सरकती हुई अपनी एंट्री अभी दर्ज करवाने में सफल होती ही है कि पापड़ बेचारा अपनी किस्मत का रोना ले के बैठ जाता है कि… हे ऊपरवाले…मुझे इतना कमज़ोर क्यों बनाया कि मैं अपनी रक्षा खुद ना कर सकूँ?”.. 

"अब इसमें हम क्या कर सकते हैं?..सब अपनी-अपनी किस्मत की बात है"…

“कटौती तो कर सकते हैं"…

“क्या मतलब?”..

“शादी-ब्याह और ऐसी ही दूसरे मौकों पर इतना ही परोसा जाए..जितने की लागत हो…पैसे का पैसा बचेगा और अन्न का अपमान भी नहीं होगा"…

“हम्म!…बात तो तुम सही कह रही हो लेकिन इस निष्ठुर और निर्दयी ज़माने का क्या करेंगे?…लोग क्या कहेंगे?”…

“लोगों का काम क्या है?”…

“कहना"…

“तो फिर उसे कह-कह के अपनी भड़ास निकाल लेने दो ना…कौन रोकता है?”…

“बात तुम्हारी सही है लेकिन इतने सालों से ये जो एडियाँ रगड़-रगड़ के लोगों ने दो नंबर का पैसा इकठ्ठा किया हुआ है…उसका क्या करेंगे?”…

“अरे!…अगर इतनी ही ज्यादा उछल-कूद हो रही है खीस्से में तो कंपनी से किसी नामी-गिरामी रेस्टोरेंट के मील वाउचर छपवा के ही बंटवा दो मेहमानों में कि वे अपनी साहुलियत के हिसाब से उन्हें जब जी चाहे खर्च कर…फुल्ली एंजाय कर सकें"…

“तुम क्या सोचती हो?…इतना आसान है ये सब?…मेहमान तो चलो राजी भी हो जाएंगे थोड़ी ना-नुकुर के बाद लेकिन ये सोचो कि क्या हम खुद…अपनी ही सोच को बदलने के लिए इतनी आसानी से तैयार हो जाएंगे?”…

“हम?…हम भला अपनी सोच क्यों बदलने लगे?..अपना तो बस एक ही सीधा-साधा सा फंडा है…राम नाम जपना और पराया माल अपना"…

”अरे!…अपनी बात नहीं कर रहा हूँ"..

“तो फिर?”…

“उनकी बात कर रहा हूँ जिनको मेहमाननवाजी का शौक चर्राया रहता है हर हमेशा”…

“ओह!…तुमने तो मुझे डरा ही दिया था”…

“शायद!…नहीं"…

“क्या…नहीं?”..

“यही कि इतनी आसानी से वो लोग अपनी सोच को बदलने के लिए तैयार नहीं होंगे"…

“भले ही वो दकियानूसी क्यों ना हो?”..

”बिलकुल"…

“खैर!…हमें क्या?…हम तो इसमें भी राजी-खुशी हैं और उसमें भी राजी-खुशी हो जाएंगे"…

इसी तरह दावत की बातें करते-करते दो दिन कैसे गुज़र गए…पता भी ना चला…अब तो बस एक रात ही बची थी बीच मेरे और मेरे महबूब याने के गुलाब जामुनों के बीच में…वो मेरे दर्शन को तरस रहे थे और मैं उनका सानिध्य पाने को बेताब ….अगले दिन सुबह छह बजे की ट्रेन थी…इसलिए मोबाईल में अलार्म लगा मैं जल्दी ही सोने को चला गया…सोचते-सोचते कब आँख लगी कुछ पता नहीं…

रात को पता नहीं किस कमबख्त का चौखटा देख के बिस्तर का मुंह ताका था कि सुबह अलार्म भी पूरा ढेढ घंटा देरी से बजा | हडबडा कर फटफटा तैयार हुआ और एक झटके में भाग लिया स्टेशन की तरफ…घर के नज़दीक ही था…इसलिए यकीन था कि दस-बारह मिनट की तेज चाल के बाद मैं अपनी मंजिल को पा ही लूँगा लेकिन  पता नहीं कैसा मनहूस दिन था ये आज का जो मेरे साथ हर वक्त बुरा होता जा रहा था?..

एक तो पहले घर से निकलते ही बिल्ली रास्ता काट गई और ऊपर से ना चाहते हुए भी मेरा पेट कुछ-कुछ खराब हो चला था | पता नहीं बीवी किस भण्डारे से माल-पानी ले आई थी हफ्ता भर पहले?….कल तक तो ठीक ही था...एक दिन में ही इतना बिगड़ जाएगा...सोचा ना था…पहले पता होता तो सारा का सारा कल ही चट कर जाता…

अब रह-रह के पेट में गुड़-गुड़ सी हो रही थी लेकिन..एक तो ट्रेन के छूट जाने का डर और उसकी एवज में बीवी के हाथों बेलन की मार पड़ने का डर…मैं बिना रुके स्टेशन की तरफ सरपट दौड़ता चला जा रहा था …शोर करते इंजन की आवाज़ सुनते ही मेरे पैरों में बिजली सी भर उठी और मैं ये जा और वो जा….बड़ी मुश्किल से ट्रेन के आखिरी डिब्बे को पकड़ पाया …जल्दबाजी में ये भी पता नहीं चला कि कम्पार्टमैंट लेडीज़ है या फिर जेन्ट्स….आव देखा ना ताव और झट से भाग लिया टायलेट की तरफ…दरवाज़ा अंदर से बंद था…बहुत खटखटाया लेकिन कोई फायदा नहीं | आखिर में तंग आ के ऊपर रौशनदान से झाँकने की कोशिश की तो पीछे से आ रही जनाना आवाज़ों ने ध्यान बांट दिया…..

"बचाओ....बचाओ…पुलिस...पुलिस"...की सी आवाजें सुनाई दे रही थी…किसी अनहोनी की आशंका से पलट के देखा तो सब कम्भखतमारियों का इशारा मेरी ही तरफ था…हडबडाहट में कहाँ कूदा...कैसे कूदा..कुछ याद नही....बस सीधा सरपट भाग लिया दूसरे डिब्बे की तरफ लेकिन...हाय री…मेरी फूटी किस्मत…सामने से हवलदार समेत टी.टी आवाज़ें सुन के इधर ही चला आ रहा था…साथ में कई और ठुल्ले भी थे| मुझे भागते देख वो भी मेरे पीछे लपक लिए और धर दबोचा मुझ मासूम को किसी मुर्गे के माफिक…

“स्साले!..लेडीज़ को छेड़ता है?…अभी सिखाते हैँ तुझे सबक कि कैसे छेड़ा जाता है लेडीज़ को"हवलदार चिल्लाया …

"चल!..टिकट दिखा" टी.टी भी कौन सा कम था? ..

