हम नहीं चंगे..बुरा ना कोय- सुरेन्द्र मोहन पाठक

टीवी...इंटरनेट और मल्टीप्लेक्स से पहले एक समय ऐसा भी था जब मनोरंजन और जानकारी के साधनों के नाम पर हमारे पास दूरदर्शन, रेडियो,अखबारें और बस किताबें होती थी। ऐसे में रेडियो और दूरदर्शन के जलवे से बच निकलने के बाद ज़्यादातर हर कोई कुछ ना कुछ पढ़ता नज़र आता था और पढ़ने की कोई ना कोई सामग्री हर किसी के हाथ में अवश्य नज़र आती थी। भले ही वो बच्चों के हाथों में कॉमिक्स के रूप में तो बड़ों के हाथों मे कोई ना कोई कहानी/कविता संकलन अथवा उपन्यास अपनी हाज़री बजा..उपस्थिति दर्ज कराता हुआ नज़र आता था। बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों पर स्थित बुक स्टॉल्स तरह तरह की साहित्यिक पत्रिकाओं और उपन्यासों से पटे नज़र आते थे और उनमें भी उस साहित्य की अधिकतम भरमार होती थी जिसकी तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग के साहित्यकारों द्वारा हमेशा से लुगदी साहित्य कह उसकी खिल्ली उड़ाई जाती रही है। लुगदी साहित्य, वो साहित्य जिसने अपनी तमाम भर्त्सनाओं एवं आलोचनाओं के बावजूद हिंदी को घर घर पहचान दी। हमारे आज के साहित्यकारों ने भी कभी ना कभी इस साहित्य को ज़रूर पढ़ा है। 

दोस्तों...आज मैं बात करने जा रहा हूँ इसी लुगदी साहित्य के एक ऐसे नामी गिरामी लेखक की, जिसके लिखे को उसके पाठकों ने हाथों हाथ उठा, उसे सेलिब्रिटी का स्टेटस दे, सर आँखों पे बिठाया। जी!...हाँ.. आपने सही पहचाना, मैं बात कर रहा हूँ श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक जी और उनकी आत्मकथा के दूसरे भाग की जो "हम नहीं चंगे...बुरा ना कोय" के नाम से बाज़ार में आ, धूम मचा रहा है।

लुगदी साहित्य का एक ऐसा बड़ा नाम जो कभी महज़ चार पाँच सौ रुपए में अपना एक उपन्यास लिख कर प्रकाशकों को दे खुद को कृतार्थ किया करता था। फिर भी उनके लिखे उपन्यासों का ऐसा जलवा कि एक समय उनके लिखे नए उपन्यासों से ज़्यादा उनके रिप्रिंट से उनकी कमाई होती थी। ऐसा लेखक जिन पर कभी किसी लड़की ने उनकी स्क्रिप्ट की चोरी का इल्जाम लगाने की मंशा जताई थी। एक ऐसा लेखक जिन पर किसी ने दूर दराज के इलाके में महज़ इसलिए कोर्ट केस दर्ज करवा कर जज के सामने उनकी पेशी करवा दी  दी थी कि वो वकील उनसे आत्मीय मुलाकात कर सार्वजनिक रूप से उनका सम्मान करते हुए खुद को भाग्यशाली समझ सके। 

 एक ऐसा लेखक जो अब तक 300 या फिर उससे भी ज़्यादा उपन्यास लिख चुका है और उनके एक उपन्यास की तो अढ़ाई लाख तक प्रतियाँ बिकी। एक ऐसा लेखक जिसके लेखक होने की एवज में उसके घर पर पत्थर तक बरसे। एक ऐसा लेखक जिसने बातों बातों में उपहार स्वरूप अपने एक प्रशसंक को अपने चालीस दुर्लभ उपन्यास बतौर गिफ्ट दे दिए और उनका वह तथाकथित प्रशंसक उन्हें तुरंत बाज़ार में महँगे दामों पर बेच रफूचक्कर हो गया हो।

 इस आत्मकथा में बात है उनके दफ़्तरी कामकाज और टूर के बहाने होने वाली ऐश और दिक्कतों की। इसमें बात है अफसरशाही और भ्रष्टाचार की। इसमें बात है आपसी खुंदक निकालने को हरदम तैनात रहते अफसरों और मातहतों की। 
 
इसमें बात है दोगले..चालबाज़ रिश्तेदारों और उनके भुक्खपने की। इसमें बात है बतौर मेहमान घर आए लेखक को मेज़बान के परिवार द्वारा बेइज़्ज़त करने की जो कि स्वयं एक बड़ा नामी गिरामी लेखक एवं प्रकाशक था। इसमें बात है पुत्र मोह में आँखें मूंद सिर्फ अपना बेटा और उसके हित नज़र आने की। इसमें बात है प्रकाशकों द्वारा लेखकों को उनका ज़रखरीदा ग़ुलाम समझ अपनी मनमानी करने और मनवाने की।
 
इसमें बात है प्रकाशकों से लेखक के बनते बिगड़ते रिश्तों की। इसमें बात है औरों की देखादेखी नए प्रकाशकों के उभरने और फिर उनके फेल होने की। इसमें बात है कॉपीराइट को नज़रंदाज़ करने और उनसे फ़ायदा उठाने वाले लेखकों की। इसमें बात है बिना लेखक की मर्ज़ी के उसके दो भागों वाले उपन्यास को बेदर्दी से काट छाँट कर एक उपन्यास बनाने की। इसमें बात है फिल्मी पत्रिकाओं और उनके कर्ताधर्ताओं के घमंड की। इसमें बात है सफल  लेखक को ले कर प्रकाशकों में होती आपसी खींचतान की।  इसमें बात है प्रकाशक द्वारा स्क्रिप्ट हज़म कर भूल जाने की। 

इसमें बात है लेखकों द्वारा बड़ी बड़ी डींगें हांकने की। इसमें बात है लेखक से किए गए करार को तोड़ स्क्रिप्ट आगे बेच विश्वासघात करने की की। इसमें बात है लेखकों में बढ़ती शराबखोरी और अपनी कमज़ोरियों को स्वीकार करने और प्रकाशकों द्वारा भ्रम पैदा करने को झूठे आंकड़ों को फैलाने की। इसमें बात है असली प्रशसंकों बनाम ठग एवं दबंग पाठकों की। 

किस्सागोई शैली में लिखी गयी इस आत्मकथा में काफी कुछ ऐसा है जो पाठकों को लुभाएगा। अगर आप सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के फैन हैं या फिर लुगदी साहित्य और उससे जुड़ी बातें जानने के इच्छुक हैं तो रोचक शैली में लिखा गया यह आत्मकथा आपके मतलब की है। 422 पृष्ठीय इस किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है राजकमल पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 299/- जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए ज़्यादा नहीं है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

आदम ग्रहण- हरकीरत कौर चहल, सुभाष नीरव (अनुवाद)

"कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता/
कहीं ज़मीं नहीं मिलती..कहीं आसमां नहीं मिलता"

ज़िन्दगी में हर चीज़ अगर हर बार परफैक्ट तरीके से..एकदम सही से..बिना किसी नुक्स..कमी या कोताही के एक्यूरेट हो..मेरे ख्याल से ऐसा मुमकिन नहीं। बड़े से बड़ा आर्किटेक्ट..शैफ या कोई नामीगिरामी कारीगर भी हर बार उम्दा तरीके से अपने काम को अंजाम दे..यह मुमकिन नहीं। 

कभी ना कभी..कहीं ना कहीं तो हर किसी से कोई ना कोई छोटी बड़ी चूक..कोताही या ग़लती हो ही सकती है। और इस बात का अपवाद तो खैर..वो ऊपर बैठा परवरदिगार भी नहीं जिसने हमारे समेत पूरी कायनात को उम्दा तरीके से सजा संवार कर बनाया..चमकाया है। उसी ऊपरवाले की एक नेमत याने के हम मनुष्यों को भी बनाने में कई बार उससे या हमसे ऐसी चूक हो जाती है कि संपूर्ण लड़का या लड़की बनने के बजाय कोई कोई तो अधूरा ही पैदा हो जाता है। 

