विसर्जन- वन्दना वाजपेयी

कई बार किसी किताब को पढ़ते वक्त लगता है कि इस लेखक या लेखिका को हमने आज से पहले क्यों नहीं पढ़ा। ऐसा ही कुछ इस बार हुआ जब वंदना वाजपेयी जी का कहानी संकलन "विसर्जन" मैंनें पढ़ने के लिए उठाया। इस संकलन की भी एक अलग ही कहानी है। संयोग कुछ ऐसा बना कि 'अधिकरण प्रकाशन' के स्टाल जहाँ से मेरे दोनों कहानी संकलन आए हैं, वहीं पर वंदना जी ने अपना संकलन रखवाया। उस वक्त सरसरी तौर पर इसे देखा भी लेकिन लेने का पूर्ण रूप से मन नहीं बना पाया। 

बाद में फिर कुछ अन्य साथियों की फेसबुक पर इस किताब की समीक्षा भी आयी लेकिन उनमें भी मैंनें बस इतना ही देखा कि किताब की तारीफ़ हो रही है मगर पूरी समीक्षा को मैंनें तब भी नहीं पढ़ा और इसकी भी एक ख़ास वजह थी और वो वजह ये थी कि जो भी समीक्षा लिखता है वो किताब में बारे में इतना ज़्यादा बता देता है (एक एक कहानी का विस्तार से वर्णन) कि सारी  उत्सुकता खत्म सी होने लगती है या काफ़ी हद तक कम हो जाती है। मेरे हिसाब से समीक्षा के ज़रिए पाठक के मन में पुस्तक के प्रति उत्सुकता बढ़नी चाहिए ना कि कम होनी चाहिए। इसलिए मैंने बाद में वंदना जी से किताब का अमेज़न लिंक लिया और इसे ऑनलाइन मँगवा लिया। 

अब जब संकलन को पढ़ना शुरू किया तो पहली कहानी 'विसर्जन ' ने ऐसा मन मोह लिया कि एक एक बाद एक कर के सभी कहानियाँ लगातार पढ़ता चला गया। हर कहानी एक से बढ़कर एक। सरल..सीधी धाराप्रवाह शैली में लिखी कहानियाँ आपको बिल्कुल भी बोझिल नहीं लगती और कहीं अपने आसपास ही घटती हुई प्रतीत होती हैं। इस संकलन से पता चलता है मानवीय संवेदनाओं पर लेखिका की गहरी पकड़ है। उन्हें बखूबी पता है कि कहानी को कहाँ से और कैसे शुरू करना है और कब...कैसे...किस मोड़ पर खत्म करना है। पढ़ते वक्त हर कहानी आपके सामने चलचित्र की भांति हर दृश्य को एकदम सजीव करती हुई चलती है।

विविध विषयों को अपने में समेटे हुए इस किताब को पढ़ते वक्त किसी कहानी में आप अपने पिता के प्यार को तरस रही एक त्याग दी गयी युवती की व्यथा और फिर इस सबसे उसके उबरने की कहानी से दो चार होते हैं तो किसी कहानी में घर बाहर हर जगह अशुभ मानी जा चुकी बच्ची से उसके दुखों के साथ उसके बचपन से लेकर उसके बड़े होने तक की कहानी से रूबरू होते हैं। 

किसी कहानी में गरीबी के दंश को झेलती एक होनहार बालिका के सपनों के टूटने और फिर पुनः उठ खड़े होने के दृढ़ संकल्प को दिखाया गया है तो किसी कहानी में रिश्तों के कच्चेपन, दुःख, शक, मजबूरी को आधार बना पूरे कथाक्रम का ताना बाना रचा गया है। किसी कहानी में मासूम बच्ची के बचपन से लेकर युवती हो विधवा होने तक के सफर को अंतिम परिणति के रूप में पागलखाने तक पहुँचाया गया है। 

इस संकलन की कुछ एक कहानियाँ तो ऐसी हैं कि उन पर बिना किसी काट छाँट के कोई फ़िल्म अथवा सीरियल आराम से बनाया जा सके। उनकी कुछ कहानियाँ जो मुझे बेहद पसंद आयी, उनके नाम इस प्रकार हैं:

*विसर्जन
*पुरस्कार
*फॉरगिव मी

वैसे तो उनकी हर कहानी अपने आप अलग है  लेकिन मुझे उनकी सभी कहानियों में एक समानता भी दिखी कि सभी कहानियाँ लगभग एक जैसे सीरियस नोट वाले ट्रैक पर चलती हैं। हालांकि कुछ कहानियाँ अपने अंत में साकारात्मक हैं लेकिन उनका ट्रीटमेंट सीरियस ही है। बतौर संदर्भ यहाँ पर मैं ये कहना चाहूँगा कि एक समय था जब फिल्मस्टार दिलीप कुमार ट्रैजिडी किंग के नाम से जाने जाते थे क्योंकि उनकी हर फ़िल्म दुखभरी होती थी। उसकी वजह से दिलीप कुमार अवसाद का शिकार हो डिप्रैशन में चले गए। डॉक्टर की सलाह पर उन्होंने कॉमेडी फिल्में करनी शुरू की तो चूंकि वो एक्टर अच्छे थे तो उनमें भी उन्होंने धमाल मचा दिया। इसलिए वंदना वाजपेयी जी से ये मेरा विनम्र निवेदन है कि अपनी आने वाली पुस्तकों में इस तरह की एकरसता से बचें। 

एक पाठक की हैसियत से मुझे एक आध कहानी में थोड़ी  भाषणबाजी सी होती हुई प्रतीत हुई जिससे बचा जाना चाहिए। इसके अलाबा आजकल छपने वाली लगभग हर किताब में नुक्तों की ग़लतियाँ दिखाई दे रही हैं जिन्हें दूर करने के प्रयास किए जाने चाहिए। 124 पृष्ठीय इस संग्रणीय कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है 'ए पी एन पब्लिकेशंस' ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹180/- जो कि किताब की क्वालिटी और कंटैंट को देखते हुए बिल्कुल भी ज़्यादा नहीं है। आने वाले भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

मेरी लघुकथाएँ- उमेश मोहन धवन

यूँ तो परिचय के नाम पर उमेश मोहन धवन जी से मेरा बस इतना परिचय है कि हम दोनों कई सालों से फेसबुक पर एक दूसरे की चुहलबाज़ीयों का मज़ा लेते रहे हैं। व्यंग्य मिश्रित हास्य की अच्छी समझ रखने वाले उमेश मोहन जी ने छोटे मोटे हास्य या फिर अपनी पंच लाइन्स से सहज ही मेरा ध्यान कई मर्तबा अपनी लेखनी की तरफ़ खींचा। उस वक्त कतई ये अन्दाज़ा नहीं था कि उमेश जी संजीदा किस्म की लघुकथाएँ भी लिखते हैं। 2017 में पहली बार मुझे उनकी कुछ लघुकथाएँ पढ़ने को मिली। अब जब उनकी लघुकथाओं का संकलन "मेरी लघुकथाएँ" के नाम से आ चुका है। तो चलिए..आज उन्हीं के लघुकथा संकलन "मेरी लघुकथाएँ" की बात की जाए। 

इस संकलन में उनकी कुल 65 लघुकथाएँ हैं और उनमें से ज़्यादातर प्रतिष्ठित समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में पहले भी छप चुकी हैं। प्रतिष्ठित पत्रिका में छपने से इस बात की तस्दीक तो खैर होती ही है कि उसमें ज़रूर कुछ ना कुछ नोटिस करने वाली बात तो होगी ही। धाराप्रवाह लेखन शैली से सुसज्जित इस संकलन की रचनाओं में उन्होंने अपने आसपास के देखे भाले माहौल से किरदारों एवं  घटनाओं को ले कर ही छोटी छोटी लघुकथाएँ गढ़ी हैं।

इस संकलन की किसी कहानी में अधेड़ उम्र का डायबिटीज से पीड़ित व्यक्ति भी थोड़ा बहुत मीठा खाने के लिए डॉक्टर से तसल्ली चाहता है तो किसी रचना में एक व्यक्ति को अपनी बीवी के अबॉर्शन से ज़्यादा दफ़्तर में फ्री बंटे कलेंडर के ना मिल पाने का अफ़सोस ज़्यादा है। इस संकलन की किसी रचना में चाय की तलब और उस पर निर्भरता की बात है तो किसी रचना में इस बात पर कटाक्ष के ज़रिए चिंता जताई गई है कि जिस आवारा..नाकारा व्यक्ति को इसलिए कोई छोटी सी नौकरी भी नहीं मिल पा रही थी कि उसके करैक्टर की गारण्टी कौन देगा? वही नाकारा व्यक्ति अब नेता बन सबको करैक्टर सर्टिफिकेट बाँटेगा।

इस संकलन की किसी रचना में एक ही घटना को ले कर अलग अलग नज़रियों की बात है तो किसी रचना में लोगों के असली और नकली चेहरों के फर्क को मज़बूती से दर्शाया गया है। इस संकलन की किसी रचना में असली संपत्ति को ले कर पैसे से शुरू हुई बहस घूम फिर कर वापिस पैसे पर ही आ कर खत्म हो जाती है तो किसी रचना में मिथ्या आरोपों के तहत गिरफ्तार व्यक्ति ग्यारह साल की सज़ा काटने के बाद, बाइज़्ज़त बरी हो तो जाता है मगर क्या सही मायने में उसकी इज़्ज़त बची रह पाती है?

समाज..सरकार की कुसंगतियों पर धीमे धीमे प्रहार करती उमेश मोहन धवन जी की रचनाएँ इस कदर पठनीय हैं कि एक ही बैठक में किताब आराम से ये कहते हुए खत्म की जा सकती है कि...

"वाह...मज़ा आ गया।"

यूँ तो इस संकलन की लगभग सभी लघुकथाएँ बढ़िया हैं मगर फिर भी कुछ के नाम मैं उल्लेखनीय रूप से लेना चाहूँगा। जो इस प्रकार हैं।

*अफ़सोस
*अँगूठी
*बाइज़्ज़त बरी
*बस एक बार
*चमत्कार
*चार दिन बाद
*दयालु
*डिजिटल शुभकामनाएं
*दिनदहाड़े
*दूरी
*हालचाल
*आई लव इंडिया
*जा के पाँव न...
*जीवनदान
*झगड़े की जड़
*कीमत
*कुशल प्रबंधक
*मददगार
*मेहंदी
*मुबारकबाद
*पाँच सौ रुपए 
*पीर परायी
*पुराना आदमी
*सब्र का बाँध
*साबुन की टिकिया

मेरे हिसाब से किसी भी किताब के प्रभावी या कैची होने में उसका आकर्षक कवर एवं दमदार  शीर्षक बड़ा महत्त्व रखता है। कवर ऐसा होना चाहिए कि किताबों की भीड़ में भी वह किताब अलग और दूर से ही नज़र आए। इसके अलावा शीर्षक ऐसा होना चाहिए कि पाठक के अन्दर किताब के मैटीरियल को ले कर इस हद तक उत्सुकता जागे कि वह किताब को अपने हाथ में उलटने पलटने के लिए उठा ले। इस लिहाज़ से अगर देखें तो किताब थोड़ा निराश करती है। इसका कवर मुझे किसी कहानियों की किताब के बजाय किसी मंथली सब्सक्रिप्शन या फिर फ्री में बँटने वाली धार्मिक किताबों जैसा लगा। साथ ही लेखक की पहली किताब होने की वजह से इसका शीर्षक "मेरी लघुकथाएँ" भी थोड़ा सही नहीं लगा कि आमतौर पर वे लेखक जिनकी कई कई किताबें आ चुकी होती हैं , इस तरह का शीर्षक अपनी चुनिंदा रचनाओं की किताब के लिए रखते हैं।  उम्मीद की जानी चाहिए कि इस खामी से इसी किताब के आगामी संस्करण में तथा आने वाली किताबों में बचा जाएगा।

हालांकि यह संकलन मुझे उपहार स्वरूप प्राप्त हुआ मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि..151 पृष्ठीय उम्दा लघुकथाओं के इस संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है एलोरा प्रिन्टर्स,कानपुर ने और इसका मूल्य रखा गया है 180/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

कुछ अनकहा सा- कुसुम पालीवाल

जब भी कभी किसी लेखक या कवि को अपनी बात को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के सामने व्यक्त करना होता है तो वह अपनी जरूरत..काबिलियत एवं साहूलियात के हिसाब से गद्य या पद्य..किसी भी शैली का चुनाव करता है। अमूमन हर लेखक या कवि उसी..गद्य या पद्य शैली में लिखना पसंद करता है जिसमें वह स्वयं को सहज महसूस करता है। मगर कई बार समय के दबाव..विचार की ज़रूरत एवं दूसरों की देखादेखी भी हम एक से दूसरी शैली की तरफ़ स्थानांतरित होते रहते हैं। जैसे गद्य शैली में व्यंग्य कहानियाँ लिखते लिखते मैंने खुद भी कई बार कुछ कविता जैसा रचने का प्रयास किया। ऐसे ही बहुत से कवि भी हुए जिन्होंने कविताओं से कहानियों और उपन्यासों की दुनिया में कदम रखा।

दोस्तों..आज मैं एक ऐसी ही कवियत्री 'कुसुम पालीवाल' की बात करने जा रहा हूँ जिनके अब तक तीन काव्य संकलन प्रकाशित हो चुके हैं और अब उन्होंने 'कुछ अनकहा सा' नाम की एक किताब के ज़रिए कहानियों की दुनिया में कदम रखा है। 

सहज..सरल भाषा में लिखी गयी इस संकलन की कहानियों को देख कर साफ़ पता चलता है कि वे अपने आसपास के माहौल..ताज़ातरीन अख़बारी सुर्खियों एवं ज़रूरी मुद्दों के बारे में अच्छी जानकारी रखती हैं। उनके इस संकलन की किसी कहानी में शराबी..जाहिल एवं बेरोज़गार पति के धौंस दिखा..मारने पीटने जैसी बातों को कई साल से झेल रही युवती एक दिन विरोधस्वरूप उसे जस का तस जवाब देती नज़र आती है। तो इसी संकलन की जटिल सैक्स संबंधों को ले कर रची गयी एक अन्य कहानी इस अहम मुद्दे को उठाती नज़र आती है कि स्त्री की बनिस्बत पुरुष की इच्छाएँ..भावनाएँ या सिर्फ़ उसका आत्मसम्मान ही महत्वपूर्ण क्यों? 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ कभी खुद अपनी सास के कठोर नियंत्रण में रही उस स्त्री की बात करती है जो बेटे के बड़े होने पर चाहती है कि उसके बेटे को वे सब खुशियाँ मिलें जो उसके पिता को अपनी माँ याने के उसकी सास के कड़े स्वभाव की वजह से नहीं मिल पायी थी। तो वहीं दूसरी तरफ़ ब्लैकमेलिंग और दोस्ती जैसे ताने बाने में लिपटी इसी संकलन की एक अन्य कहानी मुम्बई की किसी कम्पनी में जॉब करने वाली उस जवान..खूबसूरत पढ़ी लिखी रिया की बात करती है जो अपने बॉस की लुभावनी बातों में आ..जॉब से साथ साथ अपने एक्स्ट्रा खर्चों को अफ़्फोर्ड करने के लिए एस्कॉर्ट का काम भी कर रही है। 

एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ उस नरगिस की बात करती है जिसे मात्र 9 साल की उम्र में उसके शराबी चाचा ने फरज़ाना नाम की समाज सेविका को बेच दिया था। घर के सारे काम संभालने वाली नरगिस के 16 साल की होने के बाद उसके साथ, फरज़ाना के जानते..समझते हुए भी उसके दो बेटों ने, जिन्हें वो भाईजान कहती थी, बारी बारी बलात्कार किया मगर उन्हीं के तीसरे भाई ने उसे इज़्ज़त बक्शी और उसके साथ निकाह कर..अलग घर में रहने लगा। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी संकलन की अन्य कहानी शराब के लिए हरदम तड़पते भीखू और धनिया की बेटी ललिया की उन मजबूरियों की बात करती चलती है जिनके तहत गरीबी..भुखमरी और पिता की शराब के लिए उसे लाला की रखैल तक बनना पड़ता है। 

इसी संकलन की एक कहानी में जहाँ एक तरफ़ दहेज लोलुपों के घर में बहु की शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना की बात होती दिखाई देती है।  
तो दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी साहित्यिक गोष्ठियों में नाम..सम्मान प्राप्त कर रही कविता और उसके शक्की पति सुरेश की बात कहती है। जिसमें अपने चरित्र..अपनी अस्मिता पर लांछन लगते देख कविता चुप नहीं रह पाती और एक कड़ा फैसला लेने पर मजबूर हो उठती है। 

इसी संकलन की लिव इन मुद्दे पर लिखी गयी एक अन्य कहानी कम्पनी की एम. डी, उस काव्या की बात करती है जिसने अपने ही दफ़्तर में नए नए भर्ती हुए सुहैल पर मोहित हो उसे अपने साथ लिव इन में रहने के लिए तैयार तो कर लिया मगर इस सब का अंजाम क्या होगा? यह किसको पता था? 
तो वहीं एक अन्य कहानी बेटे के बड़े हो जाने के बाद घर-परिवार के कामों में उलझी उस सीमा नाम की स्त्री की बात कहती है कि किस तरह उसने अपने पति के विरोध के बावजूद भी ज़िद पर अड़ कर अपना..खुद का एक अलग वजूद पाया। 

भाषा के लिहाज़ से अगर देखें तो सीधी..सरल भाषा में लिखी गयी इस संकलन की कहानियों में खासा प्रवाह नज़र आया जो पाठक को अपने साथ जोड़े रखने में सक्षम तो है मगर परिक्वता के स्तर पर इस संकलन की कहानियाँ मुझे कुछ कुछ अधपकी सी या फिर जल्दबाज़ी में लिखी गयी लगीं। इन पर छपने से पहले अभी और काम होना चाहिए था। कुछ कहानियाँ ने अपने सतही होने से तो कुछ ने अपने थोड़ी फिल्मी या भाषण देने वाली होने की वजह से भी अपना असर खोया। इस सबके अतिरिक्त कुछ कहानियाँ बेवजह खिंची हुई सी भी लगीं। उदाहरण के तौर पर...