मैँ चुप…मेरे पूरे खानदान में कभी किसी ने टिकट नहीं लिया तो मैं भला क्यों लेने लगा?…फ़ालतू के पैसे नहीं हैं अपने पास कि मुफ्त में लुटाते फिरें…इसलिए…जेबें टटोलने का नाटक करते हुए बहाना बना डाला...

"जी!...ल्ल…लगता है कि जल्दबाज़ी में स्टेशन पे ही गिर गयी"…
“हम्म!…..(मेरे सूट-बूट का एक्सरे करने के बाद सबकी आँख बचा के हवलदार ने जेब गर्म करने का इशारा किया..

अब अपनी जेब में भला बीवी ने कभी कुछ टिकने दिया है जो आज बक्श देती?…दो-चार रूपए की चिल्लड़ के अलावा कुछ भी नहीं था मेरे पास…तो उसकी जेब कैसे गर्म करता? “और अगर कुछ होता भी तो क्या मैं उसकी जेब गर्म कर देता?”…

“शायद!…नहीं"…

इसलिए…जेब गर्म करने का तो भैय्या ...सवाल ही पैदा नहीं होता…सीधे-सीधे ....साफ-साफ शब्दों में हाथ खड़े कर दिए उसके सामने और मिमियाते हुए स्वर में बोला कि...

“मेरा पेट खराब है..मुझे 'टायलेट' जाने दो...प्लीज़"...

हवलदार को गुस्सा तो मेरी कंगली हालत देख पहले से ही चढा था,बोला... 

"स्साले!…एक तो बिना टिकट…ऊपर से लेडीज़ कम्पार्टमेंट… और अब जनाब टायलेट भी लेडीज़ का ही इस्तेमाल करना चाहते हैँ"…

“तो?”पेट दर्द तो पहले से ही हो रहा था…ऊपर से ऐसा कोर जवाब सुन मैं बौखला उठा 

"इसे कहते हैँ...’एक तो चोरी...ऊपर से सीना जोरी” टी.टी को भी ताव आ चूका था… 

“तो?…अगर तकलीफ हो रही है तो मैं क्या करूँ?…क्या यहीं पे…(मैं बेशर्म हो उकडूँ बैठने को हुआ)…

“अर्र…क्या कर रहा है?…पागल है क्या?”भीड़ में से एक औरत चिल्लाई…

“अब जो मर्जी समझ लो…कंट्रोल नहीं हो रहा है तो मैं क्या करूँ?”मैं भी बेशर्मी पे उतर आया …

“थोड़ा सब्र तो रख बेट्टे…अगला स्टेशन आने वाला है…कंट्रोल करना तो हम सिखा देंगे तुझे"हवलदार का कड़क से सौम्य होता हुआ स्वर …

“वो कैसे?”..

"तेरे जैसे ड्रामे के लिए तो हमने स्पैशल जुगाड़ बनाया हुआ है"...
"टायलेट का?”मेरी आँखों में चमक उत्पन्न होने को हुई…

“हाँ!….इसी बात की तो तनख्वाह मिलती है हमें" …

“लोगों को टायलेट कराने की?”ना जाने क्यों ऐसी हालत के बावजूद भी मैं मसखरी करने से बाज़ नहीं आया 

“सब पता चल जाएगा…तू चल तो सही"…

“जी!…

“और कितनी देर लगेगी?”पेट में हो रही ऐंठन से परेशान मैंने व्याकुलता भरे स्वर में पूछा..

“बस!…दो मिनट और…स्टेशन आया ही समझ…आधा घंटा रुकेगी ट्रेन यहाँ..आराम से निबट लेइओ"…

“बस!…कोई पहले से ना घुसा हो"मेरे परेशान चेहरे को देख टी.टी.हँसता हुआ बोला

हा…हा…हा…

वो हंस रहे थे और मैं परेशान हो रहा था…मेरी परेशानी देख…एक तरस खाते हुए बोला….

“चिंता ना कर…कोई होगा भी तो उसे जबरन बाहर निकाल तुझे अंदर घुसा देंगे"…

“ओह!…थैंक्स….

“इसमें थैंक्स की क्या बात है?…आप जैसे देश के जिम्मेदार नागरिकों की सेवा करना तो हमारी ड्यूटी है…हमारा कर्तव्य है”…

“हम्म!…लगता है हमारी रेलमंत्री ने काफी सख्ती कर रखी है इन पर…तभी ये ऐसे बैंत के माफिक सीधे हुए पड़े हैं"मैं मन ही मन सोचने लगा

स्टेशन के आते ही मेरे चेहरे पे एक चालाकी भरी मुस्कान जन्म ले चुकी थी…इरादा जो नेक नहीं था मेरा….
“इस  हवलदार के बच्चे को यहीं चकमा दे नौ दो ग्यारह हो जाउंगा…एक बार जो इसकी पकड़ से छूट गया तो पुन्जा भी नहीं पाड़ पाएगा मेरा"…

"लेकिन…उफ़!…ये स्साला भी किसी कमीने से कम नहीं…इरादा भांप गया था शायद मेरा…इसीलिए ज़बरदस्ती सारे कपड़े उतरवा बन्द कर दिया पट्ठे ने एक सड़ियल से टायलेट में बन्द कर दिया मुझे | मैने भी सोचा कि पहले ज़रूरी काम से तो फारिग हो ही लूँ…फिर कुछ ना कुछ कर के निबटता हूँ इस कमबख्त से…लेकिन ये क्या?…ये क्या देख रहा हूँ मैं?….ऐसा कैसे हो सकता है?…आज़ाद देश में रह रहे हैं हम…ऐसा घिनौना बरताव तो कभी अंग्रेजों ने भी नहीं किया हमारे साथ…ऐसी आज़ादी से तो गुलामी ही भली थी…

हाँ!…ऐसी आज़ादी से तो गुलामी ही भली थी 


 

***राजीव तनेजा***

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थमा दो गर मुझे सत्ता-राजीव तनेजा

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"ओफ्फो!...पता नहीं कब अकल आएगी तुम्हें?…चलते वक्त देख तो लिया करो कम से कम कि पैर कहाँ पड़ रहे हैँ और नज़रें कहाँ घूम रही हैँ" बीवी चिल्लाई

"क्यों?...क्या हुआ?"...

"कुछ तो शर्म किया करो...तुम्हारी बच्ची की उम्र की है"...

"तो?"...

"किसी को तो बक्श दिया करो कम से कम"...

"अरे!...सिर्फ देख ही तो रहा था..कोई सच में थोड़े ही…और वैसे भी कौन सा तुम्हारी सगे वाली थी जो मैं अपनी उफनती भावनाओं पर संयम रख..अपने मचलते अरमानों को काबू में रखने का ढोंग भरा प्रयास करता?”…

"अरे!...अगर मेरी सगे वाली हो तो मैँ कभी परवाह भी ना करूँ कि… ‘वड़े  ढट्ठे खू विच्च…मैनूँ की?’ …लेकिन ये जो तुम बिना अपना आगा-पीछा सोचे हुए हर किसी ऐरी-गैरी…नत्थू-खैरी के पीछे लाईन लगाना शुरू कर देते हो...ये मुझे मंज़ूर नहीं"...