खैर..ये सब बातें दोस्तों..आज इसलिए कि आज मैं ऐसे ही अधूरे पैदा हुए लोगों को ले कर मूल रूप से पंजाबी में लिखे गए एक उपन्यास 'आदम ग्रहण' की बात करने जा रहा हूँ जिसकी रचियता हैं 'हरकीरत कौर चहल' और उनके इस उम्दा उपन्यास का बढ़िया हिंदी अनुवाद किया है जाने माने लेखक/अनुवादक 'सुभाष नीरव' जी ने। जो अब तक 600 से ज़्यादा कहानियों एवं 60 अन्य साहित्यिक पुस्तकों का पंजाबी से हिंदी में अनुवाद कर चुके हैं। इस सब के अतिरिक्त इनकी अब तक खुद की भी कहानी/कविताओं एवं लघुकथाओं की पंद्रह से अधिक पुस्तकें आ चुकी हैं और यह सफ़र अब भी अनवरत जारी है।

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस रोचक उपन्यास में कहानी है एक ग़रीब मुस्लिम कुम्हार के घर तीन भाइयों के बाद पैदा हुई एक ऐसी जान की जो ना तो पूरा लड़का है और ना ही पूरी लड़की। इस उपन्यास में कहानी है माँ बाप की ममता..लाड़ प्यार और स्नेह के बीच पलते 'अमीरा' नाम के इस जीव की। बढ़ते वक्त के साथ इसमें कहानी है उस 'अमीरा' की जिसे गांव वालों की ही तरह अपने..खुद के भाइयों से..अपने ही घर में स्नेह..मोह..ममता और दोस्ती के बदले प्रताड़ना..उपहास..अपमान..नफ़रत और उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। और इस सबके बीच पैंडुलम सी निरंतर झूलती 'अमीरा' एक दिन तंग आ कर अपने माँ बाप की इच्छा के विरुद्ध स्वेच्छा से घर छोड़ ,लैची महंत (हिजड़ों के मुखिया) के डेरे में बसने का निर्णय लेती है।

इस उपन्यास में कहानी है समाज के अलग अलग वर्गों..इलाकों..राज्यों और धर्मों के द्वारा दुत्कारे गए..तिरस्कृत किए जा चुके आधे अधूरे जीवों की। इसमें कहानी है उनके एकसाथ आपस में परस्पर भाईचारे..स्नेह और एकता के साथ रहते हुए वक्त ज़रूरत के साथ बन या पनप चुके रीति रिवाज़ों को मनाने की। गुरु शिष्य की सौहाद्रपूर्ण परंपरा के बीच इसमें बातें हैं महंतों (हिजड़ों का मुखिया) की मर्ज़ी से पैसों के बदले नए रंगरूटों के आपसी लेनदेन या अदला बदली की।

इसी उपन्यास में बातें हैं तिरस्कृत समाज के इन बाशिंदों के बीच तमाम दुःखों..तकलीफ़ों के बावजूद इन्सानियत के निरंतर उमड़ते घुमड़ते जज़्बातों की। इसमें बातें हैं समाज द्वारा ठुकराए गए शारीरिक रूप/गुणों से एकदम ठीक मगर बदकिस्मत लोगों के शरणागत की तरह आ..इनके साथ ही रहने एवं इन्हीं में घुलमिल कर एक हो जाने की। इसमें एक तरफ़ डेरे में गुपचुप परवान चढ़ते लाली और कौड़ामल के इश्क की बातें हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसमें एक सामान्य..ठीकठाक अमीर युवक भी सब कुछ जानते हुए 'अमीरा', जो अब 'मीरा' बन चुकी है, के प्रेम में इस कदर डूब जाता है कि उसके साथ पूरा जीवन बिताने को तैयार हो उठता है। मगर क्या इस सब के लिए मानसिक 'मीरा' खुद को कभी तैयार कर पाती है? 

इस उपन्यास में बात है अभिभावकों द्वारा आधे अधूरे बच्चे को मोह..ममता सब भूल जन्मते ही त्याग देने की। इसके साथ ही इसमें बात है उसी त्याग दिए गए बच्चे को 'मीरा'  द्वारा स्नेह..लाड़ प्यार और मोहब्बत के साथ अपनाते हुए बढ़िया स्कूल कॉलेज में तालीम दिलवाने की। इसी उपन्यास में बातें हैं धोखे..छल और बहकावे द्वारा किसी के लगातार होते यौन शोषण और उसके मद्देनज़र एड्स जैसे गंभीर रोग के बढ़ते फैलाव की। इसमें बात है हताशा..शर्म से किसी के खुद को मिटा देने और किसी के किसी के वियोग में खुद मिट जाने की।

इस बात के लिए लेखिका की तारीफ़ करनी होगी कि किरदारों के हिसाब से उनकी भाषा एवं संवाद शैली को बहुत ही बढ़िया ढंग से वे अपने लेखन में उतार पायी हैं। इसके साथ ही उम्दा अनुवाद के सुभाष नीरव जी भी बधाई के पात्र हैं 

*पेज नम्बर 37 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"ढोलण ने भी काला लंबा कुरता और पजामी पहनी। सिर पर महरूम रंग का दुपट्टा बाँधा,  महंत लैची भी पाकिस्तानी फैशन के कुरते और सलवार में सल्तनत का बादशाह लग रहा था।"

यहाँ 'महरूम' रंग का दुपट्टा आने के बजाय 'मेहरून(मैरून) रंग का दुपट्टा आना चाहिए था। 

142 पृष्ठीय इस बेहतरीन उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है इंडिया नेटबुक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका, अनुवादक एवं प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

ट्वेल्थ फेल- अनुराग पाठक


किसी ऐसी किताब के बारे में अगर पहले ही इतना कुछ लिखा..सुना एवं पढ़ा जा चुका हो कि उस पर लिखते वक्त सोचना पड़ जाए कि ऐसा क्या लिखा जाए जो पहले औरों ने ना लिखा हो। एक ऐसी किताब जो पहले से ही धूम मचा...पाठकों के समक्ष अपने नाम का झण्डा गाड़ चुकी हो। एक ऐसी किताब जिसका दसवाँ संस्करण आपके हाथ में हो। एक ऐसी किताब जो टीवी से ले कर अखबारों..पत्र पत्रिकाओं और यूट्यूब चैनल्स तक...हर जगह छाई हो। एक ऐसी किताब जिसकी तारीफ में सचिन तेंदुलकर, सुनील गावस्कर, राजकुमार हिरानी, विशाल भारद्वाज, आशुतोष राणा, मनोज बाजपेयी और अनुराग कश्यप समेत क्रिकेट..बॉलीवुड एवं मीडिया के बड़े बड़े दिग्गजों ने कसीदे गढ़े हों। दोस्तो...आज मैं बात कर रहा हूँ उस किताब की जिसकी टैगलाइन है...
"हारा वही जो लड़ा नहीं" याने के गिर कर उठते हैं शहसवार ही मैदान ए जंग में।

'ट्वेल्थ फेल' के नाम से जारी हुए इस उपन्यास को लिखा है अनुराग पाठक ने और इसमें कहानी है मनोज शर्मा की ज़िद...उसके जुनून और श्रद्धा से उसके बेइंतहा प्यार की। वो मनोज शर्मा जो कभी,  बस जैसे तैसे कर के नकल के दम पर बारहवीं पास कर कहीं कोई छोटी मोटी नौकरी करने का सपना देखता था। वो मनोज शर्मा, जिसे कलैक्टर की सख्ती की वजह से बारहवीं में फेल होने पर मजबूरन गांव के सवारियाँ ढोने वाले खटारा टैम्पो में  कंडक्टरी करनी पड़ी। वो मनोज शर्मा, जिसे खस्ताहाल टैम्पो को पुलिस थाने से छुड़ाने के लिए थानेदार के सामने गिड़गिड़ाना...रिरियाना पड़ा। वो मनोज शर्मा, जिसने कलैक्टर का रुआब देख, कुछ बनने..कुछ कर दिखाने की ठान ली। वो मनोज शर्मा, जिसकी कदम कदम पर अनेकों बार उसी के साथियों द्वारा ट्वेल्थ फेल होने की वजह से खिल्ली उड़ाई गयी।

