गुनाह क़ुबूल है मुझे- राजीव तनेजा
ट्रिंग-ट्रिंग…ट्रिंग-ट्रिंग…
“हैलो"..
“इज इट फ़ादर डिकोस्टा स्पीकिंग?"…
“यैस…माय सन..मे आई नो हूज ऑन दा लाइन?”..
“सर!…मैं राजीव…दिल वालों की नगरी दिल्ली से"…
“व्हाट कैन आई डू फॉर यू…माय सन?”…
“मैं आपसे मिलना चाहता हूँ"…
“किस सिलसिले में?”..
“मैं अपने गुनाह…अपने पाप कबूल करना चाहता हूँ”…
“यू मीन!…आप कन्फैस करना चाहते हैं?”…
“जी!…
“ओनली कन्फैस…या फिर प्रायश्चित भी?”…
“फिलहाल तो सिर्फ कन्फैस….बाद में कभी मौका मिला तो प्रायश्चित भी..शायद…अगले जन्म में"…
“ठीक है!…तो फिर कल सुबह…ठीक साढे नौ बजे आप मुझे घंटाघर के बगल वाली पुलिस चौकी में आ के मिलें"…
“प्प…पुलिस चौकी में?”…
“जी!…मुझे तो वहाँ जाना है ही..आप भी आ जाइए…एक पंथ दो काज हो जाएंगे"…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“दरअसल..क्या है कि मुझे टाईम वेस्ट करना बिलकुल भी पसंद नहीं है…इसलिए वहीँ पे…यू नो…टाईम वेस्ट इज मनी वेस्ट?”..
“ल्ल…लेकिन पुलिस चौकी में ही क्यों?”…
“मेरे बेटे का मुंडन है वहाँ पर"…
“बब...बेटे का?"...
"जी!...
"लेकिन मैंने तो सुना है कि....
"ठीक सुना है आपने...पादरी होने के नाते मैंने आजन्म कुंवारे रहने की कसम खाई है"...
"तो फिर ये बेटा?"...
"गोद लिया हुआ है"...
"लेकिन पुलिस चौकी में ही उसका मुंडन क्यों?”…
"अपनी-अपनी श्रद्धा की बात है"…
“लेकिन आप तो फादर हैं"…
“तो?”…
“फादर हो के मुंडन?”…
“जी!…
“आप वो ‘क्राईस्ट’ जी वाले ‘फादर' ही हैं ना?”मेरे मन में शंका उत्पन्न होने को हुई …
“हाँ!…तो?”…
“तो फिर ऐसे…कैसे?”..
“क्या…ऐसे-कैसे?”..
“ये मुंडन कैसे?”…
“अपनी मर्जी से थोड़े ही करवा रहा हूँ"…
“क्या मतलब?”…
“मेरा जिगरी दोस्त करवा रहा है ये सब"…
“कौन सा?”…
"वही जो पंडिताई भी करता है"…
“पंडिताई भी करता है…माने?”…
“उसका असली काम मुखबरी का है"…
“चोरों की?”…
“नहीं!…पुलिस की"…
“तो?”..
“इस बार पट्ठा लालच में आ…पलटी मार गया"…
“क्या मतलब?”..
“उस स्साले…हरामखोर की ही मुखबिरी पे तो मेरे बेटा रंगे हाथों चोरी करते पकड़ा गया"…
“ओह!…
“इसीलिए बतौर सजा उसका मुंह काला कर ..उसे गंजा किया जा रहा है"…
“ओह!…
……{कुछ सैकैंड के मौन के बाद}…..
“तो ये तय रहा कि आप कल सुबह ठीक साढे नौ बजे पुलिस चौकी आएंगे और अपना इकबाले जुर्म करेंगे?”..
“पागल समझ रखा है क्या?”..
