ना बाप बड़ा ना मईय्या- राजीव तनेजा

“अब क्या करूँ शर्मा जी…इस स्साले चपड़गंजू का?…ना मौक़ा देखता है और ना ही उसकी नज़ाकत….बिना माहौल देखे ही पट्ठा…बात-बात में …बिना बात के तिया-पांचा करने को बेताब हो…नाक में दम करता हुआ सीधा बाप पर पहुँच जाता है"…

“तो लट्ठ मार के मुंह तोड़ दो ना ससुरे का…अपने आप ठीक हो जाएगा"…

“नहीं तोड़ सकता"…

“क्यों?”…

“इसमें ससुर बेचारे का क्या दोष?”…

“तो उसके नाती का ही मुंह तोड़ दो…वो भी तो कई बार….

“लेकिन वो तो बस…ऐसे ही…कभी-कभार लाड-प्यार में…यहाँ-वहाँ….

“मूत जाता है?"…

“नहीं!…थूक जाता है"…

“हम्म!…यही तो सबसे बड़ी कमी है हम लोगों की कि…पहले तो हम…’बच्चा है..बच्चा है ‘कर के किसी को कुछ कहते नहीं हैं और बाद में जब यही  पानी सर के ऊपर से…..

“मुआफ कीजिएगा शर्मा जी…कसम है मुझे उस नेक परवर दिगार कि जो मैंने आज तक किसी को भी अपने सर पे मूतने दिया हो"…

“लेकिन थूकने तो दिया है ना?”…

“ज्जी…ल्ल..लेकिन व्व…वो तो बस…ऐसे ही….

“बात मूतने या थूकने की नहीं है तनेजा जी…बात है तहजीब की…बात है समझ की…पहले तो  हम इन सब चीज़ों को मजाक समझ अपने बच्चों को कुछ कहते नहीं हैं…उल्टा प्रोत्साहित करते हैं..और बाद में यही लाड-प्यार भरी आदते…बुरी बन हमें…हमारे मन को…हमारे मस्तिष्क को भीतर तक सेधने  लगती हैं“…

“जी…कई बार तो मुझे भी इतनी वितृष्णा हो जाती है इन नामुराद बच्चों से कि उनकी ये नाजायज़ हरकतें..ज़हर बुझे तीर बन मेरे मन-मस्तिष्क की अवचेतना को भीतर तक  बेंधने लगती हैं”…

“ओह!…तो इसका मतलब तभी आप कई बार आनन-फानन में हाय-तौबा मचा बेकार में इधर-उधर गरियाने लगते हैं?”…

“जी!…बिलकुल…सही पहचाना आपने"मैं गर्व से अपनी छाती को चौड़ा कर उसे फुलाता  हुआ बोला

“हम्म!…

“लेकिन मेरी इस सारी टेंशन में उस बेचारे ससुर या उसके नाती का कोई दोष नहीं” …

“क्या मतलब?”…

“ये सब हिमाकत तो मेरा अपना…खुद का..निजी दोस्त कर रहा है"…

“तो उसी का मुंह तोड़ दो"…

“नहीं  तोड़ सकता"…

“क्यों?….तुमने चूडियाँ पहन रखी हैं क्या?”…

“नहीं!…चूडियाँ तो नहीं लेकिन…ये कड़ा ज़रूर …

“ओह!…सोने का है?”…

“जी!…पूरे सोलह कैरेट शुद्ध पानी का सोते समय मुलम्मा चढवाया है इस पर"मैं गर्व से इतराता हुआ बोला…

“ओह!…कितने ठुक्के?”…

“मुझे क्या पता?”…

“कड़ा तुम्हारा है?”शर्मा जी का संशकित स्वर…

“जी!…बिलकुल मेरा है"मेरा स्वर सच्चाई से लबरेज था…

“और तुम्हें ही नहीं पता कि कितने ठुक्के?”…

“कौन सा मेरे बाप ने अपनी ऐसी-तैसी करवाई थी जो मुझे पता होगा कि…कितने ठुक्के?”…

“क्या मतलब?”…

“उसी कम्बख्त्मारे ने गिफ्ट किया था मेरी अठारवीं एनीवर्सरी पर”…

“अठारह साल हो गए तुम्हारी शादी को?”…

“जी!…

“लगता तो नहीं"…

“थैंक्स!…

“इसमें थैंक्स किस बात का?…मुझे तो हैरानी हो रही है कि इतने बरस तक झेल कैसे गई वो तुम जैसे निखट्टू को?”….

