"व्यथा-ब्लैकिए की"
"काला धन्धा गोरे लोग"
***राजीव तनेजा***
मैँ आप से...हाँ!..आप से...आप सभी से पूछना चाहता हूँ कि...
क्या ऊपर उठना या...उठने की चाह रखना गलत है?
क्या उन्नति के ख्वाब देखना...और उन्हें पूरा करने की भरसक कोशिश करते हुए आगे बढना....
गुनाह है?...पाप है?...अपराध है?
अगर ये सब गलत है...सही नहीं है....तो मैँ दावे के साथ कह सकता हूँ कि दुनिया का हर इन्सान..हर आदमी गलत है।
उसकी सोच ...उसकी विचारधारा...उसका चिंतन गलत है।
क्या आप अपने परिवार को फलता फूलता देख खुशी से फूले नहीं समाते?
या आप में आगे बढने...ऊँचा...और ऊँचा उठने की चाह हमेशा कुलाँचे नहीं भरती?
अगर!..यही सब बातें...यही सब गुण मुझ में भी कुदरती तौर पर मौजूद हैँ...उपलब्ध हैँ...
तो इसमें गलत क्या है?...बुरा क्या है?
ठीक है!...माना कि जहाँ एक तरफ आपका चरित्र एकदम साफ-सुथरा...दूध का धुला...बेदाग है और ....
वहीं दूसरी तरफ मुझ पर आए दिन कोई ना कोई केस दर्ज होता रहता है...
कभी मिट्टी के तेल की कालाबाज़ारी का...तो कभी सरकारी गेहूँ को दुकानदारों को सप्लाई करने का
हाँ!...मैँ ब्लैकिया हूँ...और कालाबाज़ारी करना मेरा पेशा है।
मैँ मिट्टी के तेल से लेकर...गैस सिलैण्डर तक...हर उस चीज़ की कालाबाज़ारी करता हूँ...जो डिमांड में होती है...माँग में होती है।
क्या कहा?...कानूनन जुर्म है ये?
हुँह!...जुर्म है....
है तो होता रहे ....मुझे परवाह नहीं।
आज इसी वजह से मैँ अच्छा खा रहा हूँ...अच्छा पी रहा हूँ...अच्छा पहन रहा हूँ...अच्छा ओढ रहा हूँ...
तो आप सबको मिर्ची लगने लगी?
उस वक्त कहाँ थे आप?....
जब मैँ...मेरा परिवार बाज़ार में छाई गलाकाट प्रतियोगिता के चलते फैली मंदी के कारण कई काम बदलने के बावजूद भुखमरी की कगार पे था?
मरता...क्या ना करता वाली कँडीशन थी मेरे सामने।....
बच्चे पालने के लिए जो रास्ता सही लगा..आसान लगा...उसी को अपनाता चला गया
तो क्या बुरा किया मैँने?
अब कुछ गिने-चुने सरफिरे लोग .....या चन्द पागल इसे गलत कहें...सही नहीं समझें...
तो ये उनके दिमाग का कसूर है...मेरे दिमाग का नहीं।
मैँ कभी आप के आगे हाथ-पाँव जोड़ के विनति नहीं करता कि आप मेरे पास आ के अपनी जेबें ढीली करवाएँ।
आप खुद अपनी गर्ज़ के चलते सौ-सौ धक्के खाने के बाद मेरी शरण में तब आते हैँ...
जब आप अपने नकारा सरकारी सिस्टम की पूरी तरह निराश हो चुके होते हैँ..हताश हो चुके होते हैँ।
और ये कहाँ की भलमसत है कि आप मेरी शरण में आएँ और मैँ आपको दुत्कार दूँ?...या बेइज़्ज़त कर के भगा दूँ?
शास्त्रों में भी लिखा है कि 'शरणागत' की रक्षा करना...उसका भला करना...धर्म का काम है ...पुण्य का काम है।
तो ऐसे में मुझ जैसा धर्मभीरू आदमी भला अपने फर्ज़ से कैसे मुँह मोड़ ले?...
या किसी को परेशान देख...दुखी देख...अपनी आँखें मूंद ले?
आप कहते हैँ कि ये सिलैण्डरों की अल्टा-पलटी रिस्की काम है।
तो मेरे दोस्त!...ये बताओ कि रिस्क कहाँ नहीं है?....किस काम में नहीं है?...
आराम से अपनी राह चलते बन्दे भी बिना कसूर....बिना गलती के सिर्फ पाँव भर फिसलने से ही मरते देखे हैँ मैँने।
ठीक है!...कई बार बड़े से छोटे सिलैण्डर में गैस भरने के दौरान ना चाहते हुए भी हादसे हो जाया करते हैँ।...
