तख्ता पलट दो ससुरों का- राजीव तनेजा "...

***राजीव तनेजा***

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ठक...ठक...

ठक्क...ठक्क

“लगता है स्साला!...ऐसे नहीं खोलेगा....तोड़ दो दरवाज़ा”…

"जी!…जनाब"...

थाड़......थाड़...धमाक...धमाक(ज़ोर से दरवाज़ा पीटे जाने की आवाज़)

"रुकिए …रुकिए …क्कौन है?"..

"पुलिस...दरवाज़ा खोलो"....

"प्पुलिस?...इतनी रात गए?"...

"हाँ!...बेट्टे..पुलिस...तुझ जैसे चोरों को पकड़ने के लिए रात में ही रेड डालनी पड़ती है"...

"इंस्पैक्टर साहब...सब कुशल-मँगल तो है ना?"...

"हाँ!...कुशल भी है और मँगल भी है...अभी उन्हीं का रिमांड ले के सीधा तेरे पास आ रहे हैँ"...

"रिमांड ले के?...मेरे पास?...मैँ कुछ समझा नहीं"....

"समझता तो बेट्टे..तू सब कुछ है लेकिन जानबूझ के अनजान बन रहा है"...

"क्क्या…क्या मतलब?”…

“मतलब तो बेट्टे..सब समझ आ जाएगा...जब आठ-दस पड़ेंगे हमारे तेल पिलाए…घुटे-घुटाए भीमसैनी लट्ठ"...

"आखिर हुआ क्या है इंस्पेक्टर साहब?"..

नोट:इस कहानी में मैंने चार किरदारों का इस्तेमाल किया है

  • इंस्पेक्टर
  • हवलदार
  • मैं खुद और
  • रोहित झुनझुनवाला

इनके आपसी वार्तालाप को समझने में किसी किस्म का भ्रम उत्पन्न ना हो …इसलिए मैंने सभी पात्रों के संवादों को अलग-अलग रंग से लिखा है…उम्मीद है इस बात को समझने के बाद आपको कहानी पढ़ने का पूरा आनंद आएगा

"सब समझ में आ जाएगा…हवलदार..तलाशी लो सारे घर की"...

"जी!...जनाब"...

"क्यों बे!...तेरे घर में कितने कम्प्यूटर हैँ"...

"ज्जी...तीन…दो डैस्कटाप और एक लैपटाप...क्यों?...क्या हुआ?"...

“चिंता मत कर…अब एक भी नहीं रहेगा"..

“क्क्या…क्या मतलब?”..

"स्साले!...एक तो पाइरेटिड सोफ्टवेयर इस्तेमाल करता है और ऊपर से जुबान लड़ाता है?"...

"व्वो...दरअसल...क्या है कि...

"लो!...अब हकलाना शुरू हो गया"...

हा…हा…हा…हा…

"क्यों बे…कितने कंप्यूटर बता रहा था?"....

"जी!...तीन"...

"घर बैठे ही सायबर कैफे चला रहा है क्या?…लाईसैंस है तेरे पास?”…

“आपको गलतफहमी हुई है सर…मैं और सायबर कैफे?…सवाल ही नहीं पैदा होता"…

"तो फिर दो कमरों के इस छोटे से फ़्लैट में तीन-तीन कम्प्यूटर ले के क्या घुय्यियाँ छीलता है?"...

"ज्जी!...अ..एक मैँ अपने पर्सनल यूज़ के लिए इस्तेमाल करता हूँ और एक मेरी मिसेज कभी-कभार खोल लेती है चैट-वैट के लिए और....

"हम्म!...तो इसका मतलब बदचलन भी है"...

"बदचलन?"...

"और तीसरा वाला कौन...तेरा फूफ्फा इस्तेमाल करता है?"...

"जी!...व्वो तो लन्दन में रहते हैं.....वो यहाँ कहाँ से आएंगे?....तीसरा वाला तो मेरे बच्चे अपने काम में लाते हैँ"....

“हम्म!...तेरे घर में इंटरनैट का इस्तेमाल कौन-कौन जानता है?"...

"अजी!…काहे का घर?…दो कमरों का बस छोटा सा फ़्लैट है...पिछले तीन साल से किश्तें नहीं भरी हैं"मेरा मायूसी भरा रुआंसा होता हुआ स्वर…

“फ़्लैट की?"..

"नहीं!...कमेटी की"...

"स्साले!....फाल्तू की नौटंकी बंद कर और सीधे-सीधे मतलब की बात पे आ"इंस्पेक्टर की कड़क..गरियाती हुई आवाज़….

“ज्जी!...सभी"...

"सभी से मतलब?"...

"मैँ...मेरी पत्नि और...

"और वो?"...

"जी!....

"स्साले!…बड़ा ठरकी है तू तो"…

“थैंक्स!…थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट"…

“इट्स ओ.के"…

“लेकिन इस ‘वो' से मेरा मतलब वो वाला ‘वो' नहीं था"..

“क्या मतलब?”…

“मेरा मतलब अपने बच्चों से था"…

“ओह!…तो इसका मतलब तेरी पूरी फैमिली ही क्रिमिनल बैकग्राउंड वाली है"...

"क्रिमिनल बैकग्राउंड?....मैं कुछ समझा नहीं"...

"दिखा!...तेरे कम्प्यूटर कहाँ-कहाँ हैं?"...

"ज्जी....इस तरफ....यहाँ...यहाँ बायीं तरफ"…

"हम्म!...

"ह्हुआ..क्क...क्या है...इ..इ..इंस्पैक्टर साहब?"...

“बेट्टे...अभी तो पूछताछ ढंग से शुरू भी नहीं हुई और तुझे दस्त लग गए?"..

"अ...आपका रुआब ही कुछ ऐसा है कि.....

"थैंक्स!...थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट"...

"इट्स...ओ.के...ये तो मेरा फ़र्ज़ था"...

"बस्स!...फालतू की मस्काबाजी बंद"...

"जी"...

"हवलदार!....

"जी!...जनाब"...

"इसका ‘कम्प्यूटर’... ‘हार्ड डिस्क’... ‘पैन ड्राईव’.....’सी.डी’…’डी.वी.डी’…मेमोरी कार्ड वगैरा…सब का सब खंगाल मारो...कोई चीज़ छूटनी नहीं चाहिए"...

"जी!...जनाब"...

"य्ये...ये देखिए जनाब!....पट्ठा एक साथ तीन-तीन फिल्में डाउनलोड कर रहा है"...

"तो?"...

"हम्म!…और अपलोड कितनी कर रहा है?"...

"जी!...पूरी ब्यालिस"...

"ओह!...ज़रा देख के तो बता कि इनमें नई कितनी है और पुरानी कितनी?"...

"जी!...जनाब"...

"तो?...इसमें इतनी हाय-तौबा मचाने की क्या ज़रूरत है...सभी ऐसा करते हैं"...

"मैं तो ऐसा नहीं करता"वार्तालाप में चौथे शख्स का आगमन ...

"लेकिन क्यों?...क्या आपको कम्प्यूटर चलाना नहीं आता?"...

"क्या बात कर रहे हैं?...आई एम् ए सर्टीफाईड कम्प्यूटर प्रोफैशनल फ्राम NIIT खड़गपुर"...

"नाईस प्लेस ना?"...

"वैरी नाईस"...

"तो फिर आप इस पुलिस जैसी कुत्ती लाइन में कैसे आ गए?"...

"बेवाकूफ!...ये मैं नहीं बल्कि ये बोल रहे हैं"...

"ये कौन?"...

"म्मै ...मैं रोहित झुनझुनवाला"...

"अब यार ये झुनझुना पकड़ के कौन टपक गया?”मैं हवलदार से मुखातिब होता हुआ बोला ...

"एक मिनट...माय मिस्टेक...इन साहब से तो आपका परिचय कराना मैं भूल ही गया"...

"जी!...

"इनसे मिलो....ये आपको बताएँगे कि इस तरह फिल्में डाउनलोड करने से इन्हें क्या ऐतराज़ है?"....

"हैलो!...

“हैलो"मेरा अनमना सा जवाब…..

“माय सैल्फ …रोहित झुनझुनवाला ...सीनियर इन्वेस्टीगेशन आफिसर फ्राम ऐंटी पाईरेसी डिपार्टमैंट"...

"ओह!.....

"हमें शिकायत मिली है कि आप नैट से फिल्में डाउनलोड कर के उन्हें लोकल मार्किट में सप्लाई करते हैं"...042707-copyright2-200

"क्या बात कर रहे हैं आप?…सप्लाई...वो भी लोकल मार्किट में?...और मैं?...इम्पासिबल”..

"जी!...हाँ...आप"...

"उफ्फ!...ऐसा घिनौना इलज़ाम सुनने से पहले मेरे ये कान फट क्यों ना गए?...तबाह क्यों ना हो गए?...बर्बाद क्यों ना हो गए?"....

"चिंता मत कर...थाने चल....अभी दो मिनट में तेरी ये मुराद भी पूरी कर देंगे"...

"मम्...मैं तो इतना कह रहा था स्स...सर कि जब डिमांड ही नहीं है किसी चीज़ की तो फिर सप्लाई का तो सवाल ही नहीं पैदा होता ना?...

"तो फिर स्साले...ये बता कि तेरा ये नैट पूरा दिन...पूरी रात किसलिए ऑन रहता है?"..

"नया दिन..नई रात डाउनलोड करने के लिए"...

"क्या मतलब?"..

"सुसरा!...कई दिन से कोई सीडर ही नहीं मिल रहा"....

"ओह!....

"अब तक कितनी फिल्में डाउनलोड कर चुका है?"इंस्पेक्टर मुझे घूरता हुआ बोला ...

"ऐसे कुछ खास याद नहीं?"...

"कोई बात नहीं...कोई बात नहीं..हम याद दिला देंगे"....

"आप याद दिला देंगे?"...

"हाँ"...

"लेकिन कैसे?...मैंने तो किसी को....

"हमने आपकी नैट प्रोवाईडर कंपनी से सब पता कर लिया है कि अब तक आप कितने जी.बी डाटा डाउनलोड तथा अपलोड कर चुके हैं"….

"तो?...इससे क्या साबित होता है?"...

"यही कि तू नैट का इस्तेमाल पाईरेसी के लिए कर अपने देश की नींव को...इसकी बुनियाद को...जड़ से खोखला कर दुश्मन देशों की मदद कर रहा है"...

"क्या मतलब?"...

"पता है तेरे जैसे लोगों के कारण सरकार को कितने टैक्स की हानि हो रही है...फिल्म प्रोड्यूसरों को कितना नुक्सान हो रहा है?"....

"अकेले उन्हीं का नुक्सान नहीं हो रहा है...मेरा भी हो रहा है"...

"क्या मतलब?"...

"दिन-रात कम्प्यूटर ऑन रहने से कई मर्तबा मेरी 'रैम' उड़ चुकी है"...

"तुम्हारी 'रैम'?"...

"नहीं!..मेरी 'मैम' की?"...

"क्या मतलब?"...

"रैम मेरी मैम की है"...

"मैम माने?"..

"मैडम"...

"मैं कुछ समझा नहीं"..

"वो वाला कम्प्यूटर उसी का तो था"...

"कौन सा वाला?"..

"जो वो दहेज में लाई थी"...

"क्या मतलब?"...

"उसी की रैम तो....

"हम्म!...हवलदार"...

"जी!..जनाब"..

"दहेज का केस भी ठोको पट्ठे पर"...

"म्म...मैं तो बस ऐसे ही मजाक कर रहा था"...

"हैं…हैं…हैं…तो हम कौन सा असलियत में केस ठोक रहे थे?"...

"ओह!...

"आगे बोल"...

"तीन बार तो मेरी 'हार्ड डिस्क' क्रैश कर गई है"...

"तुम्हारी?"...

"नहीं!..कम्प्यूटर की"...

"ओह!...

"अभी तो जनाब आपने मेरे बारे में जाना ही क्या है....जो अभी से ओह-ओह...करने लगे?"..

"क्या मतलब?"...

"तीन दफा मेरी बीवी घर छोड़ के भाग चुकी है"...

"अपने यार के साथ?"...

"नहीं"...

"तो फिर?"...

"सहेली के साथ?"...

"हुआ क्या था?"...

"होना क्या था?..मेरे दिन-रात कम्प्यूटर के साथ लगे रहने से....

"इसमें ऐसा भी जुगाड होता है?"हवलदार की बांछें खिलने को हुई ...

"नहीं"...

"तो फिर?"...

"मैं दिन-रात कम्प्यूटर पर कुछ ना कुछ करता रहता था तो....

"तो?"..

"बीवी बोर होने की शिकायत लेकर अक्सर रात-बेरात घर से बाहर निकल जाया करती थी"...

"ओह!...

"संयोग से तीन-चार बार उसे गली में सहेली टहलती हुई मिल गई...तो उसी के साथ ..

"वो मुंह काला कर के भाग खड़ी हुई?"...

"नहीं"...

"तो फिर?"...

"उसी के साथ पत्थरबाजी में घायल हो...

"वो जामुन तोड़ रही थी?"...

"नहीं..रात में भी कोई जामुन तोड़ता है?"...

"तो फिर?"...

"ऐसे ही शौक-शौक में एक-दूसरे पर हल्ला बोल....

"हमले की शुरुआत कर रही थी?"...

"जी!...

"तुम्हें पक्का पता है कि वो सहेली ही थी?"...

"जी!...सौ परसेंट"...