“झेल गई?…अरे!…ये तो मैं ही हूँ जो कैसे ना कैसे करके मैनेज कर लेता हूँ ये सब वर्ना मेरी जगह कोई और होता तो हफ्ते दो हफ्ते में ही अपना मीटर डाउन कर भाग खड़ा होता पतली गली से"…

“हम्म!..उसने तुम्हें गिफ्ट दिया और इसीलिए उसके इस एहसान के बोझ के तले दब कर तुम उसका विरोध नहीं कर पा रहे हो"…

“कोई फ़ोकट में नहीं दिया है उसने ये गिफ्ट…भतेरे पापड बेले हैं मैंने इसके लिए…आँखें बंद कर के खुला समर्थन दिया है उसकी हर जायज़-नाजायज़ बात को"…

“हम्म!…

“उसके लिए मैंने ना दिन देखा ना रात…जहाँ-जहाँ कहता गया…चुपचाप….हाँ में हाँ मिला उसकी पसंद बढाता चला गया"….

“हम्म!…तो इसका मतलब डरते हो उससे?"…

“नहीं!…डरता तो मैं कभी अपने बाप से भी नहीं लेकिन बस…ऐसे ही….कभी-कभी उसके ताप से……

“तो फिर किस दुविधा में जी रहे हो दोस्त?….माथा फोड़…क्यों नहीं लिटा डालते ससुरे को?”…

“फिर ससुरा?…कितनी बार समझा दिया मैंने आपको कि इस सब से ना तो ससुर का और ना ही उसके नाती का कोई लेना देना है"…

“अरे!…जब कोई लेना-देना ही नहीं है तो फिर सोचते क्या हो दोस्त?…फोड़ डालो स्साले का माथा हमेशा हमेशा के लिए"शर्मा जी मुझे जोश दिलाने का प्रयास करते हुए बोले…

“नहीं फोड़ सकता"मेरा संयत जवाब…

“निशाना कच्चा है क्या तुम्हारा?”शर्मा जी पीछे हटने को तैयार नहीं थे…

“नहीं!….निशाना तो इतना पक्का है…इतना पक्का है कि…आक…थू…(मैं अपनी थूक को एक ही झटके में सड़क के पार पहुंचाने का असफल प्रदर्शन कर उन्हें अपनी काबिलियत के दर्शन करवाता हुआ बोला….

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“बस-बस…मैं समझ गया कि कितना पक्का है”…

“कितना पक्का है?”….

“सीधे-सीधे कह क्यों नहीं देते कि दम नहीं है तुम में?…नामर्द हो तुम”…

“अरे!…अगर दम नहीं होता तो क्या वो मुझे अपना बाप कह के पुकारता?”मैं रुआंसा होता हुआ बोला..

“तुम्हारे इस वो का कोई नाम भी तो होगा?”…

“नहीं ले सकता…नफरत है मुझे उससे…उसके नाम से"…..

“ऐसी भी क्या नफ़रत कि तुम अपने बच्चे का नाम भी ना ले सको?”…

“व्व…वो मेरा बच्चा नहीं है"…

“वो तुम्हें ‘बाप' कह के पुकारता है या नहीं?”…

“पुकारता है...तो?”…

“तो तुम उसके बाप हो गए"…

“अरे!…वाह…ऐसे-कैसे हो बाप हो गए?…बाप बनना क्या इतना आसान है?”…

“कितना आसान है?”..

“बाप बनने के लिए दिन-रात कड़ी मेहनत करनी पड़ती है…पूरे जोर-शोर से पसीना बहाना पड़ता है…रात-रात भर जाग-जाग के तपस्या करनी पड़ती है”…

“रोते बच्चे को चुप कराने के लिए?”…

“जी!..बिलकुल".. .

“लेकिन जिस हिसाब से आप बता रहे हैं…वो तो आपको ही अपना बाप मानता है"…

“तो मानता रहे….उसके मानने या ना मानने से क्या होता है?…सच्चाई तो यही है कि अगर मेरा अपना…खुद का…निजी बच्चा होता तो उसे मेरी बीवी ने खुद…अपनी ही कोख से जन्म दिया होता”…

“आज मुझे तुम्हें अपना दोस्त कहते हुए गर्व महसूस हो रहा है दोस्त कि अपनी खुद की औलाद ना होते हुए भी तुमने एक यतीम को…..

