हुण मौजाँ ही मौजाँ


***राजीव तनेजा*** 
 बात पिछले साल की है। चार दिन बचे थे , त्योहार आने में। मैं मोबाइल से दनादन ‘एस.एम.एस’ पे 'एस.एम.एस' किए जा रहा था। क्रिसमस का त्योहार जो सिर पर था लेकिन ये ‘एस.एम.एस’ मैं अपने खुदगर्ज़ दोस्तों को या फिर मतलबी रिश्तेदारों को नहीं कर रहा था बल्कि इन्हें तो मैं उन एफ.एम रेडियो चैनल वालों को भेज रहा था  जो गानों के बीच - बीच में अपनी टांग अड़ाते हुए बार- बार 'एस.एम.एस' करने की गुजारिश कर नाक में दम रहे थे कि फलाने - फलाने नम्बर पर 'जैकपॉट' लिख कर 'एस.एम.एस' करो तो सैंटा आपके घर आ सकता है ढेर सारे इनामात लेकर।
नोट:इस बार क्रिसमस के अवसर पर व्यस्तता के चलते कुछ नया लिखने के लिए समय नहीं निकाल पाया तो सोचा कि क्यों ना आप सभी दोस्तों के साथ एक पुरानी कहानी को पुन: संपादित कर उसे साझा किया जाए?...हो सकता है कि इसमें आपको कुछ कच्चापन लगे क्योंकि ये मेरी शुरूआती कहानियों में से एक है..उम्मीद है कि इसे आप एक लेखक के कच्चे से पक्के होने की प्रक्रिया समझ कर इग्नोर करेंगे...धन्यवाद
सो!..मैंने भी चांस लेने की सोची कि यहां दिल वालों की दिल्ली में लॉटरी तो बैन है ही, तो चलो... 'एस.एम.एस' ही सही। क्या फर्क पड़ता है ?...बात तो एक ही है न? एक साक्षात जुआ है ... तो दूसरा मुखौटा ओढ़े उसी के पदचिन्हों पे खुलेआम चलता हुआ उसी का कोई भाई- भतीजा।स्साले!...यहां भी रिश्तेदारी निकाल भाई-भतीजावाद फैलाने लगे।सोचा कि जब खुद ऊपरवाला आकर छप्पर फाड़ रहा है अपने फटेहाल तम्बू का और बम्बू समेत ही हमें ले जा रहा है शानदार व मालदार भविष्य की तरफ कि लै पुत्तर! कर लै हुण मौजाँ ही मौजाँ । हो जाण गे  तेरे वारे - न्यारे...कर लै हुण तू मौजाँ ही मौजाँ । अब ये कोई ज़रूरी नहीं जनाब कि हमेशा तीर ही लगे निशाने पर। कभी-कभार तुक्के भी तो लग जाया करते हैं निशाने पर।
"कोई हैरानी की बात नहीं है इसमें , जो इस कदर कौतूहल भरा चेहरा लिए मेरी तरफ ताके चले जा रहे हैं आप"...
"क्या किस्मत के धनी सिर्फ आप ही हो सकते हैं ?...मैं नहीं"...
"याद रखो!...उसके घर देर है अंधेर नहीं...कुछ तो उसकी बेआवाज़ लाठी से डरो"...
अब यूं समझ लो कि अपुन को तो सोलह आने यकीन हो चला है कि अपनी बरसों से जंग खाई किस्मत का दरवाज़ा अब खुलने ही वाला है। दिन में पच्चीस - पच्चीस दफा कैलैंडर की तरफ ताकता कि अब कितने दिन बचे हैं ,पच्चीस तारीख आने में।
"पच्चीस तारीख?"...
"अरे बुरबक्क!...लगा दी ना टोक?"...
"हाँ भय्यी!...पच्चीस तारीख...कितनी बार कहा है कि यूं सुबह - सुबह किसी के शुभ काम में अड़ंगा मत लगाया करो लेकिन तुम्हें अक्ल आए तब न"...
"पच्चीस बार पहले ही बता चुका हूं कि 25 दिसम्बर को ही मनाया जाता है ' बड़ा दिन' दुनिया भर में और  आप हैं कि हर बार इसे 'बड़ा खाना' समझकर लार टपकाने लगते हैं। पेटू इंसान कहीं के। ' बड़ा खाना' तो होता है फौज में, लेकिन तुम क्या जानो ये फौज-वौज और वहाँ पर होने वाली मौज के बारे में"...
"कभी राईफल पकड़ कर भी देखी है हाथ में?"...
" छोड़ो!!... लड़कियों की नाज़ुक कलाइयों को थामने को बेताब तुम्हारे ये हाथ क्या खा कर राईफल- शाईफल पकड़ेंगे?"...
"यू बेवकूफ सिविलियन!... इन मेनकाओं का मोह त्याग दे और देश की फिक्र करो...देश की"...
"हाँ!..तो जैसा मैं कह रहा था कि जैसे - जैसे पच्चीस तारीख नज़दीक आती जा रही थी, मेरे S.M.S करने की स्पीड में भी इज़ाफा होता जा रहा था। अब तक तो कई हज़ार के मैं रीचार्ज करवा चुका था...मालूम जो था कि जितने ज़्यादा S.M.S... उतना ही ज्यादा होगा जीतने का चांस। सो!..भेजे जा रहा था मैँ धड़ाधड़ S.M.S पे S.M.S |अब तो मोबाइल में भी बैलंस कम हो चला था लेकिन फिक्र किस कम्बख्त को थी?...लेकिन सच कहूं तो थोड़ी टेंशन तो थी ही कि सब यार- दोस्त तो पहले से ही बिदके पड़े हैं अपुन से...इसलिए फाईनैंस का इंतज़ाम कैसे होगा ?...कहां से होगा?
ऐसे वक्त पर अपने 'जीत बाबू' की याद आ गई। बड़े सज्जन किस्म के इंसान हैं। किसी को 'ना' नहीं कहा है आज तक।भले ही कितनी भी तंगी चल रही हो लेकिन कोई उनके द्वार से खाली नहीं गया कभी। किसी पराए का दुख तक नहीं देखा जाता उनसे...नाज़ुक दिल के जो ठहरे। जो आया...जब आया हमेशा..सेवा को तत्पर। इतने दयालु कि कभी किसी से कोई गारंटी भी नहीं मांगते।बस!...तसल्ली के लिए घर , दुकान , प्लॉट...गोदाम या गाड़ी - घोड़े के कागज़ात भर रख लेते हैं अपने पास।
वैसे औरों से तो दस टका ब्याज लेते हैं महीने का , लेकिन अपुन जैसे पर्मानैंट कस्टमर के लिए विशेष डिस्काउंट दे देते हैं। बस!... बदले में उनके छोटे – मोटे काम करने पड़ जाते हैं , जैसे भैंसो को चारा डालना , उनके टॉमी को सुबह -शाम गली - मोहल्ले में घुमा लाना आदि। काम का काम हो जाता है और सैर की सैर भी। इसी बहाने अपुन का भी वॉक-शॉक हो जाता है। वैसे अपने पास...अपने लिए भी टाइम कहां है ? ये तो बाबा रामदेव जी के सोनीपत वाले शिविर में उन्हें कहते सुना था कि सुबह- सुबह चलना सेहत के लिए फायदेमंद है। फायदे की बात और मैं न मानूं ? ऐसा हरजाई नहीं मैं। ऐसी गुस्ताखी करने की मैं सोच भी कैसे सकता था ?
सो!...अपुन ने भी सोच-समझकर अंगूठा टिकाया और अपने जीत बाबू से पांच टके ब्याज पर पैसा उठाकर धड़ाधड़ झोंक दिया इस S.M.S रूपी आँधी में।अब दिल की धड़कनें दिन- प्रतिदिन...प्रतिपल तेज़ होने लगी कि क्या होगा?....कैसे संभाल सकूंगा इतनी दौलत को?...कभी देखा नहीं था ना ढेर सारा पैसा एक साथ। क्या- क्या खरीदूंगा?....क्या - क्या करूंगा? जैसे सैकड़ों सवाल हर पल मन में उमड़ रहे थे।
मैं अकेली जान!...कैसे मैनेज करूंगा सब का सब? हां!...अब तो अकेली ही कहना ठीक रहेगा...बीवी को तो कब का छोड़ चुका था मैं। वैसे!....अगर ईमानदारी से कहूँ तो उसी ने मुझे छोड़ा था ना कि मैँने उसे। अब पछताती होगी...बावली को मेरे सारे ही काम फालतू के जो लगते थे। हमेशा पीछे पड़ी रहती थी कि...
"बचत करो... बचत करो...ना अब तक कोई काम आया है और न ही आगे भी कोई आएगा"...
"काम आएगा तो सिर्फ गाँठ में बँधा पैसा....दोस्त....रिश्तेदार सब बेकार का...बेफाल्तू का जमघट है...बच के रहो इनसे"...
उस बावली को क्या पता कि ज़िन्दगी कैसे जिया करते हैं? उसे तो बस यही फिक्र रहती है हमेशा कि "बच्चों की फीस का इंतज़ाम हुआ?"....
"ये नेट का कनेक्शन कटवा क्यों नहीं देते?"...
"कार साफ करने वाला पैसे मांग रहा था"...
"गाड़ी की किस्त जमा करवा दी?"...
ये सब फालतू का बोल-बोल के बेचारी परेशान हुए रहती थी हमेशा। शायद!...इसी चक्कर में कुछ दुबली भी।लेकिन क्या उसकी ज़रा सी सेहत के लिए मैँ ये सब छोड़ दूँ?...कतई नहीं...कदापि नहीं।
"अरे!!...अगर फीस नहीं भरी जाएगी तो कौन सी आफत आ जाएगी?  ज़्यादा से ज़्यादा क्या करेंगे ? नाम ही काट देंगे ना ? तो काट दें स्साले... कौन रोकता है ? सरकारी स्कूल बगल में ही तो है।एक तो फीस भी कम , ऊपर से पैदल का रास्ता याने के बचत ही बचत। इसे कहते हैँ आम के आम और गुठलियों के दाम...एक तो घर में होने वाले रोज़ाना के क्लेश से मुक्ति भी मिल जाएगी और इस सब से जो पैसे बचेंगे तो उनसे कार की किस्त भी टाइम पर भर दी जाएगी...सिम्पल।
ये आना - जाना तो चलता ही रहता है...कभी इस स्कूल तो कभी उस स्कूल में।कहती थी कि नेट कटवा दूं। हुंह!!...बड़ी आई नेट कटवाने वाली। इतनी जो फैन मेल बनाई है पिछले दो बरसों में , सब छूमंतर नहीं हो जाएगी? गुरु!.... यहां तो चढ़ते सूरज को सलाम है। दिखते रहोगे तो बिकते रहोगे। दिखना बन्द तो समझो बिकना भी बन्द। बैठे रहो आराम से पलाथी मार के।
फैन्स का क्या है ? आज हैं...कल नहीं। आज शाहरुख के कर रहे हैं , तो कल ह्रितिक के पोस्टर रौशन करेंगे लड़कियों के बेडरूम। टिकाऊ नहीं होती है ये प्रसिद्धि- व्रसिद्धि। बड़े जतन से संभाला जाता है इसे। अपने कुमार गौरव का हाल तो मालूम ही है न ?...वन फिल्म वंडर। एक फिल्म से ही सर आंखों पर बिठा लिया था पब्लिक ने उसे और अगले ही दिन दूसरी फिल्म से उसी दीवानी पब्लिक ने पट्ठे को ज़मीन पर ही तारे दिखा दिए थे।टाइम का कुछ पता नहीं...आज अच्छा है...कल रहे या ना रहे।
उफ!...मैँ भी ये क्या ले के बैठ गया?...एक तो यहां तो पहले ही इतना टेंशन है कि बस पूछो मत....मोबाइल में बैलन्स बचा पड़ा है और दिन रोज़ाना कम पर कम होते जा रहे हैं। कैसे भेज पाऊंगा सारे पैसे के S.M.S ? मैं सोच में डूबा हुआ ही था कि अचानक घंटी बजी और लगा कि जैसे मेरे सभी सतरंगी सपनों के सच होने का वक्त आ गया। मेरे बारे में मालुमात किया उन्होंने। पूछने पर पता चला कि रेडियो वाले ही थे और मेरा नम्बर उन्होंने सिलेक्ट कर लिया है बम्पर इनाम के लिए। बांछें खिल उठी मेरी।उन्होंने एक-दो दिन बाद सैंटा के आने की बात कह मुझसे खुशी-खुशी विदा ली।
अब इंतज़ार की घड़ियां खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। प्यास के मारे हलक सूखा जा रहा था , लेकिन पानी पीने की फुर्सत किसे थी ? डर जो था कि कहीं सैंटा जी गलती से किसी और के घर न जा घुसें। खासकर , बाजूवाले शर्मा जी के यहां। अजीब किस्म के इंसान हैं , सामने कुछ और पीठ पीछे कुछ और। ऊपर से तो बेटा - बेटा करते रहते थे और अन्दर ही अन्दर मेरी ही बीवी पर नज़र रखते थे।
बड़ा समझाते रहते थे मुझे दिन भर कि बेटा ऐसे नहीं करो , वैसे नहीं करो।अरे!...मेरा घर....मेरी बीवी...मेरे बच्चे... मेरी मर्जी मे जो आएगा वही करूँगा । तुम होते कौन हो बीच में टांग अड़ाने वाले? कहीं बीवी ही तो नहीं सिखा गई उन्हें ये सब ? क्या पता?...मेरी पीठ पीछे क्या- क्या गुल खिलते रहे हैं यहां?
यह सब सोच -सोच कर मैं परेशान हो ही रहा था कि सैंटा जी आ पहुंचे। उनका ओज से भरा चेहरा देखते ही मेरे सभी दुख , सभी चिंताएं हवा हो गए। लम्बा तगड़ा कसरती बदन। सुर्ख लाल दमकता चेहरा। झक लाल-सफेद कपड़े। उन्होंने बड़े ही प्यार से सर पर हाथ फिराया। मस्तक को प्यार से चूमा। चेहरा ओज से परिपूर्ण था। नज़रें मिलीं तो मैं टकटकी लगाए एकटक देखता रह गया। आंखें चौंधिया - सी रही थीं। सो ज़्यादा देर तक देख नहीं पाया।
फौरन निद्रा के आगोश ने मुझे घेर लिया था। आंखें बंद होने को थीं। मुंह में आए शब्द मानो अपनी आवाज़ खो चुके थे। चाहकर भी मैं कुछ कह नहीं पा रहा था। शायद!...किसी पवित्र आत्मा से मेरा पहला सामना था इसलिए। ऐसा न मैंने पहले कभी देखा था और न ही कभी इस बारे में कुछ सुना था। शायद!...आत्मा से परमात्मा का मिलन इसे ही कहते होंगे। मेरे इस आम इंसान से परम  ज्ञानी बनने के सफर के बीच ही उन्होंने पूछ लिया कि....
"बता वत्स!....क्या चाहिए तुझे?"....
"बता!...तेरी इच्छा क्या है?..तेरी रज़ा क्या है?"...
उनका ओजपूर्ण व्यक्तित्व देख मेरे कंठ से आवाज़ ही नहीं निकल रही थी। उन्होंने फिर बड़े प्रेम से पूछा...

