अब तक छ्प्पन- राजीव तनेजा

computer-addict ये स्साला!…कम्प्यूटर भी गज़ब की चीज़ है ....गज़ब की क्या?..बिमारी है स्साला…बिमारी| एक बार इसकी लत पड गयी तो समझो कि..बन्दा गया काम से|कुछ होश ही नहीं रहता किसी बात का..ना काम-धन्धे की चिंता...ना यार-दोस्तों की यारी|यहाँ तक की बीवी-बच्चों के लिये भी टाईम नहीं होता…हर वक्त बस क्म्प्यूटर ही कम्प्यूटर|शुरु-शुरू में तो खाना-पीना तक छूट गया था मेरा इस मरदूद के चक्कर में|जब से ये आया घर में…ना दिन को ही चैन था और ना ही रात को आराम...हर वक़्त बस काम ही काम|

अब अपने मुँह से कैसे कहूँ कि क्या काम करता था मैँ?… “अरे!…कुछ खास नहीं…बस वही सब जो आप अपने बुज़ुर्गों से...छुप-छुप के...चोरी से...

"समझ गये ना?"…

बीवी बेचारी की तो समझ में ही नहीं आता था कि पूरी-पूरी रात जाग-जाग के ये बन्दा आखिर करता क्या है? उस बेचारी को क्या मालुम कि कम्प्यूटर तो मानो जैसे 'अलादीन' का जिन्न ...जो मुराद माँगो..देर-सवेर पूरी हो ही जाती है|जब अपुन ने कम्प्यूटर खरीदा तो सबसे पहले यही ख्वाईश थी कि...किसी भी तरीके से...कुछ भी उलटा-पुलटा दिख जाये|बहुत सुन जो रखा था कि...इसमें कि ये भी दिखता है और वो भी दिखता है|सो!..आज  की तारीख में 'माशा-अल्लाह' पूरी की पूरी 'हार्ड-डिस्क' ही भरी पड़ी है ऐसे जलवों से| लेकिन क्या करें जनाब?…ये दिल है कि मानता नहीं|रोज़-रोज़..नए-नए जलवों की तलाश रहती है इसे|बीवी बेचारी को तो रोज़ कोई ना कोई गोली दे देता कि ...

“प्रोजैक्ट वर्क है...पूरा करना है...देर लगेगी..तुम सो जाओ"…

उस बावली को क्या पता कि मैँ कौन से प्रोजैक्ट पर काम कर रहा था? वो कहते हैं ना कि घर की मुर्गी दाल बराबर...तो कुछ समय बाद ही ये सारे के सारे जलवे बेमानी से लगने लगे थे अपुन को|दिल अब कुछ हाई लैवल की ऊंची नस्ल वाली बढ़िया चीज़ों की डिमांड करने लगा था...बावला जो ठहरा|

“कुछ ना कुछ तो असलियत में भी होना ही चाहिए ना?..ये क्या कि हर वक्त बस आभासी दुनिया में खोए रहो? और फिर सिर्फ आँखे सेंक-सेंक के कौन कमबख्त गर्म होता फिरे?”…

अब इसे बढती उम्र का तकाजा कह लें या फिर कुछ और कह लें...तसल्ली नहीं होती थी ऐसे छुटभैय्ये कामों से|सो!…यही सब सोच के मैने अपनी गड्डी का स्टेयरिंग 'सर्फिंग' से चैटिंग की तरफ मोड़ दिया| बस!…फिर क्या था जनाब?….गड्डी का मुड़ना था कि अपनी तो निकल पड़ी| रोज़ कोई ना कोई…किसी ना किसी मोड़ पे अपने आप टकराने लगी...कभी 'गोरी' तो कभी 'काली'...कभी कोई बिलकुल 'मोटी-ताज़ी' तो कभी कोई एकदम से अस्थि-पिंजर के माफिक दुबली-पतली |एक-दो बार किस्मत कुछ ज़्यादा ही मेहरबान हुई तो एक-आध 'छम्मक-छ्ल्लो' टाईप भी टकराने लगी|

“क्यों जनाब?…रश्क हो रहा है ना मेरी किस्मत से?”…. 

पहले पहल मुझे भी कुछ ऐसी ही फीलिंग का एहसास अपने प्रति हुआ था लेकिन फिर ये सोच के मैं अन्दर ही अन्दर सहम गया था कि चार दिन की चांदनी के बाद फिर अंधेरी रात ना आ जाए कहीं |बस यही इकलौता डर कभी-कभी भीतर तक बेंधता हुआ मुझे बुरी तरह सता जाता था |इसलिए...मौके की नजाकत और वक्त के तकाजे को समझते हुए मैं अपनी गड्डी का मीटर फटाफट से फुल स्पीड पर 'टाप-ओ-टाप' खींचे जा रहा था कि अचानक ज़ोर का झटका सचमुच…बड़ी ज़ोर से लगा| अब तो दिल बस यही गा रहा था कि...

"हो!... मै निकला गड्डी ले के...हर रोज़ कोई 'होर' आया....
हाय!...मैँ 'ओथे'....अपना फोन नम्बर क्यों छोड़ आया?"

“आखिर!…गल्ती तो मेरी ही थी ना?…फिर भला किसी और को क्या दोष देना?" ..

"क्या ज़रूरत पड़ गयी थी मुझे उस बावली को अपना फोन नंबर देने की?"… 

अब दे दिया तो दिया….लेकिन उस नौटंकी को भी तो कुछ सोचना चाहिए था कम से कम…ये क्या कि मुंह उठाया और सीधा मेरी जोहड़ रुपी फटेहाल जिंदगी में कूदी मारते हुए फट से छलांग लगा दी? पागल की बच्ची…बिना कुछ सोचे समझे ही घंटी पे घंटी…फोन पे फोन खड़काने लगी|पता नहीं मेरे चेहरे में उसे ऐसे कौन से 'सुरखाब' के पर लगे दिखाई दे गए कि रुका नहीं गया उस कंबख्तमारी से …बावली हो….फुल-फ्लैज सैंटी हो उठी मेरे प्यार में|

ये तो भला हो उन कम्पनी वालों का जो सैक्सी-सैक्सी आवाज़ वाली लड़कियों से लोगों को बारम्बार फोन कर-कर के परेशान करते रहते हैँ....कभी 'लोन' के नाम पे...तो कभी ‘लो ना’ के नाम पे..कभी 'क्रैडिट-कार्ड' के नाम पे तो कभी 'इंशयोरैंस' के नाम पे|बस!…उन्हों की आड़ में असलियत को बड़ी आसानी से छुपा गया मैँ लेकिन ये भी तो सच है ना कि मुसीबत कभी अकेले नहीं आती...आठ-दस को हमेशा अपने साथ लाती है? वही हुआ…जिसका मुझे डर था|

अब इसे उन कम्बख्त्मारियों की मिलीभगत कहें या फिर संयोग कहें?...ये मैं नहीं जानता लेकिन एक दिन सभी को पता नहीं क्या सूझा कि उन सभी की घंटी एक साथ खड़कनी शुरु हो गई|एक से निबटूँ तो कमबख्त दूजी टपक पड़े…दूजी को कुछ कह-कहवा के चुप करवाऊं तो तीजी का फोन घनघना उठे| बीवी के कान खड़े होने थे…सो..हो गए|अब यार!...ये तो ऊपरवाला जाने कि…कैसे उसने हमारी बातें सुन ली और भड़क खडी हुई|

"हाँ-हाँ!…ले आओ इन्हीं करमजलियों को घर पे और बिठा दो चौके में…मेरे तो करम ही फूट गये थे जो तुम संग ब्याह रचाया…लाख मना किया था बाबूजी ने कि….

"लड़के का चाल-चलन ठीक नहीं है...ढीले करैक्टर का है"...

"लेकिन मति तो मेरी ही मारी गयी थी ना जो तुम्हारे…इस मरदूद चौखटे पे मर मिटी… ‘शशि कपूर’ जो दिखता था मुझे तुम्हारे इस नासपीटे चेहरे में…अक्ल पे पत्थर पड़ गये थे मेरी…पता होता कि तुम ऐसे-ऐसे गुल खिलाओगे तो तुमसे शादी करने के बजाए कहीं जा के चुल्लू भर पानी में डूब मरती"…

अब इसे मेरी खुशकिस्मती कहें या फिर बदनसीबी कि मुझ बेवाकूफ को जाने क्या सूझी कि मैंने झट से ये कहते हुए कि..."अरे!...मेरे होते हुए कहीं जाने की ज़रूरत क्या है?...ये लो"

उसके हाथ में पानी भरा गिलास थमा दिया|बस!…जलती आग में मानो घी पड़ गया हो…आगबबूला हो उठी तुरंत|

"सम्भालो अपनी पलटन....मै तो चली मायके और हाँ...कान खोल के सुन लो....लाख मनाओ फिर भी वापिस नहीं आऊंगी…अब दूसरी वाले को ही बिठा लेना...देखती हूँ कितने दिन तक पका-पका के खिलाती है?…नानी ना याद आ जाए तो कहना"..

"हाँ-हाँ!…ले आऊंगा...एक नहीं…सौ लाउंगा..एक से एक 'टाप' की लाउंगा"....

बीवी ऐसी तडपी कि फिर ना रुकी...छोटे वाले को साथ ले चल दी मायके|मैने भी रोकना मुनासिब नहीं समझा|आखिर!…बरसों बाद दिली ख्वाईश जो पूरी हो रही थी|खुली ..स्वच्छ हवा में साँस लेने का मौका कैसे गवां देता?  उसके जाते ही सब्र कहाँ था मुझे? जा पहुँचा तुरंत अपने 'पाठक जी' के यहाँ|

"अरे!…वही 'पाठक जी’ जिनके गली-गली...हर मोड़ ….हर चौराहे पे पोस्टर लगे नज़र आते है कि … 

"रिश्ते ही रिश्ते...मिल तो लें"

“हाँ-हाँ!…वही जिनका नाम …दिल्ली का बच्चा-बच्चा मुँह ज़बानी रटे बैठा है”...

“पट्ठे ने कोई जगह भी तो नहीं बक्शी..क्या 'गली'....क्या ‘नुक्कड़' ...क्या 'बस अड्डा'...क्या 'रेलवे स्टेशन?...हर जगह बस 'रिश्ते ही रिश्ते' का बोर्ड टंगा नज़र आता है" 

“चिराग तले अँधेरा देखो कि पट्ठा…खुद अभी तक कुँवारा बैठा है|किसी जानवर ने…ऊप्स!…सॉरी…जानकार ने बताया था कि… “नोट कमाने से फुर्सत  मिले तो अपने बारे में सोचे भी...वैसे...नथिंग सीरियस…कोई दिक्कत वाली बात नहीं है”..

“खैर!..अगर कोई दिक्कत-शिक्कत वाली बात हो तो भी हमें कौन सा उसके साथ लग्न-फेरे लेने हैं?...हमें तो अपने काम से मतलब है...वो तो हो ही जाएगा किसी ना किसी तरीके से”…

इसलिए बिना किसी प्रकार की कोई हानि किए…ऊप्स सॉरी आनाकानी किए मैंने अपना नाम उनके बहीखाते में रजिस्टर करवाया|काम के तसल्ली बक्श ढंग से पूरे हो जाने की फुल गारैंटी मिली तो एडवांस भी जमा करवा दिया|मेरी बढती उम्र और ढलता चेहरा देख…हर लड़की दिखाने की फीस अलग से माँगी उन्होने|मैने राज़ी-खुशी से हामी भर दी...और चारा भी क्या था मेरे पास? अभी नाम-पता और फोन नम्बर सब नोट करा के मैँ घर की तरफ चला ही था कि बीच रस्ते में ही उनका फोन आ गया कि....
"लौट आओ तुरंत..एक आई है तुम्हारे मतलब की" 

"अब तो जनाब…सब्र कहाँ था मुझे?….बांछों ने खिलना था...सो..बिना किसी प्रकार की आनाकानी किए तुरंत खिल उठी|बाईक को किक मार मैं जा पहुँचा तुरंत लेकिन ये क्या?...पहुँचते ही सारा का सारा जोश एक ही झटके में र से रफूचक्कर हो गया" 

"लड़की क्या?…वो तो पूरी अम्मा थी अम्मा...मेरी बीवी के सामने तो ये.... 