“क्या मतलब?”…
“ये मत सोचिए फ़ादर कि इस दुनिया में ढेढ सयाने सिर्फ आप ही हैं…भूसा नहीं…भेजा भरा है मेरे दिमाग में"…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“इतने नासमझ तो नहीं लगते आप कि ये भी ना समझ सकें कि वहाँ… थाने में इकबाले जुर्म करते ही मैं भी धर लिया जाऊँगा"…
”ओह!..तो फिर परसों या उसके अगले दिन का प्रोग्राम रखें?”…
“तब तक तो बहुत देर हो जाएगी"…
“तो फिर मेरे ख्याल से थोड़ा आगे-पीछे करके कल का ही प्रोग्राम तय कर लेते हैं...यही बैटर रहेगा"...
“नहीं!..कल का नहीं…कुछ भी कर के आप आज ही का…बल्कि अभी का प्रोग्राम रखें तो ज्यादा अच्छा रहेगा"…
“अभी का?”…
“हाँ!…मैं अभी के अभी कन्फैस करना चाहता हूँ…यहीं..फोन पे"…
“फ्फ…फोन पे?”..
“जी!…
“लेकिन अभी तो सन…मैं थोड़ा बिजी हूँ….कुछ निजी मुश्किलात वगैरा हैं…उनसे निबट के ही मैं …आप एक काम करें…
“जी!…
“कल सुबह का ही वक्त रखें तो ज्यादा बेहतर होगा"…
“नहीं!…कल सुबह तो बिलकुल नहीं…इतना वक्त नहीं है मेरे पास"…
“लेकिन अभी तो जैसा मैंने कहा कि मैं थोड़ा बिजी हूँ किसी निजी काम में"…
“आपका ये निजी काम मेरी जान ले के रहेगा…ओ.के बाय”…
……{कुछ सैकैंड के मौन के बाद}…..
“सॉरी!…मैं आज के बाद आपको कभी डिस्टर्ब नहीं करूँगा”..
“वेट!…वेट माय सन….कल सुबह तक की ही तो बात है"…
“कल सुबह का सूरज देखना मेरी किस्मत में नहीं लिखा है सर…मैं मरने जा रहा हूँ…बाय"…
“रुको!…रुको तो सही...ये पाप है"…
"जो मैंने किया है वो भी किसी पाप से कम नहीं है"...
"लेकिन...
“कोई फायदा नहीं…मैं पूरी तरह से निराश हो चुका हूँ अपने इस विशालकाय…नीरस एवं ऊबाऊ जीवन से"मैं रुआंसा होता हुआ बोला…
“ऐसी बातें नहीं करते माय सन….अभी तुम्हारी उम्र ही कितनी है?”…“कितनी है?”..
“ये तो आप मुझे बताएंगे कि कितनी है?”..
“आई एम् फोर्टी एट प्रैसैंट”…
“वैरी स्ट्रेन्ज….आप इतनी छोटी सी उम्र में ही मरना चाहते हैं?”…
“यैस!…फ़ादर"…
“क्या बच्चों जैसी बातें करते हो?…अभी तो तुम्हारे खेलने-कूदने की उम्र है”….
“मम्मी भी यही कहती है"..
“क्या?”…
“यही कि ये मेरे खेलने-कूदने की उम्र है"…
“तो?”…
“पापा खेलने नहीं देते और बीवी कूदने नहीं देती"…
“लेकिन क्यों?”..
“पापा कहते हैं कि…अब तुम बड़े हो गए हो"…
“और बीवी क्या कहती है?”..
“उसको लगता है कि मैं कूद ही नहीं सकता"…
“लेकिन क्यों?”…
“एक बार कोशिश करी थी"…
“कूदने की?”…
“जी!…
“तो फिर?”..
“मुंह के बल गिरा था"…
“वो कैसे?”…
“बीवी जो सामने से हट गई थी"…
“तुम बीवी के ऊपर कूद रहे थे?"…
“जी!…
“लेकिन क्यों?”…
“क्यों से क्या मतलब?…शादीशुदा हूँ"...
"तो?"..
“पंखे साफ़ करना मेरी ड्यूटी है"…
“टेबल वाले?”…
“नहीं!…छत वाले"….
“तो?”…
“अचानक बैलेंस बिगड़ गया”…
"छत का?"..
"नहीं!...मेरा"...