उन्हीं तानों से प्रेरणा पा, जिसने पहले बारहवीं और फिर कॉलेज की परीक्षा पास कर दिखाई। वही मनोज शर्मा जिसे बेघर होने पर भिखारियों के साथ सड़क पर रात गुज़ारनी पड़ी और भूख से निबटने के लिए रेस्टोरेंट में बर्तन तक मांजने पड़े।  वही मनोज शर्मा, जिसके रहने का ठिकाना ना होने पर उसे किसी के यहाँ खाना बनाने..सफाई करने से ले कर उसके कच्छे तक धोने पड़े।  महीनों एक खंडहरनुमा लाइब्रेरी में महज़ इसलिए नौकरी करते हुए रहना पड़ा कि उसे तीन सौ रुपए महीने के साथ सर ढकने को एक अदद छत मिल सके। वही मनोज शर्मा जो बेईमानी का आरोप लगते ही लाइब्रेरी की नौकरी छोड़, आटे की चक्की में मजबूरन आटे के साथ धूल धूसिरत हो काम करने लगा।

इसमें कहानी है प्रेम में पागल उस मनोज शर्मा की जो अपने प्यार की एक झलक तक पाने को बिना कुछ सोचे विचारे ग्वालियर से अल्मोड़ा तक चला आया था। इसमें कहानी है उस मनोज शर्मा की जो अपने प्यार के चक्कर में पढ़ाई को नज़रंदाज़ कर अपने बेशकीमती दो साल गंवा बैठा। इसमें कहानी है उस मनोज शर्मा की जिसे दिल्ली में भूख और अपने सर्वाइवल के लिए कभी साथियों का खाना पड़ा तो कभी लोगों के कुत्ते तक घुमाने पड़े। 

इसमें कहानी है विवेकानंद और उनके द्वारा स्थापित आदर्शों की। इसमें कहानी है ज़िद्दी..अड़ियल मगर ईमानदार बाप की। इसमें कहानी है मूक रह कर हमेशा हिम्मत का संबल बनी एक माँ की। इसमें कहानी है ऐसे अध्यापक की जो अपनी पल्ले से पैसे निकाल कर एक विद्यार्थी को देता है कि वह अपनी कोचिंग के पैसे भर सके। इसमें कहानी है वक्त पे काम आने वाले दोस्त के एहसान को हमेशा याद रखने वाले मनोज शर्मा की। इसमें कहानी है उस श्रद्धा की जिसे भावनाओं में ना बहते हुए इश्क और कैरियर में बैलेंस बनाना बखूबी आता है। 

इसमें कहानी है उस ज़ुनूनी मनोज शर्मा की जिसने अपनी प्रेमिका की स्वीकारोक्ति के बाद एकदम से कायापलट कर दुनिया के सामने एक मिसाल कायम कर दी। इसमें कहानी है उस मनोज शर्मा की जिसने फर्श से अर्श तक पहुँचने के अपने सपने को मुकम्मल कर दिखाया।

कुल मिला कर एक ऐसी बढ़िया किताब जिसे हर उस व्यक्ति को पढ़ना चाहिए जो अपने जीवन में कुछ कर दिखाना चाहता है। इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है नियोलिट पब्लिकेशन ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 196/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक, प्रकाशक एवं मनोज शर्मा जी को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

सिद्धपुर की भगतणें- लक्ष्मी शर्मा

किसी भी क्षेत्र के समाज..वहाँ की संस्कृति...वहाँ की भाषा और रीति रिवाजों को जानने..समझने का सबसे बढ़िया तरीका है कि वहाँ के ग्रामीण अंचल की तसल्लीबख्श ढंग से खोज खबर लेते हुए..सुद्ध ली जाए मगर संयोग हमेशा कुछ कुछ ऐसा बना कि मैं शहरी क्षेत्र से ही हर बार वापिस निकल आया मानों शहर के एन बीचों बीच किस्मत ने कस के खूँटा गाड़ दिया हो कि...

"ले!...इसके आले द्वाले जितना मर्ज़ी घूम ले मगर भीतर बड़ने का नाम भी मति ले लेइयो।"

अब सिर्फ शहर भर में ही घूमने से तो बस वही चटपटा शहरी स्वाद..वही ट्रैफिक की रेलमपेल, वहीं कन्धे से कन्धा रगड़ कर बेतरतीब चाल में मदमस्त हो चलती बेलगाम भीड़। वही दर्शनीय स्थल और वही राजमंदिर। जी!...हाँ... राजमंदिर, वही राजमंदिर जो जयपुर में है। वही जयपुर, जो दाल बाटी चूरमे की प्रसिद्ध नगरी याने के राजस्थान में है। 

बॉलीवुडीय फिल्मों का राजस्थान, अपने रेतीले समंदरों और वाइड कैमरा एंगल शॉट्स और जोशोखरोश से भरे संवादों के ज़रिए शुरू से ही मेरा मन मोहता रहा है लेकिन फिल्मी बातें तो भय्यी बस फिल्मी ही होती है। नाच गाने...शोर शराबे...मार धाड़ और उछलकूद समेत इतना कुछ एक ही दो अढ़ाई घँटे की फ़िल्म में सीन दर सीन मौजूद होता है कि किसी एक चीज़ पे निगाह या दिमाग टिक ही नहीं पाता है।

अब फुर्सत से भला इतनी फुर्सत कोई क्यूँकर और कैसे निकाले कि साल छह महीने अपना सब काम धन्धा छोड़ के ग्रामीण अंचल में जा...वहाँ की धूल फांकते हुए वहीं अपनी धूनी रमाए कि तसल्लीबख्श ढंग से वो गांव की मिट्टी...वहाँ की संस्कृति से रूबरू हो सके। ऐसे में एक अचूक उपाय बचता है कि वहाँ की मिट्टी..वहाँ की संस्कृति... वहाँ की खुशबू को जानने समझने के लिए कि वहाँ के साहित्य से दो चार हुआ जाए।

ऐसे में जब पता चला कि प्रसिद्ध साहित्यकार लक्ष्मी शर्मा जी का उपन्यास इसी राजस्थान के ग्रामीण अंचल की पृष्ठभूमि पर आया है तो मन उसे मँगवाने से गुरेज़ ना कर सका। दोस्तों...मैं बात कर रहा हूँ उनके उपन्यास "सिधपुर की भगतणें" की। पहले पहल तो नाम से यही भान हुआ कि वहाँ पर याने के सिधपुर में कोई मंदिर...आश्रम या मठ होगा, जहाँ की कुछ भगतिनें होंगी और उपन्यास में उनका कष्टकारी जीवन, रहने खाने...ओढ़ने पहनने और वहाँ होते उनके दैहिक शोषण की बातें होंगी। मगर मेरी उम्मीद के ठीक विपरीत इसमें कहानी है कुछ ऐसी महिलाओं की, जिन्होंने एक ही खानदान...एक ही परिवार में रहते हुए भी तमाम दबावों..भर्त्सनाओं एवं बंदिशों के बावजूद अपनी बेबाकी..अपने दबंगपने और अपने अक्खड़ रवैये के चलते अपनी एक अलग पहचान बनाई। इस सारी कवायद का कुल जमा घटा जोड़ ये कि..भगतण मतलब वो लुगाई जो किसी से ना डरे।

इसमें कहानी है कम उम्र में गरीब घर की मेहनती लड़की भजन, जो कि लेखिका की मामी है, के लंबे चौड़े..बांके नौजवान केदार के साथ ब्याह कर उसके घर..उसके गांव आने की जहाँ उसकी दबंग सास लट्ठमार तरीके से स्वागत करने के लिए उसका इंतज़ार कर रही है। केदार..उसका पति, जो कि असल में एक नामर्द है। अब ऐसे में उसकी सास अपनी वंशबेल बढ़ाने की चाह और अपने बेटे के सर से नामर्द का ठप्पा हटवाने के लिए अपनी ही अबोध बहु का धोखे से नशे की हालत में लगातार दो बार बलात्कार करवा देती है। नतीजन कम बोलने चालने वाली..हमेशा सकुचाई सी रहने वाली भजन, शर्म ओ हया छोड़, अब मुँहफट होने के साथ साथ अपने घर की स्त्रियों के अधिकारों एवं हितों के लिए अपनी सास एवं जेठानी से हरदम लोहा लेती नज़र आती है। 