**  ब्लैकमेलिंग से जुड़ी हुई 'अफ़्फोर्ड' कहानी इसलिए भी तर्कसंगत नहीं लगी कि एक कम्पनी में काम कर रही कहानी की नायिका ने अपने एक्स्ट्रा खर्चों को एफ्फोर्ड करने के लिए अपने बॉस की सलाह पर कॉलगर्ल जैसा धन्धा अपनाया हुआ है जिसे उसका दोस्त( भावी बॉयफ्रेंड) और पुलिस.. यहाँ तक कि वह खुद भी सहज रूप से ले रही है। कहानी के अंत में भी वह सहजता से ही अपने दोस्त से पूछ रही है कि..

"क्या तुम मुझे अफ़्फोर्ड कर सकते हो?"

इस पर दोस्त भी उसी सहजता से उत्तर दे रहा है कि..

"क्यों..नहीं..रिया?"

एक और बड़ी बात यह कि उसका बॉस भी उसे लिव इन में उसके साथ रहने, प्रेमिका या रखैल बनने के बजाय कॉलगर्ल बनने की सलाह देता है जिसे वह उसी सहजता के साथ मान भी लेती है। 
 

** इसी तरह 'कुछ अनकहा सा' कहानी को कायदे से वहीं खत्म हो जाना चाहिए था जहाँ पर फरज़ाना का तीसरा बेटा अपने भाइयों द्वारा बलत्कृत नरगिस को अपना लेता है। इस कहानी को बाद में बेवजह खींचा गया जिसकी बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं थी।

** इसी तरह 'भीखू' कहानी में भीखू द्वारा लाला का कत्ल करने के बावजूद भी पंचायत द्वारा उसे बेगुनाह करार दिया जाना। देश की कानून व्यवस्था और पुलिस का कत्ल की वारदात पर भी आँखें मूंदे से रहना। भीखू द्वारा सुधर कर उसी गाँव मे रहना।  कुछ हज़म होने वाली बात नहीं लगी। 

वर्तनी की अशुद्धियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ ग़लतियाँ दिखाई दी एवं शब्द भी ग़लत छपे हुए दिखाई दिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस किताब के अगले संस्करण में या आने वाली किताबों में इस तरह की कमियों से बचा जाएगा। 118 पृष्ठीय इस कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है इंडिया नेटबुक्स ने और इसका दाम रखा गया है 200/- जो कि मुझे ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

सीता- मिथिला की योद्धा- अमीश त्रिपाठी

किसी भारतीय लेखक की किताब की अगर एक बार में ही 10 लाख प्रतियां प्रिंट में चली जाएँ और उसके बाद धड़ाधड़ वो बिक भी जाएँ तो यकीनन इसे चमत्कार ही कहेंगे और इस चमत्कार को इस बार भी कर दिखाया है हमारे देश के प्रसिद्ध लेखक अमीश त्रिपाठी जी की किताब "सीता-मिथिला की योद्धा" ने। जो कि राम चंद्र श्रृंखला की उनकी दूसरी किताब है। इससे पहले इसी श्रृंखला की पहली किताब "इक्ष्वाकु के वंशज" भी इसी तरह का धमाल मचा इतिहास रच चुकी है। 

मूलतः अंग्रेज़ी में लिखी गयी इस किताब का हिंदी में अनुवाद उर्मिला गुप्ता जी ने किया है। अब तक 19 भाषाओं में अमीश जी की रचनाओं का अनुवाद हो चुका है। अपनी लेखनी के ज़रिए अमीश, अमिताभ बच्चन , शेखर कपूर तथा शशि थरूर जैसे दिग्गजों समेत विश्व के अनेक प्रसिद्ध लोगों को अपना मुरीद बना चुके हैं। 

1974 में पैदा हुए अमीश आई.आई.एम (कोलकाता) से प्रशिक्षित एक बैंकर से अब पूर्णतः एक सफल लेखक में बदल चुके हैं। अपने पहले उपन्यास "मेलुहा के मृत्युंजय"(शिव रचना त्रय की पहली पुस्तक) की अपार सफलता से प्रोत्साहित हो कर उन्होंने अपने 14 वर्षीय सफल बैंकिंग कैरियर को तिलांजलि दी और पूर्ण रूप से लेखन कार्य में जुट गए। इतिहास तथा पौराणिक कथाओं एवं दर्शन के प्रति उनके लगाव एवं ज़ुनून ने उनके लेखन को एक अलग..ऊँचे स्तर तक पहुँचा दिया। इनकी किताबों की अब तक 40 लाख से ज़्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं और गिनती लगातार बढ़ ही रही है। 

इस किताब "सीता- मिथिला की योद्धा" में उन्होंने सीता के ज़रिए, उन्हीं को मुख्य किरदार बना कर पिछली कहानी (इक्ष्वाकु के वंशज) को ही आगे का विस्तार दिया है। रोचक तथा रोमांचक मोड़ों से गुज़रते हुए कहानी में एक के बाद एक कई रहस्योद्घाटन होते हैं जो उपन्यास के खत्म होने तक पाठक की उत्सुकता को निरंतर बनाए तथा अगले उपन्यास के लिए बचाए रखते हैं। 

इस कहानी में सीता के जन्म से ले कर रावण द्वारा उनके हरण की कहानी तक का ताना बाना बहुत ही रोचक ढंग से बुना गया है। इसमें मूल कहानी के साथ साथ कई छोटी कहानियाँ अपने महत्त्वपूर्ण किरदारों समेत अपनी मौजूदगी दर्ज करती हुई साथ साथ चलती हैं। कहानी का प्लॉट इतना रोचक, चुस्त एवं कसा हुआ कि पाठकों को हॉलीवुड या फिर बाहुबली सरीखी बड़े बजट की मल्टी स्टारर फ़िल्म का सा जीवंत आभास होता है। पुराने संदर्भों में आधुनिकता का उनका घालमेल कहानी को थोड़ा अलग बनाने के साथ साथ हमें ये सोचने पर भी बाध्य करता है कि समस्याएं तो तब भो वही थी और अब भी वही हैं। उनके हल तब भी वही थे और अब भी वही हैं। बस..तब और अब के ट्रीटमैंट में तकनीकी वजहों एवं आधुनिकीकरण होने के नाते थोड़ा फर्क आ गया है। 

कोई आश्चर्य नहीं कि लोग जल्द ही इस पर हॉलीवुड की कोई फ़िल्म अथवा बड़े बजट की वेब सीरीज़ बनते हुए देखें। मूलतः अंग्रेज़ी में लिखा होने और हिंदी में उसका अनुवाद होने के कारण कई जगहों पर भाषा थोड़ी असहज(परिचित शब्दशैली की कमी) सी प्रतीत होती है लेकिन रोचक कथानक होने की वजह से इसकी भूमिका थोड़ी देर में गौण होने लगती है और आप इसी भाषा के आदि य्या फिर कह लें कि मुरीद होने लगते हैं। 398 पृष्ठीय इस उपन्यास को प्रकाशित किया है वेस्टलैंड पब्लिकेशंस लिमिटेड ने और इसका मूल्य ₹299/- मात्र रखा गया है जो कि किताब की क्वॉलिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बिल्कुल भी ज़्यादा नहीं है। फिर भी पाठक अगर अमेज़न या फ्लिपकार्ट सरीखे ऑनलाइन पोर्टलों पर अगर पता करें तो कुछ डिस्काउंट भी मिल सकता है। एक अच्छी, पठनीय तथा सहेज कर रखी जाने वाली किताब लाने के लिए लेखक तथा प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई।

***राजीव तनेजा***

तक़दीर का तोहफ़ा- सुरेन्द्र मोहन पाठक

यूँ तो अब तक के जीवन में कई तरह की किताबें पढ़ने का मौका मिलता रहा है मगर वो कहते हैं कि वक्त से पहले और किस्मत से ज़्यादा कभी किसी को कुछ नहीं मिलता। अगर तक़दीर मेहरबान हो तो तय वक्त आने पर हमारे हाथ कोई ना कोई ऐसा तोहफ़ा लग जाता है कि मन बरबस खुश होते हुए.. पुलकित हो..मुस्कुरा पड़ता है। दोस्तों.. आज मैं बात कर रहा हूँ एक ऐसे कहानी संकलन की जो मँगवाने के बाद भी कम से कम एक साल तक मेरे द्वारा अपने पढ़े जाने की बाट जोहता रहा। मगर मुझे क्या पता था कि तक़दीर की मेहरबानी से एक तोहफ़ा अपने पढ़े जाने के लिए मेरा इंतज़ार कर रहा है। 

जी..हाँ..आज मैं बात कर रहा हूँ लुगदी साहित्य के बेताज बादशाह सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के रहस्यमयी कहानियों के प्रथम संग्रह 'तकदीर का तोहफा' और उसमें छपी दस कहानियों की। सुरेन्द्र मोहन पाठक जी अब तक 300 जासूसी/थ्रिलर उपन्यास लिख चुके हैं। इस किताब में वे बताते हैं कि उनके लेखन की शुरुआत में उन्हें घोस्ट लेखन या फिर फिलर के रूप में काम करना पड़ा। फिलर अर्थात जब किसी अन्य लेखक का उपन्यास तयशुदा पृष्ठों से कम संख्या का रह जाता था तो बाकी के पेजों को भरने के लिए इन्हें बेनामी रूप में कोई जासूसी/थ्रिलर कहानी लिखने के लिए कहा जाता था जोकि बस उतने ही पेज की होती थी जितने पेज खाली होते थे। 

चलिए..अब बात करते हैं इस संग्रह की कहानियों की तो इनमें किसी कहानी में एक ऐसा शख्स नज़र आता है जिसका इस बात पर अडिग विश्वास है कि पारिवारिक से ले कर अपने पेशे तक के हर रिश्ते में वो बदकिस्मत है। बतौर मेहरबानी अपनी बदकिस्मती से मय सबूतों के वो एक ऐसे कत्ल के इल्ज़ाम में फँस जाता है जो दरअसल उसने किया ही नहीं।

टीपू सुल्तान की डायरी और उस पर रिसर्च कर रहे विद्यार्थी के कत्ल के इर्दगिर्द घूमती एक इन्वेस्टिगेटिव कहानी में क्या पुलिस असली कातिल तक पहुँच पाती है? 

एक अन्य कहानी में अपनी खूबसूरत नर्स को पाने के चक्कर में एक अधेड़ डॉक्टर अपनी बीवी की हत्या के कई असफ़ल प्रयासों के बाद अंततः सफल तो हो जाता है मगर अपनी फूलप्रूफ प्लैनिंग के बावजूद क्या वो पुलिस के चंगुल में आने से बच पाता है? 

भूत प्रेत के अस्तित्व जुड़ी हाँ..ना की बहस के बीच एक ऐसी कहानी का जिक्र आता है जिसमें समय के अत्यधिक पाबंद राजा साहब की मौत अचानक ठीक उसी समय हो जाती है जब उनसे तंग आ कर उनका भतीजा, जो कि उनका इकलौता वारिस भी है, उनकी मौत की दुआ माँगता है। अब सारी खोजबीन इस बात पर टिकी हुई है कि ये मौत इत्तेफ़ाक़न हुई है या फिर इसके पीछे किसी गहरी  साजिश का हाथ है?

बहुत ही रोचक.. रोमांचक और कहीं कहीं रौंगटे तक खड़े कर देने की काबिलियत रखने वाली इस संकलन की धाराप्रवाह शैली में लिखी सभी इन्वेस्टिगेटिव कहानियाँ बहुत बढ़िया एवं सम्मोहित करती हैं मगर चूंकि इन्हें बहुत पहले लिखा गया था और अब टीवी और फिल्मों वगैरह में इसी तरह का रहस्य रोमांच देख चुकने से किसी किसी में मुजरिम का अंदाज़ा पहले से ही लग जाता है मगर लेखक की खूबी ये कि वे अंत तक अपने पाठकों को बाँधे रखने में सफल रहे हैं।

कुछ स्थानों पर छोटी मोटी प्रूफ रीडिंग की कमियों  की वजह से मात्रात्मक त्रुटियाँ दिखाई दी जिनमें मुख्य रूप से पेज नम्बर 167 पर ध्यान जाता है जहाँ पर मुख्य किरदार ब्लैकमेलर को दस हज़ार रुपए देने में असमर्थता जताते हुए टेबल पर 2 हज़ार रुपए रख कर उन्हें ही उसे ऑफर करता है। ब्लैकमेलर के दो हज़ार रुपए लेने से साफ इनकार करने पर मुख्य किरदार अपनी असमर्थता जताते हुए जब उन्हीं पैसों को उठा कर जेब में डालने लगता है तो चमत्कारिक ढंग से वो दो हज़ार रुपए दस हज़ार में बदल जाते हैं जबकि असलियत में वहाँ पर दो हज़ार रुपए से एक रुपया भो ज़्यादा नहीं होता। दूसरी तरफ ब्लैकमेलर फिर भी दस हज़ार रुपए पर अड़ा रहता है। 

237 पृष्ठीय इस बहुत ही रोचक एवं रोमांचक उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है सूरज पॉकेट बुक्स के ही इंप्रिंट Bookemist ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए। जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

हैशटैग- सुबोध भारतीय

आमतौर पर जब भी किसी कहानी या उपन्यास में मुझे थोड़े अलग विषय के साथ एक उत्सुकता जगाती कहानी, जिसका ट्रीटमेंट भी आम कहानियों से थोड़ा अलग हट कर हो, पढ़ने को मिल जाता है तो समझिए कि मेरा दिन बन जाता है।

दोस्तों..आज मैं धाराप्रवाह लेखन से सुसज्जित एक ऐसे ही कहानी संकलन की बात करने जा रहा हूँ जिसे '#हैशटैग' के नाम से लिखा है सुबोध भारतीय जी ने। 'नीलम जासूस' के नाम से पिता के बरसों पुराने प्रकाशन व्यवसाय को फिर से पुनर्जीवित करने वाले सुबोध भारतीय जी का वैसे तो यह पहला कहानी संकलन है मगर लेखन की परिपक्वता को देख कर ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता कि यह उनका पहला कहानी संकलन है।

इस संकलन की किसी कहानी में
फाइनैंशियल कंपनी में कार्यरत मोनिका की, इन्वेस्टमेंट के उद्देश्य से की गई एक फोन कॉल , आकर्षक व्यक्तित्व के 34 वर्षीय देव के मन में फिर से कुछ उम्मीदें..कुछ आशाएँ.. कुछ उमंगे..कुछ सपने ज़िंदा कर देती है। उस देव के मन में, जिसका दिल, बरसों पहले निशि से शादी ना हो पाने की वजह से टूट चुका था। ऐसे में क्या देव द्वारा देखे गए सपने पूरे होंगे या फिर....?

