"एक बराबर"
***राजीव तनेजा***
"बाप रे!...क्या ज़माना आ गया है"...
"क्या हुआ?"...
"कलयुग!...घोर कलयुग"...
"क्यों सुबह-सुबह ज़माने को कोसे चली जा रही हो?"...
"कुछ बताओगी भी या यूँ ही बेफाल्तू में घोर कलयुग...घोर कलयुग नाम का एक ही डॉयलाग मार फुटेज खाती
रहोगी?"...
"मुझे नहीं पता...बस अभी के अभी तुम अपना ये ब्लॉग डिलीट कर दो"...
"क्यों?...क्या हुआ?"...
"आखिर!...पता तो चले"...
"क्यों मैडम जी हाथ धो के पड़ गई हैँ मेरे ब्लॉग के पीछे?"...
"कह दिया ना एक बार!...बस अभी एक अभी ये ब्लॉग डिलीट हो जाना चाहिए"....
"और नहीं किया तो?"...
"तो सम्भालो अपनी धर्मशाला....मैँ तो चली अपने मायके"...
"दो दिन में नानी ना याद आ जाए तो मैँ भी अपने बाप की बेटी नहीं"...
"हद है!...अच्छा भला लोगों को हँसा रहा हूँ और इसमें भी तुम्हें दिक्कत हो रही है?"...
"छोड़ अब!..बहुत हो ली हँसी-हँसाई"...
"जितना वक्त तुम अपने इस निगोड़े ब्लॉग को देते हो ना...उतना अगर कहीं और लगाओ तो जम कर नोट बरसें...नोट"...
"ये नहीं होता जनाब से कि ये वेल्ला काम छोड़ के कोई ढंग का काम कर लें"...
"एक दिन इसी मुय्ये ब्लॉग के चक्कर में तुम्हारी खुद की जग हँसाई ना हो जाए तो मेरा नाम 'पारो से बदल कर 'चँद्रमुखी' रख देना"...
"क्यों क्या हुआ?"...
"क्या दिक्कत है तुम्हें इतने बढिया नाम से?"...
"अच्छा भला तो है ...'पारो'...
"मुझे दिक्कत अपने नाम से नहीं बल्कि तुम्हारे ब्लॉग से है"...
"क्यों?..क्या हुआ है मेरे ब्लॉग को?"...
"अच्छा भला तो चल रहा है"...
"बिना कोई पोस्ट डाले ही दस-बीस रीडर रोज़ाना के हिसाब से अपनी हाजरी बजा जाते हैँ"...
"वोही तो...पता नहीं कैसे कैसे लोग पढते होंगे तुम्हारी कहानियाँ?और...
इस लिखने-लिखाने के चक्कर में कैसे-कैसे लोगों से तुम्हारा दोस्ताना हो रहा होगा आजकल" ...
"गलत लोगों की सोहबत में पड़कर कहीं तुम भी...
"क्या हुआ?...
"ये देखो!...ये ब्लॉगर लोग आजकल कैसी लो स्टैंडड की गिरी हुई ओछी हरकते करने लग गए हैँ?"...
"कमीने कहीं के"..
"क्यों?...क्या हुआ है ब्लॉगरों को?"...
"क्यों ब्लॉगरों जैसे सीधे-साधे जंतुओं को उनकी पीठ पीछे नाहक बदनाम कर रही हो?"..
"पीठ पीछे?"...
"अरे!...वो *&ं%$#@ मेरे सामने आ जाए सही...अभी के अभी जूतियाँ मार-मार के सर गंजा ना कर दूँ तो मेरा भी नाम.....
"पारो नहीं"...
"अरे यार!...क्यों गुस्सा खा रही हो इतना?"...
"पता तो चले कि आखिर हुआ क्या है?"...
"एक बात बताऊँ?"...
"जिसे तुम गंजा करने की प्लानिंग बना रही हो ना...वो तो शुरू से ही टकला है"
"हा हा हा हा"...
"तुम भी ना!...कुछ ना कुछ बकवास कर के वक्त-बेवक्त हँसा दिया करो"...
"अरे यार!..तुम गुस्से में थी तो मैँने सोचा कि....
