बन्द दरवाज़ों का शहर- रश्मि रविजा

अंतर्जाल पर जब हिंदी में लिखना और पढ़ना संभव हुआ तो सबसे पहले लिखने की सुविधा हमें ब्लॉग के ज़रिए मिली। ब्लॉग के प्लेटफार्म पर ही मेरी और मुझ जैसे कइयों की लेखन यात्रा शुरू हुई। ब्लॉग पर एक दूसरे के लेखन को पढ़ते, सराहते, कमियां निकालते और मठाधीषी करते हम लोग एक दूसरे के संपर्क में आए। बेशक एक दूसरे से हम लोग कभी ना मिले हों लेकिन अपने लेखन के ज़रिए हम लोग एक दूसरे से उसके नाम और काम(लेखन) से अवश्य परिचित थे। ऐसे में जब पता चला कि एक पुरानी ब्लॉगर साथी और आज के समय की एक सशक्त कहानीकार रश्मि रविजा जी का नया कहानी संग्रह "बन्द दरवाज़ों का शहर" आया है तो मैं खुद को उसे खरीदने से रोक नहीं सका। 

धाराप्रवाह शैली से लैस अपनी कहानियों के लिए रश्मि रविजा जी को विषय खोजने नहीं पड़ते। उनकी पारखी नज़र अपने आसपास के माहौल से ही चुन कर अपने लिए विषय एवं किरदार खुदबखुद छाँट लेती है। दरअसल... यतार्थ के धरातल पर टिकी कहानियों को पढ़ते वक्त लगता है कि कहीं ना कहीं हम खुद उन कहानियों से...किसी ना किसी रूप में खुद जुड़े हुए हैं। इस तरह के विषय हमें सहज...दिल के करीब एवं देखे भाले से लगते हैं। इसलिए हमें उनके साथ, अपना खुद का संबंध स्थापित करने में किसी किस्म की कोई परेशानी नहीं होती। आइए!...अब बात करते हैं उनके इस कहानी संग्रह की।

इस संकलन की एक कहानी में सपनों की बातें हैं कि हर जागता.. सोता इंसान सपने देखता है मगर सपने अगर सच हो जाएँ तो फिर उन्हें सपना कौन कहेगा? अपने सपनों के पूरा ना हो पाने की स्थिति में अक्सर हम अपने ही किसी नज़दीकी के ज़रिए अपने सपने के पूरे होने की आस लगा बैठते हैं। ऐसे में अगर हमारा अपना ही...हमारा सपना तोड़ चलता बने तो दिल पर क्या बीतती है? 

बचपन की शरारतें..झगड़े,  कब बड़े होने पर हौले हौले प्रेम में बदल जाते हैं...पता ही नहीं चलता। पता तब जा के चलता है जब बाज़ी हाथ से निकल चुकी या निकल रही होती है। ऐसे में बिछुड़ते वक्त एक कसक...एक मलाल तो रह ही जाता है मन में और ज़िंदगी भर हम उम्मीद का दामन थामे..अपने प्यार की बस एक झलक देखने की आस में बरसों जिए चले जाते हैं।

इस संकलन की एक अन्य कहानी में कॉलेज के समय से एक दूसरे के प्रेम में पड़े जोड़े के सामने जब जीवन में कैरियर बनाने की बात आती है तो अचानक ही पुरुष को अपने सपनों...अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के सामने स्त्री की इच्छाएँ...उसकी भावनाएँ गौण नज़र आने लगती हैं। ऐसे में क्या स्त्री का उस पुरुष के साथ बने रहना क्या सही होगा?
इसी संकलन की एक दूसरी कहानी में नशे की गर्त में डूबे युवा की मनोस्थिति का परत दर परत विश्लेषण है कि किस तरह  घर में किसी नयी संतान के जन्म के बाद पहले वाली संतान कुदरती तौर पर माँ- बाप की उपेक्षा का शिकार होने लगती है। ऐसे में उसे बहकते देर नहीं लगती और नौबत यहाँ तक पहुँच जाती है कि स्थिति , लाख संभाले नहीं संभालती। जब तक अभिभावक चेतते हैं बात बहुत आगे तक बढ़ चुकी होती है।

इसी संकलन की किसी कहानी में स्कूल की मामूली जान पहचान बरसों बाद कॉलेज की रीयूनियन पार्टी फिर से हुई मुलाकात पर प्यार में बदलने को बेताब हो उठती है। तो किसी कहानी में मैट्रो शहरों में खड़ी ऊँची ऊंची अट्टालिकाओं के बने कंक्रीट जंगल में सब इस कदर अपने कामों में व्यस्त हो जाते हैं कि किसी को किसी की सुध लेने की फुरसत ही नहीं होती। ऐसे में घरों में बचे खुचे लोग अपनी ज़िंदगी में स्थाई तौर पर बस चुकी बोरियत से इतने आज़िज़ आ जाते हैं कि सुकून के कुछ पलों को खोजने के लिए किसी ना किसी का साथ चाहने लगते हैं कि जिससे वे अपने मन की बात...अपने दिल की व्यथा कह सकें मगर हमारा समाज स्त्री-पुरुष की ऐसी दोस्ती को भली नज़र से भला कब देखता है?

इस संकलन की किसी कहानी में पढ़ाई पूरी करने के तीन साल बाद भी बेरोज़गारी की मार के चलते आस पड़ोस एवं नाते रिश्तेदारों के व्यंग्यबाणों को झेल रहे युवक की कशमकश उसका बनता काम बिगाड़ देती है। तो किसी कहानी में इश्क में धोखा खा चुकने के बाद, ब्याह में भी असफल हो चुकी युवती के दरवाजे पर फिर से दस्तक देता प्यार क्या उसके मन में फिर से उमंगे जवां कर पाता है? 

इसी संकलन की एक कहानी इस बात की तस्दीक करती है कि...हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती। दरअसल हम इंसानों को जो हासिल होता है, उसकी हम कद्र नहीं करते और जो हासिल नहीं होता, उसे पाने...या फिर उस जैसा बनने के लिए तड़पते रहते हैं। 

नयी बहु बेशक घर की जितनी भी लाडली हो लेकिन उसके विधवा होते ही उसको ले कर सबके रंग ढंग बदल जाते हैं और उसका दर्जा मालकिन से सीधा नौकरानी का हो उठता है। ऐसे में शारीरिक तथा मानसिक यंत्रणा झेलती उस स्त्री के जीवन में राहत के क्षण तभी आते हैं जब उसके अपने बच्चे लायक निकल आते हैं।

अच्छी नीयत के साथ देखे गए सपने ही जब बदलते वक्त के साथ नाकामयाबी में बदलने लगे और अपनों द्वारा ही जब उनकी...उनकी सपने की कद्र ना की जाए तो कितना दुख होता है। ऐसे में प्रोत्साहन की एक हलकी सी फुहार भी मन मस्तिष्क को फिर से ऊर्जावान कर उठती है।

इस कहानी संकलन में कुल 12 कहानियाँ हैं।  रश्मि रविजा जी की भाषा शैली ऐसी है कि एक बार शुरू करने पर वह खुद कहानी को पढ़वा ले जाती है। आखिर की कुछ कहानियाँ थोड़ी भागती सी लगी। उन पर थोड़ा तसल्लीबख्श ढंग से काम होना चाहिए था। 

कुछ जगहों पर अंग्रेज़ी शब्दों को इस तरह लिखा देखा कि उसके मायने ही बदल रहे थे जैसे..एक जगह लिखा था 'फिलिंग वेल' जिसका शाब्दिक अर्थ होता है कुएँ को भरना लेकिन असल में लेखिका कहना चाहती है 'फीलिंग वैल'-feeling well). एक जगह अंग्रेज़ी शब्द 'आयम' दिखाई दिया जिसे दरअसल 'आय एम' या फिर 'आई एम' होना चाहिए था। खैर!...ये सब छोटी छोटी कमियां हैं जिन्हें आने वाले संस्करणों तथा नयी किताबों में आराम से दूर किया जा सकता है।

180 पृष्ठों के इस कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹225/- जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

पिशाच- संजीव पालीवाल

बचपन में बतौर पाठक मेरी पढ़ने की शुरुआत कब कॉमिक्स से होती हुई वेदप्रकाश शर्मा के थ्रिलर उपन्यासों तक जा पहुँची.. मुझे खुद ही नहीं पता चला। उन दिनों में एक ही सिटिंग में पूरा उपन्यास पढ़ कर खत्म कर दिया करता था। उसके बाद जो किताबों से नाता टूटा 
तो वो अब कुछ सालों पहले ही पूरी तारतम्यता के साथ पुनः तब जुड़ पाया जब मुझे किंडल या किसी अन्य ऑनलाइन प्लैटफॉर्म के ज़रिए फिर से वेदप्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक के दमदार थ्रिलर उपन्यास पढ़ने को मिले।

हालांकि मैं गद्य से संबंधित सभी तरह के साहित्य में रुचि रखता हूँ मगर थ्रिलर उपन्यासों में मेरी गहरी रुचि है कि उनमें पाठकों को पढ़ने के साथ साथ अपने दिमाग़ी घोड़े दौड़ाने का भी पूरा पूरा मौका मिलता है। किंडल पर पिछले कुछ समय से मैं हर महीने सुरेन्द्र मोहन पाठक के कम से कम 4 या 5 थ्रिलर उपन्यास तो पढ़ ही रहा हूँ।

दोस्तों..आज थ्रिलर उपन्यासों की बात इसलिए कि आज मैं थ्रिलर कैटेगरी के जिस रोचक उपन्यास की बात कर रहा हूँ उसे 'पिशाच' के नाम से लिखा है, अपने पिछले उपन्यास 'नैना' से प्रसिद्ध हो चुके लेखक, संजीव पालीवाल ने।

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस तेज़ रफ़्तार उपन्यास में मूलतः कहानी है एक उम्रदराज प्रसिद्ध कवि के किसी अनजान नवयुवती के द्वारा विभीत्स तरीके किए गए कत्ल और उसके बाद उपजी परिस्थितियों की। जिनमें उसी तरह के विभीत्स तरीके से एक के बाद एक कर के तीन और कत्ल होते हैं। जिनके शिकार राजनीति..प्रकाशन और टीवी चैनल के दिग्गज लोग हैं।

