लुंगी संभाल भोगी…खिसकी चली जाए रे- राजीव तनेजा

“माना कि मैं खुर्राट हूँ…आला दर्जे का खुर्राट…..अव्वल दर्जे का खुर्राट…तो इसमें आखिर…गलत क्या है?….क्या अपने फायदे के लिए चालाक होना…गलत होना….सही नहीं है…..गलत है?…और अगर है…तो भी मुझे किसी की चिंता नहीं…किसी की परवाह नहीं…..मुझे गर्व है कि मैं अव्वल दर्जे का कमीना होने के साथ-साथ थाली का वो(हाँ-हाँ…वही वाला) बैंगन हूँ जो जहाँ ढाल देखता है…वहीँ लुडक लेता है….तो आखिर इसमें गलत क्या है?…क्या अपने फायदे के लिए पिछले किए गए सभी वायदों से मुकर जाने में भलाई नहीं है?…. समझदारी नहीं है?”…

“हाँ-हाँ!…आप तो कहेंगे कि मर्द को अपनी ज़ुबान से नहीं फिरना चाहिए…मरते दम तक अपनी बात पे टिके रहना चाहिए…डटे रहना चाहिए…अड़े रहना चाहिए वगैरा…वगैरा”…

“तो पहली बात तो ये कि इतनी अच्छी-भली…ख़ूबसूरत जिंदगी के होते हुए मरना कौन कमबख्त चाहता है?….और फिर मैंने कहीं भी…अपनी किसी भी कोटेशन में भला कभी ये कहा है कि मैं मर्द हूँ?”…

“नहीं ना?”….   

“तो फिर भला आप मुझसे मर्द होने की…अपनी बात पे टिके रहने की उम्मीद भी कैसे लगा सकते हैं?”…

“मैं-तुम…हम-आप सभी भलीभांति जानते हैं कि हम सब इस रंगमंच रूपी जीवन की कठपुतलियाँ है…सभी यहाँ अपना-अपना किरदार निभा रहे हैं…किसी को नायक का किरदार मिला है तो किसी को खलनायक का…कोई पटरानी बन हर मोड़…हर चौराहे पे जीते जी अपने ही बुत्त बनवा…खुद को अमर करने का असफल प्रयास कर रही है तो कोई फिरंगन हमारी महारानी बन…हम सब पर अपना चाबुक लहरा रही है….गलती किसी की भी नहीं है…ना हमारी और ना ही उनकी…वो अपना रोल प्ले कर रहे हैं…हम अपना किरदार  निभा रहे हैं…लेकिन असली पंगा तो तब शुरू होता है जब सहायक कलाकार या स्पॉट बॉय तक जैसे अदना-अदना से कलाकार….जमादार…अपनी उम्मीदों के पंख फैला ऊँचा…बहुत ऊँचा उड़ने की सोचने लगते हैं…पागल के बच्चे ये भी नहीं जानते कि ऊँचा उड़ने वालों के पर वक्त से पहले ही क़तर दिए जाते हैं….अब जिसे ऊपर वाले ने डाईरैक्ट इटली से डायरेक्टर बना के भेजा है हम सबकी जिंदगी का…वो खाली-बैठे-बैठे खामख्वाह में बेफालतू की घास तो छीलेगा नहीं और फिर जब उसके पास सौ अन्य महत्त्वपूर्ण काम हों तो छीले भी क्यूँकर?…वेल्ला तो नहीं बैठा है वो कि ऐसे ज़रा-ज़रा से…अदना-अदना से कामों के लिए खुद…अपनी ही माथाफोड़ी करता फिरे(दूसरे का माथा फोडना हो तो अलग बात है) आखिर!…हम जैसे दिग्गी मार्का 251108digvijay[1] दिग्दर्शकों को रखा ही किसलिए गया है अपनी टीम में?”…

“कटिंग-फटिंग और एडिटिंग वगैरा के लिए ही ना?”…

“शुक्र मनाना चाहिए उन्हें हमारा कि हमने तो अभी सिर्फ उनका रोल ही कम किया है राजाओं की नीति से भरी इस फिल्लम में..ज्यादा चूं-चपड़ की या उछलकूद मचाई तो पूरा का पूरा रोल ही काट कर उनके वजूद ही मिटा दिया जाएगा इस जीवनरूपी चलचित्र से”…

“क्या हुआ?…सच्चाई जान कर बौखला गए आप?”….

“अरे!…बौखला तो एकबारगी हम भी गए थे जब इन उछलते-कूदते और फाँदते बन्दरों को हमने अपनी तरफ…अपने गिरेबाँ पे लपकते और झपटते देखा था लेकिन सच कहूँ तो तरस आता है मुझे इन चूजों के भोलेपन को…उतावलेपन को देख कर..क्या सोचते हैं ये और आप कि ऐसे…बन्दरों के नाचने से…गुलाटी खाने से…हम नाचने लग जाएंगे?…गुलाटी खाने लग जाएंगे?”…Anna-Hazare

ये गाँधी टोपी वाले…स्साले पागल कहीं के…सोचते हैं कि पुराने वक्त को पुन: लौटा लाएंगे…गया वक्त भी कभी लौट के आया है जो अब इनके लिए आ जाएगा?…बताओ!….कैसी पुट्ठी सोच है इनकी?….सोचते हैं कि ऐसे मजमा लगा के…डमरू बजा लगा के हमें झुका लेंगे….शायद ये जानते नहीं हैं कि ये लोकपाल-फोकपाल कुछ नहीं है…घंटा तक नहीं उखाडा जा सकता है इससे हमारा…सत्ता परिवर्तन…व्यवस्था परिवर्तन तो बहुत दूर की बात है…राजा को रंक और रंक को राजा बना भाग्य के लिखे को पलटना चाहते हैं चंद मूर्ख लोग…जानते नहीं कि बाय डिफाल्ट…ऊपर से हम अपनी किस्मत में राज योग याने के सत्ता का भोग लिखवा कर लाए हैं…तो राज कौन करेगा?..हम लोग….पानी कौन भरेगा?…हमारी प्रजा…याने के आप लोग”…

ध्यान से सुन लें सभी….बता रहा हूँ अभी ताकि आने-जाने वाले वक्त के लिए सनद रहे कि डमरू हमारे हाथ में है…किसके हाथ में है?….हमारे….इसलिए!…डुगडुगी कौन बजाएगा?…हम…यकीनन!..हम ही बजाएंगे डुगडुगी....उनकी नियति में नाचना और हमारी फितरत में इन्हें नचाना लिखा है बस…दैट्स आल…केस ओवर…मानता हूँ कि सही नहीं हैं हम…गलत हैं हम…लेकिन पानी में रह कर मगरमच्छों से भला कैसे वैर मोल लूँ?….ये अकेला चना आखिर…भाड़ फोड़े भी तो कैसे?…और जब तक खुद को…ऐसे ही…इसमें ही मज़ा आ रहा हो तो फिर फोड़े भी क्यूँकर?…

“क्या कहा?….किसकी बात कर रहे हैं आप लोग?….उस पाखंडी की जिसने अपने अनुलोम-विलोम के जरिये हमारे वर्चस्व को खण्ड-खण्ड करने की ठानी है?

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आपको शायद पता हो या ना हो…मैं बताता हूँ आपको इस पाखण्डी की….इस धूर्त की असलियत…अरे!…अगर इतना ही असली मर्द था कि योग के जरिये हमारी चूलें हिला देगा…हमारा सिंहासन डौला देगा  तो बताइए आप खुद ही कि उसे ऐसे…मुँह छिपा के भागने की ज़रूरत क्या थी?….खा लेता हमारी दम्बूक से निकली हुई गोली….सहन कर लेता लाठी-चार्ज के विध्वंसक हमले कोअश्रु बमों के आक्रमण को…हो जाता अमर…बन जाता शहीद…किसने रोका था?…

“दरअसल वो तो कोई योगी है ही नहीं…वो तो भोगी है भोगी…बताइए साईकिल पे…वो भी मोटर साईकिल नहीं बल्कि बाई-साईकिल पे चलने वाले को क्या ज़रूरत है हैलीपैड की?…क्या ज़रूरत है चार्टेड प्लेन की?…क्या ज़रूरत है पंच स्तरीय रहन-सहन की?…क्या ज़रूरत है सुन्दर…अति सुन्दर टापू या द्वीप की?”…

द्वीप या टापू की तो दरअसल…हमें ज़रूरत होती है उन्हें अपनी ऐशगाह…अपनी शरण स्थली बनाने के लिए…

बहुत समझाया…भतेरा समझाया….घणा समझाया उस पागल के बच्चे को कि क्यों विलुप्त होना चाहता है?….संभाल ले अपनी लंगोटी और चुपचाप अनुलोम-विलोम कर मज़े से अपनी कुदरती जिंदगी जी ले…क्यों हमारे फटे में अपनी लुंगी समेत घुसता है? लेकिन वो कहते हैं ना कि विनाशकाले विपरीत बुद्धि…माँगी थी उसने राज-सिद्धि…फंस गयी उसकी अपनी खुद की गुद्दी ….

