मेरी लघुकथाएँ- उमेश मोहन धवन

यूँ तो परिचय के नाम पर उमेश मोहन धवन जी से मेरा बस इतना परिचय है कि हम दोनों कई सालों से फेसबुक पर एक दूसरे की चुहलबाज़ीयों का मज़ा लेते रहे हैं। व्यंग्य मिश्रित हास्य की अच्छी समझ रखने वाले उमेश मोहन जी ने छोटे मोटे हास्य या फिर अपनी पंच लाइन्स से सहज ही मेरा ध्यान कई मर्तबा अपनी लेखनी की तरफ़ खींचा। उस वक्त कतई ये अन्दाज़ा नहीं था कि उमेश जी संजीदा किस्म की लघुकथाएँ भी लिखते हैं। 2017 में पहली बार मुझे उनकी कुछ लघुकथाएँ पढ़ने को मिली। अब जब उनकी लघुकथाओं का संकलन "मेरी लघुकथाएँ" के नाम से आ चुका है। तो चलिए..आज उन्हीं के लघुकथा संकलन "मेरी लघुकथाएँ" की बात की जाए। 

इस संकलन में उनकी कुल 65 लघुकथाएँ हैं और उनमें से ज़्यादातर प्रतिष्ठित समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में पहले भी छप चुकी हैं। प्रतिष्ठित पत्रिका में छपने से इस बात की तस्दीक तो खैर होती ही है कि उसमें ज़रूर कुछ ना कुछ नोटिस करने वाली बात तो होगी ही। धाराप्रवाह लेखन शैली से सुसज्जित इस संकलन की रचनाओं में उन्होंने अपने आसपास के देखे भाले माहौल से किरदारों एवं  घटनाओं को ले कर ही छोटी छोटी लघुकथाएँ गढ़ी हैं।

इस संकलन की किसी कहानी में अधेड़ उम्र का डायबिटीज से पीड़ित व्यक्ति भी थोड़ा बहुत मीठा खाने के लिए डॉक्टर से तसल्ली चाहता है तो किसी रचना में एक व्यक्ति को अपनी बीवी के अबॉर्शन से ज़्यादा दफ़्तर में फ्री बंटे कलेंडर के ना मिल पाने का अफ़सोस ज़्यादा है। इस संकलन की किसी रचना में चाय की तलब और उस पर निर्भरता की बात है तो किसी रचना में इस बात पर कटाक्ष के ज़रिए चिंता जताई गई है कि जिस आवारा..नाकारा व्यक्ति को इसलिए कोई छोटी सी नौकरी भी नहीं मिल पा रही थी कि उसके करैक्टर की गारण्टी कौन देगा? वही नाकारा व्यक्ति अब नेता बन सबको करैक्टर सर्टिफिकेट बाँटेगा।

इस संकलन की किसी रचना में एक ही घटना को ले कर अलग अलग नज़रियों की बात है तो किसी रचना में लोगों के असली और नकली चेहरों के फर्क को मज़बूती से दर्शाया गया है। इस संकलन की किसी रचना में असली संपत्ति को ले कर पैसे से शुरू हुई बहस घूम फिर कर वापिस पैसे पर ही आ कर खत्म हो जाती है तो किसी रचना में मिथ्या आरोपों के तहत गिरफ्तार व्यक्ति ग्यारह साल की सज़ा काटने के बाद, बाइज़्ज़त बरी हो तो जाता है मगर क्या सही मायने में उसकी इज़्ज़त बची रह पाती है?

समाज..सरकार की कुसंगतियों पर धीमे धीमे प्रहार करती उमेश मोहन धवन जी की रचनाएँ इस कदर पठनीय हैं कि एक ही बैठक में किताब आराम से ये कहते हुए खत्म की जा सकती है कि...

"वाह...मज़ा आ गया।"

यूँ तो इस संकलन की लगभग सभी लघुकथाएँ बढ़िया हैं मगर फिर भी कुछ के नाम मैं उल्लेखनीय रूप से लेना चाहूँगा। जो इस प्रकार हैं।

*अफ़सोस
*अँगूठी
*बाइज़्ज़त बरी
*बस एक बार
*चमत्कार
*चार दिन बाद
*दयालु
*डिजिटल शुभकामनाएं
*दिनदहाड़े
*दूरी
*हालचाल
*आई लव इंडिया
*जा के पाँव न...
*जीवनदान
*झगड़े की जड़
*कीमत
*कुशल प्रबंधक
*मददगार
*मेहंदी
*मुबारकबाद
*पाँच सौ रुपए 
*पीर परायी
*पुराना आदमी
*सब्र का बाँध
*साबुन की टिकिया

मेरे हिसाब से किसी भी किताब के प्रभावी या कैची होने में उसका आकर्षक कवर एवं दमदार  शीर्षक बड़ा महत्त्व रखता है। कवर ऐसा होना चाहिए कि किताबों की भीड़ में भी वह किताब अलग और दूर से ही नज़र आए। इसके अलावा शीर्षक ऐसा होना चाहिए कि पाठक के अन्दर किताब के मैटीरियल को ले कर इस हद तक उत्सुकता जागे कि वह किताब को अपने हाथ में उलटने पलटने के लिए उठा ले। इस लिहाज़ से अगर देखें तो किताब थोड़ा निराश करती है। इसका कवर मुझे किसी कहानियों की किताब के बजाय किसी मंथली सब्सक्रिप्शन या फिर फ्री में बँटने वाली धार्मिक किताबों जैसा लगा। साथ ही लेखक की पहली किताब होने की वजह से इसका शीर्षक "मेरी लघुकथाएँ" भी थोड़ा सही नहीं लगा कि आमतौर पर वे लेखक जिनकी कई कई किताबें आ चुकी होती हैं , इस तरह का शीर्षक अपनी चुनिंदा रचनाओं की किताब के लिए रखते हैं।  उम्मीद की जानी चाहिए कि इस खामी से इसी किताब के आगामी संस्करण में तथा आने वाली किताबों में बचा जाएगा।

हालांकि यह संकलन मुझे उपहार स्वरूप प्राप्त हुआ मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि..151 पृष्ठीय उम्दा लघुकथाओं के इस संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है एलोरा प्रिन्टर्स,कानपुर ने और इसका मूल्य रखा गया है 180/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

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