इसमें चोट-चाट भी लग लगा जाती है और....
अब इसे वर्कलोड ज़्यादा होने के कारण कह लो या फिर...लापरवाही कह लो कि. ...
कई बार गैस वगैरा के लीक हो जाने से आग-वाग भी लग जाती है।
जिससे सिलैण्डरों के फटफटा जाने का खतरा भी हर हमेशा बना रहता है लेकिन ऐसा रोज़ थोड़े ही होता है?
ये तो जब 'टैंशन' के चलते कभी बीड़ी-बाड़ी की तलब उठती है और बिना सूट्टा मारे रहा नहीं जाता है तब...
अब महीने दो महीने में एक-आधा विरला केस अखबारों में सुर्खियों बन छा भी गया तो इसमें ना तो घबराने की ज़रूरत है और...
ना ही हाय-तौबा मचाने की।
वैसे तो हम लोगों की पूरी कोशिश रहती है कि ऐसी खबरें लीक ना हों और इन सब बातों से पब्लिक में घबराहट ना फैले...'पैनिक' ना फैले लेकिन...
फिर भी यदि कोई तेज़ तरार मीडिया पर्सन सूँघसाँघ के मामले की जड़ तक पहुँचने की कोशिश करता भी है तो उसे ले दे के चुप करा लिया जाता है।
हाँ!...थोड़ी बहुत...माड़ी-मोटी दिक्कत तब पेश आती है जब कोई जागरूक नागरिक ऐसे मामलों को उठाने की कोशिश करता है।
तब रिश्वत के चलते बिकी हुई पुलिस अपना जलवा दिखा उसे किसी ना किसी तरीके शांत कर देती है।
लेकिन गाहे-बगाहे कोई ना कोई ऐसा अड़ियल निकल ही बैठता है जिस पर....
पैसे का...प्यार का..लाड़ का...दुलार का...दबाव का कोई असर ही नहीं होता है।
तो ऐसे में कई बार फर्ज़ी केस कास भी दर्ज करने कराने पड़ जाते हैँ इन अड़ियल टटुओं को सीधा करने के लिए।
ऐसा करना इसलिए भी निहायत ज़रूरी होता है कि बाकी के लोग इस सब से सबक लें और इधर-उधर ताका-झाँकी के बजाए अपने काम से काम रखें।
मानता हूँ कि आपके लिए आँखोंदेखी मक्खी निगलना कष्टकर होता है...मुश्किल होता है...रुचिकर नहीं होता है।
ये भी जानता हूँ कि Rs.305 के माल के Rs.600 वसूलना गलत है..पाप है।
दिल मेरा भी इस सब के लिए गवाही नहीं देता है लेकिन....दोस्त!..मैँ करूँ भी तो क्या करूँ?...
पेट मेरे साथ भी लगा हुआ है...बच्चे मैँने भी पालने हैँ।
और फिर मैँ तो थोड़े से ही पेट भर लूँ...गुज़ारा कर लूँ।
लेकिन क्या करूँ इस दिन प्रतिदिन बढती मँहगाई का?
आराम से...शांति से...चैन से...जीने ही नहीं देती।
हो सकता है कि आपको मेरे ये 'लोजिक'...मेरे ये तर्क बेकार के...बेफाल्तू के लग रहे हों लेकिन...
कुछ खबर भी है आपको कि आजकल 'इंग्लिश'की बोतल कितने में आती है?
या'स्पाईसी'वाले ने ही पिछले दो महीनों में 'बटर चिकन'के दाम कितनी बार बढा दिए हैँ?
ऊपर से ये 'रोज़ी'की रोज़ की किचकिच....
उल्लू की पट्ठी!..'फुल नाईट' के लिए तीन हज़ार से कम में मानती ही नहीं।
बारगेनिंग करने की ज़रा सी भी कोशिश करो तो आँखे दिखा मिनट भर में ही बना बनाया मूड खराब कर सारा का सारा सुरूर उतार देती है।
जानता हूँ!...जानता हूँ मैँ कि पीने-पिलाने से सेहत खराब होती है और....
दुनिया भर के सर्वे भी यही बताते हैँ कि शाकाहारी मनुष्य को माँसाहारी की अपेक्षा बिमारियाँ कम पकड़ती हैँ...
वो ज़्यादा दिन जीता है।...
तो मेरे दोस्त!...ज़्यादा जीना ही कौन चाहता है?
ये भी 'टीवी'...'अखबार'...और 'रेडियो'के जरिए जान चुका हूँ कि इधर-उधर मुँह मारना...