बहुत कोआपरेट किया उसके साथ…रिसीव करने हवाई अड्डे पर भी गए हम लोग…कई-कई मीटिंगें भी रखी उसके साथ…उसकी ही इच्छानुसार…उसके ही पसंदीदा पंच सितारा होटल में…यहाँ तक कि सहमति का लोलीपोप भी थमाया कि रजामंदी से जो लेना है…चुपचाप ले ले…बिना किसी खुडके के ले ले..लेकिन पट्ठा तो अपने पिछले किए वायदे से मुकर हमारे सर पे ही मूतने की बात करने लगा…वो भी सरेआम…ओपन पब्लिक….ओपन स्पेस में…तो हम भी आखिर क्या करते?…चुक गयी हमारी सहनशक्ति…चलाना पड़ गया हमें अपना ब्रह्मास्त्र याने के तुरुप का इक्का…इसी आड़े वक्त के लिए ही तो लिखवा के रख लिया था उन हरामखोरों से सहमति का पत्र…अब उसका इस्तेमाल नहीं करते तो क्या साँप के निकल जाने के बाद करते?…टूट जो गया था हमारे संयम का बाँध…सब्र का बाँध…बाँध के तो स्साले को उसी के गमछे के साथ…ऐसा सबक सिखाया हमने कि एकबारगी तो नानी याद आ गयी होगी उसको अपनी….यकीन था इस सबसे हमें कि अब कभी फिर वो दिल्ली का रुख नहीं करेगा लेकिन कुत्ते की पूँछ कभी सीधी हुई है जो इसकी हो जाती?…बदन पे पड़े मार के निशान हटते ही क्याऊँ…क्याऊँ कर पट्ठा फिर दिल्ली लौटने की सोचने लगा है…कम्बख्तमारा…कहीं का

कान खोल और ध्यान से सुन…क्या कह रहा हूँ मैं…

ओSssss

लुंगी संभाल भोगी…खिसकी चली जाए रे…मार ना दे डंक ये सिब्बल कहीं…हाय.

“क्क…क्या?…क्या कहा?….सोच नहीं रहा है बल्कि आ गया है दिल्ली?”…

“ओह!…ओह माय गाड….कुछ करना पड़ेगा इस कमबख्त का…अभी के अभी करना पड़ेगा….कहीं जीती बाज़ी फिर ना पलट दे…कुछ पता नहीं इसका"…

“उफ्फ!…क्या चाहा था मैंने और क्या हो गया?…चाहा तो यही था कि

खुद की करी को कर बुलंद इतना कि खुद योगी पूछे मुझसे कि बता सिब्बल…तेरी सिम्पल सी रज़ा क्या है

“हाँ!….हाँ…यही…यही ठीक रहेगा इसके लिए…सी.बी.आई से लेकर…इनकम टैक्सवैल्थ टैक्स….फेरा वाले…और भी जो इसको तंग कर सकें…परेशान कर सकें…सब के सब लगा देता हूँ इसके पीछे….तभी अक्ल ठिकाने आएगी इसकी"…

“लातों के भूत भला बातों से कब माने हैं जो अब मान जाएंगे?”…

“क्यों भाई लोग?…क्या कहते हैं आप?…यही ठीक रहेगा ना इसके लिए?”…

“क्या?…क्या कहते हैं आप लोग?…एक वार्निंग और दे दूँ?…. ओ.के…जब आपसे दोस्ती हो ही गयी है तो इतना ख्याल तो रखना ही पडेगा आपकी बात का"…

तो सुन ले ओ योगी ध्यान से कहीं बाद में ये मत कह बैठियो सबसे कि पहले चेताया नहीं था…

“लुंगी संभाल भोगी…खिसकी चली जाए रे…मार ना दे डंक ये सिब्बल कहीं…हाय”…

 

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***राजीव तनेजा***

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कॉल करती….ना मिस कॉल करती- राजीव तनेजा

on phone

“हद हो गई बेशर्मी की ये तो …कोई भरोसा नहीं इन कंबख्तमारी औरतों का….किसी की सगी नहीं होती हैं ये"…

“आखिर!…हुआ क्या तनेजा जी?….क्यों इस कदर बडबड़ाए चले जा रहे हैं?”…

“बडबड़ाऊँ नहीं तो और क्या करूँ गुप्ता जी?….और छोड़ा ही किस लायक है उस  कंबख्तमारी ने मुझे?"…

“जी!…सो तो है"मेरी दयनीय हालत देख गुप्ता जी का स्वर भी उदास होने को हुआ…

“जी!…

“यही बात तो मुझे बिलकुल पसंद नहीं आती इन कंबख्तमारी औरतों की…पहले तो बात-बात पे बिना बात खुद ही तू-तड़ाक करेंगी और फिर अपना बस ना चलता देख खुद ही बिना किसी बात के झुल्ली-बिस्तरा उठा फट से चल देंगी मायके  मानो मायका…मायका ना हो गया…पीर बाबा की दरगाह हो गया कि हर वीरवार को बिना किसी नानुकर के मत्था टेकना ही टेकना है"…

“जी!….वडेवें जो मिलते हैं उन्हें वहाँ"…

“वोही तो….आप क्या चिकन-शिकन या फिर दारू-शारू का कोई शौक रखते हैं?”गुप्ता जी किसी नतीजे पे पहुँचने की कोशिश करते हुए बोले……

“सिर्फ पूछ रहे हैं या फिर खिलाने-पिलाने की भी सोच रहे हैं?”मेरी आँखें चमकने को हुई…

“अभी फिलहाल तो सिर्फ पूछ ही रहा हूँ"गुप्ता जी का संयत स्वर…

“ओह!….फिर तो मैं इन चीज़ों से कोसों दूर रहता हूँ"मैं संभलता हुआ बोला..

“दैट्स नाईस"…

“जी!…

“पान-तम्बाखू या फिर खैनी-गुटखे का किसी प्रकार का कोई वैध-अवैध सेवन?”गुप्ता जी ऊपर से लेकर नीचे तक मुझे गौर से देखते हुए बोले……

“बिलकुल नहीं"…

“पक्का?”गुप्ता जी के स्वर में संशय था..…

“जी!….बिलकुल पक्का"…

“रंडीबाज़ी से लेकर मालिश-वालिश तक का कोई रईसों वाला…पठानी टाईप का शौक?”…

“न्योता दे रहे हैं या फिर ऐसे ही खामख्वाह..मूड बना रहे हैं?”मैं संदेह भरी दृष्टि से उन्हें देखता हुआ बोला...

“मैंने तो बस…ऐसे ही…..मूड में आया तो….

“तो दूसरे का मूड खराब कर डाला?”मैं नाराज़ होता हुआ बोला..

“जी!….

“जी?”….

“न्न्…नहीं…..

“नहीं?”…

“म्म…मैंने तो बस…ऐसे ही…मन में आया तो पूछ लिया…जस्ट फॉर नालेज"…

“जस्ट फॉर नालेज?”..

“जी!….

“फिर तो ऐसा घटिया शौक नहीं पाला है मैंने"…

“पक्का?”…

“बिलकुल पक्का"…

“तो फिर ऐसे…अचानक भाभी जी को कौन सी बीमारी लग गई जो वो एक ही झटके में सबकुछ छोड़छाड़ चलती बनी?”…

“वो बीमार थी?”मैं प्रश्नवाचक मुद्रा अपनाता हुआ बोला..…

“मुझे क्या पता?”…

“तो फिर किसे पता है?"…

“ये तो आपको पता होना चाहिए"…

“मुझे भला क्यों पता होना चाहिए?….ये तो आपको पता होना चाहिए"…

“भय्यी वाह!…बहुत बढ़िया…बीवी आपकी…और पता मुझे होना चाहिए कि उसे कोई बीमारी थी या नहीं"…

“बीवी मेरी है?”…

“नहीं!…मेरी है"गुप्ता जी का तैश भरा स्वर…….

“वोही तो”…

(गुप्ता जी का मुझे घूर कर संशय भरी नज़र से देखना)

“ओSsss….हैलो!….मैं अपनी बीवी की बात नहीं कर रहा हूँ"बात समझ में आने पर मेरा उन्हें सकपकाते हुए सफाई देना….

“तो फिर किसकी बीवी की बात कर रहे हैं?”…

“व्व…..वो शादीशुदा है?”मैं चौंकता हुआ बोला…

“मुझे क्या पता?”..

“तो फिर किसे पता होगा?”…

“आपको"..

“मुझे क्यों?”..

“अभी आप ही ने तो कहा"..

“क्या?”…

“यही कि वो सब कुछ छोड़-छाड़ के चलती बनी"…

“ऐसा मैंने कहा?”…

“हाँ!..

“कब?”..

“अभी…जस्ट थोड़ी देर ही पहले"…

“लैट मी रिमैम्बर"…

“जी!….

“ओSsss….हैलो!….ऐसा मैंने नहीं बल्कि आपने कहा था"…

“मैंने?”…

“जी!…

“ओह!…तो फिर आप किसकी बात कर रहे थे?”….

“उसी पागल की बच्ची की जो सुबह-सुबह…

“आपको किस करती है?”…

“नहीं!…

“मिस करती है?”…

“नहीं!…

“कॉल करती है?”…

“नहीं!…

“मिस कॉल करती है?”…

“नहीं!…

“ओह!…तो इसका मतलब सारा पंगा ही इसी बात का है कि वो पागल की बच्ची ना तो आपको कॉल करती है और ना ही मिस कॉल करती है?"…

“जी!…कॉल करती….ना मिस कॉल करती”……

“तो आपको भी किसी पागल से या फिर उसकी बच्ची से कॉल या मिस कॉल करवा के क्या लड्डू लेने हैं?”…

“आपको कैसे पता?”…

“क्या?”…

“यही कि उसके बाप की लड्डूयों की दुकान है?"…

“बूंदी के?”…

“नहीं!…मोतीचूर के"…

“ओह!…अच्छा….आई लव लड्डूज ऑफ मोतीचूर”….

“वो तो मुझे भी बहुत पसंद हैं”….

“जी!….तो फिर बताइए ना"…

“क्या?”…

“यही कि वो सुबह-सुबह क्या करती है?”…

“ओ.के…लैट मी स्टार्ट अगेन"…

“एक मिनट…..मैं बताऊँ?”गुप्ता जी उछल कर हर्ष से अतिरेक हो प्रफुल्लित स्वर में बोले…

“क्या?”…

“यही कि वो सुबह-सुबह क्या करती है?”…

“बताओ"…

“वो पक्का संडास जाती होगी"…

“किसके साथ?”…

“तेरी माँ के साथ"…

“मेरी माँ के साथ?”…

“संडास किसके साथ जाते हैं?”…

“किसी के साथ नहीं"…

“तो फिर?”…

“क्या…तो फिर?”…

“तो फिर वो किसके साथ जाती होगी?”…

“किसी के साथ नहीं"…

“वोही तो"…

“नहीं!…

“नहीं?”…

“नहीं!…वो संडास नहीं जाती होगी"कुछ सोच मैं निष्कर्ष पर पहुंचता हुआ बोला…

“क्यों?”…

“रस्ता बंद है"…

“संडास का?”…

“नहीं!…तुम्हारी सोच का"…

“कैसे?”…

“और नहीं तो क्या?…ये भी क्या बात हुई कि वो संडास नहीं जाती होगी?…क्यों नहीं जाती होगी भला?”…

“मैं बताऊँ?”…

“हाँ!…बताओ"….