एक के बाद एक हुए इन कत्लों की तफ़्तीश के सिलसिले में कहीं पुलिस अपने पुलसिया रंग ढंग दिखाती नज़र आती है। तो कहीं किसी बड़े टीवी चैनल का सर्वेसर्वा अपनी साहूलियत के हिसाब से कभी इन्हें साम्प्रदायिक रंग देता नज़र आता है। कभी वही चैनल इनका संबंध किसी आतंकवादी घटना से जोड़ अपने चैनल की टी.आर.पी बढ़ाता नज़र आता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ कोई अन्य टीवी चैनल टी.आर.पी की परवाह ना करते हुए पूरी संजीदगी से इन कत्लों की प्राप्त सूचनाओं के आधार पर रिपोर्टिंग करता नज़र आता है। 

साहित्यिक जगत की परतें उधेड़ते इस हर पल चौंकाने..रौंगटे खड़े कर देने वाले रोचक उपन्यास में और आगे बढ़ने से पहले एक ज़रूरी बात ये कि लेखक के इस उपन्यास के किरदार उनके पिछले उपन्यास 'नैना' से ही जस के तस लिए गए हैं और एक तरह से यह भी कह भी सकते हैं कि यह उपन्यास उनके पिछले उपन्यास का ही एक्सटैंडिड वर्ज़न है। 

अमूमन किसी भी संपूर्ण प्रतीत हो रही कहानी में अगर उसके भविष्य में और आगे बढ़ाए जाने की गुंजाइश होती है तो उसका कोई ना कोई सिरा अधूरा छोड़ दिया जाता है। जबकि लेखक ने अपने पिछले उपन्यास 'नैना' की खत्म हो चुकी कहानी और उसके किरदारों को इस उपन्यास में फिर से ज़िंदा करने का प्रयास किया है। 

ऐसे में पिछला उपन्यास पढ़ चुका पाठक तो कैसे ना कैसे कर के खुद को उस पुरानी कहानी से कनैक्ट कर लेता है मगर पहली बार लेखक के इस उपन्यास को पढ़ने वाले नए पाठकों का क्या? वो ये सोच के अजीब असमंजस में फँस..ठगा सा रह जाता है कि पुरानी कहानी को कैसे जाने? या तो इस उपन्यास को साइड में रख वह पिछले उपन्यास को पढ़ने का जुगाड़ करे या फिर असमंजस में फँस जैसे तैसे इस उपन्यास को थोड़े अनमने मन से ही सही मगर पढ़ कर पूरा करे। 

ऐसे में बेहतर यही रहता कि पुरानी कहानी का बीच बीच में हिंट देने के बजाय इस उपन्यास की शुरूआत में ही पिछले उपन्यास की कहानी का सारांश दे दिए जाने इस हो रही असुविधा से बचा जा सकता था।

प्रूफ़रीडिंग के स्तर पर भी इस बेहद दिलचस्प उपन्यास में कुछ कमियाँ नज़र आयीं जैसे कि..

पेज नंबर 59 के स्वामी गजानन के बारे में लिखी गयी एक फेसबुक पोस्ट में लिखा दिखाई दिया कि..

'ये लोग तो पिशाच होते हैं।'

इसके बाद इसी पेज..इसी पोस्ट के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..

'स्वामी गजानन पीडोफाइल है। बच्चियों का शिकारी है। हैवान है। पिशाच है पिशाच!'

इसी पोस्ट को पढ़ने के बाद पेज के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..

'अब पोस्ट में लिखे गए एक और शब्द पर समर का ध्यान गया। वह शब्द पोस्ट में दो बार आया था , 'पिशाच' '

यहाँ लेखक लिख रहे हैं कि उक्त फेसबुक पोस्ट में दो बार 'पिशाच' शब्द आया जबकि असलियत में यह शब्द 'पिशाच' दो बार नहीं बल्कि तीन बार आया है। 


इसी तरह पेज नंबर 15 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'समर का मन हुआ कि घुमा कर इस आदमी को एक थप्पड़ जड़ दे, पर उसने अपने आप को संयत रखा और पूछा, "ये क्या होता है वंचित, सर्वहारा, हाशिए का समाज और मुख्यधारा? ये कौन सी कविता है?"

इसके बाद पेज नम्बर 127 के अंतिम पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..

'समर को उसकी बातों पर हँसी आ रही थी। हाशिए का समाज और सर्वहारा का मतलब ये आर्मी कैंटोनमेंट में पढ़ने और अँग्रेज़ी मीडियम या कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ने वाली लड़की क्या जाने?  सही भी है इससे यह उम्मीद क्यों लगाई जाए।

यहाँ उल्लेखनीय बात ये है कि जो समर उपन्यास की शुरूआत में खुद वंचित, सर्वहारा, हाशिए का समाज या मुख्यधारा जैसे शब्दों से अनभिज्ञ था..उसी समर को इन्हीं शब्दों को ले कर किसी अन्य की अनभिज्ञता पर हँसी आ रही है जबकि वह खुद उस राह का मुसाफ़िर था जिसकी वह तथाकथित कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ने वाली लड़की थी। 

पल पल रोचकता जगा..उत्सुकता बढ़ाने वाले इस 239 पृष्ठीय पैसा वसूल उपन्यास को छापा है
वेस्टलैंड पब्लिकेशन प्राइवेट लिमिटेड की Eka इकाई ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

उजली होती भोर- अंजू खरबंदा

साहित्य के क्षेत्र में अपने मन की बात को कहने के लिए लेखक अपनी सुविधानुसार गद्य या फिर पद्य शैली का चुनाव करते हैं। गद्य में भी अगर कम शब्दों में अपने मनोभावों को व्यक्त करने की आवश्यता..प्रतिबद्धता..बात अथवा विचार हो तो उसके लिए लघुकथा शैली का चुनाव किया जाता है।

लघुकथा एक तरह से तात्कालिक प्रतिक्रिया के चलते किसी क्षण विशेष में उपजे भाव, घटना अथवा विचार, जिसमें कि आपके मन मस्तिष्क को झंझोड़ने की काबिलियत हो..माद्दा हो, की नपे तुले शब्दों में की गई प्रभावी अभिव्यक्ति है। मोटे तौर पर अगर लघुकथा की बात करें तो लघुकथा से हमारा तात्पर्य एक ऐसी कहानी से है जिसमें सीमित मात्रा में चरित्र हों और जिसे आराम से मिनट..दो मिनट में ही पढ़ा जा सके।

दोस्तों..आज लघुकथा की बातें इसलिए कि आज मैं लेखिका अंजू खरबंदा के पहले लघुकथा संग्रह "उजली होती भोर" की बात करने जा रहा हूँ।
मानवीय संबंधों एवं संवेदनाओं के इर्दगिर्द रची गयी इन लघुकथाओं को पढ़ने के बाद आसानी से जाना जा सकता है कि अंजू खरबंदा अपने आसपास के माहौल एवं घटती घटनाओं पर ग़हरी एवं पारखी नज़र रखती हैं और उन्हीं में अपने किरदार चुनने एवं गढ़ने के मामले में सिद्धहस्त हैं। 

पुरानी रूढ़ियों को तोड़..नए रास्ते दिखाती इस संकलन की सकारात्मक लघुकथाओं में कहीं घर की बालकनी में मर्दाना कपड़े महज़ इसलिए टँगे दिखते हैं कि बुरी नज़र वालों के लिए घर में किसी मर्द के होने का अंदेशा और डर बना रहे। कहीं किसी लघुकथा में रोज़मर्रा के कामों की मशीनें आ जाने से बढ़ती बेरोज़गारी और अकेलेपन की बात दिखती है।

इसी संग्रह में कहीं किसी लघुकथा में पत्नी की कामयाबी से जलते पति की बात है तो किसी अन्य रचना में स्कूटी सीखने जैसी छोटी सी बात पर पत्नी को प्रोत्साहित करने के बजाय समूची महिला शक्ति को ही दोयम दर्ज़े का ठहराया जा रहा है। कहीं किसी रचना में सार्थक पहल करते हुए अपनी हाल ही में विधवा हुई बहु के पुनर्विवाह करवाने की बात होती दिखती है । तो कहीं किसी अन्य रचना में टीस दे चुके पुराने कटु अनुभव को भूल प्रफुल्लित मन से आगे बढ़ने की बात दिखती है। 

इसी संकलन की एक अन्य रचना में जहाँ एक तरफ़ पुरुष और स्त्री को बराबर का दर्ज़ा देने की बात है तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य रचना, ब्याह के बाद बच्चों को अपने साथ बाँधने के बजाय उन्हें उनका स्पेस..उनका समय एन्जॉय करने देने की पैरवी करती नज़र आती है। कहीं किसी रचना में बेटों के साथ घर में बेटियों के हक की बात नज़र आती है। तो कहीं किसी रचना में सकारात्मक ढंग से कोई वृद्धा खुशी खुशी वृद्धाआश्रम और वहाँ के अपने जीवन की पैरवी करती नज़र आती है। 

यूँ तो इस संकलन की सभी लघुकथाएँ कोई ना कोई अहम मुद्दा या आवश्यक बात को उठाती नज़र आती हैं। फिर भी इस संकलन की कुछ लीक से हट कर लिखी गयी रचनाओं ने मुझे बेहद प्रभावित किया। उनके नाम इस प्रकार है...