एडस बिमारी के चलते सीधे-सीधे मौत को दावत देने के बराबर है लेकिन कोई यही सब भाषण जा के मेरी बीवी को क्यों नहीं पिलाता?...
जिसे मेरी भावनाओं की...मेरी इच्छाओ की कोई कद्र नहीं है।
वैसे एक बात बताऊँ?...
अगर आप सब की नेक सलाहों के चलते मैँ ना चाहते हुए भी इन सारे ऐबों से दूरी बना लूँ तो भी कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला है क्योंकि..
इस सड़ांध मारते बदबूदार सिस्टम की मैँ बहुत छोटी सी...अदना सी मछली हूँ।
ये सोचो कि इन बड़े मगरमच्छों से कौन बचाएगा तुम्हें?
लोडर से लेकर गेटकीपर तक...डिलीवरी ब्वाय से लेकर चपरासी तक...
यहाँ तक कि काऊँटर पे बैठ पर्ची काटने वाली रिसैपश्निस्ट भी सूखी-सूखी खाली हाथ घर नहीं जाना चाहती।
उसे भी फी पर्ची कम से कम पैंतीस रुपए चाहिए होते हैँ।
इनमें से कोई भी हर महीने बीस से पच्चीस हज़ार बनाए बिना नहीं छोड़ता।
खैर!..इनकी छोड़ो...ये सब तो नौकर आदमी हैँ...कमाने-खाने के लिए ही सुबह से लेकर शाम तक उल्टी-सीधी मगजमारी करते रहते हैँ।
लेकिन खुद एजेंसी मालिक तक हम ब्लैकियों को शह देते हैँ और कुछ फाल्तू रुपयों के लालच में बोगस पर्चियाँ काट-काट हमारी हथेलियों पे धरते हैँ कि
जाओ!..गोदाम से उठवा लो सिलैण्डर...जितने चाहिए।
"वो बेचारा भी आखिर क्या करे?"...
ऊपर से नीचे तक कई करोड़ स्वाहा करने के बाद तो उसने बड़ी मुश्किल से गैस ऐजैन्सी हासिल की है।
दोस्त!...किस-किस को कोसोगे तुम?....किस-किस से लड़ोगे तुम?
इस हमाम में सभी नंगे हैँ।
अब किस-किस को दोष दे ये 'राजीव'...जब खुद अपनी राज्य सरकारें ही इस कालाबाज़ारी में लगी हुई हैँ।
अब आप चौंकेंगे कि राज्य सरकारें?...और काले धन्धे में?
जी हाँ मेरे दोस्त!...राज्य सरकारें।
अब आपके चौखटे पे एक और सवाल मँडराएगा कि ..."कैसे?"
तो वो ये कि..ये जो राज्य सरकारों की रजिस्ट्रेशन अथारिटियाँ गाड़ियों के 'वी.आई.पी'नम्बरों की 'ब्लैक'करती है....वो क्या है?
अब आप जैसे कुछ एक दिमागदार महानुभाव कहने को ये भी कह सकते हैँ कि सरकार ब्लैक में नहीं बल्कि 'प्रीमियम' पर नम्बर बेचती है।
तो बन्धु मेरे!..ये प्रीमियम आखिर है किस चिड़िया का नाम?
सच्ची बात तो ये है कि ये भी खुलेआम लूट का ही एक तरीका है...
बस!..इस सरकारी लूट को जायज़ ठहराने के लिए इसे 'ब्लैक' या 'कालाबाज़ारी' का नाम ना देते हुए 'प्रीमियम' का नाम दे दिया गया है।
आप खुद ही बताएँ कि'वी.आई.पी'नम्बर मिलने के बाद आप की गाड़ी में कौन से सुर्खाब के पर लग जाते हैँ?
क्या ये तथाकथित 'वी.आई.पी' नम्बर मिलने के बाद गाड़ियाँ 'पैट्रोल' या 'डीज़ल' की जुगलबन्दी छोड़ पानी के सहारे लैफ्ट-राईट करना शुरू कर देती है?
या फिर ये देश की खस्ताहाल सड़कों पे हिचकोले खाने के बजाए आराम से हवा में उड़ते हुए आपको जन्नत की सैर कराने में जुट जाती है?
नहीं ना?
फिर ऐसी कौन सी अनोखी बात हो जाती है 'वी.आई.पी'नम्बर मिल जाने से?
अरे!...जिस प्रकार हमें तुम्हें हमारे माँ-बाप नाम देते हैँ पहचान के लिए...ठीक वैसे ही गाड़ियों को नम्बर दिया जाता है
कि फलाने-फलाने नम्बर से ये जाना जा सके कि फलानी फलानी गाड़ी किसके नाम से...किस पते पर रजिस्टर्ड है?....