“वो यतीम नहीं है…भरा-पूरा खानदान है उसका"…

“ओह!…ये गरीबी भी…..जो ना कराए…अच्छा है…..आज मेरी नज़रों में तुम्हारी कीमत पहले से बहुत अधिक बढ़ गई है मेरे दोस्त कि तुमने एक निर्धन परिवार के चश्मे चिराग को…..

“तुम्हें कैसे पता कि वो चश्मा लगता है?”मेरा आश्चर्यचकित स्वर…

“वाकयी?…मैंने तो बस….ऐसे ही…गैस्स"…

“ओह!…आप शायद कुछ कह रहे थे”मेरा उत्सुक स्वर…

“क्या?”…

“यही कि आज मेरी नज़रों में….

“हाँ!…. आज मेरी नज़रों में तुम्हारी कीमत पहले से बहुत अधिक बढ़ गई है मेरे दोस्त कि तुमने एक निर्धन परिवार के चश्मे चिराग को…..पाल पोस  के इतना बड़ा किया"…

“मैंने उसे बड़ा नहीं किया…वो तो ऐसे ही पला-पलाया मेरे गले आ पड़ा है “…

“ओह!…इसका मतलब भाभी जी का कोई पुराना चक्कर?”….

“नहीं!…उस बेचारी को इस सब के बीच में मत घसीटिये…उसे  इसके बारे में कुछ भी नहीं पता”….

“हम्म!…तो फिर किसे पता है?”…

“मेरे अलावा उसको…जिसका मैं बाप हूँ”…

“ओह!…शिट..ट..क्या करूँ इस ससुरी काली ज़बान का?..पट्ठी बात-बात में अपने आप  फिसल जाती है”मैं बौखला कर हडबड़ाता हुआ बोला…

“हम्म!…इसका मतलब तुम वाकयी में उसके बाप हो?”शर्मा जी संशकित से होते हुए बोले…

“ज्जी!…(अब चुपचाप मुंडी हिला मानने के लावा और कोई चारा नहीं था मेरे पास)

“विश्वास नहीं हो रहा है मुझे"शर्मा जी मानने को तैयार नहीं थे…

“आप मानें या ना मानें लेकिन सच्चाई यही है कि मैं ही उसका बाप हूँ"ना जाने क्यों मेरे स्वर में दृढ़ता थी....

“लेकिन कैसे?”…

“अब क्या बताऊँ शर्मा जी कि एक दिन बस…ऐसे ही…बातों-बातों में…

“बातों-बातों में ही कांड कर डाला?”…

“नहीं!…ऐसी बात नहीं है…दरअसल..मैं तो बस…ऐसे ही…

“हाँ!…ऐसे ही…ऐसे ही…करते-करते तो हम पूरी दुनिया पर बोझ बन चले हैं….मालुम भी है कुछ कि  हमारी आबादी कितनी बढ़ गई है?…

“कितनी बढ़ गई है?”…

“पूरे १५० करोड के मायावी आंकड़े तक आ पहुंचे हैं हम लोग"…

“ओह!…

“अब ये डेढ़-पौने दो सौ करोड की आबादी अपने गुल होते चिरागों को खिला कर कितना कहर बरपाएगी?…कभी सोचा भी है?….

“वव…वो दरअसल….ऐसा कोई इरादा नहीं था मेरा लेकिन….

“छोडो…इस लेकिन-वेकिन को…ये सब बहाने हैं”….

“जी!…

“वैसे…अब क्या सोचा है?”…

“अब क्या बताऊँ शर्मा जी?…मेरे दिमाग ने तो काम करना ही बंद कर दिया है"…

“कुछ तो ख्याल किया होता अपनी बनती-बिगड़ती इज्ज़त का”…

“जी!…)मेरा सर शर्म से नीचे झुका हुआ था)

“भाभी जी को पता है?”…

“हाँ!…

“उन्होंने कुछ नहीं कहा?”…

“कहना भला किसलिए है?…उन्हीं के सामने तो मैंने पहली बार उसका बाप बनने के लिए हामी भरी थी"…

“क्क…क्या?….क्या कह रहे हो?…मुझे विश्वास नहीं हो रहा है"…

“बिलकुल सही कह रहा हूँ”…

“फिर तो भईय्या बड़ी किस्मत वाले हो तुम”….

“जी!…सो तो है"मैं फूल कर कुप्पा होने का प्रयास करने लगा…

“उम्र कितनी है?”…

“मेरी?”…

“नहीं!…उसकी"….

