जिन्हें जुर्म ए इश्क पर नाज़ था- पंकज सुबीर

किसी भी तथ्यपरक कहानी या उपन्यास को लिखने के लिए गहन शोध की इस हद तक आवश्यकता होती है कि तमाम तरह की शंकाओं का तसल्लीबख्श ढंग से निवारण हो सके और उन तथ्यों को ले कर उठने वाले हर तरह के सवालों का जवाब भी यथासंभव इसमें समिलित हो।

ऐसे ही गहन शोध की झलक दिखाई दी जब मैनें पढ़ने के लिए प्रसिद्ध कथाकार पंकज सुबीर जी का उपन्यास "जिन्हें जुर्म ए इश्क पर नाज़ था" उठाया। इस उपन्यास में मुख्यत: कहानी रामेश्वर और शाहनवाज़ नाम के एक शख्स  के बीच आपसी स्नेह,विश्वास एवं भाईचारे से जुड़े रिश्ते की बॉन्डिंग की है। इसमें कहानी है शाहनवाज़ के परिवार के दंगों के बीच फँस जाने और उसमें से उन्हें निकालने की जद्दोजहद में फँसे रामेश्वर की। इसमें कहानी है शाहनवाज़ की अंतिम स्टेज की गर्भवती बीवी और उसके पेट में पल रहे बच्चे के जीवन मरण की।

इसी मुख्य कहानी के इर्दगिर्द घूमती कई और कहानियों एवं घटनाओं के ज़रिए हम जान पाते हैं कि यहूदी, ईसाई एवं इस्लाम धर्म  का उद्भव एक ही जगह से हुआ और इसके मूल में लगभग एक ही कहानी थोड़े बहुत फेरबदल के साथ अलग अलग नामों से प्रचलित है। मसलन....तीनों धर्म ही अपने जनक इब्राहिम को मानते हैं जो अब्राहम और अबराम के नाम से भी जाने जाते हैं। अबराम, जो कि आदम की उनीसवीं पीढ़ी से थे। उन्हीं की आने वाली नस्लों ने ये तीनों धर्म बनाए जो आज की तारीख में एक दूसरे के खून के प्यासे हैं।

दरअसल एक धर्म से जब दूसरा धर्म पैदा होता है तो पहले वाला उसका विरोध करता है और उसे दबाने के उद्देश्य से हत्याएँ तक करता है लेकिन नया धर्म पैदा हो कर ही रहता है। अब उसके सामनें पुराने धर्म का कोई मूल्य नहीं है तो उसे समाप्त करने का प्रयास करने लगता है। इसी तरह वैदिक धर्म में की जाने वाली मूर्ति पूजा के विरोध में बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म का उद्भव हुआ और मज़े की बात ये कि आज की तारीख में इन्हीं धर्मों में मूर्ति पूजा का ज़ोर है।

इस उपन्यास के द्वारा लेखक ने दंगे के कारणों एवं दंगाइयों की मनोवृत्ति तथा मानसिकता का बहुत ही सटीक चित्रण किया गया है। जहाँ एक तरफ सरकार की कोशिश होती है कम से कम नुकसान हो, वहीं दूसरी तरफ दंगाई ज़्यादा से ज़्यादा दहशत का माहौल बनाने की फिराक में होते हैं। इस उपन्यास में लेखक ने नाथूराम गोडसे, महात्मा गाँधी तथा मोहम्मद अली जिन्ना को आभासीय रूप से पुनः प्रकट कर उनका भी अपना अपना पक्ष सामने रखा है।

उपन्यास की भाषा में अच्छी खासी रवानगी है और आपको परत दर परत नए...अनसुने तथ्य एवं जानकारियाँ मिलती रहती है, इसलिए बड़ा उपन्यास होने के बावजूद भी आराम से पढ़ा जाता है। हालांकि कुछ जगहों पर मुझे थोड़ा सा बातों का दोहराव भी लगा लेकिन मेरे ख्याल से विभिन्न संदर्भों के अलग अलग रूप में पुनः लौट आने से ऐसा हुआ होगा। 

288 पृष्ठीय इस अच्छे..संग्रहणीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसको खरीदने के लिए आपको ₹200/- का मूल्य चुकाना होगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

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