इसका वली-वारिस कौन?...मालिक कौन है?...वगैरा..वगैरा
हाँ!...इतना तो मैँ भी मानूँगा कि 'वी.आई.पी'नम्बर की गाड़ी देखने के बाद वो अफसर या पुलिसवाले जिनका ज़मीर बिक चुका है..
आपको सलाम बजाने के वास्ते सावधान मुद्रा में ज़रूर खड़े हो जाते होंगे।
मुझे तो यही लगता है कि 'वी.आई.पी' नम्बरों की चाह सिर्फ उन्हें ही होती है जो गलत काम करते हैँ...
हाँ!..कुछ एक अमीरज़ादे...जिनका ताज़ा-ताज़ा बाप मरा होता है ...
अपने को भीड़ से अलग...औरों से जुदा दिखाने के चक्कर में ऐसे नम्बरों को हासिल करने के लिए दिल खोल के पैसा खर्च करने से भी नहीं चूकते।
अब तो सरकार की देखादेखी मोबाईल कम्पनियाँ भी इस कालाबाज़ारी के धन्धे में उतर चुकी हैँ और धड़ाधड़ मुनाफे पे मुनाफा कूट रही हैँ।
जब से इनके नोटिस में ये बात आई कि कुछ खास तरह नम्बरों को पाने के लिए लोगबाग ज़्यादा उत्सुक्त दिखाई देते हैँ....
अपने शौक के चलते अलग से पैसे देने को तैयार रहते हैँ।
तो उन्होंने भी अपना दिमाग लड़ाया और खुली ऑक्शन के जरिए अपने 'वी.आई.पी'नम्बरज़ को बेचना शुरू कर दिया।
चलो...उनका तो काम है...हर जायज़-नाजायज़ तरीके से पैसा कमाना लेकिन पब्लिक को तो सोचना चाहिए।
आखिर!..क्या मिल जाएगा उसे कोई खास...तथाकथित'वी.आई.पी' नम्बर हासिल करके?
क्या'वी.आई.पी' नम्बर पाने के बाद वो सचमुच में 'वी.आई.पी'बन जाएगा?और उसकी गिनती...
'बिग.बी....रजनीकाँत और ऐश्वर्या के साथ होने लगेगी?...
या फिर 'वी.आई.पी' नम्बर हासिल करने के बाद उसकी'सोनिया गाँधी'...'जार्ज बुश'...और 'ओसामा बिन लादेन'से...
डाईरैक्ट हॉटलाईन जुड़ जाएगी?ताकि...
वो जब चाहे किसी भी ऐरे-गैरे...नत्थू-खैरे को को प्रधानमंत्री बनवा अपनी उँगलियों पे नचा सके..
या फिर जिस मर्ज़ी देश को अपनी धौंस...अपनी दादागिरी दिखा ..उसके तेल के कुओं पे कब्ज़ा जमा सके...
या फिर जब मर्ज़ी किसी भी देश पर कायरतापूर्ण आंतकवादी हमला कर उसके ट्रेड सैंटर को गिरवा सके?
"दोस्त!...ना ऐसा कभी हुआ है और ना ही कभी ऐसा होने की उम्मीद है।
अगर सरकार सच में आवाम का...पब्लिक का भला चाहती है तो क्यों नहीं अँकुश लगाती हम पर?
क्यों अपनी सड़ी-गली नीतियों को दुरस्त नहीं करती?
सब जानते हैँ कि शार्टेज की वजह से होती है ब्लैक...तो क्यों नहीं ज़रूरी चीज़ों की पूर्ति बढाती?
क्यों इस्तेमाल होने दिया जाता है लाल सिलैंण्डरों का घरेलू इस्तेमाल के अलावा दूसरे कामों में?
सब जानते हैँ कि सौ में से अस्सी-नब्बे परसैंट तक फैक्ट्रियाँ डोमैस्टिक वाले लाल सिलैण्डर से ही अपना काम चलाती हैँ।
बची खुची पाँच से सात परसैट फैक्ट्रियाँ ही असल में कमर्शियल सिलैण्डरों का प्रयोग करती हैँ।
और ध्यान देने की बात है कि इस 'कमर्शियल सिलैण्डर' के इस्तेमाल में भी लोचा है।
दरअसल गलाकाट पर्तियोगिता के चलते सबको अपनी लागत कम करने की पड़ी होती है।...
ऐसे में मँहगा वाला 'कमर्शियल सिलैण्डर' इस्तेमाल कर के कोई अपने खर्चे बढाए भी तो क्यों?
