"ना हींग लगी ना फिटकरी...रंग चढा चोखा ही चोखा"



"ना हींग लगी ना फिटकरी...रंग चढा चोखा ही चोखा"

***राजीव तनेजा***




"शर्मा जी मुबारक हो"....

"लालू ने इस बार बजट बड़ा ही धांसू पेश किया है".....

"बिना लड़े ही ज़्यादातर विरोधी पहले फटके में ही चारों खाने चित्त"मैँ ट्रेन में चढते वक्त शर्मा जी से बोला


"अजी काहे का धांसू बजट?"मेरे पीछे पीछे आ रहे गुप्ता जी बोले

"सब आँकड़ों का खेल है...

"दरअसल!...खोखले मुनाफे का ऐसा मकड़जाल बुना है हमारे चारों तरफ लालू ने कि उनके बजट की असलियलत जानने में ही कई महीने लग जाएंगे"...

"और जान पाएं...इसकी भी कोई निश्चित गारंटी नहीं"


"बेटा!..दरअसल सच्चाई तो ये है कि तब तक इलैक्शन हो चुके होंगे और...

जो मलाई इस सब से मिलनी होगी उसे तब तक आराम से लालू चाट चुका होगा"शर्मा जी अपना बैग ऊपर वाली बर्थ पे रखते हुए बोले

"बड़ी भोली है हमारे देश की जनता...ऊपर से इसकी भूलने की बिमारी...बस!...तौबा ही तौबा"...


"हम्म!...इसका मतलब कि कुनैन की कड़वी गोली के माफिक सच्चाई ये है कि. ...

हज़ारों करोड़ के मुनाफे वाली भारतीय रेलेवे अपनी मूल संपत्ति से भी हाथ धो बैठेगी?"मैँ बात को समझने की कोशिश कर रहा था


"बिलकुल..."...

"मायवी इन्द्रजाल दिखा सबको उल्लू बना दिया गया है"शर्मा जी दार्शनिक अंदाज़ में बोले...


"बाप रे!....ऐसा तगड़ा 'इल्यूज़न' कि...पूरा देश एक ही वार में बावला हो उठा...बाप रे..."मेरे चेहरे पे हैरत का भाव था


"पुराने खेल है ये उनका...तजुर्बेकार खिलाड़ी जो ठहरे"...

"जानते जो हैँ कि पब्लिक रूपी गेंद को कैसे अपने पाले में किया जाता है" गुप्ता जी ज़रा सी जगह मिलती देख झटके से सीट कब्ज़ाते हुए बोले

"जो भी वायदे किए हैँ उन्होंने...आने वाले दस साल तक तो पूरे होने से रहे"


"वो कैसे?"मेरे चौखटे पे प्रश्न मंडरा रहा था ...


"वो ऐसे...कि खुद रेलेवे वालों को ही नहीं पता है कि कौन सी ट्रेन पापुलर है और कौन सी अन-पापुलर"


"उस से क्या फर्क पड़ता है?"मैँ अज्ञानी गुप्ता जी का चेहरा पढने की कोशिश कर रहा था


"फर्क ये पड़ता है मेरे लाल!...कि. ...

जो सात परसैंट(7%) की छूट मिलनी 'ए.सी.' ट्रेन में सफर करने वालों को ...वो सिर्फ और सिर्फ पापुलर ट्रेनों को ही मिलनी है"


"और वो भी पूरे साल नहीं...सिर्फ तीन महीने"गुप्ता जी के बजाय शर्मा जी मेरा ज्ञान बढाते हुए बोले...



"यानि के कुल छूट कितनी?"..

"सिर्फ तीन परसैंट(3%)"मैँ मन ही मन गणितीय हिसाब किताब लगा खुद ही अपने सवाल का जवाब देता हुआ बोला


"हाँ!...बाकि साल पूरे पैसे भरने हों तभी 'ऐ.सी' ट्रेन में सफर करने के सपने देखो" गुप्ता जी बोले


"लेकिन!.. मैँने तो सुना है कि महिलाओं का खास ख्याल रखा है इस बार लालू ने"मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था


"माँ दा सिर्र!...ख्याल रखा है"...

"अब इसे ही लो!..ये भी कोई तुक हुई कि साठ साल से ऊपर की महिलाओं को ट्रेन में मुफ्त सफर"...

"अब कोई लालू से पूछे कि...बुढापे की उनकी ये उम्र...भजन-कीर्तन की है या रेलगाड़ियों में मौज करने की?"

"सब वोटों की राजनीति है...राजनीति"शर्मा जी भड़क उठे...


"इसका मतलब!...करना कराना कुछ है नहीं...बस यूँ ही फोकट में सीधा घर की चौधराईन की भावनाओं पे चोट कर डाली?"मैँ असमंजस में था ...


"अब तो सभी औरतों के वोट पक्के ही पक्के समझों"....

"ज़रूर राबड़ी से राय ली होगी इसकी"काफी देर से चुप अनुराग भी हमारी बातचीत में शामिल हो चुका था


"बढिया है...इसी बहाने कम से कम अपने को 'थर्टी प्ल्स' से ऊपर ना जाने देने वाली औरतें...अपनी सही उम्र तो उगलेंगी"शर्मा जी हँस पड़े


"सवाल ही नहीं पैदा होता...मरती मर जाएंगी लेकिन....अपनी असली उम्र?"...

"कभी नहीं!....कभी नहीं"मैँ औरतों के माफिक कमर हिला मुँह बनाता हुआ बोला


"हा...हा...हा "मेरी बात सुन बोगी में बैठे सभी यात्रियों के चेहरे पे हँसी खिल उठी...सिवाय साथ बैठी मैडम के"

"उन्हें अपनी तरफ घूरता देख मुझे पता नहीं क्या सूझी और मैँने उनके साथ खाली पड़ी सीट पे झट से अपना बैग रख दिया"


"रिज़र्वड सीटे है ये"....


"तो हम भी कौन सा इसे अपने साथ लिए जा रहे हैँ?"गुप्ता जी भी मौका ताड़ ऊपर वाली बर्थ पर चढते हुए बोले


"अरे भईय्या!...ऊपर मत बैठो...काँच का सामान है... टूट जाएगा"साथ वाली सीट पर बैठे सज्जन बोल पड़े


"आप चिंता ना करें ...कुछ नहीं बिगड़ेगा"गुपा जी उसका झोला साईड में करते हुए बोले...

"बस आधे घंटे का ही सफर है"....

"थोड़ा एडजस्ट तो करना ही पड़्ता है"...


"लुधियाना के चले...अभी तक एडजस्ट ही तो करते आ रहे हैँ"...

"कभी इसके साथ तो कभी उसके साथ"....

"हर कोई घंटे..आधे घंटे की कह कब्ज़ा जमा लेता है"....

"कोई फायदा नहीं हुआ स्लीपर में टिकट बुक करवाने का....

इससे तो अच्छा था कि बस में ही सफर कर लेते"वो मैडम बुरा सा मुँह सा बनाते हुए बोली


"टिकट है आपके पास?'...

"एम.एस.टी है"....

"एम.एस.टी'...माने?"

"डेली पैसैंजर हैँ मैडम जी...हम लोग"...

"आप तो एक दिन का टिकट ले चौड़ी हो रही हैँ यहाँ हम तो तीन महीने का एडवांस दे 'पास' लिए बैठे हैँ"...

"ये देखो...."मैँ जेब से पर्स निकाल पास दिखाता हुआ बोला"


"आपका 'पास' क्या अलाउड होता है स्लीपर में भी?"मैडम हमारी तरफ देखते हुए बोली


"जी!....जी नहीं...होता तो नहीं है लेकिन मैंनैज हो ही जाता है किसी तरीके से ...


"जब आपका 'पास' अलाउड नहीं होता है तो क्यों घुसे चले आते हो स्लीपर में बेवजह बाकियों को तंग करने के लिए?"...

"अपना जनरल डिब्बे में सफर करो आराम से"मैडम बड़बड़ाई


"सही कह रही हैँ मैडम जी आप!....सफर ही तो कर रहे हैँ हम"

"बस आप उर्दू वाला सफर कर रही हैँ और. ..

हम अँग्रेज़ी वाला सफर(Suffer) कर रहे हैँ....यानि के कष्ट झेल रहे हैँ"मैँ अपना अँग्रेज़ी ज्ञान बघारता हुआ बोला


"आपका तो गाहे-बगाहे आना-जाना होता है ट्रेन में.....थोड़ा कष्ट सह लेंगी तो कोई आफत नहीं टूट पड़ेगी"शर्मा जी ने मेरी बात में साथ दिया


"हमसे पूछो....कि कैसे हमारे दो घंटे सुबह...और दो घंटे...शाम को ट्रेन में बेतरतीब हिचकोले खाते गुज़रते हैँ"ऊपर वाली बर्थ से गुप्ता जी बोले....

"कई बार तो खड़े-खड़े ही कब पानीपत से दिल्ली आ जाती है....पता भी नहीं चलता"

"खड़े-खड़े कमर का कूंड्डा होना तो रोज़ की बात है"...

"थोड़ी देर के लिए बस कमर भर टिकाने को जगह मिल जाए...यही बहुत है हमारे लिए"...गुप्ता जी ऊपरी बर्थ पे पसरते हुए बोले

"बस कुछ यूं समझ लो कि घर तो हम बस सोने के लिए ही जाते हैँ" वो उबासी लेते हुए बोले


"क्या करें?...दिल्ली के बाशिन्दे होने के बावजूद हमारा दाना-पानी जो यहाँ हरियाणे में लिखा है"अनुराग उदासी भरे चेहरे से मैडम को देखता हुआ बोला


"ठीक है...बैठ जाओ"...मैडम को शायद अनुराग पे तरस आ गया था


"स्साला!...नौटंकी कहीं का...कोई मौका हाथ से जाने नहीं देता"मैँ मन ही मन बड़बड़ाया


"सभी धक्के खा रहे हैँ...कोई नौकरी बजाने के चक्कर में...तो कोई छूटती नौकरी बचाने के चक्कर में"...

मैडम का सुन्दर चौखटा देख दहिया भी कहाँ पीछे रहने वाला था ...


"तो कोई हम जैसा दिल्ली से सीलिंग की मार झेल कर आया है"मैँ बातचीत में खुद को पीछे छूटता देख झट से बोल पड़ा....


"आपको हमारे चेहरे खिलखिलाते दिख रहे हैँ लेकिन अन्दर ही अन्दर हम जानते हैँ कि हमारे साथ क्या बीत रही है"

"कोई भी तनाव से मुक्त नहीं है....किसी को कोई टैंशन...तो किसी को कोई"अनुराग लगातार मैडम को पटाने की कोशिश में था


"बस!...हमारे इस राजीव को छोड़ कर...इसे कोई टैंशन नहीं..."शर्मा जी मेरी तरफ इशारा कर हँस दिए....


"हुँह!...टैंशन नहीं...अब ये बैठा बैठा अनुराग क्या दे रहा है?" ....

"टैंशन ही ना...?"मैँ अन्दर ही अन्दर खुद से बोल रहा था


"खैर...जो भी हो...बातों बातों में माहौल तो हँसी खुशी वाला हो ही चुका था"

"सो!...हम सभी खुल के मैडम से इधर-उधर की बतियाने में जुट गए"


"आपको हर किस्म..हर तबके के लोग मिलेंगे हमारे बीच में"....

"एक से एक हाई-फाई जैंटलमैन और...एक से एक लफूंडर छाप भी"दहिया बोला...


"अब इसी को देख लो....'शास्त्री' नाम है इसका....कहने को तो संस्कृत का अध्यापक है लेकिन...

आपको किसी भी एंगल से ये अध्यापक दिख रहा है?"दहिया हँस पड़ा


"नहीं ना?"...


"ये लेटेस्ट फैशन से कटे बाल"...

"ये तंग मोरी की टाईट जींस"...

"ये गले में रंगबिरंगा स्कार्फ"...

"ये परफ्यूम और आफ्टर शेव की खुश्बू"मैँ शास्त्री की तरफ इशारा कर स्टाईल मारता हुआ बोला


"क्यों खिंचाई करने पे तुले हो यार?"शास्त्री सकपकाता हुआ बोला..


"देखो!...देखो..कैसे ये शास्त्री बेचारा... झेंपता हुआ चुपचाप अगली बोगी की तरफ जा रहा है"

"आज ना जाने क्या हुआ है इसे?"...

"उस दिन तो बड़ा खम ठोक के कह रहा था कि उसे ज्योतिषी ने बताया है कि...

उसके हाथ में अय्याशी की रेखा है"...


"खैर!..छोड़ो इस बात को...कोई और बात करो"...

"चलो शुक्र है कि... मैडम जी का मूड तो ठीक हुआ"मैडम जी के चेहरे पे मुस्कान देख मैँ मस्का लगाता बोल पड़ा


"कहने को तो लालू जी कह रहे हैँ कि अगले पाँच सालों में...