"तो फिर...ऐसे...कैसे?...मैं कुछ समझा नहीं....ज़रा खुल के समझाओ"...

"दरअसल!...नैट की वजह से ही तो हमारी दोस्ती हुई थी"...

"तुम्हारी और तुम्हारी बीवी की?"...

"नहीं"...

"तो फिर?"...

"मेरी और सहेली की"...

"वो तुम्हारी सहेली थी?"....

"जी!...

"ओह!...

"आप क्या समझ रहे थे?"...

"क्कुछ नहीं...आगे बोलो"...

"उसी के साथ पता नहीं क्या तू-तू...मैं-मैं हुई और एकाएक दोनों तरफ से ताबड़तोड़ हमला शुरू हो गया"...

"हम्म!...पहला पत्थर किसने मारा था?..तुम्हारी बीवी ने या उसने?"...

"किसी ने भी नहीं"...

"क्या मतलब?"...

"पहला तो पत्थर मैंने मारा था जनाब...मैंने"मैं फूल कर कुप्पा हो गर्व से अपना कालर ऊपर करता हुआ बोला ...

"क्क्या?"..

"जी!...

"लेकिन क्यों?"...

"छुटकारा पाने के लिए?"..

"बीवी से?"...

"नहीं!..सहेली से"....

"क्यों?...वो सुन्दर नहीं थी क्या?"...

"क्या बात करते हैं इंस्पेक्टर साहब?....सुन्दर तो वो इतनी थी…इतनी थी कि मैं बैठे-बैठे अक्सर ऊँगलियों चाट जाया करता था"...

"उसकी?”…

“नहीं!…अपनी"....

"पैर की?"...

"नहीं!...हाथ की"...

“तो?…इसका उसकी सुंदरता से क्या कनेक्शन?"....

"बहुत गहरा कनेक्शन है"...

"कैसे?"...

"इन्हीं उंगलियों को तो मैं उसके गोरे-गोरे...

"गालों पे फिराया करते थे?"..

"नहीं!...होंठों पर"...

"लेकिन होंठ तो लाल होते हैं...गोरे नहीं"...

"उसके थे"...

"गोरे?"...

"जी!...

"लेकिन कैसे?"...

"उसे सफ़ेद दाग की बिमारी थी"...

"ओह!....

"सच में...बड़ा मज़ा आता था"...

"ऊँगलियाँ फिराने में?"...

"नहीं!...चाटने में....आप भी चाट के देखिए ...सच में..बड़ा मज़ा आएगा"मैं इंस्पेक्टर साहब के मुंह के आगे अपनी दसों ऊँगलियाँ लहराता हुआ बोला ...

"&^%$#%$#$%^& ...क्या बेहूदा बकवास कर रहा है…

“ऐसे ही…बिलकुल मुझे भी गुस्सा आया था"…

“ऊँगलियाँ चाटते वक्त?”…

“नहीं!…फिराते वक्त"…

“लेकिन क्यों?”…

“उसने छींक जो दिया था"…

“तुम्हारे हाथ पे?”…

“नहीं!…मेरे मुंह पे"…

“ओह!….तो इसी वजह से तुम उससे छुटकारा पाना चाहते थे?”…

“नहीं!…छींक तो किसी को भी आ सकती है"...

“तो फिर?”…

“उसी की वजह से मुझे ये लत लगी थी"…

“ऊँगलियाँ फेरने की?"...

"नहीं"...

"मुंह पे छींकवाने की?”…

“नहीं!…फिल्में डाउनलोड करने की"…

“क्या मतलब?”…

“पट्ठी रोज अड़ियल घोड़ी के माफिक अड़  के खड़ी हो जाती थी कि आज मुझे सनीमा दिखाओ…आज मुझे सनीमा दिखाओ"…

“तो?”…

"अब आप सब की तरह मेरी दो नंबर की कमाई तो है नहीं कि उसे हर रोज सिनेमा हाल में फिल्म दिखाने के लिए ले जाता"..

"रोज नहीं ले जा सकते थे तो कम से कम हफ्ते में एक आध बार तो ले ही जा सकते थे"...

"बालकनी की टिकट पता है कितने की है 'P.V.R' में?"...

"कितने की?"...

"पूरे डेढ़ सौ की"...

"तो?...डाक्टर ने कहा है कि बालकनी की टिकट खरीदो?...अपना आगे की फ्रंट रो की टिकट भी तो खरीद सकते थे"...

"तुमने कभी इश्क किया है?"...

"नहीं"...

"तो फिर तुम क्या जानो अदरक का स्वाद?"...

"क्या मतलब?"...

"अरे!..बेवाकूफ...जब भी कभी डेट पे माशूका के साथ फिल्म देखने जाओ तो हमेशा लास्ट रो की कार्नर सीट्स ही बुक करवाओ"...

"किसलिए?"...

"अँधेरा होता है वहाँ"..

"तो?"...

"रौशनी से डर जो लगता है जोड़ों को"...

"ओह!...लेकिन इसका तुम्हारे नैट से फिल्में डाउनलोड करने से क्या कनेक्शन है?...ये बात मेरे समझ नहीं आई"...

"अरे बेवाकूफ!...

"क्या बकवास कर रहा है?"....

"ओह!...सॉरी....ऐसे ही ज़बान फिसल गई थी"...

"और अगर ऐसे ही मेरा डंडा फिसल गया तो?"...

"आप धडाम से नीचे...फर्श पे चारों खाने चित्त जा गिरेंगे"...

"क्या मतलब?"..

"ध्यान से देखिये...आप इसी का सहारा ले के खड़े हैं"...

"ओह!...

"हाँ!…तो मैं कह रहा था कि वो पागल की बच्ची.....

"उसकी माँ पागल थी?"...

"नहीं!...पागल तो मैं था जो उसके झांसे में आ हमेशा अपनी जेब कटवाने को तत्पर रहता था"...

"वो जेबकतरी थी?"...

"नहीं!...

"तो फिर?"...

"आप समझ नहीं रहे हैं...मेरे कहने का मतलब था कि मैं पागल था जो....

"ओह!..तो इसका मतलब तुम पागल थे"...

"ओफ्फो!...क्या मुसीबत है?"...

"मैं मुसीबत हूँ?"...

"नहीं!...आपसे बात नहीं कर रहा हूँ"...

"ओह!...तो इसका मतलब मैं पागल हूँ जो इतनी देर से तुम्हारी तरफ प्यार भरी नज़र से टकटकी लगाए एकटक  देख रहा हूँ"...

"नहीं!...आप भला पागल कैसे हो सकते हैं?..आप तो इतने बड़े पुलिस के अफसर"...

"नहीं!...सच में मैं ही पागल हूँ जो इस बेवाकूफ के कहने पर तुम्हारे यहाँ धाड़ मारने आ गया"इंस्पेक्टर रोहित की तरफ इशारा करता हुआ बोला ...

"धार मारने?...आपके यहाँ टायलेट नहीं है क्या?"...

"है!...लेकिन टपक रहा है"...

"क्या?"...

"पानी"..

"कहाँ से?"...

"नल से...और कहाँ से?"...

"ओह!.....

"कमाल कर रहे हैं सर आप....ये आपको अपनी ऊलजलूल बातों में गोल-गोल घुमाए जा रहा है और आप हैं कि चक्करघिन्नी की तरह बार-बार घूम  के फिर उसी जगह पहुँच जाते हैं...जहाँ से हमने शुरुआत की थी"...

"कहाँ से की थी?"...

"आप सीधे-सीधे इससे पूछिए कि ये नैट से फिल्में डाउनलोड करता है कि नहीं?"...

"इसमें पूछना क्या है?...साफ़-साफ़ एकदम क्लीयरकट दिख तो रहा है कि ये तीन फिल्में डाउनलोड कर रहा है"...

"जी!...

"लेकिन क्यों?"...

"क्यों?"इंस्पेक्टर मेरी तरफ देख अपने चेहरे पे प्रश्नवाचक चिन्ह बनाता हुआ बोला

"अभी कहा ना"...

"क्या?"...

"यही कि वो....

"पागल की बच्ची?"...

"जी!...वो रोज नई फिल्म दिखाने के लिए पकड़ के खड़ी हो जाती थी"..

"क्या?"..

"जिद"...

"हम्म!…और तुम्हारा उसके आगे बिलकुल नहीं खडा रह पाता था?"...

"क्या?"..

"वजूद"..

"जी!...

"तो इसका मतलब तुमने उसको खुश करने के लिए ये जुर्म का रास्ता अख्तियार किया?"...

"जी!...खुश तो मैं उसको इसके बिना भी अच्छी तरह से कर सकता था लेकिन...

"लेकिन?"...

"दिल है कि मानता नहीं"...

"क्या मतलब?"...

"उसका दिल ही नहीं मानता था"...

"ओह!..

"उसे हमेशा बस फिल्मों की ही पड़ी रहती थी ..मेरी तो कोई चिंता ही नहीं थी उसे".मेरा मायूस स्वर ...

"ओह!...

"अब रोज-रोज उसे मैं महँगी-महँगी दरों पे टिकटें खरीद कर फिल्में दिखाऊँ या फिर अपने बीवी-बच्चों का पेट पालूँ?...उनकी फीस भरूं?"..

"तुम्हारी बीवी तुमसे फीस लेती थी?"...

"नहीं!...फीस तो वो लेती थी"...

"तुम्हारी माशूका?"...

"नहीं!...मैं झूठ नहीं बोलूँगा...उसने तो हमेशा ही मुफ्त में मेरा...कई बार मनोरंजन किया...अपनी बातों से"...

"तो फिर?"...

"फीस तो स्कूल की मैडम लेती थी"...

"तुम्हारा उससे भी टांका भिडा था क्या?"रोहित तैश में आ गुस्से से अपने दांत पीसता हुआ बोला ...

"राम-राम...तौबा-तौबा...कैसी गिरी हुई और ओछी बाते कर रहे हैं आप ...वो भी एक गुरु के लिए...मेरे बच्चों की टीचर के लिए?"..

"आप ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं?"...

"ओह!..सॉरी..आई एम् वैरी सॉरी...मुझे लगा कि आप भी शायद..मेरी तरह ....

"क्या मतलब?"...

"क्कुछ नहीं”...

“तुम आगे बोलो"...

"उसके साथ एक फिल्म देखने का मतलब था पूरे हज़ार रूपए की चपत लगना"...

"टीचर के साथ?"..

"फिर वही बात?...वो कहते हैं ना कि चोर चोरी से जाए...हेराफेरी से ना जाए"...

"साहब!...ये आपको चोर बोल रहा है".हवलदार बीच में अपनी चोंच अडाता हुआ बोला..

"क्या सच  में?"इंस्पेक्टर चौंक कर पलटते हुए बोला ..

"नहीं!...बिलकुल नहीं...इसको ग़लतफ़हमी हुई है सर...मैं ऐसा सोच भी कैसे सकता हूँ?"..

"हम्म!...

"तुम कह रहे थे कि उसके साथ फिल्म देखने का मतलब है पूरे हज़ार रूपए की चपत लगना?"...

"जी!...

"लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है?"...

"क्या?"...

"टिकट तो डेढ़ सौ की ही आती है ना?"..

"जी!...

"तो फिर दो टिकटों के हो गए तीन सौ...बाकी सात सौ का क्या करते थे?"...

"वो अपने बच्चों को भी साथ में फिल्म दिखाने के लिए ले के जाती थी"....

"क्क्या?"...

"यही!...बिलकुल यही...सेम टू सेम मेरा भी एक्सप्रेशन था जब उसने पहली बार अपने बच्चों को साथ ले जाने की बात कही थी"..

"ओह!...

"बाद में तो खैर हमें इसकी आदत सी पड़ गई थी"...

"क्या मतलब?"...

"बच्चे अपना अलग मस्त रहने लगे थे और हम अपना अलग"...

"क्या मतलब?"...

"बच्चे अपना खाने-पीने में और हम अपना फिल्म देखने में व्यस्त रहने लगे थे"...

"ओह!....

"ये तो भला हो उस ऊपर बैठे....

"खुदा का?"...

"नहीं!...ऊपरली लाइन में बैठे एक नेक सज्जन पुरुष का जिसने थप्पड़ मार के मेरी आँखें खोल दी"...

"क्या मतलब?"...

"वो दरअसल हुआ क्या कि एक दिन हमें आखिरी के बजाये उससे नीचे वाली लाइन में सीट मिली"..

"तो?"...

"उस दिन मेरी सहेली की तबियत ठीक नहीं थी ...इसलिए उसने मुझे मना कर दिया"...

"बातें करने से?"...

"जी!...

"फिर क्या हुआ?"...

"फिल्म भी कुछ बोरिंग सी ही थी...इसलिए मुझे भी जल्दी ही नींद आ गई"...

"होता है...होता है...अक्सर  मेरे साथ भी ऐसा ही होता है....फिल्म बोरिंग हो तो नींद आ ही जाती है"..

"जी!...

"फिर क्या हुआ?"..

"होना क्या था...अचानक नींद में झनाटे से तड़ाक की आवाज़ आई और मैं कुलबुला के हड़बड़ाता हुआ झटाक से उठ खड़ा हुआ"....

"ओह!...फिर क्या हुआ?"...

"देखता क्या हूँ कि वो तो किसी दूसरे के साथ पूरी तरह से मस्त हो...फुसफुसाते हुए...बड़े मज़े से रंग-बिरंगी...नशीली टाईप की बातें कर रही है"....

"रंग-बिरंगी?...नशीली टाईप की?...फुसफुसाते हुए?"...