"बता!...तेरी मर्ज़ी क्या है?"...
मुझे एकटक चुप खड़ा देख उन्होंने मेरी मदद करते हुए खुद ही एयर कंडिशनर की तरफ इशारा किया। मैंने हौले से सिर हिलाकर हामी भर दी। फिर टी.वी की तरफ देखा तो मैंने फिर से सहमति में मुण्डी हिला अपना मत दे दिया। उसके बाद तो फ्रिज , डीवीडी प्लेयर , होम थियेटर ,हैंडीकैम सबके लिए मैं बस हाँ-हाँ ही करता चला गया। वैसे होने को तो ये सारी की सारी चीज़ें मेरे पास पहले से ही मौजूद थीं लेकिन कोई भरोसा नहीं था इनका। बीवी के साथ मुकदमा जो चल रहा था कोर्ट में। क्या पता?..वो कम्बख्त सब का सब वापिस लिए बिना नहीं माने। इसलिए...कैसे इन्कार कर देता सैंटा जी को ?...इतनी तो समझ है मुझे कि अच्छे मौके बार- बार नहीं मिला करते। सो!...हाथ आया दांव  बिना चले कैसे रह जाता?
पहली बार तो मेरी किस्मत ने पलटी मारी थी और वह भी तब , जब बीवी नहीं थी मेरे साथ। शायद!... ऊपरवाले ने भी यही सोचा होगा कि इसके घर की लक्ष्मी तो हो गई उड़न छू। तो क्यों न बाहर से ही कोटा पूरा कर दिया जाए इसका? नेक बन्दा है , कुछ न कुछ बंदोबस्त तो करना ही पड़ेगा इसका। मैं खुशी से पागल हुआ जा रहा था कि आवाज़ आई ...
"वक्त के साथ- साथ मैं भी बूढ़ा हो चला हूं। इतना सामान कंधे पर उठा नहीं सकता और भला दिल्ली की सड़कों पर बर्फ गाड़ी यानी स्लेज का क्या काम ?...इसलिए!....स्लेज छोड़कर...ट्रक ही ले आया हूं मैं"..
"वक्त के साथ - साथ खुद को भी बदलना पड़ता है। सो!...मैँने भी खुद को बदल लिया" सैंटा जी मुस्कुराते हुए बोले....
मैंने भी झट से कह दिया कि..."आप परेशान न हों...मैँ हूँ ना"...
"उसी वक्त उनके साथ जाकर सारा सामान ट्रक से अनलोड किया ही था कि इतने में नज़र लगाने को शर्मा जी आ पहुंचे और आते ही पूछने लगे कि..."ये क्या कर रहे हो?"...
मैं चुप रहा। वह फिर बोल पड़े। मुझे गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन चुप रहा कि कौन मुंह लगे इनसे और अपना अच्छा - भला मूड खराब करे? लेकिन उन्हें अक्ल कहाँ?...फिर बोल पड़े कि...."ये क्या कर रहे हो?"...
अब मुझसे रहा न गया...आखिर!...बर्दाश्त करने की भी एक हद होती है...तंग आकर आखिर बोलना ही पड़ा कि..."मेरा माल है , मैं जो चाहे करूं....आपसे मतलब?"..
शर्मा जी बेचारे तो मेरी डांट सुन कर चुपचाप अपने रस्ते हो लिए। सैंटा जी के चेहरे पर अभी भी वही मोहिनी मुस्कान थी। उनकी सौम्य आवाज़ आई..." अब मैं चलता हूं...लौट के अगले साल फिर से मिलता हूँ"...
"मेरे ओ.के कहने से पहले ही पलक झपकते वो गायब हो चुके थे। मैं खुशी से फूला नहीं समा रहा था कि अगले साल फिर से आने का वादा किया है उन्होंने। इस बार तो मिस हो गया , लेकिन अगली बार नहीं। अभी से ही लिस्ट तैयार कर लूंगा कि मुझे क्या-क्या मांगना है ? बार- बार सारे गिफ्ट्स की तरफ ही देखे जा रहा था मैं। नज़र हटाए नहीं हट रही थी। पता ही नहीं चला कि कब आंख लग गई। सपने में भी उस महान आत्मा के ही दर्शन होते रहे रात भर। जब आंखें खुलीं तो देखा कि दोपहर हो चुकी है। सर कुछ भारी - भारीसा था। उनींदी आंखो से सारे सामान पर नज़र दौड़ाई तो ये क्या?... जो देखा...देखकर गश खा गया मैं। सब कुछ बिखरा-बिखरा सा था। न कहीं टी.वी नज़र आ रहा था और न ही कहीं फ्रिज और होम थिएटर। हैंडीकैम का कहीं अता- पता नहीं था। कायदे से तो हर चीज़ दुगनी - दुगनी होनी चाहिए थी मेरे यहाँ लेकिन यहां तो इकलौता पीस भी नदारद था।देखा तो तिज़ोरी खुली पड़ी थी। कैश...गहने...कपड़े-लत्ते..क्रैडिट कार्ड...कुछ भी तो नहीं बचा था। सब का सब गायब हो चुका था। मैंने बाहर जाकर इधर - उधर नज़र दौड़ाई तो कहीं दूर तक कोई नज़र नहीं आया। कोई स्साला मेरे सारे माल पर हाथ साफ कर चुका था। मैं ज़ोर- ज़ोर से दहाड़मार - मार कर रोने लगा..."मैँ लुट गया...मैँ बरबाद हो गया"...भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी।
सबको अपना दुखड़ा बता ही रहा था कि शर्मा जी की आवाज़ आई..."क्यों अपने साथ- साथ सबका दिमाग भी खराब कर रहे हो बेफिजूल में?....रात को सारा सामान खुद ही तो लाद रहे थे ट्रक में और अब चोरी का ड्रामा कर रहे हो"...
"मैंने अपनी आंखों से देखा और आपसे पूछा भी तो था कि यह आप क्या कर रहे हैं?...आपने तो उल्टा मुझे ही डपट दिया था कि मैं अपना काम करूं"...
रेडियो स्टेशन से पता किया तो मालूम हुआ कि इनाम पाने वालों की लिस्ट में मेरा नाम ही नहीं था। अब लगने लगा था कि वह सैंटा ही एक नम्बर का झूठा था। किसी तरीके से मेरा नम्बर पता लगा लिया होगा उसने। शायद!...हिप्नोटाइज़ कर वो कमीना... चूना लगा गया मुझे। अब तो यही एक आखिरी उम्मीद बची कि शायद वह हरामज़ादा...अपना वादा निभाए और अगले साल फिर वापस आए। एक बार मिल तो जाए कम्बख्त...फिर बताता हूं कि कैसे सम्मोहित किया जाता है ? बस!...इसी आस में कि वह आएगा ज़रूर...मैं S.M.S पे S.M.S  किए जा रहा हूं कि एक बार वो हाथ आ जाए सही...फिर होणगियाँ साड्डियाँ मौजाँ ही मौजाँ
***राजीव तनेजा***
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बच्चन जी..आप पहले सही थे या अब गलत हैँ?-राजीव तनेजा

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आदरणीय बच्चन जी,

चरण स्पर्श, मैँ राजीव...दिल वालों की नगरी..दिल्ली से...आपका एक अदना सा प्रशंसक.... वैसे तो सुबह से लेकर रात तक मेरी दिनचर्या कुछ ऐसी है कि मैँ हर समय किसी ना किसी काम में अत्यंत व्यस्त रहता हूँ...फालतू बातों के लिए मेरे पास ज़रा सा भी वक्त नहीं..इनके बारे में सोचना तो जैसे मेरे लिए गुनाह है...पाप है...यकीन मानिए... मेरे पास ज़हर खाने तक के लिए भी फुरसत नहीं है...इतना बिज़ी होने के बावजूद आज मुझे  आपको ये पत्र लिखने पर बाध्य होना पड़ा...इसी से आप समझ जाएँगे कि मामला कितना संगीन एवं  माहौल कितना गमगीन है?..