“हुंह!…इससे शादी करूँगा मैँ?…अभी इतना बावला नही हुआ हूँ जनाब कि किसी भी आंडू-बांडू को मेरे गले बाँध डालो" …

"अरे!…कोई टॉप की आईटम है तो दिखाओ वर्ना अपना रास्ता नापो”...

"नहीं!…खर्चे-पानी की चिंता ना करो...दस-बीस ज्यादा भी लगें तो कोई वांदा नय्यी...बस…आईटम ज़बरदस्त होनी चाहिए"...

"ज़बरदस्त माने?"...

"जिसके साथ मुझे ज़बरदस्ती ना करनी पड़े"...

"हम्म!...ठीक है...देखते हैं कोई इस टाईप की मिलती है तो लेकिन हर बार चाय-पानी का खर्चा आपकी तरफ से होगा"वो हँसते हुए बोला...

"मुझे कोई ऐतराज़ नहीं...बस काम मेरा बनना चाहिए"...

"उसकी तो आप बिलकुल ही चिंता ना करो जी...पूरे बाईस साल का तजुर्बा है मुझे"...

"रिश्ते करवाने का?"...

"नहीं!...घर तुडवाने का"...

"क्या मतलब?"..

"अब जैसी आप डिमांड कर रहे हैं तो उसके हिसाब से तो आपको कोई खेली-खाई हुई आईटम चाहिए"...

"नहीं!...ऐसी बात नहीं है लेकिन बस...समझाना ना पड़े"...

"हैं...हैं...हैं....तो फिर इसके लिए तो किसी ना किसी का घर तो तुडवाना ही पड़ेगा ना?"...

"ये सब सोचना आपका काम है...मेरा नहीं...मुझे तो बस पैसे....

"क्या बात?...बड़ा रुआब दिखा रहे हो पैसे का?...बताओ कितने पैसे खर्च कर सकते हो?"...

"जितने आप कहें लेकिन बस...मेरा काम बनना चाहिए"...

"अरे!...उसकी तो तुम चिंता ही ना करो...कल से ही लो...देख-देख के बौखला ना जाओ तो मेरा भी नाम 'पाठक जी' दिल्ली वाले नहीं"..

बस...फिर क्या था जनाब?...मैँ जेब ढीली करता गया और वो रोज़ कोई ना कोई लडकी दिखाते चले गये|अब तक छ्प्पन देख चुका हूँ लेकिन मेरे बदकिस्मती कहिये कि कोई स्साली!..सैट होने का नाम ही नहीं ले रही थी |यूँ तो जवानी के दिनों में घाट-घाट का पानी चखा था मैँने...अब क्या करूँ दिल ही कुछ ऐसा दिया है ऊपरवाले ने कि अपुन से किसी को निराश नहीं देखा जाता|इसलिए..जो आई...जैसी आई...मैं हर फ़िक्र को धुंए में उड़ा...उसी का साथ निभाता चला गया|

क्या पतली?...क्या मोटी?...क्या काली?...क्या गोरी?...क्या बुड्ढी?...क्या जवान?...

सभी बराबर थी मेरे लिये...कोई छोटी-बड़ी नहीं...सभी एक सामान...जहाँ तक याद है मुझे...भूले से भी कभी किसी को ना नहीं कहा मैंने| खेलने-खिलाने तक तो ये सब ठीक है लेकिन अब बात...अपनी...खुद की शादी की आ पहुंची थी|जिन्दगी भर का साथ निभाना कोई हंसी-खेल नहीं है इसलिए बिना किसी प्रकार की कोताही बरते मेरे नखरे अपने आप...खुद बा खुद शुरू हो गए कि...

'ठिगनी' नहीं होनी चाहिए...'मोटी' नहीं चलेगी....'काली' का तो सवाल ही नहीं पैदा होता वगैरा...वगैरा..

'सरकारी नौकरी' वाली होना तो लाज़मी था ही और उम्र  बस यही कोई 'इक्कीस-बाईस  के बीच की हो जाए तो फिर कहना ही क्या?"..

"अब आप कहेंगे कि ये राजीव तो एकदम से सठिया गया है...एक तरफ तो तजुर्बेकार आईटम ढूंढ रहा है और दूसरी तरफ उम्र भी इक्कीस-बाईस की खोज रहा है"..

"तो भाई मेरे ये आपसे किस गधे ने कह दिया कि तजुर्बा प्राप्त करने के लिए बालों का स्याह से सफ़ेद होना ज़रुरी है?"...

"जानते हो ना कि बिल गेट्स की उम्र कितनी है? और पैसा कमाने का उसका तजुर्बा कितना है?"..

"खैर!...छोडो इस बात को और आगे की सुनो....

एक  के बाद एक लाइन से कई रिश्ते देख डाले मैंने लेकिन किसी में कोई नुक्स तो किसी में कोई...किसी का 'रंग' पसन्द आता तो 'चौखटा' नहीं"और किसी का 'चौखटा' पसन्द आ जाता तो 'चाल' नहीं... किसी में एक 'खूबी' नज़र आती तो किसी में दूसरी....कहीं एक बात अच्छी लगती तो सौ कमियाँ भी दिखाई दे जाती|जहाँ कहीं लड़की पसन्द आ जाती तो वहाँ 'खानदान' नहीं| सौ बातों की एक बात कि ना चाहते हुए भी किसी ना किसी वजह से हर जगह कोई ना कोई पंगा खड़ा हो ही जाता|तिल-तिल कर के मेरी मुट्ठी से रेत खिसकती जा रही थी लेकिन काम था कि बनने का नाम ही नहीं ले रहा था| पूरी तरह से निराश हो चुका था मैं....वक्त के साथ-साथ मायूसी के काले..घने और गहरे बादल मेरे चेहरे पे हर समय विद्यमान रहने लगे थे|पल-पल कर के द्रुत गति से वक़्त गुज़रता जा रहा था लेकिन शादी का महूर्त था कि निकलने का नाम ही नहीं ले रहा था|कई बार बात बनते-बनते ही बीच में बिगड़ जाती...कभी लेन-देन के नाम पर तो  कभी किसी और बात पर...

"हो...सुहानी शाम...ढल चुकी...ना जानें तुम कब आओगी?

ना चाहते हुए भी कई बार ऐसा लगने लगा था कि ऊपरवाला शायद मुझसे मेरे पिछले जन्म में किए गए बुरे कर्मों का बदला लेने में बिजी है और मैं पागल उसके फैंसले से अनजान..शादी के लिये हर पल मरा जा रहा था|अब रोज़-रोज़... जली-कटी...कच्ची-पक्की....रोटियाँ बनाते और खाते मैँ तंग जो आ चुका था|इसलिए...ना चाहते हुए भी मजबूरन मुझे अपने हित में एक एहम लेकिन कड़वा फैसला लेना पड़ा कि ....

"अब की बार कोई नखरा नहीं...काणी-भूंडी...जैसी भी मिलेगी...जैसे-तैसे कर के निभा ही लूंगा...कोई मन्तर थोड़े ही पढवाने हैं?…काम ही तो चलाना है बस " 

मेरी अलसायी हुई किस्मत मानों इसी पल का…इसी बात का इंतज़ार कर रही थी ...पलक झपकते ही किंग कोबरा के माफिक फन फैला तुरंत जाग उठी|एक जगह लड़की देखने गया तो पाया कि लड़की तो एकदम 'टाप-ओ-टाप' है...पहली नज़र में ही ऐसे भा गई मेरे दिल को मानों...पहली नज़र का पहला प्यार हो जैसे|खास बात ये कि उसकी माँ बड़ी ही सीधी थी..एकदम गऊ के माफिक| कहाँ आजकल की एकदम से चलती-पुर्जी टाईप की सासू माएँ और कहाँ ये कलयुग में साक्षात निरूपा राय की अवतार?... “भय्यी वाह...सास  हो तो ऐसी"...

एक बार तो देख के विश्वास ही नहीं हुआ कि ऐसे नूर टपकाते लोग भी बसते हैँ आज के ज़माने में| अपुन ने तो पहले से ही ठान रखा था कि इस बार कोई गलत कदम नहीं उठाना है...सो!..अपुन ने आईडिया लगाया कि लड़की की माँ को अगर मैंने पट्टू पा लिया अपनी बात बनी ही समझो|ये सोच मैं तुरंत ही 'मम्मी जी...मम्मी जी' कर के उसकी 'लल्लो-चप्पो' पे उतर आया|
उसे भी शायद मैं पसंद आ चुका था...इसलिए तो उसने ममता भरी निगाहों से मेरी तरफ देख मुझे तसल्ली देते हुए बड़े ही प्यार से कहा कि....

"चिंता ना करो...ऊपरवाले ने अगर चाहा तो बात बन ही जायेगी"..

लड़की भी बिना शरमाए...चोर नज़रों से मेरी तरफ ही ताके जा रही थी लेकिन उसका बाप?... “उफ्फ!...तौबा...साला...खड़ूस की औलाद...पूरा टाईम मुझ पर ही नज़र गड़ाए बैठा रहा..एक सैकैण्ड के लिये भी टस से मस नहीं हुआ”…

लाईन मारने का कोई चांस मिलता ना देख जल्दी ही अपुन ने भी कलटी हो जाना बेहतर समझा| जाते-जाते अपने मोबाईल नम्बर की पर्ची वहीं जानबूझ के छोड़ना मैं नहीं भूला|

तीर सही निशाने पर जा लगा और अगले ही दिन वहाँ से खुशियों भरा पैगाम लिए उसकी माँ का फोन आ गया|मिलने की जगह और वक़्त फिक्स हुआ| सही जगह और सही वक़्त पर मैँ अपने दल-बल के साथ हाज़िर था|

"क्या कहा?..दल-बल माने?"...

"अरे!..यार...दल-बल माने...कंघी...परफ्यूम...आफ्टर शेव...डियो वगैरा..

"अब टाईम पास के लिए कोई ना कोई चीज़ तो अपनी बगल में होनी चाहिए कि नहीं?”…

मैं जानता जो था कि लेट होना औरतों का तो जन्म्-सिद्ध अधिकार है इसलिए गुस्सा तो मुझे बिलकुल नहीं आ रहा था ...कसम से| बस!...कई बार इधर-उधर से नज़र बचा के मैं रह-रह कर अपने दांत पीस लेता था चुपके से|अब कुछ करने को था नहीं मेरे पास तो मैंने सोचा कि क्यों ना इधर-उधर नज़रें दौड़ा कर आँखें ही सेंक ली जाएँ कम से कम?...