इस उपन्यास की दूसरी भगतण है ललिता, वो ललिता जो कभी मद्रास के किसी गाँव से इश्क कर के एक राजस्थानी लड़के के साथ भागी थी। वो ललिता, जिसका प्रेमी बीच रस्ते ही ट्रेन में किसी बीमारी से मर जाता है। वो ललिता, जो वहाँ की बोली ना जानने के कारण, ना अपनी बात किसी को समझा पाती है और ना ही किसी की कोई बात समझ पाती है। वो ललिता, जिसे अपनी आबरू बचाने के लिए गांव के उजाड़ मसान में चुड़ैल का स्वांग रचते हुए दिन रात छुप छुप के रहना पड़ता है। वो ललिता, जिसे जीने के लिए लाशों पर चढ़े चढ़ावे को खा के और ठीकरों में इकट्ठे हुए बारिश के पानी को पी के गुज़ारा करना पड़ता है। ऐसे कष्टदायी जीवन से निकल कर जो ललिता सामने उभर कर आती है, उसे अपने अक्खड़ और उद्दण्ड स्वभाव की वजह से किसी से डर नहीं लगता। अपने इन्हीं तेवरों की बदौलत वो जल्द ही भगतण की उपाधि पा, भजन मामी का दिल जीत लेती है। 

उपन्यास की तीसरी भगतण, गुलाब जो वस्तुतः भजन की बाल विधवा जेठानी है जिसको, उसकी ससुराल में लाने में किसी की रुचि नहीं है। जिसे उसके पिता की ही साजिश के तहत उस व्यक्ति द्वारा भगा लिया जाता है जो भोमिया जी के थान का महंत है लेकिन महंत के साथ रह कर भी उसके मन में हमेशा पहले विवाह के प्रति प्रतिबद्धता बनी रहती है। उसे अपने बाप की उम्र के महंत से कोई शिकायत नहीं क्योंकि उसके बाप ने उससे पैसे लिये थे और उसने उसे अपने साथ गाय की तरह रखा था। वह भोमिया जी की सेवा में जीवन गुजार रही थी पर ‘मन और धरम से व्यासों की ही बहू थी’। 

इस उपन्यास की चौथी भगतण है भजन मामी के बेटे भैरों की आधुनिक माहौल में मेडिकल की पढ़ाई कर रही बेटी सौभाग्य। जो चाहती है कि उसका पति इंटेलिजेंट, लिबरल एवं वाइफ की फ्रीडम और इंडीविजुअलिटी की रिस्पेक्ट करने वाला हो। ऐसे पति को पाने के लिए वो अपने याने के दुनिया के बेस्ट पापा पर हमेशा भरोसा जताती है लेकिन वही सौभाग्य एक दिन उनकी अनिच्छा एवं तमाम विरोधों के बावजूद एक मुस्लिम डॉक्टर से शादी करने का मन बना लेती है।

पाठकीय नज़रिए से यह उपन्यास हमें राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत से रूबरू कराते हुए स्त्री सशक्तिकरण के कई अहम मुद्दे भी साथ में उठाए चलता है जैसे...स्त्रियों में आत्मनिर्भरता, भ्रूण जाँच एवं उसकी हत्या का विरोध, शिक्षा का महत्त्व इत्यादि। हालांकि इस उपन्यास से राजस्थानी भाषा के काफ़ी शब्द सीखने को मिले लेकिन फिर भी कई जगहों पर संवाद समझने में खासी दिक्कत भी हुई। अपनी मिट्टी...अपनी भाषा से जुड़े रहना बहुत बढ़िया है लेकिन हिंदी साहित्य का क्षेत्र बहुत अधिक विस्तृत है। हिंदी साहित्य, कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक और गुजरात...राजस्थान से ले कर सुदूर नागालैंड या अरुणाचल प्रदेश तक भी पढ़ा और पढ़ाया जाता है। ऐसे में लेखकों को चाहिए कि क्षेत्रीय भाषा के वाक्यों/संवादों के साथ उनके हिंदी अनुवाद भी दें ताकि उनके लिखे की पकड़ एक संकुचित क्षेत्र के बजाय विस्तृत क्षेत्र तक बन सके।

देखा जाए तो इस उपन्यास के सारी भगतणें याने के सभी अहम किरदार कहीं ना कहीं किसी ना किसी रिश्ते से आपस में जुड़े हुए हैं मगर पाठकीय नज़रिए से मुझे दिक्कत ये लगी कि इन सभी के किस्से इसमें एक के बाद एक कर के सामने आते है और उनके आपस के रिश्ते को बस बताने भर को कम शब्दों में बता दिया गया है जबकि उन्हें शुरू से ही आपस में इस प्रकार गुंथा एवं रला मिला होना चाहिए था कि पाठक को ये सभी किस्से अलग अलग नहीं बल्कि एक साथ..एक ही ट्रैक पर चलते दिखाई देते मसलन सौभाग्य के स्वभाव का बचपन से ही तार्किक ढंग से ज़िद्दी होना या भजन का शुरू से ही ललिता से ज़्यादा मिलना और उठना बैठना। जिसकी वजह से नानी और बड़ी मामी का कुढ़ना इत्यादि।

128 पृष्ठीय इस बढ़िया उपन्यास के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है सामयिक प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹250/-... आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

शह और मात- मंजुश्री

जब भी कभी कोई कहानी या किताब आपकी अब तक की पढ़ी गयी सब कहानियों या उपन्यासों की भीड़ में अपने अलग विषय..कंटैंट एवं ट्रीटमैंट की वजह से अपना रास्ता खुद बनाती नज़र आए तो समझो..आपका दिन बन गया। दोस्तों..आज मैं धाराप्रवाह लेखन से सजी एक ऐसी किताब की बात कर रहा हूँ जिसकी पहली कहानी ने ही अपने विषय एवं ट्रीटमैंट की वजह से मुझे ऐसा आकर्षित किया कि मैं पूरी किताब एक दिन में ही पढ़ कर ख़त्म कर गया जबकि अमूमन मैं दो से तीन दिन एक किताब को तसल्लीबख्श ढंग से पढ़ने में लगा देता हूँ। 'शह और मात' नाम के इस कहानी संकलन की रचियता मंजुश्री हैं।

आइए..अब इस संकलन की कहानियों की बात करते हैं। इस संकलन की शीर्षक कहानी मिल मालिकों के अक्खड़ रवैये और लेबर यूनियन की हड़ताल के बीच भूख..गरीबी और संभावित बेरोज़गारी की मार झेल रहे अस्थायी कर्मचारियों के दुःख..अवसाद और हताशा से भरे दिनों की बात करती है। जिसमें शातिर मिल मालिक और यूनियन लीडर, अपने अपने हित में, मिल कर ऐसी चाल चलते हैं कि कर्मचारियों के हाथ सिवाय झुनझुने या बेदख़ली के कुछ नहीं आता।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी तीन अलग अलग व्यक्तियों के मन मस्तिष्क में उमड़ रही भावनाओं..विचारों एवं मानसिक उथल पुथल के ज़रिए अपनी पूर्णता तक पहुँचती है। जिसमें पहली सोच एक ऐसी नवब्याहता के ज़रिए कहानी को शुरू करती है जिसने अपनी बढ़ी उम्र में खुद की मर्ज़ी से एक ऐसे विधुर व्यक्ति से ब्याह किया है  जिसका मानसिक अस्थिरता का शिकार एक छोटा बेटा और उससे( युवती से) बेहद नफ़रत करने वाली एक जवान होती बेटी भी है। 

दूसरी सोच पत्नी और बेटी के बीच में सैंडविच जैसे फँसे उस पति की है जो अपने तमाम प्रयासों के बावजूद भी अपनी बेटी को समझा नहीं पाता और गुस्से में एक दिन बेटी घर छोड़ कर अपनी बुआ के घर रहने के लिए चली जाती है। इस सबके लिए खुद को कहीं ना कहीं गुनहगार मानता है। 