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अभी कुछ दिन पहले दुर्भाग्य से मुझे आपकी नई फिल्म 'पा' देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ....दुर्भाग्य इसलिए नहीं कि मुझे आपकी अदाकारी पसन्द नहीं या आपके द्वारा निभाया गया किरदार अच्छा नहीं था ...बल्कि इसलिए कि...

एक मिनट!...क्यों ना पहले सौभाग्य वाली बात कर ली जाए?...वैसे भी सुख के बाद अगर दुख के दर्शन हों तो ज़ोर का झटका धीरे से लगता है...आपने ही किसी ऐड में ऐसा कहा था....क्यों?...सही कहा ना मैँने?.. ठीक है!..तो फिर बात करते हैँ शुरू से...शुरूआत से..

तो मैँ ये कहना चाहता हूँ कि जब से मैँने होश संभाला है...खुद को आप ही की फिल्में देख-देख कर 3 फुटिए से 6 फुटिया होता पाया है..कभी आपकी ऐंग्री यंगमैन की गुस्सैल छवि ने मुझमें आक्रोश भर दिया...तो कभी आपकी धीर-गम्भीर आवाज़ ने मुझ पर अपना जादू चलाया...कभी आपकी मनमोहक नृत्य शैली को देख मैँ मस्त हो झूमने लगा ...तो कभी आपकी बेहतरीन संवाद अदायगी ने मुझे आपके मोहजाल से मुक्त नहीं होने दिया...कभी मार्मिक दृष्यों पर आपकी गहरी पकड़ ने मुझे जी भर के रुलाया है ...तो कभी आपकी कामेडी देखकर मैँ पेट पकड़ कर हँसते हुए खूब लोटपोट भी हुआ हूँ..याने के आपकी अदाकारी में वो सब है जो एक आम दर्शक को चाहिए

आपकी एक-एक फिल्म को मैँने पाँच-पाँच बार देखा है और कुछ एक तो शायद इससे भी ज़्यादा बार...यहाँ ये बताना मैँ ज़रूरी समझता हूँ कि आपकी इन फिल्मों को मैँने अपना पेट काट-काट कर दिया है...जी हाँ!...पेट काट-काट कर...चौंकिए मत... आज से पच्चीस-छब्बीस साल पहले जब मुझे जेब खर्च के रूप में हर महीने मात्र दस रुपए मिला करते थे और मैँ बावला उससे लंच टाईम में कुछ खरीद कर खाने के बजाए उसे महज़ इसलिए बचा कर रखता था कि आपकी रिलीज़ होने वाली नई फिल्मों में...बड़े पर्दे पर...रुबरू आपको देख...खुद को निहाल कर सकूँ...'कुली'...'शहंशाह'...'मर्द' और 'लावारिस' तो आपकी ऐसी कालजयी फिल्में हैँ जिन्हें मैँ कभी नहीं भूल सकता.... आज की तारीख में मेरे पास आपकी लगभग सभी फिल्मों की 'वी.सी.डी' या फिर 'डी.वी.डी' का कलैक्शन है...जिसे मैँने बहुत ही प्यार से अपनी आने वाली पीढियों के लिए सहेज कर रखा हुआ है...

आप शुरू से ही मेरे नायक रहे...मेरे क्या?...पूरे देश के...जन-जन के नायक रहे..शायद!...इसीलिए हम नालायक रहे....जी हाँ!..आप ही की वजह से मैँ क्या?...मेरे जैसे बहुतेरे  लोग अच्छे-भले अक्लमन्द  होते भी सिर्फ नालायक बन कर रह गए...वजह?...वजह पूछ रहे हैँ आप?...हमसे क्या पूछते हैँ जनाब?...खुद अपने दिल से...अपने गिरेबाँ में हाथ डाल कर स्वंय से पूछिए...अपनी कामयाबी का और हमारी बरबादी का आपको अपने आप जवाब मिल जाएगा....

आप भली भांति जानते हैँ कि आपके स्वर्णिम काल में हम युवाओं में आपके प्रति दीवनगी कितनी ज़्यादा थी?.. आपकी फिल्मों को देखने के लिए हमने कई बार स्कूलों से बंक किया है  तो कई बार बिमारी का झूठा बहाना बना वहाँ से खिसके भी हैँ...इस चक्कर में कई मर्तबा हम अपने अभिभावकों से और उससे भी कहीं ज़्यादा बार अपने अध्यापकों से पिटे हैँ लेकिन यकीन मानिए इतनी सब दुविधाओं...इतनी भर्त्सनाओं के बावजूद हमने आपका साथ नहीं छोड़ा...आज इतने सालों बाद भी हमें वो दिन याद आते हैँ जब आपकी फिल्मों के फर्स्ट डे...फर्स्ट शो की टिकट हासिल करने के लिए हम दोस्तों में शर्तें लगा करती थी...और उन शर्तों में जीतने के लिए हम अपना खून-पसीना एक कर दिया करते थे...आपकी फिल्मों के टिकटों को हासिल करने के दौरान होने वाली हाथापाई और धक्का-मुक्की में कई बार हमने चोटें भी खाई हैँ और कपड़े भी फटवाए हैँ...लेकिन यकीन मानिए आज इतने सालों बाद भी हमें अपने किए पर कोई ग्लानि नहीं है...कोई पश्चाताप नहीं है....

आप सोचेंगे कि इसमें नया क्या है?..ऐसा तो आपके सभी प्रशंसक करते हैँ...कुछ एक तो अपनी दीवानगी के चलते हद से आगे बढकर अपने खून से आपको खत लिखा करते हैँ....यकीन मानिए मैँ उन बुज़दिलों में से नहीं हूँ जो आपको प्रभावित करने के लिए भावुक हो खुद अपनी ही कलाई बेरहमी से रेत डालते हैँ...अगर मुझ में...मेरी बात में...मेरी लेखनी में दम होगा तो आप खुद बा खुद मेरी तरफ खिंचे चले आएँगे...ऐसा मेरा विश्वास है...इसके लिए मुझे किसी टोने-टोटके या फिर झाड़-फूंक की ज़रूरत नहीं है।

कुली की शूटिंग के वक्त जब आपको चोट लगी तो मेरा दिल ही जानता है कि रात-रात भर जाग-जाग के मैँ कितना रोया हूँ...यूँ समझ लीजिए कि आप और मैँ दो जिस्म एक जान हैँ...

  • आपको मामूली सी छींक भी आ जाती है तो विक्स इन्हेलर मैँ सूँघने लगता हूँ...
  • आप ज़रा से खुश होते हैँ तो किलकारियाँ मैँ मारने लगता हूँ...
  • आप ज़रा सी दौड़ लगाते हैँ तो हाँफने मैँ लगता हूँ..
  • आप ज़रा से दुखी होती हैँ तो आँसू मेरे टपकने लगते हैँ...

आपका मुझ पर कितना असर है ये आप इस बात से समझ जाएँगे कि जब आप कहते हैँ कि फलाना 'च्यवनप्राश' बढिया है तो मेरे स्वादानुसार ना होने के बावजूद भी मैँ उसकी दर्ज़नों डिब्बियाँ खरीद डालता हूँ ...जब आप कहते हैँ 'दो बूंद ज़िन्दगी की' तो मैँ पोलियो बूथ की लाईनों में सबसे आगे धक्का-मुक्की करता नज़र आता हूँ ...जब आप कहते हैँ कि फलानी 'चॉकलेट' ...फलाना 'चूरण' बढिया है तो मैँ आँखें मूंद कर उन्हीं का सेवन करने लगता हूँ...जब आप कहते हैँ कि फलाना...फलाना 'तेल' बहुत ही बढिया है तो मैँ कंपकंपाती सर्दी के मौसम में भी 'ठण्डा-ठण्डा...कूल-कूल' होने को उतावला हो उठता हूँ...जब आप किसी स्पैशल 'बॉम' का जिक्र करते हैँ तो चोट ना लगने के बावजूद भी मैँ घंटॉं तक उसकी मालिश करवाता फिरता हूँ ...इसलिए नहीं कि ये सब करना मुझे पसन्द है बल्कि इसलिए कि ऐसा करने के लिए आप मुझसे...सारे आवाम से कहते हैँ...आप कहें और मैँ ना मानूँ?...ऐसा हरजाई  नहीं ..बस गिला है इतना कि आपको अब तक मेरी याद आई नहीं

  
    अब बात करते हैँ आपकी कुछ फिल्मों की...तो  'कुली'...'लावारिस'...'मर्द' और 'शहंशाह' जैसी आपकी कॉलजयी फिल्मों ने मुझे इतना कुछ दिया है...इतना कुछ दिया है कि मैँ उसका शब्दों में ब्यान नहीं कर सकता...यूँ समझ लीजिए कि मेरी 'जीवन संगिनी' से लेकर मेरा 'घर-बार'...सब आपका...आप ही की फिल्मों का दिया हुआ है...जी हाँ!...आप ही की फिल्मों का...चौंकिए मत!...ये सब कह कर मैँ आप पर कोई तोहमत या इल्ज़ाम नहीं लगा रहा हूँ और ना ही आपको सर पर चढा रहा हूँ...मैँ तो बस सिम्पल सी आपकी ..थोड़ी सी तारीफ कर रहा हूँ...बिना लाईन में लगे आप ही की फिल्मों के टिकट दिला-दिला कर मैँने उसे पटाया था...तो ये आपका  मुझ पर कर्ज़ हुआ कि नहीं?...

12coolie'कुली' फिल्म में आपने  ज़बरदस्ती कुलियों को 'ओम शिवपुरी' के घर पर कब्ज़ा करने के लिए प्रोत्साहित किया तो मैँ खुशी से पागल हो उठा.... rht4yt'लावारिस' में जब आपने गरीब झोपड़पट्टी वालों के 'जीवन' के मकान में जबरन प्रवेश को जायज़ ठहराया...तो मेरा हौंसला लाख गुना बढ गया....OLYMPUS DIGITAL CAMERA         'शहंशाह' में फिर से आपने 'अमरीश पुरी' के बँगले में झुग्गी-झोंपड़ी वालों से तोड़-फोड़ करवाई तो मेरे अन्दर का मर्द जाग उठा...और फिर rergeg'मर्द' में जब आपने 'प्रेम चोपड़ा' के हवेलीनुमा बँगले को तहस-नहस करवाया...तो खुशी के मारे मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा...आपके इन्हीं कृत्यों से प्रेरणा पाकर मैँने भी दिल्ली के पॉश इलाकों में अपना तंबू लहराया..नतीजन!..आज दिल्ली की विभिन्न 'जे.जे.कालोनियों' में मेरे दर्जनों बेनामी प्लॉट हैँ....इसके लिए मैँ सदा से आपका ऋणी हूँ...और रहूँगा ...