“तो?”..
“तो..क्या?…कूद पड़ा"…
“बीवी पर?”…
“नहीं!…पंखे पर"…
“लेकिन वो तो छत से टंगा हुआ था ना?”..
“जी!…
“तो फिर तुम किस पर कूदे थे?”..
“टेबल वाले पर"..
“वो कहाँ था?”..
“ज़मीन पे पड़ा था"…
“पड़ा था?”…
“नहीं!…खड़ा था"…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“मैं छत वाले पंखे को साफ़ कर रहा था और टेबल वाला ज़मीन पर खडा था"…
“तो बीवी पर कैसे कूद पड़े?"…
“ऐसे" मैं कान से फोन को लगाए-लगाए कूदने का उपक्रम करता हुआ बोला
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“और समझेंगे भी नहीं"…
“क्यों?”..
“दिमाग जो मोटा है आपका"…
“ओह!..तो एक बार फिर से कोशिश करते हैं"..
“कूदने की?”…
“नहीं!…समझने की"…
“ओ.के…तो फिर मैं शुरू से आपको समझाता हूँ"..
“शुरू से नहीं…बस…वहीँ से जहाँ से मुझे समझ नहीं आया था"…
“ओ.के…तो जैसा कि मैंने आपको बताया कि मैं पंखा साफ़ कर रहा था….
“छत वाला?”…
“जी!…
“ओ.के"…
“तो फिर हुआ ये कि अचानक से मुझे झटका लगा और निशाना चूकने की वजह से मैं बीवी के ऊपर धड़ाम जा गिरा"..
“लेकिन क्यों?”…
“क्यों से क्या मतलब?…ये बस में मेरे थोड़े ही था"…
“वही तो मैं भी पूछ रहा हूँ कि…लेकिन क्यों?”..
“करैंट जो मारा था बड़ी जोर से"…
“बीवी ने?”…
“नहीं!…पंखे ने"…
“ओह!…
“ओह!…नहीं…आह"…
“क्या मतलब?”..
“मेरे मुंह से ओह नहीं बल्कि…आह निकला था"…
“ओह!…
“फिर वही ओह?…अभी-अभी तो आपसे कहा कि ओह नहीं…आह"…
“एक ही बात है"…
“एक ही बात कैसे है?…ओह!…ओह होता है और आह…आह होता है"..
“जी!..
……{कुछ सैकैंड के मौन के बाद}…..
“समय तो मेरे पास नहीं है लेकिन फिर भी…चलो..बताओ कि…क्या कन्फैस करना चाहते हो?”…
“अब क्या बताऊँ फादर साहब?…ज़िन्दगी पूरी तरह से झंड और जीना मुहाल हो चुका मेरा"…
“लेकिन कैसे?”…
“अब क्या बताऊँ फ़ादर जी कि कैसे?”…
“अरे!..अगर बताओगे नहीं तो मुझे कैसे पता चलेगा सन कि क्या दिक्कत है तुम्हें?”…
“दिक्कत एक हो तो मैं बताऊँ भी फादर जी आपको"…
“हम्म!…काम-धन्धे में नुक्सान वगैरा की वजह से तो कहीं परेशान नहीं हो तुम?”….
“क्या बात कर रहे हैं फादर जी आप भी?…काम मैंने कभी कोई किया नहीं और धन्धा मेरा दिन दूनी और रात चौगुनी तेज़ी से फल-फूल रहा है"…
“रात चौगुनी?”…
“जी!…दो नंबर का काम है ना…इसलिए"मैं कुछ सकुचाता हुआ बोला…
“ओह!…
“ओह!…नहीं…आह"…
“हाँ!…ओह नहीं…आह"…
“नाओ…दैट साउंडज बैटर”…
“तो क्या घर में बीवी-बच्चों से कोई पंगा?”…
“क्या बात करते हैं फादर जी आप भी?…बीवी तो मेरी एकदम साक्षात भारतीय नारी”…
“निरूपा राय के जैसी?”…
“नहीं!…राखी सावंत के जैसी”…
“हम्म!..और बच्चे?”..