तीसरी सोच बेटी की नयी टीचर के माध्यम से कहानी को पूर्ण करती है कि किस तरह वह बेटी को अपना मन बदलने के लिए तैयार कर पाती है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ
ब्याह की रौनक..रीतिरिवाजों के बीच, अपने ब्याह के बाद से बंदिशों में रही दादी, आशीर्वाद स्वरूप अपनी उस पोती के सामने पुरानी यादों..बातों की गठरी खोल रही है जो अपने ब्याह के बाद विदेश सैटल होने जा रही है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में विदेश जा कर बस चुके परिवार में माँ..बेटे बहु की व्यस्त ज़िन्दगी के साथ अपना तालमेल नहीं बिठा पाती और खुद को उस बड़े से घर..मोहल्ले में अकेला महसूस करने लगती है और एक दिन पाती है कि साथ सटे घर में कोई और भी उस जैसे ही तन्हा हालात में रह रहा है।

इसी संकलन की अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ इस बात की तस्दीक करती है कि सहनशीलता या समझ ना होने पर आपसी दोस्ती एवं भाईचारे को भी धार्मिक कट्टरता कई बार निगल जाती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी कहती है कि किसी अमीर या गरीब युवती की स्थिति में तब कोई फर्क नहीं होता जब अचानक भरी जवानी में उनके किसी कारण विधवा हो जाते पर उनके इर्दगिर्द मानव वेश में लार टपकते गिद्धों का डेरा जमने लगता है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ इस बात को कहती है कि बचपन में खेली गयी पुरानी चीज़ें.. खिलौने..डायरी इत्यादि हमें इस कदर सम्मोहित करती हैं कि मन करता है नॉस्टेल्जिया के ज़रिए फिर से उन्हीं यादों..बातों के गलियारे से गुज़रते हुए वही सब फिर से लौट आए। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी संकलन की एक अन्य कहानी उन लाचार परिवारों..भाई बहनों की मजबूरियों..दिक्कतों..परेशानियों की बात कहती है जिनके घरों के नासमझ बच्चों का किसी ना किसी तय मिशन के अंतर्गत, कट्टरपंथियों द्वारा, ब्रेनवॉश कर उनको अफगानिस्तान.. पाकिस्तान या सीरिया जैसे गृहयुद्ध से त्रस्त देशों में जिहाद करने के लिए तैयार किया जा रहा है।

एक अन्य कहानी इन्सानी फ़ितरत के अनुरूप उनके मौका देख रंग बदलते गिरगिटी चेहरों याने के असली और दिखावटी चेहरों में फ़र्क की बात करती है। तो वहीं एक अन्य कहानी में पति के तमाम विरोध के बावजूद भी पत्नी अपनी मर्ज़ी से एक अस्पताल में मरीज़ों और दुखियों की सेवा के  वॉलेंटियर के तौर पर अपनी सेवाएँ देने का फ़ैसला करती है। इस चक्कर में जब उसका पति उससे दूर होने लगता है तो वह खुद को मरीज़ों..दुखियों के महाकुंभ में घिरा पाती है। मगर क्या वह सच में इस महाकुंभ से बाहर निकलना चाहती है?

इसी संकलन की एक अन्य कहानी उन व्यक्तियों की बात करती है जो बाहर से देखने पर एकदम ठीकठाक..सामान्य प्रतीत होते हैं मगर उनके भीतर कोई ना कोई ऐसी बात या ग्रंथि ज़रूर पल रही होती है जो मानसिक अस्थिरता की वजह से उन्हें असामान्य याने के ट्रामेटाइज़्ड ढंग से बर्ताव करने पर मजबूर कर देती है।

अंतिम कहानी कश्मीर और वहाँ की ख़ूबसूरती के बीच बाहर से कश्मीर आ कर रह रहे एक ऐसे युवक की कहानी कहती है जो वहाँ की एक स्थानीय युवती को देख कर उस पर इस कदर मोहित हो उठता है कि अपना पूरा जीवन उसी के साथ बिताने का मन ही मन सपना संजोने लगता है मगर उस युवती को इस सब की ख़बर ही नहीं है। 

इसी पूरे संकलन में जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का इस्तेमाल ना किया जाना थोड़ा खला। साथ ही कुछ कहानियों को पढ़ते वक्त हलका सा मायूस होना पड़ा जब वे अपनी उत्सुकता के चरम पर अचानक ही बिना किसी चेतावनी या अंदेशे के एक झटके से समाप्त होती दिखी। 

संग्रहणीय क्वालिटी के इस 132 पृष्ठीय कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

B- 15 B फोर्थ फ्लोर- संजीव कुमार गंगवार

अमूमन अपनी जिंदगी में हम सैकड़ों हज़ारों लोगों को उनके नाम..उनके काम..उनकी पहचान से जानते हैं। मगर क्या वे सब के सब हमारे जीवन में इतना अधिक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं कि उन सभी का किसी कहानी या उपन्यास में असरदार तरीके से जिक्र या समावेश किया जा सके? 

मेरे ख्याल से..नहीं। ना ही ऐसा करना सही.. व्यवहारिक एवं तर्कसंगत भी होगा क्योंकि बिना ज़रूरत किसी भी कहानी में इतने अधिक किरदारों का समावेश उसे कुछ और नहीं बल्कि बस चूँ चूँ मुरब्बा ही बना देगा। मगर इसी अवधारणा को 
ग़लत साबित करने का प्रयास अपनी तरफ़ से लेखक संजीव कुमार गंगवार ने अपने उपन्यास 'B- 15 B फोर्थ फ्लोर (कहानी क्रिस्चियन कॉलोनी की' के माध्यम से किया है  अब इसमें वह कितने कामयाब या फिर असफल हुए हैं। इसके बारे में बात करने से पहले क्यों ना उपन्यास की कहानी..इसकी पृष्ठभूमि और गुण-दोषों की बात कर ली जाए?

इस उपन्यास में कहानी है दिल्ली के एजुकेशन हब माने जाने वाले इलाके मुखर्जी नगर और उसके आसपास बसे अधिकृत-अनाधिकृत इलाकों की और उनमें से भी एक खास इलाके, क्रिस्चियन कॉलोनी की जो कि दिल्ली यूनिवर्सिटी स्थित मौरिस नगर और विजय नगर के आसपास बसा है। इस उपन्यास में बातें हैं वहाँ के रहने वाले स्थानीय बाशिंदों और वहीं पर किराए पर रह कर upsc इत्यादि की तैयारी में जूझते युवा से अधेड़ होते सैंकड़ों अभ्यर्थियों की। 

 इस उपन्यास में एक तरफ़ जहाँ जगह जगह कुकुरमुत्तों के माफ़िक उगते प्रॉपर्टी डीलर नज़र आते हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ किराएदारों को ले कर मकान मालिकों के मनमाना अक्खड़ रवैया भी परिलक्षित होता है। कहीं इसमें घरेलू नौकरानियों के बढ़ते शोषण के मद्देनज़र प्लेसमेंट एजेंसीज़ के गोरखधंधे की बात दृष्टिगोचर होती दिखाई देती है। तो कहीं इसमें लार से भरे मुँह द्वारा हास्यास्पद तरीके से गुटका खाने के सही तरीके को बताने के साथ साथ  गुटखे के नामों एवं प्रकारों के आधार पर कुछ लोगों का नामकरण होता दिखाई देता है।

कहीं इसमें upsc रिज़ल्ट्स के ओपन होने के बाद की उत्सुकता.. उत्कंठा..हताशा दिखाई देती है। तो कहीं कुछ लोग डंके की चोट में स्वघोषित शैली में अग्रिम खुद के फेल होने की घोषणा करते दिखाई देते हैं। कहीं इसमें परीक्षा परिणामों के घोषित होने में निरंतर होती सालों साल की देरी युवाओं में फ्रस्ट्रेशन..असंतोष और कुंठा पैदा करती दिखाई देती है। तो कहीं गमगीन पलों को भी हँसी ठट्ठे में धुआँ उड़ाते युवा दिखाई देते हैं।

इस उपन्यास में अगर कहीं कोई क्रिकेट का इस कदर दीवाना होता दिखाई देता है कि किसी खिलाड़ी की रिटायरमेंट को ले कर आपस में शर्त तक लगाने को तैयार रहता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी उपन्यास में कहीं कोई चोरी छुपे तो कोई खुलेआम अपनी अब तक की असफलताओं से निराश हो जगह जगह अपनी जन्मपत्री ज्योतिषी से बंचवाता फिरता है। इसी उपन्यास की कहानी में कहीं किसी को नारदमुनि बन बस इधर की उधर लगाने..याने के मुखबिरी करने में ही मज़ा आता है।