*गुब्बारे वाला
*मुखिया
*डिश वॉशर
*उजली होती भोर
*अपना घर- एक अलग नज़रिया
*कठपुतलियाँ
*सौ का नोट
*ऑब्ज़र्वेशन
*अंतर्द्वंद्व 
*चौपदी
*कसैला स्वाद
*वक्त का तकाज़ा
*परिमल
*गुबरैला
*नयी परिपाटी
*लंच बॉक्स
*अवतार
*ये तेरा घर ये मेरा घर
*खिसियानी बिल्ली
*इनविटेशन
*कलमुंही
*झूठे झगड़े
*प्रेम पगे रिश्ते
*गोकाष्ठ
*सरप्राइज़ 
*अजब पहेली
*एक पंथ दो काज
*बदलती प्राथमिकताएँ

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस पूरे संकलन में कुछ लघुकथाएँ पूर्व निर्धारित तयशुदा..स्वाभाविक ढर्रे पर चलती हुई दिखाई दी तो सुखद आश्चर्य के रूप में कुछ अपने ट्रीटमेंट से चौंकाती हुई भी लगी। कहीं कहीं वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियों के दिखाई देने एवं जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना होना भी थोड़ा खला।

पेज नंबर 138 की कहानी 'असली उपहार' के पहले पैराग्राफ में ही लिखा दिखाई दिया कि..

'बाजार और दुकानें उपहारों से लगी पड़ी थी' 

यहाँ 'बाज़ार और दुकानें उपहारों से लदी पड़ी थी' होना चाहिए था। 

'स्वेटर' कहानी छोटी..तुतलाती बच्ची के हिसाब से थोड़ी अस्पष्ट और उम्र के लिहाज से बड़ी बात करती लगी। कुछ लघुकथाऐं पढ़ने के दौरान थोड़ी दबी दबी सी लगी कि उनमें खुल कर कहने से बचा जा रहा है। इसी तरह बाल मज़दूरी के उन्मूलन का आह्वान करती एक लघुकथा अपनी ही बात काटती दिखी जिसमें दस साल के छोटे बच्चे को ढाबे की बाल मज़दूरी से हटा पढ़ाई के साथ साथ गैराज में ट्रेनिंग लेने के लिए कहा जा रहा है। 

'अपना कमरा' नाम की लघुकथा अगर सांकेतिक शब्दों के बजाय स्पष्ट रूप से समाप्त होती तो बेहतर था। 'टिप' नाम की लघुकथा अगर सकारात्मक होने के बजाय नकारात्मक होती तो मेरे ख्याल से ज़्यादा प्रभाव छोड़ती।

यूँ तो आकर्षक डिज़ायन एवं बढ़िया कागज़ पर छपा यह संकलन मुझे उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा की इस 146 पृष्ठीय उम्दा लघुकथा संग्रह के पेपरबैक संस्करण को छापा है इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड ने और इसका मूल्य रखा गया है 350/- रुपए। जो कि आम हिंदी पाठक की जेब के लिहाज़ से ज़्यादा ही नहीं बल्कि बहुत ज़्यादा है। किसी भी किताब की ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पकड़ बनाने के लिए यह बहुत ही आवश्यक है कि उसे बहुत ही जायज़ मूल्य पर आम पाठकों के लिए उपलब्ध करवाया जाए। उम्मीद है कि लेखिका एवं प्रकाशक इस ओर ध्यान देंगे। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

सिंगला मर्डर केस- सुरेन्द्र मोहन पाठक

हमारी पीढ़ी के लोगों के बारे में एक तरह से कहा जा सकता है कि.. हम लोग बॉलीवुडीय फिल्मों के साए तले पले बढ़े हैं। शुरुआती तौर पर दूरदर्शन पर रविवार शाम को आने वाली पुरानी हिंदी फिल्मों ने और सिंगल स्क्रीन पर लगने वाली ताज़ातरीन हिंदी फिल्मों ने हमें इस कदर अपना मुरीद बनाया हुआ था कि हर समय बस उन्हीं को सोचते..जीते और महसूस करते थे। उन फिल्मों में कभी रोमांटिक दृश्यों को देख हम भाव विभोर हो उठते थे तो कभी भावुक दृश्यों को देख भावविह्वल हो उठते थे। कभी कॉमेडी दृश्यों को देख पेट पकड़ हँसते हुए खिलखिला कर लोटपोट हो उठते थे। तो कभी फाइटिंग और मुठभेड़ के दृश्यों को देख खुदबखुद हमारे भी हाथ पाँव भी..बेशक़ हवा में ही सही मगर अनदेखे..अनजाने दुश्मन पर चलने लगते थे। कभी किसी थ्रिलर कहानी या मर्डर मिस्ट्री की उलझती कहानी को देख उसे सुलझाने के प्रयास में हमारे रौंगटे खड़े होने को आते थे। 

उपरोक्त तमाम तरह की खूबियों से लैस उस समय के लुगदी साहित्य कहे जाने वाले तथाकथित उपन्यास भी हमारे भीतर लगभग इसी तरह भावनाएँ एवं जादू जगाते थे। दोस्तों..आज मैं बात करने जा रहा हूँ थ्रिलर उपन्यासों के बेताज बादशाह सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के 288 वें थ्रिलर उपन्यास 'सिंगला मर्डर केस' की जो कि उनकी 'सुनील' सीरीज़ का 121 वां उपन्यास है। नए पाठकों की जानकारी के लिए बात दूँ की सुनील, दोपहर को छपने वाले दैनिक अख़बार 'ब्लास्ट' का क्राइम रिपोर्टर है और मर्डर..क्राइम जैसी गुत्थियों को सुलझाना उसका रोज़मर्रा का काम है। 

अब चूंकि नाम से ही ज़ाहिर है कि यह उपन्यास एक मर्डर मिस्ट्री है तो आइए..हम लोग अब सीधे बात करते हैं इसकी कहानी की। तो कहानी कुछ यूँ है कि.. 

सुनील को शैलेश सिंगला नामक शख्स की बदौलत पता चलता है कि जिस स्टॉक ब्रोकर फर्म 'सिंगला एण्ड सिंगला' का वह पार्टनर है, उसी के, कैसेनोवा प्रवृत्ति के, दूसरे रईस पार्टनर हिमेश सिंगला का देर रात उसके (हिमेश सिंगला) घर में कत्ल हो गया है जोकि उसी का छोटा भाई भी था। एन माथे के बीचोंबीच गोली के लगे होने से यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि यह किसी एक्सपर्ट का काम है। बिना किसी क्लू के रेत के ढेर में सुई ढूँढने जैसे इस केस में शक की सुई बारी बारी घर की हाउस कीपिंग मेड से ले कर..उस दिन उसके साथ डेट पर गयी युवती, उसके प्रेमी, धमकी देने वाले दोस्त के साथ साथ कुछ अन्य लोगों की तरफ़ भी इस कदर घूमती है कि सभी पर उसके कातिल होने का शुब्हा होता है क्योंकि सभी के पास उसका कत्ल करने की अपनी अपनी वजहें मौजूद हैं।

क्या सुनील इस पल पल उलझती..सुलझती या सुलझने का भान देती गुत्थी को सुलझा पाता है अथवा हर पल बदलती घटनाओं और खुलते रहस्यों में और उलझ कर रह जाता है? यह सब जानने के लिए तो खैर..)#आपको धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस तेज़ रफ़्तार उपन्यास को पूरा पढ़ना होगा। अंत में बोनस के रूप में इस उपन्यास के साथ बतौर फिलर एक छोटी थ्रिलर कहानी पाठकों के लिए सोने पे सुहागा वाली बात करती है। 

2014 में आए इस 317 पृष्ठीय बेहद रोचक उपन्यास को छापा है राजा पॉकेट बुक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 100/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

माफ़ कीजिए श्रीमान- सुभाष चन्दर

व्यंग्य..साहित्य की एक ऐसी विधा है जिसमें आमतौर पर सरकार या समाज के उन ग़लत कृत्यों को इस प्रकार से इंगित किया जाता है की वह उस कृत्य के लिए ज़िम्मेदार व्यक्ति के मस्तिष्क से ले कर अंतर्मन में एक शूल की भांति चुभे मगर ऊपरी तौर पर वो मनमसोस कर रह जाए..उफ़्फ़ तक ना कर सके। 

दोस्तों..आज व्यंग्य से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं जिस व्यंग्य संकलन की बात करने जा रहा हूँ..उसे 'माफ़ कीजिए श्रीमान' के नाम से हमारे समय के सशक्त व्यंग्यकार सुभाष चन्दर जी ने लिखा है। अनेक पुरस्कारों से सम्मानित सुभाष चन्दर जी की अब तक 47 से ज़्यादा व्यंग्य पुस्तकें आ चुकी हैं। इनके अलावा वे टीवी/रेडियो के लिए 100 से अधिक धारावाहिकों का लेखन कर वे इस क्षेत्र में भी ख़ासे सक्रिय हैं। 

आम तौर पर अखबारी कॉलमों में छपने वाले तथाकथित व्यंग्यों में जहाँ एक तरफ़ बात में से बात या फिर विषय से भटकते हुए बिना बात के कहीं और की बात खामख्वाह निकलती दिखाई देती है। वहीं सुभाष चन्दर जी की व्यंग्य रचनाएँ एक ही विषय से चिपक कर चलती हैं और उसे अंत तक सफ़लता से निभाती भी हैं। 

इसी संकलन की किसी व्यंग्य रचना में औरत के अपने पाँव की जूती समझने वाले दबंग व्यक्ति की दबंगई भी बुढ़ापे में उस वक्त चुकती नज़र आती है जब उसकी कम उम्र की चौथी बीवी उसकी ही आँखों के सामने अपनी मनमानी करती दिखाई देती है। तो वहीं किसी अन्य व्यंग्य में विचारधारा के मामले में बेपैंदे के लौटे बने उन व्यक्तियों पर कटाक्ष किया जाता नज़र आता है जो वक्त ज़रूरत के हिसाब से अपनी राजनैतिक विचारधारा को बदलते नज़र आते हैं।  

इसी संकलन का एक अन्य व्यंग्य में नकचढ़ी बीवी की ज़िद से त्रस्त सरकारी दफ़्तर का बड़ा अफ़सर अपने मातहतों को प्रमोशन का लालच दे..उनके ज़रिए दफ़्तर में लगे शीशम के सरकारी पेड़ को कटवाने की जुगत भिड़ाता नज़र आता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी अन्य व्यंग्य में कीचड़ और गन्दगी में ही अपना भविष्य खोजने वालों पर मज़ेदार ढंग से कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है। 