“बच्चे तो ऐसे गुणी कि ‘रणजीत’…’शक्ति कपूर’ और ‘गुलशन ग्रोवर’ को भी मात करते हैं"..
“पर्सनैलिटी में?"...
"नहीं!..आदतों में”…
“हम्म!… तो क्या कोई माशूका वगैरा नाराज़ चल रही है तुमसे?”…
“अरे!…वो भला क्यों नाराज़ रहने लगी मुझसे?…उसका तो मैं उसके सभी आशिकों के मुकाबले ज्यादा ख्याल रखता हूँ…कोई दिक्कत…कोई परेशानी नहीं आने देता हूँ"…
“ओ.के…तो क्या माता-पिता की तरफ से तुम्हें कोई परेशानी है?”…
“क्या बात कर रहे हैं फादर जी आप भी?…पिताजी तो मेरे एकदम माता समान हैं"…
“अक्ल में?”..
“नहीं!…शक्ल में"…
“और माता जी?”…
“माताजी तो एकदम पितातुल्य हैं"…
“पितातुल्य…माने?”…
“उनका वज़न पिताजी के बराबर है…
“हम्म!...
"पूरे 124 किलो"…
“बाप रे”…
“एक का नहीं…दोनों का"…
"ओह!…तो कहीं कोई रेप-राप का लफड़ा तो नहीं"फादर का संशकित स्वर
“क्या बच्चों जैसी बात कर रहे हैं फादर जी आप भी…रेप तो उलटा मेरा हो चुका है पूरे तीन बार"…
“ओह!…रियली?”…
“यैस फादर"मेरा गौरान्वित स्वर …
"कब?"…
"पहली बार जब मैं …चौथी क्लास में था….
“च्च…चौथी क्लास में?…
“जी!...तब मुझे पता नहीं था कि ये रेप आखिर होता क्या है?”…
“ओह!…लेकिन इतनी छोटी उम्र में तुम्हारा रेप…सो सैड ना?”…
“किसने कहा कि छोटी उम्र में मेरा रेप हो गया?”…
“अभी आपने ही तो कहा"…
“क्या?”..
“यही कि जब आप चौथी क्लास में थे तो आपका रेप हो गया था"…
“मैंने कब कहा?"...
"अभी?"..
"ध्यान से अपने दिमाग पे जोर डाल के देखिये कि मैंने ये कहा था कि...जब मैं चौथी क्लास में था…तब मुझे पता ही नहीं था कि ये रेप आखिर होता क्या है?”..
“ओह!..
“इसके बारे में तो पता मुझे तब चला जब मैं नौवी क्लास में पहुंचा"...
“ओह!..तो इसका मतलब तब आप नौवी क्लास में थे..जब पहली बार आपका रेप हुआ?”…
“आपका दिमाग क्या घास चरने गया है?”..
"क्या मतलब?”…
“मैं स्कूल में पढ़ने-लिखने के लिए जाता था ना कि ये सब उलटे-पुलते काम करने"…
“ओह!…लेकिन अभी आप ही ने तो कहा कि जब आप नौवी क्लास में पहुंचे तो आपको पहली बार पता चला कि...ये रेप आखिर होता क्या है?"...
"तो?...मैं क्या किसी ज़रुरी काम से नौवी क्लास में नहीं जा सकता?"...
"ज़रुरी काम से?"...
"हाँ!...टीचर ने मुझे डस्टर लेने भेजा था"...
"तो इसका मतलब आप उस समय नौवी क्लास में नहीं पढते थे?"..
“नहीं!...उस वक्त तो मैं छठी क्लास में पढता था"...
"ओह!...तो फिर तुम्हें कैसे पता चला?"...
"रेप के बारे में?"...
"जी!...
"उस क्लास में बच्चे आपस में बात कर रहे थे तो मैंने भी सुन लिया"...
"ओह!...