वो रेलेवे में पूरे एक लाख करोड़ रुपए का निजी निवेश लाएंगे"गुप्ता जी पुरानी बात पे वापिस आते हुए बोले

"साफ है!..रेलवे की बेशकीमती ज़मीन कौड़ियों के भाव अपनों के वारे न्यारे किए जाएंगे"


"तो क्या?...लालू के अपनों के पास अतना पईस्सा है?"मेरी आवाज़ में बिहार की टोन आ चुकी थी


"अरे बुद्धू!...जो पईस्सा खिलाए...वही अपना"गुप्ता जी भी कौन सा कम थे? ..उन्होंने भी उसी तर्ज में जवाब दिया


"ये समझ लो कुल मिला के कि...डुगडुग्गी बजा दी है लालू जी ने" ....

"अब जनता को घर बईठे...घर(रेलवे)फूंक... तमाशा दिखाया जाएगा"

"तैईआर रहिएगा"...


"कहने को उन्होंने मन को लुभाने वाले इस बजट में कई वायदे कर दिए हैँ जैसे 'डिस्चार्ज फ्री ग्रीन टायलेट' वगैरा...वगैरा..."

"लेकिन!...शर्त लगा लो...अगले दस साल में भी पूरे नहीं होने वाले ये सपने"...

"वो कैसे?"...

"ये देखो साफ साफ लिखा है अखबार में"गुप्ता जी 'नवभारत टाईम्स' में छपी खबर दिखाते हुए बोले

"कुली बेचारे यूँ ही बेफाल्तू में भंगड़ा डाल-डाल पस्त हुए जा रहे हैँ कि...

उन्हे गैंग मैन और गेट कीपर की खाली पड़ी नौकरियों पे बहाल किया जाएगा"


"ये तो अच्छी बात है!...रोज़गार मिलेगा बेचारे गरीब आदमियों को"मैँ बोला


"खा गए ना गच्चा बच्चू यहाँ भी....

अब जब! ...खुद रेलवे वालों को भी पक्का मालुम नहीं है कि कितने गैंगमैन और गेटकीपर के पद खाली पड़े हैँ और कितने नहीं"...

"तो क्या खाक नौकरियों पे बहाल करेंगे?"शर्मा जी मेरी बात सुन बोले....


"और ऊपर से तुर्रा ये कि लाभ मिलेगा तो सिर्फ लाईसैंसधारी कुलियों को ही"अनुराग बोल पड़ा...

"बाकि कुली तो जैसे बेफाल्तू में ही अपनी ऐसी तैसी करवाने को पिले रहते हैँ"

"कुछ पता नहीं कि वक्त आने पर उन से भी लेन-देन का खेल चले और वो भी लाईसैंसधारी बन जाएं"...

"अभी तो ये समझ लो कि सब वोटों की राजनीति है"गुप्ता जी भी पूरे बजट का बंटाधार करने में जुटे थे...


"वो कैसे?"मैँ मूर्ख अज्ञानी एक बार फिर उनका चेहरा ताक रहा था ...


"अपने आप देख ना...

भले ही लालू जी लाख रैलियां कर लेते लेकिन लाख पसीने और धूल से तरबतर होने के बाद भी...

ऐसा सन्देशा वो आम जनता तक कभी भी...किसी भी हालत में नहीं दे पाते जैसा...

उन्होंने संसद के 'ऐ.सी' गलियारों से 'टीवी'...'रेडियो' और 'अखबार' के जरिए जन जन तक पहुँचा दिया है"गुप्ता जी विश्लेषन सा करते हुए बोले ...


"वो भी बिना पसीने की बदबू से एकसार होते हुए"शर्मा जी बोले ...


"इसे कहते हैँ ...'ना हींग लगी ना फिटकरी...रंग चढा चोखा ही चोखा"

"लेकिन जो नई 'तरेपन्न' गाडियाँ चला रहा है लालू...उसका क्या?"...


"कौन सा आज ही चालू हुए जा रही हैँ?....


"जब होंगी...तब होंगी"...

'तरेपन्न' में से आठ-दस का तो पक्का है कि... वो अगले दस साल में तो शुरू होने से रही...बाकियों की कोई खबर नहीं"


"वो कैसे?"...

"वो ऐसे...कि पहले तो इन रूटों की लाईनों को ' नैरो गेज' से 'ब्राड गेज' में बदला जाना है...

और इस काम में आठ से दस साल तो गए ही समझो"




"कहने को तो बहुत वायदे कर दिए गए हैँ ...मसलन...उन्होंने कहा कि बिजली की कमी के चलते बचत की जाएगी"....

"पुराने बल्बों के बदले नए 'सी.एफ.एल' इस्तेमाल किए जाएंगे"...

"नैचुरल बात है कि...जब इस्तेमाल किए जाएंगे...तो खरीदे भी जाएंगे"

"रेलवे का भला हो ना हो लेकिन इतना तो ज़रूर है कि...

जिन कंपनियों से इन छबीस लाख 'सी.एफ.एल' बल्बों कीखरीद की जाएगी...उन कंपनियों के वारे-न्यारे तो पक्के ही समझो"...

"और एहसान उतारने को ये कंपनियाँ कोई कदम ना उठाएं ऐसा हो ही नहीं सकता"

"सीधी सरल बात है कि...इस हाथ दे और उस हाथ ले"...


"आप लोगों के पास बात करने के लिए ये बजट के अलावा कोई और टापिक नहीं है क्या?"मैडम बोर हो जम्हाई सी लेती हुई बोली....


"है क्यों नहीं?...

"आप बस हुकुम करें...कहने सुनने के लिए तो हमारे पास रोज़ ही कोई ना कोई मसाला होता है".. .

"अभी बारह-पंद्रह दिन पहले की ही तो बात है".....

"ऐसा तगड़ा कांड कि...

आप सुनेंगी तो आप भी हैरान होते हुए परेशान हो जाएंगी"अनुराग मैडम को इंप्रैस करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहता था ...


"अरे हाँ!..मैडम जी ...

इनसे मिलो....राजीव नाम है इनका ..कहानियाँ वगैरा लिखते हैँ ये"अनुराग नम्बर बनाने हेतू मैडम से मेरा परिचय कराते हुए बोला....


"ओह!...रियली?...तो क्या किसी मैग्ज़ीन या न्यूज़पेपर?"...


"नहीं!...

जी नहीं!..बस ऐसे ही शौकिया लिख लेता हूँ कभी कभार"....


"तो क्या...कहानी या कविता?"प्रश्न फिर मेरे सामने था...


"बेसिकली तो व्यंग्य लिखता हूँ...कभीकभार...कविता पे भी हाथ आज़मा लेता हूँ"मैँने शरमाते हुए कहा


"क्यों राजीव!....क्या हुआ?...कुछ नया लिखा कि नहीं?"शर्मा जी मेरी तरफ ताकते हुए बोले


"जी!...इसी रेलवे बजट के बारे में कहानी तो लिख ली है...बस फाईनल टच देना बाकि है..."मैँने जवाब दिया


"कहानी में हमारा नाम जोड़ना ना भूलना"गुप्ता जी बोले ...


"और मेरा भी..."मैडम हँसते हुए मुझ से बोली.......

"जी ज़रूर...."


"और हम सभी हँस पड़े"....


"आप सभी को इस बार करैक्टर बनाया है मैँने अपनी कहानी का"....

"कल प्रिंट आउट लेता आउँगा"


"ठीक है....देखें तो सही कैसे तुमने हमारे चरित्रों को गढा है"...


"देखना क्या है...ये जो आप पढ रहे हैँ... बस यही कहानी है"...

"अपने आप जज कर लें कि कहानी ठीक से बन पाई है या नहीं"...


"लेकिन अभी तो तुम अनुराग से कहलवा रहे थे कि कोई कांड हुआ है..."


" जी!...जी...आपकी बात सही है लेकिन...

पहले ही आप सभी को शिकायत रहती है कि राजीव...लम्बा...बहुत लम्बा लिखता है..."

"सो!....इस बार कहानी का अंत यहीं....वैसे बाकि कहानी भी लगभग तैयार है"...

"एक दो दिन में वो भी आपके सामने पेश कर दूंगा..."...


"उसमें मैँने एक मज़ेदार करैक्टर गढा है...

'कम्मो चूरन वाली' नाम दिया है उसे".


'तो जल्दी ही मिलते हैँ ना अगली कहानी में अपनी 'कम्मो'...ऊप्स सॉरी 'कम्मो चूरन(चूर्ण) वाली' से "...

"इंतज़ार रहेगा ना?"...


***राजीव तनेजा***

मेरी दूसरी कहानी नवभारत टाईम्स पर




मेरी दूसरी कहानी नवभारत टाईम्स पर


"बस, बन गया डाक्टर"


राजीव तनेजा

" कई दिनों से बीवी की तबियत दुरुस्त नहीं थी "....

कई बार उसने मुझसे कहा भी कि डॉक्टर के पास ले चलो लेकिन मुझे अपने काम - धंधे से फुरसत हो तब ना। हर बार किसी न किसी बहाने से टाल देता। एक दिन बीवी ने खूब सुनाई कि मेरे लिए ही तो टाइम नहीं है जनाब के पास, वैसे पूरी दुनिया की कोई भी बेकार से बेकार, कण्डम से कण्डम भी आ के खडी हो जाए सही, लार टपक पड़ती है जनाब की। लट्टू की तरह नाचते फिरते हैं चारों तरफ।

अब भला कैसे समझाऊ इस बावली को कि आजकल इंडिया में बर्ड फ्लू फैला हुआ है। सो घर की मुर्गी की तरफ ताकना भी हराम है। इसलिए कभी - कभार जीभ का स्वाद बदलने की खातिर इधर - उधर मुंह मार ही लिया तो कौनसी आफत आन पड़ी...

अब यार, इसमें मेरा भला क्या कसूर ? क्या मैंपकड़ कर लाया था इस ' फ्लू ' को ? अब भूख चाहे पेट की हो या फिर दिल की , बात तो एक ही है ना ? अमां यार !... जब ऊपरवाले ने पेट दिया है तो वह तो भूख के मारे तड़पेगा ही। कोई रोक सके तो रोक ले। मैं या आप भला इसमें क्या कर सकते हैं ? और अगर पेट तड़पेगा तो उसे भरना तो ज़रूरी है ही। अब ये औरतें क्या जानें कि भूख आखिर होती क्या है ? इनको क्या पता कि मंडी में आलू क्या भाव बिकता है ? इन्हें तो घर बैठे-बिठाए जो हुकुम का ताबेदार मिल गया है। सो आव देखती हैं ना ताव देखती हैं, बस झट से मुंह खोला और कर डाली फरमाइश। और जैसे मैं इसी इंतज़ार में बैठा हूँ कि कब हुकुम मिले और कब मैं बजाऊ। कोई और काम - धंधा है कि नहीं मुझे ?
आखिर तंग आ कर बोल ही डाला एक दिन, " चल आज ही करा देता हूं तेरा पोस्टमॉर्टम। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी। "
ले गया उसे सीधा ' नत्थू ' पंचर वाले की दुकान पर। अरे बाबा नाम है उसका ' नत्थू ' पंचर वाला .. . कभी लगाया करता था ' पंचर - शंचर ' ...पर अब तो डॉक्टर है डॉक्टर। पता नहीं कब उसने रातों - रात पढ़ाई की और बन बैठा डॉक्टर। वैसे भी कई दिनों से दिली तमन्ना थी कि एक बार मिल तो आऊं ... पुराना यार जो है। पहुंचकर देखा तो बाहर लंबी लाइन लगी हुई थी। टोकन बांटे जा रहे थे कि अब इसका नंबर तो अब इसका।

रिसेपशनिस्ट बड़ी ही पटाखा रखी थी पट्ठे ने। अरे पटाखा क्या ... पूरी फुलझड़ी थी फुलझड़ी। मुझे तो अफसोस होने लगा था कि आखिर इतने दिन तक ' झख ' क्यों मारता रहा मैं ? मिलने क्यों नहीं आया...मति मारी गई थी मेरी। अन्दर पहुंचा था कि नर्स को देख दिल झूम - झूम गाने लगा... " क्या अदा , क्या जलवे तेरे पारो ?... हो पारो... "

पट्ठा पता नहीं कहां से ' धांसू ' आइटम छांट लाया था। डॉक्टर लंगोटिया यार था अपना। पता चलते ही सीधा अन्दर ही बुलवा लिया। बीवी की तकलीफ बताई तो उसने किसी दूसरे डॉक्टर का नाम सुझा दिया। मैं चौंका कि यार तुम तो खुद ही इतने बड़े डॉक्टर हो ... फिर किसी और के पास भेजने की भला क्या तुक है ?"
" समझा कर यार, घर का मामला है ... सो क्वॉलिफाइड ही ठीक है। "
मैंने कुछ देर से आने की कह बीवी को रिक्शा से घर वापस भेज दिया।
" हाँ ... अब बताओ, चक्कर क्या है आखिर ?"
" अब यार, तुम तो अपने लंगोटिया यार हो। तुमसे क्या छिपाना। जानते तो हो ही कि मैं पहले पंचर लगाया करता था... "
" फिर इस डॉक्टरी की लाइन में कैसे कूद पड़े ?" मैं बीच में ही बोल पड़ा।
" अरे यार, वो ही तो बता रहा हूँ। तुम तो जानते ही हो कि ... माधुरी दीक्षित कितनी पसंद है मुझे। बस वही ले आई यार इस डॉक्टरी के धन्धे में। "
" माधुरी दीक्षित ले आई ? समझा नहीं ... ज़रा तफ्तीश से समझाओ। "
" बता रहा हूं बाबा। ज़रा सब्र तो रख। सुबह - सुबह आए हो , पहले कुछ खा - पी तो लो...ज़रा चाय - नाश्ता तो लाना, " डाक्टर साहब कंपाउंडर को हुकुम देते हुए बोले ।
" हां तो दरअसल हुआ क्या कि ..." एक दिन ' वी . सी . आर ' किराए पर लिया और पूरी रात सिर्फ और सिर्फ माधुरी की ही फिल्में देखता रहा बस। "
" अच्छा फिर ?"

