ख़्वाबगाह - सूरज प्रकाश

सृष्टि के अन्य जीवों की भांति ही इंसान भी बारिश, तूफ़ान जैसी प्राकृतिक अवस्थाओं से ख़ुद को सुरक्षित रखने के लिए कोई न कोई ऐसी पनाह..ऐसा घर..ऐसा नीड़ चाहता है जहाँ निजता के साथ रहते हुए वह अपनों का अपनापन महसूस कर सके। रिश्तों के स्थायित्व से भरा एक ऐसा घरौंदा जहाँ वह स्वतंत्रता से विचर सके..अपने मन की कह और अपनों की सुन सके। 

हर इंसान अपनी रुचि, ख्वाहिश एवं हैसियत के हिसाब से अपने सपनों का घर..अपनी ख़्वाबगाह का निर्माण करता है। ख़ास कर के स्त्रियाँ एक ऐसा घर..ऐसी ख़्वाबगाह चाहती हैं जिसे वे अपनी रुचि के अनुसार सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा सकें। दोस्तों आज घर यानी कि ख़्वाबगाह से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं जिस लघु उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ, उसे 'ख़्वाबगाह' के ही नाम से लिखा है प्रसिद्ध लेखक सूरज प्रकाश जी ने। 

मोनोलॉग शैली में लिखे गए इस रोचक उपन्यास में मूलतः कहानी है एक ऐसी नायिका की है जो पति और प्रेमी नाम के दो पाटों बीच इस प्रकार भंवर में फँसी हुई है कि चाह कर भी किसी एक से मुक्त नहीं हो पा रही। एक तरफ़ उसके मन में अपने प्रेमी से मुक्त हो, अपने परिवार को बचाने की जद्दोजहद चल रही है। तो दूसरी तरफ़ अपमान सहते हुए हुए भी अपने उस तथाकथित प्रेमी के मोह से आज़ाद नहीं हो पा रही है जिसने पहले से शादीशुदा होते हुए भी उसे अपने प्रेमजाल में फँसाया। 

रोचक ढंग से लिखे गए इस बेहद उम्दा उपन्यास में प्रिंटिंग की कमी के रूप में काफ़ी जगहों पर शब्द आपस में जुड़े हुए दिखाई दिए। साथ ही प्रूफरीडिंग की छोटी-छोटी कमियां भी दिखाई दीं जैसे कि..

पेज नम्बर 7 में लिखा दिखाई दिया कि..

'हंस कर टल जाती थी'

कहानी के हिसाब से यहाँ 'हंस कर टल जाती थी' की जगह 'हँस कर टाल जाती थी' आना चाहिए। 

पेज नंबर 13 में लिखा दिखाई दिया कि..

'बहुत देर तक तो मुझे देर तक समझ में नहीं आया कि हो क्या गया है'

यहाँ 'बहुत देर तक तो मुझे देर तक समझ में नहीं आया कि हो क्या गया है' की जगह 'बहुत देर तक तो मुझे समझ में नहीं आया कि हो क्या गया है'
आए तो बेहतर। 

पेज नंबर 15 में लिखा दिखाई दिया कि..

'हमारी हम मुलाक़ात समय की सारी सीमाएं लांघ जाती थी'

यहाँ 'हमारी हम मुलाक़ात समय की सारी सीमाएं लांघ जाती थी' की जगह 'हमारी हर मुलाक़ात समय की सारी सीमाएं लांघ जाती थी' आएगा। 

पेज नंबर 36 में लिखा दिखाई दिया कि..

'और मैं हर दिन सिर भारी होने और नींद पूरी होने के कारण कुछ भी काम न कर पाती'

कहानी के हिसाब से यहाँ नींद पूरी ना हो पाने की बात की जा रही है। इसलिए यहाँ 'और मैं हर दिन सिर भारी होने और नींद पूरी होने के कारण कुछ भी काम न कर पाती' की जगह 'और मैं हर दिन सिर भारी होने और नींद पूरी न होने के कारण कुछ भी काम न कर पाती' आना चाहिए। 

पेज नंबर 60 में लिखा दिखाई दिया कि..

'एक दूसरे को छेड़ रहे थे, मजेदार खेल रहे थे, और पुरानी बातें याद कर करके ज़ोर-ज़ोर से हंस रहे थे'

यहाँ 'मजेदार खेल रहे थे' की जगह 'मज़ेदार खेल, खेल रहे थे' आना चाहिए। 

पेज नंबर 78 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'तभी उसने पैग तैयार करके कुल्लड़ मेरी तफ बढ़ाया'

यहाँ 'मेरी तफ बढ़ाया' की जगह 'मेरी तरफ़ बढ़ाया' आएगा। 

पेज नंबर 86 में लिखा दिखाई दिया कि..

'तो जवाब की नीयत खराब हो रही है'

यहाँ 'जवाब की नीयत खराब हो रही है' की जगह 'जनाब की नीयत ख़राब हो रही है' आएगा। 

पेज नंबर 94 में लिखा दिखाई दिया कि..

'वह ठीक मेरे सामने बैठा धीरे अपनी बीयर सिप कर रहा था'

यहाँ 'वह ठीक मेरे सामने बैठा धीरे अपनी बीयर सिप कर रहा था' की जगह 'वह ठीक मेरे सामने बैठा धीरे-धीरे अपनी बीयर सिप कर रहा था' आना चाहिए। 

पेज नंबर 96 की पहली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसका सब चले तो मुझे बैकलेस या स्लीवलेस ब्लाउज भी ना पहनने दे'

यहाँ 'उसका सब चले तो' की जगह 'उसका बस चले तो' आएगा। 

पेज नंबर 107 में लिखा दिखाई दिया कि..

'और यह दूसरी संयोग था कि उधर विनय से अरसे से रुकी मुलाकातों का सिलसिला चल पड़ा था'

यहाँ 'और यह दूसरी संयोग था' की जगह 'और यह दूसरा संयोग था' आएगा। 

पेज नंबर 109 में लिखा दिखाई दिया कि..

'सारी बातें सोचने के बाद कुछ अरसे बाद हम से फ़िर पहले की तरह ख़्वाबगाह में मिलने लगे थे'

यहाँ 'सारी बातें सोचने के बाद कुछ अरसे बाद हम से फ़िर पहले की तरह ख़्वाबगाह में मिलने लगे थे' की जगह 'सारी बातें सोचने के कुछ अरसे बाद से हम फ़िर पहले की तरह ख़्वाबगाह में मिलने लगे थे' आना चाहिए। 

पेज नंबर 110 की पहली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'मुकुल क जब घर पर ड्रिंक करने का मूड होता है'

यहाँ 'का' की जगह ग़लती से 'क' छप गया है। 

पेज नंबर 111 में लिखा दिखाई दिया कि..

'जब तक कोई मेरे बालों में कोई उंगलियां ना फेरे, मुझे नींद नहीं आती'

यहाँ 'जब तक कोई मेरे बालों में कोई उंगलियां ना फेरे' की जगह 'जब तक कोई मेरे बालों में उंगलियां ना फेरे' आएगा। 

• छूआ - छुआ 
• जीएगी - जिएगी
• सिंगापूर - सिंगापुर
• कूआं - कुआं (कुआँ)

उम्दा एवं धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस 112 पृष्ठीय बेहद रोचक के पेपरबैक संस्करण को छापा है इंडिया नेटबुक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 120/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

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