लुंगी संभाल भोगी…खिसकी चली जाए रे- राजीव तनेजा
“माना कि मैं खुर्राट हूँ…आला दर्जे का खुर्राट…..अव्वल दर्जे का खुर्राट…तो इसमें आखिर…गलत क्या है?….क्या अपने फायदे के लिए चालाक होना…गलत होना….सही नहीं है…..गलत है?…और अगर है…तो भी मुझे किसी की चिंता नहीं…किसी की परवाह नहीं…..मुझे गर्व है कि मैं अव्वल दर्जे का कमीना होने के साथ-साथ थाली का वो(हाँ-हाँ…वही वाला) बैंगन हूँ जो जहाँ ढाल देखता है…वहीँ लुडक लेता है….तो आखिर इसमें गलत क्या है?…क्या अपने फायदे के लिए पिछले किए गए सभी वायदों से मुकर जाने में भलाई नहीं है?…. समझदारी नहीं है?”…
“हाँ-हाँ!…आप तो कहेंगे कि मर्द को अपनी ज़ुबान से नहीं फिरना चाहिए…मरते दम तक अपनी बात पे टिके रहना चाहिए…डटे रहना चाहिए…अड़े रहना चाहिए वगैरा…वगैरा”…
“तो पहली बात तो ये कि इतनी अच्छी-भली…ख़ूबसूरत जिंदगी के होते हुए मरना कौन कमबख्त चाहता है?….और फिर मैंने कहीं भी…अपनी किसी भी कोटेशन में भला कभी ये कहा है कि मैं मर्द हूँ?”…
“नहीं ना?”….
“तो फिर भला आप मुझसे मर्द होने की…अपनी बात पे टिके रहने की उम्मीद भी कैसे लगा सकते हैं?”…
“मैं-तुम…हम-आप सभी भलीभांति जानते हैं कि हम सब इस रंगमंच रूपी जीवन की कठपुतलियाँ है…सभी यहाँ अपना-अपना किरदार निभा रहे हैं…किसी को नायक का किरदार मिला है तो किसी को खलनायक का…कोई पटरानी बन हर मोड़…हर चौराहे पे जीते जी अपने ही बुत्त बनवा…खुद को अमर करने का असफल प्रयास कर रही है तो कोई फिरंगन हमारी महारानी बन…हम सब पर अपना चाबुक लहरा रही है….गलती किसी की भी नहीं है…ना हमारी और ना ही उनकी…वो अपना रोल प्ले कर रहे हैं…हम अपना किरदार निभा रहे हैं…लेकिन असली पंगा तो तब शुरू होता है जब सहायक कलाकार या स्पॉट बॉय तक जैसे अदना-अदना से कलाकार….जमादार…अपनी उम्मीदों के पंख फैला ऊँचा…बहुत ऊँचा उड़ने की सोचने लगते हैं…पागल के बच्चे ये भी नहीं जानते कि ऊँचा उड़ने वालों के पर वक्त से पहले ही क़तर दिए जाते हैं….अब जिसे ऊपर वाले ने डाईरैक्ट इटली से डायरेक्टर बना के भेजा है हम सबकी जिंदगी का…वो खाली-बैठे-बैठे खामख्वाह में बेफालतू की घास तो छीलेगा नहीं और फिर जब उसके पास सौ अन्य महत्त्वपूर्ण काम हों तो छीले भी क्यूँकर?…वेल्ला तो नहीं बैठा है वो कि ऐसे ज़रा-ज़रा से…अदना-अदना से कामों के लिए खुद…अपनी ही माथाफोड़ी करता फिरे(दूसरे का माथा फोडना हो तो अलग बात है) आखिर!…हम जैसे दिग्गी मार्का दिग्दर्शकों को रखा ही किसलिए गया है अपनी टीम में?”…
“कटिंग-फटिंग और एडिटिंग वगैरा के लिए ही ना?”…
“शुक्र मनाना चाहिए उन्हें हमारा कि हमने तो अभी सिर्फ उनका रोल ही कम किया है राजाओं की नीति से भरी इस फिल्लम में..ज्यादा चूं-चपड़ की या उछलकूद मचाई तो पूरा का पूरा रोल ही काट कर उनके वजूद ही मिटा दिया जाएगा इस जीवनरूपी चलचित्र से”…
“क्या हुआ?…सच्चाई जान कर बौखला गए आप?”….