अरे!...गुस्सा कहाँ खा रही हूँ?"...
"मैँ तो जैसा पढ रही हूँ...वैसा ही बता रही हूँ"
"क्या पढ रही हो?"...
"ये देखो!...इन ब्लॉगर सज्जन को ही लो....कोतवाली पुलिस पकड़ कर ले गई है थाने"...
"हुँह!...बनते तो बहुत बड़े समाज सुधारक हैँ और...काम ऐसे-ऐसे?"...
"छी"....
"किसकी बात कर रही हो?"...
"अरे!..उसी की बात कर रही हूँ जिसने अपनी तथा अपने साथियों की भड़ास उगलती पोस्टस के जरिए समाज को सुधारने का ठेका लिया हुआ है"...
"नहीं!...वो नहीं..कोई और होगा"..
"ज़रूर!..तुमसे कोई मिस्टेक हुई है"...
"ज़रा!..ध्यान से पढ के बताओ"...
"शायद!...कुछ और लिखा हो"...
"गलतफहमी भी हो सकती है"
"ये देखो!...साफ साफ तो लिखा है...तुम खुद ही पढ लो"...
"एक मिनट!...पहले ये मटर तो छील लूँ"...
"रहने दो!...थोड़े ही बचे हैँ...मैँ अपने आप छील लूँगी"
"नहीं!...बाद में तुम्हीं ने ताना मारना है कि....मेरी कोई हैल्प नहीं करते"
"तो मैँ क्या झूठ बोलती हूँ?"...
"बताओ...कब की है मेरी हैल्प?"...
"ये मटर क्या ऐंव्वे ही छील रहा हूँ?"...
"हुँह!...ज़रा से मटर हैँ....ये तो मैँ खुद भी छील लेती ...इसमें कौन सा पहाड़ तोड़ना है?"...
"तो क्या मैँ भी 'खली दा ग्रेंट' की तरह पत्थर तोड़ूँ?" ...
"रहने दो...रहने तो तुम्हारे बस की नहीं है ये सब"...
"वो पत्थर तोड़ते तोड़ते पता नहीं कहाँ का कहाँ पहुँच गया और 'शाहरुख' से लेकर 'तेंदुलकर' तक के बच्चे उसके दिवाने हैँ और खुद उसे अपने घर पे लंच और डिनर के लिए इनवाईट करते हैँ"....
"अब तो फिल्मों में भी उसे चाँस मिलने लगा है"...
"चिंता ना करो!.मेरे भी दिन पलटने वाले हैँ"....
"मेरे लिए तो बस तुम ये मटर...टिण्डा...खीरा....और मूली वगैरा छीलते-काटते एक दिन छोटे-मोटे लिक्खाड़ बन जाओ..यही बहुत है"...
"हाँ!...हो गया"...
"अब बताओ कि...क्या हुआ है?"मैँ तौलिए से हाथ पोंछता हुआ बोला...
"यही कि..तुम्हारा चहेता ब्लागर साथी रेप के इलज़ाम में पकड़ा गया है"...
"रेप?"...
"कौन सा?"...
"अरे वही!...जो हमेशा कुछ उगलने...उगलवाने की बात करता है"...
"ओह!...फिलहाल कहाँ है?"...
"क्या अभी भी अन्दर है?"...
"नहीं!...ज़मानत तो उसी दिन शाम को ही हो गई थी उसकी"...
"बाकि केस तो चलता ही रहेगा"...
"पता नहीं ऐसे निगोड़े लोगों को भी ज़मानती कैसे आसानी से मिल जाते हैँ"...
"ये देखो...मोटे अक्षरों में साफ-साफ लिखा है कि "भड़ास उगलता नामी बलॉगर बलात्कार की कोशिश में पकड़ा गया"...
"कहाँ?"...
"अरी बेवाकूफ!....ये तो कोई दो-ढाई महीने पुरानी बासी खबर है और तू मुझे आज सुना रही है?"...
"इसके बारे में तो मुझे पहले से ही पता था"...
"तो फिर मुझे क्यों नहीं बताई ये बात?"...