" बस जैसे नशा सा छा गया हो "...

" जहाँ देखूँ .. वहाँ बस वो और मैँ "....

" दूजा कोई नहीं "
" धक - धक करने लगा ... ओ मोरा जिया डरने लगा ..."
" अगले दिन नींद पूरी ना होने की वजह से सर कुछ भारी - भारी सा था "
ऊपर से ' नास - पीटे ' मालिक का बुलावा आ गया ड्यूटी बजाने के लिए
" माधुरी का जलवा ही ऐसा था कि ... कुछ सूझे नहीं सूझ रहा था "
" आँखो के आगे से उसकी ...
' लचकती '...
' बल खाती '..
नाज़ुक कमर हटने का नाम ही नहीं ले रही थी "
" टायर में हवा भरते - भरते होश ही नहीं रहा कि कितनी हवा भरनी है और कितनी नहीं ?"
" अचानक धढ़ाम आवाज़ आई और ' ट्यूब ' चारों खाने चित्त "
" राम नाम सत्य हो चुका था ट्यूब का "
" खूब सुनाई मालिक ने ... लेकिन मैने भी टका सा जवाब दे दिया कि ...
" सम्भालो अपनी धर्मशाला "
" नहीं बजानी है तुम्हारी नौकरी "
" मेरी हिम्मत देख दिल ही दिल में माधुरी ने पीठ ठोंक डाली ...
' शाबाश !'...
ये की ना मर्द वाली बात "
" असली जवां मर्द हो तुम तो "
" मैने अपना झुल्ली - बिस्तरा उठाया और जा पहुंचा सीधा डॉक्टर साहब के यहां "
" कई बार बुलावा जो आ चुका था लेकिन बस मेरा मन ही नहीं करता था "
" मालिक की बेटी की शक्ल कुछ - कुछ माधुरी से मिलती जो थी "
" सो टिका रहा वहीं "
" फिर नौकरी को लात क्यों मार दी ?"
" पट्ठे ने अपनी बेटी जो ब्याह दी उस गंगू तेली के साथ "
" तो अब वहां रुक कर भला मैं कौन सा कद्दू पाड़ता ?"
" सो छोड जाना ही बेहतर लगा "
" डॉक्टर साहब के यहां भी क्या ' पंचर ' ही लगाते थे ?"
" बावला तो नहीं है कहीं तू ?"
" या फिर भांग चढा रखी है ?"
" अरे यार इंजेक्शन ठोकता था इंजेक्शन "
" पर ये सब तुम्हे आता कहां था ?"
" अरे यार कोई पेट से ही सीख के थोडी आता है ये सब "
" यहीं ... इसी दुनिया में रहकर सीखा जाता है सब का सब "
" फिर भी ?" मेरे चेहरे पे असमंजस का भाव था।

" अरे यार !... सीधी सी बात है , पहले टायर में से कील उखाडता था अब बदन मे कील घुसेडता हूं "

" वैरी सिम्पल "

" शुरू - शुरू में तो डाक्टर ने पर्ची काटने पे बिठा दिया था "

" कई बार तो ये भी लगा कि कहां आ के फंस गया , लेकिन ...

" सब्र का फल मीठा होता है "

" कैसे ?"

" हुआ क्या कि एक दिन कंपाउडर छुट्टी मार गया "....

" बस उसका छुट्टी मारना था और मेरी किस्मत का दरवाज़ा खुलना था "

" डाक्टर साहब ने उसकी जगह मुझे ड्यूटी पर लगा दिया "

" फिर ?"

" पट्टी - वट्टी करना तो मैं जान ही चुका था अब तक "...

" बस डाक्टर साहब की सेवा करता गया और धीरे - धीरे सारे दाव - पेंच सीखता गया कि ...

किस मर्ज़ के लिये कौन से ' गोली ' थमानी है और ....

किस मर्ज़ के लिये कौन सी "

" ज़्यादातर अनपढ - गंवार ही आते थे हमारे क्लीनिक में ,...

सो , ज़्यादातर कोई दिक्कत पेश नहीं आती थी "

" राज़ की बात तो ये कि अपने डाक्टर साहब को भी कुछ खास आता - जाता नहीं था "

" फिर इलाज वगैरा कैसे करते थे ?"

" अरे यार एक - दो पुरानी किताबें छांट लाए थे कहीं रद्दी से ,...

उन्हीं से पढ कर अलग - अलग तजुर्बे करते फिरते थे मरीज़ों पे जैसे कि ...

कभी किसी को ' यूनानी ' दवा थमा दी तो कभी किसी को ..

' आयुर्वेदिक '...

तो कभी किसी को ' एलोपेथिक '"

" कभी - कभी तो ' होमियोपेथिक ' के भी गुण गाने लगते थे "

" पता नहीं कमरा बन्द करके क्या - क्या पीसते रहते थे ?"

" कई बार तो उनके हाथ ताज़े गोबर से भी सने देखे थे मैने "

" एक बार तो मेरी हंसी ही छूट गयी थी जब मैने देखा कि ...

डाक्टर साहब एक गाय के पीछे - पीछे ' लौटा ' लिये डोल रहे थे "

" अब ये तो ऊपरवाला जाने कि किस घडी का इंतज़ार था उन्हें ?"

" जब हाथ में लौटा लिये बैरंग लौटे तो सारा बदन कीचड से सना था और कपडे फटेहाल "

" पता नहीं उस गाय की बच्ची ने कहां - कहां चाटा होगा ...

या फिर कहां - कहां सींग मारे होंगे ?"

" मरीज़ का चौखटा देख अलग - अलग तजुर्बे करते रहते थे कि ..

इस पर ' यूनानी ' फिट बैठेगी और इस पर ' आयुर्वेदिक '"

" ये तो शुक्र है ऊपरवाले का कि उनका वास्ता सिर्फ अनपढ - गवारों से ही पड़ता था "

" जो कोई भी मरियल सा आता , सीधा उसे पानी चढाने की कहते "

" बेचारा गरीब मानुस जल्दी ठीक होने की आस में हामी भर देता "

" उस बेचारे को क्या मालूम कि. ..

दाम तो लिए जा रहे हैं ' ग्लूकोज़ ' के और चढाया जा रहा है ' निरा ' पानी "

" निरा पानी ?"

" और नहीं तो क्या ?"

" यही तो असली कमाई का फंडा है "

" ना हींग लगी न फिटकरी और रंग चढा चोखा "

" अरे यार तुमको इस सब की खबर कैसे हो गयी ?"

" क्या डाक्टर साहब खुद ही इतना मेहरबान हो गये कि ... सारे भेद खुद - बा - खुद बताते चले गये ?"

" अरे डाक्टर के बच्चे का बस चलता तो वो इस सब की हवा तक भी ना लगने देता "

" फिर ?"

" अरे यार सीधी सी बात है , मैँ अपने आंख - कान सब खुले रखता था "

" खुद को अनपढ बता खूब फुद्दू खींचा डाक्टर का , पट्ठा सोचता था कि ये अंगूठा छाप भला उसका क्या उखाड़ लेगा ?"

" वो मेरी तरफ से बेपरवाह बना रहा और मैं अन्दर ही अन्दर उसकी ही कब्र खोदता चला गया। आहिस्ता - आहिस्ता सब दवाईयो के नाम जबानी रट लिए मैने। " बस एक बात ही समझ नहीं आ रही थी कि ये डाक्टर का बच्चा एक ही बीमारी के लिये कभी लाल ' गोली पकड़ाता है तो कभी ' हरी ' , तो कभी ' पीली ' । मतलब ये कि बीमारी कोई भी हो लेकिन दवा एक ही। ये चक्कर मुझे घन - चक्कर किए जा रहा था। मैने भी अक्ल के घोडे दौडाए और जान लिया सब राज़। दूध का दूध और पानी का पानी कर डाला। " साला डाक्टर बडा ही छुपा - रुस्तम निकला। सारी की सारी गोलियों के रंग अलग - अलग लेकिन माल एक।
" माल एक ?" मैने हैरानी से पूछा

" हां यार सब की सब गोलियों में खालिस मिट्टी थी "

" फिर डाक्टर साहब इलाज कैसे करते थे ?"

" अरे काहे का डाक्टर ?" दोस्त को अब तक ताव आ चुका था

" पहले हलवाई था साला हलवाई "


" हलवाई ?" मुझे जैसे विश्वास ही ना हुआ

" हां भाई ... हलवाई। एक बार किसी को खराब मिठाई खिला दी और वो बन्दा गया लुढक। कोर्ट - कचहरी का चक्कर पडा तो पट्ठे ने ले - दे के सरकारी डाक्टर से पूरी रिपोर्ट ही बदलवा दी। अच्छे खासे चढाने पड़े। बस तभी से यारी हो गयी उस डाक्टर से।
" उसी से सीखा होगा ये सब "

" हां तो बात हो रही थी कि जब सारी की सारी गोलियों में निरी मिट्टी होती थी तो , ये डाक्टर इलाज कैसे करता था ?"

" जी "

" अरे यार असली दवा का नाम लिख देता था पर्ची पर कि बाज़ार से ले लो "...

" जल्दी ठीक हो जाओगे "

" उसी से बन्दा ठीक हो जाता और सोचता कि ...

डाक्टर साहब के हाथ में ....

' जादू ' है , ' शफा ' है "


" तो आजकल अपने ये डाक्टर साहब हैं कहां ?"

" अरे यार अब तो वो बडे आदमी बन गये हैं "

" कई - कई तो फैक्ट्रियां है दवाईयों की "

" अरे वाह !... बडी तरक्की कर ली उन्होने "

" काहे की तरक्की ? मेरे यार "...

" ये तो भला हो उस पुलिस वाले का जिसने इन्हें जेल पहुंचाया था "

" भला हो जेल पहुंचाने वाले का ?" मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था

" और नहीं तो क्या ?"

" आया तो वो था डाक्टर साहब को जेल की हवा खिलाने ,...

' नकली डिग्री ' और ' नकली सर्टीफिकेट ' के चक्कर में और ...

खुद ही बन बैठा पचास टके का पार्टनर दवाई वाली फैक्ट्री में "

" बात पूरी समझ नहीं आ रही है। सर के ऊपर से निकले जा रही है। ज़रा खुल के समझाओ "

" बस यार ऊपर से वॉरंट इशू हुए थे डाक्टर के , सो जेल तो जाना ही पडा "

" पुलिस वाले ने वहां भी ऐसी सैटिंग बिछा रखी थी कि डाक्टर साहब को कोई दिक्कत पेश नहीं आई "

" बाकी केस को कमज़ोर करने का काम तो पहले ही कर दिया था इंस्पैक्टर ने "

" सो तीन महीने में ही बाहर थे अपने डाक्टर साहब "

" अब खूब छन रही है दोनों में, मानो एक ही लंगोट में खेला - कूदा करते थे दोनो बचपन में "

" ठाठ से जी रहे हैं दोनों "


" हूं !... तो क्या ये सर्टिफिकेट वगैरा भी नकली तैयार हो जाते हैं ?"

" अरे तुम कहो तो ' न्यूरो सर्जन ' की डिग्री थमा दूं अभी के अभी। हाथों - हाथ। पहले तो होता था कि डिग्री लेनी है तो ' बिहार ' जाओ। दो - चार दिन काले करो। तब कहीं जा के बड़ी मुशकिल से सर्टिफिकेट हाथ लगता था। कहीं गलती से कुछ मिस्टेक हो गयी तो फिर नये सिरे से खर्चा करो और समझो की पूरा हफ्ता गया काम से।


" और अब ?"

" अब तो यार कंप्यूटर का ज़माना है, इस हाथ दे और इस हाथ ले। सब कुछ ऑलरेडी तैयार होता है। बस ' नाम - पता ',... ' उमर ' , ' फोटू ' वगैरा बदलो और तुरंत ही डिग्री हाथ में "

" मुन्ना भाई नहीं देखी है क्या ?" दोस्त हंसते हुए बोला

मै भी खिलखिला के हँस दिया।

" तो डाक्टर साहब ... कब आऊं मैं कंपाउंडरी करने ?"