लेकिन अब ये आपकी समझ को क्या होता जा रहा है?...कहीं सठिया तो नहीं गए हैँ आप?...मुझे एक बात समझ नहीं आती कि जिन कृत्यों को आपने अपनी जवानी के दिनों में जायज़ एवं सही ठहराया था...अब वो अचानक आपके बुढापे में आते-आते गलत कैसे हो गए?...नहीं समझे?... ये 'पा' फिल्म आपने बनाई है कि नहीं?... बनाई है ना?...तो फिर?... अपने ही किए को इतनी आसानी से कैसे उलट दिया आपने?... एक तरफ अपनी पुरानी फिल्मों के जरिए आप पब्लिक से कहते फिरते हैँ कि "घुस जाओ...भिड़ जाओ..बेधड़क हो के दूसरों की दुकानों में ...मकानों में क्योंकि राम नाम जपना है और पराया माल अपना है"... और दूसरी तरफ आज के माहौल में आप अपनी ताज़ातरीन फिल्म 'पा' के जरिए अपने बेटे के मुखारविन्द से ये क्या अंट-शंट बकवाते हैँ कि..."ये सब सही नहीं है...गलत है...कानूनन जुर्म है?"...

मुआफ कीजिएगा...आप बेशक अपनी जगह लाख सही होंगे लेकिन मुझे आपका ये दोगलापन कतई रास नहीं आया..पसन्द आना तो दूर की बात है...अगर ये सब सही नहीं था तो पहले इसे क्यों जायज़ ठहराया गया?...और अगर ये सब सही था तो अब क्यों इसे गलत करार दिया जा रहा है? ...इसे आपका मौका देख गिरगिट की तरह रंग बदलना नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे?"...

               मेरा दिल कहता है कि इसमें आपकी कोई गलती नहीं...सब टाईम का कसूर है लेकिन दिमाग कहता है कि आप थाली के उस बैंगन की तरह है जो जिस तरफ ढाल देखता है...उस तरफ ही लुड़क लेता है...पहले भी आप अच्छी तरह जानते थे कि तब आम लोगों के पास मनोरंजन के साधन के नाम पर 'दूरदर्शन'...'रेडियो' और 'सिनेमा' के अलावा कुछ नहीं होता था और इनमें भी 'सिनेमा' के सबसे उत्तम होने की वजह से उसे ही खूब देखा जाता था...बार-बार देखा जाता था...आप अच्छी तरह जानते थे कि उस वक्त फिल्मों को हिट करवाने में समाज के गरीब और निचले तबके  का सबसे बड़ा हाथ होता था...इसीलिए उन्हीं को लेकर कहानियाँ लिखी जाती थी..उन्हीं की तरह के पात्रों का चयन किया जाता था...आप इस सच को झुठला नहीं सकते कि तब आपने उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर अपना उल्लू सीधा किया...

आज की तारीख में भी आप भली भांति जानते हैँ कि हमारे पास मनोंजन के साधनों के नाम पर 'मोबाईल'...'इंटरनैट'... और  'टी.वी चैनलों' की भरमार के अलावा और भी बहुत कुछ है जिनसे खुद को ऐंटरटेन किया जा सके....अब चूंकि मनोरंजन के मायने और साधन दोनों बदल गए हैँ तो आपने भी अपना रंग...अपना चोला बदल डाला?...

उफ!...मैँने आपको क्या समझा? और आप क्या निकले?...वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि मैँने हमेशा ही आपको गरीबों का हमदर्द...उनका मसीहा समझा था..

शिट!..कितना गलत था मैँ?

ये मैँ भी भली भांति जानता हूँ और आप भी अच्छी तरह जानते हैँ कि मैँ सब कुछ जानता हूँ...ना!...अब भोले बनकर ये बिलकुल मत कहिएगा कि आपको मालुम नहीं कि  'मल्टीप्लैक्सों' में औसतन एक टिकट कितने की है?...या फिर हमारे देश में मनोरंजन के लिए कितने 'एफ.एम. चैनल'...कितने 'टी.वी' चैनल उपलब्ध हैँ?...आप अच्छी तरह जानते हैँ कि एक  आम मध्यम वर्गीय आदमी कभी सपने में भी अपने पल्ले से किसी मल्टीप्लैक्स की टिकट खरीद कर फिल्म देखने की सोच भी नहीं सकता है...तो फिर गरीब आदमी की तो औकात ही क्या है?...इसीलिए आपने अपनी पिछली सारी फिल्मों से उलट 'पा' में नई थ्योरी को जन्म दिया ना?..आप अच्छी तरह जानते हैँ कि मल्टीप्लैक्स में टिकट खरीदना केवल उन्हीं अमीरज़ादों के बस की बात है जिनका ताज़ा-ताज़ा बाप मरा हो...इसीलिए इस बार आपने गरीबों को नहीं बल्कि अमीरों के यहाँ अपना ठौर-ठिकाना बनाया...क्यों?...सही कहा ना मैँने?

मेरे ख्याल से अब तक आपको ज़ोर का झटका धीरे से लग चुका होगा...इसलिए सारी बात को यही विराम देते हुए मैँ बस आपसे एक आखिरी सवाल पूछता हूँ कि... "बच्चन जी,आप पहले सही थे या अब गलत हैँ?...

फिलहाल इतना ही...बाकी फिर कभी...

विनीत:

सदा से आपका 'राजीव तनेजा'

rajivtaneja2004@gmail.com

http://hansteraho.blogspot.com

+919810821361

+919213766753

+919136159706

चंपू...ओए...ओए चंपू

 guddu123

 

हैलो!..इस इट 9136159706?"..

"यैस!...मे आई नो..हूज़ ऑन दा लाईन?"...

"आप 'लव गुरू' बोल रहे हैँ?"...

"यैस!..'लव गुरू' स्पीकिंग...आप कौन?"...

"मैँ ...गुड्डू...सोनीपत से"...

"हाँ जी!..गुड्डू जी....कहिए....मैँ आपकी क्या खिदमत कर सकता हूँ?"...

"मुझे एक लड़की से प्यार हो गया है"...

"गुड!...ये तो बड़ी अच्छी बात है"...

"जी!...लेकिन पापा कहते हैँ कि...

"अभी तो तेरे खेलने-कूदने के दिन हैँ...इसलिए अभी से इन चक्करों में पड़ना ठीक नहीं?"...

"जी"...

"आपकी उम्र कितनी है?"...

"जी!..उम्र तो कुछ खास नहीं है लेकिन...

"वैसे आप बालिग तो हैँ ना?"...

"जी!...बालिग तो मैँ इतना हूँ....इतना हूँ कि...

"बस-बस!...मैँ समझ गया"....

"तो फिर आप ही बताएँ कि मैँ क्या करूँ?"...

"अगर आप शारिरिक...मानसिक और दिमागी तौर पर बालिग हैँ तो कोई भी 'माई का लाल' आपको प्यार करने से नहीं रोक सकता"...

"लेकिन उनका नाम तो गोपाल है"...

"किनका?"....

"मेरे पापा का"...

"ओह!...

"वो कहते हैँ कि...

"अगर उन्हीं का कहा मानना है तो फिर मुझे क्यों फोन किया है?...उन्हीं की बात मानो"मेरा कुछ-कुछ खुन्दक भरा स्वर ...

"लेकिन....

"तुम्हारा अच्छा-भला...सब सोच के ही तो उन्होंने ऐसा कहा होगा"...

"जी!..कहा तो है लेकिन...

"पिता हैँ तुम्हारे...गलत राय थोड़े ही देंगे...अपना...अच्छे बच्चों की तरह उन्हीं की बात मानो"....

"जी!...मानने को तो मैँ उनकी सारी बातें मान लूँ लेकिन कोई ढंग की बात करें...तब तो"...

"क्यों?...क्या हुआ?"...

"खुद तो शर्मा आँटी को रोज़ ...दे फोन पे फोन कर के उनका माथा खराब किए रहते हैँ और मुझे कहते रहते हैँ कि ये ना करो...वो ना करो"...

"ओह!...कुछ सोच के ही ऐसा कहते होंगे"....

"हुँह!...सोचते होंगे..अगर सोचते होते तो आज मैँ छड़ा-छाँट नहीं बल्कि दो-चार हट्टे-कट्टे..तंदुरस्त बच्चों का बाप होता"...

"ओह!..तो फिर तुम एक काम क्यों नहीं करते?"...

"क्या?"...

"एक दिन ले जा के सीधा...डाईरैक्ट उसे अपने पिताजी के सामने पेश कर दो"...

"दिमाग खराब नहीं है मेरा"....

"क्यों?...क्या हुआ?"...

"इस शर्मा आँटी को भी तो मैँने ही मिलवाया था उनसे"...

"तो?"...

"कम्बख्त ने मेरा नम्बर काट...खुद ही उन्हें लाईन मारना शुरू कर दिया"...

"जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो दूसरे को दोष देने से फायदा?"...

"क्या मतलब?"...

"इस सब के लिए आप अपने पिताजी को क्यों कोस रहे हैँ?...इसमें उनकी गलती ही क्या है?...उन्होंने पहल थोड़े ही की थी?"...

"हाँ-हाँ!...कोई गलती नहीं है लेकिन इतनी समझ तो होनी चाहिए ना हमारे बुज़ुर्गों में कि बच्चों के माल पे हाथ साफ ना करें"...

"ओह!...तो फिर तुम भाग के शादी क्यूँ नहीं कर लेते उसके साथ?"...

"शर्मा आँटी के साथ?"...

"नहीं!..वो तो तुम्हारे पिताजी के साथ ऐंगेजड है ना?"...

"ऐंगेज्ड तो यार!...वो पता नहीं कितनों के साथ है?...लेकिन टू बी फ्रैंक...मेरे पिताजी का खास ख्याल रखती है"...

"ओह!...

"वैसे आप मुझे किसके साथ शादी करने के लिए कह रहे थे?"...

"जिससे तुम प्यार करते हो...उसी के साथ...और किसके साथ?"...

"शादी तो उससे मैँ अभी कर लूँ...एक मिनट में कर लूँ लेकिन...

"पापा मानें तब ना?"....

"नहीं!...’पम्मी’ माने..तब ना"...

"अब ये 'पम्मी' कौन?"...

"मेरी मम्मी"...

"ओह!...उन्हें क्या प्राबल्म है?"...

"यही कि लड़की उनकी जात-बिरादरी की नहीं है"...

"ओह!...

"उन्हें तो मैँ अपने प्यार का...अपने होने वाले नौनिहालों का वास्ता देकर किसी तरह मना भी लूँ लेकिन...

"लेकिन क्या?"...

"पापा भी मानें ...तब ना"...

"अरे!..पापा को भेजो तेल लेने और जैसा मैँने कहा...वैसा अमल में लाओ ...फिर देखो...तुम्हारे जीवन में खुशियाँ ही खुशियाँ होंगी...ये 'लव गुरू' का वादा है तुमसे"....

"लेकिन पापा...