बहुत सी सुन्दर-सुन्दर तितलियाँ अपने रूप-पंख फैलाए मानो मेरे ही इंतज़ार में आस-पास मँडरा रही थी|मन ही मन...'कुक…कुक…कुक….चोली के  पीछे क्या है?..चोली के पीछे' गाने के अलावा मजाल है जो मैने उनकी तरफ ठीक से नज़र उठा के एक पल के लिए देखा भी हो|

"अरे!...बाबा डर जो था कि फोक्की मलाई के चक्कर में कहीं गाढा दूध ही ना गवां बैठूँ हाथ से" 

सो!...चोर नज़रों से चुपचाप उन्हें टुकुर-टुकुर ताकते हुए मैं किसी तरीके से वक्त को किल करता हुआ अपनी होने वाली बीवी को बड़ा मिस कर रहा था|इस बीच…खुल के देखूँ या ना देखूँ की उधेड़बुन के बीच ये पता ही नहीं चला कि कितना वक़्त गुज़र गया और कितना नहीं?..थक-हार के मैं इतना पागल हो चुका था कि बिना रुके लगातार जम्हाईयों पे जम्हाइयां लिए जा रहा था |इन्हीं अलसायी जम्हाइयों में से एक के बीच मैं अचानक पलटा तो पाया कि वो दोनों सामने वाले पेड़ के पीछे बने झुरमुट में से छुप के पता नहीं कब से मुझे ताक रही थी| शुक्र है ऊपरवाले का कि आज अपुन कंट्रोल में था|

“नज़रें मिली…दिल धड़का तो दिल ने कहा…आज तू बच गया राजा"…

मुझे अपनी और ताकता देख वो दोनो हिचकिचाते हुए सामने आ गयी|उसके बाद सामने वाले रेस्टोरेंट में कुछ खाना-पीना और इधर-उधर की बातें हुई|इतने में आखोँ ही आखो में माँ-बेटी के बीच कुछ इशारा हुआ और फिर माँ मेरी तरफ मुखातिब हो कुर्सी से उठते हुए बोली...

"एक-मिनट... ज़रा साईड में...टायलेट के पास आना...कुछ ज़रूरी बात करनी है" 

"टायलेट के पास?"...

"हाँ!...

"कहीं इसका नाड़ा तो नहीं....(मेरे मन में शंका के बादल गहरा उठे)

"नहीं!...पहली ही मुलाक़ात में ऐसी बेहूदा बात?...वो भी एक औरत के मुंह से?"...

"नहीं!...बिलकुल नहीं...हो ही नहीं सकता"...

"फिर क्या वजह हो सकती है इस बात की?"मेरी गहराती सोच पे असमंजस विराजमान हो चुका था

"शायद!..दहेज-वहेज के लिये ही पूछेगी...और इसको क्या काम हो सकता है मुझसे?"...

"हाँ!...यही बात होगी...अभी तो फिलहाल के लिए यही कह दूंगा कि...

"कुछ नहीं चाहिए...बस!..दो कपड़ों में ही विदा कर दो"... 

बाद की बाद में देखूंगा...बक्शने वालों में से मैं नहीं...अपना जलवा दिखाता रहूँगा आराम से...जल्दी क्या है?...कौन सा ये भागे चले जा रहे हैं या फिर मैं ही कौन सा सुधरने वाला हूँ?"..

"अभी तो बस...कैसे भी कर के ये शादी हो जाए किसी तरह| तभी बीवी के मुँह पे तमाचा लगेगा तगड़ा सा" 

"हुंह!...बड़ी आई कहने वाली कि..."देखती हूँ...कौन पका के खिलाता है?" 

"अब पता चलेगा बच्चू को जब मेरे घर से रोज खीर और मालपुओं की खुशबुएँ उसका जीना हराम कर दिया करेंगी"... 

ये सब सोच मैं लड़की को बाय कर...मुस्कुराता हुआ अपनी होने वाली 'सासू माँ' के नक्शेकदम पे चल दिया| 

"पसन्द तो मुझे तुम पहली ही नज़र में आ गये थे लेकिन...

"लेकिन?"...

"अभी जिस तरह से तुम चुप-चाप सर झुकाए खड़े थे"... 

"जी!...

"मुझे और बेबी को तो शक होने लगा है"...

"शक?"..

"हाँ!..

"कैसा शक?"...

"यही कि तुम मेरी बेटी के लायक हो भी या नहीं?"...

"म्में...मैं कुछ समझा नहीं..ज़रा खुल के समझाएं"...

"अरे!..यार सीधी सी बात है जब तुम इतनी तितलियोँ के बीच रहकर भी ना पिघले...कुछ ना कर सके....तो मेरी बेटी को क्या खाक राज़ी रखोगे?" .. 

"क्क्या...मतलब?...मतलब क्या है आपकी बात का?"...

"अरे!...मतलब को मार गोली और सीधी तरह ये बता कि कुछ दम-शम भी है तेरे अन्दर या नहीं?"इतने में बेटी भी पास आ चुकी थी  

"क्क्या?...क्या कह रही हैं आप?"..

"वही जो तुम सुन रहे हो"..

"म्मैं.....दरअसल....

"वैसे कुछ भी कहो...तुम हो बड़े ही 'क्यूट' और 'हैंड्सम" वो शरारती मुस्कान चेहरे पे लाती हुई बोली 

"काश!...तुम कुछ साल पहले पैदा हुए होते तो मैं ही...

"खैर!...कोई बात नही...अब भी कुछ खास नहीं बिगड़ा है...पहले मै खुद ही...अपने बूते पर तुम्हें... 'प्रैक्टली' चैक करूँगी कि तुम मेरी बेटी के लायक हो भी या नहीं"उसकी माँ मुझे ऊपर से नीचे तक गौर से निहारती हुई बोली

"क्क्या?...क्या बक रही हैं आप?"... 

"बक नहीं रही हूँ...सही कह रही हूँ...कहीं बाद में मेरी बेटी पछताती फिरे"...

?...?..?...?

"और वैसे भी हमारे यहाँ का तो रिवाज़ है ये कि पहले माँ चैक करती है...बाद में बेटी...अभी परसों ही तो हम माँ-बेटी ने एक को रिजैक्ट किया है...चौखटे से तो वो भी ठीक-ठाक ही था तुम्हारी तरह लेकिन...

"मेरे तो प्राण ही सूखे जा रहे थे उन माँ-बेटी की बातें सुन-सुन के" ... 

"कलयुग!...घोर कलयुंग"...

दुम दबा के नौ दो ग्यारह होना ही सही लगा मुझे...

"अरे!...अरे...चले कहाँ?...रुको...रुको तो सही"...

"हाथ कहाँ आने वाला था मैं उनके?...पैरों में पर जो लग चुके थे मेरे ...मैं ये गया और वो गया"... 

"जान बच्ची तो लाखों पाए...लौट के बुद्धू घर को आए" 

घर बैठा मैँ यही सोच रहा था कि मैं तो खुद ही अपने पे गुमान कर के बैठा था कि...मैं ही 'ढीले करैक्टर' का हूँ लेकिन यहाँ तो माँ-बेटी दोनो का करैक्टर मुझसे ढीला...महा ढीला निकला| अक्ल आ चुकी थी मुझे कि इधर-उधर मुँह मारने से कोई फायदा नहीं...जो अपनी...घर की में मज़ा है...वो बाहर कहीं नहीं है"...

आज बीवी बड़ा याद आ रही थी...

"दिन ढल जाए...हाय ...रात ना जाए...तू तो ना आए...तेरी याद सताए"..

“थोडा-बहुत डांटती थी तो क्या हुआ?...प्यार भी तो करती थी|आखिर!...बीवी है मेरी....कोई गैर तो नहीं?"...इतना हक तो बनता ही है उसका...मैँ खुद भी तो सही कहाँ था?”

बस!...अब रुका ना गया मुझसे...जा पहुँचा सीधा ससुराल| जाते ही हाथ-पाँव जोड़े...सुधरने की कसमें खाई| वो मानो मेरा ही इंतज़ार कर रही थी..चुपचाप बिना कुछ कहे अपना बैग उठा चल दी मेरे साथ

***राजीव तनेजा ***

Rajiv Taneja

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ना कम ना ज्यादा…पूरे चौदह साल- राजीव तनेजा

ram-sita

आज वक़्त नहीं था मेरे पास…सुबह से ही इधर-उधर भागता फिर रहा था मैं…सारे काम मुझे ही तो संभालने थे| मेहमानों का जमघट लग चुका था|उन्हीं की खातिरदारी में ही फंसा हुआ था|खूब रौनक-मेला लगा था...बच्चे उछल कूद रहे थे|मैँ कभी टैंट वाले को तो कभी हलवाई को फोन घुमाए चला जा रहा था|
"स्साले!…पता नहीं कहाँ मर गये सब के सब?"…
कम्भखत जब से फ्री इनकमिंग का झुनझुना थमाया है इन मुय्ये मोबाईल वालों ने जिसे देखो कान पे टुनटुना लगाए लगाए तमाशबीनी करता फिरता है गली गली…मानो फोन ना हुआ माशूका का लव-लैटर हो गया…जी ही नहीं भरता स्सालों का|और ऊपर से कुछ कंपनियों ने आपस में अनलिमिटिड टाक टाईम दे के तो अपनी और साथ-साथ दूसरों की भी वाट लगा डाली"

"अरे!..बेवाकूफो अपना...लिमिट में बातें करो…ये क्या कि...माशूका से मतलब की बातें करने के बजाय...

”क्या बनाया है? या फिर... क्या पकाया है?”....

“अरे!…तुमने लड्डू लेने हैं?”…

“कौन से कपड़े पहने हैँ?…पहने हैं कि नहीं पहने हैं?”...

"कितने बजे सोई थी?".. 

“और जब कुछ ना मिले कहने को तो….

“और सुनाओ”.... “और सुनाओ” कर के गेंद सामने वाले के पाले में डाल दो कि....

“ले बेटा!..अब तू ही नई-नई बातें ढूंढ करने के लिये…अपना कोटा तो हो गया पूरा" 

“उफ!…कितना बिज़ी रखते हैँ ये लोग फोन?"…

ढोलवाला पूरी लगन से मगन हो ढोल बजाए चला जा रहा था और बजाता भी क्यों ना? ...मनमानी दिहाड़ी जो मिल रही थी|सब मेहमान ढोल की ताल पे मस्त हो नाच रहे थे|इंगलिश की दस-बीस पेटियाँ तो एडवांस में ही मंगवा ही चुका था मैँ....इसलिए दारू-शारू की कोई चिंता नहीं थी कि बीच में ही खत्म हो गयी तो मज़ा किरकिरा ना हो जाए कहीं|दुलहन की तरह सजा हुआ था मेरा बंगला|मज़े ले-ले कर तबियत से तर माल पे हाथ साफ किया जा रहा था|किसी की बाप का कुछ जा जो नहीं रहा था…जा तो अपुन का रहा था ना? लेकिन बरसों बाद मिली खुशी के आगे सब कुर्बान|

बस एक ही बात थोड़ा खटक रही थी कि सबके चेहरे पे एक ही सवाल बार-बार उमड़ता-घुमड़ता दिखाई दे रहा था कि...

“आखिर!..माजरा क्या है?"…

"ये कंजूस-मक्खी चूस राजीव आखिर इतना दिलदार कैसे हो गया?…कहीं कोई लाटरी तो नहीं लग गयी?”…

"कहीं ना कहीं दाल में कुछ काला है ज़रूर"..

"अरे!…तुम क्या जानो कि …यहाँ तो पूरी की पूरी दाल ही काली है" मैँ मन ही मन खुश हुए जा रहा था

"मुफ्त में माल जो मिल रहा था तो सभी खामोश थे कि... "अपुन को क्या…कोई मरे या जिए?" वाला भाव उनके चेहरे पर था

"क्या कोई लाटरी लगी है?"…

"किस खुशी के मौके पे दावत दी जा रही है जनाब?"…

कोई ना कोई इस तरह के बेतुके सवाल भी दागे ही दे रहा था बीच-बीच में|

"अरे!…तुम्हें टटटू लेना है?…अपना आराम से खा-पी और मौज कर"…

"क्यूं फटे छेद में से बोरी के भीतर घुसने में वक्त ज़ाया कर रहा है?”…

कुछ समझदार इन्सान भी थे जो खाओ-पिओ और अपना रास्ता नापो की पालिसी पे चल रहे थे|बीच-बीच में कोई ना कोई ढीठ बन के पूछ ही बैठता तो उसे मेरा जवाब तैयार मिलता कि... 