" हा ... हा ... हा .... हा ..." और हम दोनों की हंसी फूट पडी "


" अभी यार बातें तो बहुत हैं कहने - सुनने के लिए, लेकिन क्या करूं ? मजबूरी है, पापी पेट का सवाल है। रोज़ी - रोटी का ख्याल तो रखना ही पडेगा। बाहर मरीज़ों की लाइन लम्बी होती जा रही है। ’ दोस्त बोला।

" फिर कभी आओ फुरसत निकाल के, खूब मज़े करेंगे।
मैं फिर आने की कह वापिस चला आया। अभी तो बहुत कुछ पूछना - सुनना बाकी था। भरपूर दावत के साथ - साथ नर्स को जी भर के ताड़ने का मौका भला कौन गंवाना चाहेगा ? ।

"यस!.. वी आर दा बैस्ट कॅपल"

"यस!.. वी आर दा बैस्ट कॅपल"

***राजीव तनेजा***



"कुछ याद भी रहता है इसे?....आज का दिन तो कम से कम बक्श देना था...लेकिन नहीं...

"बरसों से पाल-पोस कर परिपक्व की हुई ब उरी आदत भला एक दिन के लिए क्यों त्यागी जाए?"....

"यही सोचा होगा शायद"...

"कम्भख्त मारी को कम से कम इस दिन का तो ख्याल रखना चाहिए था"

"ये क्या कि बाकि दिनों की तरह इस दिन भी खुशी को ठेंगा दिखा चलता कर दिया जाए?"


"ओफ्फो!...इस अशांति भरे महौल में कोई कुछ लिखे भी तो कैसे?"मैँ कीबोर्ड पर उँगलियाँ चटखाता हुआ गुस्से से चिल्लाया

"मेरी आवाज़ दिवारों से टकरा वापिस मेरी तरफ ही लौट आई"

"देखा तो!...मुझे सुनने वाला कोई आस-पास नहीं था"


"बीवी लड़-झगड़ कर कब कमरे से बाहर निकल गई पता भी ना चला"....

"हे ऊपरवाले!...कुछ तो मेहर कर....पता लगा उस कंबख्तमारी का कि कहाँ सिर सड़ा रही है?"...

"यहाँ मैँ बावलों की तरह अकेला भौंक-भौंक के दिवारों पे अपनी भड़ास निकाले जा रहा हूँ"

"क्या फायदा यूँ फोकट में गला फाड़ चिल्लाने से?"मैँ डायरैक्ट ऊपरवाले से बात करता हुआ बोला


"अरे!...जाएगी कहाँ?....जाने वाली शक्लें कुछ और हुआ करती हैँ"मैँ खुद को तसल्ली दे रहा था


"हाँ!...कहीं नहीं जाने वाली वो"....

"यहीं कहीं आसपास ही होगी"...

"मज़ाक कर रही होगी मेरे साथ"...


"उस दिन भी तो पूरे दो घंटे तक नचाती रही थी मुझे"...

"कभी इधर...तो कभी उधर"

"मैँ बावला भी तो नाहक परेशान हो उसे पूरे मोहल्ले में धूँढता फिरा था"

"कहाँ-कहाँ नहीं फोन नहीं खड़का मारा था मैँने उसको तलाशने की खातिर?"


"और लो!... मिली भी तो कहाँ?"

"अपने ही गैस्टरूम में"...

"वहीं छुपी बैठी थी"....

"नॉटी कहीं की"...


"अपने आप लौट आएगी....रोज़ का ही तो ड्रामा है ये उसका"मैँ अपने आप से ही बात किए चला जा रहा था ...


"लेकिन शायद!...अन्दर ही अन्दर कुछ चिंतित सा भी था मैँ...


"तीन घंटे से ज़्यादा जो हो चुके थे उसे निकले हुए"....

"पहले तो हमेशा पंद्रह-बीस मिनट में ही इधर-उधर मटरगश्ती कर के वापिस लौट आया करती थी"...

"आज पता नहीं क्या हुआ है इसे...जो अभी तक नहीं लौटी?"मेरे चेहरे पे चिंता भरा भाव था


"शायद!..कुछ ज़्यादा ही डांट दिया था मैँने"...

"अब!...डांट दिया तो डांट दिया..."

"आखिर पति हूँ उसका...इतना हक तो बनता ही है मेरा"...


"क्यों!...है कि नहीं?"


"हुँह!...नहीं आती तो ना आए...मेरी बला से "...

"छत्तीस ढूँढ लाउंगा"...

"लेकिन स्साली!...ढंग से जाती भी तो नहीं है"...

"ये क्या कि धमकी तो दे दी फुल्ल-फुल कि...

"अबकी बार लौट के ना आऊँगी"


"अभी ठीक से पूरा स्माईल भी चेहरे पे फिट नहीं हो पाता था कि वापिस आ धमकती थी कि...

"हाँ-हाँ! ...तुम तो चाहते ही हो कि मैँ चली आऊँ और तुम ले आओ उसी प्रोमिला को"


"कान खोल के सुन लो!...इतनी आसानी से पीछा नहीं छोड़ने वाली"...

"कहीं धोखे में बैठे ना रहना"...

"किसी को भी ला के बैठा दो चौके में...मुझे कोई परवाह नहीं लेकिन. ...

पहले पूरे पंद्रह हज़ार रुपए हर महीने के हिसाब से तैयार रखना मेरे लिए"

और हाँ!...ये ध्यान है कि नहीं कि ये 'वैगन ऑर' मेरे नाम पे ही रजिस्टर्ड है"साक्षात ताड़का क आ ही कलयुगी अवतार नज़र आती थे मुझे


"हुँह!...ऐसा भी क्या डरना?"...

"जो होगा देखा जाएगा"...

अगर उसे घर-गृहस्ती परवाह नहीं है तो मुझे भी नहीं है"...

"मैँ नाहक अकेला क्यों परेशान होता फिरूँ?"


"राज़ी-राज़ी आती है तो आए ...नहीं तो भाड़ में जाए मेरी बला से"


"बच्चे ही पालने हैँ ना?"....

"पाल लूंगा औखे-सौखे"

"वैसे भी सब बच्चों को कहाँ मिलता है माँ का प्यार?"

"ज़्यादा हुआ तो थोड़ा बहुत ध्यान मैँ भी रख ही लूँगा कुछ ना कुछ कर के"

"कोई माँ के पेट से नहीं सीख के आता ये सब"...

"वक्त और ज़रूरत सब सिखा देती है"


"ये भी नहीं हुआ बावली से कि...कम से कम छोटे को अपने साथ लेती जाती"...

"पता भी है कि रात को दो-दो दफा सू-सू करता है बिस्तर पे"...

"अब कहाँ मैँ रात को उठ-उठ के उसके लंगोट बदलता फिरूँ?"

"और कोई काम है कि नहीं मुझको?"...

"ले जाती साथ में तो मेरी थोड़ी परेशानी ही कम हो जाती"...

"उसका क्या बिगड़ जाता?"...


"लेकिन नहीं!..कैसे गवारा होता उसे मेरा सुख?"

"अगर उसे इतना ही ध्यान होता तो आज ये लफड़ा ही नहीं होना था"...

"पता भी है कि सुबह-सुबह पानीपत जाना होता है बन्दे ने"...


"अब बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करता फिरूं या खुद तैयार हौऊँ?"



"ओफ्फो!...मैडम जी को भी अभी ही उड़नछू होना था"


"अरे!...अगर ऐसा ही करना था तो पहले करना था ना जब...मेरे आसपास छत्तीस क्या चौआलिस मंडराया करती थी"...

"लेकिन नहीं!...तब तो गली मोहल्ले में कैज़ुअली घूमते फिरते वक्त भी...

अपना हाथ मेरी कमर में ऐसे डाल के चलती थी कि सब जान लें कि...

"खबरदार!...जो इधर एक इंच भी नज़र भी दौड़ाई तो"...

"खुला सांड नहीं है मेरा पति जो यूँ आँखे फाड़-फाड़ देखे चली जा रही हो"

"कभी हैंडसम लड़के नहीं देखे हैँ क्या?"बीवी गर्व से तने चेहरे के साथ बोलती थी

"हाँ!...इस झोट्टे की मालकिन मैँ हूँ"....

"मेरे ही खूंटे से बन्धा है"बीवी मंगलसूत्र हाथ से नचाती हुई बोलती थी


"हुँह!...अच्छी भली भी आती-आती बिदक जाती थी कि चलो यहाँ से!..ये मैडम दाल नहीं गलने देगी"


"अब!...अब जबकि पता है कि कोई नहीं पटने वाली इस उम्र में इनसे...तो!...तो रुआब दिखाती है स्साली...."


"पता भी है कि बिना प्रापर खाने का मज़ा नहीं आता है बन्दे को लेकिन नहीं...

कोई ना कोई कसर तो बाकि रखनी ही है ना"....


"कभी सलाद गायब तो कभी पापड़-अचार खत्म"...

"ये भी नहीं होता कि कम से कम रायता ही डाल ले हफ्ते में एक आध बार"

"करना क्या होता है?...बस रैडेमेड बूंदी का पकैट खोला और टपका डाली दही में थोड़ा सा"...

"हो गया रायता तैयार"....

"सिम्पल!..."


"चलो माना...कि खत्म हो गया होगा सामान लेकिन ....

अगर खत्म हो गया था तो बाज़ार से ला नहीं सकती थी क्या?"


"सुबह से ही तो बिना बात लड़े चली जा रही थी"

"पता नहीं क्या मज़ा मिलता है इन औरतों को हम मर्दों से बहस करने में?"

"ये नहीं कि...मर्द ज़ात हैँ हम....जो हुकुम कर दिया...सो कर दिया"


"चुपचाप मान लें"...

"खुद भी चैन से जिएं और हमें भी चैन से रहने दें"

"लेकिन नहीं!...हमारी तो जैसे कोई औकात ही नहीं है ना"...


"कभी कोई बात हमारी माननी ही नहीं है"....

"ये क्या बात हुई कि कभी शलगम में मटर नहीं होंते तो कभी बे-इंतहा डले नज़र आते हैँ"...

"अरे!...कुछ भी बनाना है तो सलीके से बनाओ...तमीज़ से बनाओ"...

"ये क्या कि बस जैसे फॉरमैलिटी भर ही पूरी करनी हो"...


"कई बार तो कह चुका हूँ कि तड़का ज़रा ढंग से लगा दिया करो लेकिन कोई हमारी सुने तब ना"...


"कितनी बार कह-कह के थक लिया कि चायनीज़ कुकरी क्लासेज़ जायन कर लो...लेकिन नहीं ...

टाईम नहीं है ना मैडम के पास"...


"लेकिन कोई ये बताएगा कि....

डांस क्लासेज़ और अंग्रेज़ी में गिटर-पिटर सीखने के लिए टाईम ही टाईम कैसे निकल जाता है मैडम जी के पास?"


"स्साले!..अँग्रेज़ चले गए अपनी गिटर-पिटर यहीं छोड़ के"मैँ अब हिन्दी प्रेमी होने के नाते अँग्रेज़ी की माँ-बहन एक करने लगा था


"अब!..अपने को अँग्रेज़ी नहीं आती तो नहीं आती"....

"क्या करें?"

"जिस से जो बनता हो...उखाड़ना हो उखाड़ ले"


"खाने की शिकायत करो तो टका सा जवाब मिलता है कि"फाल्तू ना बोलो!....जो पकवाना होता है लाकर दे दिया करो"...

"यहाँ साला!. कुछ भूले भटके खरीद के भी ले आओ तो शिकायत ये कि..."ये क्या कबाड़ उठा लाए?"

"दिखाई नहीं देता कि अमरूद कच्चे हैँ"...


"अब!..कच्चे हैँ तो कच्चे हैँ....मैँ क्या करूँ?"

"भट्ठी में भून के पका लो"


"पता भी है कि कल वैलैंटाईन है लेकिन नहीं!...लड-लड़ के अपने साथ-साथ मेरी भी ऐसी की तैसी करनी है ना"...

"इसलिए दो दिन पहले से ही तैयारी शुरू कर दी कि कहीं ऐन मौके पे बन्दे का चेहरा खुशी के मारे खिल ना उठे"


"उफ!...पता नहीं कहाँ उड्ड गई ये कम्भख्त मारी?"

"कब से चाय की तलब लगी पडी है लेकिन इसे चिंता हो तब ना"

"पता भी है कि किसी और के हाथ की चाय पसन्द नहीं आएगी"...

"काम वाली बाई के हाथ की तो बिलकुल नहीं"...


"हम्म!...शायद इसीलिए भाव ज़्यादा खाने लगी है आजकल"मैँ कुछ सोचता हुआ बोला


"यहाँ आज दिल उदास पे उदास हुए चला जा रहा है और इसे कोई फिक्र ना फाका"....


"ऐसे अकेले जीने से तो अच्छा है कि खुदकुशी ही कर लूँ"

"हाँ!...यही ठीक भी रहेगा"...

"मन कर रहा है कि अभी के अभी अपने आप को खतम कर लूँ "...


"आज जो हुआ...जैसा हुआ पता नहीं उस सब में किसका दोष था और किसका नहीं"


"लेकिन इतना जानता हूँ कि नहीं होना चाहिए था ऐसा "

"ये!...ये क्या होता जा रहा है मुझे?"...

"अन्दर ही अन्दर मैँ आहत हो टूट के बिखरने लगा हूँ।"


"कहने को तो हमने प्रेम विवाह किया था लेकिन रोज़ाना की आपाधापी में प्रेम कब का उड़नछू हो हमारी

ज़िन्दगी से जा चुका है"मैँ सोच में डूबा जा रहा था


"ये जीना भी कोई जीना है?"...