"जी!...दरअसल उस थप्पड़ की वजह से मुझे हर तरफ रंग-बिरंगे झिलमिलाते से तारे से दिखाई दे रहे थे और नींद में होने के कारण खुमारी का नशा चढा हुआ था"..

"ओह!...फिर क्या हुआ?"..

"होना क्या था?..तब से मैंने ठान लिया कि अब से कोई आउटिंग नहीं...कोई सिनेमा नहीं"...

"गुड!...वैरी गुड"...

"चूहे दी खुड्ड"...

"क्या मतलब?"....

"बाहर फिल्में दिखाना बंद हो गया तो वो घर पर ही शुरू हो गई"...

"ओह!...

"अब बीवी के होते हुए भला मैं कैसे?...किसी दूसरी नार के साथ पलंग पे....एक ही रजाई में?"...

"पलंग पे?...एक ही रजाई में?"...

"जी!...

"मैं कुछ समझा नहीं"...

"दरअसल क्या है कि उन दिनों बाईचांस मेरे दोनों डैस्कटाप कम्प्यूटर खराब हो रहे थे...और सर्दी बहुत होने की वजह से मैं पलंग से ही रजाई के अन्दर ...

"रजाई के अन्दर...क्या?"हवलदार मेरी तरफ असमंजस भरा चेहरा ले ताकता हुआ बोला ...

"पलंग से ही रजाई के अन्दर बैठ के लैपटाप को आपरेट कर रहा था"...

"ओह!...फिर क्या हुआ?"...

"होना क्या था?...मैंने उसे साफ़ मना कर दिया कि अब से चिपका-चिपकी...ताका-झांकी...सब बंद"......

"फिर क्या हुआ?"...

"मैंने उसे नैट से फिल्में डाउनलोड कर के डाईरैक्ट उसके घर पे सप्लाई देनी शुरू कर दी"...

"हुर्रे!...दैट्स दा प्वाइंट....इसने जुर्म कबूल  कर लिया?"रोहित खुशी के मारे उछलता हुआ बोला ... 

"जुर्म?...मैंने कौन सा जुर्म किया है?…मैं तो बस ऐसे ही…महज़ टाईम पास के  लिए...

"फिल्म  कंपनियों का भट्ठा बिठा रहे थे?"...

“जी!…जी…बिलकुल"…

“याद रखिये जो कुछ भी आपने अब तक यहाँ कहा है या कहेंगे...उसे आपके खिलाफ बतौर सबूत इस्तेमाल किया जा सकता है"...

"ओह!...

"तो आप अपना जुर्म स्वीकार करते हैं?"...

"बिलकुल नहीं"…

“क्या मतलब?"…अभी-अभी तो आप कह रहे थे कि….

“क्या?”…

“यही कि आप फिल्में डाउनलोड कर के ….

“मुआफ कीजिए मिस्टर झुनझुनवाला…ये आप अपने शब्द ज़बरदस्ती मेरे मुंह में ठूसने की कोशिश कर रहे हैं”…

“क्या मतलब?”…

“वही…जो आप समझ रहे हैं"..

“ओए!..क्या बकवास कर रहा है?…अभी-अभी तो तूने मेरे सामने कहा कि….इंस्पेक्टर गुर्राते हुए बोला 

“क्या?”…

“यही कि तू फिल्में डाउनलोड कर के….

“मैंने कब कहा?”…

“अभी-अभी"….

“कोई सबूत आपके पास कि….

“सीधी तरह बता कि तू अपना जुर्म कबूल करता है कि नहीं…वर्ना दूँ अभी खींच के कान के नीचे एक?”…

“जब मैंने कोई जुर्म ही नहीं किया है तो मैं उसे किस बात का कबूल करूँ?"मैं भी तैश में आ गुस्से से बोल पड़ा ..

"क्या इश्क करना जुर्म है?..क्या  प्यार करना अपराध है?"...

"नहीं!...बिलकुल नहीं…कदापि नहीं "...

"वोही तो"...

"लेकिन ये बिना किसी परमिशन के फिल्में डाउनलोड करना तो अपराध है"...

"किस गधे ने तुमसे कहा?"...

"भारत सरकार ने"...

"क्या  मतलब?"...

"इन्डियन मोशन एक्ट की फलानी...फलानी धारा के तहत ये एक  जुर्म है...ये एक पाप है"...

“वाह!....बड़े सयाने आप हैं"...

"थैंक्स!...थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट"...

?...?...?..?...

"क्या आप जानते हैं कि आज के टाईम में औसतन एक फिल्म कितने करोड़ में बनती है?"...

“यही कोई बीस से पच्चीस करोड़...क्यों?...क्या हुआ?"...

“किस ज़माने की बात कर रहे हैं आप?...इससे ज्यादा तो अकेला अक्षय कुमार ही लेता है आज के टाईम में"..

"आपकी तनख्वाह कितनी है?"...

"क्या मतलब?"..

"पहले आप बताइए तो सही"...

"पूरे बारह लाख का सालाना पैकेज मिला है मुझे कंपनी की तरफ से"रोहित गर्व से फूला नहीं समाता हुआ बोला ...

"इसमें आपके खर्चे पूरे हो जाते हैं?"...

"बड़े आराम से"...

"तो इसका मतलब आप अपने जीवन से खुश हैं?"..

"हाँ!...बहुत खुश...मेरे पास खुद की गाड़ी है..वेळ फर्निश्ड तीन सौ गज का बंगला है...बच्चे इंग्लिश मीडियम के पोश स्कूलों में पढते हैं...42" इंची प्लास्मा टीवी से लेकर लेटेस्ट माईक्रोवेव तक और नौकर-चाकर से लेकर ड्राईवर तक ...साहुलियत का हर साजोसामान मेरे पास मौजूद है...और क्या चाहिए किसी नेक बंदे को?"..

"तो इसका मतलब आप सालाना बारह लाख पा कर खुश हैं?"..

"कितनी बार बताऊँ?”…

“क्या?”..

“यही कि मैं खुश हूँ…बहुत खुश"...

"मैं हर महीने अपने काम-धंधे से पच्चीस से तीस हज़ार कमाता हूँ और इससे मैं ज्यादा खुश तो नहीं तो लेकिन हाँ...खींच-खांच के मेरे खर्चे पूरे हो ही जाते हैं और मैं इसी से खुश हूँ"...

"तो?"..

"मुझसे कम भी कमाने वाले बहुत से लोग होंगे अपने देश में?"...

"तो?"...

"आप एक लाख में खुश हैं...मैं पच्चीस से तीस हज़ार में सन्तुष्ट हूँ और बहुत से ऐसे भी होंगे जो पांच से दस हज़ार के बीच में कमा कर खुद को भाग्यशाली समझते होंगे"...

"आप कहना क्या चाहते हैं?...मैं आपकी बात का मतलब नहीं समझा"...

"जब एक इन्सान पांच-दस हज़ार से लेकर लाख रूपए महीने तक में बड़े आराम से खुश रह सकता है तो ये 'शाहरुख' ...ये 'सलमान'...ये 'हृतिक रौशन' को खुश रहने के लिए करोड़ों रूपए की क्यों ज़रूरत पड़ती है?"...

"क्यों पड़ती है से क्या मतलब?...इनकी फिल्में इससे कहीं ज्यादा पैसा कमाती हैं...इसलिए इन्हें इतनी बड़ी रकम की अदायगी की जाती है"...

"हाँ!...कमाती हैं लेकिन इसके लिए हमें-आपको अपनी जेबें काट के इन्हें देनी पड़ती है"...

"क्या मतलब?"...

"जिस फिल्म की टिकट सौ-डेढ़ सौ रूपए रखी जाती है...उसकी कीमत पच्चीस-पचास भी तो रखी जा सकती है"...

"तो?...इससे क्या होगा?"...

"ज्यादा से ज्यादा लोग हॉल पर फिल्म देखेंगे तो दाम कम होने के बावजूद भी कुल मिला के आमदनी ज्यादा होगी"...

"अरे!...कमाल  करते हो आप भी...पच्चीस-पचास में तो हॉल का किराया...स्टाफ का खर्चा भी नहीं निकलेगा..आप कमाने की बात कर रहे हैं"..

"अभी कमाई हो रही है?"...

"कई बार...हाँ और कई बार...ना"...

"तो...इससे तो अच्छा यही रहेगा ना कि दाम वाजिब रखे जाएँ...टिकटों के भी और कलाकारों के भी...कम सही लेकिन आमदनी का जरिया तो बना रहेगा"...

"बात तो यार तू बिलकुल सही कह रहा है"इंस्पेक्टर मेरे कंधे पे हाथ रख बड़े आत्मीय स्वर में बोला ...

"जी!...

"लेकिन ऐसे कोई अचानक कैसे अपनी मर्ज़ी से अपने दाम रातोंरात कम करने को राजी हो जाएगा?"...

"तख्ता पलट दो ससुरों का"...

"क्या  मतलब?"...

"दो-चार साल तक कोई इन्हें भाव ही ना दे....अपने आप पेंच ढीले हो जाएंगे ससुरों के...दाम इनको हर हाल में कम करने पड़ेंगे...चाहे अपनी मर्ज़ी से करें या फिर दूसरों की मर्ज़ी से"...

"तो तुम्हारा मतलब दो-चार साल तक यहाँ की फिल्म इंडस्ट्री को ताला लगा उसे ठन्डे बस्ते में डाल दिया जाए?"रोहित का मेरी तरफ देखते हुए व्यंग्यात्मक प्रश्न ...

"पागल हो गए हो क्या?...पहले भी तो नए लोगों के साथ बनी कम बजट की फिल्में हिट हुई हैं...अब भी हो जाएंगे....बस...कहानी में...स्क्रिप्ट में...अदाकारी में दम होना चाहिए"...

"हम्म!...

"लेकिन ऐसे लोगों की टीम आएगी कहाँ से?"रोहित मानो हार मानने को तैयार ही नहीं ...

"अरे!...इसकी चिंता तुम क्यों करते हो?...बहुत से गुणी लोग यहाँ एक चांस...सिर्फ एक चांस पाने को तरस रहे हैं...वो मुफ्त बराबर पैसों में भी काम करने  को खुशी-खुशी राजी हो जाएंगे"...

"हम्म!...

"उन्हीं में से अपनी ज़रूरत के हिसाब से छांट के बढ़िया लोगों को काम दे...अपना दाव खेलो...रातोंरात सिनेमा हालों के आगे फिर से टिकट खरीदने के लिए लाईनें ना लगनी शुरू हो जाएँ तो मेरा भी नाम राजीव नहीं"...

"हम्म!...

"तो फिर  क्या कहते हैं आप?"...

"तख्ता पलट दो ससुरों का"(सभी का समवेत स्वर)...

{अथ श्री राजीव कथा समाप्त} :-)

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

Delhi(India)

rajivtaneja2004@gmail.com

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+919136159706

 

हाँ!…मैंने भी ‘बलात्कार' किया है -राजीव तनेजा

हाँ!…मैंने भी ‘बलात्कार' किया…किया है उसका …जो जगत जननी है …जीवन दायनी है…लाखों-करोड़ों की संगिनी है  … खुद मेरी भी  अपनी है …

मैं ताकता हूँ हर उस ऊंचाई की तरफ…हर उस उपलब्धि की तरफ …जो मुझे खींच ले जाए लक्ष्मी के…कुबेर के द्वार…पर इसी सनक में भूल जाता हूँ हर बार कि पैर तो नहीं टिके हैं मेरे ज़मी पे इस भी बार……

मैं आप में…आप में और आप में भी हूँ…मैं नायक हूँ तो खलनायक भी मैं ही हूँ…मै नेता हूँ तो अभिनेता भी मैं ही हूँ…

छोटे शिशु और बालक से लेकर अभिभावक तक मुझ में समाया है …..

मै अध्यापक में…..मै विद्यार्थी में…

मैं नौकरशाह में…मैं सरकार में …

मै लायक में…मै नालायक में..

मैं क्रेता में ..मैं विक्रेता में…

हर जगह मैं ही मैं विद्यमान हूँ…

hindi_illus_20081027 

हाँ!…मैंने भी ‘बलात्कार' किया…किया है  भारत के माथे की बिंदी का…उस ‘हिन्दी’ का जो ना केवल हमारी राष्ट्र भाषा है अपितु  … लाखों-करोड़ों दिलों की आशा है…उफ़!…कैसा माहौल है ये…यहाँ तो चारों तरफ घुटन औ निराशा है

मैं सोचता…समझता.…देखता भी उसी में हूँ ….मैं हँसता…रोता…खिलखिलाता भी उसी में हूँ ….जानता हूँ…समझता हूँ…उसके बिना मैं कुछ नहीं ….फिर भी उसे दुत्कारता हूँ…ललकारता हूँ…हिकारत भरी नज़र से सौ बार पुकारता हूँ…..

