धर्मयुद्ध - पवन जैन

70-80 के दशक की अगर बॉलीवुड की फिल्मों पर नज़र दौड़ाएँ तो हम पाते हैं कि उनमें जहाँ एक तरफ़ मंदिर की सीढ़ियों पर अनाथ बच्चे का मिलना, प्रेम..त्याग..ममता..धोखे..छल प्रपंच..बलात्कार इत्यादि के दृश्यों के साथ थोड़ा बहुत बोल्डनेस का तड़का लगा होता था। ऐसी मसाला टाइप कहानियों के एक ज़रूरी अव्यय के रूप में इनमें कुछ सफेदपोश टाइप के लाला..सेठ या नेता टाइप के लोग भी बतौर खलनायक होते थे जिनका बाहरी चेहरा एक भलेमानस..दयालु, कृपालु टाइप का दान पुण्य इत्यादि में विश्वास रखने वाला होता था जबकि भीतर से वो एकदम कलुषित विचारों और मन वाले पूरे खलनायक होते थे। 

ऐसे ही मसालेदार अव्ययों से सुसज्जित धाराप्रवाह शैली में लिखा गया एक उपन्यास ले कर हमारे बीच इस बार लेखक पवन जैन आए हैं। जिसे उन्होंने 'धर्मयुद्ध' नाम दिया है। इनके अब तक एक कहानी संग्रह और दो उपन्यास आ चुके हैं। 

मुख्य रूप से इस उपन्यास में कहानी है सफेदपोश चेहरों से नक़ाब उतार उनकी असलियत को दुनिया के सामने लाने से जुड़ी कवायदों की। इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ मोह..ममता..प्यार और त्याग जैसी भावनाएँ अपनी सशक्त मौजूदगी दर्शाती प्रतीत होती हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ छल..कपट..प्रपंच और बलात्कार से ले कर राजनैतिक उठापटक के बीच कुर्सी बचाने की जद्दोजहद भरी क़वायद भी लगातार परिलक्षित होती नज़र आती है।

इस उपन्यास में कहानी है खूबसूरत..जवान..पढ़ी लिखी..समझदार देवयानी और शिवांश के बीच पनपते आपसी स्नेह..प्रेम और विश्वास की। इसमें कहानी है उस देवयानी की जिसके जन्मते ही बरसों पहले कोई उसे मंदिर की सीढ़ियों पर रोता बिलखता अनाथ छोड़ गया था। साथ ही इसमें कहानी है जानकी बाबू और सरला के निश्छल प्रेम की जिन्होंने अपनी बेटी ना होते हुए भी देवयानी को अपनी बेटी के समान पाल पोस कर बड़ा किया।

इसमें कहानी है उस देवयानी की जिसने ग़लत.. सही बातों के बीच के फ़र्क को ठीक से समझा और हमेशा सच का डट कर साथ दिया। साथ ही इस उपन्यास में कहानी है अन्तर्मुखी स्वभाव के उस विवेक की जिसे अपने पिता सेठ गोपीनाथ के दबाव में आ खुद की इच्छा ना होते हुए देवयानी से विवाह करना पड़ा। मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था। 

हालांकि 'धर्मयुद्ध' शीर्षक के अनुसार युद्ध में छल..कपट सब जायज़ होता है और बस जीत और सिर्फ़ जीत ही मायने रखती है। मगर फिर भी अपने ससुर गोपीनाथ द्वारा एक बार बलत्कृत होने के बाद फिर खुशी खुशी उसी ससुर के साथ देवयानी का सैक्स कर लेना मुझे किसी भी एंगल से जायज़.. तर्कसंगत एवं न्यायोचित नहीं लगा बेशक इसके ज़रिए देवयानी का इरादा स्टिंग ऑपरेशन कर अपने ससुर के ख़िलाफ़ सबूत इकट्ठा करना ही क्यों ना था।

इस तेज़ रफ़्तार दौड़ते उपन्यास में कुछ जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। प्रूफ़रीडिंग के स्तर पर उपन्यास थोड़ी और ज़्यादा तवज्जो चाहता हुआ भी लगा। कुछ जगहों पर वाक्यों में सही शब्द का चुनाव ना किए जाने से वाक्य सही नहीं बने जैसे कि..