इसलिए फैक्ट्री वाले...होटल वाले...थोड़ी ईमानदारी बरतते हुए इस्तेमाल तो कमर्शियल सिलैण्डर ही करते हैँ लेकिन...
उनमें हम जैसे ब्लैकियों से लाल सिलैण्डर की अलटा-पलटी करवा लेते हैँ।
अब आप पूछेंगे कि इस बेकार की मगजमारी से फायदा?
अरे!...इस अलटा-पलटी में फैक्ट्री वाला ही कम से कम Rs.500 बचा जाता है क्योंकि जहाँ एक तरफ सब्सिडी के चलते...
14 kg.के लाल सिलैण्डर का दाम Rs.305 है...
वहीं दूसरी तरफ सरकार की बेवाकूफी के चलते 19Kg.के कमर्शियल सिलैण्डर के दाम Rs.1400 रखा गया है।
हिसाब लगाओ तो कमर्शियल सिलैण्डर में लाल वाला डेढ सिलैण्डर तक घुस जाता है।
तो इस हिसाब से ब्लैक के पैसे जोड़ने के बाद खरीदार को (Rs.305)वाला लाल सिलैण्डर (Rs.600)का पड़ता है
तो डेढ सिलैण्डर के हो गए (Rs.600+Rs.300=Rs.900)
याने के शुद्ध लाभ हो गया पूरे (Rs.1400-Rs.900=Rs.500)का।
सरकार सोचती है कि सब्सिडी देने से लोगों का भला होगा लेकिन इस सब से लोगों का नहीं हम जैसों का भला होता है।
अगर सही में ईमानदारी से सरकार हमारे वजूद...हमारे अस्तित्व को खत्म करना चाहती है...हमें नेस्तनाबूत करना चाहती है तो...
सबसे पहले सब्सिडी को खत्म करे और उसके बाद सप्लाई को बढाए...और चीज़ों के दाम जायज़ रखे।
"क्यों?...है कि नहीं?
"जय हिन्द"
"भारत माता की जय"
***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
Delhi(India)
http://hansteraho.blogspot.com
+919810821361
+919896397625
6 comments:
थक गये मगर पढ़ लिया...मजा आया. Size doesn't matter... छोटा ही बेहतर रहेगा. जरा सईज घटाने की सोंचे अपने आलेख की. हा हा :)
आप ये नया नया विषय कहा से ले आते हो
अब सब्सिडी
वैसे ये सेल और इस तरह के चोंचले सिर्फ़ जनता हो बेवकूफ़ बनाने के लिए ही हैं
बहुत अच्छा लगा सुबह सुबह आपसे मिल कर
बड़ा है तो बेहतर है. ;)
यार राजीव इन ब्लकिये की पो बाहर रहती है। बस मौका हाथ आना चाहिए। अच्छा लिखा है। वी आई पी नम्बर से याद आया आजकल एक एड आ रही है धोनी की। उसको भी देखना।
राजीव जी
आपने बहुत बढि़या व्यंग्य लिखा और जिस तरह इसमें विभिन्न विषय उठाये हैं वह सराहनीय है। सच तो यह है कि आजकल पूरा बाजार ही काला हो गया है। इस पर एक क्षणिका कहने का मन आया सो प्रस्तुत है।
दीपक भारतदीप
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बाजार भी भला कभी
काले और सफेद होते
सौदागर की नीयत जैसी
वैसे ही उसके नाम होते
छिपकर कोई नहीं करता अब
हर शय के सौदे सरेआम होते
खरीददार की मजी नहीं चलती
सफेद बाजार में माल नहीं मिलता
काले सौदे पर भी सफेद होने के प्रमाण होते
चाहे दूने और चौगुने दाम होते
........................
चौगुने दाम और मीठे आम
वो भी कर देते हैं मिठास गायब
मिठास चाहे आम की हो
या आम के लिए हो
ब्लैक में भी मिठास होती है
जिसको मिलती है
उससे पूछ कर देखो
न मिले तो देखो
करेला हो जाती है.
वैसे इस लेख में शास्त्र,
तथ्य, महंगाई, पेट
मतलब हर तरह के गेट
के गेट ओपन कर दिए हैं.
इन पर ताले कौन
और कैसे लगाएगा .
अगर इन पर लग गए ताले
वो लिखने वाले क्या लिखेंगे
सिर्फ व्हाईट पर लिखने से
तो आनंद भी नहीं आएगा
न ही अच्छा लगेगा चित्र.
पर इस व्यथा में भी
जिसकी कथा है
जिससे जुड़ी कथा है
वो अकथनीय नहीं रही है.
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