मैं कृतधन हूँ……बेमन हूँ इसके उद्धार के लिए…इसके उत्थान के लिए…..उदासीन हूँ इस नेक प्रयास के लिए …

हिन्दी केवल भाषा नहीं… जानने-समझने की… बेजोड़ अभिव्यक्ति नहीं…इसके बिना हम कुछ नहीं…

‘हिन्दी’ बिना हम ऊपर चढेंगे…नीचे गिरेंगे…रहेंगे हमेशा वहीँ के वहीँ …

ये संवर जाए…सुधर जाए…इसके अलावा….कोई इच्छा..कोई अभिलाषा नहीं

‘हिन्दी’ द्वार है स्वाभिमान का…अपने आत्मसम्मान का…‘हिन्दी’ देश का सौष्ठव है…इसके बिना सब बकवास है…सब नीरव है…ये गौरव है…हमारे अतीत का…हमारे वर्तमान का…

हमारा कल भी इसी में था…आज भी इसी में है और आने वाला कल भी इसी में सुरक्षित एवं महफूज़ रहेगा…

याद रखो…अंग्रेजी निशानी है उपनिवेश की…गुलामी की….जकडन की……याद दिलाती है ये हमें बरसों झेले असहनीय उत्पीडन की…ज़ख्मों की और संताप की|अंग्रेजी..पराधीनता की…पराभव की निशानी है…इसको अपनाना…अपने वतन से गद्दारी है…बेईमानी है…

‘हिन्दी’ ने हमको जोड़ा है…उफ़!…हमने ही इसे तोडा है

दिल टूट चूका है अब मेरा ……मोह भंग हो चूका है अब मेरा ….बहुत सह लिया….बहुतेरा सह लिया …अब तो होकर रहेगा नित नया सवेरा

‘हिन्दी’ नहीं तो पराधीन हैं हम…नहीं हुए कभी स्वाधीन हैं हम

‘हिन्दी’है तो वैभव है…‘हिन्दी’ है तो सौष्ठव है…‘हिन्दी’ है तो गौरव है…

जिसने भी अपनी भाषा…अपनी संस्कृति…अपनी तहजीब को अपना…उसे सर माथे से लगाया है …..वहीँ सबकी निगाहों में आ …ऊंचा उठ…विश्वपटल पर….छाया है 

‘हिन्दी’ बिना अब तो जीना जैसे बेमानी है …जो ‘हिन्दी’ बोले…लिखे और समझे वही हर हाल में स्वाभिमानी है

हमने इसे गिराया है…हम ही इसे संभालेंगे…उन्नति के नित नए द्वार…आओ!..हम मिलकर खोलेंगे

आओ!..हम मिलकर खोलेंगे

‘जय हिंद'

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

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क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी फितरत छुपी रहे?

***राजीव तनेजा***

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"अरे!...गांधी जी...आप?...आप यहाँ कैसे?...प्रणाम स्वीकार करें"...

"इधर-उधर क्या देख रहे हैं जनाब?..मैं आप ही से...हाँ-हाँ ...आप ही से बात कर रहा हूँ"....

"तो फिर ये ‘गांधी जी’....’गांधी जी’ क्या लगा रखा है?...सीधे-सीधे नाम ले के नहीं बुला सकते?"...

"कमाल  है!...अब आप काम ‘गांधी जी’ वाले करेंगे तो आपको गांधी जी के नाम से नहीं तो क्या 'नत्थू राम गोडसे' के नाम से पुकारें?"...

“मैंने क्या किया है?”…

“ये भी मुझे ही बताना पड़ेगा?”…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“रहने दीजिए…गुप्ता जी...रहने दीजिए...सब जानते हैं आप…सब समझते हैं आप"...

"सच्ची!...कसम से...मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया"...

"इतने भोले और नासमझ तो नहीं दिखते आप कि अपने ऊपर किए गए इस मामूली से कटाक्ष को…ज़रा से व्यंग्य को भी ना समझ पाएँ"....

“सच्ची!…कसम से …मेरी तो समझ में....

"कुछ भी नहीं आया?"...

"जी!...

"फिर तो दाद देनी पड़ेगी आपके दिन पर दिन बुढाते हुए दिमाग की"..

"थैंक्स!...थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट"…

"थैंक्स के बच्चे...तू ‘बनारस’ क्या लड्डू लेने गया था?"...

"ओ.के बाय...मैं जा रहा हूँ"...

"कहाँ?"...

"तुमसे मतलब?"....

"?...?...?...?"

“मुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी है"…

“लेकिन क्यों?”…

"यही सिखाया है तुम्हें...तुम्हारे वयोवृद्ध होते हुए माँ-बाप ने कि बड़ों से ऐसे...इस टोन में बात की जाती है?"....

“ओह!…सॉरी...आई एम् वैरी सॉरी….मेरे कहने का ये मतलब था कि आप ‘बनारस’ किसलिए गए थे?”…

“वव...वहाँ तो मैं आ.. आधे’ की चाट खाने गया था?”…

“चाट खाने या फिर ‘चमाट’ खाने?”…

“क्या मतलब?”..

“मतलब ये कि आपकी अपनी तो कोई इज़्ज़त है नहीं और हमारा जलूस निकलवाने में आपने कोई कसर छोड़ी नहीं"…

“क्या मतलब?”..

“आपको डॉक्टर ने कहा था कि जा के उन लौंडे-लपाड़ों के आगे घुटने टेको?…उनके तलवे चाटो?”…

“तलवे चाटो?”…

“जी हाँ!…तलवे चाटो"…

“लेकिन…वहाँ पर तो मैंने सिर्फ चाट का जूठा पत्तल ही चाटा था..वो भी अपना…किसी और का नहीं”….

“सच्ची?”…

“कसम से”…

“लेकिन मैंने तो सुना था कि आप वहाँ पर उनकी बड़ी मिन्नतें कर रहे थे…चिरौरी कर रहे थे”…

“सब आपके मन का वहम है तनेजा जी…सब आपके मन का वहम है…मैं तो बस ऐसे ही सोहाद्रपूर्ण वातावरण में उन्हें समझाने गया था"..

“वो सोहाद्रपूर्ण वातावरण था?”…

“जी!…बिलकुल…आसमान में घने बादलों का जमघट होने के बावजूद सब ‘एक चुटकी सिन्दूर’ को …ऊप्स!…सॉरी…पानी की एक बूँद को तरस रहे थे"…

“अरे!..बेवाकूफ…मैं सर्दी-गर्मी या बरसात की बात नहीं कर रहा हूँ"…

“तो फिर?”…

“वो चार थे…और तुम सिर्फ एक”…

“तो क्या हुआ?”…

“क्या होना चाहिए था?”मेरा शरारती मुस्कान भरा स्वर ..

“पागल हो गए हो क्या?…मैं भी तो उन्हीं के जैसा था …कोई अलग थोड़े ही था?”…

“इसीलिए तो कन्फ्यूज़न पैदा हो रहा है"…

“काहे का कन्फ्यूज़न?”…

“बीच बाज़ार में कहीं आपका…

“चीरहरण ना हो गया हो?"....

“जी!…

“क्या बकते हो?…मुझे कुछ नहीं हुआ है"…

“थैंक गाड!..आप सही सलामत हैं"…

“जी!…ये तो शुक्र है उस ऊपर बैठे खुदा का…उस नेक परवरदिगार का …उसी की मेहरबानी का नतीजा है कि मैं आज यहाँ..आपके सामने सही सलामत...वन पीस में खड़ा हूँ…वर्ना मेरा पाँव तो कब का फिसल ही चुका था”…

“क्क…क्या मतलब?…मैं कुछ समझा नहीं"…

“ये तो मेरा मर्दानगी भरा जीवट ही था जो मुझे बचा ले गया वर्ना उन कमीनों ने तो मुझे कहीं मुंह दिखाने के लायक भी नहीं छोड़ा था"..

“क्क…क्या मतलब?”…

"मैंने इनकार कर दिया तो स्साले!...जोर-ज़बरदस्ती पर उतर आए"...

“ओह!...आपको उन्हें प्यार से...दुलार से समझाना चाहिए था"...

"आप मुझे पागल समझते हैं?”…

"क्या मतलब?"...

"लाख चिरौरी कर के...हाथ-पैर जोड़ के कई-कई मर्तबा गिडगिडा कर गुर्राते हुए समझाया भी कि...

"आज तो मेरा जी..कच्चा हो रहा है...मूड ठीक नहीं है...प्लीज़!…मान जाओ….किसी और दिन के लिए रख लेते हैं प्रोग्राम लेकिन  उनके सर पे तो जैसे उसी वक्त सब कुछ कर गुजरने का भूत सवार था”…..

"ओह!...

“कोई मेरी सुनने को तैयार ही नहीं…सब अपनी-अपनी डफली....

"हाथ में ले के?"...

"जी!...सब अपनी-अपनी डफली हाथ में ले के अपना-अपना राग आलाप  रहे थे...कोई कुछ कह रहा था तो कोई कुछ "…

“ओह!…

“मैंने उन्हें 'मंगल' के दिन फिर से आ इस मांगलिक  कार्य को उसके अंजाम तक...उसकी मंजिल तक पहुँचाने की बात कही"...

"ओ.के...फिर क्या हुआ?"..

"मेरा सकपका कर कसमसाता हुआ चेहरा भांप लिया था शायद उन्होंने"...

"हम्म!...पक्के घाघ जो ठहरे"...

"जी!...पूरे घाघ"..

"फिर क्या हुआ?"...

"कहने लगे कि ...'मंगल-अमंगल किसने देखा है?...हम तो आज…अभी…इसी वक्त पार्टी करेंगे...वी आर इन पार्टी मूड नाओ"….

“लेकिन क्यों?”…

“मैंने भी उनसे बिलकुल यही…सेम टू सेम क्वेस्चन पूछा था"..

“ओह!..तो फिर क्या कहा उन्होंने?”…

“उनमें से एक स्साला...दीद्दे फाड़ कुछ सकुचाता हुआ अपनी विभीत्स सी हँसी हँस कर कहने लगा कि... "आज मेरा जन्मदिन है...इसलिए"..

"ओह!...अगर जन्मदिन है...फिर तो हक  बनता है उनका"..

"जी!...उसके लिए तो मैं भी इनकार नहीं करता...आखिर जन्मदिन रोज-रोज थोड़े ही मनाया जाता है?"...

"जी!...

"लेकिन उनकी कथनी और करनी में फर्क दिखा मुझे"..

"कैसे?"..

"एक तो सबने पार्टी वियर जैसी वन्न-सवन्नी ड्रेसों के बजाय रोजाना के रूटीन वर्क वाले ही कपडे पहने हुए थे और उनकी नीयत भी मुझे कुछ ठीक नहीं लग रही थी"...

"वो कैसे??"..

"ऐसा लग रहा था कि जैसे उनके दिमाग में जन्मदिन को सेलिब्रेट करने के बजाए कोई दूसरी ही सोच हावी हो रही थी"...

"कौन सी सोच?"..

"वही...

काल करे सो आज कर...आज करे सो अब...

पल में प्रलय होएगी...बहुरि करेगा कब?"..

"हम्म!...फिर क्या हुआ?"..

"होना क्या था?...ना चाहते हुए भी मुझे उनकी खुशी में हर कदम पर शरीक होना पड़ा"...

"ओह!...

"स्सालों!...ने पूरे के पूरे छह केले ठूस दिए"...

"कहाँ?"...

"मेरे मुंह में...और कहाँ?"..

"एक साथ?"...

"मैं इनसान का बच्चा हूँ किसी हिप्पोपटामस का नहीं कि एक साथ छह-छह को निगल जाऊँ"...

“आपको उन्हें कुछ ना कुछ कह के टालते हुए बच के साफ़ निकल जाना चाहिए था"...

“आप मुझे पागल समझते हैं?”..

“क्या मतलब?”…

“तुम क्या समझते हो मैंने उन्हें टालने की कोशिश नहीं की होगी?...या फिर मैं खुद ही इन्ट्रेसटिड था इस सब के लिए?"..

“अब इसके बारे में तो मुझसे बेहतर आप ही बता सकते हैं कि...असल में...हकीकत में माजरा क्या था?"..

"जी!...इसीलिए मैंने उन्हें किसी अच्छे…शुभ दिन..मंगल महूर्त की अलसाई वेला में सांझ-सवेरे आने की बात कह के  हफ्ते-दो हफ़्तों के लिए टालने की बहुत कोशिश की लेकिन अफ़सोस…मैं नाकाम रहा"..

“मुझे तो शुरू से ही इसका शक था”…

“किस बात का?”…

“आपके निकम्मे होने का"…

“क्या मतलब?”..

“आप वेल्ले हैं?”…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“ओह!…तो आप नासमझ भी हैं"…

“सच्ची!…कसम से….म्म…मैं कुछ समझा नहीं…ज़रा खुल के समझाएं"..

“इतना वक्त है आपके पास कि आप सांझ और सवेरे दोनों टाईम उनकी हाजिरी बजा सकें?”…

“अपने बिज़ी शैड्यूल के चलते वक्त तो मेरे पास अपनी नाक पे बैठी मक्खी को भी बेमौत मारने का नहीं है लेकिन...

“तो फिर इसका मतलब आपने उन लोगों से झूठ कहा”…

“जी!…हाँ…झूठ कहा…पूरे सौ टके झूठ कहा"..

“गुप्ता जी!…मुझे आप जैसे वरिष्ठ ब्लॉगर से कतई ऐसी उम्मीद नहीं थी….क्या यही सीख देंगे आप अपनी नई उभर कर दिन पर दिन जवान होती पीढ़ी को कि...'थूक के कैसे चाटा जाता है?'...'अपने वायदे से कैसे मुकरा जाता है?'…'अपने वचन से कैसे पीछे हटा जाता है?”…

“अरे!..थूक के मैंने नहीं...उन्होंने चाटा है ...वायदे से मैं नहीं बल्कि वो मुकरे हैं…अपने वचन से मैं नहीं बल्कि वो पीछे हटे हैं"..