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में अपने अपने बच्चों के सैटल हो..विदेश में बस जाने के बाद विधुर एवं विधवा के रूप में एकाकी जीवन जी रहे मिस्टर. तनेजा और मिसेज वर्मा आपस में मिल कर, बतौर मित्र एवं हितचिंतक, लिव इन में रहने का फ़ैसला करते हैं। हालांकि आपसी सहमति की इस दोस्ती में सैक्स जैसी चीज़ की कोई गुंजाइश नहीं होती मगर ज़माने भर की नजरें फिर भी उन पर टिक ही जाती हैं। ऐसे में क्या वे दोनों, घर परिवार एवं अड़ोस पड़ोस के तानों से बच कर नार्मल लाइफ जीते हुए अपनी बात..अपने फ़ैसले पर अडिग रह पाएँगे?

इसी संकलन की अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ अय्याश तबियत के उन्मुक्त युवाओं के बीच नशे की बढ़ती लत और अवैध सम्बन्धों के आम होने की बात करती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ गाँव की अल्हड़ किशोरी, उस चम्पा की भी बात करती है जो बतौर घरेलू सहायिका काम करने के लिए अपने गाँव से शहर आयी हुई है। एक हाउस पार्टी के दौरान नशे में धुत मेहमान द्वारा सोती हुई चम्पा की कुछ आपत्तिजनक तस्वीरों को खींच..उन्हें सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया जाता है। नशे..हवस..दिखावे और भेड़चाल से भरे इस समाज में क्या चम्पा फिर कभी सम्मान से जी पाएगी?

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में एक तरफ़ बीमार पत्नी के बड़े अस्पताल में चल रहे महँगे इलाज से तो दूसरी तरफ़ अपने ठप्प पड़े कामधन्धे से मोहित वैसे ही परेशान है। ऊपर से रही सही कसर के रूप में जब उसके, बीमार पिता और छोटे बच्चों वाले, घर में अनचाहे मेहमानों का आगमन होता है तो वह परेशान हो..बौखला उठता है। अब देखना यह है कि ये बिन बुलाए मेहमान उसके गले में आफ़त की पोटली बन कर झूलते हैं अथवा राहत के छींटों के रूप में उसके दुःख.. उसकी तकलीफ़ को कम करने में सहायक सिद्ध होते हैं।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में कम तनख्वाह में बड़ी मुश्किल से घर का खर्चा चला रहे सुखबीर को अपनी माँ का अस्पताल में एक महँगा मगर बेहद ज़रूरी ऑपरेशन करवाना है, जो कि पेट में प्राणघातक रसौली से परेशान है। अब दिक्कत की बात ये कि उसके पास ऑपरेशन के लिए पैसे नहीं और बिना पैसों के ऑपरेशन हो नहीं सकता। ऐसे में सुखबीर के घर में उनकी माँ के एक पुराने परिचित का आगमन होता है जिसे वह नहीं जानता। पुरानी बातों..पुरानी यादों से रूबरू होता हुआ यह आगमन क्या उनके घर में सुख..शांति व समृद्धि का बायस बनेगा अथवा उनकी मुसीबतों को और ज़्यादा बढ़ाने वाला होगा?

एक अन्य कहानी में भीख में रुपए पैसों की जगह सिर्फ़ रोटी माँगती बुढ़िया को देख, भिखारियों को नापसन्द करने वाला, लेखक भी खुद को उसकी मदद करने से रोक नहीं पाता। बुढ़िया के स्नेहिल स्वभाव एवं अनेक अन्य वजहों से समय के साथ वह और उसका परिवार, उससे इस हद तक जुड़ता चला जाता है कि कब वह उनके घर..मोहल्ले में सबकी चहेती, अम्मा बन जाती है..पता ही नहीं चलता। मगर वह बुढ़िया दरअसल है कौन? ..कहाँ से आयी है और किस वजह से उनके घर टिकी हुई है? यह कोई नहीं जानता।

एक अन्य मज़ेदार कहानी में जहाँ हास्य व्यंग्य के माध्यम से घर के खाने से आज़िज़ आए चटोरे लेखक की ज़बानी समय के साथ ढाबों और रेस्टोरेंट्स इत्यादि के बदलते स्वरूप की बात की जाती दिखाई देती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में घर के पालतू कुत्ते के साथ जुड़े, मन को छूने वाले, छोटे छोटे प्रसंगों एवं संस्मरणों के ज़रिए लेखक उस छोटे से जानवर के साथ अपने भावनात्मक रिश्ते एवं जुड़ाव की बातें करता दिखाई देता है। जिन्हें पढ़ कर पढ़ने वाला भी अपनी आँखें नम किए बिना नहीं रह पाता।

इस संकलन की 'क्लाइंट' कहानी जहाँ वास्तविकता के धरातल पर मज़बूती से खड़ी हो..सच्चाई को बयां करती दिखाई दी। तो वहीं दूसरी तरफ़ कुछ अन्य कहानियाँ कुछ ज़्यादा ही पॉज़िटिव एवं फिल्मी अंत लिए हुए लगी। हास्य व्यंग्य से जुड़ी एक रचना में कुछ पुराने हास्य प्रसंग भी नए परिधान पहन..फिर से रौनक बिखेरते दिखाई दिए।

कुछ कहानियों के अंत का भी कहानी पढ़ते पढ़ते पहले से ही अंदाज़ा लग रहा था जबकि बतौर सजग पाठक एवं खुद के भी एक लेखक होने के नाते मेरा मानना है कि कहानियों के अंत अप्रत्याशित एवं चौंकाने वाले होने चाहिए। इस संकलन की कहानियों के कुछ वाक्यों में कुछ जगहों पर शब्द रिपीट होते या फिर ग़लत छपे हुए भी दिखाई दिए। उम्मीद है कि इस किताब के आने वाले संस्करणों में इस तरह की कमियों को दूर कर लिया जाएगा।

हालांकि संग्रहणीय क्वालिटी का यह उम्दा कहानी संकलन मुझे लेखक की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि बढ़िया क्वालिटी में छपे इस रोचक कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है सत्यबोध प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 175/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं उनके प्रकाशन संस्थान को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

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हँसी की एक डोज़- इब्राहीम अल्वी

कई बार कुछ कवि मित्र मुझसे अपनी कविताओं के संग्रह को पढ़ने का आग्रह करते हैं मगर मुझे लगता है कि मुझमें कविता के बिंबों..सही संदर्भों एवं मायनों को समझने की पूरी समझ नहीं है। इसलिए आमतौर पर मैं कविताओं को पढ़ने से बचने का थोड़ा सा प्रयास करता हूँ। हालांकि कई बार मैंने खुद भी कुछ कविताओं जैसा कुछ लिखने का प्रयास भी किया मगर जल्द ही समझ आ गया कि फिलहाल तो कविताएँ रचना या उन पर कुछ लिखना मेरे बस की बात नहीं। ऐसे में अगर कोई मित्र स्नेहवश अपना कविताओं का संकलन मुझे भेंट करता है तो मैं सकुचाहट भरी सोच में डूब जाता हूँ कि उस पर क्या लिखूँ? 

साथ ही खुद के एक हास्य व्यंग्यकार होने के नाते अगर कहीं मुझे हास्य या व्यंग्य से सराबोर रचनाएँ दिखें भले ही वह गद्य या फिर पद्य शैली में हों तो मेरा मन खुद ही उन्हें आत्मसात करने के लिए उतावला हो उठता है। अब ऐसे में जब बड़े प्रेम से मेरे कवि मित्र इब्राहीम अल्वी जी ने अपनी हास्य कविताओं का संकलन 'हास्य की एक डोज़' मुझे प्रेम से भेंट किया तो मैं खुद को इसे यथाशीघ्र पढ़ने से रोक नहीं सका।

आइए..अब बात करते हैं इस मज़ेदार काव्य संकलन की तो इस संकलन की कविताओं में इब्राहीम जी अपनी कविताओं के ज़रिए ऐसी ऐसी  चीज़ों..बातों की कल्पना कर लेते हैं जिनसे हमारा रोज़ का वास्ता होते हुए भी हम उनके बारे में ऐसा कुछ कभी सोच नहीं पाते।

जैसे कि आमतौर पर कहा जाता है कि..

"जहाँ ना पहुँचे रवि..वहाँ पहुँचे कवि।"

अर्थात जहाँ रवि अर्थात सूर्य की रौशनी भी नहीं पहुँच पाती, वहाँ भी कवि अपनी कल्पना की उड़ान के ज़रिए आसानी से पहुँच जाता है। इसी की एक बानगी के रूप में इब्राहीम जी ने पक्षियों..जानवरों इत्यादि  से ले कर रोज़मर्रा की खानपान की चीज़ों एवं सब्ज़ियों जैसे आलू..टमाटर..प्याज़..नींबू..अण्डे..
 मुर्गे तक को नहीं बख्शा।

उनकी किसी कविता में वे ईश्वर से उन्हें इन्सान के बजाय कुत्ता या फिर पक्षी बनाने की प्रार्थना करते दिखाई देते हैं जबकि वे उसे मनुष्य जन्म दे कर कवि बनाना चाहते हैं। उनकी किसी कविता में तनावमुक्त रहने के लिए सुबह शाम हँसी की डोज़ लेने की बात की जाती दिखाई देती है। तो किसी अन्य कविता में वे मज़ेदार ढंग से दिन प्रतिदिन महँगे होते प्याज़ की व्यथा का जिक्र करते नज़र आते हैं।

उनकी किसी अन्य कविता में भैंसे की माँ का दूध याने के भैंस का दूध पीने की वजह से भैंसे और इन्सान में आपस में भाई भाई का संबंध स्थापित किया जा रहा है। तो किसी अन्य कविता में शरीर के बाकी अंगों की पेट के प्रति ईर्ष्या से तंग आ जब वह भूख हड़ताल कर बैठता है। किसी अन्य कविता में गधा इलैक्शन लड़ने की सोच रहा है तो कहीं किसी अन्य कविता में वे बन के बुद्धू..लौट के फिर वापिस घर को आ रहे हैं। किसी कविता में उन रिटायर हो चुके बूढ़ों की व्यथा झलकती है जिनकी अब उनकी अपनी औलादें ही इज़्ज़त नहीं करती। तो किसी अन्य कविता में बुढ़ापे में बत्तीसी निकलवाने के बाद वे बोलना कुछ चाहते हैं मगर अर्थ का अनर्थ करते हुए बोला कुछ और जा रहा है।

एक अन्य कविता में मुँह के अंदर बत्तीस दाँत, जीभ को ताना दे रहे हैं कि उसकी हरकतों की वजह से उन्हें बहुत दिक्कत होती है। तो किसी अन्य कविता में मोटे आदमी की दिक्कतों का मज़ेदार ढंग से वर्णन किया गया है। किसी कविता में बुर्के वाली मोहतरमा के साथ बस में बैठ वे इतरा रहे हैं तो कहीं किसी कविता में वे फेसबुक पर चैटिंग और फिर डेट का प्लान बना रहे हैं। किसी कविता में कागज़ के माध्यम से वे जीवन में डॉक्युमेंट्स की अहमियत बता रहे हैं। तो किसी अन्य कविता में वे रोड एक्सीडेंट में घायल को अस्पताल पहुँचा कर अब खुद पछता रहे हैं कि पुलिस अब उन्हें खामख्वाह में परेशान कर रही है।

उनकी किसी कविता में जहाँ दिन प्रतिदिन महँगी होती दालों पर कटाक्ष किया जाता नज़र आता है। तो वहीं किसी अन्य कविता में एक नवीन प्रयोग के तौर पर पेड़ों के कटने से होने वाले नुकसानों को बताने के लिए वे एक साथ कई बाल कहानियों के संदर्भ भी इस बात से जोड़ते नज़र आते हैं। इसी संकलन की किसी कविता में वे अपनी कविता के ज़रिए भिखारी और नेता में समानता स्थापित करते दिखाई देते हैं। तो किसी अन्य कविता में गाँव के सीधे साधे भोले जीवन और शहर के निष्ठुरता भरे जीवन की बात कर उनमें ज़मीन आसमान के फ़र्क को बताते दिखाई देते हैं। 

उनकी किसी कविता देश में भिखारियों की बढ़ती सँख्या के प्रति चिंता जताई जाती दिखाई देती है। तो किसी अन्य कविता में पत्नी के गुज़र जाने के बाद उसकी याद में तड़पता पति दिखाई देता है। किसी कविता में वे शहर के प्रदूषण भरे जीवन और गाँव के सादे जीवन के बीच का फ़र्क दिखाते नज़र आते हैं तो किसी अन्य कविता में मूँछों की महिमा का वर्णन पढ़ने को मिलता है। किसी कविता में आदमी की एक्सपायरी डेट निकलती दिखाई देती है तो किसी कविता में डॉक्टरों द्वारा लड़की का दिल पहलवान के दिल से बदला जाता दिखाई देता है । किसी अन्य कविता में वे पत्नी और माँ के बीच मंझधार में फँसे दिखाई देते हैं कि पत्नी से पहले प्रेम करें या फिर माँ की सेवा पहले करें।

उनकी किसी कविता में करुणात्मक ढंग से सड़क पर करतब दिखाने वाले  छोटे बच्चों के माध्यम से देश के विकास पर सवाल उठाया जाता नज़र आता है।  तो किसी अन्य कविता में मोबाइल जैसी तकनीक के आ जाने से डाक और चिट्ठियों के लुप्तप्राय होने या उनकी महत्ता के कम होने अथवा खत्म होने की बात उठायी जाती दिखाई देती है। 

इसी संकलन की किसी कविता में देश की अर्थव्यवस्था के कैशलैस होने से नक़द रुपया इस्तेमाल करने के आदि लोगों को इससे ही रही परेशानी की बात की गयी है। तो किसी अन्य कविता में जीभ और आँखों की बात की गयी है कि इनके सही एवं संयमित इस्तेमाल से जहाँ एक तरफ़ बिगड़े काम बन जाते हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ इनके बेलगाम होने से बने हुए काम भी बिगड़ जाते हैं। एक अन्य कविता घर छोड़, परदेस में काम कर पैसा कमाने गए उन लोगों की बात करती है कि वे ना घर के..ना घाट के अर्थात कहीं के नहीं रहते।

इसी संकलन की किसी अन्य कविता में भारत के विभिन्न इलाकों के विभिन्न रहन सहन के तौर-तरीकों और खानपान की भिन्नताओं से ही देश के सौंदर्य..एकता और अखंडता की बात की गई है। तो किसी अन्य कविता में शहर के शोर-शराबे और तौर तरीकों से दूर पुनः वापस गाँव लौट जाने की बात की गई है। एक अन्य कविता शारीरिक क्रियाओं जैसे खांसी और उबासी की बात करती है कि वे किसी खास इलाके..तबके या धर्म की मोहताज नहीं है। 

किसी कविता में शारीरिक कमी के चलते पैदा हुए लोगों अर्थात किन्नरों की व्यथा कही गई है। तो किसी कविता में बढ़ती महंगाई की बात तो किसी कविता में इस बात की तस्दीक की गई है कि बढ़ती उम्र के साथ सबके पेंच ढीले हो जाते हैं। इसी संकलन की किसी अन्य  रचना में गाँवों के शहरीकरण के बाद आए बदलावों की बात की गयी है। किसी रचना में अन्दर की बात कह इब्राहीम जी बहुत सी बातों को छुपाते हुए भी उनके बारे में बहुत कुछ कह गए हैं। 

किसी कविता में नकली डिग्रियों के दम पर लग रही सरकारी नौकरियों पर कटाक्ष किया जाता नज़र आता है। तो किसी शरारती कविता में लिफ़्ट में लिखे वाक्य को अमली जामा पहना इब्राहीम जी बिना ब्याह किए ही छह बच्चों के बाप बनते नज़र आते हैं।

कहने का मतलब ये कि इब्राहीम जी की रचनाओं में जहाँ एक तरफ़ हल्की फुल्की बातों के ज़रिए हास्य उत्पन्न किया जाता नज़र आता दिखाई देता है तो वहीं दूसरी तरफ़ उनकी कई रचनाएँ गहरे कटाक्ष और विसंगतियों को भी अपने में समेटे नज़र आती हैं।

कई बार हम किसी शब्द का दूसरों से ग़लत उच्चारण सुन कर या फिर कई बार किसी खास शब्द को ले कर हमारा खुद का ही उच्चारण सही नहीं होता तो उसे लिखते वक्त हम जस का तस उतार देते हैं। इस स्तर पर भी इस संकलन में कुछ जगहों पर कमी दिखाई दी। दरअसल किसी से बात करने या कहीं कुछ बोलते वक्त तो खैर..इससे काम चल जाता है या चल सकता है। मगर जब बात उसी शब्द को लिखने या उसके कहीं..किसी किताब में छपने की आती है तो उस शब्द का सही तरीके से बिना किसी वर्तनी की अशुद्धि के लिखा या छपा होना निहायत ही ज़रूरी हो जाता है। 

वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी इस संकलन में कई कमियाँ दिखाई दी। उदाहरण के तौर पर पेज नम्बर 14 में लिखा दिखाई दिया कि..