पेज नम्बर 15 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'तमाम लड़कियाँ उसके साथ और उसके साथ दोस्ती करने के लिए बेकरार रहती।'

इस वाक्य में 'उसके साथ' दो बार छप गया है जबकि उसे महज़ एक बार आना चाहिए था। सही वाक्य इस प्रकार होगा। 

'तमाम लड़कियाँ उसके साथ दोस्ती करने के लिए बेकरार रहती।'

इसी तरह पेज नंबर 16 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'फिर एक दिन राखी ने उसे जो बताया, उसको जानकर वह बेफिक्र हुए बिना न रह सकी।'

जबकि कहानी की सिचुएशन के हिसाब से राखी को यहाँ बेफ़िक्र नहीं बल्कि फिक्रमंद होना है।

और आगे बढ़ने पर पेज नंबर 34 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'दोनों को ही देवयानी का शिवांश के साथ लगाव का पता था।'

यहाँ 'देवयानी का शिवांश के साथ लगाव' की जगह 'देवयानी के शिवांश के साथ लगाव' आएगा।

** दो शब्दों के बीच सही जगह पर स्पेस का होना कितना ज़रूरी है या दो शब्द बिना ज़रूरत आपस में जुड़ कर किस तरह पूरे वाक्य का अर्थ ही बदल देते हैं। इसका एक उदाहरण भी इस किताब में देखने को मिला। पेज नंबर 37 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'तुम शिवांश की खातिर इतने अच्छे रिश्ते को मनाकर रही हो ना?'

यहाँ रिश्ते के लिए मना किया जा रहा है जबकि वाक्य में 'मना' और 'कर' के बीच स्पेस ना होने के कारण ऐसा प्रतीत हो रहा है कि रिश्ते के लिए मनाया जा रहा है। सही वाक्य इस प्रकार होगा।

'तुम शिवांश की खातिर इतने अच्छे रिश्ते को मना कर रही हो ना।'

इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'बचपन से लेकर आज तक उसकी हर बात मानी थी, उसकी अम्मा और बाबूजी ने'

इस वाक्य में जो दूसरी बार 'उसकी' शब्द आया है। वह अवांछित रूप से छप गया है। इसकी ज़रूरत नहीं थी।

सही वाक्य इस प्रकार होगा।

'बचपन से ले कर आज तक उसकी हर बात अम्मा और बाबूजी ने मानी थी।' 

आगे बढ़ने पर पेज नंबर 41 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'इसलिए बिना देर किए वो सुमित्रा के साथ जानकी बाबू के घर देवयानी का रिश्ता लेकर गए।'

यहाँ सेठ गोपीनाथ अपने बेटे विवेक की शादी देवयानी से करना चाहते हैं। इसलिए यहाँ विवेक का रिश्ता ले कर उन्हें देवयानी के घर जाना था जबकि वाक्य में लिखा है कि.. 'देवयानी का रिश्ता ले कर गए।' इसकी जगह यहाँ 'देवयानी के लिए रिश्ता ले कर गए।' आना चाहिए। 

पेज नंबर 47 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'मन ही मन शिवांश ने देवयानी के मुखरता को नमन किया।'

यहाँ 'देवयानी के मुखरता को नमन किया' की जगह 'देवयानी की मुखरता को नमन किया' आएगा।

पेज नंबर 55 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'सेठ गोपीनाथ सार्वजनिक जीवन में जो अपने स्वच्छ छवि बना कर रखते हैं हकीकत में वो बिल्कुल विपरीत हैं।'

यहाँ 'सार्वजनिक जीवन में जो अपने स्वच्छ छवि बना कर रखते हैं' की जगह ' सार्वजनिक जीवन में जो अपनी स्वच्छ छवि बना कर रखते हैं' आएगा। 

हालांकि यह उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहारस्वरूप प्राप्त हुआ मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 104 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है सन्मति पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 100/- जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत  शुभकामनाएं।

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