"अरे!..ऐरी-गैरी हो या कोई नत्थू-खैरी हो….क्या फर्क पड़ता है?…बस…सामान पूरा होना चाहिए"...

"हाँ-हाँ!...तुम्हें क्या फर्क पड़ता है?….फर्क तो मुझे पड़ता है…पर्सनैलिटी तो मेरी ही डाउन होती है ना सोसाईटी में?….तुम्हें भला क्यों फर्क पड़ने लगा?...तुम्हें तो बस लड़की दिखनी चाहिए..भले ही जैसी भी हो.... ऐंगी-बैंगी...आडी-तिरछी...कोई भी चलेगी…क्यों?...है कि नहीं?"...

"हाँ-हाँ…बिलकुल…बस…सामान पूरा…

“सामान पूरा…सामान पूरा…आखिर क्या होता है सामान पूरा?”…

“अरे!…वही…नख से शिखर तक सब कुछ एक जैसा याने के मैचिंग होना चाहिए"…

“सब कुछ?”….

“नहीं…सब कुछ नहीं…कुछ-कुछ"…

“मैं कुछ समझी नहीं"…

“अरे!…अगर सब कुछ सेम टू सेम हो गया तो सामने वाली या तो टीन का कनस्तर लगेगी या फिर खम्बा"..

“बिजली का?”…

“नहीं!…टेलीफोन का"…

“बिजली का क्यों नहीं?”…

“बिजली का इसलिए नहीं कि वो ज्यादा लंबा होता है और अपने देश की लड़कियों का तो तुम्हें पता है ही …शुरू बाद में होती हैं और खत्म पहले होती हैं"…

“ओह!…तो फिर तुम्हारे ऐसा कहने का मतलब क्या था?”..

“यही कि…पैर के नाखूनों की नेल पोलिश से लेकर होंठों की लिपस्टिक तक और यहाँ तक कि जूड़े में लगे हेयर पिन…क्लिप या रबर बैण्ड तक का रंग भी एकदम सेम टू सेम याने के मैचिंग होना चाहिए"…

“ओह!…

“तुम कुछ और समझी थी क्या?”…

“न्नहीं तो”…

“वैसे!…दाद देनी पड़ेगी तुम्हारे दोगलेपन की"…

“क्या मतलब?”..

“बातें करते हो ये लंबी-चौड़ी पसन्द-नापसन्द की और जहाँ कहीं भी किसी लड़की को देखते हो…बस…मुँह उठाते हो और चल देते हो सीधा नाक की सीध में…..कितनी बार समझा चुकी हूँ कि आजकल की लड़कियाँ एकदम चालू होती हैँ...इनके चक्कर में ना पड़ा करो लेकिन तुम्हें अक्ल आए..तब ना…उसने दो पल मुस्कुरा के क्या देख लिया...हो गए एक ही झटके में शैंटी फ्लैट".. .

“तो?”…

"अर्र….अरे!…क्या कर रहे हो….ध्यान से तो चलो कम से कम”….

“क्क्या?…क्या कर रहे हो?”…

“उफ्फ!…मेरा पल्लू तो छोड़ो…पागल हो गए हो क्या?”…

ध…ध…धड़ाम …..

"ओह!…शि….शि…शिट….वही हुआ ना जिसका मुझे डर था?….आ गए मज़े?.... गिर पड़े ना...धड़ाम?”…..

“अब उठाओगी भी या ऐसे ही"...

“हुँह!…उठाओगी भी….पहले तो सिर्फ नज़र फिसला करती थी जनाब की...अब तो खुद भी फिसलने लग गए हैँ..वाह!....क्या तरक्की की जा रही है?…वाह-वाह"...

“अरे!…ज्यादा बातें मत बनाओ और उठाओ मुझे फटाफट…शुक्र है कि कोई जान-पहचान वाला नहीं है आस-पास में"मैं इधर-उधर देखता हुआ बोला

“मैं तो नहीं उठाने वाली….पड़े रहो यहीं पे चारों खाने चित...और हाँ...उसी...ऊँचे सैंडिल वाली कलमुँही को ही बुला लेना ये गोबर से लिपे-पुते जूते साफ करने के लिए...मैँ तो चली अपने मायके"मेरी दयनीय हालत पे तरस खाने के बजाय बीवी बिना रुके लगातार बोले चली जा रही थी

"अब मैँ क्या इन गाय-भैंसो को जा-जा के इनवीटेशन देता फिरता हूँ कि यूं बीच सड़क के आ...गोबर और लीद करती फिरें?"मैं गुस्से से खड़ा हो अपने हाथ झाड़ता हुआ बोला 

"अच्छी भली डेयरियाँ बसा कर दी हैँ दिल्ली के कोने-कोने में अपनी सरकार ने कि…अपना आराम से दुहो और लोड कर ले आओ दूध शहर में लेकिन नहीं..लोगों को कीड़ा जो काटता है कि….'प्योर' माल होना चाहिए"

"माँ दा सिरर... मिलता है प्योर...अभी कल ही तो हज़ारों लीटर नकली दूध पकड़ा गया है कुरूक्षेत्र में…पता नहीं कास्टिक सोडे से लेकर टिटेनियम तक क्या-क्या उल्टी-सीधी चीज़ें मिलाते हैँ दूध का रंग और झाग बनाने के लिए और मैँने तो यहाँ तक सुना है कि दूध को गाढा करने के लिए यूरिया और  ब्लाटिंग पेपर का इस्तेमाल किया जाता है"...

"बिलकुल...पैसे के लालच में इनसान इतना अँधा हो चुका है कि वो किस हद तक नीचे गिर जाए...कुछ पता नहीं…पता नहीं क्या-क्या 'स्टेरायड' मिलाते हैँ स्साले चारे में दूध बढाने के वास्ते" ...

"लेकिन ऐसे…सभी को एक सिरे से बदनाम करने से  क्या फायदा?....सभी थोड़े ही नकली दूध बेचते हैँ... अपने मोहल्ले का रामगोपाल तो सबकी आँखों के सामने ही दूध दुह के देता है"...

"मानी तुम्हारी बात कि सामने दुह के देता है लेकिन वो भी दूध का धुला नहीं है"...

"वो कैसे?"....