“अरे!…बौखला तो एकबारगी हम भी गए थे जब इन उछलते-कूदते और फाँदते बन्दरों को हमने अपनी तरफ…अपने गिरेबाँ पे लपकते और झपटते देखा था लेकिन सच कहूँ तो तरस आता है मुझे इन चूजों के भोलेपन को…उतावलेपन को देख कर..क्या सोचते हैं ये और आप कि ऐसे…बन्दरों के नाचने से…गुलाटी खाने से…हम नाचने लग जाएंगे?…गुलाटी खाने लग जाएंगे?”…
ये गाँधी टोपी वाले…स्साले पागल कहीं के…सोचते हैं कि पुराने वक्त को पुन: लौटा लाएंगे…गया वक्त भी कभी लौट के आया है जो अब इनके लिए आ जाएगा?…बताओ!….कैसी पुट्ठी सोच है इनकी?….सोचते हैं कि ऐसे मजमा लगा के…डमरू बजा लगा के हमें झुका लेंगे….शायद ये जानते नहीं हैं कि ये लोकपाल-फोकपाल कुछ नहीं है…घंटा तक नहीं उखाडा जा सकता है इससे हमारा…सत्ता परिवर्तन…व्यवस्था परिवर्तन तो बहुत दूर की बात है…राजा को रंक और रंक को राजा बना भाग्य के लिखे को पलटना चाहते हैं चंद मूर्ख लोग…जानते नहीं कि बाय डिफाल्ट…ऊपर से हम अपनी किस्मत में राज योग याने के सत्ता का भोग लिखवा कर लाए हैं…तो राज कौन करेगा?..हम लोग….पानी कौन भरेगा?…हमारी प्रजा…याने के आप लोग”…
ध्यान से सुन लें सभी….बता रहा हूँ अभी ताकि आने-जाने वाले वक्त के लिए सनद रहे कि डमरू हमारे हाथ में है…किसके हाथ में है?….हमारे….इसलिए!…डुगडुगी कौन बजाएगा?…हम…यकीनन!..हम ही बजाएंगे डुगडुगी....उनकी नियति में नाचना और हमारी फितरत में इन्हें नचाना लिखा है बस…दैट्स आल…केस ओवर…मानता हूँ कि सही नहीं हैं हम…गलत हैं हम…लेकिन पानी में रह कर मगरमच्छों से भला कैसे वैर मोल लूँ?….ये अकेला चना आखिर…भाड़ फोड़े भी तो कैसे?…और जब तक खुद को…ऐसे ही…इसमें ही मज़ा आ रहा हो तो फिर फोड़े भी क्यूँकर?…
“क्या कहा?….किसकी बात कर रहे हैं आप लोग?….उस पाखंडी की जिसने अपने अनुलोम-विलोम के जरिये हमारे वर्चस्व को खण्ड-खण्ड करने की ठानी है?
आपको शायद पता हो या ना हो…मैं बताता हूँ आपको इस पाखण्डी की….इस धूर्त की असलियत…अरे!…अगर इतना ही असली मर्द था कि योग के जरिये हमारी चूलें हिला देगा…हमारा सिंहासन डौला देगा तो बताइए आप खुद ही कि उसे ऐसे…मुँह छिपा के भागने की ज़रूरत क्या थी?….खा लेता हमारी दम्बूक से निकली हुई गोली….सहन कर लेता लाठी-चार्ज के विध्वंसक हमले को…अश्रु बमों के आक्रमण को…हो जाता अमर…बन जाता शहीद…किसने रोका था?…
“दरअसल वो तो कोई योगी है ही नहीं…वो तो भोगी है भोगी…बताइए साईकिल पे…वो भी मोटर साईकिल नहीं बल्कि बाई-साईकिल पे चलने वाले को क्या ज़रूरत है हैलीपैड की?…क्या ज़रूरत है चार्टेड प्लेन की?…क्या ज़रूरत है पंच स्तरीय रहन-सहन की?…क्या ज़रूरत है सुन्दर…अति सुन्दर टापू या द्वीप की?”…
द्वीप या टापू की तो दरअसल…हमें ज़रूरत होती है उन्हें अपनी ऐशगाह…अपनी शरण स्थली बनाने के लिए…
बहुत समझाया…भतेरा समझाया….घणा समझाया उस पागल के बच्चे को कि क्यों विलुप्त होना चाहता है?….संभाल ले अपनी लंगोटी और चुपचाप अनुलोम-विलोम कर मज़े से अपनी कुदरती जिंदगी जी ले…क्यों हमारे फटे में अपनी लुंगी समेत घुसता है? लेकिन वो कहते हैं ना कि विनाशकाले विपरीत बुद्धि…माँगी थी उसने राज-सिद्धि…फंस गयी उसकी अपनी खुद की गुद्दी ….