इसी उपन्यास में कहीं पीने के साफ़ पानी की किल्लत से हर कोई त्रस्त नज़र आता है। तो कहीं  कोई टिफ़िन सर्विस वालों द्वारा प्रदान किए जा रहे घटिया खाने से परेशान दिखाई देता है। कहीं इसमें मकान मालिक किराया बढ़ाने को ले कर झिकझिक करता दिखाई देता है तो कहीं इस बात को ले कर रोष उमड़ता दिखाई देता है कि किराए पर कमरा देने के मामले में मकान मालिक, नार्थ ईस्ट के अभ्यर्थियों को ज़्यादा तरजीह देते हैं।

इसी उपन्यास में कहीं बरसों तलक परीक्षाओं में असफल रहने वाले अधेड़ हो चुके युवा अपने गांव..घर और आस पड़ोस के लोगों के तानों से परेशान और व्यथित दिखाई देते है। तो कहीं वही सब एक दूसरे को सांत्वना देते..उनके संबल बनते..हिम्मत ना हारने की प्रेरणा देते दिखाई देते हैं।

कहीं इसमें दिल्ली की पहली बारिश के बहाने से जगह जगह होते जलभराव और सरकारों की अकर्मण्यता पर कटाक्ष नज़र आता है। तो कहीं इसमें पर्यावरणीय मसलों को ले कर होने वाले सम्मेलनों की सार्थकता पर सवाल उठता दिखाई देता है। कहीं इसमें देश की हर समस्या के मूल में निरंतर बढ़ती जनसंख्या पर चिंता जताई जाती है। तो कहीं इसी उपन्यास में भारत पाक संबन्धों में नई सुगबुगाहट अभ्यर्थियों में बेचैनी भरती नज़र आती है कि अब नए सिरे से उन्हें भारत पाक संबंधों से संबंधित सभी अव्ययों को भी आने वाली परीक्षाओं के मद्देनज़र पढ़ना होगा।

इसी उपन्यास में कहीं सरकारी लालफीताशाही के चलते निरंतर परीक्षाओं में होते विलंब और उससे युवाओं में उत्पन्न होती हताशा की बात की गई है। 
कहीं इस उपन्यास में UPSC में पारदर्शिता की कमी की बात की गयी है तो कहीं इसमें अचानक जोड़ दी गयी C-SAT की परीक्षा से चिंतित और बौखलाए हुए हिंदी पट्टी के अभ्यर्थी नज़र आते हैं।
कहीं इसमें पात्रों के बजाय लेखक खुद सीधे सीधे देश की व्यवस्था(?) के प्रति अपने मन की भड़ास निकालता नज़र आता है। 
 
 इसी उपन्यास में कहीं मूक जानवरों के प्रति प्रेम उमड़ता दिखाई देता है तो कहीं दिल्ली के सुप्रसिध्द निर्भया कांड में लिप्त अपराधियों के प्रति जनमानस में रोष..चिंता..हताश और आक्रोश उत्पन्न होता दिखाई देता है।

तबियत से बिखरे बेतरतीब चरित्रों से लैस इस उपन्यास में कहीं-कहीं व्यंग्य की हल्की झलक या सुगबुगाहट दिखाई देती है जो 300 पेजों के इस बड़े उपन्यास में कहीं कहीं राहत के छींटों के रूप में मुस्कुराहट के पल ले कर आती है। पढ़ते वक्त अनेकों जगह पर लगा कि पाठकों के सब्र का इम्तिहान लेते हुए लेखक उनसे अपनी यादाश्त..अपनी स्मृति का लोहा मनवाना चाहता है कि कितनी गलियां.. कितने चौराहे..कितने मोहल्ले..कितने मकान..कितनी सड़कें..कितने दुकानदार..कितने रेहड़ी पटरी वाले..कितने फ्लोर..कितने मकान मालिक..कितने पड़ोसी..कितने यार-दोस्त..कितने किराएदार इत्यादि सब का सब उसे याद है। 

 पेज नंबर 72 पर लिखा दिखाई दिया कि..

" वैसे उनका रिकॉर्ड बेहद शानदार व गौरवशाली है लेकिन अपने समदर्शी व्यक्तित्व के चलते कभी-कभी 'कचरा' (या उनके शब्दों में सुंदर लड़की) भी उठा लाते हैं।"

यहाँ किसी लड़की या महिला के लिए 'कचरा' शब्द का इस्तेमाल करना बतौर लेखक एवं पाठक मुझे सही नहीं लगा।

किसी भी उपन्यास में हर बात का..घटना का वर्णन कहानी को आगे बढ़ाने में अगर उपयुक्त साबित हो..तभी उसकी सार्थकता है। महज़ हँसी ठट्ठे के लिए पेज काले करना किसी भी परिस्थिति में तर्कसंगत या जायज़ नहीं ठहराया जा सकता। 
भले ही रोचकता बढ़ाने के लिहाज़ से लेखक ने कुछ जगहों पर कुछ मनोरंजक घटनाओं को जोड़ने का अपनी तरफ़ से प्रयास किया है लेकिन कहानी की थीम या कॉन्टैक्स्ट के हिसाब से उनका अप्रासंगिक होना थोड़ी उकताहट पैदा करता है।

इस किताब में एक दो नहीं बल्कि अनेकों ऐसे उदाहरण देखने को मिले जिनका किताब में खामख्वाह के पेज भरने के अलावा और कोई मतलब नहीं था। उदाहरण के तौर पर पृष्ठ नंबर 211 पर लिखा दिखाई दिया कि..

[" मारू अपनी टेबल के सामने रखी हुई कुर्सी पर बैठा हुआ अपने अध्ययन कार्य में व्यस्त है। वह पूरी एकाग्रचित्तता के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था का अध्ययन कर रहा है। अचानक दीवार पर एक मकड़ी आ गई है। मारू उसकी तरफ देखता भर है और चुपचाप पढ़ने लगता है। मकड़ी धीरे-धीरे टेबल के पास वाले दीवार के भाग की ओर आ जाती है। मारू अपने पैन से दीवार को खटखटा देता है। मकड़ी भाग जाती है। थोड़ी देर बाद मकड़ी फिर उसी जगह पर वापस आ जाती है। वह एक बार फिर दीवार को खटखटा देता है। मकड़ी फिर भाग जाती है। थोड़ी देर बाद मकड़ी वापस उसी जगह की और आने लगती है। मारु बेचैन हो जाता है। वह फिर से मकड़ी को भगा देता है।"]

अभी गनीमत ये समझिए कि 3 पैराग्राफ़ के इस  मकड़ी प्रसंग का सिर्फ एक तिहाई हिस्सा ही मैंने यहाँ दिया है जबकि पूरा का पूरा चैप्टर ही मकड़ियों और चींटियों की बस बात कहता है। 

इसी तरह पेज नंबर 169 पर लिखा दिखाई दिया कि..

["हालात तो यह है कि संसार के सबसे युवा देश के युवाओं की स्थिति सोचनीय हो चुकी है।"]

यहाँ 'हालात' के बजाय 'हालत' आएगा और 'सोचनीय' के बजाय 'शोचनीय'। 

बेशक काल्पनिक और नाटकीय ही सही मगर पूरे उपन्यास के तंत या सार के रूप में सपने में देखा गया कोर्ट रूम ड्रामा प्रभावित करता है जिसमें एक तरह से पूरे उपन्यास की कहानी..उसका मर्म समाहित है।

अमूमन कोई भी लेखक अपने लेखन के मोह में इस कदर ग्रस्त होता है कि उसे लगने लगता है कि जो उसने लिख दिया..वही 'ब्रह्म वाक्य' हो गया..वही कालजयी हो गया लेकिन यकीन मानिए अपने लेखन पर आँखें मूंद कर यकीन करना ही हम लेखकों को सफल नहीं होने दे रहा। किसी भी सफल लेखक में लेखक से पहले एक निर्दयी संपादक का होना बेहद ज़रूरी है जो अपने ही लिखे को बार बार काट छाँट कर संपादित करने के बाद ही उसे पाठकों के समक्ष रखे। 