"वो ऐसे...कि बेशक वो पब्लिक के आँखों के सामने अपनी गाय-भैंस से दूध निकालने का स्वांग करें लेकिन सच यही है कि थोड़ा-बहुत पानी तो उसके  डोल्लू में पहले से मौजूद रहता है लेकिन पब्लिक को तो बस थन से धार निकलती दिखाई देनी चाहिए....डाईरैक्ट फ्राम दा सोर्स…भले ही सुबह शाम इंजैक्शन ठुकवा ठुकवा के भैंस बेचारी का पिछवाड़ा क्यों ना  सूजा पड़ा हो...इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता"…

"हम्म!…ऐसे मौकों पर अपनी मेनका पता नहीं कहाँ गायब हो जाती है?"

"अरे!...वो तो अपने बेटे को दुनिया-जहाँ की बुरी नज़रों से बचाने की जुगत में मारी-मारी फिर रही है आजकल"...

"या फिर कहीं उसे भी शायद डाईरैक्ट फ्राम दा सोर्स की आदत पड़ी हो"बीवी उसकी भद्द पीटती हुई बोली
"हा...हा...हा"..

"अरे!...दूध तो बच्चों ने पीना होता है...उनके भविष्य के साथ तो खिलवाड़ ना करो कम से कम"बीवी तमक के हिस्टीरियाई अन्दाज़ में चिल्लाती हुई बोली

"तुम्हें तो बस कोई टॉपिक मिलना चाहिए..हो जाती हो तुरंत शुरू…अब गाय भैंस को क्या पता कि कहाँ गोबर करना है और कहाँ नहीं....उन्हें बस हूक उठनी है और उन्होंने बिना कुछ आगा-पीछा सोचे झट से पूंछ उठा देनी है" 

"तुम गाय भैंस का रोना रो रहे हो...सामने देखो दिवार कैसी सनी पडी है"बीवी बुरा सा मुँह बना इशारा करती हुई बोली...

"स्साले!...न दिन देखते हैँ ना रात देखते हैँ…खाली दिवार दिखी नहीं कि बेशर्मों की तरह सीधा पैंट की ज़िप पे हाथ गया"मैँने हाँ में हाँ मिलाई

"कोई कंट्रोल-शंट्रोल भी होता है कि नहीं?"बीवी खुन्दक भरे स्वर में बोली

"लाख लिखवा दो कि "यहाँ मूतना मना है" लेकिन स्साले!...वहीं खडे होकर धार मारेंगे" मैँ भी शुरू हो गया 

"औरत-मर्द में कोई फर्क ही नहीं करते...ना देखते हैँ कि कौन गुज़र रहा है पास से और कौन नहीं…शरम-वरम तो जैसे बेच खाई है सबने "भद्दा सा मुँह बनाते हुए बीवी बोली

"स्सालों ने पूरे देश को खुले शौचालय में तब्दील कर रखा है…किसी और देश में कर के दिखाएँ ऐसा तो पता चले"मैँ भी भडकता हुआ बोला

"काट के ना रख देगा वहाँ का कानून" बीवी हँसते हुए बोली

"बिना डण्डे के कोई नहीं सुधरता है... इन्हें तो बस डंडॆ का डर दिखे...तभी सीधे होंगे सब के सब"मेरा पारा भी हाई हो चला था

"तुम भी कौन सा कम हो?...तुम भी तो कई बार.....

"अरे!...उस दिन की बात कर रही हो ना तुम?...उस दिन तो मेरी तबियत ठीक नहीं थी"मैँ झेंपता हुआ बोला

"हाँ!...उस दिन तुम्हारी तबियत ठीक नहीं थी..आज इन सब की तबियत ठीक नहीं है"...बीवी दिवार के साथ सट कर खड़े लोगों की तरफ कनखी से इशारा करती हुई बोली

"अरे!...कभी-कभार की बात हो तो अलग बात है....यहाँ तो इन स्सालों ने रोज़ की आदत बना रखी है”…

“और फिर एक बुरी आदत हो तो कोई सब्र भी कर ले लेकिन यहाँ तो लोग बात बाद में करते हैँ...गाली पहले देते हैँ और वो भी कोई छोटी-मोटी नहीं…..छोटी-मोटी गाली देना तो सब अपनी शान के खिलाफ समझते हैँ"

"तुम भी कमाल करती हो...अब कोई छोटी-मोटी गाली देगा तो लोगों ने उसे बेवाकूफ समझ इग्नोर कर देना है"...

"हम्म!…तभी आजकल सबकी अटैंशन को अपनी तरफ डाईवर्ट करने के लिए हैवीवेट टाईप गालियाँ देने का फैशन चल रहा है"...

"और तो और माँ-बहन की पवित्र एवं पावन गालियाँ  तो आजकल प्रशादे में प्रसाद स्वरूप…मुफ्त मिलने लगी हैँ"मैँ हँसता हुआ बोला

"रहने दो...रहने दो...दूसरों पे उँगली उठाने से पहले खुद अपने गिरेबाँ में झाँक कर तो देख लो ...तुम भी कुछ कम नहीं हो"बीवी ताना मारते हुए बोली

"तुम तो बस हर बात में किसी ना किसी तरीके से मुझे घसीट लिया करो... क्या मैँ कहता फिरता हूँ लोगों से कि यूँ सड़कों पे कूडा-करकट फैंक दिल्ली की ऐसी-तैसी कर डालो?... या फिर थूक-थूक के इसे थूकदान में तब्दील कर डालो?"अपने ऊपर आरोप लगता देख मेरा भडकना जायज़ था

"तुम ही बताओ कि क्या मैँ कहता फिरता हूँ इन पैसों के लालची 'गुटखा-खैनी' वालों से कि बच्चे-बच्चे को चस्का लगवा नशेड़ी बनवा दो?…मेरा बस चले तो इन सब स्साले…हराम के जनों को जेल की चक्की पीसने पे मजबूर कर दूँ"...

"दूसरों पे कीचड़ उछालना कितना आसान है”…

“क्या मतलब?”…

"तुम्हारे हाथ में ही अगर ताकत आ जाए तो तुम ही क्या उखाड़ लोगे?"

"मैँ?”…

"हाँ!…तुम...तुम्हीं से बात कर रही हूँ मैँ"बीवी मेरा माखौल उडाते हुए बोली

"अरे!...मैँ तो दो दिन में... हाँ...दो दिन में सुधार के रख दूँ पूरी दिल्ली को…यूँ चुटकी में...हाँ..चुटकी में दिल्ली का चौखटा ना बदल डालूँ तो मेरा भी नाम राजीव नहीं"...

“अच्छा?”बीवी के चेहरे पे व्यंग्यात्मक प्रश्नचिन्ह था…

"ये!...ये स्साले?... कीड़े-मकोड़े?…इन्हें तो मैँ एक ही दिन में सिखा दूँ कि दिल्ली में कैसे रहा जाता है?"...

"कैसे यहाँ की सड़कों पे चला जाता है और कैसे यहाँ की सड़कों पे थूका जाता है?"...