"इन चक्करों में तो मैं काफी बाद में...लगभग कालेज के दिनों में ही मुझे इस सब की आदत पड़ी थी"…
“रेप की?”…
“जी!…
"ओह!...तो फिर ऐसा क्या कर दिया तुमने कि आज तुम्हें यूँ पछताते हुए अपने पापों का प्रायश्चित करना पड़ रहा है"...
"प्रायश्चित नहीं...ओनली कन्फैस...प्रायश्चित के बारे में तो मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि उनके बारे में मैं अपने अगले जन्म में सोचूंगा...अभी से उनके बारे में सोच के क्यों अपना दिमाग खराब करूँ?"..
"जी!...लेकिन ऐसी क्या वजह हो सकती है कि तुम ऐसे कन्फैस करने पे मजबूर हो गए?"...
"एक मिनट...फॉर यूअर काईंड इन्फार्मेशन ...मुझे किसी ने मजबूर नहीं किया है...ये सब तो मैं अपनी खुशी से …खुद ही अपने ज़मीर के चलते अपने आप से शर्मिंदा होकर कर रहा हूँ"...
"ओ.के...ओ.के...जैसा भी आप सोचें लेकिन किसी भी केस या मामले की तह तक जाने के लिए मुझे पहले उसकी पृष्ठभूमि में तो कूदना ही पड़ेगा ना?"...
"पृष्ठभूमि माने?"...
"बैक ग्राउंड"..
"ओह!...तो फिर ऐसा कहिये ना"...
"तो फिर बताइए"...
"क्या?”…
“यही कि ये सब कैसे शुरू हुआ?"..
"शुरुआत से?”..
“जी!...
"इसकी भी एक लंबी कहानी है"...
"आप शार्ट में करके सुनाइए"..
"ओ.के"...
"वो दिन भी क्या दिन थे जब मैं फिल्मों का बहुत बड़ा दीवाना हुआ करता था"...
"ओ.के"...
"एक-एक फिल्म को चालीस-चालीस बार देखता था"...
"च्च...चालीस-चालीस बार"...
"जी!...सिनेमा घर में प्रोजेक्टर चलाने की जिम्मेदारी मेरी ही होती थी ना"...
"ओह!...
"बाद में बस..शादी होने के बाद मैंने वो नौकरी छोड़ दी"...
"कोई खास वजह?"...
"बीवी घर में ही जो अपना सनीमा ऊप्स!...सॉरी...सिनेमा दिखाने लगी थी"...
"कैसे?”…
“अपने दहेज में वो ‘वी.सी.डी’ प्लेयर और ‘होम थिएटर’ जो लाई थी फिलिप्स के टी.वी के साथ"
"फिलिप्स के ‘टी.वी' के साथ?”…
"जी!...
"नाईस चायस"...
"बीवी की?”…
“नहीं!…टी.वी की"…
“थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट"...
"फिर क्या हुआ?"..
"होना क्या था?..एक दिन मेरा दिमाग फिर गया और मैंने...
"बीवी को झापड दे मारा?"...
"नहीं!..मैं भला अपनी गऊ जैसी बीवी को क्यों मारने लगा...पूरे बारह लीटर दूध देती है"...
"गऊ?"...
"नहीं!..बीवी"...
"क्क्या?"..
"हाँ!...वो बेचारी खुद भूखी रहती है और पूरे बारह लीटर दूध मुझे दे देती है"...
"रोजाना?"..
"इतने अमीर नहीं हैं हम"...
"तो क्या हफ्ते में?"...
"नहीं!..इतनी हसीन भी मेरी किस्मत कहाँ?...वो तो..
"तो क्या पूरे महीने में वो आपको बारह लीटर दूध देती है?"....
"इतनी फिजूलखर्च भी वो नहीं"...
"तो क्या पूरे साल में ...
"एग्जैकटली!…अब सही पहचाना आपने"...
……{कुछ सैकैंड के मौन के बाद}…..
"आप फिल्मों की बात कर रहे थे"...