"ओफ्फो!...की पापा-पापा ला रक्ख्या ए?...वड़न दे ओहणाँ नूँ ढट्ठे खू विच्च....तूँ अपणा मौज लै"...

(पापा जाए भाड़ में...तुम अपना मौज लो"...

"क्क्या मतलब?"...

"दिमाग से नहीं..दिल से सोचिए जनाब...दिल से"....

"लेकिन...

"तुम ये लेकिन-वेकिन की चिंता छोड़ो और एक काम करो"...

"क्या?"...

"उन्हें सीधा मेरे पास भेज दो"....

"आपके पास?...आप उनका क्या करेंगे?"गुड्डू का असमंजस भरा शंकित सा स्वर

"चुम्मी लूँगा...तुमसे मतलब?"...

"ओह!...नो...आप भी?"...

"क्क्या?...क्या मतलब?...मतलब क्या है तुम्हारा?"...

"कहीं आप भी मेरे फिरंगी दोस्त की तरह...व्वो तो नहीं?"...गुड्डू अविश्वास भरे स्वर में बोला

"पागल हो गए हो क्या?...मेरे जैसे डीसैंट और आज़ाद ख्याल वाले बन्दे के बारे में तुमने ऐसा सोच भी कैसे लिया?"... ....

"अभी आप ही ने तो कहा कि ...

"क्या?"...

"यही कि अपने पापा को मेरे पास भेजो?"...

"तो?"...

"मैँने सोचा कि...

"वाह!...वाह-वाह...बहुत खूब सोचा तुमने...सदके जाऊँ तुम्हारी इस दकियानूसी सोच के"...

?...?...?...?...?...

"अरे बेवाकूफ!...ऐसा तो मैँने इसलिए कहा था कि मैँ उन्हें यूँ..यूँ चुटकियों में समझा सकूँ"

"ओह!...लेकिन मेरे पापा बड़े ज़िद्दी हैँ...ऐसे चुटकी बजाने से तो बिलकुल नहीं मानेंगे"गुड्डू चुटकी बजा कुछ सोचता हुआ बोला...

"बाप का माल समझ रखा है क्या?...ऐसे-कैसे नहीं मानेंगे?"...

"आप उन्हें जानते नहीं हैँ"...

"बेटा जी!..जानते तो ठीक से  तुम भी मुझे नहीं हो...इसलिए ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो"...

"उन्हें समझाना बड़ी ही टेढी खीर है"..

"अगर वो टेढी खीर हैँ तो मैँ भी कम घाघ नहीं हूँ"...

"क्या मतलब?"...

"ये ऑल इंडिया फेमस 'लव गुरू' तो अच्छे-अच्छे ब्रह्मचारियों  को ठोक-पीट के पक्का ग्रहस्थ बना चुका है...तुम्हारा बाप किस खेत की मूली है?"...

"बझघेड़ा की"....

"क्या मतलब?"...

"वही तो हमारा गाँव है"...

"तुम...तुम बझघेड़ा के हैँ?"...

"जी...खालिस बझघेड़ा का बाशिन्दा हूँ"...

"फिर तो तुम्हारा काम करना ही पड़ेगा...बझघेड़ा में मेरा चचिया ससुर रहता है"...

"चचिया ससुर?"....

"जी!...चचिया ससुर"...

"कहीं आप रामदित्ता बागला के बेटे तो नहीं?"..

"जी!...जी हाँ...मैँ उन्हीं का बेटा हूँ"...

"तो फिर आप दिल्ली में क्या कर रहे हैँ?....आपको तो पानीपत में होना चाहिए...वहीं तो रहते हैँ ना आप?"...

"रहता हूँ ..नहीं...रहता था"...

"ओह!...

"पिछले एक साल से मैँ दिल्ली में ही शिफ्ट हो गया हूँ"....

"कोई खास वजह?"...

"कुछ नहीं!...बस ऐसे ही...पानीपत की 'आब औ हवा' रास नहीं आ रही थी"...

"ओह!...इण्डस्ट्रीयल एसटेट होने की वजह से वहाँ भी पाल्यूशन काफी बढ गया है ना?"...

"जी"...

"लेकिन पाल्यूशन तो दिल्ली में भी कम नहीं है...पानीपत से तो कुछ क्या?...काफी  ज़्यादा होगा"...

"जी!...लेकिन दिल्ली जैसे बड़े शहर में रहने की जो साहूलियतें हैँ वैसी पानीपत जैसी छोटी टाउनशिप में कहाँ?"...

"जी!...ये तो है"...

"जी!...

"तो फिर काम-धन्धा वगैरा?"...

"वो भी अब यहीं...दिल्ली में ही सैट कर लिया है"....

"लेकिन पानीपत में तो आपका काफी पुराना...जमा जमाया काम था ना?"..

"जी!...पूरे पैंतीस साल पुराना ठिय्या था"...

"उसे बन्द क्यों कर दिया?"...

"बस!...ऐसे ही"...

"ऐसे ही?...कोई तो वजह रही होगी"...

"गुड्डू जी!...जान है तो जहान है..जान से बढकर कुछ नहीं होता"...

"जी!...ये बात तो सच है लेकिन ऐसा क्या हुआ रातों-रात कि आपने शहर ही छोड़ दिया?"...

"रातों-रात नहीं...पिछले तीन-चार सालों से कुछ गुंडे-बदमाश टाईप के लौण्डे-लपाड़े बेकार में हफ्ता वसूली के नाम पे रोज़ाना तंग कर आ जाते थे दुकान पर"...

"उन्हीं के डर से आपने पानीपत छोड़ दिया?"...

"जी"...

"आप एक बार मुझे फोन कर के तो देखते"....

"उससे क्या होता?"...

"क्या होता?...आपने पानीपत के खास बदमाश 'शंटी' -दा शार्प शूटर का नाम तो सुना ही होगा?"...

"जी!..कई बार...उसी ने तो...

"उसके साथ मेरा बरसों पुराना याराना है"....

"क्क्या?....श्शंटी?...शंटी के साथ?"...

"जी हाँ!...मेरा खास...लंगोटिया यार है"...

"ओह!...उसी के चेले-चपाटे तो मुझे परेशान करते थे"...

"आपने मुझे पहले क्यों नहीं बताया?..स्साले!...को वहीं आपके आगे नाक ना रगड़वा देता तो मेरा भी नाम गुड्डू नहीं"....

"आप एक बार उसके आगे मेरा नाम ले देते तो पंगा लेना तो दूर की बात है...वो आपसे बेफाल्तू की चूँ चपड़ तक करने की जुर्रत नहीं करता"...

"अब तो यार मैँ दिल्ली सैटल हो गया हूँ....इसलिए अब कोई दिक्कत नहीं"...

"दिल्ली का भी कोई काम हो तो बेहिचक कहिएगा...उसके दिल्ली में भी कई लिंक हैँ"...

"दिल्ली में तो मेरे भी कई लिंक हैँ लेकिन ऐसे झमेलों से जितना दूर रहा जाए...उतना अच्छा है"....

"जी!...ये बात तो है...इनकी दोस्ती भी बुरी है और दुश्मनी भी"...

"जी!...ये बातें तो खैर चलती ही रहेंगी..तुम ये बताओ कि कब भेज रहे हो?"...

"किसे?"...

"अपने पिताजी को"...

"किसलिए?"..

"तुम्हारी शादी के लिए उन्हें मनाना है कि नहीं?"...

"लेकिन कैसे?...कैसे आप उन्हें मनाएँगे?...वो तो बड़े ही ज़िद्दी"...

"कैसे क्या?...अभी कुछ देर पहले कहा ना कि...ठोक-पीट के"....

?...?...?...?...

"एक बार की बात सुनो"...

"जी"...

"एक सेठ दुनीचन्द जी थे बिजनौर वाले...उनका मंझला बेटा अड़ के खड़ा हो गया कि आजीवन कुँवारा रहूँगा...शादी नहीं करूँगा"...

"ओह!...

"उसकी शादी हो...तब तो निचले का नम्बर आए"...

"जी!...

"वो बेचारा...प्यार में पागल...दौड़ा-दौड़ा मेरे पास आया कि....

"इतनी दूर...'बिजनौर' से दौड़ा-दौड़ा?...लेकिन कैसे?"....

"नहीं रे...ऐसा भी भला कहीं सचमुच में होता है कि कोई बावला हांफ-हांफ के मैराथन दौड़ लगाता हुआ सीधा बिजनौर से दिल्ली तक चला आए ?"...

"तो फिर?"...

"ऐसा कहा जाता है"...

"ओह!...फिर क्या हुआ?"...

"होना क्या था?...उसका फोन आया और उसने अपनी समस्या बताई"...

"ओ.के...फिर क्या हुआ?"...

"पट्ठे को ऐसी घुट्टी पिलाई कि आज दो हट्टे-कट्टे तन्दुरस्त बच्चों का इकलौता बाप है.....

"लेकिन फोन पे तो आपने दुनीचन्द जी के सबसे छोटे बेटे को घुट्टी पिलाई थी ना?"...

"हाँ"...

"एक मिनट!...लैट मी कैल्कूलेट...आपने घुट्टी...छोटे वाले भाई को पिलाई?"गुड्डू अपने दिमाग पे ज़ोर डाल हिसाब लगाता हुआ बोला...

"जी"...

"और बच्चे मँझले के यहाँ पैदा हुए....लेकिन कैसे?"..

"ये तुमसे किस गधे ने कह दिया कि बच्चे मँझले भाई के यहाँ पैदा हुए थे?...वो तो...

"अभी आपने ही तो...

"मैँ कब कहा कि मँझले ने जोश में होश गंवा के ज़ोर मारा था?"...

"तो फिर आप किसकी बात कर रहे थे?"...

"सबसे छोटे भाई की...उसे ही तो मैँने घुट्टी पिलाई थी"...

"लेकिन शादी तो मँझले की करवानी थी ना?"...

"करवानी तो थी यार!...लेकिन उसने करी कहाँ?...पट्ठा लाख समझाने से भी माना नहीं"मैँ मायूस स्वर में बोला...

"ओह!...फिर क्या हुआ?"...

"होना क्या था?...जब देखा कि मँझला तो किसी भी कीमत पे मानने को तैयार नहीं तो छुटके को ही राय दे डाली कि इसकी चिंता छोड़ा तू खुद लावां-फेरे ले ले"...

"गुड!...ये आपने अच्छा किया"...

"जी"...

"चलो!...घुट्टी पिलाने का कुछ तो असर हुआ"...

"जी!....तो फिर कब भेज रहे हो?"..

"किसे?"...

"अपने बाप को"..

"किसलिए?"...

"घुट्टी नहीं पिलवानी?"....

"उन्हें किसलिए?...शादी तो मैँने करनी है"....

"अरे!...बेवाकूफ..अभी कुछ देर पहले तो तुम खुद ही कह रहे थे कि तुम्हारा बाप मानता नहीं है"...

"तो?"...

"उन्हें समझाऊँगा नहीं?"...

"आप उन्हें क्या समझाएँगे?"....

"ट्रेड सीक्रेट"....

"फिर भी...पता तो चले"...

"प्यार करना सिखाऊँगा"...

"लेकिन कैसे?"...

"कैसे?...क्या...जैसे सिखाया जाता है...वैसे"...

"लेकिन उनकी उम्र तो....