इसी संकलन का एक अन्य झकझोरने वाला व्यंग्य हर धर्म में मौजूद अंधभक्तों पर गहरा तंज कसता नज़र आता है जिसमें हर धर्म को एक समान मानने वाला यासीन ना घर का और ना ही घाट का रह पाता है और अंततः दो धर्मों की नफ़रत की बीच पिस.. मार दिया जाता है। 

इसी संकलन के अन्य व्यंग्य में जहाँ लेखक युद्धग्रस्त देशों को हथियार बेचने वाले अमीर देशों की मंशा पर तंज कसते दिखाई देते हैं कि किस तरह हथियार बनाने वाले देश अन्य देशों को भड़का कर अपना भारी मुनाफ़े का उल्लू सीधा करते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य व्यंग्य में लेखक एक अमीर आदमी के द्वारा सड़कछाप..आवारा कुत्ते की तरफ़ फैंके गए माँस के टुकड़े का संबंध अमीर आदमी बनाम ग़रीब आदमी से जोड़ते नज़र आते हैं। 

इसी संकलन के किसी व्यंग्य में जहाँ एक तरफ़ लेखक कोरोना से ग्रस्त होने पर टोने टोटके और व्हाट्सएप ज्ञान को डॉक्टरी इलाज से ज़्यादा तरजीह देते और फिर उसका परिणाम भुगतते नज़र आते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य व्यंग्य में लेखक गुरु, चेले और मेंढक के माध्यम से साहित्यिक जगत में हो रही पुरस्कारों की बंदरबाँट  पर प्रकाश डालते नज़र आते हैं। 

इसी किताब में कहीं फेसबुक और व्हाट्सएप जैसी सोशल मीडिया की तथाकथित स्वयंभू यूनिवर्सिटियों द्वारा विपरीत धर्मों की आड़ ले आपस में नफ़रत की आग बढ़ाई जाती दिखाई देती है। तो वहीं किसी अन्य व्यंग्य के ज़रिए देश के विभिन्न त्योहारों को बाज़ार में बदलने वाले बिज़नस माइंडेड व्यापारियों की सोच और मंशा पर गहरा कटाक्ष होता दिखाई देता है।

इसी संकलन के अन्य व्यंग्य में 'बुरा ना मानो..होली है' की तर्ज़ पर हम लोगों की उस मनोवृत्ति पर कटाक्ष किया जाता नज़र आता है कि हम लोग हर अन्याय अपने दब्बूपन की वजह से चुपचाप सह लेते हैं और उसका बुरा तक नहीं मानते। एक अन्य व्यंग्य में सोशल मीडिया के ज़रिए तुरत फुरत में होने..पनपने वाले प्रेम संबंधों पर हल्का फुल्का कटाक्ष होता दिखाई देता है। 

इसी संकलन में संकलित कुछ कोरोना कथाओं में से रौंगटे खड़े करती एक रचना में शहर से परिवार समेत पैदल अपने घर..अपने गाँव जा रहा व्यक्ति एक ही समय पर दुखी और खुश है। दुखी इसलिए कि रास्ते की थकान और तकलीफ से घर जा रहा उसके परिवार का एक सदस्य गुज़र चुका है और खुश इसलिए कि अब बचा खाना कम लोगों में बँटेगा। 

कहीं किसी कोरोना कथा में कोई नेता अपने वोट बैंक के हिसाब से सगा-पराया देख मदद करता दिखाई देता है। तो कहीं पुलिस वालों को इस चीज़ की खुन्दक है कि कोरोना के दौरान आम आदमी अपने अपने घरों में आराम कर रहे हैं जबकि उनको बाहर सड़कों पर ड्यूटी बजानी पड़ रही है। 

इसी किताब में कहीं कविताओं के ज़रिए कोरोना का इलाज होता दिखाई देता है तो कहीं थोक के भाव पुरस्कार बँटते नज़र आते हैं। कहीं किसी रचना में कोई अशक्त बूढ़ा थानेदार से एक्सीडेंट के असली मुजरिम के बजाय उसे मुजरिम मान गिरफ्तार करने का सौदा कर रहा है। मगर क्या तमाम स्वीकारोक्ति के बाद अंततः उसके हाथ कुछ लगेगा भी या नहीं? 

कहीं किसी व्यंग्य में कोई इसलिए परेशान है कि वो अपनी किताब किसे समर्पित करे? तो कहीं किसी रचना में कोई कलयुगी बहु अपने सास ससुर के आपस में मिलने..हँसने.. बोलने..बतियाने तक पर इस हद तक रोक लगा कर रखती है कि उन्हें छुप- छुप कर घर से बाहर.. पार्क इत्यादि में मिलने को मजबूर होना पड़ता है। 

इस संकलन के किसी व्यंग्य में चुनावों की कढ़ाही में वोटों के पकौड़े तले जाते दिखाई देते हैं तो कहीं कोई आलोचना का तंबू तानता दिखाई देता है। कहीं नए ज़माने की लड़कियों की बातें होती दिखाई देती हैं। इसी संकलन के किसी व्यंग्य में कहीं सपने भी बिकते दिखाई देते हैं 

इस संकलन के कुछ व्यंग्य मुझे बेहद पसन्द आए। उनके नाम इस प्रकार हैं..

1. मर्द की नाक
2. मेम साहब की ड्रेसिंग टेबल
3. यासीन कमीना मर गया
4. अमीर आदमी और पट्टे वाला कुत्ता
5. करोना के साथ मेरे कुछ प्रयोग
6. हिंदू मुसलमान वार्ता उर्फ़ तेरी ऐसी की तैसी
7. कुछ करो ना कथाएं
8. सौदा ईमानदारी का
9. लड़की नए ज़माने की


133 पृष्ठीय इस व्यंग्य संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 195/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

Money कथा अनंता- कुशल सिंह

पिछले कुछ सालों में हमारे देश में नोटबंदी.. जी.एस.टी..किसान आंदोलन से ले कर कोरोना महामारी तक की वजह से ऐसे-ऐसे बदलाव हुए कि मज़दूर या मध्यमवर्गीय तबके के आम आदमी से ले कर बड़े बड़े धन्ना सेठों तक..हर एक का जीना मुहाल हो गया। इनमें से भी खास कर के नोटबंदी ने तो छोटे से ले कर बड़े तक के हर तबके को इस हद तक अपने लपेटे में ले लिया कि हर कोई बैंकों की लाइनों में लगा अपने पुराने नोट बदलवाने की जुगत में परेशान होता दिखा। इन्हीं दुश्वारियों में जब हास्य..सस्पैंस और थ्रिल का तड़का लग जाए तो यकीनन कुछ मनोरंजक सामने आएगा। 

अगर किसी उपन्यास में तेज़ रफ़्तार से चलती दिलचस्प कहानी के साथ साथ मनोरंजन का ओवरडोज़ हो और उसमें कैची संवाद भी पढ़ने को मिल जाएँ तो समझिए कि..आपका दिन बन गया। दोस्तों..आज मैं इन्हीं खूबियों से लैस एक ऐसे मनोरंजक उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'Money कथा अनंता' के नाम से लिखा है कुशल सिंह ने । ये उनका दूसरा उपन्यास है। 

 पल पल मुस्कुराने और हँसी के ठहाके लगाने पर मजबूर कर देने वाले इस उपन्यास को ख़ास तौर पर आजकल के युवाओं को ध्यान में रख कर लिखा गया है। मूलतः ताज की नगरी, आगरा की पृष्ठभूमि में लिखे गए इस उपन्यास में कहानी है फटीचर टाइप के तीन सड़कछाप दोस्तों, नेहने, शशि और बिंटू की। बढ़िया..खुशहाल..ऐशोआराम भरी ज़िंदगी को ले कर तीनों ने अपने मन में बड़े बड़े सपने पाल रखे हैं मगर ईज़ी मनी की चाह रखने वाले इन दोस्तों के पास अपने मंसूबों को पा सकने का कोई जुगाड़ नहीं। 

नोटबंदी की घोषणा वाले दिन उस घोषणा से अनजान इन तीनों की मुलाक़ात, नशे की हालत में मोटरसाइकिल पर जाते वक्त, अचानक सीने में उठे दर्द की वजह से एक्सीडेंट कर चुके दाऊ दयाल मौर्या से होती है जो कि एग्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर के पद से रिटायर हो चुका है और फिलहाल बेहद नशे की हालत में अपने रिश्वत के बेशुमार पैसे को एक बैग में भर कर ठिकाने लगाने जा रहा था। ना चाहते हुए भी मदद के नाम पर वे उसे उसके घर पर छोड़ते हैं जहाँ इनके सामने ही, परिवार के बाहर होने की वजह से फ़िलहाल अकेले रह रहे, दाऊ दयाल मौर्या की मौत हो जाती है और इनके हाथ नोटबंदी की घोषणा के हो चुकने के बाद पुराने नोटों से भरा बैग लग जाता है। इसके बाद की तमाम आपाधापी..हड़कंप और भागमभाग ही इस कहानी को बेहद रोचक और मजेदार बनाता है। 

शह और मात के बीच चलती इस आँख मिचौली भरे खेल में कभी सौ सुनारी चोटों पर एक लोहारी चोट पड़ती दिखाई देती है तो कभी सेर से सवा सेर टकराते दिखाई देता है। धोखे..छल और कपट की इस उठापटक के बीच कभी कोई किसी के विश्वास को छलता दिखाई देता है तो कभी कोई अमानत में ख़यानत करता नज़र आता है। 

इसी उपन्यास में कहीं लोग अफवाहों के चलते कभी नमक तो कभी चीनी की बोरियों की जमाखोरी करते दिखाई दिए। तो कहीं पुराने नोट बदलवाने के चक्कर में लंबी लंबी लाइनों में घंटों लोग परेशान होते..त्राहिमाम करते दिखे। कहीं लोग नोट बंदी के सरकारी फ़ैसले पर सरकार को गरियाते तो कहीं सरकार का समर्थन करते दिखाई दिए। तो कहीं फेक आई डी के ज़रिए OLX जैसी साइट्स पर ठगी करते नज़र आए।
 