"वो बस ऐसे ही...दिमाग से उतर गया होगा"...
"हुँह!...दिमाग से उतर गया होगा"...
"सब जानती हूँ मैँ...तुम्हें भी और तुम्हारे दिमाग को भी"...
"क्या सोचा था? कि तुम नहीं बताओगे तो मुझे पता नहीं चलेगी ये खबर"...
"अरे यार!...रात गई ..बात गई"...
"अब इस बारे में बात कर के क्या फायदा?"...
"तो क्या हुआ?"...
"खबर है तो सच्ची ही है ना?"...
"पता नहीं"...
"एक काम करो"....
"क्या?"...
"चिट्ठाजगत या फिर ब्लॉगवाणी की साईट ओपन करो और उनके पुराने अर्काईव चैक करो"...
"अगर डिलीट नहीं हुए होंगे तो इस बारे में कुछ मालुमात तो अभी भी मिल ही जाएँगे"...
"ओ.के"..."ओह!...यहाँ तो लगभग हर ब्लॉग पे इसी बारे में कोई ना कोई पोस्ट है"...
"इसका मतलब दो महीने पुराना ये मुद्दा अभी भी ब्लॉगजगत की सुर्खियों में छाया हुआ है"...
"पागल हैँ स्साले!...सब के सब ...मेहनत कोई करे...और मौके का फायदा ये मुफ्त में उठाना चाहते हैँ"...
"अरे!...अगर तुम में दम है तो खुद करो ना बलात्कार की कोशिश और बाद में उसे अपने ब्लाग की हैडलाईन बना सुर्खियों में रहो"...
"ऐसे ही मुफ्त में नहीं हो जाता किसी से बलात्कार"...
"इसके लिए... ये बड़ा...कलेजा चाहिए होता है पत्थर का"...
"गुर्दे में दम होना चाहिए"...
"रोते बिलखते आँसुओं को नकारने की हिम्मत होनी चाहिए"...
"चीखती चिल्लाती आवाज़ों को बहरा बन अनसुना करने की कला होनी चाहिए"...
"इसका मतलब...बड़ी मतलब परस्त है तुम ब्लॉगरों की ये दुनिया"...
"यहाँ तो लगे हाथ हर कोई जलते तवे पे रोटियाँ सेंक अपने ब्ळॉग की रीडरशिप बढाना चाहता है"...
"हाँ!..उन्हें इस से कोई सरोकार नहीं कि क्या बीत रही होगी उस बेचारी अबला नारी पर?...उसके पति पर?...उसके बच्चों पर?...उसके रिश्तेदारों पर?"
"क्या बात?...बड़ा तरस आ रहा है तुम्हें उस औरत पर"....
"कहीं तुम भी उसी की नेचर के तो नहीं हो?"...
"अरे यार!...क्या बात करती हो?"...
"मैँने तो ऐसे ही सरसरी तौर पर कह दिया था"...
"यही तो कमी है तुम मर्दों में कि बिना सोचे-समझे कुछ भी कह डालते हो"..
"मुझे देखो!...कोई भी बात मुँह से निकालने से पहले ये सोचती हूँ कि मैँ ये बोलूँगी तो सामने वाला क्या सोचेगा? और क्या जवाब देगा?"...
"फिर वो ये जवाब देगा तो मुझे उसके उत्तर में ये कहना होगा और अगर वो ये नहीं बल्कि कुछ और कहेगा तो मुझे भी ये नहीं कुछ और ही कहना होगा"...
"ओफ्फो!...क्या बेकार में...बेफाल्तू का कंफ्यूज़न क्रिएट कर रही हो?"...
"हमें क्या पता कि किसकी गल्ती है और किसकी नहीं?"...
"ये भी तो हो सकता है कि सारा कसूर उस औरत का ही हो और हम बेकार में नाहक ही अपने बलॉगर भाई को बदनाम कर रहे हों"...
"क्या ये नहीं हो सकता कि खुद उसी औरत ने उकसाया हो इस सब के लिए और किसी के द्वारा देख लिए जाने के कारण खुद को सती-सावित्री साबित करते हुए बेचारे ब्लॉगर पे ही सारा का सारा इलज़ाम लगा दिया हो"
"और नहीं तो क्या?"...