"ये सब ना पूछो और बस मौज लो"…

मेहमान-नवाज़ी के चक्कर में थकान के मारे हालत पतली हुए जा रही थी लेकिन खुशी का मौका ही ऐसा था कि उछलता फिर रहा था मैँ| आखिर!…खुश क्यों नहीं होता मैँ?…ना कम ना ज्यादा….पूरे चौदह साल बाद खुशी के ये पल जो नसीब हुए थे| लगता था जैसे चौदह साल का वनवास काट मैँ आज राजगद्दी संभाल रहा हूँ| खुशी से मन ही मन इस गीत के बोल फूट रहे थे....

"दुख भरे दिन बीते रे भईया,अब सुख आयो रे"...

नौकर-चाकर भी तो कम ही पड गये थे आज…सब के सब मेरी खातिर पूरे जी-जान से हर काम में हाथ बटा रहे थे....अच्छे-खासे तगड़े ईनाम का लालच जो था| इस सब आपा-धापी के चक्कर में शायद कही मैँ कुछ भूले जा रहा था|

“कहीं कोई यार-दोस्त…रिश्तेदार बुलाए जाने से तो नहीं रह गया है?”….मेरा अंतर्मन पूछ बैठा

“नहीं!…मैंने पूरी बारीकी से खुद ही तो लिस्ट तैयार की थी"…

“सोच लो!…कहीं बाद मे किसी से ताने ना सुनने पड़ जाएँ?”…

“हम्म!….

बडी ही सूक्ष्मता से लिस्ट को कई बार चैक करने के बाद भी कहीं कोई गल्ती या कमी नज़र नहीं आ रही थी|

"लेकिन कहीं ना कहीं….कुछ ना कुछ तो छूटा ज़रूर है"मैँ अपने माथे पे ऊँगलियाँ फिरता हुआ खुद अपने आप से बात करता हुआ बोला 

माथे पे ज़ोर डाल मैँ सोचे चला जा रहा था कि अचानक सब याद आ गया...

"ओह!..ओह माय गाड…ये सब कैसे हो गया?”..

“या अल्लाह!…मुझे उसके कहर से बचा"..

"हे भगवान!…अब क्या होगा?....

"उफ़!…ये मैंने क्या कर डाला?”..

"कहाँ मति मारी गयी थी मेरी जो इतनी ज़रूरी बात दिमाग से उतर गयी?…बेवाकूफी की भी हद होती है"..

"इतना नासमझ मैँ कैसे हो गया?"…

डर के मारे रौंगटे खडे होने को आए थे मेरे लेकिन ऐसे डर कर हाथ खड़े करने से क्या होगा?…हिम्मत तो मुझ ही को करनी होगी…कोई और तो आ के मुझे उनके कहर से बचाने से रहा|…

“हां!…यही ठीक है.और यही सही भी रहेगा….जितनी जल्दी हो सके…इस काम को निबटा ही देता हूँ"…

"साँप के बिल से निकल…फेन फैलाने से पहले ही लाठी भांज देता हूँ"…

बस…फिर क्या था जनाब…अपना दिल कड़ा कर के मैंने फोन घुमा दिया| वही हुआ जिसका मुझे डर था|सामने से फड़कदार…कड़कती हुई अवाज़ आई… 

"कब?"...

"कहाँ?"...

"कितने बजे?"..

"पहले फोन नहीं कर सकता था बेवाकूफ?”…

पता नही इस स्साले दिमाग को क्या हुए बैठा था जो वहाँ भी यही निकल पड़ा कि…

"तुम्हें टट्टू लेना है?…अपना खाओ-पिओ और मौज करो"मैं अपने दिमाग पे हाथ मारता हुआ बोला 

"स्साले!…सीधी तरह बताता है कि नहीं?" उधर से गुर्राती हुई आवाज़ मुझे अंदर तक थर्रा गई 

“और ये बैण्ड-बाजे का क्या शोर हो रहा है?"उधर से तल्ख़ आवाज़ में फिर पूछा गया 

मैँ सकपका गया और धीरे से शर्माते हुए मासूम स्वर में बोला…

"जी!…वो दरअसल क्या है कि …मेरी बीवी घर छोड़ के भाग गयी है ना?..इसीलिए थोड़ा-बहुत बहुत एंजाय कर रहे थे"

“हम्म!…जल्दी पूरा नाम-पता बता…अभी तेरी खबर लेते हैँ”…

“ख्खबर?”मैं बौखला गया

“हाँ!..खबर”…

“मैंने क्या किया है?…मैं तो बस ऐसे ही….

“वो तो हम तुझे आ के बताएंगे कि तूने किया क्या है?…पहले तू ज़रा फटाफट से अपना नाम-पता और ठिकाना नोट करवा”….

“ज्जी!…

राजीव तनेजा

F-108,राजेंद्रा पार्क एक्सटेंशन,

मेन रोहतक रोड,नांगलोई

मेट्रो पिलर नंबर 420 के सामने

“हम्म!…तो बड़ा 420 है रे तू?”…

“थैंक्स!…थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट"…

“इट्स ओ.के”….

“बाय"कह कर मैं फोन रखने को हुआ …

“आय-हाय!…अभी से कैसे बाय?…..अभी तो तेरा बैण्ड तेरा बजेगा बच्चू..उसके बाद बाय”…

“वव…वो…लेकिन….

“हमें?…हमें बरगलाता है?"कहते हुए दूसरी तरफ से फोन पटक दिया गया

“हुंह!…कुछ और नहीं बक सकता था मैँ?"मैं अपने सर पे धौल जमाता हुआ बोला…

"कैसे बकता?…शेर की दहाड सुन मतवाला हिरण बावला जो हो उठा था"

कंठ सूखे जा रहा था मेरा...मन ही मन काँप रहा था कि पता नहीं स्साले क्या-क्या पूछेगे? और मै क्या-क्या जवाब दूंगा?"

"टटटू जवाब दूगा?…फ़टी तो अपनी पहले से पड़ी है"

अभी इसी उधेड़बुन में था ही कि पुलिस का सायरन नज़दीक आता सुनाई दिया|

“क्या सिर्फ हिन्दी फिल्मों में ही पुलिस देर से आती है?"…

"असल ज़िन्दगी में क्या पुलिस इतनी तेज़ और मुस्तैद होती है?"मेरा मायूस चेहरा …

"अगर ऐसा सच है तो इससे तो हमारी फिल्में ही अच्छी हैँ…कुछ पल के लिये ही सही लेकिन दर्द-ओ-गम भुला राहत तो देती हैँ कम से कम"…

S.HO साहब खुद ही अपने पूरे दल-बल के साथ पधारे थे|उनकी कड़क अवाज़ सुनाई दी…

"ओए!…ये राजीव का बच्चा कौन है?"

कोई नहीं बोला..S.H.O फिर चिल्लाया….

"ओए!…राजीव के बच्चे...बाहर निकल"..

“अजी!…बच्चे कहाँ?…अभी तो मैं…(मेरा मिमियाता स्वर) 

सर्दी के मौसम मे भी पसीने छूटे चले जा रहे थे 

“तू…कौन?”…

"ज्जी…जी....मै ही हूँ राजीव”…

"हम्म!…बड़ा खुशकिस्मत है रे तू" S.H.O ने मुझे ऊपर से नीचे तक गौर से निहारा और फिर कान में आहिस्ता से फुसफुसाते हुए बोला…

“चल!…वहाँ कोने में….तेरे से प्राईवेट मेँ कुछ बात करनी है"….

“प्प…प्राईवेट…वहाँ कोने में?”मैं अंदर तक कांप गया…

“हाँ!…चल मेरे साथ"…वो मेरा हाथ थामे मुझे ज़बरदस्ती से कोने के झंखाड में खींच ले गया

कुछ देर तक आस-पास का निरीक्षण करने के बाद वो फुसफुसाते हुए बोला…

"यार!...ये कमाल तूने कैसे कर दिखाया?"S.H.O साहब के चेहरे पे आश्चर्यमिश्रित प्रशंसा का भाव था…

"ज्जी…वो…दरअसल…..

"अबे!…ये जी वो...जी वो से आगे भी बढेगा या यहीं चिपक के खड़ा हो जाएगा?”…पुलसिया रौब झाड़ते हवलदार का तगड़ा हाथ मेरे कान से चिपक चुका था 

"चुप्प!….बिलकुल चुप" S.H.O साहब आँखे तरेर हवलदार को इशारा करते हुए बोले 

“जी!..जनाब"…

"तुम बताओ कि कैसे…" S.H.O  साहब की सौम्य आवाज़ मेरे कानों में शहद का सा मीठा रस घोल रही थी 

"बात दरअसल ये है कि....(ना जाने मेरी आवाज़ क्यों लड़खड़ा उठी) 

मेरी आवाज़ में विद्यमान असमंजस को भांपते हुए S.H.O साहब ने पहले अपनी पैनी नज़रों से अपने आस-पास का निरीक्षण किया और फिर मेरी हथेली पे चुपचाप हज़ार-हज़ार के दो कडकडाते हुए नोट फट से धर दिए| मैंने लाख मना किया कि….

“ये सब ठीक नहीं है…जायज़ नहीं है…इतने कम में कैसे?”…

मै मना करता रहा…इनकार करता रहा लेकिन वो थे कि पीछे हटने को तैयार ही नहीं…मानने को तैयार ही नहीं| मेरी ना-नुकर देखते हुए उन्होंने आँखो ही आँखो में आपस में बात की और फिर खुद S.H.O   साहब ने हज़ार-हज़ार के आठ और कडकडाते हुए नोट और मेरी जेब के हवाले कर दिए और बोले...

"बस!…अब इससे ज्यादा और नहीं…..आज इतनी ही दिहाड़ी बनी है कसम से"…

“लेकिन….

"समझा करो...ये भी मैँ और चारों हवलदार मिलकर दे रहे हैँ"…

“ओह!…

कौन कहता है कि अपने देश में एकता नहीं है?…भाई-चारा नहीं है? यहाँ तो सब मिल-बांट के खा रहे हैँ…

"हाथ-कंगन को आरसी क्या? और ...पढे लिखे को फारसी क्या?"..

इसका जीता-जागता नमूना तो मैँ खुद अपनी खुली आँखो देख रहा था 

"आजकल मंदा बहुत चल रहा है यार…कोई दे के राज़ी ही नहीं है"…

“ओह!…

"ये भी किसी गरीब मानस के डंडा चढाया तो जा के बडी मुशकिल से इक्ट्ठा हुए हैँ…कसम से"…

“हम्म!.. 

"इसी भर से काम चला लो गुरू…बाकी की कसर फिर कभी पूरी कर देंगे"…

"फिर किसने देखा है? लेकिन तुम कहते हो तो…

“हम सब की यही प्राबल्म है उस्ताद ...कोई जुगाड़ बताओ"

"अरे!…आप तो मेरे ही भाई-बन्धु निकले..आपको तो बताना ही पड़ेगा"मैं खिसियानी हँसी हँस नोटों को अपनी जेब के हवाले करता हुआ बोला

"कुछ ना कुछ आप हर रोज़ ऐसा करें कि मुसीबत खुद ही एक ना एक दिन परेशान हो के अपने आप घर छोड़ के भाग जाये".. 

"किसको पढा रहे हो गुरू?…ये सब तो हमें भी पता है...आज़मा चुके हैँ कई बार"… 

“तो?”…

"लेकिन क्या करें?....स्साली…अपनी है कि भागने का नाम ही नहीं लेती"वो सभी एक साथ बोल पड़े 

"अरे!…यार पहले पूरी बात तो सुन लो....बाद में टोका-टाकी करना"…

“जी!…लेकिन…

"लेकिन-वेकिन कुछ नहीं….जहाँ टोका-टाकी करनी चाहिए…वहाँ तो बोल नहीं फूटते होंगे ज़बान से"

सब चुप....लगे टकटकी बाँध मेरी तरफ देखने 

"उसके हर काम में टोका-टाकी करो..भले ही वो सही हो या फिर गलत"…

“जी!…

"घड़ी भर भी चैन से बैठने ना दो…कभी ये ला... तो कभी वो...ला करते रहो हमेशा"….