इसी किताब में कहीं पाँच सौ रुपए की कमीशन के लालच में अनेकों बेरोजगार बैंकों की लाइन में लग औरों के नोट बदलवाते दिखाई दिए तो कहीं हवाई या फिर रेल यात्रा की फर्ज़ी टिकटें बुक करवा लोग अपने पुराने नोट खपाते नज़र आए। 
इसी उपन्यास में कहीं नार्थ ईस्ट के दीमा पुर जैसे दूरदराज के शहरों में पुरानी करेंसी को नयी में बदलवाने का जुगाड़ भिड़ाया जाता दिखाई दिया तो कहीं चोरों के पीछे मोर पड़ते दिखाई दिए। 

कहीं मुनाफ़े के चक्कर में मंदिरों और आश्रमों जैसे स्थल भी पुराने नोटों के बदले नए नोट देते दिखाई दिए। तो कहीं विदेशों से यहाँ घूमने आए सैलानी भी नोटबंदी की वजह से परेशान हालत में यहीं अटके दिखे कि उनके पास अब अपने घर..अपने देश वापिस जाने का कोई ज़रिया नहीं बचा था। 

इसी उपन्यास में कहीं लुप्त हो रही लोक गीतों की परंपरा का जिक्र होता नजर आता है। तो कहीं सोने के प्रति भारतीयों के मोह से जुड़ी बातें पढ़ने को मिलती हैं कि किस तरह लोग पाई पाई जोड़ कर सोना खरीदते हैं कि यह उनके आड़े वक्त में काम आएगा और उतावलेपन में ये तक पता नहीं करते कि खरीदा जा रहा सोना उतना शुद्ध है कि नहीं जितना शुद्ध वे उसे सोच कर खरीद रहे हैं। 

मज़ेदार पंच लाइनों से सुसज्जित इस उपन्यास में कुछ एक ग़लतियाँ भी नज़र आयीं जैसे कि.. बहुत पसन्द आयीं जैसे कि..

पेज नंबर 94 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'ट्रेन ने अपने चलने की चेतावनी देते हुए हॉर्न बजाया'

यहाँ ये बात ध्यान देने लायक है कि हॉर्न, कार.. ट्रक.. बाइक अथवा स्कूटर जैसी छोटी गाड़ियों के लिए होता है ना कि ट्रेन के लिए। ट्रेन में हॉर्न नहीं बल्कि सायरन बजाय जाता है।

इसी तरह पेज नंबर 181 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'अब इतने सारे पत्रकारिता में दीक्षित लोग कहाँ थे?'

यहाँ 'पत्रकारिता में दीक्षित लोग कहाँ थे' की जगह 'पत्रकारिता में दक्ष लोग कहाँ थे' आएगा।

आमतौर पर आजकल के कुछ लेखक स्त्रीलिंग और पुल्लिंग के भेद को सही से समझ नहीं पाते। इस तरह की कुछ ग़लतियाँ इस उपन्यास में भी दिखाई दीं जिनका दूर किया जाना ज़रूरी है। 

यूँ तो हर पल रोचकता जगाता यह दमदार उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 208 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म और Eka ने मिल कर और इसका दाम रखा गया है 250/- रुपए। अमेज़न पर फिलहाल यह उपन्यास डिस्काउंट के बाद 190/- रुपए में मिल रहा है जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए ज़्यादा नहीं है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशकों को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

अभ्युदय-1 - नरेन्द्र कोहली

मिथकीय चरित्रों की जब भी कभी बात आती है तो सनातन धर्म में आस्था रखने वालों के बीच भगवान श्री राम, पहली पंक्ति में प्रमुखता से खड़े दिखाई देते हैं। बदलते समय के साथ अनेक लेखकों ने इस कथा पर अपने विवेक एवं श्रद्धानुसार कलम चलाई और अपनी सोच, समझ एवं समर्थता के हिसाब से उनमें कुछ ना कुछ परिवर्तन करते हुए, इसके किरदारों के फिर से चरित्र चित्रण किए। नतीजन...आज मूल कथा के एक समान होते हुए भी रामायण के कुल मिला कर लगभग तीन सौ से लेकर एक हज़ार तक विविध रूप पढ़ने को मिलते हैं। इनमें संस्कृत में रचित वाल्मीकि रामायण सबसे प्राचीन मानी जाती है। इसके अलावा अनेक अन्य भारतीय भाषाओं में भी राम कथा लिखी गयीं। हिंदी, तमिल,तेलुगु,उड़िया के अतिरिक्त  संस्कृत,गुजराती, मलयालम, कन्नड, असमिया, नेपाली, उर्दू, अरबी, फारसी आदि भाषाएँ भी राम कथा के प्रभाव से वंचित नहीं रह पायीं।

 राम कथा को इस कदर प्रसिद्धि मिली कि देश की सीमाएँ लांघ उसकी यशकीर्ति तिब्बत, पूर्वी तुर्किस्तान, इंडोनेशिया, नेपाल, जावा, बर्मा (म्यांम्मार), थाईलैंड के अलावा कई अनेक देशों तक जा पहुँची और थोड़े फेरबदल के साथ वहाँ भी नए सिरे से राम कथा को लिखा गया। कुछ विद्वानों का ऐसा भी मानना है कि ग्रीस के कवि होमर का प्राचीन काव्य इलियड, रोम के कवि नोनस की कृति डायोनीशिया तथा रामायण की कथा में अद्भुत समानता है। राम कथा को आधार बना कर अमीश त्रिपाठी ने हाल फिलहाल में अंग्रेज़ी भाषा में इस पर हॉलीवुड स्टाइल का तीन भागों में एक वृहद उपन्यास रचा है तो हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार श्री नरेन्द्र कोहली भी इस अद्भुत राम कथा के मोहपाश से बच नहीं पाए हैं।

 दोस्तों.... आज मैं बात करने जा रहा हूँ श्री नरेन्द्र कोहली द्वारा रचित "अभ्युदय-1" की। इस पूरी कथा को उन्होंने दो भागों में संपूर्ण किया है। इस उपन्यास में उन्होंने  देवताओं एवं राक्षसों को अलौकिक शक्तियों का स्वामी ना मानते हुए उनको आम इंसान के हिसाब से ही ट्रीट किया है।  

उनके अनुसार बिना मेहनत के जब भ्रष्टाचार, दबंगई तथा ताकत के बल पर कुछ व्यक्तियों को अकृत धन की प्राप्ति होने लगी तो उनमें नैतिक एवं सामाजिक भावनाओं का ह्रास होने के चलते लालच, घमंड, वैभव, मदिरा सेवन, वासना, लंपटता तथा दंभ इत्यादि की उत्पत्ति हुई। अत्यधिक धन तथा शस्त्र ज्ञान के बल पर अत्याचार इस हद तक बढ़े कि ताकत के मद में चूर ऐसे अधर्मी लोगों द्वारा सरेआम मारपीट तथा छीनाझपटी होने लगी। अपने वर्चस्व को साबित करने के लिए राह चलते बलात्कार एवं हत्याएं कर, उन्हीं के नर मांस को खा जाने जैसी अमानवीय एवं पैशाचिक करतूतों को करने एवं शह देने वाले लोग ही अंततः राक्षस कहलाने लगे।

शांति से अपने परिश्रम एवं ईमानदारी द्वारा जीविकोपार्जन करने के इच्छुक लोगों को ऐसी राक्षसी प्रवृति वालों के द्वारा सताया जाना आम बात हो गयी। आमजन को ऋषियों के ज्ञान एवं बौद्धिक नेतृत्व से वंचित रखने एवं शस्त्र ज्ञान प्राप्त करने से रोकने के लिए शांत एवं एकांत स्थानों पर बने गुरुकुलों एवं आश्रमों को राक्षसों द्वारा भीषण रक्तपात के बाद जला कर तहस नहस किया जाने लगा कि ज्ञान प्राप्त करने के बाद कोई उनसे, उनके ग़लत कामों के प्रति तर्क अथवा विरोध ना करने लगे। 

वंचितो की स्थिति में सुधार के अनेक मुद्दों को अपने में समेटे हुए इस उपन्यास में मूल कहानी है कि अपने वनवास के दौरान अलग अलग आश्रमों तथा गांवों में राम,  किस तरह ऋषियों, आश्रम वासियों और आम जनजीवन को संगठित कर, शस्त्र शिक्षा देते हुए राक्षसों से लड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। पढ़ते वक्त कई स्थानों पर मुझे लगा कि शस्त्र शिक्षा एवं संगठन जैसी ज्ञान की बातों को अलग अलग आश्रमों एवं स्थानों पर बार बार घुमा फिरा कर बताया गया है। जिससे उपन्यास के बीच का हिस्सा थोड़ा बोझिल सा हो गया है जिसे संक्षेप में बता कर उपन्यास को थोड़ा और चुस्त दुरस्त किया जा सकता था। लेकिन हाँ!...श्रुपनखा का कहानी में आगमन होते ही उपन्यास एकदम रफ्तार पकड़ लेता है।

इस उपन्यास में कहानी है राक्षसी अत्याचारों से त्रस्त ऋषि विश्वामित्र के ऐसे राक्षसों के वध के लिए  महाराजा दशरथ से उनके पुत्रों, राम एवं लक्षमण को मदद के रूप में माँगने की। इसमें कहानी है अहल्या के उद्धार से ले कर ताड़का एवं अन्य राक्षसों के वध, राम-सीता विवाह, कैकयी प्रकरण, राम वनवास, अगस्त्य ऋषि एवं  कई अन्य उपकथाओं से ले कर सीता के हरण तक की। इतनी अधिक कथाओं के एक ही उपन्यास में होने की वजह से इसकी मोटाई तथा वज़न काफी बढ़ गया है। जिसकी वजह इसे ज़्यादा देर तक हाथों में थाम कर पढ़ना थोड़ा असुविधाजनक लगता है। 

700 पृष्ठों के इस बड़े उपन्यास(पहला भाग) को पढ़ते वक्त कुछ स्थानों पर ऐसा भी भान होता है कि शायद लेखक ने कुछ स्थानों पर इसे स्वयं टाइप कर लिखने के बजाए किसी और से बोल कर इसे टाइप करवाया है क्योंकि कुछ जगहों पर शब्दों के सरस हिंदी में बहते हुए प्रवाह के बीच कर भोजपुरी अथवा मैथिली भाषा का कोई शब्द अचानक फुदक कर उछलते हुए कोई ऐसे सामने आ जाता है। 