"जी!...तो जैसा कि मैंने आपको बताया कि मैं फिल्मों का बहुत बड़ा दीवाना था और…
“एक-एक फिल्म को चालीस-चालीस बार देखते थे?"…
“जी!…
“फिर क्या हुआ?”…
“वक्त के साथ-साथ मैं बोर होता चला गया"…
“फिल्मों से?”…
“नहीं!…
“बीवी से?”…
“नहीं!..’टी.वी' से"..
“ओ.के!…फिर क्या हुआ?”…
“मैंने टी.वी पर फिल्में देखना छोड़ फिर से सिनेमा घरों का रुख किया?”…
“तुम्हारी नौकरी बची हुई थी अब तक?”…
“नहीं!…इसी बात का तो अफ़सोस है कि उसने मुझे पहचानने से इनकार कर दिया"…
“सिनेमा हाल के मैनेजर ने?”…
“नहीं!…वो भला क्यों मुझे पहचानने से इनकार करने लगा?…वो तो मेरा जिगरी दोस्त था…उसने तो मुझे ‘पेप्सी' भी पिलाई और मुफ्त में फिल्म भी दिखाई"…
“तो फिर किसने आपको पहचानने से इनकार कर दिया?”..
“बीवी ने"…
“क्यों?”..
“मैंने ‘शान’ फिल्म जो देखी थी"…
“तो?”…
“फिल्म देखने के बाद ‘शाकाल' का जादू कुछ ऐसा सर चढा कर बोला कि….
“आपने सर ही मुंडवा डाला?”…
“एग्जैक्टली!…आपको कैसे पता?”..
“मैं भी एक बार ऐसे ही अपने इमोशनज से वशीभूत हो गया था और…
“गंजे हो गए थे?”…
“नहीं!…
“तो फिर?”..
“मुझ पर ‘सड़क’ फिल्म का जादू सर चढ कर बोला था"…
“तो आपने संजय दत्त के माफिक बाल रख लिए थे?”…
“नहीं!…
“उसके माफिक बलिष्ठ बॉडी बना ली थी?"…
“नहीं!…
“तो फिर?”…
“महारानी के माफिक बोलना-चालना और उठना-बैठना शुरू कर दिया था"…
“ओह!…
“फिर क्या हुआ?”…
“ये तो आप बताएँगे कि फिर क्या हुआ?”..
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“अरे!…ये तो आप बताएँगे ना कि ‘महारानी' के गेटअप को अपनाने के बाद आपके साथ क्या हुआ था?”…
“वही हुआ जिसका अंदेशा था"…
“कुत्ते पीछे पड़ गए थे?”…
“एग्जैक्टली!…आपको कैसे पता चला?”..
“एक बार मेरे पीछे भी …छोड़िये…इस राम कहानी को…वैसे भी कहानी बहुत लंबी होती जा रही है"…
“जी!…आप आगे बताइये कि फिर क्या हुआ?”…
“हिंदी फिल्मों का ऐसा जुनून सा छाया था दिल औ दिमाग पर कि हर फिल्म के साथ मैं नए गेटअप आजमाने लगा"…
“खुद पर?”…
“नहीं!…बीवी पर”..
“ओह!…
“कभी बुलन्द आवाज़ में उससे ‘मोगैम्बो!…खुश हुआ' का कालजयी नारा जोर-शोर से लगवाता तो कभी ‘गज़नी' के माफिक गंजा कर…उसके पूरे बदन पे अंट-संट लिखवा डालता"….
“परमानैंटली?”…
“एग्जैक्टली”…
“फिर क्या हुआ?”…
“फिर मैं थोड़ा चूज़ी हो गया और आलतू-फालतू की नौटंकियां देखनी मैंने बन्द कर दी"…
“ऐसे अनोखे बदलाव की वजह?”…
“सिनेमा हाल के मैनेजर ने जो वहाँ से नौकरी छोड़ दी"…
“तो?”…
“अब मुफ्त में सिनेमा कौन दिखाता?”…
“हम्म!…अच्छा किया जो वक्त रहते ही संभल गए…कुछ नहीं धरा है बेफाल्तू में नोट फूंकने से"…
“जी!…लेकिन कुछ ही दिनों तक मैं अपने आप को काबू में रख पाया"…
“क्या मतलब?”…
“उसके बाद अपने ‘सल्लू' मियां की ‘वांटेड' जो रिलीज़ हो गई"…
“तो?”…
“सारे के सारे प्रण धरे के धरे रह गए”….
