बाली उमर- भगवंत अनमोल

"सोलह बरस की बाली उमर को सलाम
ए प्यार तेरी पहली नज़र को सलाम"

जीवन में कभी ना कभी हम सभी को उम्र के ऐसे दौर से गुज़रना पड़ता है जहाँ हम ना बड़ों की गिनती में ही आते हैं और ना ही छोटों की फ़ेहरिस्त में खुद को मौजूद खड़ा पाते हैं। हर सही-ग़लत को समझने की चाह रखने वाले उम्र के उस दौर में जिज्ञासा अपने चरम पर होती है। हम वांछित-अवांछित..हर तरह की जानकारी से रूबरू होना चाहते हैं। साथ ही यह एक भी एक सार्वभौमिक सत्य है कि किसी को अगर किसी बात या कार्य के लिए बिना सही कारण बताए रोका जाता है तो उसमें सहज प्रवृति के चलते उस बात को जानने..समझने की इच्छा.. उत्सुकता जागृत होती है। 

दोस्तों..आज मैं जीवन के इसी पड़ाव और उम्र के किरदारों को ले कर लिखे गए एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ। जिसे 'बाली उमर' के नाम से लिखा है प्रसिद्ध लेखक भगवंत अनमोल ने। 

इस उपन्यास में मूलतः कहानी है नवाबगंज नाम के एक गाँव के दौलतपुरवा मोहल्ले और और उसमें रहने वाले वहाँ के बाशिंदों की। इस उपन्यास में बातें हैं बाली उम्र के दौर से गुज़र रहे उन पाँच बच्चों की जिन्हें उनके स्वभाव या आदतों की वजह से आशिक, ख़बरीलाल, गदहा, पोस्टमैन और पागल है जैसे नाम दे दिए गए। 

इस उपन्यास में एक तरफ़ आशिक के आशिकी भरे कारनामें हैं तो दूसरी तरफ़ छोटी से छोटी बात को भी देर से समझने वाले गदहे की अज्ञानता भरी बातें हैं। इसी उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ इधर की बातें उधर करने वाले को ख़बरीलाल तो वहीं दूसरी तरफ़ बड़ों के प्रेम पत्र इधर-उधर पहुँचाने वाले को पोस्टमैन की उपाधि मिली है। इसी उपन्यास का एक अन्य पात्र पूरे गाँव और मोहल्ले  में 'पागल है' के नाम से जाना जाता है कि दक्षिण भारत के किसी दूरदराज के गाँव से भटक कर यहाँ पहुँचे इस बालक की भाषा, ना कोई समझता और ना ही इसे वहाँ की स्थानीय भाषा, हिंदी का ज्ञान है। 

इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है बाली उमर के इन बच्चों की नादानी भरी वयस्क शरारतों की तो दूसरी तरफ़ इसमें कहानी है भूख-प्यास से तड़पते माँ-बाप के एक ऐसे लाडले बालक की जिसे उसके सगे चाचा ने ही अपनी ईर्ष्या के चलते उसके परिवार से बहुत दूर यहाँ-वहाँ भटकने के लिए छोड़ दिया है। 

इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है भूख प्यास से तड़पते समृद्ध परिवार के ऐसे कई दिनों के भूखे बालक की जिसे कूड़े में फेंके गए बासी भोजन तक में अपना अपना पेट भरने के लिए मजबूर होना पड़ा। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है किसी की अज्ञानता का फायदा उठा  शोषण..अत्याचार और लालच के ज़रिए जबरन बँधुआ मज़दूर बनाने की। 

इस उपन्यास में कहीं ऊलजलूल तर्कों के ज़रिए पृथ्वी को गोल नहीं बल्कि चपटा करार दिया जाता दिखाई देता है तो कहीं इसमें ब्याह के बाद सैक्स को लेकर बाल मन ऐसी ऐसी कल्पनाएँ करता दिखाई देता है कि बेसाख्ता हँसी छूटने को आमादा हो उठती है। इसी उपन्यास में लेखक अनपढ़ों के नेता बनने पर कटाक्ष करता दिखाई देता है तो कहीं लोगों की आशिक़ प्रवृति पर तंज कसता नज़र आता है।