“पेट खराब रहता होगा उसका”…

“परमानैंटली?”…

“जी!…

“पता नहीं”…

“पता क्या नहीं?…बिलकुल पक्की बात है"…

“कौन सी?”…

“यही कि पेट खराब रहता होगा उसका"…

“आपको कैसे पता?”…

“बस!…ऐसे ही एक छोटा सा गैस्स"….

“हाँ!…यार…गैस तो वो भी बहुत करती है और बार-बार करती है"….

“मना करने के बावजूद भी?”…

“जी!…मेरे लाख मना करने के बावजूद भी"…

“ओह!…

“समझो तकिया खराब है उसका"….

“तकिया खराब है उसका?”…

“नहीं!…तकिया कलाम है उसका"…

“तकिया कलाम है या फिर आदत है?"…

“एक ही बात है"…

“एक ही बात कैसे है?…तकिया कलाम…तकिया कलाम होता है और आदत…आदत होती है"…

“जी!…ये बात तो है"…

“वोही तो”…..

“बेशक कुछ आता हो या ना आता हो लेकिन ‘पहले मैं'…पहले मैं' करके ये मोहतरमा गैस ज़रूर करेंगी"…

“ओह!…यहाँ भी इन कम्बख्मारियों को प्रायरिटी चाहिए"…

“जी!…उनकी इसी आदत पे तो मैं फ़िदा हो गया था"…

“प्रायरिटी वाली?”…

“नहीं!…

पहले मैं…पहले मैं' वाली?”…

“नहीं!….गैस करने वाली"….

“ओह!….

“एक बार तो उन्होंने हद ही मुका दी थी….

“गैस कर-कर के"…

“जी!…

“कब?”…

“जब मैंने उन्हें पहली बार….

“डकार मारते हुए देखा था?”…

“आपको कैसे पता?”…

“क्या?”…

“यही कि उसे छोले-भठूरे बहुत पसंद हैं?”..

“नत्थू हलवाई के?”…

“जी!…लेकिन आपको कैसे पता?”….

“बस!…ऐसे ही एक छोटा सा गैस्स"…

“ओह!…एक दिन तो मैं भी बड़ा परेशान हो गया था"….

“गैस कर-कर के?”…

“नहीं!…सूंघ-सूंघ के”..

“सूंघ-सूंघ के?”……

“हाँ!…खुशबू ही इतनी अच्छी थी कि…..

“खुशबू?”….

“जी!…

“लेकिन अभी तो आपने कहा कि आप सूंघ-सूंघ के परेशान हो गए थे"…

“तो?…कोई भी चीज़ भले ही कितनी भी अच्छी या स्वादिष्ट क्यों ना हो?…आप उसे ज्यादा से ज्यादा कितनी देर तक सूंघ सकते हैं?”…

“स्वादिष्ट?”…

“जी!…

“ओह!….

“तो फिर बताइए ना"…

“क्या?”…

“यही कि कोई भी चीज़ भले ही कितनी भी अच्छी या स्वादिष्ट क्यों ना हो?…आप उसे ज्यादा से ज्यादा कितनी देर तक सूंघ सकते हैं?”…

“यही कोई पांच या दस मिनट"…

“और मैं पागल उसे लगातार आधे घंटे से सूंघे चला जा रहा था"…

“ओह!…आप परे क्यों नहीं हट गए?”…

“कैसे हटता?….वो है ही इतनी प्यारी कि….

“ओह!….

“बार-बार परफ्यूम छिडकना पड़ रहा था"…

“नाक के आगे?”…

“नहीं!…. *&^%$! के आगे"…

“ओह!….

“तुम पागल हो?”…

“नहीं तो…क्यों?…क्या हुआ?”…

“परफ्यूम कहाँ छिड़का जाता है?”…

“नाक के आगे"…

“तो?”…

“तो?”गुप्ता जी के स्वर में असमंजस था…

“क्या…तो?”मेरा गुस्से से भरा स्वर…

“ओह!…फिर तो आपका बहुत खर्चा हो गया होगा?”गुप्ता जी बात को संभालते हुए बोले……

“और नहीं तो क्या?…पूरी की पूरी बोतल ही स्वाहा हो गई"…

“कैसे?”…

“वो पागल की बच्ची बार-बार गैस जो कर रही थी"…

“और आप बार-बार परफ्यूम छिड़क रहे थे?”…

“जी!…छिडकता नहीं तो और क्या करता?….वो बार-बार….

“गैस जो कर रही थी?"…

“जी!….

“आपने उसे मना कर देना था"…

“गैस करने से?”…

“जी!….

“कैसे कर देता?…रोजाना की क्लाईंट है"…

“क्लाईंट है?”….

“जी!…

“यू मीन ग्राहक?”…

“जी!…

“लेकिन आपका तो दरवाज़े-खिड़कियों का बिजनस है ना?”…

“जी!…

“तो वो आपकी क्लाईंट कैसे हो गयी?”…

“ओह!…आपको मैं शायद पहले बताना भूल गया था"…

“क्या?”…

“यही कि इससे पहले मेरा डिपार्टमेंटल स्टोर था"…

“तो?”…

“वहीँ पर तो वो बार-बार सूंघ के गैस कर रही थी कि ये!…ये वाला परफ्यूम है और ये…ये वाला"…

“यू मीन गैस्स?…अन्दाजा लगा रही थी वो?”…

“जी!…

“ओह!…

“वैसे आपका ये डिपार्टमेंटल स्टोर है कहाँ?”…

“है नहीं…था"…

“कहाँ?”…

“रोहिणी में"…

“फिर तो मज़ा बहुत आता होगा?”…

“जी!…बहुत"…

“फिर आपने उसे क्यों छोड़ दिया?”..

“लड़की को?”…

“नहीं!…काम को"…

“चला नहीं"…

“लेकिन अभी आपने कहा कि मज़ा बहुत आया"…

“जी!…

“तो फिर काम छोड़ क्यों दिया?”…

“मज़ा मुझे नहीं…मेरे ग्राहकों को आया था…मुझे तो नुकसान झेलना पड़ा था"…

“कब की बात है ये?”…

“यही कोई सात-आठ साल पहले की"…

“तब की बात आप अब मुझे बता रहे हैं?”..

“जी!…

“लेकिन क्यों?”…

“क्यों?…क्या?…दोस्त हैं आप मेरे"…

“तो?”…

“तो आपके आगे अपना दुखडा नहीं रोऊंगा तो किसके आगे रोऊंगा?”…

“सालों पुराने दुखड़े को सुनाने की आज आपको याद आई?”..

“जी!…

“लेकिन क्यों?”..

“उसने मुझे डिच जो कर दिया है"…

“इतने सालों बाद?”…

“जी!…

“वाह!…बहुत बढ़िया…..हद हो गयी ये तो बेशर्मी की..इतने सालों तक #$%^&^%$#  की ऐसी तैसी कराते रहो और उसके बाद एक झटके से तू कौन…मैं खामख्वाह"…

“गुप्ता जी…मैंने आपको भला कब किस चीज़ के लिए मना किया है जो इस तरह ताने दे रहे हैं?”मैं रुआंसा होने को हुआ…

“ओSsss….हैलो…मैं तुम्हारी बात नहीं कर रहा हूँ…मैं तो उस कंबख्तमारी की बात कर रहा हूँ जो इतने सालों तक तुम्हारे साथ अपनी ऐसी-तैसी कराने के बाद अब आँखें दिखा रही है"…

“उफ्फ!…किसकी याद दिला दी गुप्ता जी आपने भी?….कंबख्तमारी की आँखें हैं ही इतनी कातिल कि कोई भी मर मिटे”…

“जी!….

“एण्ड फॉर यूअर काईंड इन्फार्मेशन रोहिणी से अपना काम बंद करने के बाद वो बीच के इन सालों में मुझे कभी नहीं मिली"…

“कभी नहीं मिली?”…

“जी!…

“तो फिर उसने तुम्हें डिच कैसे कर दिया?”गुप्ता जी का असमंजस भरा स्वर……

“इतनी देर से यही तो समझा रहा हूँ गुप्ता जी लेकिन आप हैं कि बात को कहाँ से कहाँ घुमा के ले चले जाते हैं?”…

“मैं घुमा के ले जाता हूँ या आप घुमा के ले चले जाते हैं?”…

“एक ही बात है…आप में और मुझमें भला क्या फर्क है?”…

“जी!…सो तो है"…

“जी!….

“अब मुझे ढंग से बताओ कि आखिर…हुआ क्या?”…

“होना क्या है गुप्ता जी?…अभी पिछले हफ्ते ही वो मुझे बाज़ार में नज़र आई…एज यूजयुअल”…

“गैस करते हुए?”…

“जी!…गैस करते हुए”…

“उसने पहचान लिया तुम्हें?”…

“जी!…एक बार देख के मुस्कुराई तो थी…शायद….

“शायद?”…

“जी!….मैंने अपना चश्मा उतारा हुआ था उस समय…इसलिए ठीक से दिखाई नहीं दिया"…

“हद हो गई ये तो लापरवाही की…चश्मा उतारा हुआ था…फिर क्या ख़ाक पहचाना होगा उसने तुम्हें?”…

“आँखें काम नहीं कर रही थी गुप्ता जी तो क्या हुआ?…मेरे ये लम्बे-लम्बे कान तो खड़े थे"…

“कुत्ते के माफिक"…

“जी!…बिलकुल…एक्चुअली!…सब मुझे बचपन में ‘कन्न खड़ी कुत्ती’ कह के बुलाते थे"…

“कन्न खड़ी कुत्ती?”…

“जी!…“कन्न खड़ी कुत्ती?”…पागलों को ये भी नहीं पता था कि मैं कुत्ती नहीं बल्कि…..