'देखकर तीनों के चेहरे की नमक'

यहाँ 'चेहरे की नमक' के बजाय 'चेहरे का नमक' आएगा।

इस बाद पेज नंबर 19 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'जीभ बोली, मैं तुम्हारा परिचय दुनिया से करती हूँ      
  खट्टे मीठे और तीखे स्वाद चखाती हूँ'

यहाँ 'मैं तुम्हारा परिचय दुनिया से करती हूँ' की जगह 'मैं तुम्हारा परिचय दुनिया से कराती हूँ' आएगा।

पेज नंबर 21 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'जब ये इस तरह करता है ये मेरा चित्र चरित्र हनन'

इस वाक्य में दो बार 'ये' शब्द का इस्तेमाल किया गया जबकि किसी भी 'ये' शब्द को हटाने से ही वाक्य सही बन पाएगा। 

आगे बढ़ने पर पेज नंबर 32 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'मैं कहता हूं सिंगल हूँ, किराया डबल का बता रहा है बड़ी दृढ़ता है'

यहाँ 'बड़ी दृढ़ता' की जगह 'बड़ी धृष्टता' या 'बड़ी ढीठता' आएगा।

इसी पेज पर इसके आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'आपके चढ़ाना उतारना भी तो पड़ता है'

'यहाँ 'आपके' की जगह 'आपको' आएगा।

** 'आदत से मजबूर' कविता में कवि अपनी जेब काटने की आदत से मजबूर है लेकिन इसी कविता की एक पंक्ति इस प्रकार लिखी दिखाई दी कि..

'कोई समय हो दिन या रात, सुबह या शाम
 फर्क नहीं कुछ, बूढ़ा हो या जवान, हत्या से काम'
 
यहाँ 'हत्या से काम' का तात्पर्य समझ में नहीं आया कि जेब काटते काटते कवि..हत्या जैसे गंभीर अपराध की तरफ़ कैसे मुड़ गया?

यूँ तो यह मज़ेदार किताब मुझे लेखक द्वारा उपहारस्वरूप मिली मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके 116 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है शब्दांकुर प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए। जो कि मुझे थोड़ा ज़्यादा लगा। 

प्रेम नाम है मेरा- प्रेम चोपड़ा -रकिता नंदा

"प्रेम नाम है मेरा..प्रेम चोपड़ा।"

इस संवाद के ज़हन में आते ही जिस अभिनेता का नाम हमारे दिलोदिमाग में आता है..वह एक घने बालों वाला..हीरो माफ़िक सुन्दर कदकाठी लिए हुए व्यक्ति का चेहरा होता है। उसके शांत..सौम्य चेहरे को देख कतई नहीं लगता कि इस व्यक्ति की दमदार नकारात्मक स्क्रीन प्रेसेंस के बल पर एक समय लड़कियाँ/ महिलाएँ छिप जाया करती थी..सामने आने से डरती थी। जी..हाँ दोस्तों...सही पहचाना आपने। मैं प्रसिद्ध खलनायक प्रेम चोपड़ा और उनकी आत्मकथा "प्रेम नाम है मेरा- प्रेम चोपड़ा" की बात कर रहा हूँ। 

एक ऐसा अभिनेता जो आया तो इस मायानगरी में हीरो बनने के लिए मगर किस्मत की मार देखिए कि शुरुआती कुछ फिल्मों में हीरो बनने के बाद वह पूरी ज़िन्दगी हीरो के बजाय खलनायक/ चरित्र अभिनेता बन कर रह गया। मगर यहाँ क़ाबिल ए गौर बात ये कि जहाँ एक तरफ हमारे यहाँ फिल्मी दुनिया में हीरो की लाइफ़ दस या बारह साल से ज़्यादा नहीं होती , वहीं प्रेम चोपड़ा जी अपने हुनर..अपनी काबिलियत के बल पर फिल्मी दुनिया में पिछले पचास सालों से भी ज़्यादा समय से सक्रिय रह.. राज कर रहे हैं। 

रोल इन्हें बेशक़ बड़ा-छोटा या फिर इन्हें कॉमेडी करने को मिले.. उससे इन्हें फर्क नहीं पड़ता और ये चुपचाप कोई ना कोई ऐसी पंच लाइन बोल कर निकल जाते हैं कि वो पंच लाइन..वो वाक्य हमेशा के लिए इनकी पहचान बन जाता है। 

इस किताब में इन्होंने किस्सागोई शैली में अपनी आत्मकथा बयान की है जिसे कलमबद्ध करने का श्रेय उनकी बेटी रकिता नंदा को जाता है। इस आत्मकथा में इनके संघर्ष और इनकी कामयाबी के दिनों का रोचक वर्णन है कि किस तरह एक बड़े अखबार में मार्कटिंग की नौकरी, जिसमें इन्हें महीने में कम से कम 20 दिन बम्बई(मुंबई) से बाहर रहना पड़ता था, करने के साथ साथ ये फिल्मों में एक्टिंग एवं रोल पाने के लिए संघर्ष किया करते थे।

इस उपन्यास में किस्सा है उस बड़े हीरो और इनका कि किस तरह ये दोनों, दो जवान लड़कियों को फ़िल्म देखने के दौरान बीच में ही छोड़ कर इसलिए भाग गए थे कि दोनों की जेबें उस वक्त खाली थी और उन्हें रात को उन दोनों लड़कियों को डिनर कराना पड़ता। 

इसमें बातें हैं उस बड़ी हिरोइन की जिसने अपनी फ़िल्म में थप्पड़ का सीन ना होने के बावजूद भी ज़बरदस्ती उस सीन को जानबूझ कर रखवाया कि उन्हें प्रेम चोपड़ा से इस बात का बदला लेना है जब बार बार प्रयत्न करने के बाद भी वह बलात्कार के एक सीन में निर्देशक के मनवांछित एक्सप्रेशन नहीं ला पा रही थी और मनवांछित भावों को पाने के लिए प्रेम चोपड़ा ने उसका हाथ कुछ ज़्यादा मरोड़ दिया था।

और भी कई रोचक किस्सों से भरपूर इस किताब में बातें हैं प्रेम चोपड़ा के साथी कलाकारों, नायकों, नायिकाओं के साथ उनके आत्मीय संबंधों का जिक्र है। इसमें जिक्र है कि किस तरह मनोज कुमार ने पहले शहीद और फिर उपकार में उन्हें लाइफ़ चेंजिंग रोल दे कर उनकी किस्मत पलट दी। साथ ही यह भी कि वह पहले अभिनेता हैं जिन्होंने कपूर खानदान की सभी पीढ़ियों के साथ किसी ना किसी रूप में काम किया है। 

इसमें अधिक फिल्में एक साथ करने की वजह से उन पर लगे बैन के साथ साथ इस बात का भी जिक्र है कि किस तरह उनकी फिल्में देखते हुए उनकी फ़िल्मी छवि से पहले पहल उनके बच्चे इस हद तक डरे..सहमे एवं हैरान परेशान रहते थे कि उन्हें सच्चाई से रूबरू करवाने के लिए काफ़ी प्रयास करने पड़ते थे। अमिताभ बच्चन और प्रेम चोपड़ा जब भी लोगों के बीच एक दूसरे की तारीफ़ करते थे तो एक दूसरे के अभिनय को 'आउटस्टैंडिंग' कहते थे जो दरअसल 'रबिश' शब्द के लिए लिए उनका कोर्ड वर्ड था।

बहुत ही रोचक अंदाज़ में लिखी गयी इस किताब में कुछ तकनीकी खामियां भी मुझे दिखाई दी मसलन...

• धर्मेंद्र के साथ प्रेम चोपड़ा की फिल्मों में 'अंधा कानून' फ़िल्म का नाम दिया गया है जो ग़लत है।

• पेज नम्बर 100 में 'देशप्रेमी' फ़िल्म को देशप्रेम लिख दिया गया है।

• किताब में एक जगह दिया गया है कि प्रेम चोपड़ा बालों की हेयर क्रीम जिसका नाम ब्रिल (ब्रायल)क्रीम था की ऐड करते थे जबकि असल में उन्होंने वेसलीन हेयर क्रीम की ऐड की थी।

इनके अलावा एक कमी और दिखाई दी कि इस किताब में जब प्रेम चोपड़ा किसी एक्टर के बारे में बता रहें हैं तो उसके साथ ही तारतम्य को तोड़ते हुए उस एक्टर की प्रेम चोपड़ा के बारे में राय एक छोटे बोल्ड हैडिंग के साथ शुरू हो जाती है। अच्छा यही होता कि सभी लोगों की प्रेम चोपड़ा के प्रति राय, आखिर में एक ही साथ अलग अलग हैडिंग के साथ दी जाती। कुछ जगहों पर छोटी मोटी प्रूफ की ग़लतियों को अगर नज़रंदाज़ करें तो यह आत्मकथा रोचक एवं पठनीय है। 

232 पृष्ठीय इस उम्दा किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है यश पब्लिकेशंस ने और इसका मूल्य रखा गया है 299/- रुपए। मूलतः अंग्रेज़ी में लिखी गयी इस आत्मकथा का हिंदी अनुवाद किया है श्रुति अग्रवाल ने। लेखिका, अनुवादक एवं प्रकाशक को आने वाले सुखद भविष्य के लिए अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

इसलिए हम हँसते हैं- गुरमीत बेदी

व्यंग्य के क्षेत्र में गुरमीत बेदी जी का नाम काफ़ी जाना पहचाना है लेकिन इसे संयोग कहिए या फिर मेरा आलस कि उनका लिखा पहले कभी मैं पढ़ नहीं पाया। इस बार के पुस्तक मेले में भावना प्रकाशन के स्टॉल पर जब मेरी नज़र उनकी लिखी किताबों पर पड़ी तो बरबस ही उनके शीर्षकों ने पहली नज़र में ही मेरा ध्यान आकर्षित  किया लेकिन चूंकि उस दिन मैं और अन्य लेखकों की किताबें लेने का मन पहले से ही बना चुका था इसलिए उस वक्त तो बात आयी गयी वाली हो गयी।

उसके एक दिन बाद जब मैं पुनः भावना प्रकाशन के स्टॉल पर अपने मतलब की किताबें देख रहा था तभी  नीरज जी ने कहा कि..."एक मिनट रुको, गुरमीत बेदी जी आ रहे हैं। मैं उनसे तुम्हारी मुलाकात करवाता हूँ।" 

वाह!... क्या ग़ज़ब की शख़्सियत के मालिक हैं गुरमीत बेदी जी, उनके मिलनसार व्यवहार और सम्मोहित कर देने वाले पर्सनैलिटी ने कुछ मिनट की ही मुलाकात में मुझे उनका फैन बना दिया। 

अब बात करते हैं उनकी लिखी किताब "इसलिए हम हँसते हैं" की। पुस्तक मेले में मैंने उनकी लिखी तीन किताबें खरीदी और अब समय मिलने पर उनमें से इसे सबसे पहले पढ़ना शुरू किया। मुझे उम्मीद थी कि शीर्षकानुसार इसमें कुछ हास्य कहानियाँ होंगी लेकिन  किताब खोलने पर मैंने पाया कि इसमें तो सिर्फ व्यंग्य हैं और एक व्यंग्य के शीर्षक का नाम ही...'इसलिए हम हँसते हैं' है। अब चूंकि मेरा लेखन क्षेत्र भी हास्य-व्यंग्य ही है तो मुझे कुछ कुछ सोने पे सुहागे वाली टाइप की फीलिंग मन में आई कि चलो!..कहानियाँ ना सही, कुछ अच्छे व्यंग्य तो पढ़ने को मिलेंगे। 

किसी भी छोटी से छोटी घटना या विषय को लेकर उस पर सरल शब्दों में बिना किसी लाग लपेट के कैसे अच्छा व्यंग्य लिखा जा सकता है, ये उनकी इस किताब को पढ़ कर आसानी से जाना जा सकता है। सच कहूँ तो शुरू के दो चार व्यंग्यों को पढ़ने पर मुझे उनकी लेखनी में कुछ ज़्यादा दम या खास सी दिखने वाली कोई बात नहीं लगी। एकदम सरल शैली में..सरल ढंग से कही गयी.. सरल सी ही बातें बस...लेकिन ज्यूँ ज्यूँ मैं आगे बढ़ता गया त्युं त्युं उनकी इसी शैली का मैं मुरीद होता चला गया। पढ़ते वक्त हर व्यंग्य के साथ मुझे हैरानी होने लगी कि कैसे इतनी आसानी से वो एक सीधी साधी ख़बर को टीवी, रेडियो, अख़बार, पत्रिका से अथवा अपने आसपास घट रही घटनाओं से लिंक कर उस पर अपनी मौलिक शैली का एक व्यंग्य तुरत फुरत रच डालते हैं। 

पता नहीं ऐसा वे जानबूझ कर करते हैं या फिर कुदरती तौर पर उन्हें गॉड गिफ्ट प्राप्त है कि अचानक ही बिना किसी एक्स्ट्रा प्रयास..मेहनत अथवा कारीगिरी के उनके व्यंग्य में बहुत सी अन्य व्यंग्यात्मक बातें खुदबखुद जुड़ कर...उसमें समाहित होते हुए रचना में चार चाँद लगाने से नहीं चूकती हैं। सरकारी/ गैर सरकारी हर तरह की छोटी-बड़ी खबर पर मुझे उनकी पैनी एवं जागरूक दृष्टि ने बहुत प्रभावित किया। बेबाक अंदाज़ में लिखे गए उनके व्यंग्य बीच बीच में बरबस ही आपकी बांछों को खिला आपको खुल कर मुस्कुराने पर मजबूर कर देते हैं।

बात बात में किसी बात से कैसी नयी एवं प्रभावी बात निकाली जा सकती है, ये उनके व्यंग्यों को पढ़ कर जाना एवं सीखा जा सकता है। सीधी सरल भाषा में लिखने के बावजूद अपने व्यंग्यों में वे निर्ममता से काम लेते हैं और नेता-अभिनेता, अफसर,अभियंता, बड़ा- छोटा, चोर-सिपाही किसी को नहीं बख्शते हैं। उनके व्यंग्यों के ज़रिए आप आत्मा-परमात्मा, ऑन दा रेकॉर्ड, ऑफ दा रेकॉर्ड , पक्ष-विपक्ष, तंत्र-जुगाड़तंत्र , चापलूस-निंदक, टोटके, सैटिंग, अपन- वीरप्पन आदि सबको जान सकते हैं।

