बाक़ी सफ़ा 5 पर- रूप सिंह- सुभाष नीरव (अनुवाद)


कई बार राजनीति में अपने लाभ..वर्चस्व इत्यादि को स्थापित करने के उद्देश्य से अपने पिट्ठू के रूप में आलाकमान अथवा अन्य राजनैतिक पार्टियों द्वारा ऐसे मोहरों को फिट कर दिया जाता है जो वक्त/बेवक्त के हिसाब से उन्हीं की गाएँ..उन्हीं की बजाएँ। मगर ऐसे ही लोग दरअसल वरद हस्त पा लेने के बाद अपनी बढ़ती महत्ता को हज़म नहीं कर पाते और मौका मिलते ही अपने आलाकमान को आँखें दिखा..रंग बदलने से भी नहीं चूकते। आँख की किरकिरी या नासूर बन चुके ऐसे लोगों को सीधा करने..उन्हें उनकी औकात दिखाने.. निबटने अथवा छुटकारा पाने के लिए बहुत से मशक्कत भरे पापड़ बेलने पड़ते हैं। 

उदाहरण के तौर पर जैसे रूस को आँखें दिखाने के लिए पहले अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को शह दी..उसे अत्याधुनिक हथियार..ट्रेनिंग और बेशुमार पैसा उपलब्ध कराया। वहीं ओसामा बिन लादेन देखते ही देखते एक दिन अमेरिका का सबसे बड़ा दुश्मन बन बैठा। ठीक यही सब कुछ भारत में स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के समय में भी हुआ जब उन्होंने पंजाब पर अपनी पकड़ बनाने के लिए भिंडरावाले को शह दी..उसे सर आँखों पर बिठाया लेकिन जनता का समर्थन मिलते ही वही भिंडरावाला केन्द्र सरकार को घुड़कियाँ देने..आँखें दिखाने लगा। उसकी वजह से पंजाब के हालात इस कदर बिगड़ते चले गए कि भारतीय सेना को अमृतसर के स्वर्ण मंदिर परिसर में ऑपरेशन ब्लू स्टार को अंजाम दे भिंडरावाले के वजूद को ही मिटाना पड़ा। 

दोस्तों..आज अतिवादियों से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं पंजाब के उन्हीं बुरे दिनों पर केन्द्रित एक ऐसे उपन्यास की बात करने वाला हूँ जिसे 'बाकी सफ़ा 5 पर' के नाम से मूलतः पंजाबी में लिखा है लेखक रूप सिंह ने और उसका पंजाबी से हिंदी अनुवाद किया है प्रसिद्ध लेखक एवं अनुवादक सुभाष नीरव जी ने। 

मूलतः इस उपन्यास में कहानी है पाकिस्तान के साथ जंग में शहीद हो चुके फौजी की विधवा मेलो और उसके इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे जवान बेटे गुरमीत की। जिन्होंने अनजाने में भूल से अपनी भलमनसत के चक्कर में घर में जबरन घुस आए दो खाड़कूओं को कुछ घंटों के लिए शरण दे दी थी। और यही शरण..यही पनाह उनकी सब मुसीबतों की इस हद तक बायस बनी कि गुरमीत को वहशी हो चुकी पुलिस के कहर से बचने के लिए दर दर भटकना पड़ा।  कभी कंटेनर में छिप कर सफ़र करना पड़ा तो कभी अकेले शमशान में जलती लाश के साथ सो कर रात गुज़ारनी पड़ी।

इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है खाड़कूओं के दमन को ले कर शुरू हुए पुलसिया/सैन्य अत्याचार और सख्ती के बीच घुन्न की तरह पिसती आम जनता के दुखों..तकलीफ़ों और संतापों की। जिसमें एक तरफ़ पंजाब के लोग आशंकित एवं डरे हुए दिखाई देते हैं कि कहीं कर्फ़्यू जैसे हालात में फौज या पुलिस उनके नौजवान बेटों को ना मार दे। तो वहीं दूसरी तरफ़ कर्फ़्यू के दौरान दफ़्तर..अस्पताल वग़ैरह के बंद होने पर इस वजह से भी कुछ लोग खुश दिखाई हैं कि उन्हें दो चार या दस दिनों की छुट्टी मिल गयी।

आतंकवाद के उन्मूलन को ले कर शुरू हुई पुलसिया एवं सैन्य कार्यवाहियों के बीच इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ घरों..गाँवों से पूछताछ के नाम पर उठा किए गए नौजवान दिखाई देते हैं जो बाद में फिर ढूँढे से भी कभी नहीं मिले। उलटा नदी-नहरों..नालों में मार कर बहा दी गयी उनकी लावारिस लाशें बहती या फिर किनारे लग..सड़ती दिखाई दी। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी उपन्यास में कहीं पुलिस घरवालों..दोस्तों..रिश्तेदारों को जबरन धमकाती..उनसे गहने-लत्तों.. नकदी या फिर दुधारू पशुओं की उगाही करती नज़र आती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ खुद को खाड़कू कहने वाले, नौजवानों को बरगला कर उन्हें अपने साथ मिलाने का बकायादा प्रयास करते या फिर फिरौती के लिए अमीर घरों के बच्चों का अपहरण करते..उन्हें जान से मारते दिखाई देते हैं।