“क्या मतलब?”…

"निर्बाध रूप से दिए गए मेरे अथक प्रवचनों के बावजूद उन्होंने अपने किसी भी वचन का ठीक से निर्वाह नहीं किया..उलटा मेरे शौर्य... .मेरे पराक्रम को सरेआम ललकारते हुए उन्होंने फुंफकार भर हुंकारते हुए मेरी कामयाबी भरी उपलब्धियों की निष्कंटक राह में ये मोटे-मोटे किंग साईज के रोड़े अटकाए"..

"मैं कुछ समझा नहीं...ज़रा आसान भाषा में समझाएं"...

“हमारी मुलाक़ात में जिस-जिस बात पर सहमति हुई थी…उनमें से कोई भी बात उन्होंने ठीक से नहीं निभाई"...

“ओह!…

“वहाँ फैसला हुआ था कि मेरे ‘चौराहे'  पे वो एक पोस्ट लिख कर उसे ड्राफ्ट के रूप में सेव कर देंगे और मैं उसे फाईनली चैक करने के बाद आम पब्लिक के  लिए उसे पब्लिश कर दूंगा"..

“ओ.के"…

“लेकिन उन्होंने ऐसा किया नहीं"…

“ओह!…

“जब उन्हें मेरी बात माननी ही नहीं थी तो बार-बार…हर जगह विलाप करते हुए ‘चौराहे से हटा दिया…चौराहे से हटा दिया' के नाम का होक्का लगाने की क्या ज़रूरत थी?”…

“जी!….ये सारी बात तो खैर ठीक है लेकिन…..

“ठीक है?…इसका मतलब आप भी मेरे विरोधी पक्ष से मिले हुए हैं…यू ब्लडी!...दोगले इनसान"..

“उफ्फ!...मैंने तुम्हें क्या समझा?..और तुम क्या निकले?"..

"आ...आप मेरी बात को गलत समझ रहे हैं"...

"हुंह!..मैं गलत समझ रहा हूँ...आप मेरे ही सामने ...मेरे दुश्मनों की तरफदारी कर रहे हैं..और मैं गलत समझ रहा हूँ?"...

"क्या मतलब?”…

“आप उनकी नाजायज़ बातों को भी ‘ठीक है' कह कर उन्हें ही सही ठहरा रहे हैं"…

“अरे-अरे!…गुप्ता जी…आप गलत समझ रहे हैं…..मेरे कहने का तो मतलब था कि…आप कह रहे थे कि आपने किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं होना था"…

“जी!…

“लेकिन खाए तो आपने केले थे ना?"…

“जी!…

“कायदे से तो आपको किसी को अपना पेट दिखाने लायक नहीं होना चाहिए था"..

""क्यों?...मुझे बच्चा होने वाला था क्या?"...

"नहीं"...

"तो फिर?"...

"अरे!...मैंने सोचा कि आपने इतने ज्यादा केले खा लिए तो शायद आपका पेट खराब हो गया होगा....

"पेट मेरा क्यों खराब होने लगा?...होगा तो उनका होगा जो मेरी खातिरदारी से जल रहे हैं"गुप्ता जी मेरी तरफ तिरछी नज़र से देख ताना सा मारते हुए बोले..

"तो फिर?"....

"मुंह के बल सड़क पे कौन गिरा था?”..

“कौन?”…

“तेरा फूफ्फा"….

“वो वहाँ…कहाँ से टपक गया?”…

“मुझे क्या पता?”…

"?…?…?…?"…

“अरे!..बेवाकूफ….उन स्सालों ने केले खा के छिलके जो वहीँ बीच सड़क के फैंक दिए थे"....

“तो?…ये आपके और उनके बीच का मामला था…इसमें मेरे फूफ्फा को बीच में टपकने की क्या ज़रूरत पड़ गई"…

“मैं भी तो यही पूछ रहा हूँ"…

“क्या?”…

“यही कि ये मेरे और उनके बीच का मामला है…तुम बीच में क्यों टपक रहे हो?”…

“अरे वाह!…कैसे ना टपकूँ?…और क्यों ना टपकूँ? …फॉर यूअर काईंड इन्फार्मेशन..ये सिर्फ आपके और उनके बीच का मामला नहीं है…पूरे हिन्दी ब्लोगजगत के हित-अहित इससे जुड़े हैं"…

"तो?...उन्हीं की खातिर तो मैं अपनी ऐसी-तैसी फिरवाने गया था"....

"लेकिन आप तो कह रहे थे कि आप 'आधे' की चाट खाने गए थे"...

"तो क्या गलत कहा?..आधे की चाट खाई और बाकी बचे आधे की वहाँ पे मीटिंग जुटाई"..

"कहने को आप कुछ भी कहें लेकिन मेरे हिसाब से आपने ये ठीक नहीं किया?"..

"क्या सुलह की कोशिश करना गलत है?...क्या आपस में भाई-चारा रखना गलत है?"...

"हाँ!...गलत है"...

"कैसे गलत है?"...

"आप अकेले-अकेले ही .....

"अरे!...उसकी चिंता तुम क्यों करते हो?...मैं अकेला ही उन सब पर भारी हूँ"…

“हुंह!..छटांक भर का वज़न नहीं और पटखनी देने चले हैं गामा पहलवान को”…

“क्या मतलब?”..

“आप अपनी सफाई में बेशक कुछ भी कहें…कैसा भी बहाना गढें अपने इस अनैतिक कृत्य को जायज़ ठहराने का लेकिन मेरे हिसाब से ये आपने सही नहीं किया"…

“कैसे?”…

"पहली बात तो ये कि आपको हमसे बिना पूछे उनसे इस बारे में कोई बात ही नहीं करनी चाहिए थी और बात अगर चलो...कर भी ली तो किसी तरह की कमिटमैंट नहीं करनी चाहिए थी"…

“मैंने कौन सी कमिटमैंट कर दी हैं उनसे?”…

“क्यों?…आपने उनकी संस्था का अध्यक्ष बनने के लिए हामी नहीं भरी है?”…

“तो?”…

“इससे सबके मन में क्या सन्देश जाता है?”…

“क्या?”…

“यही कि आप सत्ता लोलुप हैं…कुर्सी के भूखे हैं"…

“ओह!…लेकिन वो सब तो मैंने ऐसे ही बातों-बातों में कह दिया था….असलियत में थोड़े ही….

“कौन मानेगा आपकी बात को?…सब तो यही सोचेंगे कि…

“सोचते हैं तो सोचते रहे…मुझे किसी की परवाह नहीं…मेरा अपना…खुद का ज़मीर जानता है कि मैं किस राह?…किस डगर पर चल रहा हूँ?”…

“जी"…

“और फिर इतने सालों से सब जानते हैं कि इस 'गुप्ता' का किसी भी क़िस्म का कोई गुप्त या छुपा हुआ एजेंडा नहीं है...जो कुछ है...प्रत्यक्ष है...सबके समक्ष है"...

"जी!...लेकिन कोई कुछ भी बके...हम किसका मुंह रोक सकते हैं?"...

"रोक नहीं सकते लेकिन नोच तो सकते हैं?"...

"जी!...

"सब जानते हैं कि इतने सालों से मैं इस ब्लोगजगत में फ्री-फण्ड की झख मार रहा हूँ….निष्काम भावना से प्रेरित हो ...लालच रहित सबकी सेवा कर रहा हूँ”…

“जी!…लेकिन…

“उसका ये फल …ये सिला मिलेगा?…मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था"..

“सोचा तो हमने भी कभी सपने में नहीं था कि आप हमारे साथ ऐसा छल...ऐसा फरेब करेंगे"..

“मैंने कौन सा छल-फरेब किया है तुम्हारे साथ?”…

“बात सिर्फ मेरे अकेले के साथ छल-फरेब या कपट की नहीं है….अकेले की होती तो मैं एकांत में कड़वा घूँट भर कुछ क्षण के लिए रो लेता और मनमसोस कर के  चुप हो किसी कोने में दुबक के बैठ जाता…लेकिन अब…किसी भी कीमत पर अपने आदर्शों के साथ...अपने विचारों के साथ किसी भी किस्म का कोई पक्षपात नहीं...कोई समझौता नहीं"...

“क्यों?...अब क्या हो गया?"..

“अब बात उठ खड़ी हुई है हमारी एकता की…हमारी अखंडता की...हमारे सम्मान की"...

“ओह!…

“आपके इस कृत्य से पूरा ब्लोगजगत खुद को अचंभित सा....ठगा सा महसूस कर रहा है"…

“पूरा ब्लोगजगत?”…

“जी हां!…पूरा ब्लोगजगत…जो आपके साथ थे और हैं …वो भी…और जो आपके साथ ना थे...ना हैं..वो भी"…

“वाऊ!…दैट्स नाईस….मैं ना कहता था कि एक ना एक दिन मेरी मेहनत…मेरा प्रयास रंग लाएगा…ब्लोगजगत में एका होकर रहेगा…देख लो…पूरे ब्लोगजगत में प्रसन्नता की लहरें उठ-उठ कर उछालें मार रही हैं…खुशी के मनभावन गीत गाए-गुनगुनाए जा रहे हैं"..

“ऐसी किसी भी किस्म  की खुशफहमी या ग़लतफ़हमी में ना रहिये आप कि ये ढोल…ये मृदंग…ये नगाड़े हमारे ब्लोगीय वातावरण में नई आभा और उमंग के साथ खुशी का अपूर्व संसार रच रहे हैं"...

“क्या मतलब?”..

“ये आवाजें खुशी की नहीं बल्कि मातम की हैं…रुदन की हैं....ये अंतर्नाद है…द्वंद्व है उन नए-पुराने सभी खिलाड़ियों का ..जिनकी उम्मीदों पे...आशाओं पे आप खरे नहीं उतरे"…

“मैंने सबका ठेका तो नहीं ले रखा है?"..

"जी हाँ!...ले रखा है"...

"क्या मतलबा?"...

"जब आप खुद...अकेले..अपने दम पे चौधरी  बन के पूरे ब्लोगजगत का उद्धार करने निकले हैं तो आप अपनी इस नैतिक ज़िम्मेदारी से कदापि नहीं बच सकते...कतई नहीं बच सकते"...

"ओह!...और ये चीत्कार करती विलाप भरी अपुष्ट आवाजें?...इनके लिए तो मैं जिम्मेवार नहीं ना?"..

"यहाँ आपको बैनिफिट ऑफ डाउट के आधार पे रियायत दे के ससम्मान माफ किया जा सकता है"...

"ओह!..थैंक्स...थैंक्स फॉर यूअर काईंड सपोर्ट"...

"ये तो मेरा फ़र्ज़ था"...

"कभी मुझे भी यही मर्ज़ था"...

"ओह!...व्हाट ए कोइंसिडैन्स...व्हाट ए कोइंसीडैन्स"...

"जी!...वैसे ये चीत्कार करती  कर्कश सी विभीत्स रिंगटोन वाली निर्मम आवाजें हैं किसकी?"...

"ये ‘चीत्कार’ है उन नई मौलिक-अमौलिक…नामी-बेनामी …लुप्त प्रजाति की विध्वंसक एवं विलक्षण प्रतिभाओं का जिनका अभी हाल-फिलहाल में ही इस ब्लोगजगत की पावन धरती पर आर्विभाव हुआ है...पदार्पण हुआ है"..

“यू मीन जूनियर?”…

“शश्…!…चुप्प…बिलकुल चुप्प"…

“क्या हुआ?”…

“ये हिंदी ब्लोगजगत है मेरे भाई"...

"तो?"...

"यहाँ किसी को भी ‘जूनियर’ अथवा 'छोटा' कहना सख्त मना है"…

“ओह!…लेकिन इन्हें ‘छोटू'…’छुटका’..या 'छुट्टन’ कह के इनकी फिरकी तो ली जा सकती है ना?"...

“मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूँ"…

“क्या मतलब?”…

“अभी हाल-फिलहाल तो कोई रोक नहीं दीखती इस तरह के छद्म नामों पर लेकिन आने वाले समय का क्या भरोसा?…अभी से इनके बारे में क्या कहा जा सकता है?”…

“लेकिन जैसे पूत के पाँव पालने में ही दिख जाए करते हैं...वैसे ही हाल-फिलहाल चल रहे परिदृश्य को देखकर आने वाले समय का अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है ना?”..

“जी!…

“तो फिर क्या कहते हैं आप?”…

“किस बारे में?”..

“इसी बारे में”…

“जब तक इस तरह के नामों पर किसी तरह का कोई विवाद नहीं उत्पन्न होता…तब तक तो इन नामों के जरिये मौज ली ही जा सकती है...बाद की बाद में देखेंगे"...

“जी!…वैसे तो इस सब में कोई हर्ज नहीं है लेकिन वो कहते हैं ना कि फूस के ढेर को बस एक चिंगारी ही काफी होती है"…

“क्या मतलब?”…

“यंग ब्रिगेड में और बन्दर में कोई फर्क नहीं होता"…

“मैं कुछ समझा नहीं"..

“कल को बिना बात उछल-उछल के कुलांचें भरते हुए चेप हो जाएँ …क्या भरोसा?”…

“तो हमारा क्या उखाड लेंगे?”…

“भुट्टा"…

“कहाँ से?”..

“खेत से…और कहाँ से?”…

“क्या मतलब?”…

“मतलब तो मुझे भी समझ नहीं आया"…

“ऐसे ही बोल दिया था?”…

“जी!…

ट्रिंग...ट्रिंग...ट्रिंग...ट्रिंग...