इसी उपन्यास में कहीं उन सरकारी नौकरी वालों पर कटाक्ष होता नज़र आता है जो बिना रिश्वत लिए कुछ काम कर के राज़ी नहीं। तो कहीं नए लेखकों पर तंज कसा जाता दिखाई देता है कि वे लिखने के लिए औरों को पढा जाना ज़रूरी नहीं समझते। इसी उपन्यास में कहीं गाँव के लोगों की राजनीति के प्रति उत्साह एवं रुचि को ले कर बात होती नजर आती है। 

इसी किताब में कहीं गाँव के लोगों को इस वजह से दूरदर्शी बताया जाता दिखाई देता है कि वे अपने बच्चों को उनके साइज़ के नहीं बल्कि बड़े साइज़ के कपड़े ख़रीदवाते हैं कि उनके बड़े होने पर भी वही कपड़े उनके काम आ सकें। तो कहीं पहली बार किसी शादी में बफ़े भोजन का आनंद लेने को आतुर गाँव वाले इसे कुकुर भोज का दर्जा देते दिखाई देते हैं। तो कहीं जीवन में पहली बार ठंडे (कोल्डड्रिंक) को पी कर उसका आनंद लेने की बच्चों की सारी अधीरता.. उत्सुकता निराशा में तब्दील होती दिखाई देती है।

इसी किताब में कहीं नए लेखकों पर तंज कसा जाता दिखाई देता है कि वे लिखने के लिए औरों को पढा जाना ज़रूरी नहीं समझते। तो कहीं गाँव के लोगों की राजनीति के प्रति उत्साह एवं रुचि को ले कर बात होती नजर आती है। 

इसी किताब में कहीं प्राइमरी का कोई बालक अपनी अँग्रेज़ी की अध्यापिका से ही किस(Kiss) का मतलब जानने के लिए सवाल पूछता दिखाई देता है। तो कहीं बच्चे पैकेट वाले गुब्बारे (कंडोम) को ले कर भ्रमित नज़र आते हैं कि आख़िर ये ऐसे किस घृणित पदार्थ से बने हुए होने हैं कि उनके अभिभावक उन्हें इनसे दूर रहने के लिए हड़काते नज़र आते हैं। 

लगभग आधी किताब तक पाठक इससे इस कदर जुड़ा रहता है कि उसके ज़ेहन में लेखक से बार-बार इस सवाल को पूछने का मन करने लगता है कि..

"अबे!...कितना हँसाओगे बे?"

बतौर एक सजग पाठक होने के नाते रोचक शैली में तेज़ रफ़्तार से चलता हुआ यह उपन्यास बाद के किसी-किसी चैप्टर में मुझे थोड़ा बोझिल एवं जबरन खिंचा हुआ भी लगा। अंत थोड़ा फ़िल्मी और पहले से अपेक्षित भी लगा। क्लाइमैक्स वाले सीन पर अगर और  ज़्यादा मेहनत की जाए तो इस बढ़िया उपन्यास की लोकप्रियता में और अधिक इज़ाफ़ा हो सकता है। 

127 पृष्ठीय इस मज़ेदार उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है राजपाल एण्ड सन्ज़ ने और इसका मूल्य रखा गया है 175/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। किंडल अनलिमिटेड के सब्सक्राइबर्स के लिए यह उपन्यास फ्री में उपलब्ध है तथा अमेज़न पर डिस्काउंट के बाद फिलहाल यह उपन्यास मात्र 123/- रुपए में मिल रहा है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 

प्रेत लेखन का नंगा सच- योगेश मित्तल

अगर अपने पढ़ने के शौक की बात करूँ तो मेरी भी शुरुआत बहुतों की तरह चंपक, मधु मुस्कान, लोटपोट, नंदन, सरिता, मुक्ता, धर्मयुग.. वाया साप्ताहिक हिंदुस्तान, वेदप्रकाश शर्मा के थ्रिलर उपन्यासों से होती हुई गुलशन नंदा के सामाजिक उपन्यासों तक जा पहुँचती है। 