“हम्म!….

"खाना जितना भी स्वादिष्ट बना हो बेशक लेकिन एक बात गांठ बांध लो कि....

“उसकी तारीफ़ हमेशा करनी है?”हवलदार बीच में अपनी चोंच अडाता हुआ बोला…

“पागल हो गया है?…तारीफ तो कभी भूल के भी नहीं करनी है”मैं लगभग झाड़ने के मूड में हवलदार पर चिल्लाता हुआ बोला 

“ओह!…

"खाने को देख के ऐसे नाक-भोहं सिकोडो अजिसे किसी गटर का खुला हुआ मुंह देख लिया हो"....

“ओह!…

"पड़ोसन जैसी भी हो….उसकी जी भर के और बार-बार भर तारीफ करो".....

“जी भर के?”…

“हाँ!…जी भर के"…

“हम्म!….

"राह में आती-जाती हर किसी की....माँ-बहन एक करना कभी ना भूलो"…

"अरे!…इस सब में तो हम सब आलरेडी एक्सपर्ट हैँ"एक हवलदार बोल पड़ा 

उसकी बात को अनसुना करता हुआ मैँ आगे बोला…"हर लड़की/औरत को छेड़ो…चाहे वो उमर में तुमसे दुगनी ही क्यों ना हो"…

"दुगनी?”…

“हाँ!..दुगनी…बेशक माँ बराबर हो, फिर भी उसे ज़रूर घूरो"…

“ओ.के".. 

"बीवी की कोई बहन या सहेली हो तो उसे बिना नागा लाईन मारो..उस पे उलटी-सीधी फब्तियाँ कसो"…

“जी!…

"अपने लिये नित नए-नए वन्न-सवन्ने कपड़े खरीदो और उसके लिये फूटी-कौडी भी खर्चा नहीं करो"..

“हम्म!…

“दहेज के नाम पे बार-बार तंग करो"…

“ओ.के"…

"उसके हर काम में कोई ना कोई नुक्स ज़रूर निकालो"…

“हम्म!… 

"इससे बात नहीं करनी है….उसको नहीं देखना है…बालकनी में क्यों खड़ी हो? वगैरा…वगैरा अपने पैट डायलाग बना लो"…

“जी!… 

"अपने रिश्तेदारों का उससे सम्मान करवाओ और उसके रिश्तेदारों को हर् वक्त खुद बे-इज्जत करो"…

“जी!…

"और सबसे ज़रुरी और अहम बात कि चाहे उसका मन *&ं%$#@ के लिये करे ना करे लेकिन तुम *&ं%$#@ ....ज़रूर करो"… 

"अरे!…यार ये सब तरीके तो मेरे आज़माए हुये है लेकिन....कोई फायदा नहीं" काफी देर से मौन S.H.O साहब बोल पड़े  

"कोई ऐसा नया जुगाड़ बताओ गुरु कि जिसके काटे का इलाज ना उस भैण की टकी के पास ना हो"

“ओह!…तो फिर अगर ऐसी ही बात है तो फिर पुल्सिया हाथ है आपका...एक-दो में ही शैंटी-फ्लैट हो जाएगी"...

“मैं कुछ समझा नहीं"…

"कमाल है आप भी इतने……(मैंने कहते-कहते अपने शब्दों को बीच में ही रोक लिया)

?…?…?…?…

“अपना दो सीधा खींच के कान के नीचे एक फटाक से" कहते हुए ना जाने कैसे मैंने गलती से S.H.O साहब के ही कान पे कस के एक झनाटेदार झापड़ रसीद कर दिया 

“स्साले!…पुलिस पे हाथ उठाता है?" ....

"ले!…थाड …थाड….धूम-धडाम"…

गाल पे पाँचो उंगलियाँ छप चुकी थी…पता नहीं ये मार का असर था या फिर कुछ और.... S.H.O साहब की अवाज़ कुछ-कुछ ..बदली-बदली सी लग रही थी…शायद!…कुछ-कुछ ज़नाना सी| ध्यान से मिचमिचाती हुए आँखों को खोल कर देखा तो पाया कि…

मैँ गाल पे हाथ धरे धरे पलंग से नीचे गिरा पड़ा हूँ और सर पे बीवी खडी-खडी चिल्ला रही है .... angry-wife

"उठ!..उठ...'कुंभकरण' की औलाद...उठ”....

"नींद में बडबडाते हुए ये किसको शैंटी-फ्लैट कर रहे थे? और ये उल्टी पट्टी किसे पढाई जा रही थी?…मैँ घड़ी दो घड़ी के लिये बाहर क्या गयी....सब काम-धन्धा छोड़ के आराम फरमाया जा रहा है?”…

"बरतन कौन मांजेगा?…तुम्हारा बाप?"…

“व्वो…दरअसल….

"और ये कपड़े कैसे धोए हैँ?...किसी पे नील नहीँ लगा है ढंग से और किसी का कालर गंदा है"…

“व्वो…दरअसल….

"पूरे चौदह साल हो चुके हैँ तुम्हें समझाते-समझाते लेकिन दिमाग जैसे घास चरने गया रहता है हरदम"…

"लगता है जब ऊपरवाला अक्ल बांट रहा था तब भी तुम सो ही रहे होगे"

"हुँह!....बड़े आए 'शैंटी-फ्लैट' करने" 

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

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देखते क्या हो?…मारो…स्साली को- राजीव तनेजा


“आ…लौट के आ जा मेरे मीत रे….तुझे मेरे गीत बुलाते हैं"…
“क्या बात तनेजा जी…आज बड़े खुश हो…मस्ती में खुशी के गीत गए जा रहे हैं?"…
“कान पे झापड़ मारूंगा एक"…

“काहे को?”…
“मेरी ये रोनी सूरत आपको खुशी और हर्ष की दिखाई दे रही है?”…
“अरे!…जब आप इतनी जोर से उचक-उचक के…हिचकोले खा-खा के गाएंगे तो सामने वाला क्या समझेगा?”…
“क्या समझेगा?”…
“यही कि आप खुश हैं…बहुत खुश"..
“बेवाकूफ!…ये…ये मैं तुम्हें खुश दिखाई दे रहा हूँ?”मैं तैश में आ अपने चेहरे की तरफ ऊँगलियाँ नचाता  हुआ बोला…
“लेकिन जब आप गा रहे थे तो आपके चेहरे से ऐसा बिलकुल भी नहीं लगा कि आप दुखी या परेशान हैं"…
“हाँ!…यार…ये बात तो तू बिलकुल सही कह रहा है…दरअसल क्या है कि मैं अब तक खुद ही डिसाईड नहीं कर पाया हूँ"…
“क्या?”..
“यही कि मैं अपने चेहरे पे कौन सा वाला एक्सप्रेशन रखूँ?"…खुशी से ओत-प्रोत हो एकदम से अप टू डेट वाला या फिर मातम से दुखी और भयभीत हो बिलकुल ही लुंज-पुंज वाला?”…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“शर्मा जी!…आप एक बात बताएँ"…
“जी!…
“आप क़ानून तोड़ते हैं?”..
“क्या मतलब?”…
“आपने कभी कोई क़ानून तोड़ा है?”..
“मै कुछ समझा नहीं"…
“बड़ी छोटी समझदानी बनाई है ऊपरवाले ने तुम्हारी"…
?…?…?…?…?…
“आपने कभी किसी की जेब तराशी है?”…
“क्या बकवास कर रहे हैं आप?”…
“पहले आप बताइए तो सही"…
“नहीं!…बिलकुल नहीं"…
“ओ.के!…क्या आपने कभी चोरी की है?”…
“अब कान पे आपके मैं झापड़ मारूंगा…वो भी एक नहीं ..दो….पूछिए क्यों?”….
“क्यों?”…
“ये भी कोई सवाल है पूछने का?”….
“अरे-अरे!…आप तो नाहक बुरा मान…नाराज़ हो रहे हैं…मैं तो बस ऐसे ही….अपनी जनरल नालेज के लिए पूछ रहा था"…
“ओह!..तो फिर ठीक है"….
“आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया"…
“कौन से?”…
“यही कि आपने कभी चोरी……
“हाल-फिलहाल का तो याद नहीं लेकिन हाँ!…बचपन में मैं अक्सर मंदिरों से चढावा और प्रसाद वगैरा चुराया करता था"…
“बचपन की तो छोडिये…बचपन में तो मैं भी मस्जिदों और गुरुद्वारों के बाहर से पता नहीं क्या-क्या….खैर आप ये बताएँ कि अभी हाल-फिलहाल में आपने कोई चोरी की है?”…
“ये आप ठीक नहीं कर रहे हैं तनेजा जी"…
“क्या?”…
“मैंने तो बड़े प्यार-मोहब्बत से आपको अपनी ऊंगली पकड़ाई थी लेकिन आप बातों ही बातों में मेरे कॉलर तक…मेरे गिरेबान तक पहुँचने लगे"…
“ओह!…सॉरी…आय एम् वैरी सॉरी"…
“मैं आपको चोर दिखाई देता हूँ?”…
“दिखाई तो नहीं देते लेकिन…..
“अच्छा!…छोडिये…आप ऐसे ही कल्पना-कल्पना में मान लीजिए कि वर्तमान में आप चोर हैं…एक शातिर चोर….
“कल्पना में ही ना?”…
“जी!…
“असलियत में तो नहीं ना?”…
“बिलकुल नहीं"..
“हम्म!…तो फिर ठीक है…बताइए मुझे क्या सोचना है?”…
“किस बारे में?”…
“इसी बारे में?”..
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“अरे!…कमाल करते हैं आप भी…अभी खुद  ही मुझे कह रहे थे कि कल्पना-कल्पना में सोचिये और अब खुद ही जनाब कल्पनाओं के भंवर में गोते खाने लगे"…
“ओह!… माय मिस्टेक…मैं कहीं खो गया था"…
“जी!….
“तो फिर आप कल्पना कीजिए कि आप एक चोर हैं…शातिर चोर"…
“ओ.के"…
“तो क्या कभी पकडे जाने के बावजूद आप सीनाजोरी करेंगे?”…
“तुम्हारी अक्ल क्या घास चरने गई है?”…
“क्या मतलब?”…
“एक तरफ आप मुझे शातिर कह रहे हैं और दूसरी  तरफ अपने जैसे लल्लू आदमी से पकडवा भी रहे हैं"…
“ओह!…तो फिर आप एक कल्पना और कीजिये"…
“क्या?”..
“यही कि मैं एक घाघ पुलिस वाला हूँ"..
“आप?…और घाघ पुलिस वाले?”…
“जी!..
“शक्ल देखी है कभी आईने में?”…
“क्यों?…क्या हुआ है मेरी शक्ल को?…अच्छी भली तो है"…
“हाँ!..अच्छी-भली है लेकिन मुझ जैसे छिछोरों को आप अपने इस चिकने चेहरे से बरगला नहीं सकते…लुभा नहीं सकते"…
“क्या मतलब?”…
“आप घाघ हो सकते हैं औरतों के लिए…बच्चों के लिए…लेकिन मुझ जैसे लम्पट के आगे आपकी ये दाल नहीं गलने वाली"…
“ओह!…तो फिर आप एक काम और कीजिये"…
“क्या?”…
“आप एक और कल्पना कीजिये"…
“एक और?”…
“जी!…
“क्या?”…
“यही कि आप एक औरत है…बला की ख़ूबसूरत औरत"…
“क्क्या?…क्या बकवास कर रहे हैं आप?..अ..आपने….मुझे समझ क्या रखा है?”…
“बला की खूबसूरत…
“और?”..
“गज़ब की सैक्सी”…
“और?”…
“काली…देह-दृष्टि वाली एक कमीनी…ऊप्स!…सॉरी…कमनीय औरत"…
“ये आप मेरी तारीफ़ ही कर रहे हैं ना?”शर्मा जी का शंकित स्वर…
“जी!…
“मजाक तो नहीं कर रहे ना?”…
“बिलकुल नहीं"…
“ओ.के!…तो फिर ठीक है…मुझे ये रिश्ता मंज़ूर है"…
“ओ ज़रा-ज़रा सा…ज़रा ज़रा सा….टच मी…टच मी…बेबी….ओ..किस मी…किस मी बेबी"…
“हटिये!..हटिये…दूर हटिये…मै ऐसे टाईप का बन्दा नहीं हूँ"..
“ठीक है!…तो फिर मैं भी तुम्हारी बांदी नहीं हूँ"…
“क्या मतलब?”…
“जब आपको ही मेरी परवाह नहीं है तो फिर मैं आपकी चिंता क्यों करूँ?”…
“क्या मतलब?”..
“मैं आपके लिए…सिर्फ आपके लिए बिना कुछ सोचे-समझे अपने ज़मीर तक को ताक पे रख कर कल्पनाओं पे कल्पनाएँ किए जा रहा हूँ और आप ऐसे निष्ठुर हैं कि मुझे अपने ज़रा सा नज़दीक तक नहीं आने दे रहे हैं"..
“ओह!…
“खैर!…छोडिये इस बात को …बताइए मुझे आगे क्या करना है?”…
“आगे?”…
“आगे क्या सोचना है?”…
“यही कि पकड़े जाने के बावजूद क्या आप मुझसे सीनाजोरी करेंगे?”…
“ये तो मेरे मूड पे डिपैंड करेगा"…
“ओ.के"…
“अच्छा!…आप ये बताइए कि क्या आप कभी अपनी गलती होने के बावजूद किसी दूसरे पर चौड़े हुए हैं?”…
“कई बार"…
“ओह!…इसका मतलब वो ठीक ही….
“आप ये इधर-उधर की पहेलियाँ बुझाने के बजाये सीधे मतलब की बात पे क्यों नहीं आते?”…
“क्या आपने कभी क़ानून तोडा है"…
“नहीं!..बिलकुल नहीं"…
“कभी नहीं?”…
“अब ऐसे…अचानक…अनजाने में तो हो सकता है लेकिन जानबूझ कर?…नहीं…कभी नहीं”…
“आपने आखिरी बार लालबत्ती कब जम्प की थी?”….
“आज सुबह ही…क्यों?…क्या हुआ?”…
“ये क़ानून तोडना नहीं हुआ?”…
“दरअसल!…मुझे दफ्तर के लिए देर हो रही थी"…
“हुंह!…देर हो रही थी….बड़ा पुराना बहाना है"…
“सच्ची!…कसम से"…
“तो फिर घर से ही जल्दी निकालना चाहिए था ना"…
“आपने कहा दिया और हो गया?”…
“क्या मतलब?”…
“इन वर्ल्ड कप फ़ुटबाल वालोँ को भी तो ज़रा जा के बोलो ना कि अपने मैच दिन में खेला करें"…
“वो रात में मैच खेलते हैं?”…
“नहीं!…खेलते तो दिन में ही हैं"…
“तो?”…
“लेकिन तब यहाँ रात होती है"…
“ओह!…
“दरअसल हुआ क्या कि देर रात तक तो मैं मैच देखता रहा …इस चक्कर में आँख भी सुबह देर से ही खुली"…
“रात भर जाग के आँखें फोड़ने के लिए डाक्टर ने कहा था?”…
“वो रिसल्ट….
“अरे!…अगर रिसल्ट का ही पता लगाना था तो वो तो सुबह भी पता चल जाता अखबार या फिर रेडियो से…इसके लिए रात भर जागने की ज़रूरत क्या थी?”…
“मैच पे पैसे तुम्हारे फूफ्फा ने लगाए थे?”…
“क्या मतलब?”…
“पूरे बाईस हज़ार का सट्टा मैच पे मैंने खेला था…आपने नहीं"…
“ओह!…
“लेकिन ऐसे..अपने फायदे के लिए आप क़ानून पे क़ानून तोडें…तोड़ते चले जाएँ ….ये भी तो जायज़ नहीं है ना?”…

