आमतौर पर किसी भी कहानी को पढ़ते वक्त ज़हन में उसकी स्टेबिलिटी को ले कर यह बात तय होनी शुरू हो जाती है कि वह हमारे स्मृतिपटल पर लंबे समय तक राज करने वाली है अथवा जल्द ही वह हमारी ज़हनी पकड़ से मुक्ति पा..आम कहानियों की भीड़ में विलुप्त होने वाली है। इसी बात के मद्देनज़र यहाँ यह बात ग़ौर करने लायक है कि जहाँ एक तरफ़ कुछ कहानियाँ अपने कथ्य..अपनी स्टोरी लाइन..अपनी रचनात्मकता..अपनी रोचकता की वजह से उल्लेखनीय बन जाती हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ कुछ कहानियाँ अपने अलग तरह के ट्रीटमेंट.. शिल्प और कथ्य की बदौलत हमारी ज़हनियत में गहरे तक अपनी जड़ें जमाने में कामयाब हो जाती हैं।
दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ जटिल मानवीय संबंधों की गुंजल पड़ी भावनाओं एवं मनोभावों को ले कर रची गयी कहानियों के ऐसे संकलन की जिसकी हर कहानी में कोई ना कोई ऐसी विशिष्ट..ऐसी अलग बात ज़रुर नज़र आती है जो इन्हें भीड़ से अलग कर..लंबी रेस का घोड़ा साबित करने का माद्दा रखती है। उम्दा कहानियों के इस थोड़े से कॉम्प्लिकेटेड संकलन को 'अपेक्षाओं का बियाबान' के नाम से लिखा है डॉ. निधि अग्रवाल ने।
कुल बारह कहानियों के इस संकलन की किसी कहानी में छोटी बहन और बड़े भाई के बीच चिट्ठियों के माध्यम से एक दूसरे को संबल देने की बात है। इस कहानी में एक तरफ़ बहन के प्रति भाई के अगाढ़ प्रेम की बात है तो दूसरी तरफ़ बहन और उसके पति के बीच पनपती दूरियों के जिक्र के साथ घर परिवार की जिम्मेदारियों के चलते कोमा में पड़ी..स्नेहसिक्त भाभी की सेवा ना कर पाने का मलाल भी है।
इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ मेट्रो में चढ़ने उतरने वाली रोज़ाना की सवारियों और उनके हाव भाव.. वेशभूषा के ज़रिए विभिन्न प्रकार के चरित्रों और उनकी मानसिकता को समझने..उनसे खुद को कनेक्ट करने की बात करती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी विदेश में बस चुकी प्रेग्नेंट समिधा और मिथ्यता का पर्याय बन चुके उसके और अंबर के रिश्ते की बात करती है। क्या समिधा इस सब को बस मूक दर्शक बन झेलती रहेगी अथवा, नॉस्टैल्जिया से प्रेरित हो, अपने मन की पुकार पर वापिस अपने देश..अपने वतन अपने..अपनों के पास..लौट आएगी?
इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ डाउन सिंड्रोम की बीमारी से पीड़ित एक जवान होते बच्चे पर,उसी घर की स्नेहमयी, नौकरानी एक दिन बलात्कार का इल्ज़ाम लगा देती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ फ़िल्मी स्टाइल की एक अन्य कहानी ट्रेन के सफ़र के दौरान किसी को देख बचपन की शरारत को फिर से याद करने की बात करती है। मगर क्या यह सब महज़ संयोग था या फिर इसके पीछे एक सुनियोजित साज़िश.. चाल या मंशा थी?
पुनर्जन्म को ले कर लिखी गयी इस संकलन की एक कंफ्यूज़िंग सी लगती कहानी शनै शनै अपने सब पत्ते खोलती हुई पाठकों को जहाँ एक तरफ़ अपने साथ..अपनी रौ में बहाए लिए चलती है। तो वहीं छद्म रिश्तों की पोल खोलती एक अन्य कहानी एक ऐसी एसिड अटैक विक्टिम युवती की बात करती है जो अपने पति और घरबार को छोड़..एसिड अटैक विक्टिम्स की मदद के लिए आगे आती है।
इसी संकलन की अन्य कॉम्प्लिकेटेड कहानी उन रिश्तों..संबंधों की बात करती है जो हमारे ना होते हुए भी इस कदर हमारे हो जाते हैं कि हम उनके दुख में दुखी और उनके सुख में सुखी रहने लगते हैं। भले ही हमारा पाला हमारी ही तरह के किसी जीते जागते ज़िंदा इनसान से पड़े अथवा किसी निरीह..भोले..बेज़ुबान जानवर से।
इसी संकलन की, मानसिक द्वंद्व को तितली और तिलचट्टे के बिम्ब से दर्शाती, कॉम्प्लिकेटेड कहानी फिलहाल मुझे मेरी समझ के लेवल से दो चार पायदान ऊपर की लगी। तो वहीं एक बड़ी कहानी या उपन्यासिका समय के साथ बनते नए रिश्तों और पुराने रिश्तों में आए बदलाव को स्वीकार ना कर पाने वालों की दुविधा..संशय और हिचक की बात करती है कि किस तरह रिश्तों में एक पायदान नीचे उतर कर सब कुछ सहज..सामान्य एवं खुशनुमा किया जा सकता है।
इसी संकलन की एक अन्य कहानी माँ बाप के रोड एक्सीडेंट में मारे जाने के बाद क्रूर मामी के घर पल रही वनिता की बात करती है। उस वनिता की, जिसे उसके पिता की तरफ़ के रिश्तेदारों द्वारा जबरन धौंस दिखा..मामी के घर से ले जाया जा रहा है। क्या नयी जगह..नए लोगों के बीच वनिता के दिन फिरेंगे या फिर नए माहौल में फिर से उसकी बुरी गत होने वाली है?
इस बात के लिए लेखिका तथा प्रकाशक की तारीफ़ करनी होगी कि किताब की प्रूफ्र रीडिंग के लिए उन्होंने ख़ासी मेहनत की जिसके चलते मुझे इस तरह की कोई कमी या ख़ामी इस किताब में नहीं दिखाई दी लेकिन.."अँधा क्या चाहे?"
"दो आँखें।"
की तर्ज़ पर इस उम्दा किताब में भी मुझे कम से कम एक ग़लती तो ख़ैर.. दिख ही गयी।
😊
पेज नम्बर 206 की शुरुआती पंक्तियों में लिखा दिखाई दिया कि...
"दो कमरों के इस घर में यह कमरा दिन में मेहमानों के दिए और रात में बच्चों, नानी और वनिता के हिस्से में आता था।"
जबकि अगले पैराग्राफ़ में लिखा दिखाई दिया कि..
"वनिता ने बाल बाँधे, कुल्ला किया और सीधा रसोई का रुख किया। बच्चों के लिए टिफ़िन तैयार कर उनके बैग में रखे, दादी के लिए भी चाय-नाश्ता तैयार कर उन्हें कमरे में पकड़ा आई।"
यहाँ 'नानी' की जगह ग़लती से 'दादी' लिखा गया है।
चलते चलते एक ज़रूरी बात..
यह स्वीकार करने में मुझे ज़रा सी भी हिचक नहीं कि यह किताब मेरे अब तक के साहित्यिक जीवन की मुश्किल किताबों में से एक रही। मैं कम से कम एक बार फिर से और इसे पढ़ कर अच्छी तरह से समझना चाहूँगा।
धाराप्रवाह शैली के आसपास की शैली में जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती कहानियों के इस 220 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है बोधि प्रकाशन, जयपुर ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।
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