1234

"हाँ!...हैलो...शर्मा जी...कहिये क्या रिपोर्ट है?"..

*&^%$#$#%

"क्या कहा?...बस पांच ही थे?"...

$%$#

"और कुछ पता चला?"..

&^*&^%$#$%$%

"सरेआम चिंघाड़ते हुए धमकी दे रहे हैं?"..

"ओह!..

"क्या कहा?...अब तो इन्हें बात…बिना बात डांट भी नहीं सकते?"…

"ओह!...

"धरना-प्रदर्शन कर जीना दुश्वार कर देंगे?"..

"ओह!..

"कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने पड़ सकते हैं?"..

"ओह!....

"नापसंद के चटखों की भरमार लगा हमें लाईम लाईट में आने से रोक सकते हैं?"...

"ओह!..

"अरे!...आप घबराते काहे को हैं?...हमारी लेखनी की ताकत को...हमारी कलम की आवाज़ को तो नहीं रोक सकते ना?"...

"जी!...

"तो फिर चिंता किस बात की है?"..

"जी!...

"चलिए!...मैं आपसे कल  मिलता हूँ...फिर इत्मीनान से बैठ के बात करते हैं"..

"किसका फोन था?"..

"अपने शर्मा जी का..बुलंदशहर से"....

"ओह!...क्या कह रहे थे?"..

"कुछ खास नहीं"...

"अच्छा!...गुप्ता जी...मैं भी चलता हूँ"...

"क्या हुआ?"...

"नई कहानी लिखने का मसाला जो मिल गया है"..

"ओ.के...बाय"..

"बाय!...चलते-चलते...एक आखिरी सवाल"..

"जी!...ज़रूर"..

"अपने इस हालिया अनुभव के आधार पर आप हिंदी ब्लोगजगत के बाकी साथियों को कोई सन्देश देना चाहेंगे?"...

"जी!...ज़रूर...मैं उन्हें एक नहीं बल्कि दो-दो सन्देश देना चाहूँगा"...

"वो किसलिए?"...

"बाय वन..गैट वन फ्री"..

"जी!..

“मेरा पहला सन्देश तो ये है कि.....    

"नहीं चाह मुझे पसंद के चट्खों की…मेरा काम ही मेरी हैसियत बयाँ कर देगा"...

"वाह!...बहुत बढ़िया"...

"थैंक्स!...

"और दूसरा?"...

"दूसरा ये कि....

"क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी फितरत छुपी रहे...

नकली चेहरा सामने आए...असली सूरत छुपी रहे"..

***राजीव तनेजा ***

Rajiv Taneja

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+919213766753

+919136159706

अलविदा ब्लॉग्गिंग - राजीव तनेजा

rajiv

“चढ गया ऊपर रे…अटरिया पे…अटरिया पे लौटन कबूतर रे"…

“गुटर-गुटर…गुटर-गुटर"…

“ओह्हो!…दुबे जी आप"..

“जी तनेजा जी…मैं"…

“कहिए!…कैसे याद किया?”..

“ये मैं क्या सुन रहा हूँ?”…

“क्या?”..

“यही कि आपने हमेशा के लिए ब्लॉग्गिंग तो तिलांजलि दे बूढ़े बरगद के नीचे अपना सारा जीवन बिताने का निर्णय लिया है?”…

“सारा नहीं..आधा"..

“क्या मतलब?”…

“आधा तो बीत चुका"…

“जी!….बात तो काफी हद तक आपकी सही है कि आधा जीवन तो हमारा बीत चुका लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं हो जाता ना कि हम बाकी के बचे हुए आधे जीवन को भी यूँ ही बेकार में व्यर्थ हो…नष्ट हो जाने दें?”…

“अपनी करनी के चलते इसके अलावा और चारा भी क्या बचा है मेरे पास?”मेरा मायूस स्वर…

“क्या मतलब?”…

“हम थे जिनके सहारे…वो हुए ना हमारे"…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“जिनसे सहारे की…अपनेपन की उम्मीद थी…उन सभी ने मेरा दामन छोड़ विरोधी खेमे से हाथ मिला लिया"..

“जी!…इसी बात का तो दुःख है कि…दोस्त…दोस्त ना रहे"…

“पछताएंगे!….पछताएंगे…मैं कहता हूँ कि एक ना एक दिन वो सब अपने किए पे बहुत पछताएंगे"…

“आप चिंता क्यों करते हैं तनेजा जी?…ऊपरवाले के घर देर है पर अंधेर नहीं….एक रास्ता अगर बंद होता है तो सौ नए रास्ते अपने आप खुलते चले जाते हैं”….

“क्या मतलब?”…

“जहाँ एक तरफ आपके अपनों ने अपना कमीनापन दिखा आपका साथ छोड़ दिया तो वहीँ दूसरी तरफ कई ऐसे फन्ने खाँ ब्लॉगर भी तो अपने आप आपके साथ आ मिले जिनके बारे में आपने कभी सोचा भी ना था"…

“लेकिन क्या फायदा ऐसी बेनामियों की भीड़ भरी फ़ौज इकट्ठी करने का जो दुश्मन को अपना मुंह तक ना दिखा सके?"…

“मानी आपकी बात की बेनामी अपना मुंह दिखाने से कतराते हैं…सामने नहीं आते लेकिन पीठ पीछे.. दिलेरी से वार करने से तो नहीं घबराते"…

“क्या फायदा ऐसी दिलेरी भरी जाबांजी का कि दुश्मन को पता ही ना हो कि उसकी पीठ में ये चोरी-छुपे खंजर कौन घोंप रहा है?"…

“बात तो आपकी सही है लेकिन हमें इससे क्या?…हमारा मतलब तो हल हो रहा है ना?”…

“ख़ाक हल हो रहा है?…आज जो बेनामी हमारे पक्ष में धड़ल्ले से इधर-उधर कूद-फांद रहे हैं…क्या पता कल को वही गुलाटी मार…पलटते हुए हमारी बखिया उधेड़ने में पूरी लगन  एवं ईमानदारी से मन लगा के ना जुट जाएँ"…

“जी!…ये रिस्क तो खैर इसमें है और सदा रहेगा लेकिन क्या ऐसे छोटे-मोटे जोखिमों के चलते हम अपनी आई पे आना छोड़ दें?…अपनी ज़ात दिखाना छोड़ दें?”…

“नहीं!..बिलकुल नहीं…कतई नहीं…कदापि नहीं"…

“वोही तो मैं भी कह रहा हूँ"…

“लेकिन दुबे जी..आप मानिए या ना मानिए असलियत में हमारा भांडा पूरे ब्लॉगजगत के सामने फूट चुका है…किसी भी क्षण हम धरे जा सकते हैं”…

“जी!…"दुबे जी के स्वर में चिंता का पुट था 

“जितनी जल्दी हो सके…आप भी अपना बोरिया-बिस्तरा सँभाल पतली गली से  निकल लें…कोर्ट का नोटिस या सम्मन बस आया ही समझो"…

“मुझे भी अपनी तरह डरपोक समझ रखा है क्या?”दुबे जी तिलमिला कर बौखलाते हुए बोले …

“इसमें डरपोक की क्या बात है?...जो सही है..वही बता रहा हूँ"....

"बहुत बढ़िया बात कर रहे हैं आप ...ऐसे थूक के चाटना तो कोई आपसे सीखे"...

"क्या मतलब?"...

"जब आपके बस का ही नहीं था कुछ करना तो फिर ऐसे बेफाल्तू में रणभेरी का बिगुल बजा हम सबको डिस्टर्ब क्यों किया?...अच्छे भले पोस्टें लिख रहे थे"..

"मैं पूछता हूँ आखिर क्यूँ आपने हम जैसे नौसिखियों को बरगला के अपने साथ मिलाया?"....

"अफ़सोस तो इसी बात का है कि सामने वालों को नेस्तनाबूत करने के लिए मैंने पुराने घिसे हुए धुरंदरों को अपने साथ मिलाने के बजाए तुम जैसे नौसिखियों से हाथ मिला...तुम्हें अपना हथियार बनाया"..

"तो?...क्या गलत किया आपने?"...

"नतीजा क्या हुआ इसका?"...

"क्या हुआ?"..

"मिस फायर"...

"मतलब?"...

"पट्ठे...उलटी-सीधी जैसी भी पोस्ट दागते थे...बूमरैंग की तरह उलटी हमी पे आ पड़ती थी"...

"तो?...इसमें हमारी क्या गलती है?..आपको कम से कम दो हफ्ते की पहले कोचिंग देनी चाहिए थी हमें कि कैसे वार करना है?...किस पर वार करना है?...और कब वार करना है?"..

"वोही तो...बिना सोचे समझे जो सामने आ रहा था...उसी पे वार करते चले गए तुम लोग...ये भी ना सोचा तुमने कि इस बेचारे ने हमारा बिगाड़ा क्या है?"..

"सब हमारी हे गलती है...सब हमारी ही गलती है..आप तो जैसे दूध के धुले हैं ना?"..

"क्यों?...मैंने क्या किया है?"..

"ये आप पूछ रहे हैं कि...मैंने क्या किया है?"..

"हाँ!...पूछ रहा हूँ...बताओ...क्या किया है मैंने?...बताओ...अब बताते क्यूँ नहीं?...सांप सूंघ गया क्या? या ज़बान तालु से चिपक गई?"..

"ना ही मुझे सांप सूंघ गया है और ना ही मेरी ज़बान तालु से चिपक गई है"...

"तो फिर भाई मेरे...बता क्या दिक्कत है तुझे जो तेरी ज़बान से शब्द नहीं फूट रहे हैं?"..

"ये सिर्फ आपका और आपकी दोस्ती का लिहाज़ ही है जो मुझे कड़वा बोलने से रोक रहा है"...

"अरे!...लिहाज़ को मार गोली और  तू खुल के कड़वा बोल...बिंदास हो के कड़वा बोल"...

"अगर आप में हिम्मत है अपने खिलाफ सुनने की तो फिर ध्यान से कान खोल के सुनें...

"बोलते जाओ…मैं सुन रहा हूँ"….

"ये आप ही हैं जिसके वजह से हमारे आंदोलन की फुस्स करके हवा निकली है"...

"मेरी वजह से?"...

"हाँ!...आप ही ने हमें बरगला के अपने तयशुदा रास्ते पे आँखें बंद कर के चलने के लिए उकसाया"..

"मैंने?"..

"जी हाँ!...आपने"...

"हे भगवान!...या तो तू इस कमीने को डायरेक्ट ऊपर यमलोक में पहुंचा दे या फिर मुझे इस धरती से ऊपर..अपने पास बुला ले...ऐसी घटिया बातें सुनने से पहले मेरे ये कान  पक क्यूँ ना गए?"..

"सही कहते हैं सब...

"जब #$%^&^%$#  लगी फटने तो खैरात लगी बटने"..

"क्या बकवास कर रहे हो?"..

"अब आप भगवान को याद कर रहे हैं...अब?"...

"क्यों?...मैं लेट हो गया क्या?"...

"हाँ!...अब बहुत देर हो चुकी है...पानी सर के ऊपर से गुज़र  चुका है...अब तो मौत आई ही आई समझो"..

"ओह!...

"तब आपका दिमाग क्या घास चरने गया था जब मैं आपको सैंकडों उदहारण दे के समझा रहा था कि सामने वालों से पंगा मत लो...पंगा मत लो...मुंह की खानी पड़ेगी वगैरा...वगैरा...लेकिन उस समय तो जनाब के सर पे हिंदी ब्लॉगजगत का सर्वेसर्वा बनने का भूत सवार था ना?"...

"उनकी मठाधीशी को जड़ से...मूल से उखाड फैंकना चाहते थे ना?"..

"तो?..क्या गलत इरादा था मेरा?"...

"मैंने कब कहा कि इरादा गलत था आपका?...वो तो बस नीयत ही थी जो एन टाईम पे डावांडोल हो गई थी"..

"क्या मतलब?...कहीं तुम मुझे अवसरवादी कहने की कोशिश तो नहीं कर रहे हो ना?"....

"कोशिश नहीं कर रहा बल्कि डंके की चोट पे फुल कान्फीडैन्स में मैं ऐसा कह रहा हूँ"..

"ओह!...रियली?…अपने इस इलज़ाम को साबित करने के लिए तुम्हारे पास कोई पुख्ता सबूत है?"..

"बिलकुल है"..

"ओह!...

"मेरा माथा तो उसी दिन ठनक गया था जब आप संगठन का विरोध करते-करते अचानक संगठन के ही  हिमायती बन उस के पक्ष में सीना तान के खड़े हो गए थे"...

"तो?...क्या गलत था इसमें?...दुश्मन से लड़ने के लिए भी तो एकता ज़रुरी है"...

"वो भी तो यही कह रहे थे कि एकता में बड़ा बल है ...इसलिए संगठन का होना निहायत ही ज़रुरी है"..

"लेकिन वो हमारे नहीं बल्कि अपने संगठित होने की बात कर रहे थे"...

"लेकिन उन्होंने उसमें हमें शामिल करने से इनकार भला कब किया था?"..

"तो न्योता भी तो नहीं दिया था...इसी से तो सारा खेल बिगड़ा"...

"रहने दीजिए तनेजा जी...सब बेकार की बातें हैं अपनी गलतियों को छुपाने के लिए आप बेवजह उन पर इलज़ाम लगाएं... तथ्यों के साथ छेड़-छाड़ करें...ये उचित नहीं"..

"जी!..