यहाँ तक कि उनके व्यंग्यों की चपेट में आने से बंदर, गधे, कुत्ते और वो स्वयं भी अपने परिवार समेत बच नहीं पाए हैं। मेरा मानना है कि जो व्यक्ति खुद अपना मज़ाक उड़ा सकता है, वही सही ढंग से दूसरों को हँसा सकता है। पूरी किताब में मुझे बस एक कमी लगी कि जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग नहीं किया गया जो कि थोड़ा अखरता है।

135 पृष्ठीय इस व्यंग्य संग्रह के प्रथम हार्ड बाउंड संस्करण को नीरज बुक सेंटर(भावना प्रकाशन), दिल्ली ने 2012 में छापा है और इसका मूल्य मात्र ₹150/- रखा है जो कि किताब की क्वालिटी और कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। लेखक एवं प्रकाशक को आने वाले भविष्य के लिए अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

***राजीव तनेजा***

सुबह ऐसे आती है - अंजू शर्मा

किसी कवयित्री को कहानीकार के रूप में सफलतापूर्वक परिवर्तित हो किस्सागोई करते  देखना अपने आप में एक अलग एवं सुखद अनुभव से आपको रूबरू करवाता है। वर्तमान साहित्य जगत में अंजू शर्मा जी का नाम उनकी कविताओं के ज़रिए पहले से ही किसी पहचान या परिचय का मोहताज नहीं है। पहले उनकी अलग कलेवर से संचित कविताएं मन मोहने के साथ अलग ढंग से सोचने पर मजबूर भी करती थी और अब..अब तो साहित्य की अन्य विधाओं जैसे कहानी एवं उपन्यास के क्षेत्र में भी उनका महत्त्वपूर्ण दखल रहने लगा है।

भावनाओं से लबरेज़ उनकी कहानियाँ बिना किसी झिझक, दुविधा  अथवा परेशानी के पाठकों को अपने साथ लंबी सैर पर चलने के लिए तुरंत राज़ी कर लेती हैं। किसी भी कहानी के साथ, उसे किस तरह का ट्रीटमेंट मिलना चाहिए, ये वह भलीभांति जानती हैं। जहाँ एक तरफ उनकी कहानी की धाराप्रवाह लेखनशैली पाठकों को अपने साथ अपनी ही धुन में बहाए ले चलती है, वहीं दूसरी तरफ उनकी कहानी को कहने की भाषा कहानी के किरदारों, माहौल, स्तिथि परिस्थिति एवं परिवेश के हिसाब से अपने आप स्थानीय एवं भाषायी कलेवर अपना बदलती रहती है जिससे कहानी को और अधिक विश्वसनीय होने में तार्किक ढंग से मदद मिलती है।
 
उनके पास विषयों तथा विषयानुसार बर्ताव करने वाले किरदारों की कमी नहीं है। जितनी आसानी से वो अपनी कहानी को फ्लैशबैक में ले जाती हैं, उतनी ही सहजता से वे उससे बाहर भी आ जाती हैं। अभी फ़िलहाल में मुझे उनका दूसरा कहानी संग्रह "सुबह ऐसे आती है" पढ़ने का मौका मिला। इस संकलन की कहानियों में से कुछ को मैं पहले भी पढ़ चुका हूँ। इस संकलन की कहानियों में  जहाँ एक तरफ तीन तलाक और हलाला जैसी कुरीतियों का प्रभावी रूप से जिक्र है तो दूसरी तरफ कैरियर की अंधी दौड़ में टूटते परिवारों की भी दिक्कतें एवं परेशानियां हैं। किसी कहानी में अपनी मंज़िल तक ना पहुँच पाने पर अवसाद ग्रसित हो आपसी रिश्ता जुड़ने से पहले ही टूटने की कगार पर है तो किसी कहानी में कश्मीर के विस्थापितों के दुख दर्द को समेटते हुए उनके फिर से उबरने का जिक्र है। 

किसी कहानी में पुरुषात्मक सत्ता के कट्टरपंथ से विरोध जता महिलाओं के आगे बढ़..उभरने की कहानी है। तो किसी कहानी में पुराने दकियानूसी अंधविश्वासी विचारों पर भी प्रभावी ढंग से चोट की गयी है। किसी कहानी में सम्मानपूर्वक ढंग से विधवाओं के उत्थान की कहानी है तो किसी कहानी में नॉस्टेल्जिया से गुज़रते हुए गांव, घर, कस्बों से जुड़े रिश्तों के टूटने और फिर जुड़ने की कहानी का प्रभावी ढंग से ताना बाना बुना गया है। 

इस संकलन को पढ़ते हुए हमारा सामना कहीं ईश्वर के प्रति आस्था- अनास्था से गुज़रती हुई कहानी से होता है तो किसी कहानी में वर्जित फल को चखने के तमाम प्रलोभनों से दृढ़ निश्चयी स्त्री के बच निकलने की कथा को विस्तार दिया गया है। किसी कहानी में हम जेल जा चुके व्यक्ति के सज़ा काट..जेल से छूटने पर उसके परिवार द्वारा उसे ही भुला दिए जाने की मार्मिक घटना से रूबरू होते हैं तो किसी कहानी में अनैतिक रिश्तों के  भंवर में डूबे व्यक्ति के ठोकर खा.. वापिस घर लौटने को लेकर तमाम प्लाट रचा गया है। एक तरह से हम कह सकते हैं कि इस पूरे कहानी संकलन में एक आध कहानी को छोड़ कर हर कहानी अवसाद से उबर कर हम में एक तरह से ऊर्जा एवं साकारात्मकता का संचार करती है। 

अंत में एक पाठक की हैसियत से कुछ सुझाव कि मुझे इस किताब को पढ़ते वक्त कुछ जगहों पर शब्दों के रिपीट होने की ग़लती दिखाई दी और पूरी किताब में जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना के बराबर दिखाई दिया। 

आने वाले संस्करण/पुनर्मुद्रण तथा आने वाली नई किताबों में इस तरह की छोटी छोटी कमियों को आसानी से दूर किया जा सकता है।

उम्दा क्वालिटी के इस 135 पृष्ठीय कहानी संकलन को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसके पेपरबैक संस्करण का मूल्य ₹195/- रखा गया है जो कि किताब की क्वालिटी और कंटैंट को देखते हुए ज़्यादा नहीं है। लेखिका तथा प्रकाशक को इस संग्रहणीय किताब के लिए बहुत बहुत बधाई तथा आने वाले भविष्य के लिए अनेकों अनेक शुभकानाएं। 

***राजीव तनेजा***

भली लड़कियाँ बुरी लड़कियाँ - अनु सिंह चौधरी

कहते हैं कि दुनिया गोल है और संयोगों से भरी इस अजब ग़ज़ब दुनिया में अगर एक तरफ़ भले लोग हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ बुरे भी कम नहीं हैं। मगर सवाल ये उठता है कि जो अच्छा है..क्या वो सभी के लिए अच्छा है या मात्र अपने अच्छे होने का ढोंग कर रहा है? या अगर कोई बुरा है क्या वो सभी की नज़रों में बुरा है?

खैर..अच्छे बुरे की बात करने से पहले कुछ बातें संयोगों को ले कर कि क्या सचमुच में ऐसा संयोग हो सकता है कि किसी कहानी या उपन्यास के रचियता से आपका दूर दूर तक कहीं किसी किस्म का कोई नाता ना हो लेकिन बिना आपके बारे में एक भी शब्द जाने, आपके रोज़मर्रा के जीवन से जुड़ी बातें बिना किसी लागलपेट में उसकी कहानी में ज्यों की त्यों मौजूद हों मसलन आपका कॉलेज..आपकी कार्यस्थली..आपका प्रोफेशन और यहाँ तक कि आपका सरनेम भी कहानी के किसी पात्र से हूबहू मिलता हो?

दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ अनु सिंह चौधरी के बहुचर्चित उपन्यास 'भली लड़कियाँ बुरी लड़कियाँ' की। जिसे उपन्यास से पहले नाटक के रूप में लिखा गया और नाटक से पहले वेबसीरीज़ के रूप में उसी कहानी ने अपना जलवा दिखाया। कमोबेश मूल कहानी और पात्रों के नाम तीनों कहानियों में एक जैसे ही थे लेकिन हर बार कहानी का ट्रीटमेंट तथा बीच की कहानी कई मायनों में पहले से अलग रही।

इस उपन्यास में कहानी है दिल्ली के आउटरम लाइन्स इलाके के एक पीजी में रहने वाली उन चार अजनबी लड़कियों की जो वक्त के साथ सहेलियाँ बन एक दूसरे के सुख दुख में साथ खड़ी रहने को प्रतिबद्ध नज़र आती हैं। इनमें से किसी के साथ कुछ ऐसा अनहोना..अप्रत्याशित घटता है कि उसके प्रतिवाद स्वरूप ये चारों लड़कियाँ एक ऐसा कदम उठाने को बाध्य हो उठती हैं कि अचानक से रातों रात सेंसेशन बन.. टीवी चैनल्स और सोशल मीडिया की सुर्खियाँ बन जाती हैं। 

इसमें जहाँ एक तरफ गन्दगी और कूड़े के ढेरों के बीच बजबजाते हुए माहौल में पनपती अनाधिकृत कॉलोनियां हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ दिल्ली के पॉश इलाके भी अपनी पूरी शानोशौकत के साथ खड़े नज़र आते हैं। 

इसमें कहानी है दूरदराज से देश की राजधानी दिल्ली में पढ़ने या फिर कैरियर बनाने की मंशा से आए लड़के और लड़कियों के दड़बेनुमा हॉस्टलों और पीजी में रहने की मजबूरियों की। इसमें बातें हैं खोखले धरातल पर आशाओं के बलवती होने और धड़ाम से गिर कर टूटते सपनों और बिखरते अरमानों की। 

इसमें बातें हैं आज़ादी और स्वछंदता के मिलेजुले स्वरूप की। इसमें बातें हैं छात्र राजनीति और वाद विवाद प्रतियोगिताओं में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने वालों और उनसे दूर रहने वालों की।इसमें बातें हैं रंगभेद और नस्लीय टिप्पणियों से उपजी हताशा और अवसाद की। 

इसमें बातें हैं स्वछंद और संतुलित व्यवहार की बीच बनते आपसी सामंजस्य एवं बॉन्डिंग की। इसमें बात है नारी की इच्छा और स्वाभिमान की। इसमें बात है धोखे एवं विश्वासघात की। इसमें कहानी है छल..फरेब..प्रपंच और धोखे से बरगलाने..फुसलाने की। 

तथ्यात्मक दृष्टि से अगर देखें तो इस उपन्यास में एक खामी दिखी कि एक जगह उपन्यास में लिखा है कि पीजी में रहने के लिए आए बच्चों से पुलिस वैरिफिकेशन के नाम पर बारह सौ रुपए अलग से लिए जाते हैं। खुद मेरा भी उसी इलाके और इसी काम से वास्ता होने के कारण मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि यह सरासर ग़लत है। इस काम को पीजी ओनर द्वारा फ्री में किया जाता है। उम्मीद है कि अगले संस्करण में इस ग़लती को सही कर लिया जाएगा। 

176 पृष्ठीय इस उम्दा उपन्यास को छापा है हिन्द युग्म और eka ने और इसके पेपरबैक संस्करण का मूल्य रखा गया है 175/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका और प्रकाशक द्वय को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

जगीरा- सुभाष वर्मा

ज्यों ज्यों तकनीक के विकास के साथ सब कुछ ऑनलाइन और मशीनी होता जा रहा है। त्यों त्यों इज़ी मनी चाहने वालों की भी पौबारह होती जा रही है। ना सामने आ..किसी की आँख में धूल झोंक, सब कुछ लूट ले जाने की ज़रूरत। दूर बैठे ही बस जिसका तिया पांचा करना हो..किसी तरह का लालच दे, उससे ओ.टी.पी हासिल करो और बस बिना अपना दीदार कराए झट से उसकी खुली आँखों से काजल चुरा लो। 

लेकिन ऐसा नहीं है कि सब कुछ तकनीक के आ जाने से ही संभव हुआ। इससे पहले भी 'नटवरलाल' और
'चार्ल्स सोभराज' जैसे तुर्रमखां ठग हुए जिन्होंने अपनी जालसाज़ी भरी हरकतों से देश दुनिया की अनेक सरकारों की नाक में दम कर डाला था। ठगी का इतिहास तो खैर..उससे भी बहुत पुराना है। कभी ऐय्यारों के ज़रिए तो कभी ख़ूबसूरत हसीनाओं की दिलकश अदाओं के माध्यम से अपने मकसद को इन ठगों द्वारा कामयाब किया गया। इस तरह की सभी ठगी की वारदातों में एक ख़ास बात होती थी कि ये ठग लाइमलाइट में आने और खून खराबे से बचने का अपनी तरफ़ से हरसंभव प्रयास करते थे लेकिन एक समय ऐसा भी था जब अपनी पहचान को उजागर होने से बचाने के लिए ठग बेरहमी से उन सभी का कत्ल कर उनकी लाशें छुपा दिया करते थे जिनकी शिनाख़्त से उन्हें पहचाने जाने या पकड़े जाने का डर होता था। 

दोस्तों..आज मैं एक ऐसे ही दुर्दान्त ठग 'जगीरा' और उसके गिरोह की कहानी ले कर आपके सामने आया हूँ जिसे अपने शब्दों में ढाल लेखक सुभाष वर्मा ने ठगमानुष श्रंखला का पहला उपन्यास 'जगीरा' रचा है। 

इस उपन्यास में एक काल्पनिक कहानी है अंग्रेज़ी राज के समय के एक तेज़तर्रार..दुर्दान्त और बेरहम मगर महिलाओं की इज़्ज़त करने वाले ठग जगीरा की। इसमें बातें हैं उस जगीरा की, जिसे अपने काम में ज़रा भी चूक गवारा नहीं। लूट के मामले में वह अपने गिरोह के साथ मिल कर राह चलते व्यापारियों से ले कर पुलिस वालों तक को नहीं बख्शता और लूट के बाद हर शिनाख्त..हर सबूत को जड़ से मिटा दिया करता है। 

बाकायदा शुभ मुहूर्त देख कर ठगी के लिए निकलने वाले उसके बहरूपिए खानाबदोश गिरोह के कारनामों से तंग आ उन्हें पकड़ने के लिए एक तरफ़ अंग्रेज़ सरकार उनके पीछे पड़ी है और दूसरी तरफ़ कुछ स्थानीय अय्याश शासक उनसे अपना हिस्सा से उन्हें अपने राज्य में लूट और ठगी की खुली वारदातें भी करने देते हैं। 

स्वतंत्रता आंदोलन के समांतर चलती इस तेज़ रफ़्तार रोचक कहानी में एक तरफ़ अंग्रेज़ सरकार पूरी बेरहमी से देश की आज़ादी के लिए चल रहे जन आंदोलन को कुचलने में जुटी नज़र आती है तो वहीं दूसरी तरफ़ जगीरा के आतंक से त्रस्त छोटे बड़े व्यापारियों एवं धन्ना सेठों को बचाने के लिए भी उसकी कवायद..मुहिम और धरपकड़ निरंतर जारी है। जगीरा की लूट और बेरहमी का आतंक इतना ज़्यादा.. ग़हरा और व्यापक है कि हर छोटे बड़े व्यापारी को अपने जान माल की सुरक्षा के प्रयास निजी स्तर पर भी अलग से प्रयास करने पड़ रहे हैं। 

इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ जगीरा के विश्वस्त साथी उसके लिए हमेशा जान देने को तैयार नज़र आते हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ उसी के गिरोह में कोई ऐसा घर का भेदी भी है जो हर समय उसकी जड़ काटने को घात लगाए बैठा है। रहस्य..रोमांच और उत्तेजना से भरे इस उपन्यास में हरदम चौकन्ने रहने वाले जगीरा से भी कुछ ऐसी चूक हो जाती है कि तमाम तरह की सतर्कता एवं सावधानियों के बावजूद भी वह एक दिन खुद को साजिशन..जेल की सलाखों के पीछे अपनी मौत के इंतज़ार में खड़ा पाता है। 

निष्ठा..विश्वासघात.. साजिश..प्रेम..बिछोह जैसी भावनाओं से लैस इस उपन्यास में अंत तक पहुँचते पहुँचते जगीरा अपनी मौत मौत के चंगुल से किसी तरह बच तो जाता है मगर...