“जी!…

“तो ये आपने ठीक किया या गलत?”…
“अब अगर सच पूछें तो…गलत”…
“और मैंने इसके लिए टोक दिया तो क्या गलत किया?”…
“नहीं!…बिलकुल नहीं"..
“फिर वो मुझसे बात क्यों नहीं करती है?”…
“कौन?”…
“वही जो सीनाजोरी करती है"…
“कौन?”…
“वही जो सबके सामने खुलेआम जेबतराशी करती है"…
“कौन?”…
“वही…जो बात…बिना बात बेफाल्तू में चौड़ी हुई फिरती है"…
“कौन?”…
“आपको तो पता ही है कि मैं रोजाना ब्लू लाइन बस से अपने काम पर आता-जाता हूँ"…
“जी!…
“वहाँ का माहौल सही नहीं होता इसलिए मैं अपनी जेब में दो-चार सौ से ज्यादा रूपए कभी नहीं रखता"…
“ओ.के"…
“अगर उन्ही रुपयों पे कोई दिन-दहाड़े …आपकी खुली आँखों के सामने डाका डाल…आपको लूटने की कोशिश करे…जेबतराशी करने की कोशिश करे तो आप इसे क्या कहेंगे?”…
“सरासर अंधेरगर्दी हुई ये तो"…
“वोही तो…मैंने विरोध किया तो उलटे चिल्ला-चिल्ला के आसमान सर पे उठा लिया"…
“हद हो गई ये तो बेशर्मी की"…
“इसीलिए तो मैं आपसे पूछ रहा था कि चोरी करने के बाद आपने कभी सीनाजोरी की?”…
“चलिए!…अभी मेरे साथ चलिए"…
“कहाँ?”…
“अशोक विहार पुलिस स्टेशन"…
“किसलिए?”…
“वहाँ का ‘S.H.O’ मेरी जान-पहचान का है"..
“तो?”..
“उसी को शिकायत करते हैं चल के"…
“छोड़ यार!…क्या फायदा?”…
“दो दिन…में…दो दिन में पकड़ के अंदर कर देगा”…
“छोड़ यार….रहने दे"…
“क्या बात?…बड़ा तरस आ रहा है…..दो-चार लट्ठ पड़ेंगे तो सारी हेकड़ी ढीली हो जाएगी तुरंत …नाकों चने ना चबवा दिए तो कहना…औरत हुई तो क्या हुआ…इसका नाजायज़ फायदा उठा लेगी?”…
“छोड़ यार!…फिर कभी सही"…
“फिर कभी क्यों?…अभी क्यों नहीं?”…
“समझा कर यार…बीवी है मेरी….कोई गैर नहीं"…
“बीवी?…क्या?…क्या कह रहे हो?”…
“हाँ!…यार…बीवी है मेरी…उसी की तो बात कर रहा था मैं इतनी देर से"…
“ओह!…मैं तो कुछ और ही…..वैसे…हुआ क्या था?”…
“कुछ खास नहीं"…
“इस वक्त कहाँ है भाभी जी?…मैं बात करता हूँ उनसे"…
“अपने मायके में?”…
“कब आएंगी?”…
“पता नहीं"…
“कितने दिन के लिए गई हैं?”…
“पता नहीं"…
“कुछ पता भी है तुम्हें?”…
“पता नहीं…कह के तो यही गई है कि अब कभी वापिस नहीं आऊंगी"…
“अरे!…ऐसे थोड़े ही होता है….थोड़ी-बहुत नाराजगी होगी…अपना गुस्सा उतरा जाएगा तो अपने आप लौट आएँगी …आप चिंता ना करो"…
“नहीं!…वो अब कभी नहीं आएगी"…
“लेकिन क्यों?”…
“मैंने उसे डाँट दिया था"…
“किस बात को लेकर?”…
“इसी जेबतराशी और सीनाजोरी की बात को लेकर"…
“तो?…इससे क्या होता है?…ऐसा तो सभी घरों में होता है"…
“लेकिन सभी घर छोड़ के तो नहीं चली जाती हैं मेरी वाली की तरह"…
“ज़रूर कोई और बात हुई होगी….मैं नहीं मान सकता कि कोई भी बीवी…इतनी ज़रा सी बात के लिए ऐसे..अचानक घर छोड़ दे?”..
“हो ही नहीं सकता"…
“नहीं!…ये सब ऐसे ही अचानक नहीं हुआ था…कई दिनों से उसके दिमागी भंवर में इस सब की रूपरेखा बन रही थी"…
“ओह!…
“प्यार से…दुलार से कुछ भी समझाने की कोशिश करो तो उलटा आँखें दिखाने लगती थी”…
“ओह!…
“आँखें तो यार…सच में उसकी बड़ी सुन्दर थी"…
“हाँ!…ये बात तो कई बार मैंने भी नोटिस की थी…खास कर के जब वो खिलखिलाकर हँसती थी तो उनकी मिचमिची आँखें…आँखें तो सच में…वाकयी बड़ी खूबसूरत थी"…
“थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट"…
“इट्स ओ.के…आप मुझे शुरू से सारी बात बताओ कि आखिर हुआ क्या था?”…
“होना क्या था?…मुझे तो शुरू से ही उसकी ये जेबतराशी वगैरा की आदत पसंद नहीं थी लेकिन कई साल तक मैं इसे उसका बचपना समझ कर इग्नोर करता रहा"…
“यही तो आपने गलती की तनेजा साहब"….
“क्या मतलब?”…
“आपको बिल्ली पहली रात में ही मार डालनी चाहिए थी"…
“हम्म!…बात तो यार तुम सही ही कह रहे हो…..मैंने उसे कई बार समझाया भी कि अच्छे घरों की सुसंकृत औरतों को ऐसा करना शोभा नहीं देता"…
“उन्हें संस्कृत आती थी?”…
“आफकोर्स!…सही वाज़ ‘M.A’  इन संस्कृत"…
“वैरी गुड"…
“इसलिए मैं उसे बार-बार टोकता रहता था"…
“बिकाझ शी वाज़ ‘M.A'  इन संस्कृत?”…
“नहीं!…उसके लिए तो मैंने उसको कब का माफ कर दिया था"..
“ओ.के"…
“एक दिन मैडम को बैठे-बिठाए पता नहीं क्या कीड़ा काटा कि गाड़ी सीखने की रट लगा के बैठ गई"…
“तो क्या हुआ?…लड़कियां गाड़ी चलाएं ये तो गर्व की बात है…स्टेटस की बात है"…
“जी!…लेकिन ढंग से तो चलाएं कम से कम"…
“क्यों?…क्या हुआ?”…
“क्या हुआ?…सीखने के पहले दिन ही एक ट्रक के पिछवाड़े दे मारी"…
“ओह!…फिर तो काफी नुक्सान हो गया होगा?”…
“जी!…
“कितने पैसे लग गए?”…
“चौदह हज़ार"…
“ओह!..एक तो काम-धंधे वैसे ही नहीं चल रहे हैं …ऊपर से ऐसे नुक्सान कमर तोड़ के रख देते हैं"..
“जी!…
“लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही “…
“क्या?”…
“यही कि अभी थोड़ी देर पहले ही तो आप कमर लचका-लचका के गा रहे थे कि….
“आ…लौट के आ जा मेरे मीत रे….तुझे मेरे गीत बुलाते हैं"…
“जी!…
“लेकिन कैसे?…आपकी कमर तो….
“मेरी कमर को क्या हुआ है?…एकदम फर्स्ट क्लास तो है"मैं शर्मा जी को कमर मटका..ठुमका लगा के दिखाता हुआ बोला.…
“वो चौदह हज़ार का नुक्सान?”….
“वो मेरा थोड़े ही हुआ था"…
“क्या मतलब?…गाड़ी को कुछ नहीं हुआ था?”…
“उसका तो बोनट-वोनट सब टूट के हाथ में आ गया था"…
“लेकिन आपने तो अभी कहा कि आपका कोई नुक्सान नहीं हुआ"…
“हाँ!…नहीं हुआ"…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“नुक्सान तो हरभजन का हुआ…मेरा थोड़े ही हुआ"…
“अब ये हरभजन कौन?”…
“मोटर ड्राईविंग कालेज वाला…उसी की गाड़ी में ही तो सीख रही थी मेरी श्रीमती"…
“लेकिन वो तो पक्के एक्सपर्ट होते हैं….उनकी गाड़ी कैसे?”…
“कैसे?…क्या?…श्रीमती जी की काली-काली कजरारी आँखों के चक्कर में पट्ठा अपना नुक्सान करवा बैठा"…
“क्या मतलब?”…
“पट्ठे का ध्यान गाड़ी सिखाने की तरफ था ही नहीं"…
“ओह!…फिर क्या हुआ?”…
“होना क्या था?….उसने तो डर के मारे अगले दिन ही हाथ जोड़ दिए कि मेरे बस का नहीं है आपकी श्रीमती जी को गाड़ी सिखाना"…
“ओ.के!…फिर क्या हुआ?”…
“उसके बाद मैडम जी ने खुद अपनी ही गाड़ी पे हाथ साफ़ करने की सोची"…
“फिर क्या हुआ?”..
“मैंने उनके हाथ में ये कहते हुए मैला कपडा धर दिया कि …लो!…पहले कार को ठीक से साफ़ करना सीख लो…बाद में इस पे अपना हाथ साफ़ करना"..
“ओह!…फिर क्या हुआ?”…
“वही…रोजाना की चिल्लम पों"…
“ओह!…
“खैर!…कह सुन के किसी तरह मैडम जी ने गाड़ी चलाना सीख ही लिया"…
“वैरी गुड"…
“अजी!…काहे का वैरी गुड?…जहाँ बीस की स्पीड से गाड़ी चलानी चाहिए…वहाँ पचास की स्पीड से गाड़ी दौडाने की सोचती है"…
“और जहाँ पचास की स्पीड से दौड़ानी चाहिए…वहाँ?”…
“वहाँ..सौ से ऊपर की बात करती है"…
“ओह!….
“लालबत्ती तो ऐसे धडल्ले से जम्प करती है मानों वो फुटपाथ पर ही पैदा हुई हो"…
“ओह!…आपको उन्हें प्यार से समझाना चाहिए था"…
“प्यार से?”…
“जी!…
“लेकिन कैसे?”…
“आप मुझे उनका नंबर दो…मैं अभी उन्हें समझा के दिखाता हूँ"…
“कोई फायदा नहीं"…
“क्या मतलब?”…
“अब वो कभी लौट के नहीं आएगी"…
“लेकिन क्यों?”…
“रोजमर्रा की चिक-चिक से मैं परेशान तो बहुत था लेकिन फिर भी किसी तरीके से अपने दिल पे पत्थर रख के मैं उसके साथ जैसे-तैसे निभा रहा था”..
“ओ.के"…
“लेकिन परसों तो उसने हद ही कर दी”…
“हुआ क्या था?”…
“पहले मेरे पर्स में से वो सौ दो सौ रूपए निकाल के उसे वापिस वहीँ रख दिया करती थी जहाँ से उसने उसे उठाया होता था"…
“ओ.के"…
“लेकिन परसों तो उसने सारी हदें तोड़ते हुए…सारी सीमाएं लांघते हुए मेरा समूचा पर्स ही गायब कर दिया”…
“ओह!…पर्स में कोई ज़रुरी कागज़ात वगैरा?”..
“ज़रुरी तो खैर क्या होना था?….लेकिन आज पर्स गायब किया है…कल को मेरी तिजोरी और परसों को मेरे हार्ट के दोनों वाल्व”…
“मैं तो कहीं का नहीं रहूँगा"…
“ओह!…
“इसलिए मैंने समय रहते ही चेत जाने का फैसला किया कि आने तो पहले आने दो उस कलमुंही को…फिर खबर लेता हूँ पट्ठी की"…