“कुत्ता हूँ?”…

“जी!…कुत्ता….और वो भी कोई ऐसा-वैसा नहीं बल्कि…

“अल्सेशियन?”…

“नहीं!…डग”….

“ओह!..तो फिर मेरी “कन्न खड़ी कुत्ती” जी…आपने अपने इन लम्बे-लम्बे कानों से क्या सुना?”…

“उसका फोन नंबर"…

“तुम्हें बता रही थी?”…

“नहीं!…जमादार को?”……

“और तुमने उसे चुपके से नोट कर लिया?”…

“नहीं!…याद कर लिया"…

“वैरी कलेवर"…

“जी!…शुक्रिया"…

“फिर तो बात बड़े आराम से बन गई होगी?”…

“बन गई होती तो क्या मैं यहाँ आपके आगे अपनी  $%$#%^&  *&^&* #$  #%^%$ होता? ..

“लेकिन जब फोन नंबर मिल ही गया था तो क्या दिक्कत थी?…अपना आराम से फोन पे डाईरैक्ट बात कर के अपने प्यार का इज़हार कर देना था"…

“और बदले में पड़ने वाले जूतों को आपने हज़म कर लेना था?”…

“हद हो यार तुम भी…प्यार भी करते हो और डरते भी हो?”…

“डरना पड़ता है गुप्ता जी…डरना पड़ता है…..उम्र के इस पड़ाव पे पहुँचने के बाद डरना पड़ता है”…

“तो फिर ‘एस.एम्.एस' भेज के ही देख लेते…शायद बात बन जाती"…

“भेजे तो…एक नहीं अनेक भेजे और बार-बार…बारम्बार भेजे"…

“तो?”…

“अब क्या बताऊँ गुप्ता जी….कि कैसे उस बावली को S.M.S कर कर के मेरी उँगलियाँ टूट गई लेकिन मेरे बजाए वो पट्ठी मेरे दोस्त के साथ सैट हो गई"…

“क्क…क्या?”…..

“जी!…सब पैसों के पीर हैं गुप्ता जी…सब पैसों के पीर हैं"…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“मेरे फोन में बैलैंस क्या खत्म हुआ?…आँखें ही फेर ली उस पागल की बच्ची ने"….

“कैसे?”…

“ऐसे…(मैं अपनी आँखें भैंगी कर उन्हें इधर-उधर घुमाता हुआ बोला)…

“म्म…मेरा मतलब ये नहीं था बल्कि मैं तो ये पूछना चाह रहा था कि….

“कुछ मत पूछिए गुप्ता जी…कुछ मत पूछिए”…

“ओ.के…अगर आप नहीं बताना चाहते हैं तो जैसी आपकी मर्जी"……

“कमाल है?…मैं नहीं बताना चाहता?….हद हो गई गुप्ता जी ये तो आपकी नासमझी की….मैं नहीं बताना चाहता?….वाह…बहुत बढ़िया"मेरा हडबडा कर सकपकाते हुए तैश भरा स्वर…

“अ…अ..अभी आप ही ने तो कहा कि कुछ मत पूछिए गुप्ता जी….

“तो इसका मतलब आप कुछ पूछेंगे ही नहीं?”….

“न्न्….नहीं..ऐसी बात नहीं है..पूछूँगा…ज़रूर पूछूँगा…क्यों नहीं पूछूँगा?”…

“तो फिर पूछिए ना"….

“अ…अभी?”…

“नहीं!…पहले किसी पण्डित से कोई अच्छा सा शुभ मुहूर्त निकलवा लीजिए"…

“ओ.के"गुप्ता जी वापिस मुड़ने की मुद्रा अपनाते हुए बोले…

“कहाँ चल दिए"…

“पण्डित जी के पास"…

“काहे को?”….

“मुहूर्त निकलवाने"…

“पगला गए हैं क्या?…

“मैं भला क्यों पगलाने लगा?…अभी आपने खुद ही तो कहा कि….

“मैं अगर कहूँगा कि आप अभी बीच बाज़ार मेरी चुम्मी लीजिए तो आप ले लेंगे?”…

“बिलकुल ले लूँगा”…

“फ़ौरन ले लेंगे?"…

“जी!…बिलकुल….फ़ौरन ले लूँगा"…

“एक सैकेण्ड में ले लेंगे?”…

“बिलकुल…एक सैकेण्ड में ले लूँगा"…

“अभी?…इसी वक्त ले लेंगे?”…

“स्टाम्प पेपर पे लिख के दूँ क्या?”…

“नहीं!…इसकी ज़रूरत नहीं है"…

“ओ.के"…

“मुझसे बेहतर कोई और मिल गया तो मुकर तो नहीं जाएंगे ना?”…

“कतई नहीं"…

“पक्का?”…

“बिलकुल पक्का…मुकरना मेरी फितरत नहीं…जब मर्जी आज़मा के देख लें"गुप्ता जी मेरे गाल पे चिकोटी काटते हुए बोले..

“आपको लाज ना आएगी?”…

“मुझे भला क्यों आएगी?…वो तो आपको आनी चाहिए"…

“लेकिन ऐसे….बिना नहाए-धोए….कैसे?”मेरे स्वर में असमंजस था…

“सिर्फ चुम्मी ही लेनी है ना?”गुप्ता जी का आशंकित स्वर..

“नहीं!…कीर्तन भी करवाना है"मेरा तैश भरा स्वर…

“अभी?…दिन में?”गुप्ता जी के स्वर में जिज्ञासा थी..

“हाँ!…अभी…दिन में"…

“ओ.के"….

“कहाँ चल दिए"…

“नहाने"…

“दिमाग खराब हो गया है आपका …पागल हो गए हैं आप"मेरा गुस्से से भरा स्वर…

“मेरा भला क्यों पागल होने लगा?…वो तो आपने खुद ही कहा तो मैं….

“मैं कहूँगा कि कुएँ में कूद जाओ तो कूद जाएंगे कुएँ में?”…

“अभी इतना पागल भी नहीं हुआ हूँ कि….

“अगर पागल नहीं हुए हैं तो फिर मेरे कहने पर आप पहले पण्डित जी को खोजने और फिर उसके बाद नहाने के लिए क्यों चल दिए?”….

“ओफ्फो!…अजीब मुसीबत है…बात मानो…तो भी मुश्किल और ना मानो…तो और भी मुश्किल"…

“मुश्किल तो मेरी आन पड़ी है गुप्ता जी….आपकी क्या आन पडी है?”…

“क्या मुश्किल आन पडी है?…अच्छे-भले तो दिख रहे हो"…

“दिखने पे मत जाइए गुप्ता जी…दिखने पे मत जाइए…दिखने में तो ये कपिल सिब्बल भी कितना भोला और सीधा दिखता है लेकिन बाबा जी को दगा दे के इसने काम कितना घिनौना काम किया है?”…

“जी!…सो तो है”…

“ऐसा ही घिनौना काम तो मेरे दोस्त ने मेरे साथ किया है गुप्ता जी”….

“आखिर!…हुआ क्या?”…

“होना क्या था गुप्ता जी?….उस बावली को मैसेज पे मैसेज कर-करके मेरी उंगलियां टूट गयी लेकिन वो पागल की बच्ची मुझे डिच करके मेरे दोस्त के साथ सैट हो गई"…

“लेकिन कैसे?”..

“अब क्या बताऊँ गुप्ता जी कि…कैसे मेरे फोन में बैलेंस नहीं था और कैसे मैं उसे अपने दोस्त के फोन से बार-बार…बारम्बार लव यू'…’आई लव यू’ के मैसेज पे मैसेज करता रहा"…

“तो?”…

“मेरे उन्हीं प्यार भरे मैसेजिस से दिल पसीज गया पट्ठी का और दिल दे बैठी"…

“दैट्स नाईस"…

“काहे का नाईस?…मैसेज भेज-भेज के उंगलियाँ मेरी टूट गई और जब दिल के  लेने-देने की बारी आई तो वो दोस्त स्साला…बीच में ही फोन झपट के  ले उड़ा कि…. “सॉरी!…मुझे अर्जैन्टली कहीं जाना है”…

“तो जाने देते…आपका काम तो वैसे भी हो ही चुका था”….

“अजी!…काहे का हो चुका था?…मैंने उसे ये तो बताया ही नहीं था तब तक कि ये मेरा नहीं बल्कि मेरे दोस्त का फोन है"…

“क्क…क्या?”….

"जी!…

“अब समझा"…

“क्या?”…

“यही कि वो तुम्हें क्यों नहीं कॉल करती या मिस कॉल करती"…

***राजीव तनेजा***

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+91921766753

+919136159706

 

नोट: दोस्तों ये कहानी लिखने के बाद खुद मुझे भी पसंद नहीं आई तो आप सबको भला  कहाँ आई होगी? …इसे लिखने में मैं अपने कई घंटे गँवा चुका था इसलिए मजबूरन मुझे इसे मरता…क्या ना करता की तर्ज़ पर पोस्ट करना पड़ा…शुक्रिया आप सबका इन तकलीफदेह पलों से गुजरने के लिए… 

चढ जा बेटा सूली पे-राजीव तनेजा

“हाँ!…तो पप्पू जी…मेरे ख्याल से काफी आराम हो गया है….अब आगे की कहानी शुरू करें?”…

“जी!…ज़रूर"…

“तो फिर बताइये…क्या टैंशन है”…

Light_Asylum-In_Tension_2

नोट: दोस्तों मेरी पिछली कहानी ‘भोगी को क्या भोगना…भोगी मांगे दाम' ज़रूरत से ज्यादा बड़ी हो रही थी…इसलिए मैंने उस कहानी को दो भागों में विभक्त कर दिया था| लीजिए अब आपके समक्ष पेश है उस कहानी का दूसरा और अंतिम भाग

“मैं बताऊँ?”…

“जी!…

“टैंशन आपको है और मैं बताऊँ?”…

“नहीं!…अपनी टैंशन तो मैं खुद बयाँ कर दूंगा…आप अपनी बताइए"…

“आपको भी टैंशन है?”..