जी..हाँ, वही थ्रिलर उपन्यास और सामाजिक उपन्यास जिन्हें उस समय के तथाकथित दिग्गज साहित्यकारों ने लुगदी साहित्य कहते हुए सिरे से नकार दिया। हालांकि उस समय कर्नल रंजीत, इब्ने सफ़ी, जेम्स हेडली चेइस और गुलशन नंदा इत्यादि बहुत ज़्यादा बिकने और पढ़े जाने वाले लेखक थे मगर चूंकि ऐसे उपन्यास की लागत कम और मुनाफ़ा ज़्यादा रखने के लिए उन्हें बहुत ही हल्की क्वालिटी के सस्ते कागज़ पर छापा जाता था। तो इसी कमी को आधार बना कर उनके लेखन को लुगदी साहित्य या पल्प फिक्शन कहा जाने लगा। 

उस वक्त इन लेखकों के बाज़ार में लगभग हर महीने नया उपन्यास आने से बड़ी हैरानी होती थी कि ये सब इतना ज़्यादा और इतनी जल्दी कैसे लिख लेते हैं कि इधर कोई घटना घटी और उधर कुछ ही दिनों में उस पर उपन्यास हाज़िर। 

काफ़ी सालों बाद इस रहस्य से तब जा के पर्दा हटा जब पता चला कि घोस्ट राइटिंग यानि कि प्रेत लेखन क्या बला है। ऐसे में स्वतः इन बेनामी लेखकों के बारे में जानने की इच्छा मन में जाग उठी कि आख़िर.. किन वजहों से ये अपनी सारी मेहनत..सारा हुनर..सारा श्रेय किसी और को अपने नाम से इस्तेमाल करने के लिए दे देते हैं? 

दोस्तों..आज मैं ऐसे ही एक घोस्ट राइटर याने के प्रेत लेखक, योगेश मित्तल से उनकी ही आत्मकथा 'प्रेत लेखन का नंगा सच' के ज़रिए परिचय करवाने जा रहा हूँ। जिसमें उनके बचपन..जवानी और बीमारी से जुड़ी बातों के अतिरिक्त लुगदी साहित्य यानी कि पल्प फिक्शन से जुड़ी ऐसी जानकारियाँ हैं जिन्हें शायद इस किताब के न आने पर पाठक कभी नहीं जान पाते। 

 इस किताब के लेखक, योगेश मित्तल की बेशक आम लोगों के बीच कोई पहचान नहीं है लेकिन 1970 से ले कर 2000 के बीच यही योगेश मित्तल अनेक लेखकों एवं प्रकाशकों का चहेता हुआ करता था। 

इस किताब में कहीं देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता और भूतनाथ सीरीज का जिक्र होता दिखाई देता है जिनको पढ़ने के लिए उर्दू और अंग्रेजी भाषी लोगों ने हिंदी सीखें। तो कहीं किसी अन्य जगह पर योगेश जी बताते हैं कि 1969 में कलकत्ता से दिल्ली में आ कर बसने के बाद उन्होंने कभी अपने पड़ोसियों और दोस्तों के लिए घोस्ट राइटर के रूप में कहानियाँ लिखने के साथ साथ पड़ोस में ही किराए पर नॉवेल और मैगज़ीन किराए पर देने वाले विमल चटर्जी के साथ मिल कर पहले पहल मनोज पॉकेट बुक्स के बाल कहानियों के सैट के लिए घोस्ट राइटिंग शुरू की। उनकी लिखी कहानियों पर बतौर लेखक और संकलनकर्ता के रूप में 'प्रेम बाजपेयी' का नाम छपता था। जिसे बाद में बदल कर 'मनोज' कर दिया गया। 

मनोज पॉकेट बुक्स के अंतर्गत छपने वाले 'इमरान' और 'विनोद-हमीद' सीरीज़ के उपन्यास भी इनके द्वारा ही लिखे गए। जो क्रमशः 'फ़रेबी दुनिया' और 'डबल जासूस' पत्रिकाओं में छपे। 

कहीं वे भारती पॉकेट बुक्स के लिए 'जगत' सीरीज़ के नॉवेल 'ओम प्रकाश शर्मा' के नाम से लिखने का जिक्र करते नज़र आते हैं तो कहीं वे 'विजय सीरीज़' के ऐसे नॉवल लिखते नज़र आते हैं जो असलियत में 'ओमप्रकाश कम्बोज' के नाम से छपे। 
कहीं वे भारती पॉकेट बुक्स के लिए ही 'ललित भारती' बन कर प्रेत लेखन करते रहे तो कहीं वे 'जेम्स बॉन्ड' बन कर भी अपने गुमनाम लेखन का परचम लहराते नज़र आते हैं। 