"मार-मार के डंडे सब सिखा दूंगा कि कैसे कचरा फैला…दिल वालों की नगरी दिल्ली का बेडागर्क किया जाता है?"मैँ लगातार बोलता चला गया लेकिन मेरा गुस्सा कम होने का नाम नहीं ले रहा था

"डंडे मार के?”….

“हाँ!…डंडे मार के….सब समझ में आ जाएगा इन स्सालों की समझ में कि कैसे सरेआम कानूनों की धज्जियाँ उडाई जाती हैं और कैसे खुलेआम सिग्रेट-बीड़ी के सूट्टे लगा आम अवाम की नाक में दम किया जाता है?"मैँ आखरी कश लगा सिगार को नीचे फैंक…उसे पैर से मसलते हुए बोला

"इन स्सालों को तो नाम के लिए भी ट्रैफिक सैंस नहीं है”...

“और नहीं तो क्या?…ना किसी को यहाँ पैदल चलने की अक्ल  है और ना ही किसी को गाड़ी-घोड़ा दौड़ाने की तमीज…बस…मुँह उठाते हैँ और चल देते हैँ सीधा नाक की सीध में”…

“भले ही कोई पीछे सौ-सौ गाली बकता फिरे...इन्हें कोई मतलब नहीं"...

"बिलकुल…कोई सरोकार नहीं इन्हें कि कोई इनकी गाड़ी के नीचे आते-आते बचा या ये खुद ही किसी गाड़ी से कुचले जाते अभी"बीवी ने बात पूरी की

"ऊपर से ये पैदल चलने वाले...उफ!...तौबा...पता नहीं कौन सी दुनिया में खोए रहते हैँ?"

"अरे!...ये तो ग्यारह नम्बर की बस पे सवार होते हैँ...यानी कि पैदल चलते हैं" 

"और!..गलती तो हमेशा बड़ी गाड़ी वाले की ही मानी जाती है"मैँ व्यंग्यपूर्वक चिढता हुआ बोला...

"उल्टा!..मुआवज़ा और ले मरते हैं स्साले"बीवी का पारा भी हाई हो चला था 

"एक बार मेरे हाथ में सत्ता आ जाए किसी तरह से…फिर देखना कैसे इन्हें दिल्ली की तरफ रुख कर के मूतना भी  भुलवाता हूँ"…

"हुँह!...थोथा चना...बाजे घना"....

“क्या मतलब?”मैंने अचकचा कर प्रश्न दाग दिया…

"क्या?... क्या कर लोगे तुम?"बीवी मानों मुझे जोश दिलाने पे तुली थी

"अरे!…मेरा बस चले तो सबसे पहले कुकुरमुत्ते की तरह गली-गली उग रही इन फाईनैंस कम्पनियों को ही ताला लगवा दूँ... स्साले!...ना बन्दा देखते हैं..ना बन्दे की जात और मोटर साईकिलें बाँट डालते हैँ आठ-आठ कि…बस…फाईल बनवाओ और घर ले जाओ"…

"हम्म!…

“पागल के बच्चे...पाँच-पाँच हज़ार में 'स्पलैंडर' इस तरह बाँटते फिरते हैँ कि...

‘ले बेटा!....मौज कर...बाकि देता रहियो आसान किश्तों में’.... 

"क्या कहा?....नही दे पाएगा?"...

"फिक्र छोड़ और चिंता ना कर".....

"हमने गुण्डे-पहलवान... ऊप्स!...सॉरी रिकवरी ऐजेंट पाले हुए हैँ इसी खातिर"... 

"क्या यार?…जब भी बात करोगे…छोटी ही करोगे"..

“क्या मतलब?”…

“तुम यहाँ स्पलैंडर जैसी टटपूंजिए टाईप बाईकों का रोना रो रहे हो और उधर इस ‘नैनो' की बच्ची ने नाक में दम कर देना है"...…अब तो नया स्यापा खड़ा होने की कगार पे आ खड़ा हुआ है"…

"वो कैसे? ...दुनिया की सबसे सस्ती कार...

"वोही तो!......"बीवी के चेहरे पे असमंजस का भाव था 

"जिसे देखो....वही 'नैनो' पे सवार दिखाई देगा"....

"तो?...बुरा क्या है इसमें?"

"भला क्या फर्क रह जाएगा अमीर और गरीब में?"बीवी अपनी मँहगी साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए बोली "दोनों एक ही गाड़ी में घूमते नज़र आएंगे"....

"तो?"...

"आखिर!...स्टेटस-व्टेटस भी कोई चीज़ होती है कि नहीं?"...

"हम्म!....फिर तो काम वाली बाईयां भी घरों में काम करने के लिए गाड़ी में आया करेंगी"मैँ मुस्कुराता हुआ बोला...

"हाँ!...नए बहाने मिल जाएंगे उन्हे काम चोरी के...कभी टायर पैंचर तो कभी ट्रैफिक जाम"बीवी बुरा सा मुँह बनाते हुए बोली

"ऊपर से अगर पुलिस का चालान हो गया तो समझो माई की दो दिन की छुट्टी"मैँने मन ही मन सोचा

"अभी तो हर किसी को नया-नया चाव चढ रहा है ना 'नैनो' का ...पता तब चलेगा बच्चू!...जब पार्किंग की समस्या सर चढ के बोलेगी"बीवी मानों भविष्य की तरफ ताकती हुई बोली…

"अभी से बुरे हाल हैँ...आगे तो रखने तक को जगह तक ना मिलेगी"

"इस मामले में ये जापान वाले सही हैँ...पूरी दुनिया को गाडियों पे सवार कर दिया और खुद घूमते हैँ मजे से ट्रिन-ट्रिन करते बाई-साईकिल पे".... 

"तुर्रा ये कि सेहत ठीक रहती है...स्साले!...कंजूस कहीं के" मैँ बीच में ही बोल पडा
"सुना है!...वहाँ बन्दे को गाड़ी तब मिलती है जब वो पक्का सबूत दे देता है कि भईय्ये...इसे रखेगा कहाँ पर"बीवी के चेहरे प्रश्नवाचक चिन्ह मंडरा रहा था
"और नहीं तो क्या?”मैँ उसकी जिज्ञासा शांत करता हुआ बोला
"अभी नौकरियों में 'रिज़र्वेशन' माँगा जा रहा है...आने वाले समय में 'पार्किंग' का भी कोटा फिक्स करने की 'डिमांड' उठने लगें तो कोई हैरत की बात नहीं"बीवी बोली