“क्यों?…मैं क्या इनसान नहीं हूँ?”…

“नहीं!..इनसान तो आप हैं लेकिन….

“लेकिन क्या?…दिखता नहीं?”…

“नहीं!…दिखते तो हैं लेकिन….

“लेकिन लगता नहीं?”…

“नहीं!…

“क्क्या?”मैं उछलने को हुआ…

“न्न्...नहीं!…

“नहीं?”मेरा हैरानी भरा स्वर…

“म्म..मेरा  मतलब तो ये था कि….

“मतलब था?…याने के अब नहीं है?”मेरी आवाज़ में संशय था…

“न्न्…नहीं…है तो अब भी लेकिन व्व..वो नहीं….जो पहले था"…

“पहले क्या था?”मैं प्रश्नवाचक मुद्रा अपनाता हुआ बोला…

“पहले आप लगते तो थे लेकिन….

“दिखता नहीं था?”…

“जी!….

“और अब?”…

“अब दिखते तो हैं लेकिन….

“लेकिन लगता नहीं?”मेरा नाराजगी भरा स्वर…

“नहीं!…लगते भी हैं लेकिन…

“लेकिन?”…

“लेकिन फिर आपने ये टैंशन गुरु का दफ्तर क्यों खोल रखा है?”पप्पू का असमंजस भरा स्वर…

“क्यों खोल के रखा है?…से मतलब?”…

“यही कि….क्यों खोल के रखा है?”…

“ये दिल्ली है मेरी जान"…

“तो?”…

“यहाँ ज़्यादातर बन्द घरों के ही ताले टूटते हैं"…

“टूटते हैं या तोड़ दिए जाते हैं?”…

“एक ही बात है"….

“अरे!…वाह…एक ही बात कैसे है?…टूटना…टूटना होता है और तोडना…तोडना होता है"…

“कैसे?”…

“जैसे कोई चीज़ अपने आप टूट कर गिरती है तो उसे टूटना कहा जाता है”…

“जैसे बुढापे की वजह से आपका ये दाँत?”…

“हाँ!…

“और अगर दूसरे वाले को मैं मुक्का मार के ज़बरदस्ती तोड़ दूँ तो उसे तोडना कहा जाएगा?”…

“जी!…बिलकुल"…

“तोड़ के देखूं?”…

“अपना?”…

“नहीं!…आपका"…

“कोई ज़रूरत नहीं है"…

“एज यू विश…जैसी आपकी मर्जी"…

“ओ.के"…

“इसीलिए ना चाहते हुए भी कई बार मुझे खोल के रखना पड़ता है"…

“दफ्तर?”…

“नहीं!…मुँह”…

“अपना?”…

“नहीं!…आपका"…

“आप डेंटिस्ट हैं?”…

“नहीं!…कारपेंटर"…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“अरे!…जब मैं अपनी बात कर रहा हूँ तो अपना ही मुँह खोलूँगा ना?”……

“लेकिन क्यों?”…

“छींक मारने के लिए"…

sneezing

“आप मुँह खोल के छींक मारते हैं?”…

“नहीं!…नाक बन्द करके"…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“अरे!…बेवाकूफ मुँह खोल के क्या किया जाता है?”..

“साँस लिया जाता है"…

“और नाक खोल के?”….

“सिड़का जाता है?”…

“किसे?”…

“उसे"……

“हट्ट!…जब भी करोगे…गन्दी बात ही करोगे"…

“जी!…बिलकुल…आपकी आज्ञा सर माथे पर"…

“कौन सी?”…

“यही कि मैं जब भी करूँ…गन्दी बात ही करूँ"…

“क्यों?”…

“डाक्टर ने कहा है”…

“दिल के?"…

“नहीं!…दिमाग के"…

“दिमाग खराब है तुम्हारा?”…

“नहीं!…आपका"…

“तुम्हें कैसे पता?”…

“दिमाग खराब है आपका तभी तो ऐसी बेहूदी राय दे रहे हैं"…

“कौन सी?”…

“यही कि…मैं जब भी बात करूँ…गन्दी बात ही करूँ"…

“ऐसा मैंने कहा?”…

“जी!…

“कब?”…

“अभी थोड़ी देर पहले"…

“ओह!…सॉरी…ऐसे ही गलती से निकल गया होगा"…

“जी!…

“हम कहाँ थे?”…

“आपके दफ्तर में"…

“और अब कहाँ हैं?”…

“अब भी आप ही के दफ्तर में"..

“नहीं!…मेरा मतलब था कि हम क्या बात कर रहे थे?”..

“यही कि आप मुँह खोल के…

“ओह!…अच्छा….हाँ…तो बताओ…मुँह खोल के और क्या किया जाता है?”…

“खाना खाया जाता है”..

“और?”…

“उबासी ली जाती है"…

baby-yawn

“और?”…

“चुम्मी ली जाती है"…

“माशूका की?”…

“नहीं!…पम्मी की"…

“पम्मी कौन?”…

“मेरी मम्मी"…

“तुम मुँह खोल के चुम्मी लेते हो?”…

“नहीं!…बन्द कर के"…

“बन्द कर के?”…

“प्प…पता नहीं"पप्पू के चेहरे पे असमंजस था…

“पता नहीं?”मेरा हैरानी भरा स्वर…

“जी!…

“लेकिन क्यों?”…

“पता नहीं"…

“ओ.के….मुँह खोल के और क्या किया जाता है?”…

“चिल्लाया जाता है"…

“बेवाकूफ"…

“मैं?”..

“हाँ!…तुम"…

“लेकिन क्यों?”..

“ये बात पहले नहीं बोल सकते थे?”…

“आप चिल्लाने के लिए मुँह खोलते हैं?”..

“हाँ!…

“लेकिन क्यों?”…

“कीड़ा सटट जो मारता है” …

“आपको?”…

“नहीं!…तुमको"…

“मुझको?”…

“नहीं!…मुझको"…

“लेकिन क्यों?”….

“जोर-जोर से चिल्लाने के लिए कहता है"…

“आपसे?”…

“नहीं!…चौकीदार से?”…

chaukidar

“क्या?”…

“यही कि….‘जागते रहोSssss…जागते रहोSssss’"…

“रात में?”…

“नहीं!…दिन में"..

“दिन में?”…

“हाँ!…दिन में"…

“लेकिन क्यों?”…

“मुझे सोने की आदत जो है"…

“दिन में?”…

“नहीं!…रात में"…

“रात में सोने की आदत है इसलिए दिन में मुँह खोल के चिल्लाते हैं…जागते रहो…जागते रहो?”पप्पू के स्वर में हैरानी का पुट था

“हाँ!…

“लेकिन क्यों?”…

“चौकीदार को आदत जो है….

"सोने की?"…

“नहीं!…रोने की"…

“वो रोता है?”…

“बहुत"….

“रात में?”…

“नहीं!…दिन में”….

“रात में क्यों नहीं?”…

“रात में तो कुत्ता रोता है"…

“और ये दिन में रोता है?”..

“हाँ!…

“लेकिन क्यों?”….

“रात में सोता जो है"…

“ओह!….रात में सोता है…इसलिए दिन में रोता है?”…

“जी!…

“लेकिन क्यों?”…

“कामचोर है स्साला"…

“साला कामचोर होता है?”…

“नहीं!…

“लेकिन ये दिन में क्यों रोता है?”….

“अभी बताया तो"…

“क्या?”..

“यही कि स्साला…..

“कामचोर है?”…

“नहीं!…डबल ड्यूटी करने से घबराता है"…

“आपकी?”…

“नहीं!…बीवी की"…

“आपकी बीवी उससे डबल ड्यूटी करवाती है?"…

“मेरी बीवी भला उससे डबल ड्यूटी क्यों करवाएगी?…वो तो मुझसे करवाती है"…

“डबल ड्यूटी?”…

“जी!…

“आप खुशी-खुशी कर देते हैं?”…

“आपको मेरे सिर पे सींग लगे दिखाई दे रहे हैं?”…

“नहीं तो?”..

“तो क्या फिर किसी एंगल या कोण से मैं आपको लादेन या फिर ‘टाईगर वुड्स’ दिखाई दे रहा हूँ?”..

“नहीं!…तो"…

“फिर ये आपने कैसे सोच लिया कि मुझे डबल या फिर ट्रिपल ड्यूटी करने में मज़ा आता होगा?”…

“ओह!…तो इसका मतलब फिर चौकीदार को मज़ा आता होगा"….

“डबल ड्यूटी करने में?”..

“जी!…

“आप पागल हो?”…

“श्श….शायद”पप्पू का असमंजस भरा स्वर….

“शायद?”…

“नन् नहीं पक्का”….

“पक्का?….

“जी!…थोड़ी-बहुत कसर है..आपकी कृपा रही तो वो भी जल्दी ही हो जाऊँगा?”…

“मतलब अभी हुए नहीं हो?”मेरा नाराजगी भरा स्वर

“नहीं!….(पप्पू का दृढ स्वर)

“लेकिन क्यों?”…

“क्यों क्या?…स्टेमिना बहुत है”…

“ताकत का?”…

“नहीं!…पकाने का"…

“आप में?”…

“नहीं!…

“मुझ में?”..

“नहीं!…

“तो फिर किसमें?….चौकीदार में?”….

“नहीं!….बीवी में"…

“मेरी वाली में?”…

“नहीं!…मेरी वाली में"…

“तो?”…

“मैं उसको बड़े आराम से झेल गया तो आप किस खेत की मूली हो?”…

“मैं मूली हूँ?”…

“नहीं!…आप तो ‘जूली’ हो"पप्पू मेरे गाल पे चिकोटी काटता हुआ बोला…

“थैंक्स!…

“फॉर व्हाट?”…

“इस काम्प्लीमैंट के लिए"…

“मूली वाले?”…

“नहीं!… ‘जूली’ वाले"…

“वो कैसे?”…

“मुझे ‘जूली’ नाम बहुत पसंद है"…

“लेकिन वो तो मेरी…..