इसी किताब में कहीं वे लेखक 'कुमारप्रिय' से अपनी जान पहचान और दोस्ती की बातें करते नज़र आते हैं तो कहीं वे 'पंकज पॉकेट बुक्स' के शुरुआती उपन्यास 'ओलंपिक में हंगामा' का जिक्र करते नज़र आते हैं। जिसे ओलंपिक खेलों के दौरान हुई इज़रायली खिलाड़ियों की हत्या को आधार बना कर लिखा गया यह। 'इमरान' सीरीज़ का यह उपन्यास एच. इकबाल के नाम से छपा था। कहीं वे 'रानो जीजी' तो कहीं वे इन्दर भैया' के छद्म नामों से अपना प्रेत लेखन जारी रखते नज़र आते हैं। 

इसी किताब में कहीं किसी जगह लेखक बताते नज़र आते हैं कि बड़े उपन्यासकारों जैसे कि राज भारती, ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश कंबोज, विमल चटर्जी, सुरेंद्र मोहन पाठक, परशुराम शर्मा, वेद प्रकाश शर्मा, लोटपोट मैगजीन के लिए मोटू पतलू एवं बहुत से प्रकाशकों एवं लेखकों ने अपने उपन्यासों के मैटर को बढ़वाने के लिए घोस्ट राइटिर  के रूप में इनकी लेखनी का सहारा लिया। इसी किताब के ज़रिए पता चलता है कि कई बार किसी उपन्यास में लेखन किसी का..नाम किसी का और फ़ोटो किसी और का हुआ करता था।

इसी किताब में कहीं कोई प्रेत लेखक अपनी लच्छेदार बातों के ज़रिए नए बकरों को फँसा उनका पब्लिशिंग की दुनिया में पदार्पण करवाता नज़र आता है तो कहीं लेखक स्वयं हिंद पॉकेट बुक्स के रजिस्टर्ड ट्रेडमार्क 'मेजर बलवंत' के नाम से किसी अन्य प्रकाशक के लिए छद्म लेखन का कार्य करता नज़र आता है। जिसे उन्हें बाद में हिंद पॉकेट बुक्स की कोर्ट केस की धमकी के बाद छोड़ना पड़ा जबकि असलियत में हिंद पॉकेट बुक्स ने लेखक का उपन्यास आने के बाद ही इस नाम 'मेजर बलवंत' को अपने नाम से रजिस्टर्ड करवाया था। 
इसी किताब में कहीं वयोगेश मित्तल मजबूरन अपने मित्र की एवज में बिना पारिश्रमिक लिए कई उपन्यास लिखते नज़र आते हैं कि उनका मित्र प्रकाशक से एडवांस में पैसा ले कर ग़ायब हो गया था।

 इसी किताब में कहीं बड़े तथाकथित नाम वाले साहित्यकारों द्वारा गुलशन नंदा और इब्ने सफ़ी जैसे लेखकों के लेखन को दोयम दर्ज़े का करार दे उन्हें सिरे से इस हद तक नाकारा जाता दिखाई देता है कि उनकी तुलना वेश्याओं से की जाती दिखाई देती है। इसी किताब में कहीं ग़रीबी और पैसे की ज़रूरतों के मद्देनज़र लेखक का स्वयं अपने नाम से लिखने और छपने की ख्वाहिश से मोहभंग होता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य जगह पर लेखक स्वयं यह स्वीकार करते नज़र आते हैं कि उन्होंने इतने ज़्यादा छद्म नामों एवं प्रतिष्ठित लेखकों के लिए छद्म लेखन किया कि उन्हें स्वयं भी उन सभी के नाम याद नहीं। 
 
इसी किताब कहीं लेखक छद्म लेखन के लिए लेखकों की ग़रीबी की वजह से हुई फटीचर हालात को ज़िम्मेदार ठहराते नज़र आते हैं। तो कहीं पैसे के लालच में प्रकाशकों से एडवांस ले कर भी उनके लिए लिख कर ना दे पाने की वजह से ऐसे छद्म लेखकों से प्रकाशकों का मोहभंग होता दिखाई देता है। 