"वही रोज़ की बहस"...

"वही रोज़ना का लड़ना-झगड़ना"...

"वही बेकार की बेतुकी चिकचिक"...


"मुझे हमेशा यही शिकायत रही कि जिस से मैँने प्रेम विवाह किया ...वो ये नहीं...कोई और है"


"पहले जैसी कोई बात ही जो नहीं रही उसमें"

"वो मोहिनी मुस्कुराहट....

"वो उसका चहकना...वो शोखी...वो चंचल अदाएं"मेरे दिमाग में उसकी पुरानी यादें ताज़ा हो चली थी...


"लेकिन अफसोस!...वैसा कुछ भी तो नहीं बचा अब उसमें"


"और लो!...ऊपर से उसे लगता है कि मैँ बदल गया हूँ"...

"हुँह!...उल्टा चोर कोतवाल को डांटे"...

"शिकायत सुनो इनकी कि...मैँ बात बात पे डांटने लगा हूँ"...

"गुस्सा मेरी नाक पर हमेशा चढा रहता है वगैरा..वगैरा"...


"अब गुस्सा ना चढा रहे तो और क्या करे....?"

" हर तरफ टैंशन ही टैंशन"....

"कोई भी दिन तो ऐसा नहीं गुज़रता जिस दिन मैँ सुकून से बैठ सकूँ"...

"कभी बिजली के बिल तो कभी टेलीफोन के बिल"...

"कभी बच्चों की फीस तो कभी कम्प्यूटर खराब"...

"ऊपर से ये ब्लॉग लिखने का चस्का"

"टाईम ही कहाँ होता है मेरे पास कि उसकी छोटी-छोटी बातों में अपना कीमती समय खराब करता फिरूँ"

"जानता जो हूँ कि टाईम वेस्ट इज़ मनी वेस्ट"...

"मनी से याद आया कि यहाँ स्साले!... देने वाले तो देने का नाम नहीं लेते और...

दो-चार लेने वाले ज़रूर घर के बाहर रोज़ाना सुबह-शाम कतार बाँधे नज़र आते हैँ


"अब आप ही बताओ कि इस आपाधापी भरे माहौल में टैंशन ना हो तो और क्या हो?"


"जिस से मैँने प्रेम किया....अपने घर वालों से लड़-झगड़े कर उनकी मर्ज़ी के खिलाफ ब्याह रचाया" ...

"कम से कम उसे तो मेरा ख्याल रखना चाहिए"मैँ अपने आप से बात करता जा रहा था


"ठीक इसके उलट...आज उसी के साथ मेरी नहीं बन रही है"...


"हालात ऐसे हैँ कि ना चाहते हुए भी हफ्ते में कम से कम तीन या चार दफा हम लड़ बैठते हैँ।"

"कभी किसी बात पर तो कभी किसी बात पर"

"ध्यान से देखो तो कई बार कोई बात ही नहीं होती है"मेरी उँगलियाँ बिना थके कीबोर्ड पर टक-टकाटक करती ही जा रही थी...



"मैँने कभी भी उसे किसी काम के लिए नहीं रोका।"...

"कहीं आने-जाने से मना नहीं किया।"...

"किसी भी तरह के कपडे पहनने या ना पहनने के लिए नहीं टोका"...

"कभी उसकी इच्छाओं पर हावी नहीं हुआ मैँ"...

"उसने कहा कि उसे डांस सीखना है"...

"ठीक है!...सीख लो"मेरा जवाब था


"उसने कहा उसे अँग्रेज़ी सीखनी है" मैँने कहा ज़रूर सीखो...

"कहने का मतलब ये कि मैँ उसकी खुशी से खुश था लेकिन फिर ये सब मेरे साथ ही क्यों?"....


"क्या मैँ चाहता था कि हम में अनबन हो?"...

"हम लडें!...लडते रहें?"...

"या फिर वो चाहती थी कि हम झगड़ते रहें?"...


"शायद हम दोनों ही कभी एक दूसरे को समझ नहीं पाए"


"शादी हुए बरसों बीत गए लेकिन हमारा लड़ना आज भी बदस्तूर जारी है"

"कई बार तो लड़ाई इतनी बढ जाती है कि गुस्से में चाहे-अनचाहे मेरा हाथ भी उठने लगा है"...

"जिसका मुझे हमेशा अफसोस रहा है और ताउम्र रहेगा"

"लेकिन!...मैँ करूँ भी तो क्या करूँ?"

"कंट्रोल नहीं रख पाता अपने ऊपर"


"वो बात ही ऐसी जली भुनी कर देती है कि ना चाहते हुए भी मेरे पास इसके अलावा कोई चारा नहीं रहता है।"

"पता नहीं क्यों मैँ उतेजित हो आपे से बाहर हो उठता हूँ"....


"संयम से काम लेना चाहिए मुझे"मेरी उँगलियाँ अब धीमी गति से टाईप कर रही थी


"कई बार सोचता भी हूँ कि मैँ जो कर रहा हूँ वो गलत है...सही नहीं है लेकिन....

जब बर्दाश्त करने की हद मेरे बूते से बाहर हो जाया करती है ...तभी ऐसा होता है।"


"सच कहूँ तो!..आजकल अक्सर ऐसा होने लगा है।"


"बाद में पछतावा भी होता है हर बार कि उसे ना सही लेकिन कम से कम मुझे तो आपे में रहना चाहिए"


"जानता हूँ कि आज जो हुआ...जैसा हुआ...सही नहीं हुआ"...


"नहीं होना चाहिए था ऐसा"....

"लेकिन मैँ करूँ भी तो क्या करूँ?"मैँ जैसे खुद से ही सवाल करता हुआ बोला



"हर बार कोई ना कोई ऐसी कडवी...दिल को अन्दर तक चुभने वाली बात वो कर देती है कि मुझसे चुप नहीं रहा जाता है"

"और नतीजन!...फिर हम बैठे बिठाए बिना किसी तुक के लड़ पड़ते हैँ।"


"पता नहीं क्यों हमें शर्म भी नहीं आती है कि...बच्चे बड़े हो रहे हैँ"....

"क्या तमाशा दिखाते रहते हैँ हम उन्हें रोज़-रोज़"...

"क्या सोचते होंगे वो हमारे बारे में?"मुझे खुद से ही नफरत सी होने लगी थी


"कई बार मैँ अकेला बैठ विचार करता हूँ कि आखिर हम क्यों लड़ते हैँ?"

"क्या हम में प्रेम नहीं है?"...

"अगर नहीं है तो फिर हमने शादी क्यों की?"...

"क्या हम दोनों का प्रेम प्रेम नहीं...सिर्फ विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण भर था?"


"नहीं ऐसा हर्गिज़ नहीं था"...

"अगर ऐसा होता तो आज मैँ संजू का नहीं ...किसी और का पति होता".....


"शायद!....प्रोमिला.....शशि....मोनिका.....कंचन या फिर कोई और?"......


"अब मैँ किस-किस का नाम ध्यान रखता फिरूँ?"पुरानी माशूकाओं की याद आने से मेरा चेहरा लाल हो उठा था


"उफ!...ये ठंड के मौसम में किनकी याद आ गई?"एक साथ सभी किस्से दिमागी भंवर में किलोल करने लगे


"उफ!...तौबा....वो दिन भी क्या दिन थे?"मैँ पुरानी यादों से पीछा छुड़ाने के लिए सर को झटकता हुआ बोला


"संजू का चेहरा फिर मेरे सामने था"...

"क्या मैँ ही गलत होता हूँ हर बार?"


"बहुत सोच विचारने के बाद घूम फिर के मैँ इस नतीजे पे पहुँचा हूँ कि .....

मुझे उसकी टोकाटाकी पसन्द नहीं और उससे बिना टोके रहा नहीं जाता।"


"शायद अपनी गल्तियों को ढांपने के लिए मेरी यही सोच जायज़ थी"


"कुछ ऐसा ही वो भी सोचती हो शायद कि... वो ठीक है और राजीव गलत"...

"सच!...अपनी गल्तियाँ किसे नज़र आती हैँ?"


"बहुत हो ली लड़ाई....बहुत लड़ लिए हम"

"अब चाहे जो हो जाए मैँ कभी उस पर हाथ नहीं उठाउँगा।"मैँने फैसला सा कर लिया


"हाँ!...यही ठीक रहेगा"...

"उसकी चुभने वाली बातों को मैँ भूल जाउंगा...इग्नोर कर दूंगा"

"ज़्यादा होगा तो!..चुपचाप बाथरूम या फिर टायलेट में रो लूंगा लेकिन उसे कुछ नहीं कहूँगा"


"स अच!...एक बात तो है पट्ठी में....जितना वो मुझसे लड़ती है...उतना ही प्यार भी तो करती है मुझसे"...


"अब देखो ना!...उसके माँ-बाप लाख बुलाते रहते हैँ कि छुटियाँ आ रही हैँ बच्चों की...इस बार यहीं आ जाना"...

"एक साथ रहेंगे...खूब मज़ा आएगा"...

"कोई ना कोई बहाना कर के टाल देती है उन्हें हर बार कि इस बार नहीं...अगली बार"...

"जानती जो है कि उसके बिना रह नहीं पाउंगा"


"क्या हुआ जो हम लड़ते हैँ?"...

"किस घर में लड़ाई नहीं होती है"...

"ज़रा बताओ तो...."

"अब चाहें हम रोज़ लड़्ते फिरें लेकिन सुलह भी तो कर ही लेते हैँ ना"...

"ये तो नहीं करते कि मुँह फुलाए बैठे रहें....बात ही ना करें एक दूसरे से..."

"अपनी गल्ती मान सौरी भी तो खुद ही कहने आ जाती है ना कई बार" मैँ भावुक हो चला था


"याद है मुझे आज भी वो दिन जब हम हनीमून पर मनाली गए थे"....

"वहाँ हमने 'बैस्ट कपल' का अवार्ड भी तो जीता था ना।"

" संयोग देखो कि लगातार तीन साल तक 'बैस्ट कॅपल' का अवार्ड जीतते रहे हम"


"सुनो"...


"हूँ!......


"क्या कर रहे हो?"

"क्क...क्कुछ नहीं....बस ऐसी ही......"मैँ फटाफट मॉनीटर बन्द करता हुआ अचानक पलटाबोला


"देखा तो!..पीछे बीवी हाथों में गुलाब का फूल लिए खड़ी थी"


"हैप्पी वैलैनटाईन"....बीवी ने कह मेरा माथा हौले से चूम लिया...


"सॉरी...."मेरे मुँह से बस यही निकला और मैँने उसका हाथ थाम लिया

"जाने कब हम दोनों की आँखो से आँसू बह निकले पता भी ना चला"


"चाय पिओगे?"...


"हूँ!..."कह मैँने चुपचाप सहमति जता दी


"यस!...वी ऑर दा बैस्ट कॅपल"बीवी क ए किचन में जाते ही मैँ खुशी से हाथ हवा में लहराता हुआ बोला


"अभी मैँ ये सोच ही रहा था कि बीवी चाय और बिस्कुट ले कर आ गई"


"एक बात बताओ ज़रा...."बीवी चाय की चुस्की लेती हुई बोली


"क्या?"मेरे चेहरे पे प्रश्न था


"तुम्हारा प्रोमिला के साथ सचमुच में चक्कर था ना?"


"नहीं!...

नहीं तो "मेरी आवाज़ में सकपकाहट थी


"झूठे!.....मैँने सब पढ लिया है"...संजू खिलखिला के हँस दी


"और वो मोनिका....कंचन.....वगैरा...वगैराअ...."

"फ्लर्ट कहीं के"बीवी की हँसी रुक नहीं रही थी


"मेरी सकपकाई सी हँसी भी उसकी हँसी में शामिल हो चुकी थी"


***राजीव तनेजा***

नोट:संजू (मेरी पत्नी)को समर्पित

"बीती ताहीं बिसार के"



"बीती ताहीं बिसार के"


***राजीव तनेजा***

बीती ताहीं बिसार के....
आगे सोचने को जी चाहता है....
बहुत गल्तियाँ कर ली...
अब सुधरने को जी चाहता है

चौरासी,बाबरी और गोधरा पर शर्मिंदा हैँ
क्या कहें अब बस रोने को जी चाहता है
लड़ लड़ कर देख लिया बहुत बार
अब शिक्वे भूल गले लगाने को जी चाहता है

उड लिए पंख फैला ऊँची उड़ान
अब नीचे उतरने को जी चाहता है
पूरी हुई हसरतें बहुतेरी
अब बस वैराग्य को जी चाहता है

जी लिए बहुत उल्टा सीधा कर के
अब बस सुकून से मरने को जी चाहता है
चल के देख लिया पुराने ढर्रे पे कई मर्तबा
अब नई राहें नई मंज़िलें तलाशने को जी चाहता है

मरते रहे औरों के लिए हर हमेशा
अब कुछ पल अपने लिए जीने को जी चाहता है
सुनते रहे तमाम उम्र इसकी उसकी सबकी
अब बस अपनी करने को जी चाहता है

महफिलें उम्दा जमाते रहे उम्र भर
अब मायूस हो चुपचाप बैठने को जी चाहता है
बीते बरस लिखने को बहुत छूट गया....
अब नए विष्य नए शब्द तलाशने को जी चाहता है

सच!...बीती ताहीं बिसार के....
आगे सोचने को जी चाहता है....
बहुत गल्तियाँ कर ली...
अब सुधरने को जी चाहता है

***राजीव तनेजा***

"निबटने की तुझसे कितनी हम में खाज है"

"निबटने की तुझसे कितनी हम में खाज है"

***राजीव तनेजा***





माना कि...
अपनों के बीच... अपने शहर में
चलती तेरी बड़ी ही धाक है

सही में...
विरोधियों के राज में भी तू. ..
गुंडो का सबसे बडा सरताज है ...