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस रोचक उपन्यास में प्रूफ़ रीडिंग के स्तर पर मुझे कुछ खामियां नज़र आयी जैसे कि..

पेज नंबर 20 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'गेहूं की कटाई के बाद कुछ खेत खाली थे तो कुछ सोने की तरह चमक थे।'

यहाँ 'सोने की चमक थे' की जगह 'सोने की तरह चमक रहे थे' आएगा। 

इसी तरह पेज नंबर 29 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'जगीरा एक हाथ में घोड़े की लगाम और दूसरे हाथ में तलवार की मूठ पकड़ कर किसी चिंतित राजा की तरह, जो किसी महत्वपूर्ण फैसले के बारे में विचाराधीन हो, लग रहा था।'

इस वाक्य में 'विचाराधीन' शब्द सही नहीं है। विचाराधीन का अर्थ होता है 'किसी मामले पर अभी विचार किया जाना है।' जबकि यहाँ विचार किया जा रहा है। इसलिए यहाँ 'विचाराधीन' की जगह 'विचारमग्न' आएगा। 

पेज नंबर 59 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'हाँ!..एक बहादुर और विश्वसनीय ढंग से मिलकर मुझे खुशी होगी।'

यहाँ 'विश्वसनीय ढंग से मिल कर मुझे खुशी होगी' की जगह 'विश्वसनीय ठग से मिल कर मुझे खुशी होगी' आएगा।

पेज नंबर 64 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'भवन के आगे कुछ लाल सिपाही खड़े थे'

वाक्य के इस अंश का कोई मतलब नहीं निकल रहा। या तो 'लाल' शब्द को आना ही नहीं चाहिए था या फिर 'लाल' की जगह 'लाल वर्दी में' आना चाहिए था। 

इसी पैराग्राफ में और आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'वहीं कुछ साफ-सुथरे कपड़े पहने भारतीय एक अन्य रास्तों से अंदर जाते थे।'

अगर अन्य रास्ता सिर्फ़ एक था तो 'रास्तों' शब्द की जगह 'रास्ते' आना चाहिए था।

इससे अगले पेज याने के पेज नंबर 65 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'साहित्य भवन से किसी को बाहर आते-जाते ना देख मंगल श्री वापस चलने वाला ही था'

यहाँ मंगल के बाद 'श्री' शब्द की जगह 'भी' शब्द आना चाहिए था।

' साहित्य भवन से किसी को बाहर आते-जाते ना देख मंगल भी वापस चलने ही वाला था'

पेज नंबर 78 के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..

'कुछ इंतजार के बाद उसने जादूगर के सिपाहियों ने चिल्लाते हुए कहा,'

यहाँ 'जादूगर के सिपाहियों ने चिल्लाते हुए कहा' की जगह 'जादूगर के सिपाहियों से चिल्लाते हुए कहा' आएगा।

पेज नंबर 124 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"साकेत अली के तरफ़दारों में उन्हें घिनौनी मौत दी।"

यहाँ 'तरफ़दारों में उन्हें' की जगह 'तरफ़दारों ने उन्हें' आएगा।

*निसहाय- निःसहाय
*पुस्तैनी- पुश्तैनी
*मुठ- मूठ(तलवार की)
*शीलन- सीलन
*नियत- नीयत
*मोह-पास- मोहपाश
*गधों के हुंकने- गधों के हूंकने
*पनवारी- पनवाड़ी
*रिहायसी- रिहायशी
*संघठन- संगठन
*तैस- तैश
*गिड़गिड़या- गिड़गिड़ाया 

साथ ही उपन्यास में सूर्योदय और सूर्यास्त का लगभग एक पैराग्राफ़ जितना वर्णन बार बार पढ़ने से थोड़ी एकरसता का भान हुआ। जिससे बचा जाना चाहिए। साथ ही जादू के खेल के दौरान मतिभ्रम द्वारा जादूगर के खुद को एक ही समय पर कहीं और दिखाए जाने का दृश्य मुझे धूम-3 फ़िल्म से प्रेरित लगा। जादू के दृश्य में कुछ नयापन होता तो और ज़्यादा बेहतर लगता। 

हालांकि यह रोचक उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर फिर भी अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि बढ़िया क्वालिटी में छपे इस 163 पृष्ठीय मज़ेदार उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है RED GRAB BOOKS ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

मेरी चुनिंदा लघुकथाएं - मधुदीप गुप्ता

आमतौर पर अपने भावों को अभिव्यक्त करने के लिए हम सब एक दूसरे से बोल..बतिया कर अपने मन का बोझ हल्का कर लिया करते हैं। मगर जब अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करने और उन्हें अधिक से अधिक लोगों तक संप्रेषित करने का मंतव्य किसी लेखक अथवा कवि का होता है तो वह उन्हें दस्तावेजी सबूत के तौर पर  लिखने के लिए गद्य या फिर पद्य शैली को अपनाता है। 

आज बाकी सब बातों से इतर, बात सिर्फ गद्य शैली की एक तेज़ी से उभरती हुई विधा, लघुकथा की। लघुकथा तात्कालिक प्रतिक्रिया के चलते किसी क्षण-विशेष में उपजे भाव, घटना अथवा विचार की नपे तुले शब्दों में की गयी एक ऐसी अभिव्यक्ति है जिसमें आपके मन मस्तिष्क को झंझोड़ने की काबिलियत एवं माद्दा हो। लघुकथा याने के एक ऐसी छोटी कथा जिसे आसानी से एक..डेढ़ पेज या फिर इस से भी कम जगह में आसानी से पूरा किया जा सके।

दोस्तों..आज लघुकथा से संबंधित बातें इसलिए कि आज मैं प्रसिद्ध लेखक मधुदीप गुप्ता जी की लघुकथा संग्रह 'मेरी चुनिंदा लघुकथाएँ' की बात करने जा रहा हूँ। साहित्य को पचास वर्ष देने के बाद हाल ही में उनका देहांत हुआ है। 

सरल एवं धाराप्रवाह शैली में लिखी गयी उनकी रचनाओं में कहीं नारी सशक्तिकरण की बात मज़बूती से होती दिखाई देती है तो कहीं लव ज़िहाज़ का मुद्दा सर उठाता दिखाई देता है। कहीं लिव इन..मी टू में बदलता दिखाई देता है तो कहीं विदेश में बस चुके बच्चों के बूढ़े हो चुके माँ बाप, उनके वियोग में तड़पते दिखाई देते हैं।

इस संकलन की रचनाओं में कहीं मज़बूरिवश कोई अपने मन की इच्छाओं को मारता दिखाई देता है तो कहीं किसी अन्य लघुकथा में छोटे बड़े नेताओं के शातिरपने और झूठे वादों की पोल खुलती दिखाई देती है। इस संकलन की रचनाओं में कहीं कर्तव्यपरायण डॉक्टर दिखाई देता है तो कहीं लूट की मंडी बन चुके प्राइवेट अस्पताल भी दिखाई देते हैं। कहीं किसी रचना में स्वार्थी भाई हद से भी ज़्यादा नीचे गिरते दिखाई देते हैं तो कहीं किसी रचना में रक्तदान की महत्ता का वर्णन पढ़ने को मिलता है।

 कहीं किसी रचना में पैसा दे वोट खरीदने की बात नज़र आती है तो कहीं किसी अन्य रचना में गरीबों के घर..खेत सब के सब बैंक नीलाम करते नज़र आते हैं तो कहीं कोई धूर्त बैंकों के कर्ज़े पर ही ऐश करता दिखाई देता है। कहीं किसी रचना में विधायकों की चार गुणा तक बढ़ती तनख्वाह पर कटाक्ष होता दिखाई देता है। तो कहीं इसी संकलन की किसी अन्य लघुकथा में सरकारी स्कूलों की मिड डे मील स्कीम में धांधली होती दिखाई देती है जहाँ पढ़ाना लिखाना छोड़ सरकारी आदेश पर अध्यापकों की उसी में ड्यूटी लगाई जाती दिखाई देती है। 
 
इसी संकलन में कहीं किसी रचना में काम की तलाश में गाँव से शहर आए लोगों का शहर के निष्ठुर स्वभाव की वजह से मोहभंग होता दिखाई देता है। तो किसी अन्य लघुकथा में हमारे देश में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रवेश ले कर आज़ादी और फिर से विदेशी निवेश को अनुमति दे ग़ुलामी की तरफ़ बढ़ने की पूरी घटना को चंद दृश्यों के माध्यम से दर्शाया जाता दिखाई देता है । कहीं कोई लघुकथा रक्तदान की कीमत और ज़रूरत को समझाती प्रतीत होती है। तो कहीं कोई अन्य लघुकथा हमारे देश की इस विडंबना की तरफ़ इशारा करती नज़र है कि यहाँ के परिवारों में भी पढ़े लिखे के मुकाबले मेहनतकश सदस्य को दूसरे से कमतर समझा जाता है। 
 
इस संकलन में कहीं सांकेतिक रूप से किसी रचना में जन आंदोलन के ज़रिए तख्तापलट होता दिखाई देता है। तो कहीं कोई लघुकथा मतलबपरस्त राजनैतिक पार्टियों की अवसरवादिता की पोल खोलती नज़र आती है। कहीं कोई लघुकथा इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि तथाकथित सन्त महात्मा भी धन दौलत और मोह माया के बंधनों से आज़ाद नहीं हैं।

 इसी संकलन की रचनाओं में कहीं निराशा और अवसाद के बीच भी उम्मीद की किरण जलती दिखाई देती है। तो कहीं कोई अन्य लघुकथा में निजी द्वेष और रंजिश को भूल कोई फौजी अपने कर्तव्य का पालन  करता दिखाई देता है। कहीं कोई रचना बड़े प्राइवेट अस्पतालों की धनलोलुपता की बात करती नज़र आती है। तो कहीं छोटी जाति के युवकों के ज़्यादा पढ़ लिख जाने से तथाकथित ऊँची जात वाले ईर्ष्या और द्वेष की वजह से चिढ़ कर बौखलाते नज़र आते हैं।

इसी संकलन की किसी लघुकथा में चायनीज़ खिलौने के भारतीय खिलौनों की बनिस्बत सस्ते होने की बात से हमारे देश की गिरती अर्थव्यवस्था पर कटाक्ष मिश्रित चिंता जताई जाती दिखाई देती है। तो किसी अन्य लघुकथा में सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई युवती के पुलिस स्टेशन में एफ.आई.आर लिखवाने पर उसका पति ही उसे इसके लिए हतोत्साहित करता नज़र आता है कि.. अब इससे फ़ायदा क्या? 

इस किताब की एक अन्य लघुकथा इस बात की तस्दीक करती नज़र आती है कि आम आदमी के लिए बिगड़ते वैश्विक संबंधों और दुश्मन देश की नापाक हरकतों जैसे बड़े बड़े मुद्दों कर बजाय रोज़ रोज़ बढ़ती महँगाई ज़्यादा मायने रखती है।

104 पृष्ठीय इस उम्दा लघुकथा संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है दिशा प्रकाशन ने (जो कि मधुदीप जी का अपना ही प्रकाशन था) और इसका मूल्य रखा गया है 125/- रुपए। जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। 


गली हसनपुरा- रजनी मोरवाल

यूँ तो रजनी मोरवाल जी का साहित्य के क्षेत्र में जाना पहचाना नाम है और  मेरा भी उनसे परिचय फेसबुक के ज़रिए काफी समय से है लेकिन अब से पहले कभी उनका लिखा पढ़ने का संयोग नहीं बन पाया। इस बार के पुस्तक मेले से पहले ही ये ठान लिया था कि इस बार मुझे उनकी लिखी किताबें पढ़नी हैं। इसी कड़ी में जब मैंने उनका ताज़ा लिखा उपन्यास "गली हसनपुरा" पढ़ना शुरू किया तो शुरुआती पृष्ठों से ही उनकी धाराप्रवाह लेखनशैली और ज़मीन से जुड़े मुद्दों ने मन मोह लिया। बीच बीच में स्थानीय भाषा का प्रयोग भी अपनी तरफ से उपन्यास को प्रभावी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा था।  मेरे हिसाब से अगर आपको पढ़ने के लिए मुहावरों और लोकोक्तियों से लैस भाषा मिल जाए तो आपका दिन बन जाता है।

वैसे देखा जाए तो इस उपन्यास की विषय वस्तु ऐसी नहीं है कि आप तुरंत इसे अद्वितीय की श्रेणी में कलमबद्ध करने का सोचने लगें। पहले भी इस तरह के विषयों पर काफ़ी काम हुआ है। इस उपन्यास की कहानी सामान्य तौर पर एक आम अवैध कब्जों से जुड़े गरीब इलाके की है जो कभी शहर के बाहरी हिस्से में अपने आप..वक्त ज़रूरत के हिसाब से मजबूरीवश बसता चला गया। इसमें कहानी उन लोगों की है जो गंदगी, कीचड़, लबालब भरी नालियों, टूटी फूटी सड़कों, गरीबी और अशिक्षा के बावजूद भी अपनी जीवटता को किसी ना किसी तरीके से बचाए हुए हैं और तमाम तरह की दुश्वारियों और अभावों में जीने के बावजूद भी पूरे हर्षोल्लास एवं उन्माद के साथ अपने त्योहारों को..अपनी रीतियों को और यहाँ तक कि अपनी कुरीतियों को भी बचा कर रखते हैं।

इस कहानी के ज़रिए उन्होंने शोषित वर्ग के इन मज़लूमों..सभ्य समाज से दरकिनार कर दिए गए लोगों की आवाज़ को उठाया है। इसमें तथाकथित सभ्य माने जाने वाले इलाकों और उनके पिछड़े  इलाके के बीच बरते जा रहे भेदभाव का भी स्पष्ट रूप से वर्णन है तो छुटभैय्ये स्थानीय नेताओं और उनके झूठे वादों की भी कहानी है। अपने ब्याह को लेकर दिन रात सोचती अपाहिज लड़की और उसकी माँ-बहन का दुख भी है। इस कहानी में एक तरफ प्रेम पनप रहा है और दूसरी तरफ  बलात्कार जैसी त्रासद विषयवस्तु को भी प्रभावी ढंग से उठाया गया है। इसमें एक तरफ विस्थापन का दुख है तो दूसरी तरफ शिक्षा और जागरूकता के तरफ शनै शनै बढ़ते उत्साहित कदम भी हैं। उपन्यास को पढ़ने के बाद हम एक तरह से कह सकते हैं कि यह पूरा उपन्यास अपने आरंभ से ले कर अंत तक एक त्रासद ट्रैक पर चलता है मगर बीच बीच में कहीं कहीं पात्रों द्वारा खुशियों के खोज लिए गए छोटे छोटे पलों से पाठक को राहत देने का काम भी करता है। 

इस उपन्यास में विषयवस्तु को ले कर किया गया उनका शोध और उसमें लगाया गया समय इसकी कहानी तथा भाषा में साफ झलकता है। गांव देहात के तथा स्थानीय भाषा के शब्द कहानी को विश्वसनीय बनाने में मदद करते हैं लेकिन एक पाठक की हैसियत से मुझे लगता है इस उपन्यास पर अभी और काम किया जाना चाहिए था क्योंकि जहाँ एक तरफ रजनी मोरवाल जी का यह उपन्यास अपनी भाषाशैली की वजह से लुभाता है तो दूसरी तरफ कई जगहों पर गंवार किरदारों द्वारा बोली गयी साहित्यिक या पढ़े लिखे तबके की भाषा से थोड़ा मायूस भी करता है। 
 