इसी किताब के ज़रिए पता चलता है कि उस दौर के सर्वाधिक चर्चित लेखकों जैसे कर्नल रंजीत, राजवंश, लोकदर्शी, समीर, केशव पण्डित,मनोज, रायज़ादा, टाइगर, विक्की आनंद, राजहंस इत्यादि के वजूद के पीछे सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रकाशकों की सोच थी। असल में उनके नाम का कोई व्यक्ति था ही नहीं। प्रकाशकों द्वारा इन छद्म नामों की उपज के पीछे की वजह दरअसल यह थी कि पैसे की तंगी या लालच की वजह से उस दौर के लेखक अक्सर प्रकाशकों से पैसा एडवांस में लेने के बाद उपन्यास लिखने में असमर्थता जताते हुए मुकर जाते थे। ऐसे में अपने घाटे को कवर करने के लिए प्रकाशक किसी भी लेखक को पकड़ कर अपना उपन्यास पूरा करवाने लगे। 

 इसी किताब में कहीं लुगदी साहित्य के पतन और लगातार बंद होती विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के पीछे की वजह के लिए मनोरंजन के विभिन्न टीवी चैनलों..कंप्यूटर.. मोबाइल और इंटरनेट को ज़िम्मेदार बताया जाता दिखाई देता है तो कही अँग्रेज़ी एवं पाकिस्तान से ख़ास तौर पर मँगवाए गए उर्दू उपन्यास सीधे-सीधे चोला बदल हिंदी में छपते दिखाई देते हैं। इसी किताब में कहीं प्रेत लेखन के शहंशाह के रूप में आरिफ़ मारहवीं का नाम आता दिखाई देता है तो कहीं मनोज पॉकेट बुक्स के मनोज ट्रेड नेम के पीछे सैम्युअल अंजुम अर्शी उर्फ़ अंजुम अर्शी का नाम आता दिखाई देता है। कहीं उस्ताद लेखक के रूप में लेखक, फ़ारूक़ अर्गली का नाम लेते नज़र आते हैं तो कहीं गंभीर चेहरे के सधे लेखक के रूप में वे गोविन्द सिंह के नाम से पाठकों को रूबरू कराते दिखाई देते हैं। 

कहीं इस किताब में थ्रिलर उपन्यासों के सुपर स्टार बन चुके वेदप्रकाश शर्मा से अन्य लेखकों की ईर्ष्या और जलन की बातें पढ़ने को मिलती हैं तो कहीं ओमप्रकाश शर्मा जैसे बड़े नाम से प्रेरित हो अन्य प्रकाशक भी उन्हीं के नाम जैसे किसी अन्य शख्स की आड़ में ओमप्रकाश शर्मा के नाम से ही उन्हीं की शैली और उन्हीं के किरदारों वाले नकली उपन्यास धड़ल्ले से छापते दिखाई देते हैं।

कहीं विक्रांत जैसे करैक्टर को जन्म देने वाले कुमार कश्यप के प्रेत लेखक से असली लेखक में तब्दील होने की कहानी कही जाती दिखाई देती है। तो कहीं दवाओं के एजेंट केवल कृष्ण कालिया के ट्रेड नाम 'राजहँस' से लिख का छा जाने की बात होती नजर आती है कि उनकी लेखनी से उस दौर के अनेक लेखक इस हद तक प्रेरित हुए कि उनके लेखन की छाप फ़िल्मों तक में भी नज़र आने लगी। 

रोचक तथ्यों से भरी इस किताब को पढ़ते वक्त ज़ेहन में एक सवाल बार-बार उमड़ता दिखाई किया कि आख़िर एक आम पाठक किसी भी ऐसे व्यक्ति की आत्मकथा क्यों पढ़ना चाहेगा जिससे कि वह किसी भी भांति परिचित नहीं। ना वो कोई ऐसी जानी मानी शख्सियत या सेलिब्रिटी है कि उसके नाम का डंका पूरी दुनिया में बेशक न सही मगर कम से कम अपने देश में तो बज ही रहा हो। 