“बीवी का नाम है?”…

“नहीं!…

“बेटी का नाम है?”…

“नहीं!…

“तो फिर किसका नाम है ‘जूली'?”….

“मेरी कुतिया का”……

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“क्क…क्या?”…

“जी!…

“ओह!…अच्छा….नाईस नेम ना?"…

“जी!…बिलकुल लेकिन मैं उसे प्यार से ‘मूली' कह के बुलाता हूँ"…

“कोई खास वजह?”…

“उसे मूली के परांठे बहुत पसंद हैं"..

“कुतिया को?”…

“नहीं!… ‘जूली’ को"…

जूली तो कुतिया का नाम है ना?”…

“जी!…लेकिन…

“लेकिन?”…

“संयोग से वो मेरी…..

“सहेली का नाम है?”…

“नहीं!…सासू माँ का"…

“सासू माँ का?”…

“जी!…

“अरे!…वाह…क्या अजब संयोग है?….आम के आम और गुठलियों के दाम…सासू और कुतिया…दोनों का एक ही नाम ‘जूली’…भय्यी वाह….मज़ा आ गया"…

“जी!…एक्चुअली स्पीकिंग ‘जूली' नाम तो मेरी सास का ही है लेकिन मैं अपनी कुतिया को ….

“प्यार से ‘जूली’ कह के बूलाते हैं?”…

“नहीं!…खुन्दक से?”…

“खुन्दक से??”…

“जी!…

“लेकिन क्यों?”…

“क्यों?…क्या?…वो है ही इतनी खडूस कि….बात-बात पे काट खाने को दौडती है"…

“आपकी कुतिया?”…

“नहीं!…सास"…

“ओह!…अच्छा"…

“अच्छा…नहीं…कच्छा"…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“एक बार तो फाड़ के ही खा गयी थी"…

“आपको?”…

“नहीं!…कच्छे को"…

“आपकी सास?”…

नहीं!…कुतिया…कुतिया फाड़ के खा गयी थी कच्छे को"…

“आपके?”…

“नहीं!…अपने"…

“आपकी कुतिया कच्छा पहनती है?”…

“नहीं!…सास"…

“तो?”..

“तो क्या?…पागल की बच्ची कहती है कि इसे ही पहने रखो दिन-रात"…

“वो अपना कच्छा आपको पहनाना चाहती है?”…

“जी!…

“फटा वाला?”…

“जी!…

“लेकिन क्यों?”…

“क्यों?…क्या?…कहती है कि तुम्हारे लिए ही इसे स्पेशल खरीदा था…अब तुम ही इसे पहन-पहन के घिसाओ…रगड़-रगड़ के हन्डाओ"…

“ओह!…

“इसी लिए तो मैं आपके पास आया हूँ"…

“कच्छा घिसवाने के लिए?”…

“नहीं!…

“फटा कच्छा सिलवाने के लिए?”…

“नहीं!…छुटकारा पाने के लिए"…

“कच्छे से?”…

“नहीं!…सास से"..

“इसमें क्या दिक्कत है?…दिखाओ तीली और लगा दो आग"…

सास को?”…

“नहीं!…कच्छे को"…

तो?….इससे क्या होगा?”…

“मुँह फुला लेगी"…

“तीली?”…

“नहीं!…सास”……

तो?…उससे क्या होगा?”…

“तुम्हारी समस्या का हल"…

वो कैसे?”…

“सास को बहुत प्यार है?”…

“मुझसे?”…

“नहीं!…कच्छे से"…

“जी!..बहुत"……  

“तो फिर समझो…तुम्हारा काम हो गया"…

“वो कैसे?”..

“जैसे ही तुम कच्छे को आग लगाओगे…वो गुस्से के मारे फूल जाएगी"…

“तीली?”…

“नहीं!…तुम्हारी सास"…

“तो?”…

“वो गुस्से के मारे तुम्हें टोकना बन्द कर देगी…तुमसे बात करना बन्द कर देगी"…

“ये तो कोई हल ना हुआ"…

“वोही तो"…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“इस सास रूपी समस्या या टैंशन का कोई हल नहीं है बर्खुरदार"…

“ओह!…

“इस क्या?…किसी भी टैंशन का कोई हल नहीं है….इनसान जब पैदा होता है…तभी उसे टैंशन जकड लेती है…

“दोनों तरफ से?”…

“नहीं!…हर तरफ से"…

“ओह!…लेकिन…

“आज के ज़माने में टैंशन किसे नहीं है?…ये बताओ तो ज़रा….बच्चों को पढाई की टैंशन…बड़ों को लड़ाई की टैंशन…..नेताओं को कुर्सी से लेकर स्टिंग आपरेशनों की टैंशन…रिश्वतखोरों को पोल खुलने की टैंशन…सरकार को बाबाओं के अनशन तुडवाने और बाबाओं को अनशन जुडवाने की टैंशन…हर तरफ टैंशन ही टैंशन…घोर टैंशन"….

“जी!…लेकिन…

“और सच पूछो तो इस टैंशन भरे जीवन को जीने का अपना ही मज़ा है”…

“जी!…सो तो है लेकिन इस टैंशन का कोई हल भी तो होगा?”…

“हाँ!…है ना…है क्यों नहीं?”…

“वो क्या?”…

“चुपचाप अपने दड़बे में दुबक के बैठे रहो"…

“मैं कुछ समझा नहीं"…

“जैसे हो…जहाँ हो…जिस हाल में हों…चुपचाप संतोष करके बैठे रहो"…

“ये तो कोई हल ना हुआ"…

“तो फिर ये ले तमंचा  और गोली मार भेजे में"…

आपके?”…

“नहीं!…अपने"…

“मुश्किल है"…

“डर लगता है?”…      

“जी!…बहुत"…

“खून-खराबे से?”…

“नहीं!…शोर-शराबे से"…

“ओ.के…तो फिर एक और हल है मेरे दिमाग में"…

“वो क्या?”…

“वो सामने खम्बा दिखाई दे रहा है?”…

“टेलीफोन का?”…

“नहीं!…बिजली का"…

“आपको?”…

“नहीं!…तुमको"…

“अच्छी तरह से"…

“तो ठीक है…फ़ौरन उसके पास जाओ"…

“टांग उठा के?”…

“हाँ!…टांग उठा के"…

“सुसु करने के लिए?”…

“नहीं!…

“तो फिर?”…

“ले के प्रभु का नाम…चढ जा बेटा सूली पे"…

“ये वहाँ जा के बोलना है?”…

“नहीं!…अमल में लाना है"…

“उससे क्या होगा?”……

“मरने के बाद सभी चिंताओं से मुक्त हो जाओगे"…

“ओ.के बाय"…

“क्या हुआ?”…

“जा रहा हूँ"…

“मरने?”…

“नहीं!…फटा कच्छा पहनने"…

***राजीव तनेजा***

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यार ने ही लूट लिया घर यार का-राजीव तनेजा

समझ में नहीं आ रहा मुझे कि आखिर!…हो क्या गया है हमारे देश को…इसकी भोली-भाली जनता को?….

कभी जनता के जनार्दन को सरेआम जूता दिखा दिया जाता है तो कभी जूता दिखाने वाले को दिग्गी द्वारा भरी भीड़ में बेदर्दी से लतिया दिया जाता है…पीट दिया जाता है…आखिर!..ये होता क्या जा रहा है हमारे देश की भोली-भाली जनता को?…वो पहले तो ऐसी नहीं थी..

क्यों बात-बात में बिना बात के बाल की खाल निकाली जा रही है?…निकाली क्या जा रही है?…सर से पाँव तक और नख से लेकर शिखर तक…नीचता भरी नीयत के साथ तमाम हदों को पार करते हुए…बेदर्दी से नोची-खसोटी और उधेड़ी जा रही है…क्यूँ लोग समझ नहीं पा रहे है मेरे-उनके पर्सनल होते जज़्बात को…क्यूँ दरकिनार कर खुडढल लाइन लगाया जा रहा है मेरे-उनके एक होते हुए परिपक्व अरमान को?…ये दोगली मानसिकता….ये दोहरा मापदंड…ये सौतेला व्यवहार सिर्फ इसलिए ना कि मैं एक स्त्री हूँ और वो एक पुरुष?…स्त्री होना क्या गुनाह है?…या फिर पुरुष होना अपने आप में एक पाप?…रुकिए…रुकिए…रुकिए…कहीं आपकी नज़र ए इनायत में ऐसा तो नहीं कि स्त्री और पुरुष के बीच आपस में एकता होना…मित्रता होना और मित्रता के जरिये उनका आपस में संगम होना सैद्धांतिक रूप से सही नहीं है…गलत है?…मुआफ कीजिये अगर ऐसा होना सही नहीं है…गलत है…तो फिर ये पूरी दुनिया ही सही नहीं है…पूरी कायनात ही गलत है… 

अपने देश की वेद-वेदांतों से भरी पावन…निर्मल एवं चंचल धरती पर जन्म लिया है मैंने..इसलिए भली-भांति जानती हूँ कि क्या सही है और क्या गलत?…ऊपरवाले की दया से इतनी अक्ल है मुझमें कि अपने दम पे फैसला कर सकूँ कि क्या राईट है और क्या है रौंग?शरण में आए किसी शरणागत की रक्षा करना क्या पाप है?..गुनाह है?….नहीं ना?….तो फिर मेरे ऊपर ऐसे घटिया इलज़ाम…ऐसे बेहूदा आरोप  क्यों?…किसलिए?…मैंने तो किसी का कुछ नहीं बिगाडा…तरस आता है मुझे अपने देश के लोगों की दोहरी मानसिकता पर….एक तरफ कहते हैं कि ‘अतिथि देवो भव’…और दूसरी तरफ गलती से  कोई ‘अतिथि’ किसी के घर आ जाए सही…लात मार भगाने की पहले सोचने लगते हैं लेकिन मुआफ कीजिये ऐसे संस्कार नहीं पाए हैं मैंने कि किसी को लात मारूँ…...वो भी उसके पिछवाड़े पे?….