"ताज्जुब नहीं कि कल को कोई पायजामे की जेबों में हाथ डाले-डाले मज़े से यूँ ही टहलता-टहलता 'शो-रूम' जा पहुँचे और...जेब से दो-तीन बण्डल मेज़ पे धरता हुए बोले कि "भईय्या!...दो 'नैनो' देना....'डीलक्स' वाली"
"स्साले जय शनि देव.. जय बजरंग बली....का हुँकारा लगाते बिखारी तक 'नैनो' में भीख माँगते नज़र आएँगे"आने वाले समय का मंज़र मेरी आँखो के आगे नाचने लगा
"कल को नज़रबट्टू के नाम पर दफ्तर-दुकानों पे नींबू मिर्च टांगने वाले भी 'नैनो' पे आने लग जाएँ तो कोई अजब की बात न होगी।"
"बस!..थोडा सा अन्दाज़ बदल जाएगा उनका...धन्धे का नाम नींबू-मिर्ची से बदल कर मौडीफाई होता हुआ 'लैमन चिली वाला' हो जाएगा"बीवी मज़ाक में बोली
"मुझे तो अभी से अपने पप्पू की चिंता हो रही है"बीवी परेशान हो बोली

"वो क्यों?"मेरे चेहरे पे सवाल था

"कल को वो भी खिलौनों से आज़िज़ आ नैनो की ही डिमांड ना करने लगें"मेरी तरफ देख बीवी बोली

"कोई बड़ी बात नहीं" मैँने जवाब दिया 

"कहीं बच्चों के लिए सस्ते पैट्रोल की डिमांड भी ना उठने लगे" मैँ मुस्कुराता हुआ बोला

"बिलकुल…आजकल के बच्चे कौन सा कम है?…मैं तो कहती हूँ…आग लगे ‘नैनो' को….हमने कौन सा लेनी है?”…

“ये तुम क्या कहती हो?…ये तो पूरा मीडियाजगत कह रहा है"…

“क्या?”..

“यही कि चलते-चलते ‘नैनो' में आग लगने की घटनाएं अचानक बढ़ गयी हैं"…

“इसीलिए तो मैं कहती हूँ कि…आग लगे ‘नैनो' को…हमने कौन सा लेनी है?”..

“जब लेनी ही नहीं है तो फिर इसकी बात ही क्यों करती हो?”..

“तो फिर क्या बात करूँ?”..

“वही जो पहले कर रहे थे"…

“कौन सी?”..

“वही…दिल्ली को सुधारने की"...

"तो फिर सुधारों ना…कौन रोकता है?”…

अरे!…पहले मेरे हाथ में सत्ता आए तो सही …फिर देखना…मैं कैसे सबक सिखाता हूँ सबको"...

"हर खास औ आम को सिखा दूंगा कि कैसे थूका जाता है खुलेआम... वहीं के वहीँ थूके हुए को चटवा ना दिया तो मेरा भी नाम राजीव नहीं...आक!...थू"मैँ गला साफ कर खंखारता हुआ बोला...... 

"हाँ!…अपने घरों...दफ्तरों और तहखानों में थूक के तो देखो...तब पता चलेगा...खुद से ही घिन्न ना आने लग जाए तो कहना"बीवी मेरी हाँ में हाँ मिलाती हुई बोली 

"इन स्साले ठेकेदारों को बता दूँगा कि कैसे लूटा जाता है सरकारी माल... हथकडियां लगवा …नंगे बदन सरे बाज़ार ना घुमाया तो कहना…मेरा डण्डा जब चलेगा तो बड़े-बड़े तुर्रमखान सीधे ना हो जाएँ तो कहना"…

"अरे!...किस-किस को सुधारोगे तुम?....सारा ढाँचा ही तो बिगड़ा पड़ा है दिल्ली का"...

"अरे!...तुम आवाज़ तो करो...एक-एक को ना ठीक कर दूँ तो मेरा भी नाम राजीव नहीं"...

"अब इन अवैध रिक्शाओं को ही लो...रोज़ तो जब्त करते फिरते हैँ 'एम.सी.डी' वाले...मगर अगले दिन सड़क पे फिर हिण्डोले खा झूमते-गाते और नाचते नज़र आते हैँ"रिक्शेवालों की मनमानी से त्रस्त आम भारतीय नारी की आवाज़ थी ये

"ओह!…

“मैँने तो सुना है कि पूरा का पूरा मॉफिया होता है इस गोरखधन्धे के पीछे"...

"हाँ!...रजिस्ट्रेशन के नाम पे एक-एक पर्ची पे बीस-बीस रिक्शे रजिस्टर करवा रखे हैँ स्सालों ने"....

"हम्म!…फिर तो लाखों का खेल होता होगा हर रोज़"...

"और नहीं तो क्या?"...

"मैँने तो सुना है कि शँकर लॉण्डरी वाले के पास...अपने....खुद के हज़ार रिक्शे हैँ"
"सही सुना है.....अब बीस से तीस रुपए फी रिक्शे के हिसाब से अपने आप हिसाब लगा ले कि कितने का गेम बजाता होगा वो हर रोज़"....

"लेकिन फिर उसे ये लॉण्डरी जैसा दो टके का काम.....

"अरे!...करना पड़ता है...दिखावे के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है...लेकिन जो हो गया सो हो गया... अब और नहीं...सारी की सारी 'मॉफिया गिरी' धरी की धरी रह जाएगी पट्ठे की जब मेरा कटर चलेगा"

"कटर चलेगा?"बीवी चौंकती हुई बोली

"हाँ!...'कटर'.... 'कटर' चलवा दूंगा...सबके अवैध रिक्शाओं पर... ये नहीं कि जब्त कर गोदाम में फिकवा दूँ ताकि कुछ ले-दे के फिर से सडकों पर  हुड़दंग मचाते फिरें?..एक ही बार में टंटा खतम कर दूंगा इनका"...

"बिलकुल!...ना रहेगा बाँस और ना ही बजने देना इनकी बाँसुरी..काट के इतने टुकड़े करवा देना कि कबाड़ी भी दो रुपए किलो से ऊपर का भाव लगाने से पहले सौ बार सोचे"बीवी भी तैश में आ मेरा साथ देती हुई बोली...

"थैंक्स फॉर दा सपोर्ट"...

"वो सब तो ठीक है लेकिन......इन पैदल चलने वालों का क्या करोगे?…कैसे सिखाओगे इन्हें तमीज़ से चलना?…पागल के बच्चे..मुँह उठाते हैँ और चल देते हैँ बिना सोचे-समझे सीधा नाक की सीध में"

"अरे!…इनके लिए तो मैँ लठैत पहलवानों की भर्ती करूँगा"....

"वो किसलिए?"....

"वो इसलिए मेरी जान कि  इधर इन्होंने गलत तरीके से सड़क पार की...और उधर लट्ठ बरसा…दे दनादन..सड़ाक…सड़ाक…पट्ठों को हथकड़ी लगवा वहीं 'रेलिंग' से ना बँधवा दिया तो मेरा नाम भी राजीव नहीं"…

“ओह!.. 

"फोटो अलग से खिंचवाना ऐसे नमूनों की"...

"वो किसलिए?"...

"ताकि जान ले पूरा इंडिया कि क्या हश्र होने जा रहा है अब बद्द-दिमागों का"

"इस सब से फायदा?"....