इस किताब में एक आध जगह प्रूफरीडिंग की कमी के अतिरिक्त दो जगहों पर वाक्य रिपीट होते दिखाई दिए। इसके अतिरिक्त कुछ बातें जैसे कि लेखक की बीमारी और रिश्तेदारों से जुड़ी बातों की बार-बार पुनरावृत्ति होती दिखाई दी। जिनसे बचा जा सकता था। बतौर एक सजग पाठक होने के नाते मुझे इस किताब के शुरुआती पेज थोड़े उकताहट भरे और अंतिम लगभग 100 पेज रोचकता के साथ तेज़ रफ़्तार भी पकड़ते दिखाई दिए। 


प्रेत लेखन एक ऐसा सच है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। सालों पहले से घोस्ट राइटिंग होती रही है और आने वाले समय में भी बेशक रूप बदल कर ही सही मगर होती रहेगी। ऐसे में इसमें किसी भी सच के उजागर होने से कोई सनसनी फैलने या हंगामा होने का डर नहीं। इसलिए इस किताब का शीर्षक 'प्रेत लेखन का नंगा सच' मुझे सनसनीखेज़ और बिकाऊ तो लगा मगर सार्थक करता कतई नहीं लगा। सही मायने में इस किताब का शीर्षक अगर 'प्रेत लेखन- पर्दे के पीछे का सच' या 'प्रेत लेखन की अंदरूनी कहानी' जैसा होता तो ज़्यादा सार्थक एवं विषयानुकूल होता। इसी किताब से पता चला कि पाठकों के रिस्पॉन्स को देखते हुए नयी जानकारियों भरा इसका अगला भाग भी लाया जा सकता है। ऐसे में बिना आत्मकथा वाले हिस्से के अगर किताब को सिर्फ़ कंटेंट बेस्ड फॉर्मेट में लॉन्च किया जाए तो मेरे हिसाब से किताब और ज़्यादा पाठकों तक अपनी पहुँच बनाने में कामयाब होगी।

इस जानकारी भरी 268 पृष्ठीय आत्मकथात्मक किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है नीलम जासूस कार्यालय ने और इसका मूल्य रखा गया है 275/- रुपए जो कि मुझे कंटेंट एवं क्वालिटी के नज़रिए से ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 

क्वीन- कामिनी कुसुम


बात ज़्यादा पुरानी नहीं बस उस वक्त की है जब हिंदी फिल्मों की पटकथा लेखक के रूप में स्वर्गीय कादर खान की तूती बोला करती थी। लेखन के साथ साथ वे अभिनय के क्षेत्र में इस कदर व्यस्त थे कि चाह कर भी लेखन के लिए पर्याप्त समय या तवज्जो नहीं दे पा रहे थे। कहा जाता है कि ऐसे में  इस दिक्कत से निजात पाने के लिए उन्होंने अपने अंडर कई अन्य लेखकों को काम दिया जो उन्हीं की शैली और स्टाइल में..उन्हीं के निर्देशानुसार कहानियों के परिस्थितिनुसार संवाद लिखते थे। जिनका बाद में कादर खान के नाम के साथ फिल्मों में इस्तेमाल किया गया। 

ऐसा नहीं है कि इस तरह की घोस्ट राइटिंग या प्रेत लेखन सिर्फ़ हिंदी फिल्मों के लिए ही किया गया। पहले भी अनेकों बार ऐसा कभी किसी लेखक के लिखे को संवारने अथवा सुधारने के लिए..तो कभी बड़े नेताओं के भाषण अथवा आत्मकथा को लिखने के लिए किया गया। आमतौर पर मशहूर हस्तियां, बड़े अधिकारी या राजनीतिज्ञ अपनी आत्मकथाओं, संस्मरणों अथवा लेखों इत्यादि का मसौदा तैयार करने या उन्हें सुधारने करने के लिए घोस्ट राइटर्स को नियुक्त करते हैं।

मगर असल दुविधा या परेशानी तब होती जब अपने अन्तःकरण से पूर्णतः सही होते हुए हम जो लिख या कर अथवा जी रहे होते हैं, उसे ज़माने की नज़रों से मात्र इसलिए छुपाना पड़ता है कि..लोग क्या कहेंगे? 

