सिद्धपुर की भगतणें- लक्ष्मी शर्मा

किसी भी क्षेत्र के समाज..वहाँ की संस्कृति...वहाँ की भाषा और रीति रिवाजों को जानने..समझने का सबसे बढ़िया तरीका है कि वहाँ के ग्रामीण अंचल की तसल्लीबख्श ढंग से खोज खबर लेते हुए..सुद्ध ली जाए मगर संयोग हमेशा कुछ कुछ ऐसा बना कि मैं शहरी क्षेत्र से ही हर बार वापिस निकल आया मानों शहर के एन बीचों बीच किस्मत ने कस के खूँटा गाड़ दिया हो कि...

"ले!...इसके आले द्वाले जितना मर्ज़ी घूम ले मगर भीतर बड़ने का नाम भी मति ले लेइयो।"

अब सिर्फ शहर भर में ही घूमने से तो बस वही चटपटा शहरी स्वाद..वही ट्रैफिक की रेलमपेल, वहीं कन्धे से कन्धा रगड़ कर बेतरतीब चाल में मदमस्त हो चलती बेलगाम भीड़। वही दर्शनीय स्थल और वही राजमंदिर। जी!...हाँ... राजमंदिर, वही राजमंदिर जो जयपुर में है। वही जयपुर, जो दाल बाटी चूरमे की प्रसिद्ध नगरी याने के राजस्थान में है। 

बॉलीवुडीय फिल्मों का राजस्थान, अपने रेतीले समंदरों और वाइड कैमरा एंगल शॉट्स और जोशोखरोश से भरे संवादों के ज़रिए शुरू से ही मेरा मन मोहता रहा है लेकिन फिल्मी बातें तो भय्यी बस फिल्मी ही होती है। नाच गाने...शोर शराबे...मार धाड़ और उछलकूद समेत इतना कुछ एक ही दो अढ़ाई घँटे की फ़िल्म में सीन दर सीन मौजूद होता है कि किसी एक चीज़ पे निगाह या दिमाग टिक ही नहीं पाता है।

अब फुर्सत से भला इतनी फुर्सत कोई क्यूँकर और कैसे निकाले कि साल छह महीने अपना सब काम धन्धा छोड़ के ग्रामीण अंचल में जा...वहाँ की धूल फांकते हुए वहीं अपनी धूनी रमाए कि तसल्लीबख्श ढंग से वो गांव की मिट्टी...वहाँ की संस्कृति से रूबरू हो सके। ऐसे में एक अचूक उपाय बचता है कि वहाँ की मिट्टी..वहाँ की संस्कृति... वहाँ की खुशबू को जानने समझने के लिए कि वहाँ के साहित्य से दो चार हुआ जाए।

ऐसे में जब पता चला कि प्रसिद्ध साहित्यकार लक्ष्मी शर्मा जी का उपन्यास इसी राजस्थान के ग्रामीण अंचल की पृष्ठभूमि पर आया है तो मन उसे मँगवाने से गुरेज़ ना कर सका। दोस्तों...मैं बात कर रहा हूँ उनके उपन्यास "सिधपुर की भगतणें" की। पहले पहल तो नाम से यही भान हुआ कि वहाँ पर याने के सिधपुर में कोई मंदिर...आश्रम या मठ होगा, जहाँ की कुछ भगतिनें होंगी और उपन्यास में उनका कष्टकारी जीवन, रहने खाने...ओढ़ने पहनने और वहाँ होते उनके दैहिक शोषण की बातें होंगी। मगर मेरी उम्मीद के ठीक विपरीत इसमें कहानी है कुछ ऐसी महिलाओं की, जिन्होंने एक ही खानदान...एक ही परिवार में रहते हुए भी तमाम दबावों..भर्त्सनाओं एवं बंदिशों के बावजूद अपनी बेबाकी..अपने दबंगपने और अपने अक्खड़ रवैये के चलते अपनी एक अलग पहचान बनाई। इस सारी कवायद का कुल जमा घटा जोड़ ये कि..भगतण मतलब वो लुगाई जो किसी से ना डरे।

इसमें कहानी है कम उम्र में गरीब घर की मेहनती लड़की भजन, जो कि लेखिका की मामी है, के लंबे चौड़े..बांके नौजवान केदार के साथ ब्याह कर उसके घर..उसके गांव आने की जहाँ उसकी दबंग सास लट्ठमार तरीके से स्वागत करने के लिए उसका इंतज़ार कर रही है। केदार..उसका पति, जो कि असल में एक नामर्द है। अब ऐसे में उसकी सास अपनी वंशबेल बढ़ाने की चाह और अपने बेटे के सर से नामर्द का ठप्पा हटवाने के लिए अपनी ही अबोध बहु का धोखे से नशे की हालत में लगातार दो बार बलात्कार करवा देती है। नतीजन कम बोलने चालने वाली..हमेशा सकुचाई सी रहने वाली भजन, शर्म ओ हया छोड़, अब मुँहफट होने के साथ साथ अपने घर की स्त्रियों के अधिकारों एवं हितों के लिए अपनी सास एवं जेठानी से हरदम लोहा लेती नज़र आती है। 