“ओह!…
“इस स्साले!…इस प्रभुदेवा के बच्चे ने फिल्म ही धाँसू बनाई है कि मुझसे रहा नहीं गया और मैंने….
“और आपने उसे चालीस-चालीस बार देखा?”..
“प्रभुदेवा को?”…
“नहीं!…फिल्म को"…
“पागल समझ रखा है क्या मुझे?”…
“क्या मतलब?”..
“इतना पागल भी मैं नहीं कि अपने पल्ले से एक ही फिल्म को चालीस-चालीस बार देखूं”…
“ओ.के…
“दरअसल!…मन तो मेरा बहुत कर रहा था इस फिल्म को बार-बार देखने का लेकिन बारह बार के बाद ही उसने भी मुझे जवाब दे दिया"…
“प्रभुदेवा ने?”..
“नहीं!…
“फिल्म ने?”…
“नहीं!…
“आपकी साँसों ने?”…
“नहीं!…मेरे बटुए ने"…
ओह!…फिर क्या हुआ?”…
“फिर कुछ महीनों बाद मैंने ‘दबंग' देख ली…वो भी एक बार नहीं…दो बार…पूरे तीन बार"…
“ओ.के"…
“क्या ओ.के?”…
“मैं कुछ समझा नहीं"…
“यही तो कन्फैस करना था मुझे"…
“क्या?”..
“यही कि मैंने ‘दबंग' तीन बार देख ली"…
“तो?”…
“मुझसे पाप हो गया"…
“दबंग फिल्म देख कर?”…
“जी!…
“आपने ‘मुन्नी' को बदनाम कर दिया है?”…
“नहीं!…वही तो फिल्म की सबसे बड़ी एट्रेक्शन थी…मैं भला उसे क्यों बदनाम करने लगा?”…
”तो फिर?”…
“दबंग जैसी घटिया और वाहियात फिल्म देखने का गुनाह मुझसे एक बार नहीं…दो बार नहीं…पूरे तीन बार हुआ है…इसकी सजा मुझे मिलनी चाहिए…ज़रूर मिलनी चाहिए”…
“ओह!…
“मति मारी गई थी मेरी जो एक बार की बोरियत से सबक नहीं लिया मैंने और जा पहुंचा टिकट खरीद फिर उसी बन्दर की शक्ल को फिर से देखने”…
“ओह!…
“भरमा दिया था मुझे इन पैसे खाऊ ‘टी.वी’…’रेडियो’ और ‘अखबार’ वालों की ***+ रेटिंग ने…अपनी ही समझ…अपने ही दिमाग पे शक करने लग गया था मैं…
उफ़!…कितना नादाँ था मैं"…
“तो क्या अब नहीं हैं?”…
“अब अगर होता तो कन्फैस करने की सोचता ही क्यों?”..
“हम्म!..तो अब क्या इरादा है?”..
“जमना जी में कूद के डूब मरने की ठानी है"…
“लेकिन क्यों?”…
“क्योंकि मैं दुनिया-जहाँ को बतलाना चाहता हूँ कि…
“दबंग महा बकवास फिल्म है?”..
“नहीं!..
“तो फिर तुमने जमना जी में डूब कर मरने की क्यों ठानी है?”..
“क्योंकि मैं दुनिया-जहान जो बतलाना चाहता हूँ कि…
‘जमना जी में डूब के मरने की ठानी है क्योंकि हिम्मत में कोई मुझसा सानी नहीं है"..
“ओह!…अभी तुम कहाँ पर हो?”…
“जमना जी के पुराने वाले पुल पर"…
“लोहे वाले?”…
“जी!…
“थोड़ी देर रुको…मैं भी आ रहा हूँ"…
“लेकिन क्यों?”…
“मैंने ‘रावण' चार बार देखी है"…
“क्क्या?”…
***राजीव तनेजा***
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