चोरों की बारात- सुरेन्द्र मोहन पाठक

अगर आप परदेस के किसी होटल में बंद कमरे के भीतर बेसुध हो कर रात में सो रहे हों और अचानक नींद टूटने पर आप पलंग से उठें और आपको पता चले कि आपके पैरों के नीचे समतल ज़मीन नहीं बल्कि एक लाश है। तो मेरे ख्याल से आप खुद ही समझ सकते हैं कि उस वक्त ज़हनी तौर पर आपकी दिमाग़ी हालत कैसी होगी? 

दोस्तों..आज मैं बात कर रहा हूँ थ्रिलर उपन्यासों के बेताज बादशाह सुरेन्द्र मोहन पाठक के एक रौंगटे खड़े कर देने वाले तेज़ रफ़्तार उपन्यास 'चोरों की बारात' की। उपन्यास पर आगे बढ़ने से पहले सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के थ्रिलर उपन्यासों के बारे में एक ज़रूरी बात कि उनके पुराने उपन्यासों के प्रति लोगों में इतनी दीवानगी अब भी है कि लोग उन्हें, उन पर छपे मूल्य से भी कहीं अधिक दे कर खरीदने..संजोने को आतुर रहते हैं। वैसे दाव लगे की बात ये है कि इस उपन्यास को मैंने शायद दिल्ली के दरियागंज वाले पुरानी किताबों के बाज़ार से 50/- या 60/- रुपए का खरीदा था। फेसबुक और व्हाट्सएप पर पुराने उपन्यासों के कुछ ग्रुप चल रहे हैं। वहाँ से यह उम्दा उपन्यास आपको जायज़ कीमत पर भी मिल सकता है। वैसे.. जानकारी के लिए बता दूँ कि अमेज़न पर तीन अन्य उपन्यासों के साथ यह उपन्यास 3999/- रुपए में बेचा जा रहा है। 
 
इस समीक्षा के शुरुआती पैराग्राफ़ से ही आप आसानी से समझ सकते हैं कि जिस उपन्यास का आगाज़ ही ऐसा है तो उसका अंजाम कैसा सनसनीखेज.. रोमांचक.. रौंगटे खड़े कर देने वाला होगा? 

चलिए..अब ज़्यादा बातें ना करते हुए फिर से इस रोचक उपन्यास की कहानी पर आते हैं।
बंद कमरे में लाश मिलने के तुरंत बाद उस कमरे में रुके सुधीर कोहली पर जानलेवा हमला कर उसे बेहोश कर दिया जाता है। सुधीर कोहली, जो कि दरअसल भारत का एक प्राइवेट जासूस है और अपने क्लाइंट की घर से भागी नाबालिग बेटी को, थाइलैंड से बरामद कर लेने के बाद उसे, उसके पिता को सुरक्षित सौंपने के इरादे से नेपाल के उस होटल में रुका हुआ है। 

बीती रात सुधीर पर हमला करने वाला कौन था? क्या इस कत्ल और हमले के पीछे 'कृष' याने के मीरा के ज़माने की उस दुर्लभ कृष्ण मूर्ति की चोरी की घटना का हाथ था जो  कि अपनी खासियतों की वजह से दुनिया में सिर्फ़ एक इकलौती और बेशकीमती है। सिंगापुर से चोरी हुई उस बेशकीमती मूर्ति को वापिस पाने के लिए एक तरफ़ जहाँ उसका मालिक चीनी माफ़िया की मदद लेता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ मूर्ति को ढूँढने..वापिस पाने और हथियाने के चक्कर में लगातार होते खूनखराबे और साजिश से लैस इस बेहद रोमांचक उपन्यास में मूर्ति के बदले करोड़ों की रकम ऑफर करने वाला मिस्टर लोबो आख़िर कौन हैं? क्या जान के दुश्मन बन चुके चीनी माफ़िया और मिस्टर लोबो के गुर्गों से सुधीर कोहली खुद को बचा पाएगा। या तीन तीन कत्लों के जुर्म में सुधीर की पूरी ज़िंदगी बतौर मुजरिम नेपाल की जेलों में बीतेगी?