“छी!…छी-छी…कैसी गिरी हुई बेहूदा हरकत है ये"…

चलो!…माना कि समय बदल रहा है…लोग बदल रहे हैं वक्त के साथ-साथ उनके आचार..विचारों समेत बदल रहे हैं…जब सारा का सारा जहाँ…सारा का सारा समाज बदल रहा है तो इस बदलाव से…इस परिवर्तन से मैं भी अछूती नहीं हूँ…वक्त के साथ-साथ काफी बदल डाला है मैंने खुद को… लेकिन अगर कोई ‘अतिथि’ मेरे घर में…मुझसे बिना पूछे ही चुपचाप घुसा चला आए तो मैं क्या करूँ?…उसे ऊपरवाले की आज्ञा मान सर-आँखों पे बिठा लूँ या फिर दुत्कारते हुए सिरे से ही नकार दूँ?..सच कहूँ!…तो एक बार मेरे भी मन में आया था कि मौके की नजाकत को समझते हुए मैं ऐसे आड़े वक्त में उनका साथ देने से इनकार कर अपनी दोनों टाँगें खड़ी कर दूँ लेकिन फिर तुरंत ही ये ख्याल भी मन में आया कि लज्जा और शर्म तो स्त्री का गहना होता है …इनसे ही अगर मैंने नाता तोड़ लिया तो फिर मेरा इस दुनिया में….इस धरती पे रहने का फायदा ही क्या?…इस जीवट भरे जीवन को मर-मर के जीने का फायदा ही क्या?…बस!..जनाब…इस बात का ख्याल आते ही मैंने उन्हें और उन्होंने मुझे मन से अपना बना लिया …

होSsssचाहे लाख तूफां आएं…

चाहे जान भी अब ये जाए…

मिल के न होंगे जुदा…

जुदा…आ कसम खा लें…

लेकिन ये भी तो सच है ना कि ज़माना किसी को ज्यादा देर तक खुश नहीं देख सकता…सो!….हमें भी नहीं देख सका…लग गई ज़माने भर की नज़र हमारे प्यार को…

साम-दाम से लेकर दण्ड-भेद तक…सब के सब अपनाए गए हमें एक दूसरे से अलग करने के लिए…जुदा करने के लिए…जालिमों ने पुलिस का सहारा ले लाठी-चार्ज से लेकर अश्रु गैस तक क्या-क्या नहीं आजमाया हम पर…वो टॉर्चर पे टॉर्चर कर हमारे मनोबल को तोड़ने की कोशिश करते रहे….मेरी-उनकी इज्ज़त को खींच कर तार-तार करने की कोशिश की गयी…हमने भी अपनी तरफ से खूब डट कर मुकाबला किया उनका लेकिन अब इसे अपनी किस्मत का दोष कहूँ या फिर अपनी नियति का लेखा?…

छोड़ गए बालम…हाय!…अकेला छोड़ गए…

सोतेली हुई तो क्या?…मेरे साथ ऐसा बरताव करेंगे?…मुझे कहीं का ना छोड़ेंगे?….माना कि मजबूरीवश उन्होंने मुझे अपना बना….बदन से लगाया था…लेकिन ऐसी भी क्या मजबूरी थी कि पहला मौक़ा मिलते ही मुझसे अपने दामन को झटक लो?…क्या मेरे बदन में काँटें और उस नारंगी मुँही बंदरिया(जो कभी मेरी बहन थी) के बदन में फूल जड़े थे?…

अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का…

यार ने ही लूट लिया घर यार का…

शायद उन्हें मालुम नहीं काम उसने भी वही आना था और मैंने भी वही आना था…लेकिन फिर मेरे साथ ही ऐसी धोखेबाजी…ऐसी दगाबाजी क्यों?…क्यों?….क्यों????…

कहीं आप इस मुगालते में तो नहीं जी रहे ना कि आप अगर मुझे भुला देंगे तो मेरा वजूद ही मिट जाएगा…मेरा अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा…

मुझको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं…ज़माना हम से है…हम ज़माने से नहीं…

याद रखो…जितना भी मुझे मिटाने की कोशिश करोगे…उतना ही मैं रूप बदल-बदल फिर-फिर सामने आऊँगी…आज आपने मुझे ठुकरा दिया है लेकिन कल आपको अपने किए पे पछताना पड़ेगा…नहीं!…इस भुलावे में कतई नहीं रहना कि आपके रहने या ना रहने से मैं दुखी हो मर जाउंगी….सदमे में आ कोमा में चली जाउंगी….मैं भला क्यों मरुँ?…मैं भला सदमे में आ कोमा में क्यों जाऊँ?…जाना है तो आप जाओ कोमा में …मैं भला क्यों जाऊँ?….

जाना पड़ेगा आपको कोमा में…अगर इसी तरह जिद पे अड  अनशन पर बैठे रहे….देश को आपकी बहुत ज़रूरत है बाबा जी…आपसे निवेदन है कि गलतियाँ ना करें और मजबूती के साथ अपना पक्ष सरकार के सामने रखें…जीत हमारी ही होगी…आमीन…baba-ramdev-Dehradun-Hospital

जाते-जाते चंद पंक्तियाँ आपकी नज़र पेश हैं…गौर फरमाइएगा…

एक कच्छा दो…दो कच्छे चार…

छोटे-छोटे कच्छों की बन गई सलवार…

नहीं फटी है…नहीं फटेगी…

ओSsss…

मेरे बाबा की सलवार…

मेरे बाबा की सलवार…

जी!…जी हाँ…बिलकुल सही पहचाना…मैं वही सलवार हूँ जिसे पहन के बाबा जी ने अपनी लाज बचाई थी…:-)

gr23

***राजीव तनेजा***

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आक!…थू …थू है मेरे मुँह पर- राजीव तनेजा

प्रिय पुत्र अनामदास,

कैसे हो?…मैं यहाँ अपने घर में…अपने बलबूते पर एकदम से सही-सलामत हूँ और उम्मीद करता हूँ कि तुम भी  अपने घर में…अपने ही दम पर सुख एवं शान्ति के साथ जीवन व्यतीत कर रहे होगे….’शान्ति’ कैसी है?….बहुत दिन हो गए उससे मिले हुए…मेरा सलाम कहना उसे|ये सब पढकर तुम सोच रहे होगे कि बुड्ढा सठिया गया है लेकिन सच पूछो तो यार….इस उम्र में भी बड़ी याद आती है उसकी…दिन-रात उसका और तुम्हारा चेहरा ही अक्स बन मेरे दिल औ दिमाग पर छाया रहता है…उससे कहना कि अपने किए पे मैं बहुत शर्मिंदा हूँ…अफ़सोस बस अब इस बात का है कि…मैं अब तक क्यों जिंदा हूँ?…अफसोस इसलिए नहीं कि मैंने कोई गलत काम या गुनाह किया…मेरी नज़रों में लीक से हटकर…ज़माने तथा लोक-लाज की परवाह ना करते हुए तुम्हारी माँ के साथ नैन-मटक्का करते हुए इश्क लड़ाना कोई पाप नहीं था…कोई गुनाह नहीं था… सच पूछो तो ये हँसी-खेल भी नहीं था| एक्चुअली!…वो मुझे पहले दिन से…याने के जबसे मैंने उसे देखा था..मतलब…शुरू से ही पसंद थी| याद है अब भी मुझे उसका वो मधुबाला जैसे शोखी भरे अंदाज़ से हौले से मुस्कुराते हुए माथे पे लटकी बालों की..नागिन जैसी बल खाती लट को एक झटके से फूंक मार परे हटाना…उफ़्फ़!…क्या अदा थी तुम्हारी माँ की?…बस..क़यामत…बस…क़यामत…बस…क़यामत और कुछ नहीं| कसम से!…गुज़रा ज़माना याद आ गया..

खैर!…तुम बताओ…कैसे हो?…अभी अखबारों तथा इलेक्ट्रानिक मीडिया में छाई तहकीकात भरी खबरों के जरिये पता चला कि तुम वो सब करने की सोच रहे हो जैसा करने की कभी किसी ने इस देश में जुर्रत भी नहीं की| मैं मानता हूँ कि तुम गलत नहीं हो…अपनी जगह सही हो लेकिन…लेकिन…लेकिन…सच्छाई तो यही है मेरे बेटे कि…अपने देश में इंसानियत का नहीं बल्कि लट्ठ का राज चलता है…लट्ठ का| नावाकिफ नहीं हूँ मैं तुमसे और तुम्हारी दिन पर दिन नपुंसक होती विचारधारा से…इसीलिए समझा रहा हूँ कि…भलाई इसी में है कि वक्त रहते ही चेत जाओ और बेख्याली में बहकते अपने नादान कदमों को यहीं…इसी जगह…इसी वक्त…इसी क्षण थाम लो…कहीं ऐसा ना हो कि चिड़िया के खेद चुग जाने के बाद तुम्हें व्यर्थ में पछताना पड़े| स्कूल-कालेज से लेकर अब तक…बापू का कई मर्तबा पढ़ा है मैंने…इसीलिए जानता हूँ कि अहिंसा में बड़ा बल है…भक्ति में ही शक्ति है लेकिन इस सब ढाव-ढकोसले की यहाँ…इस ज़माने में दाल नहीं गलने वाली…यकीन मानों…तुम्हारा ये बेवाकूफी भरा फैंसला तुम पर बहुत भारी पड़ने वाला है| आने वाले कल का काला मंज़र अभी से मेरी आँखों में स्पष्ट घूम रहा है इसलिए हे!…पुत्र,बाद में पछताने से पहले…बढ़िया है कि अभी…वक्त रहते ही चेत जाओ…कल किसने देखा है?…पता नहीं ऊँट किस करवट बैठे?…बैठे ना बैठे… 