 इसी उपन्यास में कहीं खाड़कूओं के  द्वारा बसों से उतार कर निर्दोष मुसाफ़िरों को गोलियों से भून दिया जाता दिखाई दिया। तो कहीं अपने नौजवान बेटों की सुरक्षा को ले कर उनकी माएँ चिंतित एवं सहमी सहमी सी दिखाई दी। इसी उपन्यास में कहीं बढ़िया फसल के बीच खर पतवार के माफ़िक उग आए इन खाड़कूओं से पंजाब को मुक्त कराने की बात नज़र आती है। जिसके मद्देनज़र पुलिस, सेना और केंद्र सरकार के बीच इस बात को ले कर बिल्कुल भी अपराधबोध नहीं है कि उनकी इस मुहिम के बीच हज़ारों आम शहरी एवं ग्रामीण भी बेगुनाह होने के बावजूद मारे जाएँगे।

इसी उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ कहीं पुलिस शक की बिनाह पर मंदिरों और गुरुद्वारों की तलाशी लेती एवं शमशान जैसी जगहों को भी अपने ज़्यादतियों भरे फ़र्ज़ी एनकाउंटरों के तहत नहीं बख्शती कि सैंकड़ों बेगुनाह नौजवानों को वहीं गोली मार.. गुमनाम चिताओं के हवाले कर हमेशा हमेशा के लिए स्वाहा कर ग़ायब कर दिया गया। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में पुलिस और खाड़कूओं की दहशत आम आदमी में इतनी ज्यादा दिखाई देती है कि एक दूसरे को देख कर भी डरने लगते एवं एक दूसरे की मदद कर..आपस में एक दूसरे पर विश्वास करने तक से कतराते दिखाई दिए। 

इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है उन दोस्तों और अनजान भले लोगों की जिन्होंने कोई रिश्ता..कोई लगाव ना होते हुए भी मानवता के नाते गुरमीत को पुलिस के दिन प्रतिदिन बढ़ते कहर से बचाया..उसके छिपने..भागने..बचने में मदद की। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है उन सगे.. नज़दीकी नाते रिश्तेदारों की जिन्होंने पुलिसिया क़हर के आगे भयभीत हो घुटने टेक गुरमीत को शरण देने से इनकार किया या फिर खुद की तरक्की के लालच में उसकी मुखबिरी तक कर बैठे। 

इसी उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ कहीं खाड़कू अपने तुग़लकी फरमान के तहत बारात ले जा रही बस में से 11 आदमियों को छोड़ कर बाकी सभी का मुँह काला कर उन्हें धमकाते नज़र आते हैं कि उनके द्वारा जारी हुक्म के तहत बारात में 11 से ज़्यादा लोगों को ले जाने की मनाही है। तो वहीं दूसरी तरफ़ 
सड़कों..बाज़ारों..कस्बों और बसों इत्यादि में उनकी वजह से डरे सहमे हुए लोग नज़र आए। 

इसी उपन्यास में कहीं खाड़कू युवाओं को अपने रंग में रंगने का प्रयास करते दिखे तो कहीं खाड़कूओं और पुलिस के बीच फँस समूचे गांवों से नौजवान पीढ़ी ग़ायब होती दिखी। कभी पुलिस के बेरहमी भरे अत्याचारों और फर्ज़ी एनकाउंटरों की वजह से तो कभी ब्रेनवॉश के ज़रिए खाड़कूओं का मुरीद बन व्व स्वयं भी उनकी ही तरह कुत्ते की मौत मरते दिखे। 

इसी उपन्यास में कहीं अध्यापकों को खाड़कूओं द्वारा मार दिए जाने के बाद से डरी सहमी विद्यार्थियों की जमात में फेल होने का डर समाता दिखाई दिया। तो कहीं पगड़ी उतारने पर खाड़कू लोगों को मारने की धमकी देते तो कहीं पहनने पर पुलिस धमकाती नज़र आयी। इसी उपन्यास में कहीं नज़दीकी रिश्तेदार भी पुलिस के डर से अपने निकट संबंधियों को शरण देने के कतराते नज़र आए। 

अपने अंत तक पहुँचते पहुँचते यह मार्मिक उपन्यास मन में ये सवाल छोड़ जाता है कि..

इस पूरे घटनाक्रम या वाकये से आख़िर किसका फ़ायदा हुआ?

पंजाब में या तो पुलिस के हाथों आम लोग या फिर खाड़कूओं के हाथों अपह्रत होते या मारे जाते बेगुनाह लोग। इनमें से जिस किसी भी वजह से कोई मरा तो मरा तो वो पंजाबी ही।

धारा प्रवाह शैली में लिखे गए इस हर पल उत्सुकता जगाते..रौंगटे खड़े करते रोचक उपन्यास के सफ़ल हिंदी अनुवाद के लिए अनुवादक सुभाष नीरव जी भी बधाई के पात्र हैं। पूरे उपन्यास में दो चार जगह टाइपिंग एरर की ग़लतियाँ दिखाई दी। जिन्हें उम्मीद है कि अगले संस्करण में दूर कर लिया जाएगा।
 
यूँ तो यह दमदार उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि बढ़िया कागज़ पर छपे इस 200 पृष्ठीय दमदार उपन्यास के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 425/- रुपए । अमेज़न पर फ़िलहाल यह उपन्यास 350/- रुपए प्लस 50/- डिलीवरी चार्ज के साथ मिल रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आम हिंदी पाठक की जेब को देखते प्रकाशक जल्द से जल्द इस पठनीय उपन्यास का पैपरबैक संस्करण सस्ते दामों पर निकालेंगे। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक, अनुवादक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं। 

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