रूपसिंह चन्देल की लोकप्रिय कहानियाँ- रूपसिंह चन्देल

मैं जब भी किसी कहानी संकलन या उपन्यास को पढ़ने का विचार बनाता हूँ तो अमूमन सबसे पहले मेरे सामने ये दुविधा उत्पन्न हो जाती है कि मैं किस किताब से अपने नए साहित्यिक सफ़र की शुरुआत करूँ? एक तरफ़ वे किताबें होती हैं जो मुझे अन्य नए/पुराने लेखकों अथवा प्रकाशकों ने बड़े स्नेह और उम्मीद से भेजी होती हैं कि मैं उन पर अपनी पाठकीय समझ के हिसाब से, किताब की खूबियों एवं ख़ामियों को इंगित करते हुए, कोई सारगर्भित प्रतिक्रिया अथवा सुझाव दे सकूँ। तो वहीं दूसरी तरफ़ मुझे अपनी ओर वे किताबें भी खींच रही होती हैं जिन्हें मैंने अपनी समझ के हिसाब से इस आस में खरीदा होता है कि उनसे मुझे कुछ ना कुछ सीखने को अवश्य मिलेगा। 

दोस्तों आज मैं प्रसिद्ध लेखक रूपसिंह चंदेल जी की चुनिंदा कहानियों के एक ऐसे संकलन की बात करने जा रहा हूँ। जिसका शीर्षक 'रूपसिंह चंदेल की लोकप्रिय कहानियाँ' ही उन कहानियों के जगप्रसिद्ध होने की बात करता है। बाल साहित्य..कहानियों और उपन्यासों से होती हुई इनकी साहित्यिक यात्रा अब तक 68 किताबों के आँकड़े अथवा पड़ाव को पार कर चुकी है और ये सफ़र अब भी जारी है। 

इसी संकलन की एक कहानी जहाँ उस ग़रीब..बेबस सरजुआ की बात करती है जिसे भारी ओलावृष्टि के बीच साहूकार रमेसर सिंह से उसके सभी अत्याचारों का बदला लेने का मौका उस वक्त मिल जाता है जब तूफ़ानी बारिश के बीच ठंड से कांपता रमेसर और वो एक ही पेड़ के नीचे खड़े होते हैं। मगर क्या सरजुआ अपने दीन ईमान को ताक पर रख कर उससे अपना..अपने पुरखों बदला ले पाएगा? तो वहीं एक कहानी अपने मूल में एक साथ कई समस्याओं को समेटे नज़र आती है। कहीं इसमें पूरा जीवन ईमानदार रह सादगी से अपना जीवन बिता रहे रघुनाथ बाबू की व्यथा नज़र आती है जो पैसे की तंगी के चलते अपनी पत्नी का ठीक से इलाज तक नहीं करवा सके। तो कहीं इसमे बच्चों की अवहेलना झेल रहे बुज़ुर्ग के किराएदार ही उसके मकान पर एक तरह से कब्ज़ा करने की फ़िराक में दिखाई देते हैं। कहीं पोते के तिलक में जाने के लिए तैयार खड़े रघुनाथ बाबू को उस वक्त निराश हो..घर बैठना पड़ता है कि उनके अपने बेटे को ही उन्हें बुलाने की सुध नहीं है। तो कहीं घर की शादी में घर का सबसे बड़ा बुज़ुर्ग भी नज़रअंदाज़ हो भीड़ में गुम होता दिखाई देता है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी एक तरफ़ अपने पिता के साथ बँधुआ मज़दूरी कर रहे उस मक्कू की बेबसी व्यक्त करती दिखाई देती है जिसका पिता पैसे ना होने की वजह से बिना इलाज मर जाता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ उसकी होने वाली बीवी, उस सावित्तरी की व्यथा कहती नज़र आती है जिसका मक्कू के मालिक का बेटा अपने दोस्तों एवं गाँव के पुजारी के साथ मिल कर बलात्कार कर देता है।