हाँ सच!...
तू तो अपने ठाकरे का ही 'राज' है...
सुना है!...
समूची मुम्बई पे चलता तेरा ही राज है


अरे!...
अपनी गली में तो कुता भी शेर होता है...
आ के देख मैदान ए जंग में...
देखें कौन. ..कहाँ... कैसे ढेर होता है

सुन!...
सही है...सलामत है...चूँकि मुम्बई में है...
आ यहाँ दिल्ली में...
बताएँ तुझे ...
निबटने की तुझसे कितनी हम में खाज है

हाँ! ...
निबटने की तुझसे कितनी हम में खाज है

***राजीव तनेजा***



नोट: अविनाश वाचस्पति जी को समर्पित

अलख निरंजन -राजीव तनेजा


 

 

"अलख निरंजन!…बोल. ..बम...चिकी बम बम….अलख निरंजन....टूट जाएं तेरे सारे बंधन" कहकर बाबा ने हुंकारा लगाया और इधर-उधर देखने के बाद मेरे साथ वाली खाली सीट पर आकर बैठ गया
“पूरी ट्रेन खाली पड़ी है लेकिन नहीं…सबको इसी डिब्बे में आकर मरना है”बाबा के फटेहाल कपड़ों को देखते हुए मैं बड़बड़ाया
“सबको, मेरे पास ही खाली सीट नज़र आती है। कहीं और नहीं बैठ सकता था क्या?” मैं परे हटता हुआ मन ही मन बोला
“कहाँ जा रहे हो बच्चा?” मेरी तरफ देखते हुए बाबा का सवाल
“पानीपत”मेरा अनमना सा संक्षिप्त जवाब था
“डेली पैसैंजर हो?”…
“जी!…..(मेरा बात करने का मन नहीं हो रहा था) 
जानता जो था कि सब एक नम्बर के ढोंगी हैं…पाखंडी हैं, इसलिए दूसरी तरफ मुँह करके खिड़की से बाहर ताकने लगा

“काम क्या करते हो?”…
“रेडीमेड दरवाजे-खिड़कियों का छोटा सा काम है”ना चाहते हुए भी मैंने जवाब दिया
“कहाँ इस कबाड़ के धन्धे में फँसा बैठा है वत्स?…तेरा चेहरा तो कोई और ही कहानी कह रहा है”मेरी दुखती रग पर हाथ रखने की कोशिश थी यह
“तेरे माथे की लकीरें बता रही हैं कि…राज योग लिखा है तेरे भाग्य में। राज करेगा तू…राज”…
राज वाली बात सुनकर आस-पास बैठे यात्रियों का ध्यान भी बाबा की तरफ हो लिया। मैं मन ही मन हँसा कि “सही ड्रामा है  पब्लिक को बेवकूफ बनाने का… किसी एक को लपेट लो, बाकी अपने आप खिंचे चले आएंगे”…
“हुँह!…यहाँ खाने-कमाने को है नहीं और ये राज योग बता रहा है”… 
“वही घिसे-पिटे पुराने डायलॉग…कोई नई बात है तो बताओ बाबा”मैं बोला….
ना जाने क्यों मेरे ललाट की तरफ गौर से बाबा देख मंद-मंद मुस्काने लगा…
ऐसे एकटक उसे अपनी तरफ घूरता पा मैं मन ही मन बडबडाया “हुँह!…राज योग…पता नहीं कब आएगा ये राजा वाला योग”….
“अपना हाथ तो दिखाओ ज़रा बच्चा"…
मैंने अनमने ढंग से अपना हाथ आगे बढ़ा दिया…
“ये वाला नहीं बच्चा…दाहिना…दाहिना हाथ आगे बढ़ा"….
मैंने भी पता नहीं क्या सोचकर अपना दायाँ हाथ आगे बढ़ा दिया…
“तेरे हाथ की रेखाएं बता रही हैं कि तेरी आयु बडी लंबी है…पूरे सौ साल जिएगा तू”…
“यह तो मुझे भी मालुम है बाबा…सभी यही कहते हैं कि… शैतान का नाम लो और शैतान हाजिर"मैं माखौल सा उड़ाता हुआ बोला…
“यहाँ स्साला…मन करता है कि अभी के अभी इस ट्रेन से कूद पडूँ और ये मुझे मुझे लम्बी उम्र का झुनझुना थमाने की जुगत में है”मैं मन ही मन में विचरता हुआ बोला
मेरे चेहरे पर आते-जाते भावों को देख बाबा बोला “परेशान ना हो बच्चा…जहाँ इतना सब्र किया है वहां दो-चार साल और ठंड रख…राम जी भला करेंगे”…
“जी!…(ना जाने क्यों मेरा स्वर नम्र होने को आया)
“चिंता ना कर…तेरा अच्छा समय बस…अब आने ही वाला है”…
“सही झुनझुना थमा रहे हो बाबा…यहाँ खाने-कमाने के लाले पड़े हैं और आप हो कि दो चार साल बाद का लॉलीपॉप थमा रहे हो ताकि ना रुकते बने और ना ही चूसते बने”बिना बोले मुझसे रहा न गया
“यहाँ स्साली…चिंता इतनी है कि सीधे चिता की तैयारी चल रही है और ये बाबा….

“प्यासा….प्यास से ना मर जाए कहीं…..इसलिए…मुँह में पानी आने का जुगाड़ बना दिया कि बेटा, इंतज़ार कर”…
“अभी तक अच्छा समय आने का इंतज़ार ही तो कर रहा हूँ…और क्या कर रहा हूँ"मैं मन ही मन बुदबुदाया…
“ना जाने कब आएगा अच्छा समय?”मैंने उदास मन से सोचा
“आज ये बाबा कह रहा है कि दो-चार साल इंतज़ार कर। कल को कोई दूसरा बाबा भी यही डायलॉग मार देगा….फिर दो-चार साल और सही”मैं बडबडाया…
“बस…यूँ ही कटते-कटते कट जाएगी ज़िन्दगी”मैं अन्दर ही अन्दर ठण्डी आह भरता हुआ बोला
मेरी देखादेखी और लोग भी हाथ दिखाने जुट गए कि… “बाबा!…मेरा हाथ देखो बाबा”…. “पहले मेरा देखो बाबा"…

“हाँ!…देख बाबा…देख….जी भर कर देख…इसका--उसका…सबका…आंखे फाड़-फाड़कर के देख। सभी को लॉलीपॉप चाहिए, थमा दे…तेरे बाप का क्या जाता है” मै मुँह फेर आहिस्ता से हँसता हुआ बोला
“ शश्श!…टी.टी आ रहा है”जिलानी साहब पे नज़र पड़ते ही मैंने कहा….
टी.टी का नाम सुनते ही मजमा लगाई भीड़ कब छंट गई…पता भी नहीं चला। जिलानी साहब अपने दल बल के साथ आ पहुंचे थे
“टिकट!….टिकट?….दिखाइए”…
“मैं?” मेरे साथ बैठा बन्दा सकपका गया….
“हाँ!…तुम….तुम्हीं से बातें कर रहा हूँ"…
“स…सर!…. ‘एम.एस.टी’ “….
“सुपर चढ़ा है?”…
“जज…जी!…सर…यी…ये देखिये"….
“हम्म!…यहाँ साईन कौन करेगा?….निकालो पूरे तीन सौ बीस रूपए"…
“गग…गलती से रह गया सर साईन करना….अभी कर देता हूँ"…
“पहले तीन सौ बीस रूपए निकालो, बाद में आराम से करते रहना साईन-वाईन”…
“प्लीज़ सर!….इस बार छोड़ दीजिए….आईन्दा से ध्यान रहेगा"….
“हम्म!….देख लो…इस बार तो छोड़ देता हूँ लेकिन अगली बार अगर सुपर चढ़ा नहीं मिला तो पूरे तीन सौ बीस रुपये तैयार रखना”…
“ज्ज…जी!…सर"…
“बहुत दिन हो गए तुमसे भी इंट्रोडक्शन किए हुए”मेरी तरफ ताकते हुए जिलानी साहब बोले

“ज्ज…जी!…सर"…
“मेरे उस काम का क्या हुआ?” जिलानी साहब पलटकर पीछे आते अनुराग से बोले…
“जी!…वो कैंटीन बन्द थी ना सर…26 जनवरी के चक्कर में….एक दो दिन में ला दूंगा”….
“हम्म!…ध्यान रखना अपने आप, मेरी आदत नहीं है बार-बार टोकने की”…
“जी!…जी सर"….
“आपका टिकट?” जिलानी साहब 'मलंग बाबा' की तरफ मुखातिब होते हुए बोले, पर कोई जवाब नहीं….
“आपसे पूछ रहा हूं जनाब, टिकट दिखाइए”…
“हम?….हम बाबा हैं”…
“तो फिर मैं क्या करूँ?”जिलानी साहब ने तल्खी भरे स्वर में कहा…
“हम इस मोह-माया के बन्धनों से आज़ाद हैं बच्चा”….
“अच्छा?” जिलानी साहब भी तुक मिलाते हुए बोले
“ये फालतू की बातें छोड़ो और सीधे-सीधे टिकट दिखाओ”…
बाबा एकदम चुप…
“मैंने कहा ना टिकट दिखाइए?” जिलानी साहब तेज़ आवाज़ में बोले
“किससे?….किससे टिकट मांग रहे हो बच्चा?”….