संभल कर रहने में ही समझदारी है…थोड़ा सब्र से काम लो और मेरी बात को मानते हुए इस फितूर को अपने दिल औ दिमाग से तुरंत ही बिना किसी देरी के निकाल दो कि तुम किला फतह कर लोगे….ये इण्डिया है मेरी जान…यहाँ जीत उसी की होती है जिसका पलडा भारी होता है..और ये तुम अच्छी तरह जानते हो कि किसके गुर्दे में कितना दम है? ना!…मैं ये नहीं कहता कि तुम ऊंचे ख़्वाब मत देखो…ज़रूर देखो…लेकिन उतने ही ऊंचे देखो जो प्रयास किए जाने पर पूरे किए जा सकें…याद रखो कि बिल्ली के भाग्य से छींके टूट कर नहीं गिरा करते… और आसमान पे थूकने वाले …आसमान का नहीं बल्कि खुद का ही चौखटा बिगाडा करते हैं…

ये भी तुमने सुन ही रखा होगा मेरे बेटे कि खोखला चना ही हमेशा ज्यादा बजा करता है…इसलिए मानों तो ठीक और ना मानों तो भी ठीक ….मेरी राय तो यही है  अपनी पूरी जिंदगी(?)में कुछ भी बन जाओ लेकिन चना?…वो भी अकेला?…कभी मत बनना…हमेशा याद रखना कि .अकेला चना कभी भी अपने बलबूते पर भाड़ को फोड़ तो क्या?…बेंध तक नहीं पाया है…

पहलेपहल जब टी.वी पर तुम्हारा करतब करता रुआंसा चेहरा दिखा  तो मुझे ऐसा लगा जैसे तुम अपने बाल हठ के चलते हँसी-ठिठोली के मूड में आ कोई गंभीर मजाक कर रहे हो लेकिन जब क्रोध के अतिरेक से तमतमाए तुम्हारे चेहरे को गौर से देखा तो जाना कि आज तो फर्स्ट अप्रैल नहीं है…और तुम वाकयी में सीरियस हो| ऐसी बाली उम्र में इतना संवेदनशील होना ठीक नहीं मेरे बेटे…सेहत पर बुरा असर पड़ा है इस सब का| अभी तो तुम्हारे खेलने-कूदने और ऐश करने के दिन हैं| अपना आराम से जा के किसी बढ़िया से हालीडे रिसोर्ट में ऐश करो| खर्चे-पानी के लिए रूपए-धेले और पैसे की चिंता बिलकुल भी ना करो..उसके लिए तो मैं हूँ ना?…मेरे होते हुए भी अगर तुम्हें पैसे…ऐश औ आराम के लिए तरसना पड़े तो…थू है मेरे मुँह पर….आक!…थू…

वैसे!…थूक तो तुम चुके ही हो मेरे मुँह पर…

कुछ भी कहो लेकिन एक बात की दाद तो मैं तुम्हें ज़रूर दूंगा बेटे…एक अकेले जवाँ मर्द तुम ही निकले इस पूरे नामर्दों से भरे देश में वर्ना मुझसे कोई ऊची आवाज़ में दो बात भी कर जाए…ऐसी किसी में हिम्मत नहीं| ऊंचा उड़ना या फिर उड़ने की कोशिश करना तो बहुत दूर की बात है बेटे…मेरे राज में तो पालने में ही पर कतरवा दिए जाते हैं अबोध पंछियों के| शुक्र करो कि मैंने तुम्हें बक्श दिया…बक्श दिया…इसीलिए तुम ज़िंदा हो| ये चाँद…ये सूरज देख पा रहे हो ना?…सब मेरी वजह से|हाँ!…मेरा ही अंश…मेरा ही खून हो तुम…मेरे ही पेशाब ने तुम्हें जन्म दिया है| सच कहूँ…तो अब पछतावा हो रहा है मुझे…पछतावा इस बात का नहीं कि मैं भावनाओं के अतिरेक में क्यों बह गया?…बल्कि इसलिए कि जब मुझे अच्छी तरह से अंजाम ए गुलिस्ताँ के बारे में पता था तो फिर मैंने एहतिहात क्यों नहीं बरती?…इसे कहते हैं विनाश काले…विपरीत बुद्धि| जी तो मेरा कर रहा है कि अभी के अभी जूता निकालूँ और मार-मार के खुद अपना ही सर गंजा कर दूँ| 

आखिर!…क्या मिल जाएगा तुम्हें मेरा नाम मिल जाने से?…गाड़ी-बंगला?…ढेर सारी दौलत और नौकर-चाकर?…

वो सब तो मैं तुम्हें ऐसे ही…तयशुदा शर्तों के आधार पर देने को तैयार हूँ मेरे बेटे…तुम बस…हाँ तो करो| मैं जानता हूँ कि तुम में अभी बचपना है…अपने दिमाग से नहीं चल रहे हो तुम|मेरे राजनैतिक विरोधियों ने मेरे खिलाफ भडकाया है तुम्हें लेकिन तुममें भी तो अपनी खुद की निजी समझ होनी चाहिए| ये क्या कि जिसने जिस रस्ते लगाया…उसी रस्ते हो लिए? ये तो सोचा होता कम से कम कि जब वो खुद अपने बलबूते पे मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाए तो ये सोचकर तुम्हें आगे कर दिया कि तुम तो मेरे अपने हो| याद रखो कि महाभारत में अर्जुन ने अपनों का ही वध किया था और मैं अर्जुन तो नहीं लेकिन गोपियों के मामले में श्री कृष्ण से कम भी नहीं| आखिर उखाड ही क्या लेंगे वो तुम्हारे भरोसे?..जो असल चीज़ है…जो असल मुद्दा है…उसके तो मैं तुम्हें पास भी नहीं फटकने दूंगा…और कुछ भी कर लेना…कुछ भी कह लेना लेकिन ना तो उसे उखाड़ने की बात करना और ना ही ऐसा कोई घृणित प्रयास करना…तुम्हें मेरी कसम लगेगी… इसी एकमात्र इकलौती चीज़ के दम पर ही तो मैंने बहुतों के दिल पे एकछत्र राज किया है… इसी एकमात्र चीज़ का तो मुझे गर्व है और इसी के दम पे हर दिन मेरे लिए पर्व है|

खुद को मेरा बेटा कह कर या कहलवा कर आखिर क्या पा लोगे तुम?…क्या ज़रूरत पड़ गई थी इस सबका  ढिंढोरा पीटने की?…क्या ज़रूरत पड़ गई थी तुम्हें मीडिया में सबके सामने मेरी पगड़ी…ऊप्स!…सॉरी…टोपी उछालने की? … चाँद-तारों को भला कोई पा सका है जो तुम पा लोगे? हर जगह मेरी इतनी भद्द पीटने के बाद अब किस मुँह से चाहते हो कि मैं तुम्हें अपना नाम दूँ?…इसीलिए…अपना नाम दूँ तुम्हें कि तुम जगह-जगह मेरा गोरा मुँह काला करता फिरो?… और चलो…कैसे ना कैसे कर के…किसी ना किसी मजबूरीवश दे भी दूँ तो क्या करोगे उसका?….अचार डालोगे?…रहोगे तो वही पहले जैसे हाड़-माँस के चलते-फिरते(?) इनसान ही ना जिसने एक ना एक दिन मिट जाना है?…सबकी अपनी-अपनी किस्मत है…कोई हँसी-खुशी से खेलते-खिलखिलाते हुए अपनी पूरी उम्र आराम से जी लेता है तो कोई अपनी बदकरनी के चलते…वक्त से पहले ही किसी ट्रक या बस के नीचे आ…बेमौत मारा जाता है| 

हैरानी होती है मुझे कभी-कभी तुम्हारी इस दकियानूसी सोच पे कि…ऐसे जोर-ज़बरदस्ती या सीनाजोरी से तुम मुझे अपना बना लोगे| आखिर!…क्या सोच के तुमने अपनी इस बेहूदी सोच को जन्म दिया कि मैं इतनी आसानी से मान जाऊँगा…कुछ ना करूँगा….हाथ पे हाथ धरे बैठा रहूँगा? याद रखो कि अण्डा बेशक जितना बड़ा मर्जी हो जाए..रहता हमेशा मुर्गी के नीचे ही है और मुर्गी…हमेशा मुर्गे के नीचे| आखिर!…तुम होते कौन हो मुझसे….मेरा ब्लड सैम्पल मांगने वाले?…क्यों दूँ मैं तुम्हें या किसी भी ऐरे-गैरे …नत्थू-खैरे को डी.एन.ए टैस्ट की परमिशन?..क्या महज़ इसलिए कि मैंने तुम्हें अपने-खून पसीने से बने पदार्थ से जना है?…

क्यों?…पीला क्यों पड़ गया तुम्हारा चेहरा?…रुआंसे क्यों हो उठे तुम?…

  • अच्छा!…जाओ…पहले उस आदमी का ब्लड सैम्पल ले के आओ जिसने पहली बार नाजायज़ औलाद पैदा की…
  • जाओ!…पहले उस आदमी का ब्लड सैम्पल ले के आओ जिसने पहली बार एय्याशी की…
  • जाओ!…पहले उस आदमी का ब्लड सैम्पल ले के आओ जिसने पहली बार एहतिहात नहीं बरती

उसके बाद मेरे बेटे…ना मैं तुम्हें ब्लड सैम्पल के लिए मना करूँगा और ना ही डी.एन.ए. टैस्ट के लिए

ला सकोगे तुम ऐसा इनसान खोजबीन कर?…नहीं ना?…

तो फिर जाओ…वडो….ढट्ठे खू विच्च…अते ओत्थे जा के ही अपना ते अपनी माँ दा सिर सड़ाओ

बाद में पता नहीं कभी मौक़ा मिले ना मिले… इसलिए अन्त में ऊपरवाले से मिलकर इस पत्र के जरिये मैं तुम्हें बस…यही बददुआ दे सकता हूँ कि उसकी दया-दृष्टि…ऊप्स!……सॉरी…कुदृष्टि तुम पर भी उतनी ही बरसे जितनी कि मुझ पर इस समय बिन बादल…बरसात बन बरस रही है…अगर मैं सुखी नहीं हूँ तो तुम भी कभी ना रह पाओ…आमीन…

तुम्हारा अघोषित एवं एय्याश पिता…

 

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