धाराप्रवाह लेखन से सुसज्जित इस उपन्यास को पढ़ने के बाद लेखक की इस मामले में भी तारीफ करनी होगी कि उन्होंने इसके हर किरदार के अच्छे या बुरे होने के पीछे की वजहों का, सहज मानवीय सोच के साथ मंथन करते हुए उसे तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया है। 

700 पृष्ठों के इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण की कीमत ₹450/- रुपए है और इसके प्रकाशक हैं डायमंड बुक्स। उपन्यास का कवर बहुत पतला है। एक बार पढ़ने पर ही मुड़ कर गोल होने लगा। अंदर के कागजों की क्वालिटी ठीकठाक है। फ़ॉन्ट्स का साइज़ थोड़ा और बड़ा होना चाहिए था। इन कमियों की तरफ ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। 

आड़ा वक्त- राजनारायण बोहरे

आम इनसान की भांति हर लेखक..कवि भी हर वक्त किसी ना किसी सोच..विचार अथवा उधेड़बुन में खोया रहता है। बस फ़र्क इतना है कि जहाँ आम व्यक्ति इस सोच विचार से उबर कर फिर से किसी नयी उधेड़बुन में खुद को व्यस्त कर लेता है..वहीं लेखक या कवि अपने मतलब के विचार या सोच को तुरंत कागज़ अथवा कम्प्यूटर या इसी तरह किसी अन्य सहज..सुलभ..सुविधाजनक साधन पर उतार लेता है कि विचार अथवा सोच का अस्तित्व तो महज़ क्षणभंगुर होता है। इधर ध्यान हटा और उधर वह तथाकथित विचार..सोच या आईडिया तुरंत ज़हन से छूमंतर हो ग़ायब। 

अपनी स्मरणशक्ति को ले कर कोई भी व्यक्ति..कवि या लेखक बेशक जितना बड़ा मर्ज़ी दावा कर ले मगर एक बार ज़हन से किसी विचार का लोप हुआ तो पुनः उस विचार..उस सोच के उसी सिरे को फिर से जस का तस पा लेना तब तक संभव नहीं जब तक आप उसे कहीं लिख कर या कोई हिंट अथवा निशानी लगा कर ना रख लें।

दोस्तों..आज स्मरणशक्ति को ले कर इस तरह की बातें इसलिए कि आज मैं जिस उपन्यास के बारे में बात करने जा रहा हूँ..उसे मैंने लगभग आज से डेढ़ महीने पहले याने के 21 जून को पढ़ कर एक तरह से आत्मसात कर लिया था मगर अपनी स्मरणशक्ति पर विश्वास करते हुए किताब पर लिखने से पहले ही उसी दिन याने के 21 जून, 2022 को मैं परिवार सहित छुट्टियों पर 21 दिन के लिए दुबई चला गया । वहाँ पर भी ऑनलाइन और ऑफलाइन.. दोनों ही ज़रियों से मैं अन्य किताबों से जुड़ा रहा।

 वापिस आने के बाद जब इस उपन्यास पर लिखने के लिए उसे फिर उठाया तो उस किताब को ले कर मन में उपजे सब विचार एकदम साफ़ याने के नदारद। नतीजन..उपन्यास को पुनः फिर से पूरी तवज्जो के साथ काफ़ी हद तक फिर से पढ़ना पड़ा। खैर..अब इस मुद्दे पर और ज़्यादा बात ना करते हुए आइए..सीधे सीधे चलते हैं इस उपन्यास पर जिसे 'आड़ा वक्त' के नाम से लिखा है अनेक पुरस्कारों से सम्मानित लेखक राजनारायण बोहरे ने।

मूलतः इस उपन्यास में कहानी है छत्तीसगढ़ की सीमा से लगते मध्यप्रदेश के आख़िरी गाँव में बतौर ओवरसियर नियुक्त हुए स्वरूप और पूर्णरूप से खेती किसानी को अपना जीवन  सौंप चुके उसके बड़े भाई याने के दादा के बीच आपसी स्नेहसिक्त संबंध की। 

इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ भर्ष्टाचार और सरकारी लालफीताशाही से उपजी सरकारी नौकरी की दुश्वारियाँ एवं विषमताएँ हैं। तो दूसरी तरफ़ आम किसान के दैनिक जीवन में उससे रूबरू होने वाली दिक्कतें और परेशानियाँ का ताना बाना है। जिनमें कभी वो अच्छे बीज और खाद को तरसता है तो कभी बिजली और बारिश की कमी से त्रस्त हो बावला बन..तड़पता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं दफ़्तरी मिलीभगत से खड़े हुए स्कूलों के कुछ ही सालों में जर्जर हो विद्यार्थियों पर ही गिरने से जुड़ी बातें हैं तो कहीं कमीशन खिला नाममात्र को बनी सड़कें भी पहली साँस में अपना दम तोड़..शहीद होती दिखाई देती हैं।

इसी उपन्यास में कभी अपनी ज़रूरत के नाम पर तो कभी औद्योगिक विकास के नाम पर सरकार किसानों से उनकी उपजाऊ ज़मीन जबरन एक्वायर कर उसे अपने चहेते उद्योगपतियों को औने पौने दामों में सौंपती नज़र आती है। तो कहीं सरकारी दफ़्तरों के कामकाज में उनके कर्मचारियों के ढुलमुल रवैये पर गहरा कटाक्ष होता नजर आता है। 

इसी उपन्यास में कहीं कोई घर-खेत में गड़े पुराने खजाने को खोजने के चक्कर में बावला होता नजर आता है। तो इसी उपन्यास में कहीं पाठकों को ग़रीब किसानों की मार्फ़त अपने ही घर खेत के सरकारी आदेश के बाद छिन जाने से पुनः नयी जगह..नए माहौल विस्थापित होने से उत्पन्न होने वाली दिक्कतों और परेशानियों से दो चार होना पड़ता है।


इसी उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ किसान के उसकी जमीन से जुड़े मोह की बातें हैं कि उसके लिए उसकी जमीन से बढ़ कर कुछ नहीं। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी उपन्यास में कहीं ट्रांसफर के नाम पर मंत्री का पी.ए तक रिश्वत माँगता दिखाई देता है। 


इसी उपन्यास में कहीं प्रचलित मान्यता के आधार पर पता चलता है कि छत्तीसगढ़ के नामकरण के पीछे वहाँ..उस इलाके में कभी छत्तीस आदिवासी कबीलों के बसे होने की वजह है।  लेखकीय परिभाषा के अनुसार छत्तीसगढ़ का मतलब है छत्तीसों सुखों से भरी अपनी दुनिया.. अपनी संस्कृति में मस्त रहने वाले सीधे साधे मस्त कलंदर आदिवासी।

इसी उपन्यास में कहीं ईसाई धर्म के प्रचार प्रसार हेतु वहाँ की मिशनरियाँ भोले भाले ग़रीब अनपढ़ लोगों को ईसाई धर्म अपनाने की एवज में नौकरी और अच्छर रहन सहन का लालच देती दिखाई देती हैं। तो कहीं भ्रष्टाचार में बाक़ी अफ़सरों की भांति संलिप्त ना रहने की वजह से कोई बलि का बकरा बनता दिखाई देता है। 

कहीं इस उपन्यास में नए बने सरकारी कानूनों के ख़िलाफ़ हुए किसान आंदोलन से जुड़ी बातें नज़र आती हैं। जिनमें एक तरफ़ इन कानुनों से किसानों को होने वाली दिक्कतों का वर्णन होता दिखाई देता है तो दूसरी तरफ़ कुछ हुड़दंगी प्रवृति के लोग गांवों से शहरों की तरफ़ जाने वाली दूध और सब्ज़ियों की सप्लाई को रोकने की जुगत में दिखाई देते हैं। 

कहीं भ्रष्टाचार का समर्थक ना होने वाला भी उसी रंग में रंग..उपहार के रूप में रिश्वत स्वीकार करता दिखाई देता है। तो कहीं सबके दोष किसी एक के सर पर मढ़े जाते दिखाई देते हैं। कहीं सरकारी लापरवाही के चलते बढ़िया..नयी बनी सड़कों की भी दुर्गति होती दिखाई देती है। जिसके लिए हर ज़िम्मेदार अपने मातहत को ज़िम्मेदार बता खुद अपनी ज़िम्मेदारी से कन्नी काटता दिखाई देता है। 

किसानों की दिक्कतों को ले कर रचे गए इस उपन्यास में कहीं हमारे यहाँ पुरखों के समय से इस्तेमाल में लिए जा रहे देसी बीजों की अपेक्षा सरकार विदेशी कंपनियों के साठगांठ कर उनके बीजों की खरीद को प्रोत्साहन देती नज़र आती है। तो कहीं आंदोलन की आड़ में छिपे बैठे घुसपैठिए पूरे माहौल को ख़राब करने की कोशिशों में लगे दिखाई देते हैं। तो कहीं इन्हीं उपद्रवियों को सबक सिखाने के लिए पुलिस इनकी धरपकड़ हेतु गाँव-गाँव छापे मारती दिखाई देती है। 

इसी उपन्यास में कहीं कोई अपनी ज़मीन के मोह में इस कदर बँधा दिखाई देता है कि घर में बीमारी की वजह से पैसे की बहुत ज़्यादा ज़रूरत होने जैसे आड़े वक्त के बावजूद भी ज़मीन को बेचने के लिए हामी भरता दिखाई नहीं देता कि.. ज़मीन..आड़े वक्त के लिए बचा कर रखी जाती है। 

इसी उपन्यास में कहीं कोई नयी कम्पनी के बीजों और खाद के चक्कर में बर्बाद होता दिखाई देता है तो कहीं कोई कम कमाई के बावजूद अँधे फैशन की चाह में लकदक करते कपड़ों..महँगे जूतों और गाड़ियों के चक्कर में फँस तबाह होता नज़र आता है। कहीं कोई किसान क्रेडिट के चँगुल में फँस अपना सब कुछ गँवाता जान पड़ता है।

कहीं किसान अपनी फ़सल को ले कर बरसात की कमी से तो कभी बरसात की अति से आहत होता दिखाई देता है। कही वो पाले की अति को झेलता तो कहीं अत्यधिक गर्मी से परेशान हो अपनी किस्मत को कोसता दिखाई देता है। इसी उपन्यास में कहीं उपज की कमी से आहत किसान गुजर बसर के लिए गाँवों से पलायन करते नज़र आते हैं।

कुछेक जगहों पर शब्द ग़लत छपे हुए दिखाई दिए तथा वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। प्रूफ़रीडिंग के स्तर पर भी कुछ जगहों पर कमियाँ दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर

 
पेज नंबर 3 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'धारू इन कनस्तरों में संभवत: है कुआँ से पानी भर कर ला रहा था।'

यहाँ 'कुआँ से भर कर पानी ला रहा था' की जगह 'कुएँ से भर कर पानी ला रहा था' आएगा।

पेज नंबर चार पर लिखा दिखाई दिया कि..