"अजी!...उम्र से क्या होता है?...गट्स होने चाहिए आप में...अगर आप में हुनर है...काबिलियत है..तो कोई भी मंज़िल..कैसी भी मंज़िल?...आपकी पहुच से...आपकी पकड़ से दूर नहीं होती"...

"आपकी बात बिलकुल सही है लेकिन....

"अब मुझ ही को लो...किसी भी ऐंगल से चालीस से कम का नहीं दिखता हूँ लेकिन लौंडिया छब्बीस की फँसा रखी है...हे...हे...हे......

"ओह!...लेकिन कैसे?"...

"कैसे क्या?...अभी कहा ना कि हुनर होना चाहिए"....

"लेकिन कैसा हुनर?...यही तो मैँ भी पूछ रहा हूँ"...

"अरे वाह!...ऐसे-कैसे बता दूँ?...पैसे लगते हैँ इसके"...

"पैसे तो मैँ दस...बीस...पचास...सौ...जितने कहो...उतने देने को तैयार हूँ लेकिन बस नोट मत माँग लेना...प्लीज़"...

"हें...हें...हें...वैरी फन्नी...तुम्हारे भी सैंस ऑफ ह्यूमर का जवाब नहीं"....

"थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट"....

"वैसे मैँ पैसों की नहीं बल्कि हज़ार रुपए के कड़कड़ाते हुए नोट की बात कर रहा था"मैँ पुन: मुद्दे पर आता हुआ बोला

"पूरे हज़ार रुपए लेता हूँ एक बार मशवरा देने के"...

"ओह!...लेकिन हज़ार रुपए तो फिलहाल मेरे पास है नहीं"गुड्डू अपना पर्स खंगालता हुआ बोला....

"तो क्या ऐसे ही कँगले चले हो प्यार करने?"...

"नहीं!...पैसे मेरे पास हमेशा हुआ करते थे लेकिन जब से उस कम्बख्त मारी से प्यार हुआ है....

"पैसे टिकते ही नहीं तुम्हारी जेब में?"...

"जी"...

"इसका मतलब ये है बरखुरदार कि तुम किसी नेक एवं शरीफज़ादी के नहीं बल्कि किसी निहायत ही चतुर...चालाक और तेज़तर्रार लड़की के प्यार में पागल हो रहे हो"...

"क्या आपकी डिक्शनरी में 'काईयां' वर्ड नहीं है?"...

"है तो सही लेकिन....

"लेकिन?"...

" महिलाओं के लिए उसका इस्तेमाल करना ठीक नहीं"...

"ओह!...

"उसका फोन तुम रिचार्ज करवाते हो?"...

"जी!...कभी-कभी"....

"कभी-कभी या फिर हमेशा?"...

"हमेशा"....

"और वो तुम्हारे बजाय किसी और से बातें करती है?"....

"जी!...कई बार मुझे भी ऐसा ही शक हुआ लेकिन...

"शक की तो कोई गुंजाईश ही नहीं है...मैँ 100 % श्योर हूँ कि वो ऐसा ही करती होगी"...

"ऐसा आप कैसे कह सकते हैँ?"...

"तजुर्बा...पूरे 19 साल का तजुर्बा है मुझे"...

"मोबाईल रिचार्ज करवाने का?"...

"नहीं!...उस समय मोबाईल होते ही कहाँ थे"...

"तो फिर?"...

"कईयों को मैँने आईसक्रीम खिलवाने से लेकर फिल्में तक दिखाई...कुछ को लेटस्ट डिज़ाईन के मँहगे वाले सूट तक सिलवा कर दिए"....

"इसमें कौन सी बड़ी बात है?...ये सब तो मैँ भी कर चुका हूँ लेकिन...

"कुछ एक को तो मैँने अण्डर गारमैंट्स से ले कर सैनेट्री नैपकिन तक दिलवाए लेकिन नतीजा...वही सिफर का सिफर"...

"क्या मतलब?"...

"आज की तारीख में दूसरों के बच्चों की माएँ बनी मज़े से ऐश कर रही हैँ"...

"ओह!...नो"...

"इसलिए मेरी बात मानो और उस लड़की से जितनी जल्दी हो सके...दूर हो जाओ"...

"लेकिन कैसे?...वो है ही इतनी क्यूट कि...

"बहारे और भी आएँगी तुम्हारे चमन में ...इसको छोड़... कोई और नई वाली ढूँढ लो...जो इससे भी ज़्यादा क्यूट और स्मार्ट हो"....

"कहना बहुत आसान है लेकिन जिसके दिल पर बीत रही हो...उससे पूछ के देखिए जनाब...उस से पूछ के देखिए...वो कहते हैँ ना कि...दिल आया गधी पे तो परी क्या चीज़ है?"....

"एक पुराने शायर भी तो कह गए हैँ कि...तू नहीं...और सही...और नहीं और सही"...

"अरे!...सालों तक...कई औरों के साथ मगजमारी और टाईम खोटी करने के बाद ही तो मैँने इसे फाईनल करा था और ये भी....

"ये भी?"...

"मेरे बजाय किसी और से प्यार करने लगी है"....

"क्या?...तुम तो कह रहे थे कि तुम इससे शादी करना चाहते हो"....

"मैँने कब इनकार किया?...वो कम्बख्तमारी पहले राज़ी तो हो"...

"ओह!...तो इसका मतलब इतनी देर से तुम ऐसे ही बेकार में...वेल्ले मेरा टाईम खोटी कर रहे थे?"...

"जी...म्मैँ तो...मैँ तो"...

"स्साले!...हकले....ये...मैँ तो...मैँ तो कर के क्या मिमिया रहा है?...पहले नहीं बता सकता था कि लड़की पट नहीं रही है"...

"ज्ज्जी!...ब्ब्बताना तो चाहता था मगर......

"मगर क्या?...मैँ ही तुझे घनचक्कर मिला था"...

"खबरदार!...जो आज के बाद कभी मुझे भी फोन किया तो"...

"ओ.के...बॉय"...

"बॉय?...बॉय से क्या मतलब?"...

"मैँ जा रहा हूँ"....

"कहाँ?"...

"तुमसे मतलब?...

"ऐसे-कैसे बिना केस को सुलझवाए तुम जा सकते हो?"...

"हाँ-हाँ...मैँ ही बुरा हूँ...मैँ ही सबसे बुरा हूँ...इस दुनिया में मेरा कोई काम नहीं.....मुझे जीने का कोई हक नहीं...मैँ जा रहा हूँ...हमेशा के लिए जा रहा हूँ...अलविदा...अलविदा ऐ दोस्तो"...

"रुको...रुको...प्लीज़...पागल मत बनो....ऐसे बिना बताए तुम कैसे जा सकते हो?"...

"रुको!...मैँ तुम्हारी समस्या का हल करने की कोशिश करता हूँ"...

"लेकिन कैसे?...वो तो....

"एक बात बताओ...तुम उसके साथ कहीं बाहर घूमने वगैरा भी गए हो?"...

"जी!..कई बार उसने कहा कि 'स्पलैश' वॉटर पार्क जाएँगे घूमने लेकिन...

"लेकिन ऐन मौके पे वो तुम्हें डिच कर के किसी दूसरे के साथ घूमने चली गई?"...

"जी"...

"मेरी बात मानो...वो तुमसे कोई प्यार-व्यार नहीं करती...तुम्हारा इस्तेमाल कर रही है वो...ऐसी घटिया ...नीच और बदज़ात लड़की तुम्हारे किसी काम की नहीं है...छोड़ दो उसे"...

"छोड़ दूँ?...मेरा तो मन करता है कि उस कमीने का मुँह तोड़ दूँ"...

"नहीं!...हाथ उठाना ठीक नहीं है"...

"मार-मार के उसका इतना बुरा हाल कर दूँ ....इतना बुरा हाल कर दूँ कि अगले सात जन्मों तक वो उससे बात करने की जुर्रत ना करे"....

"नहीं!...बिलकुल नहीं....दूसरों द्वारा की गई मूर्खता के चलते हम भी अपने होश गंवा बैठें...तो समझदार और बेवाकूफ में फर्क ही क्या रह जाएगा?....और फिर ऐसा करना हम जैसे प्रबुद्ध एवं गुणी विचारों से संपन्न इनसानों के लिए ठीक भी नहीं होगा"...

"ये ठीक नहीं होगा...वो ठीक नहीं होगा...तो फिर आप ही बताईए कि क्या ठीक होगा मेरे लिए?...कैसे मैँ निबटूं उस हराम.....

"शांत!...गदाधारी भीम...शांत...ऐसे कठोर एवं घ्रिणित शब्दों का तुम्हारी मखमली ज़बान से उच्चरित होना अच्छा नहीं लगता...विनम्रता...शर्म और लाज तो हम पुरुषों का गहना है... कोई और तरकीब सोचो उस नामुराद से निबटने की"...

"लातों के भूत बातों से कभी माने हैँ?...जो अब मानेंगे"...

"नहीं...यहाँ मैँ तुम्हारी इस बात से सहमत नहीं हूँ...नारी जाति मेरे लिए सर्वदा ही पूजनीय रही है...उसके साथ ऐसी हिंसा को कदापि बर्दाश्त नहीं कर सकता"....

"अरे!...उसकी बात नहीं कर रहा हूँ मैँ"...

"तो फिर तुम किसका मुँह तोड़ने की बात कर रहे थे?"...

"उसी कमीने का जिसने मेरी गर्ल फ्रैंड को बहकाया है...अपने जाल में फँसाया है"...

"तो फिर खड़े-खड़े सोच क्या रहे हो?...तुम्हारे लिंक तो बड़ी दूर-दूर तक फैले हुए हैँ...ठिकाने क्यों नहीं लगवा देते उस नामुराद को?"...

"जी!...लगवा तो दूँ लेकिन...

"लेकिन?"...

"लोग क्या कहेंगे कि एक निहत्थे पर वार कर उसे मरवा डाला?"...

"युद्ध और प्यार में सब कुछ जायज़ है मित्र...तुम 'साम'...'दाम'...'दण्ड' या 'भेद'...किसी को भी अपना कर अपने शत्रु को चित्त कर सकते हो...तुम्हें पूरी छूट है"..

"सब कुछ कर के देख लिया लेकिन वो कमीना है ही इतना शातिर कि....

"हर बार तुम्हारे दाव से बच कर निकल जाता है?"...

"जी"...

"एक अदना सा मोहरा भी तुमसे नहीं पीटा जाता तो तुम क्या खाक प्यार करोगे?"...

"अब यार...कई बार कोशिश कर तो ली लेकिन वो कमीना हर बार बच के निकल जाता है...मैँ क्या करूँ?"...

"अगर तुम्हारे बस का नहीं है तो यूँ ही हाथ पे हाथ धरे बैठे रहो...और मेरी राय मानो तो बाज़ार से चूड़ियाँ पहन लो"..

"चूड़ियाँ खरीद के पहन लूँ?"...

"हाँ!...खरीद के...छीनना तो तुम्हारे बस का है नहीं तो खरीदनी ही पड़ेंगी ना?"...

"क्या यार?...तुम भी...मैँ तो आशिकों का सच्चा हमदर्द समझ के आपको फोन किया था और आप हैँ कि मुझे ही निरुत्साहित करने पे तुले हैँ?"...