उपन्यास में एक जगह नानी द्वारा बच्चों को कहानी सुनाने का प्रसंग है जिसमें नानी द्वारा बच्चों को सुनाई जाने वाली कहानी की भाषा भी सुनाने वाली किरदार के अनुरूप सीधी एवं सरल नहीं है तथा अनावश्यक विस्तार लिए हुए है। साथ ही कहानी सुनने वाले छोटे बच्चों के हिसाब से भी कहानी की भाषा काफी ज़्यादा कठिन एवं गूढ़ है जिसे बच्चों की समझ के हिसाब से आसान भाषा में लिखा जाना चाहिए था। 

एक बात और..उपन्यास में एक जगह पर 1995 का समय बताया गया है और उसके कुछ समय बाद कहानी का एक किरदार अपने दहेज में इ-रिक्शा प्राप्त कर लेता है जबकि उस समय याने के अब से लगभग 24 साल पहले तो इ-रिक्शा का भारत में उद्भव ही नहीं हुआ था। ना ही तब किसी ने लव जिहाद या फिर जी.एस.टी (GST) टैक्स के बारे में सुना था। मॉल, आधार कार्ड या और भी कई ऐसे शब्द आज के ज़माने के लगते हैं। 

खैर..ये सब तो छोटी छोटी कमियां हैं जिन्हें आने वाली रचनाओं में और इस उपन्यास के अगले संस्करण में अगर चाहें तो आसानी से दूर किया जा सकता है। 128 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है आधार प्रकाशन ने और इसके पेपरबैक संस्करण का मूल्य ₹120/- मात्र रखा गया है जो कि पाठक की जेब पर बिल्कुल भी भारी नहीं पड़ता। 

मेरे हिसाब से किसी उपन्यास के लिए उसकी विषयवस्तु का व्यापक होना याने के बड़े कैनवस का होना बहुत ज़रूरी है। उस कसौटी पर कस कर देखें तो अपनी विषयवस्तु के तमाम फैलाव को देखते हुए छोटा होने के बावजूद ये उपन्यास इसमें काफी हद तक खरा उतरता है। आने वाले समय के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

धर्मयुद्ध - पवन जैन

70-80 के दशक की अगर बॉलीवुड की फिल्मों पर नज़र दौड़ाएँ तो हम पाते हैं कि उनमें जहाँ एक तरफ़ मंदिर की सीढ़ियों पर अनाथ बच्चे का मिलना, प्रेम..त्याग..ममता..धोखे..छल प्रपंच..बलात्कार इत्यादि के दृश्यों के साथ थोड़ा बहुत बोल्डनेस का तड़का लगा होता था। ऐसी मसाला टाइप कहानियों के एक ज़रूरी अव्यय के रूप में इनमें कुछ सफेदपोश टाइप के लाला..सेठ या नेता टाइप के लोग भी बतौर खलनायक होते थे जिनका बाहरी चेहरा एक भलेमानस..दयालु, कृपालु टाइप का दान पुण्य इत्यादि में विश्वास रखने वाला होता था जबकि भीतर से वो एकदम कलुषित विचारों और मन वाले पूरे खलनायक होते थे। 

ऐसे ही मसालेदार अव्ययों से सुसज्जित धाराप्रवाह शैली में लिखा गया एक उपन्यास ले कर हमारे बीच इस बार लेखक पवन जैन आए हैं। जिसे उन्होंने 'धर्मयुद्ध' नाम दिया है। इनके अब तक एक कहानी संग्रह और दो उपन्यास आ चुके हैं। 

मुख्य रूप से इस उपन्यास में कहानी है सफेदपोश चेहरों से नक़ाब उतार उनकी असलियत को दुनिया के सामने लाने से जुड़ी कवायदों की। इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ मोह..ममता..प्यार और त्याग जैसी भावनाएँ अपनी सशक्त मौजूदगी दर्शाती प्रतीत होती हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ छल..कपट..प्रपंच और बलात्कार से ले कर राजनैतिक उठापटक के बीच कुर्सी बचाने की जद्दोजहद भरी क़वायद भी लगातार परिलक्षित होती नज़र आती है।

इस उपन्यास में कहानी है खूबसूरत..जवान..पढ़ी लिखी..समझदार देवयानी और शिवांश के बीच पनपते आपसी स्नेह..प्रेम और विश्वास की। इसमें कहानी है उस देवयानी की जिसके जन्मते ही बरसों पहले कोई उसे मंदिर की सीढ़ियों पर रोता बिलखता अनाथ छोड़ गया था। साथ ही इसमें कहानी है जानकी बाबू और सरला के निश्छल प्रेम की जिन्होंने अपनी बेटी ना होते हुए भी देवयानी को अपनी बेटी के समान पाल पोस कर बड़ा किया।

इसमें कहानी है उस देवयानी की जिसने ग़लत.. सही बातों के बीच के फ़र्क को ठीक से समझा और हमेशा सच का डट कर साथ दिया। साथ ही इस उपन्यास में कहानी है अन्तर्मुखी स्वभाव के उस विवेक की जिसे अपने पिता सेठ गोपीनाथ के दबाव में आ खुद की इच्छा ना होते हुए देवयानी से विवाह करना पड़ा। मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था। 

हालांकि 'धर्मयुद्ध' शीर्षक के अनुसार युद्ध में छल..कपट सब जायज़ होता है और बस जीत और सिर्फ़ जीत ही मायने रखती है। मगर फिर भी अपने ससुर गोपीनाथ द्वारा एक बार बलत्कृत होने के बाद फिर खुशी खुशी उसी ससुर के साथ देवयानी का सैक्स कर लेना मुझे किसी भी एंगल से जायज़.. तर्कसंगत एवं न्यायोचित नहीं लगा बेशक इसके ज़रिए देवयानी का इरादा स्टिंग ऑपरेशन कर अपने ससुर के ख़िलाफ़ सबूत इकट्ठा करना ही क्यों ना था।

इस तेज़ रफ़्तार दौड़ते उपन्यास में कुछ जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। प्रूफ़रीडिंग के स्तर पर उपन्यास थोड़ी और ज़्यादा तवज्जो चाहता हुआ भी लगा। कुछ जगहों पर वाक्यों में सही शब्द का चुनाव ना किए जाने से वाक्य सही नहीं बने जैसे कि..

पेज नम्बर 15 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'तमाम लड़कियाँ उसके साथ और उसके साथ दोस्ती करने के लिए बेकरार रहती।'

इस वाक्य में 'उसके साथ' दो बार छप गया है जबकि उसे महज़ एक बार आना चाहिए था। सही वाक्य इस प्रकार होगा। 

'तमाम लड़कियाँ उसके साथ दोस्ती करने के लिए बेकरार रहती।'

इसी तरह पेज नंबर 16 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'फिर एक दिन राखी ने उसे जो बताया, उसको जानकर वह बेफिक्र हुए बिना न रह सकी।'

जबकि कहानी की सिचुएशन के हिसाब से राखी को यहाँ बेफ़िक्र नहीं बल्कि फिक्रमंद होना है।

और आगे बढ़ने पर पेज नंबर 34 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'दोनों को ही देवयानी का शिवांश के साथ लगाव का पता था।'

यहाँ 'देवयानी का शिवांश के साथ लगाव' की जगह 'देवयानी के शिवांश के साथ लगाव' आएगा।

** दो शब्दों के बीच सही जगह पर स्पेस का होना कितना ज़रूरी है या दो शब्द बिना ज़रूरत आपस में जुड़ कर किस तरह पूरे वाक्य का अर्थ ही बदल देते हैं। इसका एक उदाहरण भी इस किताब में देखने को मिला। पेज नंबर 37 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'तुम शिवांश की खातिर इतने अच्छे रिश्ते को मनाकर रही हो ना?'

यहाँ रिश्ते के लिए मना किया जा रहा है जबकि वाक्य में 'मना' और 'कर' के बीच स्पेस ना होने के कारण ऐसा प्रतीत हो रहा है कि रिश्ते के लिए मनाया जा रहा है। सही वाक्य इस प्रकार होगा।

'तुम शिवांश की खातिर इतने अच्छे रिश्ते को मना कर रही हो ना।'

इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'बचपन से लेकर आज तक उसकी हर बात मानी थी, उसकी अम्मा और बाबूजी ने'

इस वाक्य में जो दूसरी बार 'उसकी' शब्द आया है। वह अवांछित रूप से छप गया है। इसकी ज़रूरत नहीं थी।

सही वाक्य इस प्रकार होगा।

'बचपन से ले कर आज तक उसकी हर बात अम्मा और बाबूजी ने मानी थी।' 

आगे बढ़ने पर पेज नंबर 41 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'इसलिए बिना देर किए वो सुमित्रा के साथ जानकी बाबू के घर देवयानी का रिश्ता लेकर गए।'

यहाँ सेठ गोपीनाथ अपने बेटे विवेक की शादी देवयानी से करना चाहते हैं। इसलिए यहाँ विवेक का रिश्ता ले कर उन्हें देवयानी के घर जाना था जबकि वाक्य में लिखा है कि.. 'देवयानी का रिश्ता ले कर गए।' इसकी जगह यहाँ 'देवयानी के लिए रिश्ता ले कर गए।' आना चाहिए। 

पेज नंबर 47 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'मन ही मन शिवांश ने देवयानी के मुखरता को नमन किया।'

यहाँ 'देवयानी के मुखरता को नमन किया' की जगह 'देवयानी की मुखरता को नमन किया' आएगा।

पेज नंबर 55 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'सेठ गोपीनाथ सार्वजनिक जीवन में जो अपने स्वच्छ छवि बना कर रखते हैं हकीकत में वो बिल्कुल विपरीत हैं।'

यहाँ 'सार्वजनिक जीवन में जो अपने स्वच्छ छवि बना कर रखते हैं' की जगह ' सार्वजनिक जीवन में जो अपनी स्वच्छ छवि बना कर रखते हैं' आएगा। 

हालांकि यह उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहारस्वरूप प्राप्त हुआ मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 104 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है सन्मति पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 100/- जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत  शुभकामनाएं।

लुकाछिपी- नीलिमा शर्मा (संपादन)

आमतौर पर हम अपने दैनिक जीवन में हर तरह के किरदारों से रूबरू होते हैं। उनमें बच्चे, बूढ़े, प्रौढ़...युवा..हर तरह के लोग शामिल होते हैं और हर किरदार अपनी तय मनोस्थिति के हिसाब से कार्य करता है। इसमें अगर नायक अपनी सौम्यता, चपलता, सज्जनता एवं चंचलता के साथ प्रस्तुत हो धमाल कर रहे होते हैं तो पूरे मनोयोग के साथ ठसकेदार तरीके से खलनायक भी अपने क्रोध, कुंठा, घृणा और लालच के साथ अपनी दमदार अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे होते हैं। ज़्यादातर देखा ये गया गया है कि बड़े चूंकि बड़े होते हैं, इसलिए हर जगह अपना बड़ा वाला बड़प्पन झाड़ते हुए अपने से छोटों को महत्त्वहीन याने के किसी काम का ना समझते हुए दरकिनार करने से नहीं चूकते। 

यही स्तिथि कमोबेश हमारे साहित्य में भी दिखाई देती है। यहाँ भी बड़े अपनी भावनाओं से..अपने जज़्बातों से..अपने अरमानों से अपने पाठक को लेखक के ज़रिए समय समय पर स्तिथि परिस्थिति के अनुसार अवगत करवाते रहते हैं लेकिन बच्चों को..उनके जज़्बातों को..उनके बालमन में उठते सवालों से उत्पन्न झंझावातों को..उनकी दबी, ढकी, छिपी कोमल इच्छाओं को..उनके मन में उमड़ते कुंठाओं के छोटे बड़े बवंडर को उस तरह का महत्त्व नहीं देते जिस तरह का महत्व उनको भी कहानी या उपन्यास का महत्त्वपूर्ण पात्र होते हुए दिया जाना चाहिए।

ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में हमारे लेखकों ने काम नहीं किया है लेकिन इस तरह के विषय पर उच्च कोटि की रचनाओं को महज़ चंद बार उंगलियों के उलटफेर के साथ ही गिना जा सकता है। ऐसे में नीलिमा शर्मा जी के संपादन "लुकाछिपी" के नाम से कहानियों का एक सांझा संकलन आना..एक सुखद बयार का काम करता है। उनके इस कहानी संकलन में उन्हें वरिष्ठ तथा समकालीन रचनाकारों का भरपूर सहयोग मिला है।

इसे इस संकलन की सफलता ही कहेंगे कि इसकी कहानियों को पढ़ते वक्त हमारा मन स्वयं बच्चे की तरह हो..उसी की तरह सोचने, समझने एवं बर्ताव करने लगता है। उनकी दिक्कतें..उनकी दुविधाओं..उनकी जिज्ञासाओं को हम अपना समझ..अपने हिसाब उनका हल खोजने का प्रयास करने लगते हैं। इस कहानी संग्रह की किसी कहानी में हम बीमारियों की वजह से बचपन में ही लगभग अपाहिज हो चली बच्ची से और उसके प्रति होने वाले सामाजिक बर्ताव से रूबरू होते हैं तो किसी कहानी में लड़की होने की वजह से उसके साथ होने वाले भेदभाव और उसकी वजह से उत्पन्न कुंठाओं को वह अपनी तमाम ज़िन्दगी इस हद तक भूल नहीं पाती है कि ब्याह करने और बच्चे पैदा करने से साफ इनकार कर देती है। 

किसी कहानी में हम सौजन्यता की मूरत बने अपने नज़दीकियों की वासना का शिकार होते बच्चों के दुख से व्यथित होते हैं तो किसी कहानी में हम घर बाहर के तथाकथित दकियानूसी तथा संकुचित सोच विचार वाले बुज़ुर्गों से झूझते घर के बच्चों से रूबरू होते हैं। किसी कहानी में बच्चे को मुख्य पात्र बना आस्था अनास्था का चित्रण किया गया है तो किसी कहानी में घरवालों की उपेक्षा झेल रही लड़की के विद्रोह स्वरूप घर से भाग जाने की घटना को ले कर सारा ताना बाना रचा गया है। किसी कहानी में 84 के दंगों के बाद आपस में उपजे अविश्वास को बच्चों तथा बड़ों के माध्यम से दर्शाया गया है। कहने का मतलब है कि एक ही किताब में पढ़ने वाले को अलग अलग क्लेवर की कहानियाँ मुहैया करवाई गयी हैं।  

हालांकि इस संकलन में छपी कहानियों में से कुछ कहानियों को मैं पहले भी अन्य संकलनों में पढ़ चुका हूँ लेकिन यकीन मानिए, पुनर्पाठ हर बार पाठक के सामने कहानी के नए आयाम खोलता है। इसलिए समय मिलने पर पहले से पढ़ी हुई रचनाओं को फिर से पढ़ना मुझे श्रेयस्कर लगता है। इस संकलन की कुछ कहानियों ने एक पाठक की हैसियत से मुझे बेहद प्रभावित किया। जिनके नाम इस प्रकार हैं:

मुन्नी- ममता कालिया 
फ्रेम से बाहर- तेजेन्द्र शर्मा 
लापता पीली तितली- मनीषा कुलश्रेष्ठ
मोबीन का हवाई जहाज- प्रत्यक्षा
दुर्गा- विवेक मिश्र
डायरी, आकाश और चिड़िया- गीताश्री
खौफ़- मनीष वैद्य
गाँठें- योगिता यादव
समय से आगे- प्रतिभा कुमार
मन का कोना- नीलिमा शर्मा 

हालांकि ये किताब मुझे उपहारस्वरूप मिली फिर भी अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि बढ़िया क्वालिटी के इस 158 पृष्ठीय कहानी संकलन में कुल  17 कहानियाँ हैं और इसे छापा है शिल्पायन बुक्स ने। इसके पेपरबैक संस्करण की कीमत ₹200/- रखी गयी है जो कहानी की विषय सामग्री और कंटैंट को देखते हुए ज़्यादा नहीं है। इस उम्दा  संकलन को लाने के लिए संपादक, प्रकाशक तथा सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई के।

