इसलिए हम हँसते हैं- गुरमीत बेदी

व्यंग्य के क्षेत्र में गुरमीत बेदी जी का नाम काफ़ी जाना पहचाना है लेकिन इसे संयोग कहिए या फिर मेरा आलस कि उनका लिखा पहले कभी मैं पढ़ नहीं पाया। इस बार के पुस्तक मेले में भावना प्रकाशन के स्टॉल पर जब मेरी नज़र उनकी लिखी किताबों पर पड़ी तो बरबस ही उनके शीर्षकों ने पहली नज़र में ही मेरा ध्यान आकर्षित  किया लेकिन चूंकि उस दिन मैं और अन्य लेखकों की किताबें लेने का मन पहले से ही बना चुका था इसलिए उस वक्त तो बात आयी गयी वाली हो गयी।

उसके एक दिन बाद जब मैं पुनः भावना प्रकाशन के स्टॉल पर अपने मतलब की किताबें देख रहा था तभी  नीरज जी ने कहा कि..."एक मिनट रुको, गुरमीत बेदी जी आ रहे हैं। मैं उनसे तुम्हारी मुलाकात करवाता हूँ।" 

वाह!... क्या ग़ज़ब की शख़्सियत के मालिक हैं गुरमीत बेदी जी, उनके मिलनसार व्यवहार और सम्मोहित कर देने वाले पर्सनैलिटी ने कुछ मिनट की ही मुलाकात में मुझे उनका फैन बना दिया। 

अब बात करते हैं उनकी लिखी किताब "इसलिए हम हँसते हैं" की। पुस्तक मेले में मैंने उनकी लिखी तीन किताबें खरीदी और अब समय मिलने पर उनमें से इसे सबसे पहले पढ़ना शुरू किया। मुझे उम्मीद थी कि शीर्षकानुसार इसमें कुछ हास्य कहानियाँ होंगी लेकिन  किताब खोलने पर मैंने पाया कि इसमें तो सिर्फ व्यंग्य हैं और एक व्यंग्य के शीर्षक का नाम ही...'इसलिए हम हँसते हैं' है। अब चूंकि मेरा लेखन क्षेत्र भी हास्य-व्यंग्य ही है तो मुझे कुछ कुछ सोने पे सुहागे वाली टाइप की फीलिंग मन में आई कि चलो!..कहानियाँ ना सही, कुछ अच्छे व्यंग्य तो पढ़ने को मिलेंगे। 

किसी भी छोटी से छोटी घटना या विषय को लेकर उस पर सरल शब्दों में बिना किसी लाग लपेट के कैसे अच्छा व्यंग्य लिखा जा सकता है, ये उनकी इस किताब को पढ़ कर आसानी से जाना जा सकता है। सच कहूँ तो शुरू के दो चार व्यंग्यों को पढ़ने पर मुझे उनकी लेखनी में कुछ ज़्यादा दम या खास सी दिखने वाली कोई बात नहीं लगी। एकदम सरल शैली में..सरल ढंग से कही गयी.. सरल सी ही बातें बस...लेकिन ज्यूँ ज्यूँ मैं आगे बढ़ता गया त्युं त्युं उनकी इसी शैली का मैं मुरीद होता चला गया। पढ़ते वक्त हर व्यंग्य के साथ मुझे हैरानी होने लगी कि कैसे इतनी आसानी से वो एक सीधी साधी ख़बर को टीवी, रेडियो, अख़बार, पत्रिका से अथवा अपने आसपास घट रही घटनाओं से लिंक कर उस पर अपनी मौलिक शैली का एक व्यंग्य तुरत फुरत रच डालते हैं। 

पता नहीं ऐसा वे जानबूझ कर करते हैं या फिर कुदरती तौर पर उन्हें गॉड गिफ्ट प्राप्त है कि अचानक ही बिना किसी एक्स्ट्रा प्रयास..मेहनत अथवा कारीगिरी के उनके व्यंग्य में बहुत सी अन्य व्यंग्यात्मक बातें खुदबखुद जुड़ कर...उसमें समाहित होते हुए रचना में चार चाँद लगाने से नहीं चूकती हैं। सरकारी/ गैर सरकारी हर तरह की छोटी-बड़ी खबर पर मुझे उनकी पैनी एवं जागरूक दृष्टि ने बहुत प्रभावित किया। बेबाक अंदाज़ में लिखे गए उनके व्यंग्य बीच बीच में बरबस ही आपकी बांछों को खिला आपको खुल कर मुस्कुराने पर मजबूर कर देते हैं।

बात बात में किसी बात से कैसी नयी एवं प्रभावी बात निकाली जा सकती है, ये उनके व्यंग्यों को पढ़ कर जाना एवं सीखा जा सकता है। सीधी सरल भाषा में लिखने के बावजूद अपने व्यंग्यों में वे निर्ममता से काम लेते हैं और नेता-अभिनेता, अफसर,अभियंता, बड़ा- छोटा, चोर-सिपाही किसी को नहीं बख्शते हैं। उनके व्यंग्यों के ज़रिए आप आत्मा-परमात्मा, ऑन दा रेकॉर्ड, ऑफ दा रेकॉर्ड , पक्ष-विपक्ष, तंत्र-जुगाड़तंत्र , चापलूस-निंदक, टोटके, सैटिंग, अपन- वीरप्पन आदि सबको जान सकते हैं।

यहाँ तक कि उनके व्यंग्यों की चपेट में आने से बंदर, गधे, कुत्ते और वो स्वयं भी अपने परिवार समेत बच नहीं पाए हैं। मेरा मानना है कि जो व्यक्ति खुद अपना मज़ाक उड़ा सकता है, वही सही ढंग से दूसरों को हँसा सकता है। पूरी किताब में मुझे बस एक कमी लगी कि जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग नहीं किया गया जो कि थोड़ा अखरता है।

135 पृष्ठीय इस व्यंग्य संग्रह के प्रथम हार्ड बाउंड संस्करण को नीरज बुक सेंटर(भावना प्रकाशन), दिल्ली ने 2012 में छापा है और इसका मूल्य मात्र ₹150/- रखा है जो कि किताब की क्वालिटी और कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। लेखक एवं प्रकाशक को आने वाले भविष्य के लिए अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

***राजीव तनेजा***

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