इस उपन्यास की दूसरी भगतण है ललिता, वो ललिता जो कभी मद्रास के किसी गाँव से इश्क कर के एक राजस्थानी लड़के के साथ भागी थी। वो ललिता, जिसका प्रेमी बीच रस्ते ही ट्रेन में किसी बीमारी से मर जाता है। वो ललिता, जो वहाँ की बोली ना जानने के कारण, ना अपनी बात किसी को समझा पाती है और ना ही किसी की कोई बात समझ पाती है। वो ललिता, जिसे अपनी आबरू बचाने के लिए गांव के उजाड़ मसान में चुड़ैल का स्वांग रचते हुए दिन रात छुप छुप के रहना पड़ता है। वो ललिता, जिसे जीने के लिए लाशों पर चढ़े चढ़ावे को खा के और ठीकरों में इकट्ठे हुए बारिश के पानी को पी के गुज़ारा करना पड़ता है। ऐसे कष्टदायी जीवन से निकल कर जो ललिता सामने उभर कर आती है, उसे अपने अक्खड़ और उद्दण्ड स्वभाव की वजह से किसी से डर नहीं लगता। अपने इन्हीं तेवरों की बदौलत वो जल्द ही भगतण की उपाधि पा, भजन मामी का दिल जीत लेती है। 

उपन्यास की तीसरी भगतण, गुलाब जो वस्तुतः भजन की बाल विधवा जेठानी है जिसको, उसकी ससुराल में लाने में किसी की रुचि नहीं है। जिसे उसके पिता की ही साजिश के तहत उस व्यक्ति द्वारा भगा लिया जाता है जो भोमिया जी के थान का महंत है लेकिन महंत के साथ रह कर भी उसके मन में हमेशा पहले विवाह के प्रति प्रतिबद्धता बनी रहती है। उसे अपने बाप की उम्र के महंत से कोई शिकायत नहीं क्योंकि उसके बाप ने उससे पैसे लिये थे और उसने उसे अपने साथ गाय की तरह रखा था। वह भोमिया जी की सेवा में जीवन गुजार रही थी पर ‘मन और धरम से व्यासों की ही बहू थी’। 

इस उपन्यास की चौथी भगतण है भजन मामी के बेटे भैरों की आधुनिक माहौल में मेडिकल की पढ़ाई कर रही बेटी सौभाग्य। जो चाहती है कि उसका पति इंटेलिजेंट, लिबरल एवं वाइफ की फ्रीडम और इंडीविजुअलिटी की रिस्पेक्ट करने वाला हो। ऐसे पति को पाने के लिए वो अपने याने के दुनिया के बेस्ट पापा पर हमेशा भरोसा जताती है लेकिन वही सौभाग्य एक दिन उनकी अनिच्छा एवं तमाम विरोधों के बावजूद एक मुस्लिम डॉक्टर से शादी करने का मन बना लेती है।

पाठकीय नज़रिए से यह उपन्यास हमें राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत से रूबरू कराते हुए स्त्री सशक्तिकरण के कई अहम मुद्दे भी साथ में उठाए चलता है जैसे...स्त्रियों में आत्मनिर्भरता, भ्रूण जाँच एवं उसकी हत्या का विरोध, शिक्षा का महत्त्व इत्यादि। हालांकि इस उपन्यास से राजस्थानी भाषा के काफ़ी शब्द सीखने को मिले लेकिन फिर भी कई जगहों पर संवाद समझने में खासी दिक्कत भी हुई। अपनी मिट्टी...अपनी भाषा से जुड़े रहना बहुत बढ़िया है लेकिन हिंदी साहित्य का क्षेत्र बहुत अधिक विस्तृत है। हिंदी साहित्य, कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक और गुजरात...राजस्थान से ले कर सुदूर नागालैंड या अरुणाचल प्रदेश तक भी पढ़ा और पढ़ाया जाता है। ऐसे में लेखकों को चाहिए कि क्षेत्रीय भाषा के वाक्यों/संवादों के साथ उनके हिंदी अनुवाद भी दें ताकि उनके लिखे की पकड़ एक संकुचित क्षेत्र के बजाय विस्तृत क्षेत्र तक बन सके।

देखा जाए तो इस उपन्यास के सारी भगतणें याने के सभी अहम किरदार कहीं ना कहीं किसी ना किसी रिश्ते से आपस में जुड़े हुए हैं मगर पाठकीय नज़रिए से मुझे दिक्कत ये लगी कि इन सभी के किस्से इसमें एक के बाद एक कर के सामने आते है और उनके आपस के रिश्ते को बस बताने भर को कम शब्दों में बता दिया गया है जबकि उन्हें शुरू से ही आपस में इस प्रकार गुंथा एवं रला मिला होना चाहिए था कि पाठक को ये सभी किस्से अलग अलग नहीं बल्कि एक साथ..एक ही ट्रैक पर चलते दिखाई देते मसलन सौभाग्य के स्वभाव का बचपन से ही तार्किक ढंग से ज़िद्दी होना या भजन का शुरू से ही ललिता से ज़्यादा मिलना और उठना बैठना। जिसकी वजह से नानी और बड़ी मामी का कुढ़ना इत्यादि।

128 पृष्ठीय इस बढ़िया उपन्यास के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है सामयिक प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹250/-... आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

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