उजली होती भोर- अंजू खरबंदा

साहित्य के क्षेत्र में अपने मन की बात को कहने के लिए लेखक अपनी सुविधानुसार गद्य या फिर पद्य शैली का चुनाव करते हैं। गद्य में भी अगर कम शब्दों में अपने मनोभावों को व्यक्त करने की आवश्यता..प्रतिबद्धता..बात अथवा विचार हो तो उसके लिए लघुकथा शैली का चुनाव किया जाता है।

लघुकथा एक तरह से तात्कालिक प्रतिक्रिया के चलते किसी क्षण विशेष में उपजे भाव, घटना अथवा विचार, जिसमें कि आपके मन मस्तिष्क को झंझोड़ने की काबिलियत हो..माद्दा हो, की नपे तुले शब्दों में की गई प्रभावी अभिव्यक्ति है। मोटे तौर पर अगर लघुकथा की बात करें तो लघुकथा से हमारा तात्पर्य एक ऐसी कहानी से है जिसमें सीमित मात्रा में चरित्र हों और जिसे आराम से मिनट..दो मिनट में ही पढ़ा जा सके।

दोस्तों..आज लघुकथा की बातें इसलिए कि आज मैं लेखिका अंजू खरबंदा के पहले लघुकथा संग्रह "उजली होती भोर" की बात करने जा रहा हूँ।
मानवीय संबंधों एवं संवेदनाओं के इर्दगिर्द रची गयी इन लघुकथाओं को पढ़ने के बाद आसानी से जाना जा सकता है कि अंजू खरबंदा अपने आसपास के माहौल एवं घटती घटनाओं पर ग़हरी एवं पारखी नज़र रखती हैं और उन्हीं में अपने किरदार चुनने एवं गढ़ने के मामले में सिद्धहस्त हैं। 

पुरानी रूढ़ियों को तोड़..नए रास्ते दिखाती इस संकलन की सकारात्मक लघुकथाओं में कहीं घर की बालकनी में मर्दाना कपड़े महज़ इसलिए टँगे दिखते हैं कि बुरी नज़र वालों के लिए घर में किसी मर्द के होने का अंदेशा और डर बना रहे। कहीं किसी लघुकथा में रोज़मर्रा के कामों की मशीनें आ जाने से बढ़ती बेरोज़गारी और अकेलेपन की बात दिखती है।

इसी संग्रह में कहीं किसी लघुकथा में पत्नी की कामयाबी से जलते पति की बात है तो किसी अन्य रचना में स्कूटी सीखने जैसी छोटी सी बात पर पत्नी को प्रोत्साहित करने के बजाय समूची महिला शक्ति को ही दोयम दर्ज़े का ठहराया जा रहा है। कहीं किसी रचना में सार्थक पहल करते हुए अपनी हाल ही में विधवा हुई बहु के पुनर्विवाह करवाने की बात होती दिखती है । तो कहीं किसी अन्य रचना में टीस दे चुके पुराने कटु अनुभव को भूल प्रफुल्लित मन से आगे बढ़ने की बात दिखती है। 

इसी संकलन की एक अन्य रचना में जहाँ एक तरफ़ पुरुष और स्त्री को बराबर का दर्ज़ा देने की बात है तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य रचना, ब्याह के बाद बच्चों को अपने साथ बाँधने के बजाय उन्हें उनका स्पेस..उनका समय एन्जॉय करने देने की पैरवी करती नज़र आती है। कहीं किसी रचना में बेटों के साथ घर में बेटियों के हक की बात नज़र आती है। तो कहीं किसी रचना में सकारात्मक ढंग से कोई वृद्धा खुशी खुशी वृद्धाआश्रम और वहाँ के अपने जीवन की पैरवी करती नज़र आती है। 

यूँ तो इस संकलन की सभी लघुकथाएँ कोई ना कोई अहम मुद्दा या आवश्यक बात को उठाती नज़र आती हैं। फिर भी इस संकलन की कुछ लीक से हट कर लिखी गयी रचनाओं ने मुझे बेहद प्रभावित किया। उनके नाम इस प्रकार है...

*गुब्बारे वाला
*मुखिया
*डिश वॉशर
*उजली होती भोर
*अपना घर- एक अलग नज़रिया
*कठपुतलियाँ
*सौ का नोट
*ऑब्ज़र्वेशन
*अंतर्द्वंद्व 
*चौपदी
*कसैला स्वाद
*वक्त का तकाज़ा
*परिमल
*गुबरैला
*नयी परिपाटी
*लंच बॉक्स
*अवतार
*ये तेरा घर ये मेरा घर
*खिसियानी बिल्ली
*इनविटेशन
*कलमुंही
*झूठे झगड़े
*प्रेम पगे रिश्ते
*गोकाष्ठ
*सरप्राइज़ 
*अजब पहेली
*एक पंथ दो काज
*बदलती प्राथमिकताएँ

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस पूरे संकलन में कुछ लघुकथाएँ पूर्व निर्धारित तयशुदा..स्वाभाविक ढर्रे पर चलती हुई दिखाई दी तो सुखद आश्चर्य के रूप में कुछ अपने ट्रीटमेंट से चौंकाती हुई भी लगी। कहीं कहीं वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियों के दिखाई देने एवं जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना होना भी थोड़ा खला।

पेज नंबर 138 की कहानी 'असली उपहार' के पहले पैराग्राफ में ही लिखा दिखाई दिया कि..

'बाजार और दुकानें उपहारों से लगी पड़ी थी' 

यहाँ 'बाज़ार और दुकानें उपहारों से लदी पड़ी थी' होना चाहिए था। 

'स्वेटर' कहानी छोटी..तुतलाती बच्ची के हिसाब से थोड़ी अस्पष्ट और उम्र के लिहाज से बड़ी बात करती लगी। कुछ लघुकथाऐं पढ़ने के दौरान थोड़ी दबी दबी सी लगी कि उनमें खुल कर कहने से बचा जा रहा है। इसी तरह बाल मज़दूरी के उन्मूलन का आह्वान करती एक लघुकथा अपनी ही बात काटती दिखी जिसमें दस साल के छोटे बच्चे को ढाबे की बाल मज़दूरी से हटा पढ़ाई के साथ साथ गैराज में ट्रेनिंग लेने के लिए कहा जा रहा है। 

'अपना कमरा' नाम की लघुकथा अगर सांकेतिक शब्दों के बजाय स्पष्ट रूप से समाप्त होती तो बेहतर था। 'टिप' नाम की लघुकथा अगर सकारात्मक होने के बजाय नकारात्मक होती तो मेरे ख्याल से ज़्यादा प्रभाव छोड़ती।

यूँ तो आकर्षक डिज़ायन एवं बढ़िया कागज़ पर छपा यह संकलन मुझे उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा की इस 146 पृष्ठीय उम्दा लघुकथा संग्रह के पेपरबैक संस्करण को छापा है इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड ने और इसका मूल्य रखा गया है 350/- रुपए। जो कि आम हिंदी पाठक की जेब के लिहाज़ से ज़्यादा ही नहीं बल्कि बहुत ज़्यादा है। किसी भी किताब की ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पकड़ बनाने के लिए यह बहुत ही आवश्यक है कि उसे बहुत ही जायज़ मूल्य पर आम पाठकों के लिए उपलब्ध करवाया जाए। उम्मीद है कि लेखिका एवं प्रकाशक इस ओर ध्यान देंगे। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

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