इन सब रहस्यों को जानने के लिए तो आपको कदम कदम पर चौंकाते इस बेहद ही उम्दा उपन्यास को शुरू से अंत तक..पूरा पढ़ना होगा। 286 पेज के इस 2012 में छपे बढ़िया उपन्यास को छापा है राजा पॉकेट बुक्स ने और इस पर उस समय का मूल्य 80/- रुपए अंकित है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

#समीक्षा #राजीव_तनेजा #सुरेन्द्र_मोहन_पाठक

बम बम भोले- विनोद पाण्डेय

व्यंग्य लेखन एक तरह से तेल से तरबतर सड़क पर नपे तुले अंदाज़ में संभली..संतुलित एवं सधी हुई गति से गाड़ी चलाने के समान है। ज़्यादा तेज़ हुए तो रपटे..फिसले और धड़ाम। ज़्यादा धीमे हुए तो वहीं खड़े खड़े रपटते..लटपटाते हुए फिर से धड़ाम। 

दोस्तों...आज व्यंग्य की बातें इसलिए कि आज मैं बात करने जा रहा हूँ कवि /व्यंग्यकार विनोद पाण्डेय जी के व्यंग्य संग्रह 'बम बम भोले' और उसमें छपे उनके व्यंग्यों की। इनके  व्यंग्यों को पढ़ कर हम आसानी से जान सकते हैं कि लेखक अपने आसपास के माहौल और ताज़ातरीन ख़बरों को समझने...जांचने और उनमें से अपने मतलब की माल निकाल लेने में माहिर एवं मंजे हुए खिलाड़ी हैं। उनकी व्यंग्य रचनाओं में कहीं किस्सागोई शैली की झलक मिलती है तो कहीं बतकही के रूप में इतनी सहजता से वे अपनी...अपने मन की बात कह जाते हैं कि बरबस ही पढ़ने वाले के चेहरे पर एक महीन सी मुस्कराहट तैर जाती है| 

इस संकलन के किसी व्यंग्य में रावण , बीमार पड़ने की वजह से रामलीला को एन बीच मंझधार में छोड़ ग़ैरहाज़िर होता नज़र आता है। इससे उपजी परिस्थितियों में एक तरफ़ रामलीला में मची अफरातफरी है तो दूसरी तरफ़ उसके चंदे में होने वाले घोटालों का जिक्र है। इसी संकलन के एक अन्य व्यंग्य में चेपू टाइप के साहित्यकारों पर गहरा कटाक्ष नज़र आता है कि किस तरह खुद को महान साबित करने के लिए वे क्या क्या जतन करते हैं।

इसी संकलन के किसी व्यंग्य में कहीं वैलेंटाइन की भेड़चाल में छोटा बड़ा..हर कोई फँसा नज़र आता है। तो कहीं किसी अन्य व्यंग्य में देवता समान अतिथि का आतिथ्य भूल..उसे घर के बाहर आवारा कुत्ते के संग सुलाया जा रहा है। कहीं किसी व्यंग्य में आपाधापी भरी आजकल की व्यस्त ज़िन्दगी के मद्देनज़र काम और मौज के बीच वर्क लाइफ बैलेंस के बहाने संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है।

कहीं किसी व्यंग्य में टीवी और उसके टी आर पी के खेल का झोलझाल नज़र आता है तो किसी अन्य व्यंग्य में मंगल ग्रह पर पानी की उपलब्धता सुर्खियाँ बटोरती नज़र आती है। किसी अन्य व्यंग्य में आजकल के तथाकथित पत्रकारों और उनकी पत्रकारिता की बात नज़र आती है। तो कहीं कहीं किसी व्यंग्य में चुनावों के दौरान विरोधियों का सूपड़ा साफ़ करने का मंसूबा बाँधा जा रहा है। कहीं किसी रचना में लेखक फेयर एंड लवली कम्पनी के गुण गाता दिखा तो किसी अन्य व्यंग्य में सेब की महिमा का बखान करता भी दिखा।