“यही कोई पचपन-छप्पन साल"….

क्क्या?”शर्मा जी लडखडा कर गिरने को हुए…

“जी!….

“और तुम्हारी?”…

“मेरी भी इसी के आस-पास होगी…क्यों क्या हुआ?”…

“उसकी माँ को पिछले जन्म में डंक मारा था क्या?”…

“क्या बात करते हैं शर्मा जी आप भी?…पिछले जन्म के बारे में क्या पता कि मैं गधा बना था या फिर कुत्ता?…आप मुझे सांप बना कैसे उसकी माँ को डसवा सकते हैं?”…

“अरे!…जब डसवा नहीं सकता तो फिर ये कैसे मुमकिन हो गया कि तुम्हारी और तुम्हारे बेटे की उम्र लगभग बराबर ही है?”शर्मा जी के स्वर में असमंजस भरी परेशानी थी…

“ओह!…लगता है कि कहीं ना कहीं आपको समझने में या फिर मुझे  समझाने में गलती लग रही है….दरअसल…मैं असली जिन्दगी में उसका बाप नहीं हूँ"…

“तो फिर भईय्या कौन सी मायावी दुनिया में तुमने उसका काण्ड कर डाला?”…

“आपको गलती लग रही है शर्मा जी…पहली बात तो ये कि ये काण्ड मैंने नहीं बल्कि उन्होंने किया है और दूसरी बात ये कि ये कि ये सब मायावी दुनिया में नहीं बल्कि आभासी दुनिया में हुआ है"…

“यू मीन इंटरनैट की आभासी दुनिया में?”…

“जी!…बिलकुल"…

“वो कैसे?”…

“दरअसल!…मेरी पिछली कहानियों के जरिये आप इतना तो जानते ही हैं कि मैं कितना बढ़िया लिखता हूँ?”…

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“हाँ!…कई बार तो काफी मजेदार लिख लेते हो लेकिन कई बार…

“आप ही की तरह वो पट्ठा भी दीवाना हो गया मेरी कहानियों का"…

“तो?”…

“तो वो मेरी लेखनी का कायल हो…मुझे ‘बाप जी’…’बाप जी’ कह कर पुकारने लगा"…

“तो इसमें दिक्कत क्या है?…पुकारने दो उसे जिस किसी भी नाम से…इसमें तुम्हारे बाप का क्या जाता है?”…

“दिक्कत ये है कि उसकी बीवी भी ब्लॉग्गिंग करती है"…

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“तो?”…

“वो भी बहुत बढ़िया लिखती हैं"…

“तुम्हारी तरह?”शर्मा जी मुझे व्यंग्यात्मक निगाह से ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोले…

“जी!…

“तो?”…

“उनकी लेखनी से वशीभूत होकर अन्य ब्लोग्गरों की तरह मैं भी ना जाने कब उन्हें ‘माँ…माँ' कह कर के पुकारने लगा"…

“तो?…किसी को तुम इज्ज़त दे के ही पुकार रहे हो ना?"…

“जी!…

“तो इसमें दिक्कत क्या है?”…

“दिक्कत ये है कि उनकी उम्र भी लगभग मेरे ही बराबर है”…

“ओह!…

“अब पंगा ये है कि अगर वो मेरी ‘माँ' हैं तो उनके पति का मैं ‘बाप' कैसे हो गया या फिर उसकी ‘दादी' उसकी बीवी कैसे हो गई?”…

“अब क्या कहें तुम्हारी इस माया के बारे में भईय्या?…यहाँ तो…

“ना ‘बाप' बड़ा है ना ‘मईय्या”…..  

***राजीव तनेजा***

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इक चतुर नार…बड़ी होशियार- राजीव तनेजा

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कार्टून सौजन्य- इरफ़ान

“हद हो गई यार ये तो….हम अभी अंधे हुए नहीं और इन स्सालों के हाथ बटेर भी लग गई…इस सुसरे लोकराज में जो हो जाए…थोड़ा है”मैं गुस्से से अपने  पैर पटकता हुआ बोला…