"बहुत!...पड़ेगी एक को..लगेगी सबको...सभी सीधे हो जाएंगे”…

“हम्म!…बहुत देख लिया सबको आराम से समझा बुझा के लेकिन लातों के भूत भला बातों से कब माने हैँ जो अब मानेंगे?" 

"यही इलाज है इनका...डण्डा सर पे हो तो बड़े-बड़े सीधे हो जाते हैँ"... 

"हम्म!…

“यहाँ ना तो किसी को किसी का डर है और ना ही किसी को कानून की कोई परवाह है”…

“सही है बाहरले देशों का कानून...इधर जुर्म किया और उधर पुलिस सज़ा देने को तत्पर"

"यहाँ!.....यहाँ तो स्साला जुर्म आज करो...सज़ा का कोई पता नहीं...कब मिले...मिले ना मिले..कोई गारैंटी नहीं" 

"सालों तक लंबे केस चलते हैं यहाँ....किसी को सज़ा होते देखा है?”...

“नहीं ना?"....

“इसीलिए तो बेड़ागर्क हुए जा रहा है हिन्दोस्तान का...आम जनता भी तो इन्हीं नेताओं से ही सबक लेती है…देखती है कि जब इनका बाल भी बांका नहीं हो पा रहा तो अपना क्या बिगड़ेगा"बीवी भी मेरे रंग में रंग चुकी थी
"हम्म!..

“मुझे तो अरब देशों का कानून बहुत पसन्द है" बीवी प्यार से इठलाती हुई बोली... 

"वो भला क्यूँ?"..

"जैसा जुर्म...वैसी सज़ा....चोरों के हाथ काट दिए जाते हैं और बलात्कारियों के......

"हा...हा...हा"...

“और नशे के सौदागरों को पूरी ज़िन्दगी जेलों में सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है"बीवी पुन: गँभीर होती हुई बोली

"एक बार मेरे हाथ में पावर आने दो....फिर देखना कि कैसे मैँ इन स्साले कामचोर बाबुओं को सस्पैंड कर एक ही झटके में बताता हूँ कि कैसे ड्यूटी पे आए बिना हाज़री लगवाई जाती है" मैं सामने से आ रहे गुप्ता जी को देखकर एकदम से बौखलाता हुआ बोला  

"स्साले!...मुफ्त में सरकारी तनख्वाह डकारते हैँ....बाप का माल समझ रखा है क्या?"...

"वो सब तो ठीक है पर इन बिगड़ैल किस्म के नेताओं का क्या करोगे?…जीना हराम कर रखा है इन स्सालों ने आम पब्लिक का...इन्हें तो बस पैसे वाले ही नज़र आते हैँ"

"इनकी तो मैँ…जेल की रोटी खाने पे मजबूर ना कर दिया तो कहना" 

"चक्की पीसते-पीसते सब सीख जाएंगे कि...

  • कैसे बड़ी बड़ी मॉलों को लाईसैंस दे आम छोटे दुकानदारों से जीने का हक ही छीन लिया जाता है?"

  • "कैसे बड़े-बड़े लाल...हरे और नीले फ्रैश स्टोरों को कोठियों में खोलने की इज़ाज़त दे आम आदमी की रोज़ी-रोटी पे लात मारी जाती है"...

  • "सिखा दूंगा इन्हें कि कैसे पिछले दरवाज़े से मज़दूर वर्ग का सर्वेसर्वा होने पर भी नंदी को ग्राम में भेजा जाता है"...

  • "सिखा दूंगा कि कैसे गिने-चुने निशानों का डिमालिशन कर पूरी पैसे वाली जमात को बचाया जाता है"

  • "सिखा दूंगा कि कैसे अपने धूल फाँकते उजाड़ और बंजर जोहड़ों को सरकारी पैसे से हॉट बज़ार या सुभाष चन्द्र बोस स्मारक में तब्दील करवा अपनी तिजोरियां भरी जाती हैँ"

  • "कैसे सरकारी गोपनीय दस्तावेजों का नाजायज़ इस्तेमाल कर आने वाले समय में एक्वायर होने वाली ज़मीन गरीब किसानों से कौड़ियों के दाम ले बाद में लाखों करोड़ों नहीं बल्कि अरबों कमाए जाते हैं"

  • "कैसे अपने नेम फेम की खातिर मैट्रो का रूट तब्दील करवाया जाता है"बीवी भी पिल पड़ी

  • "कैसे सरकारी जमीन पे रातों रात झुग्गी बस्तियँ बसवा अपना वोट बैंक मज़बूत किया जाता है"...

  • "कैसे उन्हें नई जगह बसाने की आड़ में हज़ारों लाखों जाली पर्चियाँ अपने लोगों में पैसे ले ले बाँटी जाती हैँ"

  • "कैसे सरकारी ड्रा में मलाईदार प्लॉट अपनों के नाम किए जाते हैँ"बीवी का गुस्सा कम होने को ही नहीं था

  • "कैसे पैसे ले ले कुक्करमुत्ते की भांति उगने वाली जाली फ्राड कंपनियो को राज्य में काम करने की छूट दी जाती है"

  • "कैसे प्राईवेट बिजली कम्पनी को नए तेज़ भागते मीटर लगाने की छूट देकर करोड़ों के वारे-न्यारे किए जाते हैँ"

 

  • "कैसे ऑटो टैक्सी के इलैक्ट्रानिक मीटरों के जरिए पब्लिक की जेब से पैसा खींचा जा सकता है"बिना रुके मैँ भी बोलता रहा

"हद हो गई लापरवाही की….इतना सब कुछ हो रहा है लेकिन जनता है कि कुछ कहती ही नहीं"… 

"अरे!...ये फुद्दू पब्लिक है...ये कुछ नहीं जानती है…हमारे यहाँ डर नहीं है ना किसी को कानून और समाज का…मौका मिले सही...अनपढ या पढा लिखा....कोई भी कानून तोडने से गुरेज़ नहीं करता" 

"मज़ा आता है...शेखी दिखाई देती है इसमें...भीड़ में सबसे अलग...सबसे जुदा होने की चाहत होती होगी शायद…इस सब की वजह" 

"मेरा बस चले तो इन स्साले…सभी रिश्वतखोरों के M.M.S  बनवा के इनके दूध धुले चेहरों का 'लाईव टैलीकास्ट' करवा दूँ" 

"स्साले!…खुदा समझते हैँ सब अपने आप को…जिसे देखो...वही दिल्ली की कब्र खोदने पे उतारू है" 

"अब इन ब्लू लाईन वालो को ही लो...बन्दे की जान की कोई कीमत ही नहीं है इनकी नज़र में....दो-चार को तो ऐसे ही ...रोज़ाना खामख्वाह में रौंद डालते हैँ" 

"इन स्साले!...ब्लू लाईन वालो की तो मैँ.... 