"निरुत्साहित नहीं करूँ तो और क्या करूँ?...तुम्हारी जगह अगर मैँ होता तो अब तक सामने वाले का थोबड़ा बीस बार तोड़ चुका होता"....

"तो मेरे लिए ये शुभ काम आप खुद ही...अपने कर-कमलों से क्यों नहीं कर देते?"...

"इनकार किसने किया है?...लेकिन पैसे लगते हैँ इस सब के"....

"पैसों से मैँने कब इनकार किया है?...पैसे तो दस...बीस...सौ...पचास जितने मर्ज़ी ले लें लेकिन रुपए...

"नॉट ए फन्नी जोक अगेन...मैँ मज़ाक के मूड में नहीं हूँ...अगर पाँच हज़ार रुपए खर्च कर सकते हो तो बताओ"...

"लेकिन काम तो हो जाएगा ना?"...

"तुम्हें शक है?"...

"नहीं!..शक तो नहीं लेकिन...

"उसके पिटे हुए थोबड़े की फोटो तुम्हारे इसी नम्बर पे 'एम.एम.एस' के जरिए भे दी जाएगी"...

"ओ.के"...

"लेकिन मेरे ICICI बैंक के खाते में पैसे तुम्हें ऐडवांस में जमा कराने होंगे"..

"मंज़ूर है"...

"ठीक है...तो फिर मेरा एकाउंट नम्बर नोट करो"...

"एक मिनट"गुड्डू पैन और पेपर सम्भालता हुआ बोला

"98564xxxxxxx"...

"कर लिया?"..

"जी"..

"अब मुझे उस हरामखोर का पता बताओ"...

"पता तो मुझे मालुम नहीं है"...

"क्या मतलब?"...

"वो स्साला मेरे डर के मारे बार-बार अपना पता-ठिकाना बदल लेता है"...

"उसका कोई फोन नम्बर?...कोई ई-मेल आई.डी वगैरा?...जिससे उसके बारे में मालुमात हो सके"...

"एक नम्बर है तो सही लेकिन आजकल चालू है कि नहीं...ये नहीं पता"...

"क्या मतलब?"...

"मेरे डर के मारे स्विच ऑफ रखने लग गया था"...

"ओह!..खैर...तुम नम्बर बताओ...मैँ पता लगाने की कोशिश करता हूँ"...

"जी"...

98963....

"ये तो पानीपत का नम्बर है"...

जी!...वो कमीना वहीं तो रहता है"...

"लेकिन वहाँ तो वो तुम्हारा तथाकथित लंगोटिया यार 'शंटी-दा शार्प शूटर रहता है ना...उसी को सुपारी दे देनी थी"...

"अरे!...उसे सुपारी क्या?...पान कत्था..तम्बाकू ...सब ला के दे दिया लेकिन कम्बख्त उसकी गिलौरी नहीं बना पाया"...

"ओह!...चिंता की कोई बात नहीं...मैँ हूँ ना"...

"तुम मुझे उसका नम्बर दो...मैँ ही कुछ ना कुछ करता हूँ"...

"जी!...उसका नम्बर है...

"एक मिनट"मैँ पैन और कॉपी सम्भालता हुआ बोला...

"हाँ!...अब बताओ"...

"9896397625"...

"नाईन एट नाईन सिक्स थ्री नाईन सैवन सिक्स टू फाईव?"...

"जी"...

"स्साले!...तूने मुझसे झूठ क्यों बोला?"...

"कसम से...यही नम्बर है...98963...

"मैँ नम्बर की बात नहीं कर रहा हूँ"...

"तो फिर?"...

"तुमने मुझ से झूठ क्यों बोला कि तुम्हारा नाम गुड्डू है?"...

"सच में...कसम से...म्रेरा नाम गुड्डू ही है...आप चाहें तो मेरी मम्मी से भी पूछ लें"...

"मम्मी जाए भाड़ में...ये पागल मुझे नहीं..किसी और को बनाईयो"....

"क्क्या मतलब?"...

"तुम्हारा नाम 'चंपू' नहीं है?"...

"चंपू'?...नहीं तो"गुड्डू का अकबकाया सा जवाब

"स्साले!...हरामखोर...वो 'चिंकी' तेरे को नहीं तो क्या अपने बाप को 'चंपू'...ओए...ओए चंपू' कह के बुलाती थी?"...

"य्ये...ये आपसे किसने कह दिया?"...

"तेरी माँ ने"...

"क्क्या मतलब?"...

"स्साले!...मुझे खुद चिंकी ने बताया है"...

"क्या?"...

"यही कि तेरा नाम..  'चंपू'...ओए...ओए चंपू' है"...

"क्क्या?...क्या बकवास कर रहे हो?"...

"स्साले!...अपने जिस अवैध बाप को मारने की सुपारी तू मुझे दे रहा था ना...वो कोई और नहीं...मैँ खुद हूँ"...

"क्या?"...
"हाँ!..स्साले...ध्यान से सुन...उसका वो आशिक भी मैँ ही हूँ जो उसके साथ 'स्पलैश' वाटर पार्क में मस्ती करने गया था"...

"क्या?...क्या कह रहे हो तुम?"...

"और वो मनमोहिनी सूरत वाला शक्स भी मैँ ही हूँ जिससे बात करने के लिए वो तुझ से अपना फोन रिचार्ज करवाया करती थी"...

"झूठ!...बिलकुल झूठ"...

"और सुन...ये नम्बर मैँने तेरे डर की वजह से नहीं बल्कि दिल्ली में रोमिंग लगने की वजह से बन्द कर रखा है मैँने"...

"बस...बहुत हो चुका...अब मैँ बोलूँगा और तू...तू सुनेगा"...

"हाँ-हाँ!...सुना...क्या सुनाना चाहता है?"..सुना...अब सुनाता क्यों नहीं?"...

"जिस 'शंटी-दा शार्प शूटर' के डर से तू दिल्ली में छुपा बैठा है ना?...उसे मैँ ही हफ्ता वसूली के लिए तेरी दुकान पे भेजा करता था"...

"क्या?"...

"जिस यमराज के डर से तू पानीपत छोड़ के मारा-मारा फिर रहा है ना...वो स्साले!...मैँ ही हूँ"...

"अब तो बेटे!...तेरी खैर नहीं...वहीं...वहीं दिल्ली आ के तेरा बैण्ड ना बजाया तो मेरा भी नाम 'चंपू' ...ऊप्स!...सॉरी 'गुड्डू नहीं"...

"आ जा...आ जा...बड़े शौक से आ जा...जीजे की शादी में साला नहीं आएगा तो और कौन आएगा"...

"स्साले!...मैँ तेरी बारात में नहीं...तेरी मौत के मातम में शरीक होने आऊँगा"...

"अरे!...जा-जा...तेरे जैसे छत्तीस आए और छत्तीस चले गए"...

love guru

"शट अप"...

"यू शट अप"..

"भैण...के *&ं%$#@#$#% ....

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"तेरी माँ की....  *&ं%$#$% #$%$#$%ं&

'चंपू'...ओए...ओए चंपू'

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"स्साले!...हराम खोर... रख फोन...फोन रख!...स्साले......

"मैँ क्यों रखूँ?...पहले तू...तू रख फोन..स्साले...   

"तेरी भैण की *&ं%$#@#$#% ....

"तेरी माँ की *&ं%$#$% #$%$#$%ं& 

{और उसके बाद दोनों तरफ से फोन पटक दिया जाता है}

***राजीव तनेजा***

http://hansteraho.blogspot.com

+919810821361

+919213766753

+919136159706

 

ब्रेकिंग न्यूज़ -लखनऊ में हुए प्रकरण के बाद ब्लॉगजगत में हाहाकार

ब्रेकिंग न्यूज़...ब्रेकिंग न्यूज़....ब्रेकिंग न्यूज़......

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कल देर रात मिली सूचना के अनुसार लखनऊ में सलीम खान जी और सौरभ जी के बीच जो विवाद ब्लॉगजगत की आभासी दुनिया से निकल कर बीच चौराहे के आ गया था…धर्म और राजनीति से परे हटते हुए देशी-विदेशी ...सभी किस्म के ब्लॉगरों ने अपने आपसी वैमनस्य को भुलाते हुए इसकी कड़ी निंदा और भर्त्सना की है.. लेकिन कुछ एक बेनामी टिप्पणियों ने आग में घी डालने का काम भी किया है... उसी के चलते संपूर्ण हिन्दी ब्लॉगजगत सकते में है... कुछ लोग निराश हो ब्लॉगिंग छोड़ने तक की बातें करने लगे हैँ...

लोग भूल जाते हैँ वैचारिक मतभेद तो आज के ज़माने कहाँ नहीं हैँ?...मियाँ-बीवी में आपस में नहीं बनती...भाई-बहन एक दूसरे को नाक-भौं सिकोड़ने लगे हैँ.. टी.वी सीरियलों में सास-बहुएँ...देवरानियाँ-जेठानियाँ सब एक दूसरे की काट करती नज़र आती हैँ...रिऐलिटी शोज़ में अक्सर जज आपस में भिड़ते दिखाई दे जाते हैँ...तो प्रतिभागियों की बात ही क्या है?.. लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं हो जाता कि आप अपनी इस मत भिन्नता को अपनी इगो बना हाथापाई तक पे उतर आएँ...

गोपनीय सूत्रों के जरिए ज्ञात हुआ है कि इस सारे प्रकरण से दुखी...निराश एवं भयभीत हो कुछ नामचीन हिन्दी ब्लॉगरों ने ब्लॉगिंग से सन्यास ले हरिद्वार एवं श्रषिकेश के जँगलों में और कुछ ने हिमालय की हसीन वादियों में अपना डेरा बनाने की सोच डाली है...  इनका साथ देने के लिए बॉलिवुड के मशहूर कलाकार नाना पाटेकर जी ने भी इनके समर्थन में गेरुआ वस्त्र धारण कर लिए हैँ.. 

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आपके दिन और मेरी रातें मँगलमय हों... हैप्पी ब्लॉगिंग...

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कल राजकुमार ग्वलानी जी के ब्लॉग पर एक पोस्ट पढने को मिली जिसके जरिए पता चला कि भिलाई में ब्लॉगरों की मैराथन बैठक के बाद अब सीरियल ब्लास्ट की तैयारी है ...

तो मैँने सोचा कि बाकी के हम ब्लॉगरों ने इनका क्या बिगाड़ा है?....हम इनके इस तथाकथित धमाके की गूंज से क्यों वंचित रह जाएँ? ...वो कहते हैँ ना कि 'मान ना मान..मैँ तेरा मेहमान'...बस उसी तर्ज पे अपुन भी जुट गए कस्सी और फावड़ा लेकर कि गेहूँ के खेत में ईख बो कर रहेंगे...नहीं समझे?...अरे यार...इनके सामुहिक फोटू में

अपने समेत और भी कई बिलागरों को बारी-बारी से सैट कर दिया....सिम्पल....

अजी!...सैट कहाँ?...फिट किया...सैट तो तब होता...जब हम उहाँ उनकी मर्ज़ी से गए होते...और उन साँपों के साथ...ऊप्स!...सॉरी उन 'स्नेक्स' के साथ...