“क्या हुआ तनेजा जी?…इस कदर बौखलाए-बौखलाए से क्यों घूम रहे हैं?”…

“कमाल करते हैं शर्मा जी आप भी…बौखलाऊँ नहीं तो और क्या करूँ?…पहले तो औकात ना होने के बावजूद हम लोगों को महफ़िल सजाने का सुनहरा मौक़ा दे दिया जाता है और फिर चलो …भूले से ही सही…दे दिया तो दे दिया…अब काहे को बेफालतू में इस खुशनुमा माहौल के तम्बू का बम्बू खींच बेकार की  कुत्ता घसीटी करते हैं?”…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“जब पता था इन स्साले फिरंगी कचालुयों को पहले दिन से ही कि…हमारे बस का नहीं है इत्ते बड़े टीमटाम को ठीक से हैंडल करना …तो फिर काहे को बेफालतू में इस बड़े महा आयोजन की पूरी जिम्मेदारी हम  जैसे निखट्टुयों के गंजियाते सर पे डाल…खुद लौटन कबूतर के माफिक अपनी चौंधिया कर कौंधियाती हुई आँखें मूँद ली?”…

“आप लिंगफिशर द्वारा प्रायोजित इंटर मोहल्ला ‘पलंग कबड्डी’ के ट्वैंटी-ट्वैंटी मैचों की ही बात कर रहे हैं ना?”…

“हुंह!…आप और आपके ‘पलंग कबड्डी’ के ट्वैंटी-ट्वैंटी मैच…लुल्लू जब भी मूतेगा…छोटी धार ही मूतेगा"…

“म्म…मैं कुछ समझा नहीं"…

“अरे!…बेवाकूफ….मैं दिल्ली में आयोजित हुए कामनवेल्थ खेलों के महा आयोजन की बात कर रहा हूँ …ना कि तुम्हारे इन तथाकथित ‘पलंग कबड्डी’ के ट्वैंटी-ट्वैंटी जैसे तुच्छ…निकृष्ट एवं छोटे मैचों की"…

“तनेजा जी!..आप चाहें तो बेशक सौ जूता मार लीजिए हमको…मन करे तो दो-चार ठौ गाली-वाली भी दे दीजिए लेकिन प्लीज़…इन मैचों को छोटा …निकृष्ट एवं तुच्छ  कह के इनके साथ-साथ मेरी और मेरे खानदान की तौहीन ना कीजिये"…

“क्यों?…तेरा फूफ्फा भाग ले रहा है क्या इनमें?”…

“अरे!…अगर फूफ्फा भाग ले रहा होता तो आप बेशक एक के बजाए दो बार बुराई कर लेते…मुझे बुरा नहीं लगता..बरसों पुराना छतीस का आंकड़ा जो है मेरा उनका …लेकिन ऊपरवाले के फजल-औ-करम से इनमें मेरा फूफ्फा नहीं बल्कि मेरा सबसे प्यारा…जग से न्यारा…खुद का अपना  राजदुलारा भाग ले रहा है"…

“सक्रिय तौर पर या फिर…ऐसे ही…महज़ टाईमपास के लिए?”…

“ऐसे ही…महज़ टाईमपास के लिए से क्या मतलब?”…

“ऐसे ही…मतलब…ऐसे ही..बिना किसी औचित्य एवं मकसद के"मैं अपनी बाहें घुमा बेतकलुफ्फ़ सा होता हुआ बोला ..

“खाली…ऐसे ही…फ़ोकट में…दूर बैठ के तमाशा देखने से भला दो दूनी चार कहाँ होता है तनेजा जी?…पूरी तरह से एक्टिव और सक्रिय होना पड़ता है इस ‘पलंग कबड्डी' के बरसों पुराने..नायाब खेल में…तब जा के कहीं मनवांछित फल की प्राप्ति होती है"…

“ओह!…मैंने तो सोचा कि…शायद…ऐसे ही…बेकार में…

“इतना टाईम किसके पास है तनेजा जी कि कोई बेकार में ही अपना टाईम खोटी करता फिरे?”…

“हाँ!…ये बात तो है"…

“ये तो पहलेपहल जब मुझे पता चला कि पूरे इक्यावन सौ का पहला इनाम रखा गया है फर्स्ट रनरअप के लिए तो मैंने.….