"हाँ!...होने को तो कुछ भी हो सकता है"..
"ये देखो क्या लिखा है?"...
"क्या लिखा है?"...
"यही कि वो(दोस्त की बीवी) उसकी चहेती सहेली थी"...
"चहेती माने?"...
"उड़ती-उड़ती सी अफ्फाहें सी सुनी हैँ कईयों ने कि दोनों रोज़ शाम को एक साथ घूमा करते थे कभी पालिका बाज़ार तो कभी हॉट बाज़ार"...
"हाँ!...एक ने तो उन्हें चाँदनी रात के सन्नाटे में इण्डिया गेट पे हाथों में हाथ डाले घूमते हुए भी देखा था"....
"ओह"...
"लेकिन उसकी बात का कोई भरोसा नहीं"...
"क्यों?"...
"स्साले!...के चश्मे का नम्बर ना जाने कब से बढा हुआ है और वो कंजूस-मक्खीचूस अभी भी वो दो दशक पुराना चश्मा ही घसीटे जा रहा है"...
"देख के बताओ तो ज़रा कि क्या दिल्ली की ही रहने वाली है वो?"
"नहीं?"...
"फिर वो उसे कहाँ मिल गई?"...
"बाहरले गाँव से आ के ठहरी हुई थी उसी के यहाँ"...
"काहे को?"...
"अरे!...उसके पति की एक्सीडैंट में मौत हो गई थी"...
"तो?"...
"काम की तलाश में दिल्ली आई थी कि यहाँ रहकर ...
"आई क्या होगी?...
इसी ने खुद ज़िद कर के बुलवा लिया होगा कि यहाँ दिल्ली आ जाओ...नौकरी लगवा दूँगा"...
"फिर?"...
"अरे!...नौकरियाँ क्या पेड़ पे लटकती फिरती हैँ कि जब जी चाहा...कोई अच्छी सी लपक ली?"...
"कई दिनों तक लारा-लप्पा लगाता रहा कि आज मिलेगी नौकरी या फिर कल मिलेगी नौकरी"...
"खुद की बीवी मायके गई हुई थी तो पीछे से एक दिन नीयत डोल गई और कर बैठा बलात्कार"...
"अभी तुम तो कह रही थी कि कोशिश में पकड़ा गया"....
"एक ही बात है....वहाँ इज़्ज़त आबरू बच गई तो क्या?....
"ये मीडिया और पुलिस वाले वकीलों के साथ मिलकर वाले बार-बार बेहूदे सवाल पूछ के उसकी रही सही इज़्ज़त भी निलाम कर देंगे कि नहीं?"...
"पता नहीं इनके घर में भी माँ-बहन होती होंगी या नहीं?"...
"सारा दोष उस बेचारे अकेले के ही नाम क्यों ...गलती तो उसकी बीवी की भी है इसमें"...
"क्यों?...क्या गल्ती है इसमें बीवी की?"...
"उसने क्या किया है?"...
"सौ ना सही!...तो कम से कम चालीस परसैंट भागीदार तो उसकी बीवी भी है"...
"इस बलात्कार में?"...
"और नहीं तो क्या"...
"वो कैसे?"...
"डाक्टर ने नहीं कहा था उसे कि सूखी घास-फूस को जलती डिबिया(दिया)के पास रख कर खुद मायके चली जाओ"...
"अरे!...उसके सामने तो भैय्या-भैया ही करती रहती होगी"
"तो क्या राखी भी बाँध दी थी?"
"मन तो करता है कि ध्यान ही ना दूँ ऐसी बातों पर लेकिन घूमफिर के फिर दिमाग उसी तरफ चला जाता है"...
"छोड़ो ना!..हमें क्या लेना दूसरे के पचड़े में खुद को फँसा के?"...
"कल की अखबार देखी कि नहीं?"...
"क्यों?...क्या लिखा है उसमें?"...
"यही कि एक कलयुगी भाँजा अपनी 55 वर्षीय लकवा ग्रस्त वृद्ध मामी के साथ ब्लात्कार कर भाग निकला"...