"और फिर चलो मान लिया कि आप अपनी अनिष्टकारी जिद के चलते किसी बात पे अड़ गए हैं तो उस पे अड़े तो रहिये कम से कम"..

"क्या मतलब?"..

"क्या ज़रूरत पड़ गई थी आपको उस नामुराद के आगे हाथ जोड़ के गिडगिडाने की कि मुझे वापिस ले लो..मुझे वापिस ले लो"...

"मैं हाथ जोड़ रहा था?"..

"और नहीं तो क्या वो लोग 'नुक्कड़' पे खड़े हो के चिरौरी कर रहे थे आपसे कि...

"आ!...लौट के आजा मेरे मीत रे...मेरे मीत रे...के तुझे मेरे गीत बुलाते हैं"

"क्यों यार!...जले  पे नमक छिड़क रहे हो बार-बार ऐसा कह के?"......

"ठीक है!…नहीं छिडकता …आप भी क्या याद रखेंगे? और फिर वैसे भी जो बीत गया...सो बीत गया...पुराने पापों को अब ...इस घड़ी में याद कर के क्या फायदा?"..

"जी!...

"तो अब क्या सोचा है आपने?"..

"मैं सोच रहा हूँ कि ब्लॉग्गिंग से संन्यास तो ले ही लिया है तो कुछ दिन के लिए क्यों ना तिरुपति बाला जी के दर्शन कर आऊँ?"..

"तो फिर मेरे लिए क्या आज्ञा है?"...

"तुम भी ये बेकार के टंटे छोडो और निकल लो पतली गली से दुम दबा के...नोटिस अब बस आया ही समझो"..

“छोडिये तनेजा जी...ये नोटिस…ये सम्मन..सब बेकार की बातें हैं…इन्होने आना होता तो कब के आ चुके होते"…

“ये भी तो हो सकता है कि वो हमारे पाप के घड़े के भरने का इंतज़ार कर रहे हों"…

“वो तो कभी भी नहीं भरने वाला…मैं गारैंटी के साथ कह सकता हूँ"…

“कैसे?”…

“मैंने उसमें नीचे की तरफ से छेद जो कर रखा है"…

“ओह!…यू आर जीनियस…माईंड ब्लोइंग…सच्ची…कसम से …मज़ा आ गया"…

“बस…इसी चीज़ का तो डर है”…

“किस चीज़ का?”…

“माईंड के ब्लो हो..टूट-फूट कर..छिन्न-भिन्न हो बिखर जाने का"…

“वो क्यों भला?”..

“जब भी मैं अपनी ओछी एवं टुच्ची हरकतों से अपने दिन पर दिन बढते हुए लुच्चेपन को जगजाहिर करता हूँ या शैतानी भरी कोई कारस्तानी करता हूँ तो एक डर सा सताता रहता है हर वक्त मन में"..

“किस तरह का डर?”…

“यही कि अत्यधिक चालाकी दिखाने से कहीं मेरा दिमाग ओवरलोड के मारे भुड़..भुड़..कर भड़ाम करता हुआ अचानक से टैं  ना बोल जाए”…

“यू मीन!…फुल एण्ड फाईनल पटाखा ना फूट जाए?"…

“जी!…

“ओह!…तो फिर क्या सोचा है आपने?”…

“सोचना क्या है?…अब तो मैंने अपनी नैय्या उस ऊपर बैठे पालनहार के हवाले कर दी है…अब तो सब उसकी रज़ा पर निर्भर है कि वो मुझे पार लगा मेरा जीवन संवारता है या फिर बीच भंवर के गुड़..गुड़  कर गोते खिलाता हुआ मेरे बेड़े को  गर्क करने की तैयारी करता है”..

“क्या मतलब?”…

“अब तो बस आर-पार की लड़ाई लड़नी बाकी है”…

“क्या मतलब?”…

“अब चाहे लाख तूफां आएं…या फिर जान भी अब चली जाए…

मिल के ना होंगे..जुदा…जुदा……आ कसम खा लें”…

“क्या मतलब?”…

“हमारी एकता …बनी रहे…बनी रहे”दुबे जी की आवाज़ अचानक जोश से भर उठती है …

“जूनियर ब्लॉगर एसोसिएशन….जिंदाबाद”…

“जिंदाबाद-जिंदाबाद"मैं भी उनके स्वर में अपना स्वर मिला अपनी मंशा जाहिर कर देता हूँ

“तनेजा जी!…अब तो कुछ भी हो जाए….ये इलाहबाद का सम्मेलन तो हर हाल में  होकर रहेगा"…

“मेरी बात मानो और ये सब टंटा छोड़ तुम भी मेरी तरह निकल लो पतली गली से…कोई फायदा नहीं है इस सब बेकार के झमेले में"…

“हुंह!…कर दी ना बनियों वाली बात इसमें भी कि …कोई फायदा नहीं है"…

“अरे!…फायदे-नुक्सान को छोड़ो और मेरी मानो तो चुपचाप खिसकने में ही भलाई है"…

“क्या बात कर रहे हैं तनेजा जी आप भी?…मैं?…मैं मैदान छोड़ के भाग जाऊं?…सवाल ही नहीं पैदा होता…अब तो या वो नहीं या हम नहीं"…

“लेकिन ये तो सोचो कि एक अकेला चना कैसे उनकी पूरी बटालियन की भाड़ फोड पाएगा?”…

“सवा लाख से एक लडाऊँ"…

“मतलब?”…

“मैंने सिख धर्म को अपनाने का फैंसला किया है"…

“तो?…उससे क्या होता है?”…

“अब से गुरु गोविंद सिंह जी ही मेरे सच्चे हमदर्द …मेरे सच्चे आदर्श हैं"…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“मुगलों के साथ युद्ध के समय उन्होंने अपनी फ़ौज में जोश भरते हुए ये नारा दिया था कि…

“सवा लाख से एक लड़ाऊँ”…

“ओह!…

“बस!…उन्हीं के नक़्शे कदम पे चलते हुए मैंने भी अपनी फ़ौज तैयार की है"…

“हाह!…सुनो…ठाकुर ने हिजडों की फ़ौज बनाई है …हिजडों की"…

“आपको कैसे पता?”…

“क्या?”…

“यही के मेरे संगी-साथियों में….

“बस ऐसे ही…गैस्स …तुक्का समझ लो"…

“ओह!…फिर ठीक है लेकिन किसी से कहियेगा नहीं"…

“बिलकुल नहीं…लेकिन मेरे एक बात समझ नहीं आ रही"…

“क्या?”..

“यही कि आप जैसे दो-चार झाड-झंखाड उनका भला क्या उखाड पाओगे?”…

“हमें आप कम ना समझो…हमारी टीम में एक से एक धुरंदर …एक से एक फन्ने खाँ  भरा पड़ा है”…

“जानता हूँ मैं तुम्हारे सब फौजियों को…एक ‘प्यासा' है …जो कब बिना पानी के तड़प-तड़प के प्यासा मर जाए …कुछ पता नहीं…दूसरा वो ‘महाशक्ति'…हाँ!…वही जिसे अपनी शक्ति पे बड़ा नाज़ है…असल में तो उसे खुद नहीं पता कि उसकी शक्ति का ह्रास हुए तो मुद्दतें बीत चुकी हैं और तीसरे याने के फाईनल योद्धा बचे तुम याने के ‘दुबे'…तुम कब शर्म के मारे चुल्लू भर पानी में डूब मरो …तुम्हें खुद नहीं पता"…

“तनेजा जी!…प्लीज़…प्लीज़ चुप हो जाइए….क्यों सबके सामने हमारी मिटटी पलीद करने पे तुले हैं?”…

“अरे!…मिटटी तो तुम लोगों की एक ना एक दिन पलीद होनी ही है…तो फिर इस शुभ काम में देरी क्यों?”..

“ठीक है!…मानी आपकी बात कि अपने कर्मों के चलते हमारा बेडागर्क होना हमारी नियति में ही लिखा है लेकिन इस सब के लिए इतनी जल्दबाजी क्यों…इतना उतावलापन क्यों?”…

“अभी कहा ना?”…

“क्या?”…

“यही कि नेक काम में देरी किसलिए?”…

“ओह!…लेकिन ये कोई ज़रुरी तो नहीं कि अपने कटु वचनों के द्वारा आप ही हमारा बंटाधार करें?”..

“अरे!…मित्र हूँ तुम्हारा….इतना हक तो बनता है मेरा”…

“जी!…बात तो आपकी काफी हद तक सही है लेकिन वो क्या है कि अपनों द्वारा बे-इज्ज़ती करवाने में ज़रा शर्म सी महसूस होती है"..

“दुबे जी…एक बात बताइए"..

“जी"…

“आखिरी बार आप कब नहाए थे?"..

"यही कोई हफ्ता भर पहले...क्यों?...क्या हुआ?"...

"आईना भी आपने तभी देखा होगा?"...

"जी!...

“कोई खास चीज़ नोटिस की थी तब आपने?”…

“किस बारे में?”…

“अपने बारे में"…

“कोई खास चीज़?”…

“जी!…

“ऐसे तो कुछ खास याद नहीं"…

“दिमाग पे ज़रा जोर दे के एक बार फिर से सोचिए"..

“जी!…

“कुछ याद आया?”…

“नहीं"…

“एक बार फिर से पूरा ज़ोर डाल के सोचिए"…

“जी!…

“अरे-अरे!…क्या कर रहे हैं?…टूट जाएगी…यहाँ टेबल पे नहीं…दिमाग पे पूरा ज़ोर डाल के सोचिए"..

“जी!…लैट मी थिंक अगेन"दुबे जी दिमाग पे त्योरियाँ डाल सोचने की मुद्रा अपनाते हुए बोले…

“कुछ याद आया?”..

“हाँ!…

“क्या?”…

“मेरे उभरे-उभरे"…

"क्या?"..

"मोटे-मोटे"….

"क्या?"..

"गोल-मटोल"…

“क्या?”…

“गाल"…

“ओह!…इसके अलावा और कुछ नहीं दिखाई दिया आपको?”मेरे स्वर में हैरानी से भरा मायूसी वाला पुट था …

“आईने में सिर्फ मुझे अपना मुंह ही देखना था ना?”…

“जी!…

“हाथ-पैर…या कमर का अगला-पिछला…ऊपरला-नीचरला भाग तो नहीं?”…

“बिलकुल नहीं"…

“तो फिर आप ही बताइए कि आईने में मुझे अपने कश्मीरी सेब जैसे लाल-लाल सड़ेले टमाटर के माफिक गालों के अलावा और क्या दिखाई देना चाहिए था?”…

“क्यों?….आपको अपने चेहरे पे ये झाड़ -झंखाड़ के माफिक उग आई दाढ़ी-मूछें नहीं दिखाई दी थी?”…

“तो?…इनसे क्या साबित होता है?”…

“यही कि अब आप बच्चे नहीं रहे”…

“तो?”…

“इसलिए अब आपके साथ कोई हमदर्दी नहीं …कोई रियायत नहीं"…

“तो मैं कौन सा आपसे रहम की भीख मांग रहा हूँ?…या मोक्ष प्राप्ति के लिए गिडगिडा रहा हूँ?…बस…यही तो कह रहा हूँ कि  …अपनों द्वारा बे-इज्ज़ती करवाने में ज़रा…शर्म सी महसूस होती है"..

“मैं भी तो वही कह रहा हूँ कि शर्म को त्यागिये"…

“जी"…

“तो आप तैयार हैं?”..

“जी!…बिलकुल…शुरू कीजिए…नेक काम में देरी कैसी? लेकिन ज़रा संभल कर बोलियेगा"…

“क्यों?…मैंने किसी का ले रखा है क्या?”…

“क्या?”…

“कर्जा?”..

“बिलकुल नहीं"…

“किसी का खा रखा है क्या?”…

“क्या?”..

“पैसा"…

“बिलकुल नहीं"…

“तो फिर मैं किसी से क्यों डरूं?”…

“डरना तो आपको पड़ेगा ही पड़ेगा…बेशक…अपनी मर्ज़ी से डरें या फिर हमारी मर्ज़ी से…डरना आपकी नियति में लिखा है"…

“वो कैसे?”…

“क्यों?…शुरुआत तो आप ही ने की थी ना उस बिना बात के विवाद को हवा दे के?”…

“वो बिना बात का विवाद था?”..

“जी!…हाँ…वो बिना बात का ही विवाद था"…

“कैसे?”…

“क्या ज़रूरत थी आपको अपने ब्लॉग पे ये पोस्ट लगाने की कि उस ब्लॉगर मीटिंग में खाने-पीने के अलावा कुछ नहीं हुआ था?”…

“अरे!..कमाल है…जैसा मुझे लगा वैसा मैंने लिख दिया तो क्या गुनाह किया?”..

“ठीक है!…आप लिख दिया…कोई गुनाह नहीं किया लेकिन इतने महीनों बाद ही आपको उस प्रकरण की याद कैसे और क्योंकर आई?”..

“कौन सा जवाब दूँ?”..

“कौन सा से मतलब?…जौन सा सही है…वही जवाब दीजिए"…

“दोनों ही सही हैं"…

“क्या मतलब"…

“आजकल मुझे बीमारी हो गई है"…

“बवासीर की?”…

“नहीं"…

"तो फिर?"..

"कादर खान की फिल्में ज्यादा देखने लगा हूँ आजकल मैं"..

“तो?”…

“उसी से इंस्पायारड हो के मैं हर जगह …हर वक्त डबल स्टेटमैंट देने लगा हूँ"…

“गुड़!…वैरी गुड़"..