“तो क्या महज़ इक्यावन सौ रुपये के लिए ही आपने अपना इकसठ-बासठ लाख रूपए वाला ज़मीर बेच दिया?”…

“तनेजा जी!…बात इकसठ या इक्यावन की नहीं है…बात है कायदे की…बात है मुद्दे की…बात है हमारी खोती हुई अस्मिता…हमारे खत्म होते हुए आत्म सम्मान की”…

“वो कैसे?”…

“हमारे इलाके में ही जो रही थी इस बार की ट्वैंटी-ट्वैंटी चैम्पियनशिप”…

“तो?”…

“तो हमारे होते हुए भला कोई बाहर का बन्दा..कैसे आ के..हमारी नाकों तले …हमें ही चने चबवा के…बिना किसीप्रकार का खुड़का किए…चुपचाप निकल जाता?”…

“हम्म!…फिर क्या हुआ?”…

“होना क्या था?…मैंने बस ठान लिया कि कोई और भले ही तैयार हो ना हो इस शैंटी-फ़्लैट मुकाबले के लिए…मुझे अपने ‘पट्ठे’ को ही खूब घी-बादाम खिला के और तेल पिला के इस चैम्पियनशिप के मुकाबले में उतारना है"…

“गुड!…लेकिन फिर आपने अपने उस तथाकथित ‘पट्ठे’ के बजाए अपने ही सुपुत्र को क्यों मैदान में उतार दिया?”…

“अब क्या बताऊँ तनेजा जी?…बढ़ती उम्र में घटते जोश का तकाज़ा”…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“पूरे बयालीस बसंत देख चुका है मेरा पट्ठा”….

“तो?”…

“आने वाले समय का मंज़र सोच के ही पसीने छूट गए उसके”…

“ओह!…फिर क्या हुआ?”…

“होना क्या था?…शर्म से पानी-पानी हो V.R.S(वी.आर.एस) ले..बीच बाज़ार के चुपचाप दुबक के बैठ गया"….

“वी.आर.एस माने?”…

“अपनी मर्जी से रिटायरमैंट"…

“हम्म!…फिर क्या हुआ?”…

“होना क्या था?…मुकाबला सर पे सवार होने को बेताब था और कोई मैदान में डटने तो क्या?…उतरने तक को तैयार नहीं”…

“ओह!…

“कोई और चारा ना देख खुद मुझे अपने ही अबोध बालक को इस सब की ट्रेनिंग देनी पड़ी”…

“अबोध?…उम्र कितनी है उसकी?…कहीं वो नाबालिग तो नहीं?”मेरा आशंकित होता हुआ स्वर..

“क्या बात कर रहे हैं तनेजा जी आप भी?…इस बसंतपंचमी को कसम से…पूरे इक्कीस का हो जाएगा"…

“तो फिर किस बिनाह पर तुम उसे अबोध कह…निरपेक्ष रूप से उसका पक्ष रख रहे हो?”…

“अब उम्र से क्या होता है तनेजा जी?…जिसे किसी चीज़ का बोध ही ना हो तो उसे तो अबोध ही कहेंगे ना?”…

“हम्म!…ये तो है”…

“जी!…

“फिर क्या हुआ?”…

“पूरे तीन महीने की पसीना निचोड़ ट्रेनिंग दी है मैंने खुद उसे अपने हाथों से"..

“ह्ह….हाथों से?”…

“जी!…हाँ!…इन्हीं नायब हाथों से"शर्मा जी गर्व से प्रफुल्लित हो…हवा में अपने हाथ ऊपर-नीचे कर उन्हें नचाते हुए बोले

“क्यों?…आस-पड़ोस के रेड लाईट एरिया वाले वालंटियर्स क्या प्लेग की बीमारी से मर-मरा गए थे जो आप खुद ही अपना मुंह काला करने को उतावले हो उठे"…

“मुंह नहीं…हाथ"…

“हाथ?”..

“जी!…जब अपने हाथ स्वयं जगन्नाथ के याने के…भगवान के दिए हुए हैं तो किसी दूसरे पे क्या भरोसा करना?”…

“हम्म!…फिर क्या हुआ?”..

“मेरी तिलमिला कर कराहती हुई कमर का बिलबिला कर  बंटाधार"…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“उस नौसिखिए को एक-एक दाव और उसका तोड़..आक्रमण एवं बचाव के गुर वगैरा सिखाते-सिखाते तो….आह!…

“क्या हुआ?”…

“अनाड़ी का खेल और खेल का सत्यनाश"…

“क्या मतलब?”..