"ओह"...
"पता नहीं क्या होता जा रहा है हमारे समाज को"...
"रोज़ ही ऐसी खबरे मीडिया वाले बढा-चढा कर छाप रहे होते हैँ कि फलानी-फलानी जगह पर...फलाने फलाने मोहल्ले में में एक नाबालिग से ब्लात्कार किया गया"...
"ऐसी भी क्या अँधी हवस?"....
"मेरे एक बात समझ नहीं आती कि आखिर क्या मिलता होगा तुम मर्दों को किसी के साथ ऐसे ज़ोर-ज़बरदस्ती कर के?"...
"अरे!...मिलना-मिलाना क्या होता है?"...
"कु6थित मानसिकता के अलावा और कुछ नहीं है ये"...
"ये भी तो हो सकता है कि उस ब्लॉगर की ईगो को उस औरत ने जाने-अनजाने हर्ट किया हो और उसने अपने अहम की...अपने आत्म सम्मान की रक्षा की खातिर ऐसा कदम उठाया होगा"...
"हाँ!..जैसे तुम लड़कों का ही आत्म सम्मान होता है ..ईगो होती है...हम लड़कियों को तो भगवान ने ऐसे ही बेफाल्तू में बना के छोड़ दिया है ना?"...
"अब कोई फायदा है ऐसी बेफाल्तू की बेवजह में बहस करने का?"...
"तो मैँ कहाँ कह रही हूँ कि तुम मुझसे इस टॉपिक पे बात करो?"...
"मेरे ख्याल से तो इस सब पे रोक लगाने के लिए सरकार को ही पहल करनी होगी"...
"सख्त से सख्त कानून बना के?"...
"नहीं"...
"फिर?"...
"मेरे ख्याल से इसे वैध ठहरा के ही इस सब से मुक्ति पाई जा सकती है"...
"किसे वैध ठहरा के?"...
"ब्लात्कार को?"...
"अरे नहीं"...
"फिर किसे?"...
"ओपन सैक्स को"...."
"माने?"..
"अरे यार!...जैसे थाईलैंड और बैंकाक में होता है ना?"......
"ठीक वैसे ही अपने देश को भी सैक्स फ्री होना चाहिए?"...
"हाँ"...
"पागल हो गए हो क्या?"...
"ये तो सोचो कि कितनी लड़कियों को इस सब से रोज़गार मिलेगा...देश तरक्की के पथ पर दौड़ेगा"...
"दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा"...
"अगर वो कम समय में..कम मेहनत से ज़्यादा पैसा कमाएंगी...तो इसमें हर्ज़ ही क्या है?"..
"ऊँचा रहन-सहन..ऊँचा खान-पान...फुल एंजायमैंट"...
"बस!..बहुत हो गया...
चुप हो जाओ अभी के अभी और ऐसे बेवाकूफी भरे फितूर अपनी दिमाग के भीतर ही रहने दो तो ज़्यादा अच्छा है"...
"क्यों?...आखिर बुराई ही क्या है इसमें?"..
"तुम खुद मर्द हो ना...इसलिए अपनी अय्याशी को लीगल तरीके से वैध ठहराना चाहते हो"...
"अरे!...मैँ तो देश के भले के लिए ऐसी राय दे रहा था"...
"ताकि तुम्हारे मशवरों पे अमल कर के दुनिया भर की बिमारियाँ हमारे देश में भी गली-गली घर बनाती फिरें?"...
"अरे! बढिया रहेगा ना फिर...जनसंख्या बोझ में भी तो कमी आएगी इस सब से"...
"सही कह रहे हो"...
"किसी और को ना कह देना ये सब...वर्ना इतने जूते पड़ेंगे कि गिनते-गिनते थक जाओगे"...
"कमाल की बात कर रही हो तुम भी....
'सुनामी'...'नर्गिस' जैसे तूफानों से...या फिर भूकंप जैसी किसी प्राकृतिक आपदा से तड़प-तड़प के मरने से या फिर किसी सीरियल ब्लास्ट की चपेट में आने और मंदिरों में रेलिंग टूटने से मचने वाली भगदड़ॉं में दब कर मरने से तो कहीं ज़्यादा अच्छा है ऐश ओ आराम की ज़िन्दगी जीते हुए शान ओ शौकत से मरा जाए"...