"कुछ तो लोग कहेंगे..लोगों का काम है कहना"

दोस्तों..आज घोस्ट राइटिंग से जुड़ी बातें इसलिए कि आज यहाँ मैं इसी विषय से जुड़े एक ऐसे उपन्यास का जिक्र करने जा रहा हूँ जिसे 'क्वीन' के नाम से लिखा है अँग्रेज़ी की प्रसिद्ध लेखिका 'कामिनी कुसुम' ने। 5 अँग्रेज़ी किताबों के बाद ये उनका पहला हिंदी उपन्यास है। 

इस उपन्यास में कहानी है उस लेखिका नव्या की जिसे उसके दो उपन्यास आ चुकने के बावजूद प्रकाशक एवं संपादक के आग्रह/दबाव पर इरोटिक यानि कि कामुकता से भरा उपन्यास लिखने के लिए कहा जाता है। शुरुआती झिझक एवं हिचकिचाहट के बाद वो इसे एक चुनौती के रूप में 'क्वीन' के छद्म नाम से सफलतापूर्वक लेखन शुरू कर तो देती है मगर..

इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है उस नव्या की जो पति के साथ अपने वैवाहिक संबंधों को ले कर इस उम्मीद में जी रही है कि उसके प्रति उदासीन   हो चुका पति एक न एक दिन वापिस लौट कर उसके पास ज़रूर आएगा। दूसरी तरफ़ इसमें कहानी है एक ऐसे पति विवान की, जिसने परिवार के दबाव में आ, ना चाहते हुए भी नव्या से शादी कर ली कि उसकी प्रेमिका रायना हमेशा के लिए उसे छोड़ विदेश जा बसी है। अब चूंकि विदेश से मोहभंग होने के बाद रायना हमेशा हमेशा के लिए वापिस लौट आयी है। तो ऐसे में अब विवान भी अपनी बीवी- बच्चे को भूल रायना में ही अपनी पूरी ज़िन्दगी..पूरी दुनिया देख रहा है। 

मुख्य पात्रों के अतिरिक्त इस उपन्यास में सहायक किरदारों के रूप में एक तरफ़ मालती देवी के रूप में एक ऐसी सास है जिनके लिए घर की इज़्ज़त से बढ़ कर कुछ भी नहीं। तो वहीं दूसरी तरफ़ आग लगाने के लिए मानवी के रूप में नव्या की एक अदद ननद भी है। साथ ही मूक प्रेमी के रूप में आदित्य का चरित्र भी है जो कभी खुल कर नव्या से अपने मन की बात नहीं कह पाया।

दिलचस्प मोड़ों से गुजरते इस सफ़र में अब देखना यह है कि..

■ नव्या और विवान के रिश्ते का क्या होगा? 

■ क्या विवान, रायना के साथ अपनी मनचाही डगर..मनचाहे सफ़र पर जा पाएगा? 

■ क्या मानवी सब कुछ जान कर भी अनजान बनी रहेगी अथवा अपने भाई या फ़िर नव्या का साथ देगी? 

■ क्या कभी आदित्य, नव्या के समक्ष अपने मन के भावों को अभिव्यक्त कर पाएगा अथवा अस्वीकार्यता को ही अपनी किस्मत मान..चुप बैठ जाएगा? 

■ क्या कभी छद्म रूप से लिखने के बजाय नव्या अपने भीतर.. सच को स्वीकार करने की हिम्मत..शक्ति एवं जज़्बा ला पाएगी? या फ़िर जीवनपर्यंत मात्र एक छद्म लेखिका ही बन कर रह जाएगी? 

कहने तो धाराप्रवाह लेखन से सुसज्जित इस उपन्यास में एक सामान्य सी कहानी है मगर इरोटिक लेखन के तड़के ने इसे और ज़्यादा मज़ेदार और पठनीय बना दिया है। इस किताब से नए लेखकों को यह सीखने में मदद मिलेगी कि कैसे सीमा में रह कर बिना वल्गर हुए भी कामुक लेखन किया जा सकता है।

कुछ एक जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ कमियां दिखाई दी जैसे कि 'स्टूल' शब्द के लिए बार बार 'टूल' लिखा नज़र आया। उम्मीद की जानी चाहिए कि लेखिका की कलम अभी हिंदी में और जादू बिखेरेती नज़र आएगी।

यूँ तो यह मनोरंजक उपन्यास मुझे किसी मित्र ने उपहार स्वरूप भेजा मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके 122 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है Red Grab Books ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए जो कि कम पृष्ठ संख्या देखते हुए मुझे थोड़ा ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई।
 
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