कहीं कंजूसी और शातिरपने की पराकाष्ठा के रूप में किसी व्यंग्य में प्लेटफार्म पर समोसे तथा ट्रेन में सूप बिकता दिखा। तो कहीं सदाबहार जींस और उसके दिन प्रतिदिन फटते फैशन सेंस की बात होती दिखाई देती है। इसी संकलन में कहीं शेरों और बाघों की विलुप्त होती प्रजाति पर चिंता जताई जाती दिखाई देती है। तो किसी अन्य व्यंग्य के माध्यम से लोकतंत्र में तमाम तरह की उठापटक के माध्यम से चुनावी दंगल में विरोधियों का सूपड़ा साफ़ होता दिखता है।

इस बात की तारीफ़ करनी होगी कि अपनी तरफ़ से लेखक उस भेड़चाल से भरसक बचता दिखाई दिया जिसके अंतर्गत किसी की खिंचाई या बात में से बात निकाल..उसे शब्दों में पिरोने के हुनर को ही मात्र व्यंग्य मान पाठकों के समक्ष परोस दिया जाता है। 

लेखक विनोद पाण्डेय के शहरों..कस्बों और शहरीकृत गांवों के किरदारों को ले कर मज़ेदार..आसान भाषा में रचे गए इस संकलन के व्यंग्य गहरी चोट या टीस देने के बजाय हलकी सी गुदगुदी या मुस्कुराहट बस पाठकों को दे संतोष कर लेते हैं। कुछ व्यंग्य मंच पर हास्यात्मक भाषण या मूल रचना पाठ से पहले की..मौसम या मूड बनाने की प्रक्रिया जैसी भूमिका बनाते अधिक लगे। बतौर सजग पाठक एवं एक लेखक/व्यंग्यकार होने के नाते मुझे इस संकलन के व्यंग्य आम औसत व्यंग्य से लगभग दुगने बड़े और खिंचे हुए भी लगे। जिस पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है।

कुछ एक जगहों पर छोटी छोटी वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त कुछ एक ऐसे व्यंग्य लेख भी दिखे जिनमें बस नाम मात्र को व्यंग्य या फिर कहीं कहीं तो वह भी नदारद दिखा। साथ ही कुछ व्यंग्यों को पढ़ते वक्त महसूस हुआ कि उनमें मामूली फेर बदल कर के उनके एक के बजाय दो व्यंग्य आसानी से बन सकते थे। किसी किसी व्यंग्य में तो व्यंग्य के शीर्षक तक पहुँचने में ही एक से डेढ़ पेज तक खर्च कर दिया गया। इन्हें एक तरह से व्यंग्य कम और संस्मरण टाइप बतकही जो सुनने में बढ़िया लगती है, कहा जाए तो बेहतर होगा। 

*पेज नम्बर 71 के एक व्यंग्य में लेखक दोनों हाथों में ब्रीफकेस ले, रेलगाड़ी में चढ़ते वक्त अपनी ही बात को काटता दिखाई दिया। इसमें वे लिखते हैं कि...

'ऊपर से ठंड में पसीना ऐसे निकल रहा था जैसे अभी अभी गंगा स्नान करके निकले हैं।'

इसकी अगली ही पंक्ति के बीच में लिखा दिखाई दिया कि..

'घर से लेकर ऑफिस तक एसी में पसीना का भी कई दिन से दम घुट रहा था।'

अब अगर ठंड का मौसम है तो दफ़्तर में ए.सी नहीं चलने चाहिए या फिर ठंड के बजाय मौसम गर्मी का है।

इस बात को मद्देनज़र रखते हुए कि..लंबे और एकरसता से भरे व्यंग्य/लेख को पाठक गंभीरता से पढ़ने के बजाय उन पर सरसरी नज़र दौड़ाता हुआ आगे बढ़ने की सोचता है, लेखक को चाहिए कि वे अपने व्यंग्यों की लंबाई कम करने के साथ साथ उन्हें और अधिक मारक..क्रिस्प और तीखाबनाने का प्रयास करें।

आकर्षक कवर डिज़ायन और बढ़िया पेज पर छपा यह व्यंग्य संकलन हालांकि मुझे उपहार स्वरूप मिला। मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस 108 पृष्ठीय व्यंग्य संग्रह के पेपरबैक संस्करण को छापा है सर्व भाषा ट्रस्ट द्वारा और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

 
Copyright © 2009. हँसते रहो All Rights Reserved. | Post RSS | Comments RSS | Design maintain by: Shah Nawaz