“उस नौसिखिए को ये सब सिखाते-सिखाते तो मेरी कमर भी…मुझसे जुबान लड़ा..पराई हो…अब तो जवाब देने लगी है"शर्मा जी दर्द से करहाते हुए बोले …

“ओह!…तो क्या इतनी कमरतोड़….पसीना निचोड़…दर्दभरी मेहनत के बाद कोई मैडल-वैडल भी मिला?”मेरे स्वर में उत्सुकता का पुट था…

“टट्टू"…

“क्या मतलब?”मैं चौंका…

“अजी!…काहे का मैडल?…सब कुछ फिक्स था जी…फिक्स"…

“क्क्या?…क्या कह रहे हो?”…

“जी!…जब किसी नए सिखंदड़ के आगे जानबूझ कर आप पहाड़ जैसा  पहाड़ीन सौंदर्य ऊप्स!…सॉरी..प्रतिद्वंदी खड़ा कर दोगे तो कोई मैडल क्या ख़ाक जीतेगा?”… ‌

“तो तुम्हारा ये तथाकथित जान से प्यारा…राजदुलारा क्या कोई नामर्द था जो घड़ी दो घड़ी भी ठीक से खड़ा नहीं रह पाया उसके आगे?"मेरा गुस्से से लाल-पीला होता हुआ तैश भरा स्वर …

“तनेजा जी!…घड़ी दो घड़ी की बात होती तो और बात थी…मैं तो खुद गवाह हूँ प्रत्यक्ष इस बात का कि वो पूरे दस मिनट तक पूरी तत्परता एवं तन्मयता से आगे-पीछे होता रहा उसके विध्वंकारी दाव से बचने के लिए लेकिन जब सामने वाला ही काईंया…चतुर एवं शातिर टाईप का खिलाड़ी हो तो कोई कर भी क्या सकता है?”शर्मा जी सफाई सी देते हुए बोले …

“डूब के तो मर सकता है"मेरा गुस्सा कम होने को नहीं आ रहा था …

“म्म…मैं कुछ समझा नहीं"…

“वैसे!…अब क्या हाल है उसका?”ना जाने क्यों मेरा मृदुल होता हुआ स्वर …

“बड़ा बुरा हाल है बेचारे का…रूपजाल के झमेले में फँस..लपेटे में आ गया बेचारा..शर्म के मारे खुद अपनेआप से नज़रें नहीं मिला पा रहा है "शर्मा जी के स्वर में सहानुभूति थी …

“हम्म!…दैट्स नैचुरल…स्वाभाविक है ये सब तो…मेरे साथ खुद कई बार ऐसा हो चुका है"मैं उनकी हाँ में हाँ मिलाता हुआ बोला …

“जी…

“वैसे..आजकल कर क्या रहा है?"…

“कुछ खास नहीं…बस…ऐसे ही..चुपचाप पलंग पे पड़े-पड़े …बेचारा…मायूस हो के बार-बार यही गीत गुनगुनाता रहता है कि….

‘इक चतुर नार…बड़ी होशियार…

कर के सिंगार…मेरे मन के द्वार …

वो घुसत जात है…हम अटक जात है"…

“ओह!…

“आप कुछ अन्धे और बटेर वाली बात कर रहे थे ना?”…

“जी!…

“लेकिन आप तो मुझे एकदम से ठीकठाक और भले-चंगे दिख रहे हैं"शर्मा जी गौर से मेरे डेल्ले को फैला…उछल कर उसके अन्दर झांकने का प्रयास करते हुए बोले …

“ह्ह…हटो…हटो पीछे…मैंने कब कहा कि मैं अंधा हो गया हूँ?”मैं हड़बड़ा कर पीछे हटता हुआ बोला…

“अभी आप ही ने तो कहा कि….

“ध्यान से याद करो…मैंने कहा था कि…अभी हम अन्धे हुए नहीं और उनके हाथ में बटेर लग गई"…

“जी!…लेकिन जब बटेर का मामला था तो आप अन्धे हुए क्यों नहीं?”शर्मा जी के स्वर में असमंजस था…

“अब क्या करें शर्मा जी?…इस ससुरे..लोकराज में जो हो जाए..थोड़ा है"…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“सुसरे को कई बार विनती भी कर ली और बीच चौराहे के नाक भी रगड़ के दिखा दी कि….