ओहो!...ये क्या होता जा रहा है मेरी मटमैली और काली ज़ुबान को?...सुसरी!...बिना मोबिल-ऑयल चुपड़े के ही गलत डाईरैक्शन में फिसलती ही जा रही है....बेटा राजीव!...तू तो गया काम से...इतने जूते पड़ेंगे...इतने जूते पड़ेंगे कि तेरी आने वाली सात पुश्तें भी 'गंजी' पहन कर पैदा होंगी...

कहाँ तू कहना चाहता था कि ..."उन सज्जन महानुभावों के साथ 'स्नैक्स' का मज़ा लिया होता"....और तू बात कर रहा है...साँप और बिच्छुओं की....

बेटा राजीव!...तू तो गया काम से...

(उपरोक्त पंक्ति में हास्य का पुट देते वक्त मुझसे कोई गुस्ताखी हो गई हो तो...संजीव तिवारी जी, बीएस पाबला जी, शरद कोकास जी , राजकुमार ग्वालानी जी, ललित शर्मा जी एवं सूर्यकांत गुप्ता जी से क्षमा याचना सहित)

हाँ!...तो जैसा कि मैँ बता रहा था कि उनकी सामुहिक फोटू में मैँने अपने समेत और भी कई ब्लॉगरों को फिट किया...तो आप सब भी उसका आनंद लें...

आपके दिन और मेरी रातें मँगलमय हों... हैप्पी ब्लॉगिंग... 

 

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जाते-जाते ये बेतुकी से तुकबन्दी करने की कोशिश भी देख लीजिए....वैसे भी इसमें कौन सा टैक्स लग रहा है?...

जिस्मों से हम दूर सही

विचारों से हम जुदा नहीं 

रहन-सहन हमारा अलग सही

दिल रमता अपना हमेशा यहीं

धर्म भाषा-बोली हमारी अलग सही

फिर भी हम में गज़ब का एका है

वैमनस्य को हमने दूर उठा फेंका है

ब्लॉगिंग ज़िन्दाबाद ...

ये बतलाने की कृपा करेंगे आप?

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मान्यवर नेता जी,

प्रणाम,

एक बार फिर से चुनाव में विजयी हो हमारे क्षेत्र का पुन: प्रतिनिधित्व करने के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई...अपने पिछले कार्यकाल के दौरान आपने हमारे क्षेत्र के लिए जो-जो कार्य किए...उनके लिए आप प्रशंसा के पात्र हैँ...आपकी पुरज़ोर कोशिशों के चलते ही इलाके में तीन किलोमीटर लम्बे फ्लाईओवर एवं सबवे का निर्माण सँभव हो पाया...जिससे क्षेत्र की जनता को हर दिन घंटों तक लगने वाले जाम में फँसे रहने से मुक्ति मिल गई है...अपने क्षेत्र की जनता पर किए गए आपके इस एहसान के बदले हम आपके सदैव ऋणी रहेंगे..लेकिन एक जिज्ञासु एव जागरूक मतदाता होने के नाते मेरे दिमागी भंवर में आपकी नेतृत्व क्षमता को लेकर कुछ प्रश्न मंडरा रहे हैँ...राईट ओफ इनफार्मेशन कानून के तहत मैँ उनका उत्तर आपसे जानना चाहूँगा..उम्मीद है कि आप मुझको निराश नहीं करेंगे

  • आपने हमारे यहाँ की कच्ची गलियों को कंक्रीट की बनवा हमें कीचड़ एवं बदबू भरे माहौल से मुक्ति दिलवा दी ...इसके लिए हम आपके बहुत-बहुत आभारी हैँ...लेकिन इन गलियों के कच्चे से पक्के होने के पूरे प्रकरण में आपके कितने घर कच्चे से पक्के हो गए?...ये बतलाने की कृपा करेंगे आप?...
  • आप अच्छी-भली स्ट्रीट लाईटों को खंबों समेत बदलवा उनका नवीनीकरण करवा रहे हैँ..ये बहुत अच्छी बात है लेकिन बदले गए इन पुराने खंबों का क्या होगा?...क्या उन्हें पुन: इस्तेमाल के लिए संभाल कर रखा जाएगा या फिर किसी दिन उन्हें निष्क्रिय एवं नाकारा घोषित कर किसी स्क्रैप डीलर को कबाड़ के भाव तौल दिया जाएगा?...मेरा मन कहता है कि पुरानी चीज़ों को सम्भाल कर रखना बेवाकूफी से बढकर कुछ नहीं है...उम्मीद है कि मेरी इस बात से आप भी सहमत होंगे...अगर ऐसा है तो उन्हें किस कबाड़ी को और  कितनी रकम के बदले बेचा जाएगा?...उसमें से आपका और आपके मातहतों का कितना हिस्सा होगा?...ये बतलाने की कृपा करेंगे आप?...
  • आपकी छत्रछाया में हमारे इलाके की सड़कों...फुटपाथों एवं कूड़ेदानों के नवीनीकरण के जरिए शहर का सौन्द्रीयकरण हो रहा है...ये हमारे लिए गर्व की बात है लेकिन इस सारे प्रकरण के जरिए आप कितने नोट अपनी तिजोरी के अन्दर करेंगे?...ये बतलाने की कृपा करेंगे आप?....
  • अपने क्षेत्र के मतदाताओं की बेरोज़गारी दूर करने के लिए आपके राज में नई नौकरियाँ गढी एवं दी जा रही हैँ...इन भर्तियों की एवज में आप कितनों की?...किस तरह(कैश..चैक...मनी आर्डर या बैंक ड्राफ्ट/क्रैडिट कार्ड)? और कितनी जेब ढीली करेंगे?...ये बतलाने की कृपा करेंगे आप?...

नेता जी

  • आपके सतत प्रयासों के जरिए हमारा इलाका साफ-सुथरा एवं सुन्दर बनता जा रहा है...इसके लिए आप प्रशंसा के पात्र हैँ ...इसी बात को जान कर यहाँ पर सफाई कर्मचारियों ने भी हाज़री लगाना लगभग बन्द सा कर दिया है...उनकी इस गैरहाज़री के बदले आप कितनी रकम अपनी तिजोरी के अन्दर हाज़िर करते हैँ?...ये बतलाने की कृपा करेंगे आप?
  • आप ज़मीन से जुड़े हुए नेता हैँ..इसलिए आपके राज में रेहड़ी-पटरी एवं खोमचे वाले खूब फल-फूल रहे हैँ...उन्हें इस पूरे इलाके को नर्क बनाने की छूट देने के बदले आप उनसे कितना और कब-कब वसूलते हैँ?...ये बतलाने की कृपा करेंगे आप?..
  • आपके इलाके में खाली पड़ी निजी एवं सरकारी ज़मीनों पर कब्ज़ा कर झुग्गी माफिया(गरीब-गुरबा बेघर लोगों को छत प्रदान कर पुण्य का काम करते हुए)लाखों-करोड़ों के वारे-न्यारे कर रहा है...शहर का मुखिया होने के नाते इसमें आपका कितना बड़ा हिस्सा है?...ये बतलाने की कृपा करेंगे आप?...

प्रश्न तो अभी दिल में और भी कई हैँ लेकिन एक साथ इतने प्रश्नों का उत्तर देने से उत्पन्न होने वाली दुविधा को समझते हुए मैँ अपने इस पत्र को यहीं विराम देते हुए आपसे एक अंतिम निवेदन करना चाहता हूँ कि इस बार विजयी होने पर आपने पूरे क्षेत्र में जगह-जगह जो अपने आदमकद पोस्टर लगवाए हैँ...उनसे शहर का सौन्दर्य बिगड़ने के साथ-साथ आते-जाते लोगों का ध्यान भी बार-बार बंट रहा है जिससे आए दिन नित नई दुर्घटनाओं के घटित होने की संभावना बलवती होती जा रही है...आपसे निवेदन है कि उन्हें हटवा कर आप उन सब के बजाए पूरे क्षेत्र में अपना सिर्फ एक आदमकद पोस्टर किसी प्राईम लोकेशन पर लगवाएँ...

untitled 

इससे शहर भी साफ-सुथरा रहेगा और आते-जाते वहाँ से गुज़रने वाले क्षेत्र के जिम्मेदार एवं प्रबुद्ध  नागरिकों को आप पर थूकने में किसी किस्म की असुविधा भी नहीं होगी

विनीत:

अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों के प्रति सचेत एक जिम्मेदार नागरिक

जय हिंद

 

 

क्या आप प्रसिद्ध होना चाहते हैँ?

  • क्या आप रातोंरात प्रसिद्ध हो ब्लॉगजगत की दुनिया पर छाना चाहते है?...
  • क्या आप चाहते हैँ कि समाचार-पत्रों और मैग्ज़ीनों में आपके नाम व आपके काम के चर्चे हों?....
  • क्या आप चाहते हैँ कि पत्र-पत्रिकाओं के मुखपृष्ठों पर किसी फिल्मी अभिनेता या फिर तारिका के बजाए आपके फोटो लगे हों?...
  • क्या आप चाहते हैँ कि लोग आपको देखते ही झट से पहचान आपकी तरफ दौड़े चले आएँ?...
  • क्या आप चाहते हैँ कि ....

अजी छोड़िए...माँगने से अगर मौत मिल जाया करती तो अब तक आधी से ज़्यादा दुनिया आत्महत्या कर चुकी होती...

कारण?....

कामयाब तो सब होना चाहते हैँ लेकिन मेहनत कोई नहीं करना चाहता....

सफलता सबको चाहिए लेकिन उसको प्राप्त करने के लिए जो जज़्बा...जो दृढ इच्छाशक्ति...जो लगन...जो ज़ुनून चाहिए...वो किसी में भी नहीं है

चाहने से अगर सब कुछ मिलने लग जाए तो बात ही क्या है?"....

क्षेत्र कोई भी हो...परिश्रम हर जगह आवश्यक है...कोई मेहनत कर पसीना बहा कामयाब होता है...तो कोई दिमागी लड़ाई लड़ जंग में जीत हासिल करता है...

उनकी देखा-देखी लेखक जाति के हम जैसे विलुप्त प्राणी इसी आस में लिख-लिख कर हज़ारों-लाखों पन्ने काले करते फिरते हैँ कि किसी  ना किसी दिन तो घूरे के भी दिन फिरेंगे...

ऊपरवाला एक मौका अवश्य देता है...जो उसे भुना ले...वो भुना ले...जो गंवा ले...वो गंवा ले

आप सोच रहे होंगे कि ये अच्छे-भले मसखरे टाईप राजीव को आज अचानक ये क्या हो गया?...कैसी बहकी-बहकी...बेसिर-पैर की बातें कर रहा है?

तो दोस्तों...अपने मुँह से कैसे बताऊँ कि मैँ रात को सोते-सोते पलँग से गिर गया था?...कैसे बताऊँ कि मुझे रात को सपने में तुरत-फुरत कामयाब होने के कैसे-कैसे आईडिया आए थे...

क्या कहा?...आप जानने को उत्सुक हुए जा रहे हैँ?....

ठीक है...तो फिर बिना किसी प्रकार की देरी किए अपना लेटेस्ट फोटो तुरंत मेरी मेल आई.डी पर भेजिए और आप भी इन ब्लॉगरों की तरह पूरी दुनिया पर छा जाईए...

हैप्पी ब्लॉगिंग

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