'वहाँ आठ-दस  मज़दूर नदी किनारे लाइन में खड़े थे और बार-बार नदी में से रेत उठा कर अपने हाथ में लिए तसला में लेकर हिलाने लगते थे।'

यहाँ चूंकि मज़दूर एक से ज़्यादा हैं..इसलिए यहाँ 'अपने हाथ में लिए तसला में लेकर हिलाने लगते थे' की जगह 'अपने हाथ में लिए तसले में ले कर हिलाने लगते थे' आएगा। 

इसी तरह पेज नम्बर 10 में लिखा दिखाई दिया कि..

' अभी चार्ज संभाल कर बहुत सारे काम करना है' 

यहाँ भी 'बहुत सारे काम करना है' की जगह 'बहुत से काम करने हैं' आएगा। 


पेज नंबर 19 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'अगला मास्टर पता नहीं कैसा हो और मेरे तो वैसे भी यहाँ दस साल हो गए हैं, तो कभी भी सरकार मुझे यहाँ से क्यों हटा देगी।'

यहाँ ग़ौरतलब है कि कहानी के अनुसार मास्टर साहब जुगलकिशोर से कहना चाह रहे हैं कि उन्हें इस गाँव में नौकरी करते हुए दस साल हो गए हैं। इसलिए सरकार उनका कभी भी तबादला कर उन्हें यहाँ से कभी भी हटा देगी। जबकि किताब में छपे वाक्य से ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सरकार उन्हें क्यों हटाएगी? इसलिए सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'अगला मास्टर पता नहीं कैसा हो और मेरे तो वैसे भी यहाँ दस साल हो गए हैं, तो कभी भी सरकार मुझे यहाँ से हटा देगी।'


पेज नंबर 22 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'वे उससे सौदा पढ़ाने की जुगत करते'

यहाँ ग़ौरतलब है कि सौदा पढ़ाया नहीं बल्कि पटाया जाता है। इसलिए यहाँ 'वे उससे सौदा पढ़ाने की जुगत करते' की जगह 'वे उससे सौदा पटाने की जुगत करते' आएगा।

पेज नंबर 31 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'पाकिस्तान से टूट कर नए बने बांग्लादेश के लाखों लोग शरणार्थी बनकर देश पर वजन बन गए थे।

यहाँ 'देश पर वजन बन गए थे' की जगह 'देश पर बोझ बन गए थे' आएगा। 


इस उपन्यास में एक जगह तथ्यात्मक रूप से ग़लती दिखाई दी।

** पेज नंबर 22 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'भगोना में दो ढाई किलो अनाज बनता था जबकि सेई  में पाँच सेर याने के साढ़े सात किलोग्राम। 

यहाँ  पाँच सेर' का वजन 'साढ़े सात किलो किलोग्राम' याने के एक सेर का वज़न डेढ़ किलो बताया गया है जोकि तथ्यात्मक रूप से सही नहीं है। असलियत में 'एक सेर' में 933 ग्राम वज़न होता है।

किसान समस्याओं एवं दफ़्तरी दिक्कतों से जूझता यह बढ़िया उपन्यास मुझे यूँ तो लेखक की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 148 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है लिटिल बर्ड पब्लिकेशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 280/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए काफ़ी ज़्यादा है। किताब को ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक पहुँचाने के लिए ये ज़रूरी है कि लेखक और प्रकाशक किताब की कीमत कम रखें। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

अपेक्षाओं का बियाबान- डॉ. निधि अग्रवाल

आमतौर पर किसी भी कहानी को पढ़ते वक्त ज़हन में उसकी स्टेबिलिटी को ले कर यह बात तय होनी शुरू हो जाती है कि वह हमारे स्मृतिपटल पर लंबे समय तक राज करने वाली है अथवा जल्द ही वह हमारी ज़हनी पकड़ से मुक्ति पा..आम कहानियों की भीड़ में विलुप्त होने वाली है। इसी बात के मद्देनज़र यहाँ यह बात ग़ौर करने लायक है कि जहाँ एक तरफ़ कुछ कहानियाँ अपने कथ्य..अपनी स्टोरी लाइन..अपनी रचनात्मकता..अपनी रोचकता की वजह से उल्लेखनीय बन जाती हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ कुछ कहानियाँ अपने अलग तरह के ट्रीटमेंट.. शिल्प और कथ्य की बदौलत हमारी ज़हनियत में गहरे तक अपनी जड़ें जमाने में कामयाब हो जाती हैं।

दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ जटिल मानवीय संबंधों की गुंजल पड़ी भावनाओं एवं मनोभावों को ले कर रची गयी कहानियों के ऐसे संकलन की जिसकी हर कहानी में कोई ना कोई ऐसी विशिष्ट..ऐसी अलग बात ज़रुर नज़र आती है जो इन्हें भीड़ से अलग कर..लंबी रेस का घोड़ा साबित करने का माद्दा रखती है। उम्दा कहानियों के इस थोड़े से कॉम्प्लिकेटेड संकलन को  'अपेक्षाओं का बियाबान' के नाम से लिखा है डॉ. निधि अग्रवाल ने। 

कुल बारह कहानियों के इस संकलन की किसी कहानी में छोटी बहन और बड़े भाई के बीच चिट्ठियों के माध्यम से एक दूसरे को संबल देने की बात है। इस कहानी में एक तरफ़ बहन के प्रति भाई के अगाढ़ प्रेम की बात है तो दूसरी तरफ़ बहन और उसके पति के बीच पनपती दूरियों के जिक्र के साथ घर परिवार की जिम्मेदारियों के चलते कोमा में पड़ी..स्नेहसिक्त  भाभी की सेवा ना कर पाने का मलाल भी है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ मेट्रो में चढ़ने उतरने वाली रोज़ाना की सवारियों और उनके हाव भाव.. वेशभूषा के ज़रिए विभिन्न प्रकार के चरित्रों और उनकी मानसिकता को समझने..उनसे खुद को कनेक्ट करने की बात करती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी विदेश में बस चुकी प्रेग्नेंट समिधा और मिथ्यता का पर्याय बन चुके उसके और अंबर के रिश्ते की बात करती है। क्या समिधा इस सब को बस मूक दर्शक बन झेलती रहेगी अथवा, नॉस्टैल्जिया से प्रेरित हो, अपने मन की पुकार पर वापिस अपने देश..अपने वतन अपने..अपनों के पास..लौट आएगी? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ डाउन सिंड्रोम की बीमारी से पीड़ित एक जवान होते बच्चे पर,उसी घर की स्नेहमयी, नौकरानी एक दिन बलात्कार का इल्ज़ाम लगा देती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ फ़िल्मी स्टाइल की एक अन्य कहानी ट्रेन के सफ़र के दौरान किसी को देख बचपन की शरारत को फिर से याद करने की बात करती है। मगर क्या यह सब महज़ संयोग था या फिर इसके पीछे एक सुनियोजित साज़िश.. चाल या मंशा थी?

पुनर्जन्म को ले कर लिखी गयी इस संकलन की एक कंफ्यूज़िंग सी लगती कहानी शनै शनै अपने सब पत्ते खोलती हुई पाठकों को जहाँ एक तरफ़ अपने साथ..अपनी रौ में बहाए लिए चलती है। तो वहीं छद्म रिश्तों की पोल खोलती एक अन्य कहानी एक ऐसी एसिड अटैक विक्टिम युवती की बात करती है जो अपने पति और घरबार को छोड़..एसिड अटैक विक्टिम्स की मदद के लिए आगे आती है।

इसी संकलन की अन्य कॉम्प्लिकेटेड कहानी उन रिश्तों..संबंधों की बात करती है जो हमारे ना होते हुए भी इस कदर हमारे हो जाते हैं कि हम उनके दुख में दुखी और उनके सुख में सुखी रहने लगते हैं। भले ही हमारा पाला हमारी ही तरह के किसी जीते जागते ज़िंदा इनसान से पड़े अथवा किसी निरीह..भोले..बेज़ुबान जानवर से।

इसी संकलन की, मानसिक द्वंद्व को तितली और तिलचट्टे के बिम्ब से दर्शाती, कॉम्प्लिकेटेड कहानी फिलहाल मुझे मेरी समझ के लेवल से दो चार पायदान ऊपर की लगी। तो वहीं एक बड़ी कहानी या उपन्यासिका समय के साथ बनते नए रिश्तों और पुराने रिश्तों में आए बदलाव को स्वीकार ना कर पाने वालों की दुविधा..संशय और हिचक की बात करती है कि किस तरह रिश्तों में एक पायदान नीचे उतर कर सब कुछ सहज..सामान्य एवं खुशनुमा किया जा सकता है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी माँ बाप के रोड एक्सीडेंट में मारे जाने के बाद क्रूर मामी के घर पल रही वनिता की बात करती है। उस वनिता की, जिसे उसके पिता की तरफ़ के रिश्तेदारों द्वारा जबरन धौंस दिखा..मामी के घर से ले जाया जा रहा है। क्या नयी जगह..नए लोगों के बीच  वनिता के दिन फिरेंगे या फिर नए माहौल में फिर से उसकी बुरी गत होने वाली है? 