"सुना है!...सब की सब बड़े नेताओ की हैँ इसलिए इनके खिलाफ लाख आवाज़ें उठने के बावजूद भी बेधड़क हो के कुचले चली जा रही हैँ पब्लिक को"… 

"मेरे हाथ में ताकत आ जाए बस एक बार... सब के परमिट कैंसल करवा के दिल्ली से बाहर फिंकवा दूंगा कि...

बस!...बहुत हो गया...चलो…अब...यू.पी....बिहार" 

"अरे!...तब तो बहुत दिक्कत हो जाएगी..इतनी भीड...इतने लोग....इतनी पब्लिक...बाप रे”.... 

"होती रहे मेरी बला से...क्या मुझ से पूछ के आए थे दिल्ली?"....

"लेकिन....

"अरे मेरी धन्नो!...कुछ पाने के लिए...कुछ खोना भी ज़रूरी होता है कि नहीं?"मैँ समझाता हुआ बोला
"हाँ!…होता तो है लेकिन...

"अरे!..लेकिन-वेकिन की तू चिंता छोड़…बेफिक्र रह..एक ही झटके में नहीं साफ होगा इन 'ब्लू लाईन' बसों का पत्ता"मैँ तसल्ली देता हुआ बोला....

"तो फिर?"...

"सिलसिलेवार ढंग से कुछ ही महीनों में सबकी बत्ती गुल कर दूंगा दिल्ली से" 

"तब तक क्या हाथ पे हाथ धर पब्लिक घर पे बैठी रहेगी?".... 

"अरी मेरी मुन्नी!....'कार्पोरेट सिस्टम' लागू करूगा मुम्बई के माफिक...एक ही कम्पनी की दो-दो हज़ार बसें होंगी कम से कम".... 

"अरे वाह!....फिर तो पब्लिक भी खुश...कम्पनी भी खुश"....

"और लगे हाथों हम भी खुश"… 

"वो कैसे?"...

"अरे बेवाकूफ!...जब हम दिल्ली को सुधारने चलेंगे तो पूरा दिन उसी में बिज़ी रहेंगे कि नहीं?"...

"हाँ!...तो?"...

"अरे!...जब हम पूरा दिन ही काम-काज में बिज़ी रहेंगे तो किस बेवाकूफ के पास इतनी फुरसत होगी कि वो एक-एक बस वाले के ठिय्ये पे जा-जा के उनसे अपनी मंथली वसूल करता फिरे?" 

"हाँ!...हमें तो भय्यी...एक मुश्त रकम मिल जाए पूरे साल भर की तो ही जा के चैन पड़े"बीवी अँगड़ाई लेती हुई बोली... 

"वैसे भी ये छुट्टी रकम का होना ना होना एक तरह से बेकार ही है"...

"हाँ!...कब आती है कब जाती है कुछ पता ही नहीं चलता"... 

"अपना!.. एक बार में ही पूरे मिल जाएँ तो कहीं ढंग से ठिकाने भी लगें" 

"छोटे-मोटे बण्डल तो वैसे ही 'बीयर बार' बालाओं को ही खुश करने में साफ हो जाएंगे" मेरे चेहरे पे वासना चमक उठी थी 

"ये क्या कि...खेत का खेत जुता...फसल की फसल कटी और.....अनाज कब चूहे ले गए?…पता भी ना चला"  …

"तुम देखना!...मैँ दिखाउंगा पूरी दिल्ली को कि कैसे खेला जाता है कॉमन वैल्थ का ये गेम?”... 

"कैसे सबकी नज़रें बचा लाखों करोड़ों के वारे-न्यारे किए जाते हैं"मेरी आँखों की शैतानी चमक सारी कहानी खुद ब्याँ कर रही थी

  • "कैसे हर छोटी-बडी ठेकेदारी में अपना हिस्सा फिट किया जाता है?"

"सही कह रहे हो"बीवी की आँखों में भी लालच का परचम लहरा चुका था…

मैं दिखाऊंगा सबको कि …

  • "कैसे पुलिस और ट्रैफिक की कमाई में अपनी गोटी फिट की जाती है?"...

  • "कैसे नौकरी जाने के साथ-साथ जेल जाने का डर दिखा बे-ईमान अफसरों से अपनी मंथली सैट की जाती है?"...

 

  • "कैसे हर फैक्ट्री वाले की बैलैंस शीट के हिसाब से अपना परसैंट तय किया जाता है?"...

"बातें तो तुम सारी एकदम एकूरेट कर रहे हो लेकिन ये सत्ता आखिर…हाथ आएगी कैसे? और फिर इसके लिए तो बहुत नोटों की ज़रूरत पड़ेगी ना?"....

"हाँ"...

"और वो तो हैँ नहीं ना अपने पास…इसलिए..वक्त का तकाज़ा यही कहता है कि जहाँ हो..जैसे हो…वहीं…उसी हालत में पड़े रहो"....

"क्या मतलब?"...

"ज़्यादा उड़ो नहीं"…

"क्यों?…क्या हुआ?”..

"बडी देर से 'पावर'...'पावर' की बातें किए जा रहे हो"... 

"तो?".....

"यहाँ रिलायंस की पावर खरीदने लायक पैसे भी नहीं हैँ"बीवी बैंक की पासबुक देख निराश होते हुए बोली 

"बस!…यही तो एक कमी रह गई ऊपरवाले की दया से….बाकी तो सारा का सारा 'मास्टर प्लान' मुँह ज़बानी रटा पडा है हम दोनों को" मेरी आवाज़ में हताशा का पुट था 

"काश!...एक बार कहीं से बस पैसा आ जाए इलैक्शन लड़ने के लिए…बाकि के तो सारे दावपेच पता है कि...कैसे लड़ा जाता है चुनाव?...कैसे झटके जाते हैँ विरोधी खेमे के वोट? और…कैसे दूसरे के वोट बैंक में सेंध लगाई जाती है?"

"अरे!...बैंक से याद आया...अपने गुप्ता जी तो बैंक में ही हैँ ना"... 

“हां!…है तो?”…

"तो पता करो ना उनसे..कोई लोन-शोन का ही जुगाड़ बन जाए शायद…वैसे भी आजकल बैंक वाले धड़ाधड़ लोन बाँट रहे हैँ"... 

"हाँ!..बाँट तो रहे हैं….रोज़ ही कोई ना कोई …. ‘लोन ले लो... लोन ले लो’ कह के सिर खा रही होती है मेरा फोन पे" 

"दुनिया भर की छम्मक छल्लो जो भर्ती कर रखी हैँ इसी खातिर…एक मिनट रुको…अभी बताता हूँ"मैँ अपने मोबाईल की फोन बुक खंगालने में जुट गया" 

"अभी परसों ही तो फोन आया था 'रूबी' का"... 

"अब ये 'रूबी' कौन?"....

"अरे!..वही..बैंक वाली...और कौन?"

***राजीव तनेजा***

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