बीसवीं सदी की चर्चित हास्य रचनाएं- सुभाष चन्दरसंपादन

अगर तथाकथित जुमलेबाज़ी..लफ़्फ़ाज़ी या फिर चुटकुलों इत्यादि के उम्दा/फूहड़ प्रस्तुतिकरण को छोड़ दिया जाए तोवअमूमन कहा जाता है कि किसी को हँसाना या हास्य रचना आम संजीदा या दुख भरी रचनाओं के अपेक्षाकृत काफ़ी कठिन काम है। यही काम तब और ज़्यादा कठिन और दुरह हो जाता है जब आप एक पूरी सदी की चर्चित रचनाओं को छाँटने एवं एक साथ संजोने का कार्य अपने जिम्मे ले लेते हैं। 

दोस्तों..इस कठिन कार्य को अपनी मेहनत..लगन और श्रम के बल पर मुमकिन कर दिखाया है हमारे समय के प्रसिद्ध व्यंग्यकार सुभाष चन्दर जी ने। जिनके संपादन में 2008 में आए इस संकलन को 'बीसवीं सदी की चर्चित हास्य रचनाएँ' नाम दिया गया है। इस संकलन के शुरुआती पन्नों में अब तक के उन साहित्यकारों/व्यंग्यकारों का उल्लेख किया गया है जिन्होंने अपनी लेखनी के ज़रिए हिंदी के अब तक के उपलब्ध साहित्य में, कभी विशुद्ध हास्य के रूप में तो कभी अपने व्यंग्यों के द्वारा, हास्य की मात्रा में इज़ाफ़ा किया। 

शीर्षकानुसार तो इस संकलन में सिर्फ़ हास्य से जुड़ी रचनाओं की ही मौजूदगी दर्ज होनी चाहिए थी मगर हमारे साहित्य में हास्य, व्यंग्य के साथ इस कदर घुलमिल गया है कि उनका अलग अलग वर्गीकरण अब कठिन और बेमानी सा प्रतीत होने लगा है। इस संकलन की रचनाओं में प्रेमचंद, सुदर्शन, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी इत्यादि से ले कर ज्ञान चतुर्वेदी, हरीश नवल और प्रेम जनमेजय जी जैसे अनेक व्यंग्य के धुरंधरों एवं पुरोधाओं की रचनाएँ शामिल हैं। आइए..अब चलते हैं इस संकलन में संग्रहित रचनाओं की तरफ़।

इस संकलन की किसी रचना में कोई नया दामाद पहली बार ससुराल जाने पर अपने पहलवान टाइप धाकड़ ससुरालियों के सामने अपनी वीरता की बड़ी बड़ी डींगे हाँकता तो दिखाई देता है मगर उसे जल्द ही आटे दाल का भाव सब पता चल जाता है। तो वहीं किसी अन्य रचना में कोई अधेड़ावस्था की उम्र में साइकिल चलाना सीखने की ठान तो लेता है मगर मज़ेदार उतारों चढ़ावों से भरी इस कहानी के अंत तक क्या वह अपने इरादे में कामयाब हो पाता है? 

इसी संकलन की एक अन्य रचना खुराफ़ाती दोस्तों से दावत के बहाने जस का तस बदला लेने की बात कहती हुई नज़र आती है। तो वहीं किसी अन्य रचना में पिता के आए तार के बाद मेहमानों को मोटर गाड़ी द्वारा स्टेशन से ले कर आने के दौरान जो ऊधम और हाय तौबा मचती है कि बस पूछो मत। एक अन्य रचना में ओवर ईटिंग के बाद हुए पेट दर्द को ले कर लेखक की जो हालात होती है कि यार दोस्तों और रिश्तेदारों की सलाह पर वह कोई डॉक्टर.. कोई वैद्य..कोई हकीम..कोई होम्योपैथी डॉक्टर..कोई ओझा/तांत्रिक नहीं छोड़ता लेकिन उसे आराम नहीं मिलता। 

इसी संकलन की एक अन्य मज़ेदार रचना में राय इकबाल शंकर के हाथ मरम्मत माँगती एक बेशक़ीमती एंटीक डायनिंग टेबल कौड़ियों के दाम लग जाती है। जिसे बहुत ही महँगे दाम पर खरीदने के लिए एक पारखी एंटीक डीलर उनके घर डिनर पर आ तो रहा है मगर...

इसी संकलन की किसी अन्य रचना में जेल का जेलर प्रेम पत्रों के माध्यम से अपनी पत्नी से रोमांस करने का प्रयास करता नज़र आता है। तो किसी अन्य रचना में संपादक द्वारा रचना को अस्वीकार कर दिए जाने के बाद उसी रचना को लेखक द्वारा महिला के नाम से भेजा जाता है जो झट से स्वीकार कर ली जाती है मगर...

इसी संकलन की एक अन्य मज़ेदार रचना 'बात के बतंगड़ बनने की बात कहती हुई उन लोगों पर ग़हरा कटाक्ष भरा प्रहार करती नज़र आती है। जो दूसरे की बात ध्यान से सुनने के बजाय खुद ही इतना ज़्यादा बोलने लगते हैं कि सामने वाला चाह कर भी अपने मन की बात नहीं कह पाता। तो वहीं किसी अन्य रचना में ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की रचना करते वक्त स्त्रियों को चन्द्रमा पर और पुरुषों को पृथ्वी पर बसाने की मज़ेदार कहानी है। तो वहीं किसी अन्य रचना में मोटर ड्राइविंग स्कूल के बहाने देश के अकुशल नेताओं पर ग़हरा कटाक्ष होता नज़र आता है। कहीं किसी अन्य रचना में बच्चों के नामकरण में अनोखे..अनूठे व अजब गज़ब नाम उनकी आदतों या भविष्य में उनके द्वारा किए जाने वाले व्यवसायों को ध्यान में रख कर रखे जा रहे हैं। 

इसी संकलन की किसी अन्य रचना में जहाँ एक तरफ़ कुकुरमुत्ते के माफ़िक जगह जगह उग पैसे कमाने की मशीन बन चुके इंग्लिश मीडियम स्कूलों पर गहरा कटाक्ष होता नज़र आता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी अन्य रोचक रचना में सिग्रेट छोड़ने की शर्त पर पत्नी, पति से जुए की तर्ज़ पर पैसा लगा, साँप-सीढ़ी का खेल खेलती नज़र आती है। किसी अन्य मज़ेदार रचना में बिचौलिए द्वारा दोनों तरफ़ की झूठी तारीफ़ें कर के रिश्ता पक्का कराया जा रहा है। तो कहीं स्विस खाते बनाम देसी खातों की तर्ज़ पर गाँव में बचत खाते खुलवाने की क़वायद होती नज़र आती है।

किसी अन्य रचना में कॉलेज के सभी प्रोफेसरों में से साढ़े चार गुप्त रोगियों को ढूंढ़ने की कवायद होती दिखाई देती है। तो किसी अन्य रचना में बतौर अच्छा पड़ोसी होने के नाते कोई अपनी बलां दूसरे के सिर पर लादता दिखाई देता है। किसी रचना में ड्यूटी के वक्त सरकारी दफ़्तरों का स्टॉफ आपसी सहयोग एवं समर्थन से ताश खेलता दिखाई देता है।  तो किसी अन्य रचना में लेखक, हजामत बनवाने और ना बनवाने के भंवर में फँस, हर तरफ़ से आलोचना झेलता नज़र आता है। 

कहीं किसी बारात में बाराती अपनी चप्पलों को चोरी होने से बचाने की कवायद में हर समय जुटे नज़र आते हैं। तो कहीं किसी रचना में चेपू दोस्त की रोज़ रोज़ की मेहमाननवाजी करने से बचने के चक्कर में लेखक खुद ही अपने घर को ताला लगा परिवार समेत उड़नछू हो..इधर उधर छिपता दिखाई देता है।

कहीं किसी रचना में लेखक के दोस्त की पत्नी अपने पति की बार बार भूलने की आदत से परेशान दिखाई देती है। तो कहीं किसी अन्य मज़ेदार रचना में खूबसूरत बीवी, पति और जवान नौकर के बीच कुछ ऐसा घटता है कि पति से ना छुपाए बनता है और ना ही बताए बनता है। कहीं किसी अन्य रचना में देश के प्रसिद्ध व्यंग्यकारों के नाम पाठकों के मज़ेदार शैली में लिखे गए पत्र पढ़ने को मिलते हैं। 
तो कहीं किसी अन्य रचना में इस बात की तस्दीक होती दिखाई देती है कि.. कई बार किसी के यहाँ मेहमान बन कर जाने पर भोजन के समय हम भरपेट खाने में संकोच तो कर जाते हैं मगर पेट भला कब..कहाँ.. किसकी सुनता है?

इस संकलन की कुछ रचनाएँ हँसने के अच्छे मौके तो कुछ अन्य रचनाएँ मुस्कुराने के पल दे सुकून से भर देती हैं। 

इस संकलन की कुछ रचनाएँ जहाँ एक तरफ़ मुझे बेहद उम्दा लगी तो दूसरी तरफ़ कुछ ठीकठाक और कुछ बस औसत ही लगी। जो रचनाएँ मुझे बेहद पसंद आयी। उनके नाम इस प्रकार हैं।

1. स्वांग- प्रेमचंद
2. साइकिल की सवारी- सुदर्शन
3. चिकित्सा का चक्कर- बेढब बनारसी
4. बिजली चमकने का रहस्य- जगदीश नारायण माथुर
5. सौदा हाथ से निकल गया - भगवती चरण वर्मा
6. कयामत का दिन -अमृत लाल नागर
7. देवर की मिठाई - चिरंजीलाल पाराशर
8. तुम्हीं ने मुझको प्रेम सिखाया- शरद जोशी
9. चंद्रमा की सच्ची कथा- रवीन्द्रनाथ त्यागी
10. दि ग्रेंड मोटर ड्राइविंग स्कूल - श्रीलाल शुक्ल
11. नाम चर्चा- नरेन्द्र कोहली
12. संदलवुड चिल्ड्रन स्कूल- के.पी.सक्सेना
13. जब श्रीमती जी ने जुआ खेला - आनन्द प्रकाश जैन
14. ब्रह्म वाक्य - कृष्ण चराटे
15. और वे देसी खाते- ज्ञान चतुर्वेदी
16. साढ़े चार गुप्त रोगी, तीन दिन की गुप्तचरी - हरीश नवल
17. अच्छा पड़ोसी- प्रेम जनमेजय
18. नया ज़माना- हरदर्शन सहगल
19. मैंने हज़ामत बनवायी- रमाशंकर श्रीवास्तव
20. लुकाछिपी का खेल - हरिजोशी
21. भुलक्कड़ भाईसाहब - रौशन लाल सुरीरवाला 
22. अंधेरा- रामचन्द्र चेट्टी
23. मेहमान साहब- डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल
24. डाकू- सरयू पंडा गौड़
25. नौटंकी में- अश्विनी कुमार दुबे
26. जब हम बाहर घूमने गए- संतोष खरे
27. किशोर की मूँछें- शांति भटनागर
28. प्रेम की संभावनाएं- जगत सिंह बिष्ट
29. पड़ोसी हों तो ऐसे- सुभाष चन्दर
30. नौकरानी कथा- श्रवण कुमार उर्मलिया
31. पत्नी की बीमारी- सुधीर ओखदे
32. दामाद साहब-  चन्द्रमोहन मधुर
33. साहब की भैंस- प्रभाशंकर उपाध्याय 'प्रभा'
34. टूटी टाँग की टूर- टूर- डॉ. बापू राव देसाई

हास्य रचनाओं के इस 336 पृष्ठीय बढ़िया संकलन के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 400/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रकाशक, संपादक एवं विद्यमान रचनाकारों को बहुत बहुत शुभकामनाएं

ख्वाहिशों का खाण्डव वन- योगिता यादव

कहते हैं कि हर चीज़ का कभी ना कभी अंत हो जाता है लेकिन ख्वाहिशों..इच्छाओं का कोई अंत नहीं है। एक इच्छा के पूरी होने से पहले ही दूसरी बलवती हो..सिर उठा अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने को झट से आमादा हो उठती है। ऐसी ही कुछ इच्छाऐं जो लंबे समय से अपने पूर्ण होने की बाट देख रही हैं, उन्हीं छोटी बड़ी ख़्वाहिशों की कहानी है योगिता यादव जी के उपन्यास 'ख्वाहिशों के खाण्डववन" की। यहाँ खाण्डववन से तात्पर्य एक ऐसा शहर जिसमें वास्तविकता से साथ छद्म का मेल हो।

इसमें कहानी है दिल्ली महानगर के उस तथाकथित सौंदर्यीकरण एवं सुधार की। जिसे 'इसकी टोपी उसके सर' की तर्ज़ पर ऐसा संवारा गया या संवारने का आधा अधूरा प्रयास किया गया कि एक ओर 'ना माया मिली..ना ही मिले राम' वाली बात हो गयी और दूसरी तरफ़ दिल्ली के बाहरी इलाकों और गांवों की हद याने के परिधि का क्षेत्रफल सिकुड़ कर झुग्गियों और जे.जे.कॉलोनियों की चपेट में आ गया। ना पॉश इलाके ढंग से साफ़ सुथरे हो पाए और ना ही गांव देहात के लोग चैन और सुकून से रह पाए मगर हाँ.. अफ़सरान के मन में ये ज़रूर भ्रम बना रहा कि..कुछ अच्छा हो रहा है। अच्छे भले शहर का बेड़ागर्क करने में रही सही कसर सुरसा के मुँह के माफ़िक दिन दूनी रात चौगुनी गति से पनपने..फैलने और बढ़ने वाली अनाधिकृत कॉलोनियों ने पूरी कर दी। 

इस उपन्यास में कहानी है गांव देहात की दिक्कतों..परेशानियों और शहर में लगातार बढ़ते प्रदूषण की। साथ ही इसमें बात है प्रदूषण के नाम पर दुकानों और गांव देहात में लगी छोटी छोटी फैक्ट्रियों के सील होने और उससे उत्पन्न होती बेरोज़गारी की। इसमें बात है खुली आँखों से छोटी छोटी ख़्वाहिशों को पूरा करने हेतु देखे गए हर छोटे बड़े सपने के टूटने और बिखरने की।

इस बात है छोटी जाति वालों के साथ होते भेदभाव भरे पक्षपात की। इसमें बात है मौका देख रंग बदलने वाली पंचायत रूपी राजनैतिक गिरगिटों और  बदनीयत से उनके द्वारा लिए गए मौकापरस्त फैसलों की। 

इस बात है उस बहन की जिसे उसके ससुराल में कभी दहेज के नाम पर तो कभी छोटी छोटी बातों पर महज़ इसलिए सताया जाता रहा कि उसकी बड़ी बहन ने, उसके ब्याह से पहले, उनके घर का याने के उसी के पति का रिश्ता ठुकरा दिया था। इसमें बात है उस बेटी..उस युवती की जिसे अपने घर से तो पूरा समर्थन मिला मगर अपने समूचे गांव की आँख में किरकिरी बन चुभती रही। 

इसमें बात है तमाम बंदिशों के बावजूद सिर उठा.. शनै शनै पनपती नारी शिक्षा और उसके माध्यम से उनमें फ़लीभूत होती जागरूकता और उनके बढ़ते आत्मविश्वास की। इसमें बात है शिक्षा के ज़रिए पतन से उत्थान की ओर बढ़ते छोटे छोटे कदमों से लंबी दूरी नापने के दृढ़निश्चयी मंसूबों की।

इसमें बातें हैं ग्राम पंचायतों में मनमाने ढंग से होते एकतरफ़ा फैसलों के पक्षपातपूर्ण निर्णयों की। इसमें बातें हैं शहरी परिवेश में होने वाली दिक्कतों..परेशानियों और उनसे जुड़े स्थानीय मुद्दों की। इसमें बातें हैं चुनावी टिकटों में होती धांधली एवं डंके की चोट पर होती उनकी बिक्री की। 

इसमें बात है मूक रह कर प्यार के इज़हार और इकरार की। इसमें बात है सहारा बने दोस्तों और संबल बन समर्थन देते घर परिवार की। 

रोचक शैली..धाराप्रवाह भाषा और कहीं कहीं हरियाणवी शब्दों के संगम से लैस यह उपन्यास संग्रहणीय की श्रेणी में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने में पूरी तरह सक्षम है। 128 पृष्ठीय इस उम्दा उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है सामयिक प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 150/- जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।
 
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