“य्ये…ये आप क्या कह रहे हैं?…भाभी जी तो एकदम …दूध-मलाई के माफिक गोरी-चिट्टी…. 
“तो?”…
“आप उन्हें कलमुंही किस बिनाह पर ?..किस जुर्म में कह रहे हैं?”..
“अरे!…अगर इतनी ही शरीफजादी होती तो मेरे सामने…मुझसे पैसे मांग के ले जाती…यूँ …चोरी से छुपछुपाते हुए किसी की गाढी कमाई पे हाथ साफ़ कर देना….अच्छे घरों की औरतों को शोभा देता है क्या?”….
“हम्म!…
“अब उसे कलमुंही ना कहूँ तो क्या कहूँ?”…
“हम्म!…तो क्या तभी से वो वापिस आई ही नहीं?”..
“अरे!…तभी…वहीँ के वहीँ चली जाती तो मैं सब्र भी कर लेता…तसल्ली भी कर लेता कि चलो जान छूटी लेकिन वो कंबख्तमारी तो जैसे जले पे नमक छिडकने पे उतारू थी"…
“ओह!…
“दो घंटे बाद इठलाती हुई…बल खाती हुई….आ के कहने लगी….
“क्या?”…
“मैं कैसी लग रही हूँ जी?”…
“कैसी लग रही हूँ?”…
“हाँ!…मैंने तो कसम खा ली थी कि आज के बाद कभी भी इस कंबख्तमारी का मुंह तक नहीं देखूंगा"…
“ओह!…
“इसलिए बिना उसकी तरफ मुंडी किए मैं दूर से ही चिल्लाया कि….
“दफा हो जा यहाँ से…आज के बाद मुझे कभी अपनी शक्ल नहीं दिखाइयो”…
“ओह!…फिर क्या हुआ?”…
“होना क्या था…गुस्से में पैर पटकती हुई लाल-पीली हो हुई वो गाड़ी की चाबी ले के ऐसे फुर्र हुई कि आज तक नहीं लौटी"…
“ओह!…वैसे भाभी जी लग कैसी रहीं थी?”…
“कान पे झापड़ मारूंगा एक”…..
?…?…?…?…
“तुम पागल हो?”..
“क्या मतलब?”..
“जब मैंने कह दिया कि बिना उसका थोबडा देखे ही मैंने उसे दुत्कार का भगा दिया तो फिर उसे देखने का सवाल ही कहाँ से पैदा हो गया?”…
“ओह!…लौटने की कोई संभावना?”…
“ना के बराबर"…
“ओह!…आपको उनके पीछे जा के उन्हें मना लेना चाहिए था"…
“आपने मुझे पागल समझ रखा है?”…
“इसमें पागल की क्या बात है?…अर्धांगिनी है वो आपकी….आप मनाएंगे उसे तो क्या मैं मनाऊंगा?”…
“अरे!…नहीं आप गलत समझ रहे हैं….मेरे कहने का मतलब था कि मैं कोई पागल थोड़े ही हूँ जो उसे मनाने के लिए उसके पीछे नहीं गया होऊंगा?”…
“ओह!…फिर क्या हुआ"…
“होना क्या था?…शाम को ऑफिस टाईम होने की वजह से सडकों पर बहुत भीड़ थी…ट्रैफिक की रेलम पेल और शोर-शराबे में कहीं कुछ सूझ नहीं रहा था"…
“ओ.के"…
“इन स्साले!…हराम के जनो को तो गोली मार देनी चाहिए"…
“किनकी बात कर रहे हैं?”…
“इन्हीं…स्साले कुत्तों की …जो अकेले होने के बावजूद पूरी सड़क घेर के चलते हैं"…
“क्या मतलब?”…
“स्साले!…अमीर होंगे तो अपने घर में होंगे …ये सड़क इनके बाप की नहीं है जो अकेले-अकेले कार में बैठ के मटरगश्ती करने चल पड़ते हैं"…
“अरे!..उनकी छोडो…उनसे तो उनका खुदा निबटेगा…आप अपनी बताओ कि फिर क्या हुआ?”…
“होना क्या था?…हर तरफ जाम ही जाम….दांत मांजने की अक्ल होती नहीं है लौंडे-लपाड़ों को और माँ-बाप गाड़ी-घोड़े की चाबी हाथ में थमा के कहते है…गुड बाय"…
“गुड बाय?"…
“हाँ!…गुड बाय कि ….जाओ…बेटा जी…बाहर ज़रा शहर में घूम-फिर के तफरीह कर के आओ…सडके तुम्हारे बाप की जो हैं"…
“आप जाम की बात कर रहे थे"…
“हाँ!…जाम ऐसा लगा था कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था"…
“आपने हाथ का क्या करना था?”…
“उसने हरी चूडियाँ जो पहन रखी थी"..
“कुत्ते ने?”…
“नहीं!…मेरी मैडम ने"…
“तो?…उससे क्या होता है?”…
“इतनी भीड़ में उन्हें पहचानता कैसे?”…
“थोबडा देख के"…
“आप पागल हैं?”…
“क्या मतलब?”…
“वो मुझसे पहले घर से निकली थी"…
“तो?”…
“उसने यकीनन मुझसे आगे ही होना था"…
“तो?”…
“मैं पीछे से उसका चेहरा कैसे देखता?”…
“ओह!…आपको उनका नाम ले के जोर से आवाज़ लगानी चाहिए थी"…
“नहीं लगा सकता था"…
“क्यों?”…
“उसका नाम सबको पता चल जाता"…
“तो!…उससे क्या होता है?”..
“शर्मिंदा तो मुझे होना पड़ता ना?”…
“वो किसलिए?”...
“उसका नाम ‘चितकबरी' जो था"…
“सच में?”…
“नहीं!…इस नाम से तो मैं उसे प्यार से बुलाता था"…
“ओह!…
“अब हर कार में मैं अपना मुंह घुसेड के उसके ड्राईवर का मुंह कैसे ताकता?”…
“हम्म!….फिर क्या हुआ?”..
“चारों तरफ जाम ऐसा लगा था कि कोई भी गाड़ी अपनी जगह से हिल तक नहीं पा रही थी…पीछे से लोग हार्न पे हार्न बजाए चले जा रहे थे लेकिन आगे वालोँ के कान पे जूं तक नहीं रेंग रही थी"…
“ओह!…फिर क्या हुआ?”…
“मैंने सोचा कि जा के देखूं तो सही कि कौन उल्लू का पट्ठा सड़क जाम किए बैठा है?”…
“ओ.के"…
“आगे जाने पे देखता क्या हूँ कि बरगंडी कलर के परकटे बालों वाली एक मोहतरमा बीच सड़क के बोनट खोल….
“गाड़ी का?”…
“और नहीं तो क्या अपना?”…
बरगंडी कलर के परकटे बालों वाली एक मोहतरमा बीच सड़क के बोनट खोल….कुछ ज्यादा ही बोल्ड अंदाज़ में झुक कर गाड़ी के इंजर-पिंजर ढीले करने में जुटी है"…
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“ओह!…
“और उसके आस-पास दुनियाभर के तमाशबीनों की भीड़ ऐसे मजमा लगाए खड़ी है मानो जंगल का मोर आज पहली बार शहर में नाचने को आ गया हो"…
“मोर?”..
“ऊप्स!…सॉरी मोरनी”…
“वैसे…उस मोहतरमा ने पहना क्या था?"…
“लो वेस्ट की घुटनों से ऊपर तक की बदन के साथ चिपकी हुई कैपरी के साथ एक झीनी सी स्लीवलैस शर्ट”…
“अब ऐसे-ऐसे बेहूदा कपडे पहन का सडकों पर निकलेंगी तो जाम लगना ही लगना है"….
“जी!…कुछ देर तक तो मैं भी टकटकी लगाए उसे एकटक देखता रहा"…
“सही है मियां…बीवी घर पर नहीं है तो लगे मज़े लूटने?”…
“नहीं!…ये बात नहीं है…दरअसल मैं मन ही मन कल्पना कर रहा था कि मेरी बीवी इन कपड़ों में कैसी लगेगी?”…
“कैसी लगेगी?”…
“बला की ख़ूबसूरत और निहायत ही सैक्सी…यूँ समझ लो कि पूरी बम लगेगी…बम…एटम बम"…
“हम्म!…उसे बस देखते ही रहे या फिर कुछ और भी?”….
“अब आपसे क्या छुपाना शर्मा जी?…मैंने सुनहरा मौका देख झट से पिछवाड़े पे चिकोटी काट ली"…
“उसके?”…
“नहीं!…अपने”….
“किसलिए?”…
“ताकि पता लगा सकूँ”…
“क्या?”…
“यही कि कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा"..
“ओह!…
“वो सच में ही मेरे सामने झुक कर कनेक्शन चैक कर रही थी”…
“किसका?”…
“बैटरी का"…
“ओ.के"…
“वो अभी कनेक्शन चैक कर ही रही थी कि अचानक मेरा जोर से घनघना उठा"…
“क्या?”…
“फोन"…
“ओह!…किसका था?”..
“पता नहीं"…
“क्या मतलब?..आपने फोन रिसीव नहीं किया था?”..
“किया था लेकिन उन मोहतरमा का जलवा ही कुछ ऐसा था कि बेध्यानी में नंबर देखना भूल ही गया”….
“लेकिन आवाज़ सुन के तो पता चल ही सकता था ना कि किसका फोन है?”..
“अब इतनी भीड़ भरे शोर शराबे में मैं फोन सुनूँ भी तो कैसे?”…
“हम्म!…
“बड़ी खुंदक आ रही थी मुझे उस पागल की बच्ची पे कि उसके चक्कर में मैं एक ज़रुरी फोन काल भी ठीक से नहीं सुन पा रहा था"…
“ओह!…
“मन तो मेरा किया कि अभी के अभी दूँ खींच के इसके कान के नीचे एक लेकिन फिर ये सोच के चुप रह गया कि कौन पराई औरतों के मुंह लगे?”…
“गुड!..ये आपने ठीक किया"…
“अजी!…काहे का ठीक किया?…खाली मेरे चुप रहने से क्या हुआ?…बाकी के भौंकने वाले तो भौंकते ही रहे ना?”..
“ओह!…
“मैं अभी सोच ही रहा था कि क्या करूँ और क्या ना करूँ? कि इतने में पीछे से कोई चिल्लाया कि इसी &^%$#$%^&  की वजह से सबको देर हो रही है”…
“फिर क्या हुआ?”…
“होना क्या था?…उसकी जोश भरी वाणी सुन के सब उसकी हाँ में हाँ मिलाने लगे”…
“ओ.के"..
“लगे हाथ मेरा भी खोया हुआ ज़मीर जाग उठा और मैं भी उनके सुर में अपना सुर मिलते हुए जोर से चिल्लाया….
“देखते क्या हो?…मारो स्साली….को"…
“गुड!…वैरी गुड"…
“चूहे दी खुड्ड”……
“क्या मतलब?”…
“औरों की बात का तो उस पर कोई असर नहीं हुआ लेकिन जैसे ही मैं चिल्लाया…मानों उसके तन-बदन में आग लग गई हो….फटाक से उसने पलक झपकते ही मेरा गिरेबान पकड़ लिया"…
“ओह!…माय गाड"…
“यही!..बिलकुल यही मेरे मुंह से भी निकला जब मैंने देखा कि वो कोई और नहीं…मेरी ही अपनी…खुद की सगी बीवी थी"…
“क्क्या?”…
***राजीव तनेजा***
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ओह!…श्श…शिट ट…ट…निकल गई….