बतौर सजग पाठक एवं खुद के एक लेखक होने के नाते मेरा यह मानना है कि इस 300 पृष्ठीय उपन्यास का फिर से संपादन होना बेहद ज़रूरी है। अगर अनावश्यक घटनाओं..चरित्रों एवं बार बार रिपीट होने वाली बातों को अगर इस उपन्यास से हटा दिया जाए तो मूल कहानी को आराम से एक अच्छे पठनीय उपन्यास के रूप में लगभग 150-170 पृष्ठों में आसानी से समेटा जा सकता है।

उम्मीद है कि मेरी बात को अन्यथा ना लेते हुए लेखक दिए गए सुझावों को उपन्यास के आगामी संस्करणों तथा आने वाली नयी किताबों की रचना प्रक्रिया के दौरान अम्ल में लाएँगे। 

हालांकि यह उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 300 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है साहित्य संचय ने और इसका मूल्य रखा गया है 330/- रुपए जो कि कंटैंट को देखते हुए मुझे ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

अटकन चटकन- वंदना अवस्थी दुबे

क़ुदरती तौर पर कुछ चीज़ें..कुछ बातें...कुछ रिश्ते केवल और केवल ऊपरवाले की मर्ज़ी से ही संतुलित एवं नियंत्रित होते हैं। उनमें चाह कर भी अपनी मर्ज़ी से हम कुछ भी फेरबदल नहीं कर सकते जैसे...जन्म के साथ ही किसी भी परिवार के सभी सदस्यों के बीच, आपस का रिश्ता। हम चाह कर भी अपने माता-पिता या भाई बहनों को बदल नहीं सकते कि...

"हे!...मेरे परवरदिगार...है!...मेरे मौला, ये पिता या माँ अथवा भाई या बहन हमें पसंद नहीं। इन्हें बदल कर आप हमें दूसरे अभिभावक या भाई-बहन दे दीजिए।"

साथ ही हर व्यक्ति की पैदाइश के साथ ही ऊपरवाले द्वारा उसका स्वभाव...उसकी आदतें वगैरह भी सब तयशुदा मंज़िल की तरफ बढ़ने के लिए भेज दी जाती हैं कि वह मीठा...मिलनसार..दूसरों की मदद को तत्पर रहने वाला निकल कर सबका जीवन खुशमय करेगा अथवा कड़वा...कसैला...शंकालु एवं झगड़ालू बन के सबका जीवन नर्क बनाता हुआ हराम करेगा। इस बार ऐसे ही अटकते चटकते रिश्ते और एकदम विपरीत स्वभाव की दो बहनों की दास्तान पढ़ने को मिली मुझे प्रसिद्ध साहित्यकार वंदना अवस्थी जी के उपन्यास "अटकन चटकन" में।

जी!...हाँ...आपने सही सुना "अटकन चटकन"। अभी हाल फिलहाल ही एक फ़िल्म आयी है इसी...याने के "अटकन चकटन" के ही नाम से जिसे बनाया है प्रसिद्ध संगीत निर्देशक ए आर रहमान ने। वो कहते हैं ना कि...दुनिया गोल है। क्या ग़ज़ब का संयोग बनाया है ऊपरवाले ने? और मज़े की बात ये देखिए कि फ़िल्म की शुरुआत में ही एक किताब दिखाई देती है जिसका नाम भी हमारी वाली किताब की ही भांति "अटकन चटकन" है। यकीन मानिए कि बस नाम के अलावा कुछ भी समान नहीं है...सब का सब अलग है।

चलिए!...अब बात करते हैं इसकी कहानी की तो कहानी कुछ यूँ है कि एक ही परिवार में जन्मी दो बहनों की शक्ल सूरत और स्वभाव एक दूसरे से एकदम भिन्न है। एक को जहाँ ऊपरवाले ने दुनियां जहां की खूबसूरती की नेमत बक्शी है तो वहीं दूसरी तरफ दूसरी बहन शक्ल औ सूरत क्या...सीरत के मामले में भी उससे एकदम भिन्न। 

ऐसे में तो भय्यी...आप कुछ भी कह लो...थोड़ी बहुत ईर्ष्या..जलन तो बनती ही है...इसमें कोई शक नहीं लेकिन हद दर्ज़े की नफरत? ना बाबा ना...इसे तो भय्यी हम किसी भी कीमत पर जायज़ नहीं ठहरा सकते।

चलो!...माना कि बचपन बड़ा भोला होता है। गुस्से के मारे हो जाता है कि एक ने शरारत की और दूसरे की उसी वक्त...उसी के सामने...ढंके की चोट पर धड़ाधड़ बोलते हुए चुगली कर शिकायत लगा दी कि...इस बाबत मैनें तो जो करना था..कर दिया। अब तू देख तमाशा। तमाशे तो भय्यी उस छुटकी ने इतने किए...इतने किए कि बस पूछो मत। आए दिन घर के कभी बड़ों से तो कभी स्कूल में अध्यापकों से खामख्वाह में कानाफूसी करते इधर उधर की इतनी चुगलियाँ कि बड़की बेचारी कभी इहां डाँट खाएं तो कभी उहां आँसू बहा..रो..रो आँख सुजाए।

आँखें सुजाने में तो चुटकी का भी भय्यी बस पूछो मत। क्या ग़ज़ब रो रो के अपनी आँखें सुजाती कि सब उसको सच्चा और बड़की को झूठा मान..बड़की को ही गरियाते रहते और बड़की बेचारी..ना चूं...ना चां...ना हूँ हाँ, बस छुप छुप के अकेले में सुबक सुबक रोती रहती।

कहते हैं कि बढ़ती उम्र के साथ सब में समझ आ जाती है। अब अगर सच में आ जाती तो क्या बात थी। छुटकी का अब भी वही रोना धोना...वही नौटंकी..वही लटके झटके। हद तो इस बात की कि बड़की के उसके प्रति किए गए हर अच्छे काम में उसको कोई ना कोई साजिश नज़र..कोई ना कोई खोट नज़र आता। अब कोई उससे साजिश कर साफ़ बच के निकल जाए, ऐसा भला कैसे हो सकता था? बदले में वो अपनी कुंठाओं के चलते साजिशों..चालों का अंबार लगा देती। 

पढ़ते वक्त सोचा कि चलो...ब्याह के जब दोनों अपने अपने घर चली जाएँगी तो उनके साथ साथ हमें भी चैन आ जाएगा। मगर चैन कहाँ भला अपनी किस्मत में लिखा था? बड़की की मति फिर गयी जो उसी को अपनी जेठानी बना अपनी ही ससुराल में..अपनी ही छाती पे मूंग ढलने को ला बैठी कि... चलो!...बचपन तो इसका जैसे तैसे बीता...बाकी की जून ही कम से कम सुधर जाए। उसका कुछ सुधर या संवर जाए? वो भी बड़की के हाथों? ये भला छुटकी को कैसे मंज़ूर होता? हो गया नए सिरे से शुरू फिर वही नौटंकी..वही साजिशों का दौर।

कहानी...यूँ समझ लो कि शुरू से अंत तक बस मज़ेदार ही मज़ेदार है। अब सारी किस्सागोई अगर मैनें यहीं कर दी तो भय्यी इतनी बढ़िया किताब फिर पढ़ेगा कौन? शिक्षा...रोजगार और महिला सशक्तिकरण जैसे कई मुद्दों को अपने में समेटे इस लघु उपन्यास में बस इतना समझ लो कि एकदम से समय और पैसे..दोनों की फुल्ल बटा फुल्ल वसूली है। 

अब आप कहेंगे कि डायबिटीज़ के ज़माने में यहाँ तो सब मीठा ही मीठा हो गया। बैलेंस के लिए कम से कम थोड़ा बहुत नमकीन तो हो। अब वैसे तो कुछ खास नमकीन है नहीं मेरे झोले में मगर अब जब इतने प्यार से आप ज़िद कर ही रहे हैं तो वह भी लीजिए।

पूरे उपन्यास में स्थानीयता के पुट के चलते बुंदेलखंडी भाषा का खूब धड़ल्ले से इस्तेमाल हुआ है और यही इस्तेमाल शुरू में थोड़ा मेरी दुविधा का कारण भी बना। ये तो शुक्र मनाओ मेरे स्टाफ और बॉलीवुड की उन तमाम फिल्मों का जिनमें बुंदेलखंडी या फिर उससे मिलती जुलती भाषाओं का प्रयोग किया गया। मेरा तो चलो..जैसे तैसे गुज़ारा करते हुए काम चल गया मगर ये सोचो कि बुंदेलखंडी या ऐसी ही अन्य किसी भाषा को बिल्कुल भी ना जानने वाले हिंदी किताबों के शौकीन पाठकों का क्या होगा? कैसे वो किसी कहानी या उपन्यास के असली मर्म याने के भीतरी तहों तक पहुँच पाएँगे?