“आपसे”…
“जानते नहीं, हम कौन हैं?”….
“आप जो कोई भी हैं, मुझे इससे मतलब नहीं….बस…आप टिकट दिखाएं….फालतू बात नहीं”…
“अगर है?….तो दिखाते क्यों नहीं?”मैं भी भड़क उठा
“नहीं है, तो तीन सौ बीस रुपए निकालें”जिलानी साहब रसीद बुक संभालते हुए बोले
“हाँ!…टिकट तो नहीं है हमारे पास”…
“कभी लेने की ज़रूरत ही नहीं समझी होगी ना?” मैं बोल पड़ा
“किसी ने कभी रोका ही नहीं हमें”…
“आज तो रोक लिया ना?”
“आप सीधी तरह से पैसे निकालें, इतना वक्त नहीं है मेरे पास कि….
“वक्त तो बच्चा, सचमुच तेरे पास नहीं है”बाबा जिलानी साहब के माथे को गौर से देखते हुए शांत स्वर में बोले- “शनि तेरे सर पर मंडरा रहा है। राहू…बिना किसी जतन के केतु पर उलटा सवार हो सीधा चला आ रहा है। जल्दी से कुछ उपाय कर ले, वर्ना पछताएगा”…
“मेरा तो जो होगा देखा जाएगा, आप बस…जल्दी से पैसे निकालो। पूरी गाड़ी चेक करनी है मुझे"जिलानी साहब की आवाज़ सख्त हो चली थी…
अपने टी.टी साहब तो अड़कर खड़े हो गए कि इस बाबा से पैसे वसूल कर ही रहेंगे और बाबा था कि पैसे का नाम आते ही इधर-उधर की उल-जलूल हांकने लगता ।बहस खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। ना बाबा मानने को तैयार, ना जिलानी साहब झुकने को तैयार और आग लगाने के लिए तो मैं ही काफी था ही…मज़ा जो आता था इन सब में। तमाशा देखने वालों की भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। एक टिकट में दो-दो मज़े जो मिल रहे थे। सफर का सफर और एंटरटेन्मेंट का एंटरटेन्मेंट।बहस चल ही रही थी कि सोनीपत आ गया…
“अगर आप पैसे नहीं देंगे तो मुझे जबरन आपको यहीं उतारना पड़ेगा”कोई और चारा ना देख जिलानी साहब गुस्से से बोल पड़े
“तू?… तू उतारेगा मुझे?”…
“जी!….जी हाँ…मैं ही उतारूंगा आपको”जिलानी साहब अपनी बेल्ट कसते हुए दृढ़ आवाज़ में बोले…
“ठीक है!…तो फिर उतार के दिखा….एक-एक बात का…एक-एक शब्द का…एक-एक अपमान का हिसाब देना पड़ेगा तुझे यहीं…इसी दरबार में”बाबा मजमा लगाई भीड़ की तरफ देख गुस्से से हुंकारता हुआ बोला…
“तूने मलंग बाबा का अपमान किया है….अब तेरा सर्वनाश…जा लिख दिया मैंने अपनी कलम ”बाबा की नशेड़ी आंखें गुस्से से लाल हो चुकी थी… “चला जा…चला जा यहाँ से चुपचाप वर्ना….घोर अनर्थ हो जाएगा। तूने ईश्वर का अपमान किया है…मेरा अपमान किया है"….
“तो?”…
“मुझसे?…मुझसे टिकट मांगता है?…तेरी तो औकात ही क्या है?” बाबा गुस्से से थर-थर कांपते हुए बोला….
“देखिये!…औकात तो मैं आपको अपनी अच्छी तरह से दिखा सकता हूँ लेकिन भलाई इसी में है कि आप चुपचाप से मुझे अपना टिकट दिखाएँ या फिर जुर्माना भरने को तैयार रहे"…
“अरे!…जा-जा…तेरे जैसे तो छत्तीस मेरे आगे-पीछे दियासलाई ले धूप-बत्ती करते घूमते फिरते हैं हमेशा”बाबा आसपास इकट्ठे हुए मजमे को गौर से देखते हुए बोले
“मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि आपके आगे-पीछे कितने लोग घुमते हैं और कितने नहीं…आप बस मुझे अपना टिकट दिखाइए"…
“देख!…मुझे गुस्सा ना दिला वर्ना कहे देता हूँ….बहुत पछ्ताएगा”….
“मेरा जो होगा…देखा जाएगा…आप बस टिकट दिखाइए"…
“टिकट?…..वो भी मूझसे?…ये!…ये तू ठीक नहीं कर रहा है”….
“देखिये!…मेरा काम है आप जैसे मुफ्तखोरों को पकड़ना और ये मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि मैं अपनी ड्यूटी ठीक से बजा रहा हूँ"जिलानी साहब गुस्से से चिल्लाए
“अच्छा!…तो फिर ठीक है…देख तमाशा ……देख…मैं तुझे कैसे श्राप देता हूँ फिर ना कहना कि बाबा ने पहले चेताया नहीं था"ये कहते हुए बाबा ने आवेशित होकर अपने झोले में हाथ डाला और ‘जय काली कलकत्ते वाली’ का जाप करते हुए पता नहीं क्या मंत्र पढ़ा और अपनी बन्द मुट्ठी को जिलानी साहब के चेहरे की तरफ कर फूँक मारते हुए खोल दिया…कुछ राख-सी उड़ी और अपने टी.टी साहब का मुंह धूल से अटा पड़ा था।
“उतारो!…उतारो स्साले….इस पाखंडी बाबा को” उनका गुस्सा भड़क उठा
“हमको उतार सके, ये तुझमें दम नहीं… तू हमारे से है, हम तुमसे नहीं”बाबा गुस्से में भी शायरी सी करता हुआ नज़र आया
“तेरी इतनी औकात नहीं कि तू मुझे उतार सके”…
“अच्छा?…अभी दिखाता हूँ” जिलानी साहब के चेरे पर आश्चर्यमिश्रित उपहास उड़ाने वाले भाव थे
“देखता हूँ…मुझे लिए बिना ये गाड़ी यहाँ से हिलती भी कैसे है?”कहते हुए बाबा गाड़ी से उतरा और तेज़ी से इंजन की तरफ लपका। वो आगे-आगे और मुझ समेत सारी पब्लिक पीछे पीछे। पब्लिक को तो बस मसाला मिलना चाहिए, चाहे जैसे भी मिले….पूरा इंजॉय करती है, सो मैं भी कर रहा था। इंजन तक पहुंचते ही बाबा सीधा छलांग लगाकर ड्राइवर के केबिन में जा घुसा और झोले से वही राख मंत्र पढ़कर फूंकना शुरू हो गया।
“य्य…ये?…. ये क्या कर रहा है बेवकूफ?” केबिन से बाहर निकालता हुआ ड्राईवर चिल्लाया
“शश्श!....चुप, एकदम चुप”बाबा का मंत्र पढ़ना जारी था
तब तक बाहर भक्तजनों का रेला हाथ जोड़ बाबा की जय-जयकार करना शुरू कर चुका था
“अंधविश्वासी कहीं के….कुछ नहीं होने वाला है।सब टिकट न लेने से बचने का ड्रामा भर है”मैं सबको कहता फिर रहा था  लेकिन कोई मेरी सुनने को तैयार ही नहीं। देखते ही देखते उस अधनंगे से मलंग बाबा को पता नहीं क्या सूझा कि सीधा छलांग मारकर पटरी पर आया और इंजन के सामने आकर खड़ा हो गया।
“अब देखता हूं कि कैसे तनिक सी भी हिलती है गाड़ी?….है हिम्मत तो चला गाड़ी”वह जिलानी साहब को चैलेंज करता हुआ बोला “तूने बाबा का प्यार देखा है…गुस्सा नहीं"टी.टी की तरफ आँखें तरेरते हुए बाबा बोला
“ईश्वर से?… ईश्वर के बन्दों से टिकट मांगता है?….इस सबका तुझे हिसाब देना होगा…आज ही और यहीं….इसी जगह”कहकर बाबा ने फिर वही राख इंजन की तरफ फूंकनी शुरू कर दी
“कोई समझाओ यार इसे, बेमौत मारा जाएगा”टी.टी साहब भीड़ की तरफ मुखातिब होते हुए बोले
सब चुप, कोई टी.टी की बात पर ध्यान नहीं दे रहा था
“ग्रीन सिग्नल दिखाई नहीं दे रहा क्या?” जिलानी साहब ड्राईवर पर बरसे
“ज्ज..जी!…जनाब"….
“तो फिर चलाता क्यों नहीं जी के बच्चे?”टी.टी. साहब तिलमिलाते हुए बोले
“य्य…ये बाबा"….
“बाबा गया तेल लेने, तू गाड़ी चला”टी.टी की भाषा भी अभद्र हो चली थी
“चढ़ा दे इस स्साले पे गाड़ी….लिख देंगे कि आत्महत्या करने चला था…आ गया अपने आप नीचे। हम क्या करें?”…
“ल्ल…लेकिन…
“ चिंता ना कर, गवाही मैं दूंगा। तू चला गाड़ी”….
“साहब!…पता नहीं क्या खराबी आ गई है इसमें, स्टार्ट ही नहीं हो रहा है इंजन”…
“तो स्साले…बन्द ही क्यों किया था?”जिलानी साहब भड़कते हुए बोले….
“म्म…मैंने कहाँ बन्द किया?”….
“तो फिर क्या कोई भूत-प्रेत आकर इसे बन्द कर गया?”…
“जी!….ये तो पता नहीं….कई बार कोशिश कर ली लेकिन पता नहीं क्या बीमारी लग गई है इसे”ड्राईवर इंजन को लात मार बडबडाता हुआ बोला…”घूं घूं की आवाज़ सी आती है और फिर ठुस्स।अभी तक तो अच्छा-भला चलता आया है, दिल्ली से”ड्राईवर की आवाज़ में असमंजस भरा था”पता नहीं क्या चक्कर है?”…
भीड़ के बढ़ते हुजूम के साथ-साथ बाबा का ड्रामा भी बढ़ता जा रहा था। कभी इधर भभूती फूंके तो कभी उधर।जब ग्रीन सिग्नल होने के बावजूद ट्रेन अपनी जगह से नहीं हिली तो स्टेशन मास्टर साहब दौड़े-दौड़े तुरंत आ पहुंचे
“अरे!…चला ना इसे, चलाता क्यों नहीं? कब से ग्रीन सिग्नल हुआ पड़ा है, दिखाई नहीं दे रहा है क्या? अपनी नौकरी की तो तुझे चिंता है नहीं, मेरी भी खतरे में डलवाएगा? पीछे शताब्दी आ रही है, निकाल इसे फटाफट”….
“अपने बस का नहीं है, आप खुद ही कोशिश कर लो”ड्राईवर तैश में गाड़ी से उतरता हुआ बोला
“आखिर, हुआ क्या है इसे?”…
“पता नहीं, आप खुद ही चैक कर लो…चलते-चलते इंजन अपने आप बन्द हो गया”…
“देख!…कोई वायरिंग-शायरिंग ना हिल गई हो”स्टेशन मास्टर की आवाज़ नरम पड़ चुकी थी
“सब देख लिया साहब, कहीं कोई खराबी नहीं दिख रही”ड्राईवर का वही रटा-रटाया सा जवाब
इतने में खबर पूरे सोनीपत स्टेशन पर फैल गई और ‘बाबा की जय हो'….’बाबा की जय हो'  के नारे लगाते लोग उसी प्लैटफॉर्म पर इकट्ठा होने शुरू हो गए
“हाँ!…इस बाबा ने केबिन के अन्दर जाकर कुछ फूंका और इंजन अपने आप बन्द हो गया”ड्राईवर बाबा की तरफ इशारा करता हुआ बोला
“आखिर!…चक्कर क्या है?”..
“पता नहीं साहब…किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा है”…
“सब इसी टी.टी. का किया धरा है। ना ये टिकट मांगता और ना ही ये लफड़ा होता”एक बोल पड़ा
“तो क्या, अपनी ड्यूटी करना छोड़ दें?” मैं भड़क उठा
“तो अब करवा ले ना आराम से ड्यूटी। हुँह!…बड़ा तरफदारी करने चला है”वह चिल्लाया
“उफ्फ़!…एक तो पहले से ही ट्रेन सवा दो घंटे लेट है, ऊपर से ये ड्रामा। पता नहीं, कब चंडीगढ़ पहुंचेगी?”एक सरदार जी परेशान हो घड़ी देखते हुए बोले

“कोर्ट में तारीख है आज की। नहीं पहुंचा  टाइम पे तो समझो प्लॉट गया हाथ से”एक अन्य सज्जन रुआंसे होते हुए बोले…
“बड़ा पहुंचा हुआ महात्मा है”एक अन्य बोल पड़ा
“एक झटके में ही ट्रेन रोक दी, कमाल है”दूसरे ने हाँ में हाँ मिलाई
“अरे!…महात्मा नहीं….अवतार कहो अवतार”किसी तीसरे की आवाज़ सुनाई दी…..
“कोई पहुंचा हुआ फकीर मालूम होता है”एक और चहक उठा
“अगर ऐसा है तो टिकट नहीं ले सकता था क्या?” मैं फिर बोल पड़ा….
“चुप हो जा एकदम से"परेशान सरदार जी मुझे गुस्से से घूरते हुए बोले “इतना ठुकेगा कि ज़िन्दगी भर याद रखेगा। एक पंगा खत्म होने को नहीं है और तू दूसरे की तैयारी किए बैठा है”…
सबको अपने खिलाफ देखकर, मन मसोस कर मुझे चुप हो जाना पड़ा
“जब तक ये टी.टी. माफी नहीं मांगेगा, तबतक ये बाबा गाड़ी नहीं चलने देगा”एक आवाज़ सुनाई दी…
“सही है!…बड़ा अड़ियल बाबा है”….
“अपने टी.टी. साहब भी कौन-सा कम हैं? एक बार अड़ गए सो अड़ गए”मेरा इतना कहना था कि सबकी गुस्से भरी आंखे मुझे तरेरने लगी….
“एक काम करो यार….तुम ही मांग लो माफी"स्टेशन मास्टर टी.टी. से निवेदन सा करते हुए बोले…
“म्म…मैं भला क्यों माफी माँगूँ?…मैं तो अपनी ड्यूटी कर रहा था”टी.टी साहब उखाड़ने को हुए…
“अरे!…यार…देख तो लिया करो कम से कम कि किस से पंगा लेना है और किस से नहीं। ये क्या कि गधे-घोड़े सभी एक ही फीते से नाप दो”स्टेशन मास्टर साहब बोले
“देख नहीं रहे कि सब कितने परेशान हो रहे हैं सब के सब?”…
“आखिर!…क्या गलत किया है मैंने?” जिलानी साहब तैश भरे स्वर में बोले
“अरे!…बाबा, कुछ गलत नहीं किया…बस खुश?” टी.टी. की बात काटते हुए स्टेशन मास्टर साहब बोले….”अब किसी भी तरह से चलता करो यार…इस मुसीबत को”स्टेशन मास्टर की आवाज़ में मिमियाहट थी….
“कैसे?”…
“जो मर्ज़ी, जैसे मर्ज़ी करो लेकिन ये गाड़ी यहाँ से निकल जानी चाहिए अभी के अभी वर्ना….समझ लो अपने साथ-साथ कईयों की नौकरी भी ले बैठोगे” स्टेशन मास्टर साहब गुस्से से तिलिमालते हुए बोले
“समझा कर यार….अगले महीने रिटायर हो रहा हूं और कोई पंगा नहीं चाहिए मुझे। इनक्वायरी बैठ गई तो समझो लटक गया मेरा फंड, मेरी पेन्शन”स्टेशन मास्टर साहब सहमे-सहमे से बोले। पता नहीं कैसे मैनैज करूंगा सब। बेटी की शादी करनी है, डेट फाईनल हो चुकी है। कार्ड तक बंट चुके हैं। अपनी अड़ी के चक्कर में मेरा जुलूस ना निकलवा देना, प्लीज़”…