“तो इस मुद्दे पे आपका पहला स्टेटमैंट क्या है?”..

“यही कि…मुझे हिट्स नहीं मिल रहे थे…इसलिए…

“इसलिए आपने सोचा कि मौक़ा भी माकूल है और माहौल भी अच्छा है…कि इस तरह से बेमतलब के विवाद को हवा दे मुफ्त में अपनी रोटियां सेंकी जाएँ?”..

“जी!…

“चिंता ना करिये अब आपको जी भर के ताबड़ तोड़ …जबड़ा तोड़ हिट्स मिलने वाले हैं”…

“थैंक्स"…

“और आपका दूसरा स्टेटमैंट क्या है इस पूरे प्रकरण के बारे में?”…

“दूसरा भी यही है"…

“ये तो कोई बात नहीं हुई कि आप एक ही बात को दो-दो बार बोल दें"…

“कहने को तो मैं ये भी कह सकता था कि वहाँ का खाना एकदम बकवास था लेकिन मैंने कहा क्या?”…

“नहीं ना?”…

“आप एकदम से इतना बड़ा सफ़ेद झूठ कैसे बोल सकते थे?”…

“कैसे बोल सकते थे…से मतलब?…बाद में बोले कि नहीं?”…

“जी!..अपनी बाद की पोस्टों में आपने कहा कि ब्लॉग माफिया हावी हो रहा है हिन्दी ब्लॉग्गिंग के ऊपर"…

“तो कौन सा मैंने सच कहा?”…

“आपने कहा कि मठाधीशी के चक्कर में ये संगठित होने की बात कर रहे हैं"…

“तो कौन सा सच कहा मैंने?…झूठ ही कहा ना?”..

“अगर ये सब झूठ है तो फिर सच क्या है?”..

“ये तो मुझे भी नहीं पता"..

“तो फिर आपको पता क्या है?…टट्टू?”…

“मुझे बस इतना पता है कि कैसे दूसरों की जलती भट्ठी में मैंने अपना भुट्टा भूनना है?”..

“मतलब?”…

"मुझे एकदम क्लीयरकट पता है कि कैसे दूसरों का नाम ले के…उन पर ऊल-जलूल इलज़ाम लगा के मुझे अपना उल्लू सीधा करना है"…

“उल्लू सीधा करना है…से मतलब?”…

“अरे भाई!..सीधी सी बात है इतने दिन हो गए मुझे इस ब्लॉगजगत में कलम घिसते-घिसते…

“कलम घिसते-घिसते नहीं…कीबोर्ड पे उंगलियाँ टकटकाते “…

“जी!…वही लेकिन स्साला…कोई पहचान ही नहीं बना पा रहा था मैं अपनी"…

“ओह!…

“कभी गलती से कुछ अच्छा भी लिख लो तो स्साला….कोई भाषा की गलतियाँ निकालने चला आता था मुफ्त में तो कोई खाली दिमाग वर्तनी की अशुद्धियाँ गिनाने के लिए पालथी मार के बैठ जाता था"…

“ओह!…तो आपने उन्हें सुधारा क्यूँ नहीं?”..

“ख़ाक सुधारूँ?…जब कुछ आता हो तभी तो”…

“तो फिर आपने ब्लॉगजगत में किसी से मदद लेनी थी था इस सब के लिए"..

“ली ना"…

“तो फिर?”..

“जिस किसी से भी चैट के दौरान इस बाबत जिक्र किया….थोड़ी देर में ही उसका स्टेटस ऑफ लाइन दिखाने लगता था"…

“ओह!…

“एक-दो ने ईमानदारी से कोशिश भी की लेकिन एन टाईम पे या तो उनके कमरे के बल्ब का फ्यूज उड़ जाता था या फिर पूरे घर की बत्ती ही गुल हो जाती थी”…

“ओह!…लेकिन सभी ब्लॉगर घर बैठ के ही थोड़े ही टाईम पास करते हैं…कुछ एक तो ऐसे भी होंगे ही जो सायबर कैफे में बैठ के सबका तिया-पांचा करते होंगे"…

“जी!…बहुत से हैं”…

“तो फिर?”…

“मैंने जब-जब भी उनसे इस बारे में जिक्र किया…तब-तब संयोग देखिए उनके घर जाने का वक्त हो रहा होता था"..

“ओह!…

“एक-दो बार तो वो इस सब के लिए तैयार भी थे लेकिन जब…अपनी…खुद की किस्मत ही खराब हो तो दूसरे को क्या दोष दें?”…

“क्या मतलब?”..

“मैंने जब-जब उनसे मदद माँगी …तब-तब सायबर कैफे के बंद होने का वक्त हो रहा होता था"…

“ओह!…वैरी सैड”…

“जी!…बहुत सैड”…

“तो फिर आपको उनके बजाय अपने किसी स्कूल के यार-दोस्त वगैरा से इस बारे में पूछ लेना था"…

“हम सभी छोले दे के पास हुए थे"…

“क्या मतलब?”…

“हमारे हिन्दी के टीचर को छोले-भठूरे बहुत पसंद थे"…

“तो?”…

“तो हम सभी ने मिल के उनके घर काबुली चनों की एक पूरी बोरी भिजवा दी थी"..

“पास होने के लिए?”…

“जी!…

“तो क्या आपके सभी साथी पास हो गए थे?”..

“नहीं!…मुझ समेत सब के सब फेल हो गए थे"…

“क्या मतलब?…ऐसा कैसे हो सकता है?…आपके हिसाब से तो टीचर को छोले बहुत पसंद थे ना?”..

“जी"…

“तो फिर ऐसा…कैसे?”…

“दुकानदार ने हमसे दगा किया"…

“ओह!...तो क्या उसने छोलों के बजाए राजमा…या फिर मूंग छिलका?”..

“नहीं!…भेजी तो पट्ठे ने छोलों की ही बोरी थी"..

“तो फिर?’…

“बदकिस्मती से उनमें कीड़ा लगा हुआ था"…

“ओह!…तो क्या इस बात को मैं सोलह आने सच समझूँ कि आपने हमेशा के लिए ब्लॉग्गिंग से सन्यास ले चिरकुटियाने का फैसला किया है?”..

“चिरकुटियाने का नहीं…तिरुपति जाने का फैसला किया है"…

“लेकिन किसलिए?”..

“लड्डू लेने…तुमने मंगवाने हैं?”..

“अब जब आप अपने लिए ला ही रहे हैं तो मेरे लिए भी लेते ही आइएगा…मोतीचूर  के”…

“जी!..ज़रूर"…

“लेकिन एक बात नहीं समझ आ रही”..

“क्या?”…

“यही कि आप लड्डू लेने इतनी दूर क्यों जा रहे हैं?..अपना यहीं-कहीं…आस-पड़ोस से भी तो…

“ताकि अपनी नाक कटवा लूँ?”…

“क्या मतलब?”..

“आस-पड़ोस के लोग-बाग क्या सोचेंगे कि इतनी बड़ी जूनियर ब्लॉगर एसोसिएशन का स्वयंभू प्रैसीडैंट कलाकंद और रसमलाई खरीदने के बजाए लड्डू खरीद रहा है"…

“क्या बॉस?…मैं तो सोचता था कि इस पूरी दुनिया में सिर्फ एक अकेला मैं ही हूँ जो भौंकते कुत्तों की परवाह करता है लेकिन यहाँ भी आप भी मेरे एकाधिकार को चैलेन्ज कर रहे हैं"… 

"अरे!...परवाह तो मैं बिलकुल नहीं करता लेकिन क्या करूँ?...स्साले!…भौंक ही तो नहीं रहे”...

“क्या मतलब?”..

“लाख दफा उकसा के देख लिया पट्ठों को कि…’आओ!…सम्मन भेजो हमें… तुम्हारे नोटिस के इंतज़ार में हमें नींद नहीं आ रही"...

"गधे के माफिक रेंक-रेंक के खूब चिल्ला लिए हम..खूब भौंक लिए हम लेकिन स्सालों के कान पे जूं तक नहीं रेंग रही…पता नहीं किस  मिटटी के बने हैं कम्बख्त मारे?...

“एक्चुअली बॉस!...भौंक तो हम लोग रहे थे...वो बेचारे तो बिना किसी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया किए चुपचाप अपने दडबों में छिपे बैठे थे"...

"वोही तो...उन्हें उनके दडबों से बाहर निकाल हमारा सामना करने के लिए हमने ना जा ने कितनी बार और किस-किस तरह से नहीं उकसाया...क्या-क्या हथकंडे नहीं अपनाए हम लोगों ने?..लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात...कोई कुछ बोल के ही नहीं राजी था"...

"कहीं ये किसी तूफ़ान के आने से पहले की शान्ति तो नहीं है ना बॉस?”…

"क्या कहा जा सकता है?"...

"जी!...

"अच्छा तो अब मुझे विदा दें...गाड़ी का समय हो रहा है"...

"जी"...

"जिंदा रहे तो फिर मिलेंगे"...

"ज़रूर!...आपकी यात्रा मंगलमय हो"...

"धन्यवाद"..

"तनेजा जी!...पूरी जिंदगी में तो आपने सिर्फ पाप किए हैं"...

"जी!…किए तो हैं"…..

"जाते-जाते मेरा एक काम करते जाइए...आपको मोक्ष की प्राप्ति होगी"..

"ज़रूर!...मेरा अहोभाग्य कि मैं आपके किसी काम आ सका"..

"शुक्रिया"…

"कहिये!...मैं आपकी क्या खिदमत कर सकता हूँ?"...

"वो ज़रा...'पलक' का नंबर दे देते तो बड़ी मेहरबानी होती"..

"पलक का?"...

"जी!...

"कोई खास काम था या फिर ऐसे ही महज़ टाईम पास के लिए ....

"खुद उसी ने मेरी पोस्ट पर अपने अंतिम कमेन्ट में मुझसे बात करने की इच्छा जताई थी और कहा था कि मैं उसका नंबर आप से ले लूँ"...

"पलक ने खुद ऐसा कहा था?"..

"जी!...खुद पलक ने..वर्ना मेरा स्वभाव तो आप जानते ही हैं कि मुझे लड़कियों से कितनी नफ़रत है?"..

"जी!..ये तो आपकी शक्ल से ही पता चल जाता है"...

"थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट"...

"ये काम्प्लीमैंट नहीं है बच्चे"...

"ओह!...तो फिर इसे शुद्ध हिंदी में क्या कहते हैं?"..

"इज्ज़त उतरवाई"...

"ओह!...

"भूल जाओ उसे...वो तुम्हारे हाथ नहीं आने वाली"...

"कैसे?...कैसे भूल जाऊं मैं उस प्यारी सी गुडिया को?...कैसे भूल जाऊं उसकी सैक्स रस में भीगी गुप्तज्ञान  सरीखी गर्मागर्म रचनाओं को?"..

"आज सुबह तुमने क्या खाया था?"...

"याद नहीं...क्यों?...क्या हुआ?"....

"जैसे तुम्हें सुबह का खाया हुआ याद नहीं...वैसे ही मुझे भी उसका नंबर याद नहीं"..

"आप झूठ बोल रहे हैं"...

"हाँ!...बोल रहा हूँ...तो?"..

"तनेजा जी!...प्लीज़...मुझे उसका नंबर दे दीजिए...प्लीज़"..

"छोडो उसे...कोई और बात करो?"

"छोड़ दूँ उसे ताकि आप अकेले-अकेले मौज ले गुलछर्रे उड़ा सकें उसके साथ?"..

"नहीं!...ये बात नहीं है ...दरअसल वो तुम्हारे लायक नहीं है...इसलिए....

"क्यों?...वो काणी थी क्या?"...

"नहीं"...

"या फिर लंगडी-लूली थी?"...

"नहीं"...

"किसी खजैले कुत्ते ने उसे छबीस बार काट खाया था?"....

"यार!...तुम समझ नहीं रहे हो"...

"क्या समझ नहीं रहा हूँ मैं?...सब समझ रहा हूँ मैं कि तुम अकेले ही सारी की सारी घेवर-मलाई चट कर जाना चाहते हो"...

"अरे!…काहे का घेवर?…काहे की मलाई?…कुछ भी नहीं था उसमें"…

“ओह!...तो इसका मतलब सब कुछ तुम पहले से ही चट कर गए थे ना ?...और मुझे बताया भी नहीं...बदमाश कहीं के"...

"अरे!..ये बात नहीं है यार"...

"ये बात नहीं है ..वो बात नहीं है ...तो  फिर क्या बात है?...मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है"...

"दरअसल!....

"मिलवाया नहीं तुमने मुझे उससे...कोई बात नहीं लेकिन बात तो करवा ही सकते हो ना कम से कम?...एक नंबर ही तो माँगा है तुमसे"....

"अरे!...कहाँ से दूँ नंबर?...कैसे दूँ नंबर?...कितनी बार कहूँ कि मर चुकी है वो"..

"नहीं!...ये हो नहीं सकता"...

"कैसे यकीन दिलाऊँ तुम्हें मैं कि मैंने खुद...अपने इन्ही नायाब हाथों से उसके पूरे प्रोफाईल और ब्लॉग को डिलीट कर उसे सजाए मौत का हुक्म सुनाया है"...

"आह!...ये मैंने क्या कर डाला?...मैंने खुद ही उसे जन्म दिया और मैंने खुद ही उसे मार डाला...आह"...

(दोनों की विलाप करती रोने की तेज आवाज़ और फिर पर्दा गिरता है ) 

कथा समाप्त

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

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