वैसे..एक सुझाव है तो सही कि या तो ऐसे संवादों को हिंदी मिश्रित स्थानीय भाषा में लिखा जाए। या फिर दो किरदारों में से कम से कम एक किरदार स्थानीय भाषा के बजाए हिंदी में बात करे। एक अन्य  तरीका यह भी हो सकता है कि स्थानीय भाषा के सभी संवादों के हिंदी अनुवाद भी साथ साथ दिए जाएँ।

संग्रहणीय क्वालिटी के इस 88 पृष्ठीय लघु उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य महज़ ₹125/- रखा गया है जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही कम है। आने वाले सुखद भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

छाप तिलक सब छीनी- सुनीता सिंह

कहते हैं कि हर तरह की शराब में अलग अलग नशा होता है। किसी को पीते ही एकदम तेज़ नशा सोडे की माफ़िक फटाक से सर चढ़ता है जो उतनी ही तेज़ी से उतर भी जाता है। तो किसी को पीने के बाद इनसान धीरे धीरे सुरूर में आता है और देर तक याने के लंबे समय तक उसी में खोया रहता है। कुछ इसी तरह की बात किताबों को ले कर भी कही जा सकती है। कुछ किताबें शुरुआती दो चार पृष्ठों में ही पाठक को अपने रंग में रंग लेती हैं और किताब के समाप्त होने तक उसके ध्यान..उसकी एकाग्रता..उसकी तवज्जो को उससे दूर नहीं होने देती लेकिन बाद में उस किताब का हमारी स्मृति में कहीं कोई अता पता नहीं होता । वहीं दूसरी तरफ़ कुछ ऐसी भी किताबें होती हैं जो पहली बार में बेशक उतना व्यापक असर नहीं छोड़ पाती लेकिन उन्हें दूसरी या तीसरी बार याने के बार बार पढ़ने का मन करता है और हर बार अलग आनंद..अलग तजुर्बा..अलग नशा उनसे हासिल होता है। 

दोस्तों..आज मैं एक ऐसी ही याने के एक टिकाऊ किताब, जो कि एक कहानी संकलन है, 'छाप तिलक सब छीनी' का जिक्र करने जा रहा हूँ जिसे बहुत ही कम अंतराल में मैंने कम से कम दो बार पढ़ा है। इस कहानी संकलन की रचियता सुनीता सिंह हैं। 

आइए..अब बात करते हैं इस संकलन की कहानियों की तो इसकी शीर्षक कहानी आजकल के ज़माने में लिव इन के ज़रिए रिश्ता जुड़ने से पहले ही ब्रेकअप की संभावनाएं तलाशने वाली तथाकथित सोच से हट कर, उस समय की बात करती है जब किसी के दुनिया छोड़ कर चले जाने के बाद भी उसकी यादों को और उस रिश्ते की गरिमा को ताउम्र बरकरार रखा जाता था।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ बताती है कि अपने बच्चों के लिए माँ की ममता सदा एक सी ही रहती है चाहे वो माँ, कोई मूक जानवर वो या फिर खुद को सभ्य मानने वाले हम मनुष्यों में से कोई एक। तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी अन्य कहानी में कोई अपने जवानी के दिनों में किसी के द्वारा ठुकरा दिया जाता है मगर होनी के गर्भ में क्या छिपा है? यह कोई नहीं जानता। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में दहेज के लिए पैसा ना होने की वजह से एक बेहद खूबसूरत और गुणवती युवती की शादी एक एबी लड़के से कर दी जाती है। जिसकी परिणति अंततः उस युवती की आत्महत्या के साथ होती है। जो इस बात की तस्दीक करती है कि अपनों का अहित होते देख कर भी प्रत्यक्षत: दख़ल देने के बजाय तटस्थ या मूक रह कर भी हम उनका अहित ही करते हैं। तो वहीं एक अन्य कहानी में घर की इकलौती कमाऊ लड़की, घर परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझ, पूरी तरह से उनका निर्वाह कर रही है। इसी वजह से उम्र बीत जाने के बावजूद वह अपना विवाह तक नहीं करती। मगर जब उसे महज़ सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझ लिया जाता है तो अंततः वह विद्रोह कर अपने सपनों को पूरा करने के लिए निकल पड़ती है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में ब्याह की प्रथम रात्रि ही एक बहु अपने ससुर को किसी अन्य स्त्री के साथ रात के घने अंधेरे में निवस्त्र गुत्थमगुत्था होते हुए देखती है तो उसका मन वितृष्णा से भर उठता है। मगर यह देख कर वह और भी हैरान रह जाती है कि उसकी सास ने यह सब जानते..देखते..समझते और महसूस करते हुए भी मौन साधा रखा है। 

 इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ स्त्रियों की उस छठी इंद्री की बात करती है जिसके ज़रिए उन्हें बिना किसी के कहे ही सामने वाले की मंशा..बुरी नज़र का समय से पहले ही भान हो जाता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में 
अपने अजन्मे शिशु और नवब्याहता पत्नी को अकेला छोड़ विदेश जा बसा व्यक्ति वहीं अपना घर बसा लेता है। बरसों तलक बिना किसी संपर्क के रहने के बाद वह व्यक्ति अपनी जवान हो चुकी बेटी की शादी में वापिस लौटता है और अपनी पहली पत्नी के सामने अपने साथ विदेश चल कर साथ रहने का प्रस्ताव रखता है। मगर क्या अब पत्नी सब कुछ भुला उसके साथ चली जाएगी अथवा जाने से इनकार कर देगी?

एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़  सच का..सही का साथ देने की बात करती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में तीन तीन प्रतिभाशाली बेटों के होते हुए भी एकाकीपन का दंश झेलते माता पिता में से पिता एक दिन बीमारी से मर जाता है और असाध्य बीमारी से ग्रस्त माँ न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर झेलते हुए बिस्तर पकड़ लेती है।

एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ एक साथ दो विरोधी बातों को ले कर चलती है कि कहीं कोई अपने जीवनसाथी के असमय बिछुड़ने से दुखी है तो कोई अपने जीवनसाथी के साथ होने से। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी एक ऐसे मृदभाषी.. सौम्य.. केयरिंग युवक की कहानी कहती है जो दरअसल में एक सेक्सुअली परवर्ट व्यक्ति है जो अपनी पत्नी पर अमानवीय अत्याचार  कर हमेशा उसे प्रताड़ित..अपमानित करता रहता है। 

इस संकलन की कुछ कहानियाँ मुझे बढ़िया लगी जिनके नाम इस प्रकार हैं..

*अहा! ज़िन्दगी 
*एक प्रेमपत्र
*ब्याहता
*विजया
*वैलेंटाइन्स डे
*साथी! हाथ बढ़ाना
*सवाल
*टयूलिप
*कीड़े
*प्रेम ना बाड़ी उपजै

मनमोहक शैली में लिखी गयी इस संकलन की कहानियों में कहीं कहीं क्षेत्रीय भाषा के शब्दों का इस्तेमाल भी दिखा। कहानी के साथ ही अगर उनका सरल हिंदी अनुवाद भी दिया जाता तो बेहतर था। पहली कहानी कहीं कहीं थोड़ा भाषण सा देती हुई प्रतीत हुई। तो कहीं किसी कहानी में बिना किसी खास कॉनसेप्ट..लिंक..मकसद या हिंट अथवा आवश्यकता के दो छोटी कहानियाँ अपने में विपरीत मुद्दों के समाए होने के बावजूद भी आपस जुड़ी हुई दिखाई दी। 

हालांकि यह बढ़िया कहानी संग्रह मुझे प्रकाशक की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूंगा इस बढ़िया कहानी संग्रह के 123 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है साहित्य विमर्श प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 149/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।
 
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