इस बात के लिए लेखिका तथा प्रकाशक की तारीफ़ करनी होगी कि किताब की प्रूफ्र रीडिंग के लिए उन्होंने ख़ासी मेहनत की जिसके चलते मुझे इस तरह की कोई कमी या ख़ामी इस किताब में नहीं दिखाई दी लेकिन.."अँधा क्या चाहे?"

"दो आँखें।" 

की तर्ज़ पर इस उम्दा किताब में भी मुझे कम से कम एक ग़लती तो ख़ैर.. दिख ही गयी।

😊

पेज नम्बर 206 की शुरुआती पंक्तियों में लिखा दिखाई दिया कि...

"दो कमरों के इस घर में यह कमरा दिन में मेहमानों के दिए और रात में बच्चों, नानी और वनिता के हिस्से में आता था।"

 जबकि अगले पैराग्राफ़ में लिखा दिखाई दिया कि..
 
"वनिता ने बाल बाँधे, कुल्ला किया और सीधा रसोई का रुख किया। बच्चों के लिए टिफ़िन तैयार कर उनके बैग में रखे, दादी के लिए भी चाय-नाश्ता तैयार कर उन्हें कमरे में पकड़ा आई।"

यहाँ 'नानी' की जगह ग़लती से 'दादी' लिखा गया है।

चलते चलते एक ज़रूरी बात..

यह स्वीकार करने में मुझे ज़रा सी भी हिचक नहीं कि यह किताब मेरे अब तक के साहित्यिक जीवन की मुश्किल किताबों में से एक रही। मैं कम से कम एक बार फिर से और इसे पढ़ कर अच्छी तरह से समझना चाहूँगा।

धाराप्रवाह शैली के आसपास की शैली में जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती कहानियों के इस 220 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है बोधि प्रकाशन, जयपुर ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

काने मच्छर की महबूबा- अतुल मिश्रा

*** 'काने मच्छर की महबूबा' पर प्रख्यात व्यंग्यकार श्री राजीव तनेजा जी की पुस्तक-समीक्षा आप सबके आनंदार्थ प्रस्तुत है !!!! *** 
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आमतौर पर किसी भी किताब को पढ़ते हुए मैं एक तरह से उसमें पूरा डूब जाता हूँ और यथासंभव पूरी किताब के दौरान उसी पोज़ या मूड में रहता हूं। अपनी तरफ़ से मेरा भरसक प्रयास रहता है कि मेरी नज़र से कोई उल्लेखनीय या अहम..तवज्जो चाहने लायक बात ना छूट जाए। ऐसे में अगर तमाम तरह के चुनिंदा प्रयासों के बावजूद किसी किताब को पढ़ते पढ़ते औचक ही आपकी हँसी छूट जाए और अजीबोगरीब तरह से मुँह बनाते हुए जबरन आपको अपनी हँसी को रोकना पड़े तो ऐसे में आप उस कमबख्त लेखक को क्या कहेंगे जिसने उस व्यंग्य संग्रह को लिखा है।

दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में काम कर चुके प्रसिद्ध व्यंग्यकार अतुल मिश्र जी के व्यंग्य संग्रह 'काने मच्छर की महबूबा' की। किताब पर बात करने से पहले मेरी एक स्वीकारोक्ति कि अतुल मिश्रा जी के फेसबुक स्टेटस कई बार इतने ज़्यादा मज़ेदार होते हैं कि उन्हें मैं स्क्रीनशॉट के ज़रिए चोरी करने से खुद को रोक नहीं पाता कि उन्हें मुझे व्हाट्सएप पर शेयर कर अपने मित्रों को गुदगुदाना या हँसाना होता है। अब स्क्रीनशॉट इसलिए कि वे अपने स्टेटस को इमेज के बजाय टाइप कर के लिखते हैं और टाइप्ड मैसेज को भेजने से उसमें वो बात नहीं रहती। खैर..चलिए..अब बात करते हैं उनके इस व्यंग्य संग्रह की। 

इस व्यंग्य संकलन में अगर कहीं सोचने को ले कर  दुविधा मिलती है कि आखिर..क्या सोचा जाए कि सोच को और ना सोचना पड़े। तो कहीं इसमें विद्यार्थियों से उनके पूर्वजों के बन्दर होने की मास्टर द्वारा तसल्ली की जा रही है। कहीं किसी के विद्वान होने या ना होने पर मज़ेदार कटाक्ष किया जा रहा है तो कहीं इसमें trp की अँधी दौड़ में पागल मीडिया असली मुद्दों को दरकिनार करता दिखाई देता है।

इसमें कहीं किसी व्यंग्य में हमारे प्रधानमंत्री मंत्री के अमेरिकी दौरों के दौरान उनकी मुस्कुराहट और शिखर सम्मेलनों की व्यर्थता पर कटाक्ष दिखता है।
तो कहीं नेताओं को नोटों की माला पहनाने के चलत पर छींटाकशी होती दिखाई देती है। कहीं इसमें शुगर फ्री 'शुगर' और साल्ट फ्री 'साल्ट' के ज़रिए भारतीयों की मुफ़्त पाने और कंपनियों की..इसे भुनाने की मंशा पर बात की गई है तो कहीं इसमें परिवहन विभाग की मिलीभगत से चल रही अवैध बसों और उनमें पिसती आम जनता और उनकी होती दुर्दशा का मज़ेदार चित्रण है।

कहीं इसमें रेल दुर्घटना के बाद मीडिया द्वारा उसे ऊटपटांग ढंग से कवर करने को ले कर मज़ेदार ढंग से व्यंग्य का ताना बाना बुना गया है। तो कहीं मच्छरों की आपसी बैठक के ज़रिए देश में चल रही मिलावटखोरी पर कटाक्ष नज़र आता है। कहीं इसमें डायनासोरों की उत्पत्ति और विलुप्ति के प्रश्न के ज़रिए आजकल के नेताओं और उनकी कार्यशैली एवं नीयत(?) की बात है तो कहीं इसमें गलियों में कुत्तों की बढ़ती भरमार को ले कर चिंता जताई गयी है। कहीं इसमें 'कथनी कुछ और करनी कुछ और' की तर्ज़ पर मद्यनिषेध के खोखले पड़ते सरकारी नारों की धज्जियाँ उड़ाई गयी हैं। तो कहीं इसमें देश की अदालतों में बरसों से लंबित पड़े मुकदमों और लेटलतीफी वाली अदालती प्रक्रिया पर कटाक्ष दिखता है।

 कहीं इसमें पुरानी मनोरंजक लोकगीत शैली आल्हा के ज़रिए संसद में नेताओं की कारस्तानियों को उजागर किया गया है। तो कहीं इसमें सत्तापक्ष की रैली पर मधुमक्खियों  का हमला होते दिखाई देता है। कहीं इसमें पुलसिया मिलीभगत से ग़रीब मास्टर के घर पड़ी डकैती और उसकी वजह से अमीर लोगों में जलन के मारे अफरातफरी का माहौल पनपता दिखाई देता है। कहीं इसमें शराफ़त का नक़ाब ओढ़े लोगों की असलियत खुलती दिखाई देती है तो कहीं इसमें मौसम विभाग की अजब गज़ब भविष्यवाणियों के मद्देनज़र आमजन समेत किसान तक उससे ठीक उलटे काम करते दिखाई देते हैं।
 
कहीं इसमें टिपिकल बॉलीवुडीय स्टाइल की डरावनी फिल्मों और उनकी कहानी पर मज़ेदार कटाक्ष नज़र आता है। तो हिंदी अखबारों और उनके पत्रकारों के शोषण और दुर्दशा का प्रभावी चित्रण दिखाई देता है। कहीं इसमें विज्ञापन की एवज में बिकते अख़बारों के प्रेस कार्ड की बात है तो कहीं इसमें विधायकों का बात बेबात धरने पर बैठ जाना नज़र आता है। कहीं सरकारी दफ़्तरों में रिश्वत ना लेने वालों पर कटाक्ष दिखाई देता है।

कहीं इसमें सरकारी गाड़ियों के अफ़सरों के परिवारों द्वारा दुरपयोग किए जाने की बात नज़र आती है। कहीं 'अतिथि तुम कब जाओगे?' की मंशा लिए मेहमानों के घर से जाने का इंतज़ार किया जा रहा है।

हँसने के अनेकों मौके देते इस मज़ेदार व्यंग्य संग्रह में कुछ जगहों पर वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियाँ दिखी तथा कवर डिज़ायन भी थोड़ा अनाकर्षक लगा। इसमें जहाँ एक तरफ़ कुछ व्यंग्य देव आनंद सरीखे सदाबहार दिखाई दिए तो कुछ व्यंग्य, मरुभूमि में बारिश की हलकी झलक जैसे बेअसर होते दिखाई दिए। 

समय की माँग के अनुसार तत्कालीन विषयों को ले कर लिखे गए व्यंग्य बाद में व्यर्थ या बिना मतलब के दिखाई देते है। ऐसे ही कुछ व्यंग्य आज के समयानुसार ना होने के कारण अपनी विट..अपनी मारक क्षमता खोते से दिखाई दिए। उदाहरण के तौर पर एक व्यंग्य में ओबामा को अमेरिका का राष्ट्रपति एवं लादेन को पाकिस्तान में छुपा बताया गया है। इसी तरह एक अन्य व्यंग्य में मुख्यमंत्री को हज़ार के नोटों की माला पहनते हुए दिखाया गया है जबकि हज़ार के नोट अब अप्रसांगिक हो..बन्द हो चुके हैं। 

इसी तरह एक अन्य व्यंग्य में एक भव्य भूतिया इमारत की बाहरी सरंचना की तुलना भव्य काँग्रेस पार्टी से और उसी इमारत की जर्जर भीतरी हालात की तुलना भारतीय जनता पार्टी की लुटी पिटी हालात से की गई है जबकि वर्तमान में इन पार्टियों की हालत इससे ठीक उलट है।

122 पृष्ठीय इस व्यंग्य संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है बुक्स क्लीनिक ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।
*** राजीव तनेजा ***

 
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