"क्यों?...है कि नहीं"...
"सब बकवास...निरी बकवास"...
"तो चलो!...तुम्हीं बता दो कि ब्लात्कार ना करें तो अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कहाँ जाएँ हम मर्द?"...
"ये तो तुम्हें तब सोचना चाहिए था जब हम लड़कियों की तुम हमारे पेट में ही भ्रूण हत्या करवा रहे थे"...
"जानते भी हो कि तुम मर्दों की इस करनी के चलते आज देश में लड़के-लड़कियों के अनुपात में कितना फर्क आ गया है?"...
"कितना?"...
"आज प्रति 1000 लड़कों के पीछे लगभग 712 के आस-पास लड़कियाँ हैँ पूरे देश में"...
"ओह"...
"हरियाणा और पँजाब में तो और भी बुरे हालात हैँ"...
"यहाँ के कई गांव तो बिना लड़कियों के सूने-सूने हो गए हैँ"...
"और गावों में काम का ज़्यादा बोझ होने की वजह से भी लोगों ने अपनी लड़कियों को गांवों में ब्याहना बन्द कर दिया है"...
"मजबूरी में इन गावों के लोग उड़ीसा और झारखण्ड से बीस-बीस हज़ार...पच्चीस-पच्चीस हज़ार में लड़कियाँ खरीद कर ला रहे हैँ और अपना वंश चलाने की खातिर उनसे ब्याह भी रचा रहे हैँ"..
'हाँ!..ये तो मैँने भी अखबार में पढा था"...
"यही तो कमी है तुम मर्दों में"...
"क्या?"...
"यही कि सब जानते बूझते हुए भी आने वाले समय के भयावह हालात को अनदेखा कर रहे हो"...
"तो क्या करें?"...
"अपना घर फूंक तमाशा देखें?"...
"क्यों?...इसमें तमाशा देखने की क्या बात है?"...
"क्या गलत कह दिया मैँने?"...
"क्यों नहीं पढाते हो अपनी बच्चियों को?"....
"क्यों उन्हें लड़कों के बराबर अधिकार नहीं देता है तुम्हारा ये समाज?"...
"अरे!...जिसे घरवाले खुद ही बोझ समझ दुत्कार दें...स्वीकार ना करें...तो उसकी और भला कौन इज़्ज़त करेगा?"...
"अभी के हालात तो ये सिर्फ चेतावनी भर हैँ...अगर अभी भी नहीं चेते तो यकीनन एक दिन तुम्हें तमाशा भी देखना पड़ेगा"...
"हम्म!..बात में तो तुम्हारी दम है"..
"तो फिर उठाओ झण्डा...और लगाओ नारा कि ....
"लड़के-लड़कियाँ...एक बराबर"....
"एक बराबर....एक बराबर"....
"जय हिन्द"...
"भारत माता की जय"...
नोट:यह कहानी पूर्ण रूप से काल्पनिक है और इसका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है।
***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
Delhi (India)
http://hansteraho.blogspot.com
+919810821361
+919896397625
5 comments:
राजीव जी लिखते रहो। महफिल जमाते रहो। वाह।
बेहतरीन...
राजीव जी
क्या कर रहे हो
कोई (ना) राज
हो गया तो
आप चाहे
100 को हंसाए मत
पर 1 को भी रूलाएं न
चाहे वो वाली हो
सारी बातें यहीं पर
लिख डालते हो
पर सारी मत लिखना
लिखते लिखते चलने
मत लगना।
अच्छी समस्याएं उठा
रहे हो, फिर भी हंस
रहे हो, हंसा रहे हो।
अच्छा है पर थोड़ा लंबा हो गया....
राजीव भाई बहुत-लम्बी-लम्बी पोस्ट लिखते हो...अच्छा कल पढेंगे पक्का...
फ़िलहाल तो आपको व आपके पूरे परिवार को स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभ-कामनाएं...
जय-हिन्द!
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