“अच्छा!….आप ही बताइए, क्या करूँ मैं?….पाँव पडूँ क्या उसके?”….
“हाँ!…हाँ ये ठीक रहेगा"कोई बोल पड़ा
“मना लो यार, किसी भी तरीके से”…स्टेशन मास्टर बोले
ना चाहते हुए भी जिलानी साहब को बाबा से माफी मांगनी पड़ी…

“अब तो मैं क्या मेरे बाप की तौबा, जो आईन्दा कभी किसी साधू या मलंग के मत्थे भी लगा”जिलानी साहब खुद से ही बातें करते हुए आगे निकल गए…
“मुझे किसी पागल कुत्ते ने नहीं काटा है जो मैं नाहक पंगा मोल लेता फिरूं"उनका बड़बड़ाना जारी था
माफी मांगने से बाबा का गुस्सा शांत हो चुका था। मंत्र बुदबुदाते हुए उन्होंने अपने थैले से कुछ निकाल फिर इंजन की तरफ फूंक दिया”हाँ!…तो भईय्या ड्राईवर, अब तुम खुशी से ले जा सकते हो अपना छकड़ा  लेकिन मुझे ले जाना नहीं भूलना”..
हा...हा...हा मुझ समेत, सभी की हँसी छूट गई। ड्राईवर ने खटका दबाया और कमाल ये कि बिना कोई ना नुकुर किए इंजन एक ही झटके में स्टार्ट। अवाक से सबके मुंह खुले के खुले रह गए। हर कोई हक्का-बक्का। आश्चर्य भाव सभी के चेहरे पर तैर रहे थे
“बाबा की जय हो”…. “मलंग बाबा की जय हो”…. इन आवाज़ों से पूरा माहौल गूंज उठा।आंखे देख रही थीं, कान सुन रहे थे लेकिन दिमाग को मानो विश्वास ही नहीं हो रहा था और होता भी कैसे?…कोई विश्वास करने लायक बात हो तब तो लेकिन आंखों देखी को कैसे झुठला देगा ये राजीव? असमंजस भरी सोच में डूबा मैं चुपचाप अपनी सीट पर आ गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये सब हुआ तो हुआ कैसे? सारे तर्क-वितर्क फेल होते नज़र आ रहे थे…
‘ये जादू-वादू कुछ नहीं होता है…सब हाथ की सफाई है हाथ की सफाई….महज़ आंखों का धोखा है’ जैसी बचपन में सीखी-सुनी बातें मुझे बेमानी-सी लगने लगी थी। ‘कहीं हिप्नोटाईज़ ना कर दिया हो बाबा ने पूरी पब्लिक को?’….
‘शायद’ मैं खुद ही सवाल पूछ रहा था और खुद ही जवाब दे रहा था…
‘शायद!…कोई सुपर नैचुरल पावर हो बाबा के पास या फिर कहीं सचमुच में कोई देवता, कोई अवतार तो नहीं है ये बाबा?’ इन जैसे सैंकड़ो सवाल बिना किसी वाजिब जवाब के मेरे दिमाग के भंवर में गोते लगाने लगे थे।ये सारा चक्कर मुझे घनचक्कर किए जा रहा था।
‘इतनी शक्ति?…इतनी पावर?…एक आम इंसान में?’….
‘हो ही नहीं सकता’….
‘क्या आज भी इतनी ताकत, इतना दम है मंत्रोचार में?’…
कभी सोचा ना था। ऐसे किस्से तो ‘मानो या न मानो’ सरीखे टीवी-सीरियलों में ही देखे थे आज से पहले।
‘सब फ्रॉड है, सब धोखा है’दिमाग मुझे इस सारे वाकयों पर विश्वास करने से मना कर रहा था…
‘लेकिन अगर सब फ्रॉड है…सब धोखा है…छलावा मात्र है तो यकीनन बाबा की दाद देनी होगी कि कैसे उसने सबकी आंख फाड़ती नज़रों के सामने खुली आंखों से काजल चुरा लिया’
‘जरूर कुछ ना कुछ चमत्कार, कुछ ना कुछ कशिश तो है ही बाबा में’मेरा मन बाबा की तारीफ करने लगा था। मैं हक्का-बक्का सा बाबा को ही टुकुर-टुकुर निहारे चला जा रहा था। उनके चेहरे पर तेजस्वी ओज सा चमकने लगा था।
‘उफ!…मैं नादान समझ नहीं पाया उनको। अनजाने में भूल से पता नहीं कैसा-कैसा मज़ाक उड़ाता रहा’अब अपने किए पर पछतावा होने लगा था मुझे…

‘ये ज़बान कट के क्यों ना गिर गई, उनके बारे में अपशब्द कहने से पहले?’…
“बाबा!…मुझ अज्ञानी को…मुझ पापी को क्षमा कर दो…माफ कर । मैं नास्तिक आपको पहचान नहीं पाया”कहते हुए मैंने बाबा के पांव पकड़ लिए
आंखों से कब अविरल आसुंओ की धार बह चली, पता भी न चला। मेरे चेहरे पर पश्चाताप के आंसू देख बाबा ने उठकर मुझे गले से लगा लिया…
“कोई बात नहीं बच्चा…ये सब तो चलता ही रहता है…अपने आंसू पोंछ ले"…
“बाबा की जय….बाबा की जय हो”इन आवाज़ों में मेरी आवाज़ भी शामिल हो घुल चुकी थी
“क्या सोच रहा है बच्चा?”मुझे गहरे सोच में डूबा देखकर बाबा ने पूछ लिया…
“जी!…कुछ खास नहीं, बस…ऐसे ही”…
“कोई ना कोई बात तो ज़रूर है बच्चा जो तुझे अन्दर ही अन्दर खाए चली जा रही है"बाब मेरे चेहरे को गौर से देखते हुए बोला…
“जी!…दरअसल मैंने तो सुना था कि ये जादू-शादू कुछ नहीं होता लेकिन वह ट्रेन...(मेरे चेहरे पर असमंजस का भाव था)
“सब ईश्वर की माया है बच्चा”…
“लेकिन बाबा, ऐसा…कैसे हो सकता है?” मेरे चेहरे पर हैरत का भाव था…
“आँखों देखी पर विश्वास नहीं है  तुझे तो अब कानों सुनी पर कैसे विश्वास करेगा बच्चा?”….
“जी!…लेकिन….
“लेकिन वेकिन कुछ नहीं….अभी कहा ना कि सब ईश्वर की माया है”…
“बाबा…मुझे अपनी शरण में ले लो, अपना दास बना लो”कहते हुए मैंने हाथ से अपनी अंगूठी उतार बाबा के चरणों में अर्पित कर दी
“हमें कुछ नहीं चाहिए बच्चा। बरसों पहले हम इन मोह-माया के बन्धनों से मुक्त हो चुके हैं, आज़ाद हो चुके हैं”…
“बाबा…ये तो कुछ भी नहीं, बस…ऐसे ही एक छोटी सी तुच्छ भेंट समझ कर रख लें…मुझे तो बस आपका सानिध्य, आपका आर्शीवाद चाहिए…इसके आलावा मेरे लायक कोई और सेवा हो तो बताएँ?”…
“लगता है तुम नहीं मानोगे, जैसी तुम्हारी इच्छा लेकिन इस छोटी-मोटी फुटकर सेवा से हमारा अभिप्राय पूरा नहीं होने वाला”कहते हुए उन्होंने अंगूठी उठाकर कुर्ते की जेब में रख ली। मेरे चेहरे पर प्रश्न सवार देखकर वह बोले…. “मैं तो मलंग आदमी हूं। अपने लिए कुछ नहीं चाहिए मुझे।दो जून खाने को और तन ढंकने को एक जोड़ी कपड़ा मिल जाए तो बहुत है मेरे लिए”….
“जी!…
“एक छोटी-सी गौशाला बनवा रहा हूं, यही कोई पांच सौ गायों की। साथ में आठ-दस कमरे भी बनवा रहा हूं धर्मशाला के लिए, आने-जाने वालों के काम आएंगे”…
“जी!…
“यही कोई दस-बारह लाख का खर्चा बताया है आर्कीटेक्ट ने"…
”जी!…

“वैसे तो ऊपरवाले की कृपा से कोई दिक्कत नहीं है लेकिन फिर भी नेक कामों के लिए पैसे की तंगी तो रहती ही है हमेशा”…
शायद!…इशारा था ये उनकी तरफ से…
“बाबा!…दान-दक्षिणा की तो आप चिंता न करें। जो बन पड़ेगा…जितना बन पड़ेगा….जरूर मदद करूंगा आखिर…गौ माता की सेवा का सवाल जो ठहरा। हम मदद नहीं करेंगे तो कोई बाहर से तो आने से रहा”मैंने कहा “लेकिन बाबा….एक जिज्ञासा है….
“बोलो वत्स”बाबा ने सौम्य स्वर में पूछा…
“एक सवाल मेरे मन को खाए जा रहा है बार-बार”मेरा कौतुहल मुझे चैन से बैठने नहीं दे रहा था…
“यही कि वो ट्रेन कैसे….(बाबा ने बात अधूरी छोड़ दी)
“जी!…
“अच्छा!…सुन…पानीपत जाना है ना तुझे?”बाबा मुस्कुराते हुए बोले…
“जी!….
“ठीक है….स्टेशन आ जाने दे, तेरी सब शंकाओं का निवारण कर दूंगा…अब खुश?”… 
“जी!…बहुत"मैं प्रसन्न होकर बोला…
“वो बेटा…मैंने तुम्हें बताया था ना कि गौशाला के लिए....
“जी!…आप बताएँ कि कितने से आपका काम चल जाएगा?”….
“दान माँगा नहीं जाता वत्स …जो तुम्हारी श्रद्धा हो…दे दो"…
“दो हज़ार ठीक रहेंगे?”मैं जेब से पर्स निकालता हुआ बोला…
“तुम्हारी मर्ज़ी…अपने आप देख लो, पुण्य का काम है”…
“ठीक है बाबा…पांच हज़ार दे देता हूं…ये लीजिए”…
“हमें अपने लिए कुछ नहीं चाहिए बच्चा, सब गौ माता की सेवा के काम आएगा”बाबा पैसे जेब के हवाले करते हुए बोले….
मोक्ष क्या है?….नाम-दान से क्या अभिप्राय है?…जैसी ज्ञान-ध्यान की बातों में पता ही नहीं चला कब पानीपत आ गया…
“बाबा!…मैं चलता हूं…पानीपत आ गया”…
“ठीक है बच्चा…पहुँचो अपनी मंज़िल पे" बाबा मुझसे विदा लेते हुए बोले..
“जी!…
”अपना ध्यान रखना”…
“जी!…लेकिन बाबा…पहले बताओ ना कैसे रोक दिया था आपने इस ट्रेन को?” मेरे चेहरे पर बच्चों जैसी उत्सुकता देखकर बाबा मुस्कुराए “सब ईश्वर की माया है बच्चा। ये मेरा विज़िटिंग कार्ड रख लो, दर्शन देने कभी-कभार आ जाया करना हमारे आश्रम में”…
“जी!…ज़रूर"…
“ईश्वर चन्द मेरा नाम है। ध्यान रहेगा ना?”…
“जी!…बिलकुल"मैं विज़िटिंग कार्ड को जेब में रखते हुए बोला
“वैसे भी बच्चा जो कोई मुझे एक बार जान लेता है ताउम्र नहीं भूलता”बाबा के चेहरे की मुस्कान रहस्यमयी हो गहरी हो चली थी….
“आपकी महिमा अपरम्पार है प्रभु….लेकिन वो ट्रेन कैसे….
“लगता है तुम जाने बिना नहीं मानोगे…अच्छा…अपना कान इधर लाओ”….
उसके बाद उन्होंने जो कुछ भी मेरे कान में कहा, वह सुनकर मैं हक्का-बक्का सा रह गया। बोलने को शब्द नहीं मिल रहे थे। कानों को जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था। यकीन ही नहीं हो रहा था कि ये सब कैसे हो गया? विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई मुझे दिनदहाडे पांच हज़ार रुपए नकद और दहेज में मिली सोने की अंगूठी का फटका लगा चुका था। दरअसल…हुआ क्या था कि जब बाबा, इंजन में ड्राईवर के पास गया तो उसने चुपके से ड्राईवर को पांच सौ का नोट देकर कहा था कि ‘जब तक मैं इशारा ना करूँ..तब तक गाड़ी रोककर रखनी है’ 
इतनी सिम्पल सी बात, मैं बेवकूफ समझ नहीं पाया। खुद अपनी ही नज़रों से शर्मसार हो जब मैं कुछ सोचने-समझने लायक हुआ तो पाया कि बाबा आस-पास कहीं न था। अब मैं कभी अपने खाली पर्स को देखता, कभी अंगूठी विहीन अपने हाथ को। सच!…वो ईश्वर चन्द का बच्चा अपनी ईश्वरी माया दिखा वहाँ से चम्पत हो चुका था। सही कह गया था वो ठग मुझे कि उसे एक बार जान लेने के बाद कोई भी उसे अपनी पूरी जिंदगी नहीं भूलता है…मैं भी कभी नहीं भूल पाऊँगा उस #$%^&*&^%$ को
****राजीव तनेजा ***
 
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