बहुत कोआपरेट किया उसके साथ…रिसीव करने हवाई अड्डे पर भी गए हम लोग…कई-कई मीटिंगें भी रखी उसके साथ…उसकी ही इच्छानुसार…उसके ही पसंदीदा पंच सितारा होटल में…यहाँ तक कि सहमति का लोलीपोप भी थमाया कि रजामंदी से जो लेना है…चुपचाप ले ले…बिना किसी खुडके के ले ले..लेकिन पट्ठा तो अपने पिछले किए वायदे से मुकर हमारे सर पे ही मूतने की बात करने लगा…वो भी सरेआम…ओपन पब्लिक….ओपन स्पेस में…तो हम भी आखिर क्या करते?…चुक गयी हमारी सहनशक्ति…चलाना पड़ गया हमें अपना ब्रह्मास्त्र याने के तुरुप का इक्का…इसी आड़े वक्त के लिए ही तो लिखवा के रख लिया था उन हरामखोरों से सहमति का पत्र…अब उसका इस्तेमाल नहीं करते तो क्या साँप के निकल जाने के बाद करते?…टूट जो गया था हमारे संयम का बाँध…सब्र का बाँध…बाँध के तो स्साले को उसी के गमछे के साथ…ऐसा सबक सिखाया हमने कि एकबारगी तो नानी याद आ गयी होगी उसको अपनी….यकीन था इस सबसे हमें कि अब कभी फिर वो दिल्ली का रुख नहीं करेगा लेकिन कुत्ते की पूँछ कभी सीधी हुई है जो इसकी हो जाती?…बदन पे पड़े मार के निशान हटते ही क्याऊँ…क्याऊँ कर पट्ठा फिर दिल्ली लौटने की सोचने लगा है…कम्बख्तमारा…कहीं का
कान खोल और ध्यान से सुन…क्या कह रहा हूँ मैं…
ओSssss
लुंगी संभाल भोगी…खिसकी चली जाए रे…मार ना दे डंक ये सिब्बल कहीं…हाय.
“क्क…क्या?…क्या कहा?….सोच नहीं रहा है बल्कि आ गया है दिल्ली?”…
“ओह!…ओह माय गाड….कुछ करना पड़ेगा इस कमबख्त का…अभी के अभी करना पड़ेगा….कहीं जीती बाज़ी फिर ना पलट दे…कुछ पता नहीं इसका"…
“उफ्फ!…क्या चाहा था मैंने और क्या हो गया?…चाहा तो यही था कि
खुद की करी को कर बुलंद इतना कि खुद योगी पूछे मुझसे कि बता सिब्बल…तेरी सिम्पल सी रज़ा क्या है
“हाँ!….हाँ…यही…यही ठीक रहेगा इसके लिए…सी.बी.आई से लेकर…इनकम टैक्स…वैल्थ टैक्स….फेरा वाले…और भी जो इसको तंग कर सकें…परेशान कर सकें…सब के सब लगा देता हूँ इसके पीछे….तभी अक्ल ठिकाने आएगी इसकी"…
“लातों के भूत भला बातों से कब माने हैं जो अब मान जाएंगे?”…
“क्यों भाई लोग?…क्या कहते हैं आप?…यही ठीक रहेगा ना इसके लिए?”…
“क्या?…क्या कहते हैं आप लोग?…एक वार्निंग और दे दूँ?…. ओ.के…जब आपसे दोस्ती हो ही गयी है तो इतना ख्याल तो रखना ही पडेगा आपकी बात का"…
तो सुन ले ओ योगी ध्यान से कहीं बाद में ये मत कह बैठियो सबसे कि पहले चेताया नहीं था…
“लुंगी संभाल भोगी…खिसकी चली जाए रे…मार ना दे डंक ये सिब्बल कहीं…हाय”…
***राजीव तनेजा***
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