***राजीव तनेजा***

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“ओह!…श्श…शिट ट…ट…निकल गई”….

चींssssssचींssss…..धडाम….

“अरे!….तनेजा जी…गाड़ी काहे रोक दिए?..इत्ता मजा आ रहा था"…

“उधर नहीं गुप्ता जी….इहाँ….सामने देखिये ..बत्ती लाल हो रही है"…

“पर हमरी तबियत तो हरी हो रही थी ना?…बेफाल्तू में गाड़ी रोक के सारा मजा किरकिरा कर दिए"….

“अरे!…अपने मज़े के लिए गाड़ी का सत्यानास करेंगे का?…लीजिए…ये दो ठौ रुपिय्या लीजिए और उहाँ…सामने जा के अपना आराम से  निबट के आइये…तुरंत …हम इहाँ….साईड में गाड़ी खड़ी कर के आपका इंतज़ार करता हूँ"…

“सामने का है?”…

“सुलभ वालों का असुलभ शौचालय"…

“ओहां जा के हम का करेंगे?”…

“ओही जो सब लोग किया करते हैं?”..

“का किया करते हैं?”…

“ई भी हमीं से पूछेंगे?”..

“अरे!…भय्यी…तुम्हरे शहर में नए-नए आए हैं तो तुम्हीं से पूछेंगे ना?”..

“तो अपने शहर में का बिल्कुले रोज़ा रखे थे कि ना कुछ खाएंगे…ना कुछ पीएंगे और…

“और?”…

“और ना ही कुछ उगलेंगे?"…

“का बात करते हैं तनेजा जी आप भी?….उहाँ तो हम तीनो टाईम खूब डट के दूध-मलाई के साथ ….

“तो आप ई कहना चाहते हैं कि इहाँ हम आप को भूखा रखते हैं?….खाने को नहीं देते?”…

“अरे-अरे!…हमने अइस्सा कब कहा?…हम तो कह रहे थे कि….

“सब समझ रहे हैं हम कि आप कहना का चाहते हैं और आपके मन में का है?”…

“का है?”…

“पहिले जाईए…जरा जल्दी से निबट के आईए"…

“अरे!..काहे को निबट के आईए?…किसी का खा रखे हैं का?”….

“फिर ओही बात….अभी दो घंटे पहिले हम जो अपने इन कोमल-कोमल हाथों से आपको ‘दाल-बाटी चूरमा’ खिलाए थे…ओ का था?”…

“हमें का पता कि…का था?”…

“क्या मतलब?”…

“आप खुद्हे बार-बार अपने मन से  कहे जा रहे थे कि ‘दाल-बाटी चूरमा’’दाल-बाटी चूरमा’…हम कोई उसे चीनते थोड़े ही हैं?”…

“तो का हम झूठ बोल रहे थे?”…

“हमें का पता?”…

“का?…का कह रहे हैं आप?…मतलब का है आपका?”…

“ओही तो हमरी समझ में भी नहीं आ रहा है कि मतलब का है आपकी इस बात का?”…

“का मतलब?”…

“ये जो आप बार-बार रट्टू तोते के माफिक रट लगा रहे हैं कि….

“निबट के आइये…जल्दी से निबट के आइये”…

"तो?”..

“मतलब का है आपकी इस बात का?”..

“अरे!…कमाल करते हैं आप भी…आप खुद्हे तो इत्ती जोर-जबर से चिल्लाए थे कि….

“ओह!…श्श..शिट ट…ट…निकल गई”….

“तो फिर निकलने दीजिए ना…आपके  बाप का क्या जाता है?…ससुरी आज निकल गई तो का हुआ?…कल-परसों फिर से आ जाएगी ….हम अभी दिल्ली में ही हूँ कौनु वापिस अपने मुलुक गया नहीं“…

“हद हो गई बेशर्मी की….कह रहे हैं कि…मेरे बाप का का जाता है?”…

“तो फिर बतईए ना कि…का जाता है?”…

“ये गाड़ी किसकी है?”…

“हमें का पता?”…

“क्या मतलब?..आपको पता ही नहीं कि ये गाड़ी किसकी है?”.

“अरे!..भय्यी…हम तो अभी दो-चार दिन पहले ही इहाँ आपके घर पर आया हूँ"…

“तो?”…

“हमें का पता कि गाड़ी आपकी खुद की है?…किराए की है?…मंगनी में लाए हैं या फिर चोरी की है?”..

“हम आपको चोर दिखता हूँ?”…

“जब आप खुद्हे मान रहे हैं तो फिर हमसे काहे कहलवाते हैं?”…

“का चोरी किया है हमने?…बताइए तो…का चोरी किया है?”…

“छोडिये इस बात को…कोई और बात कीजिए"…

“पहिले आप जरा जल्दी से धो के आइये"…

“काहे को?”..

“अरे!…आप खुद्हे तो अभी चिल्लाए थे कि नहीं?”…

“का?”…

यही कि….“ओह!…श्श..शिट ट…ट…निकल गई”….

“तो फिर इसमें हम का कर सकते हैं?…कौन सा हमरे हाथ में थी कि हम उसे रोक लेते"…

“अरे!…मानी आपकी बात कि रोक नहीं सकते थे लेकिन अब तो धो के आ सकते हैं ना?”…

“अब क्या फायदा?…अब तो चिड़िया चुग गई खेत"…

“तो?…इसका क्या मतलब?…आप ऐसे ही…इसी तरह हाथ पे हाथ धार के बैठे रहेंगे?…धो के नहीं आएंगे?”…

“अरे!…नहीं-नहीं…हम धोऊंगा…ज़रूर धोऊंगा लेकिन इहाँ…सबके सामने नहीं….आप गाड़ी चलाइए…हम घर जा के अपना आराम से धोऊंगा”…

“इहाँ का तकलीफ है?”..

“अरे!…इहाँ…दिल्ली में आपके होते हुए हमें तकलीफ काहे को होगी?…लेकिन वो…सबके सामने थोड़ा इन्सल्ट सा फील होता है ना”…

“लेकिन क्या इस ज़रा सी इन्सल्ट या बेईज्ज़ती से बचने के चक्कर में आप खुद अपनी ही नज़रों से गिर नहीं जाएंगे?”…

“अरे!..नहीं…ई बात नहीं है…लेकिन अब बीच रस्ते के मुंह धो के क्या फायदा?”…

“मुंह धो के?”…

“और नहीं तो का…..

“आप मुंह धोने की बात कर रहे थे?”…

“और नहीं तो का?….आप का समझ रहे थे?”…

“क्क्कुछ नहीं….लेकिन आप मुंह क्यों धोना चाहते थे….इत्ते सुन्दर तो लग रहे हैं आप"…

“अरे!…काहे को मजाक उड़ाते हैं तनेजा जी…..इस सांवले…सुन्दर..सलोने मुखड़े पे तो वो सुसरी कालिख पोत के चली गई"…

“कालिख पोत के?”…

“और नहीं तो का गोबर पोत के?”..

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“इतने भोले तो नहीं हैं आप”…

“क्या मतलब?”…

“आप भी तो चोरी-चोरी उसी को देख मुस्कुरा रहे थे ना?”..

“किसे?”…

“उसी को…जो निकल गई"…

&^%$#@#$#%क्या बकवास कर रहे हो?….मैंने कब तुम्हारे….

“अरे!…हम ऊ काली बाईक पे बैठी लड़की की बात कर रहा हूँ जो अभी सर्र से फर्र-फर्र करती हुई हमसे आगे निकल गई"…

bike-girl-thumb5407576

“क्क्या?”…

“हाँ!…इसलिए तो हम इत्ती जोर से चिल्लाया था कि….

“ओह!…श्श..शिट ट…ट…निकल गई?”….

“ओह!…

***राजीव तनेजा***

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