एक अन्य कहानी एक तरफ़ देश के महानगरों में ठगी के नए आयामों के साथ पुलसिया शह पर गुण्डों की बढ़ती दीदादिलेरे  की बात करती है तो दूसरी तरफ़ उन लोगों की भी बात करती नज़र आती है जो विपरीत परिस्थितियों में भी अपने सहज..सरल मानवीय स्वभाव को बदल नहीं पाते।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ भारत-पाक विभाजन के वक्त बड़े शौक से पाकिस्तान जा कर बसे व्यक्तियों की व्यथा व्यक्त कहती नज़र आती है कि उन्हें अब इतने वर्षों बाद भी अपना नहीं बल्कि पराया करार दे वहाँ मुहाजिर कहा जाता है। एक अन्य कहानी जहाँ एक तरफ़ विश्वविद्यालय में नियुक्ति को ले कर चल रहे सिफ़ारिश तंत्र और उसमें राजनैतिक हस्तक्षेप के बोलबाले की बात करने के साथ साथ बड़े लोगों द्वारा बिना मेहनत के भूत लेखन(घोस्ट राइटिंग) के ज़रिए झटपट नाम..शोहरत कमाने की इच्छा को परिलक्षित करती दिखाई देती है। इसी कहानी में कहीं स्वच्छ छवि वाले लोगों की उज्ज्वल छवि, धूमिल हो ध्वस्त होती दिखाई देती है तो कहीं कोई अपने उज्ज्वल अथवा सुरक्षित भविष्य की चाह में गलत बात के आगे भी घुटने टेक उसका समर्थन करता दिखाई देता है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी एक बूढ़े की व्यथा के रूप में सामने आती है जिसके होनहार.. वैज्ञानिक बेटे को आंदोलनकारियों का साथी होने के शक में सरकारी शह प्राप्त पुलिस द्वारा सरेआम बर्बरता से मार दिया गया है। तो वहीं एक अन्य कहानी पढ़ने लिखने की उम्र में, बीच किनारे सैलानियों के बीच घूम घूम कर छोटी छोटी वस्तुएँ बेच अपना पेट भरते गरीब बच्चों के माध्यम से पूरी सामजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था पर ग़हरा तंज कसती नज़र आती है। 

धाराप्रवाह लेखनशैली से सुसज्जी इस संकलन की कुछ कहानियाँ मुझे बेहतरीन लगीं। जिनके नाम इस प्रकार हैं..

*आदमख़ोर
*भीड़ में
*पापी
*हादसा
*हासिम का
*क्रांतिकारी
*ख़ाकी वर्दी
*मुन्नी बाई 

दो चार जगह वर्तनी की छोटी छोटी त्रुटियों के अतिरिक्त कुछ एक शब्दों में जायज़ होते हुए भी नुक्ते का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। साथ ही कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की कमी के चलते कुछ शब्द/वाक्य अधूरे या ग़लत छपे हुए भी दिखाई दिए। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 46 पर एक सिख किरदार, सतविंदर सिंह द्वारा बोले गए पंजाबी संवाद मुझे सही नहीं लगे। वहाँ लिखा दिखाई दिया कि..

"मैं ते पहले वी कया सी। होन नी की```।"

यहाँ 'होन नी की' की जगह 'होर नय्यी ते की' आएगा। 

इससे अगले पैराग्राफ़ में लिखा दिखाई दिया कि..

"येदे मम्मी डैडी ते छोटे भा अशोकनगर न रहंदे।"

यह वाक्य भी सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'एदे मम्मी डैडी ते छोटे भ्रा/प्रा अशोकनगर च रहंदे ने।"

इसके बाद पेज नंबर 65 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

*'मक्कू पैर पटकता लौट आया था अपनी झोपड़ी में। वह झोंपड़ी उसके बापू ने कुछ महीने पहले ही गाँव पंचायत से मिली ज़मीन पर बनाई थी, जब वह लौट कर आया, बापू काम पर जा चुका था। वह बेचैन सा झोपड़ी में पड़ा रहा'

आगे बढ़ने पर पेज नंबर 69 पर लिखा दिखाई दिया कि..

"कहना का बेटा, सावित्तरी के लिए ही रो रही थी बेचारी। वो तेरे साथ उसका बियाह-- मना मत करना, मक्कू। मैंने ओको हाँ कह दी है। बिन बाप की बेटी।" छत की कड़ियां गिनने लगा था बापू।

अब सवाल उठता है कि मक्कू के बापू ने तो पंचायत से मिली ज़मीन पर अपनी झोंपड़ी बनाई हुई थी जबकि बाद में कहा जा रहा है कि..मक्कू का बापू छत की कड़ियां गिन रहा था। यहाँ ग़ौरतलब है कि झोंपड़ी, फूस यानी कि सूखी घास/पुआल इत्यादि से बनती है जबकि कड़ी, कम से कम 4 इंच बाय 3 (4x3) या 4 बाय 4 (4x4) इंच अथवा 5 बाय 4 (5x4) इंच का  कम से कम 9-12 फुट  लंबा लकड़ी का सिंगल पीस होता है। जिन्हें 2 या फ़िर 2.5 फुट की दूरी पर कमरे के छत पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक लगाया जाता है और उनके ऊपर पत्थर के टुकड़े या फ़िर लकड़ी की फट्टीयाँ लगायी जाती हैं। इस तरह के मकान को झोंपड़ी नहीं बल्कि सैमी पक्का कहा जाना चाहिए। 

166 पृष्ठीय इस दिलचस्प कहानी संकलन के बढ़िया छपे पेपरबैक संस्करण को छापा है प्रभात पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए जो कि अगर थोड़ा कम रहता तो ज़्यादा बेहतर रहता। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

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