“देख ले…अपने फायदे के लिए कितना नीचे गिर सकता हूँ मैं?”…

लेकिन पता नहीं किस मिटटी का बना है कम्बख्तमारा कि एक बार इस स्साले कलमाड़ी की कलम अड़ी तो ऐसी अड़ी कि बस पूछो मत…लाख मिन्नतों के बाद भी दिल नहीं पसीजा पट्ठे का"…

“ओह!…

“वो कहते हैं ना कि भैंस के आगे बीन बजाने से पार नहीं पड़ता”…

“जी!…

“बिलकुल वही हुआ मेरे साथ….मैंने कई मर्तबा उसके आगे बीन बजा ..उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित भी करने की कोशिश की लेकिन बुरा हो उन स्साले…कम्बख्त्मारे भाड़े के बाऊंसरों का…धक्के मार…परे धकेल दिया मुझे…मिलने तक नहीं दिया"मेरा मायूस स्वर…

“ओह!…

“स्साला!….पत्थर का बना है…पत्थर का…मेरी लाख गुजारिशों के बाद भी दिल नहीं पसीजा पट्ठे का…सारे के सारे ठेके अपने हिमायतियों को बाँट दिए रेवड़ियों की माफिक"…

“ओह!…तो इसका मतलब वो खुद ही अंधा था जो सिर्फ अपनों के बीच ही  रेवडियाँ बांटता चला गया"शर्मा जी दिमाग लड़ा…निष्कर्ष पे पहुँचते हुए बोले…

“जी!…इस ससुरे लोकराज में जो हो जाए…थोड़ा है"…

“जी…

“जिन स्सालों को तमीज नहीं है नाक पोंछने की भी…उनको फर्जी दस्तावेजों के बल पर बड़े-बड़े ठेके हज़म करने के लिए दे दिए गए"…

“ओह!…

“मैंने सिफारिश लगवा …किसी के माध्यम से कहलवाया भी नेताजी से कि…’और कुछ नहीं तो कम से कम कन्डोम सप्लाई का ठेका ही मुझे दिलवा दो’ तो पता है क्या कहने लगे?”..

“क्या कहने लगे?”…

“कहने लगे कि… ‘कभी रेड लाईट एरिया में गए हो?’…

“मैंने कहा…’नहीं’..

“ऐय्याशी का कोई तजुर्बा या साल दो साल का एक्सपीरियंस?”…

मैंने कहा… ‘नहीं’…

“तो फिर बड़े ही विद्रूपता भरे ढंग से ठिठिया कर हँसते हुए बड़ी ही बेशर्मी से मेरा माखौल सा उड़ा कर कहने लगे कि… ‘फिर तुम क्या ख़ाक कन्डोम सप्लाई करोगे?’…

“ओह!…ये तो वही बात हुई कि…मुर्दे को कफ़न सप्लाई करने से पहले खुद का मरना ज़रुरी है”…

“जी!…

“वैसे बुरा ना मानें तो एक बात कहूँ?”…

“जी!…ज़रूर"..

“मेरी राय में तो आपको एक-दो बार वहाँ जा के सब कुछ देख-दाख के आना चाहिए"..

“क्या मतलब?”…

“उस बार नहीं तो इस बार सही"…

“क्या मतलब?”..

“सुना है कि इस बार विश्व एड्स दिवस के अवसर पर पूरी 80,000 कन्डोम वैंडिंग मशीनें लगने वाली हैं हमारे पूरे देश में"…

“क्या बात कर रहे हो?”मेरा उत्साहित स्वर…

“सही कह रहा हूँ…ये देखो…अखबार में भी खबर छपी है इस बारे में"शर्मा जी अपने झोले से अखबार निकाल मुझे दिखाते हुए बोले..

“अरे!…हाँ…ये तो सच में ही…(मैं किलकारी मार लगभग उछलता हुआ बोला)…

“और नहीं तो क्या मैं ऐसे ही झूठ बोल रहा था?”…

“थैंक्यू…शर्मा जी…थैंक्यू…आपका बहुत-बहुत धन्यवाद"…

“अरे!…इसमें धन्यवाद की बात क्या है?…दोस्त ही दोस्त के काम आता है"…

“जी!…मैं आपका ये एहसान जिन्दगी भर नहीं भूलूँगा…वैसे…जिन्दगी अब रहेगी कहाँ?”…

“क्या मतलब?”…

“मैं मरने जा रहा हूँ"…

“क्क्या?…क्या कह रहे हो?”…

“हाँ!…कफ़न सप्लाई करने हैं ना…इसलिए मरने जा रहा हूँ"…

“ओह!…अच्छा….अब समझा"…

हा…हा…हा…हा(ठहाका लगा…हँसते हुए हम दोनों का मिलाजुला स्वर)

***राजीव तनेजा***

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