भली लड़कियाँ बुरी लड़कियाँ - अनु सिंह चौधरी

कहते हैं कि दुनिया गोल है और संयोगों से भरी इस अजब ग़ज़ब दुनिया में अगर एक तरफ़ भले लोग हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ बुरे भी कम नहीं हैं। मगर सवाल ये उठता है कि जो अच्छा है..क्या वो सभी के लिए अच्छा है या मात्र अपने अच्छे होने का ढोंग कर रहा है? या अगर कोई बुरा है क्या वो सभी की नज़रों में बुरा है?

खैर..अच्छे बुरे की बात करने से पहले कुछ बातें संयोगों को ले कर कि क्या सचमुच में ऐसा संयोग हो सकता है कि किसी कहानी या उपन्यास के रचियता से आपका दूर दूर तक कहीं किसी किस्म का कोई नाता ना हो लेकिन बिना आपके बारे में एक भी शब्द जाने, आपके रोज़मर्रा के जीवन से जुड़ी बातें बिना किसी लागलपेट में उसकी कहानी में ज्यों की त्यों मौजूद हों मसलन आपका कॉलेज..आपकी कार्यस्थली..आपका प्रोफेशन और यहाँ तक कि आपका सरनेम भी कहानी के किसी पात्र से हूबहू मिलता हो?

दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ अनु सिंह चौधरी के बहुचर्चित उपन्यास 'भली लड़कियाँ बुरी लड़कियाँ' की। जिसे उपन्यास से पहले नाटक के रूप में लिखा गया और नाटक से पहले वेबसीरीज़ के रूप में उसी कहानी ने अपना जलवा दिखाया। कमोबेश मूल कहानी और पात्रों के नाम तीनों कहानियों में एक जैसे ही थे लेकिन हर बार कहानी का ट्रीटमेंट तथा बीच की कहानी कई मायनों में पहले से अलग रही।

इस उपन्यास में कहानी है दिल्ली के आउटरम लाइन्स इलाके के एक पीजी में रहने वाली उन चार अजनबी लड़कियों की जो वक्त के साथ सहेलियाँ बन एक दूसरे के सुख दुख में साथ खड़ी रहने को प्रतिबद्ध नज़र आती हैं। इनमें से किसी के साथ कुछ ऐसा अनहोना..अप्रत्याशित घटता है कि उसके प्रतिवाद स्वरूप ये चारों लड़कियाँ एक ऐसा कदम उठाने को बाध्य हो उठती हैं कि अचानक से रातों रात सेंसेशन बन.. टीवी चैनल्स और सोशल मीडिया की सुर्खियाँ बन जाती हैं। 

इसमें जहाँ एक तरफ गन्दगी और कूड़े के ढेरों के बीच बजबजाते हुए माहौल में पनपती अनाधिकृत कॉलोनियां हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ दिल्ली के पॉश इलाके भी अपनी पूरी शानोशौकत के साथ खड़े नज़र आते हैं। 

इसमें कहानी है दूरदराज से देश की राजधानी दिल्ली में पढ़ने या फिर कैरियर बनाने की मंशा से आए लड़के और लड़कियों के दड़बेनुमा हॉस्टलों और पीजी में रहने की मजबूरियों की। इसमें बातें हैं खोखले धरातल पर आशाओं के बलवती होने और धड़ाम से गिर कर टूटते सपनों और बिखरते अरमानों की। 

इसमें बातें हैं आज़ादी और स्वछंदता के मिलेजुले स्वरूप की। इसमें बातें हैं छात्र राजनीति और वाद विवाद प्रतियोगिताओं में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने वालों और उनसे दूर रहने वालों की।इसमें बातें हैं रंगभेद और नस्लीय टिप्पणियों से उपजी हताशा और अवसाद की। 

इसमें बातें हैं स्वछंद और संतुलित व्यवहार की बीच बनते आपसी सामंजस्य एवं बॉन्डिंग की। इसमें बात है नारी की इच्छा और स्वाभिमान की। इसमें बात है धोखे एवं विश्वासघात की। इसमें कहानी है छल..फरेब..प्रपंच और धोखे से बरगलाने..फुसलाने की। 

तथ्यात्मक दृष्टि से अगर देखें तो इस उपन्यास में एक खामी दिखी कि एक जगह उपन्यास में लिखा है कि पीजी में रहने के लिए आए बच्चों से पुलिस वैरिफिकेशन के नाम पर बारह सौ रुपए अलग से लिए जाते हैं। खुद मेरा भी उसी इलाके और इसी काम से वास्ता होने के कारण मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि यह सरासर ग़लत है। इस काम को पीजी ओनर द्वारा फ्री में किया जाता है। उम्मीद है कि अगले संस्करण में इस ग़लती को सही कर लिया जाएगा। 

176 पृष्ठीय इस उम्दा उपन्यास को छापा है हिन्द युग्म और eka ने और इसके पेपरबैक संस्करण का मूल्य रखा गया है 175/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका और प्रकाशक द्वय को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

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