ईब्ब मैं के करूँ?...कित्त जाऊँ?


***राजीव तनेजा***
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नोट:
इस कहानी का विषय और विषयवस्तु कुछ वयस्क टाइप की है...अत: बाद में ये ना कहना कि पहले चेताया नहीं था
"गजब का टैम आ ग्या ईब्ब तो...गजब का"...
"क्या हो गया ताऊ जी?"...
"इस सुसरी...हराम की जणी नै ना जीण जोगा छोड़ेया ओर ना ही मरण जोगा राख्या"...
"क्या बात ताऊ जी?...ये सुबह-सुबह किस पर अपना गुस्सा निकाल रहे हो?"..
"तेरी फूफी पे"...
"क्या मतलब?"...
"वोई तो मैँ बी पूछूँ हूँ"...
"क्या?"...
"तू के 'डी.सी' लाग रेहा सै?...
"क्या मतलब?"...
"छोरी &ं%$#$% के ...वोई तो मैँ बी पूछूँ सूँ के तैन्ने के मतबल्ल?...मैँ किसी पे बी अपना गुस्सा काढूँ"...
"मुझे!...मुझे भला क्या मतलब होना है?....ये तो आप ज़ोर-ज़ोर से छाती पीट-पीट के रो रहे थे तो मैँने सोचा कि....
"छाती किसकी थी?"..
"आपकी"...
"उसे पीटण कोण लाग रेहा था?"...
"आप खुद"...
"तो फेर तैन्ने के ऐतराज?"...
"मुझे भला क्या ऐतराज़ होना है?...ऐतराज़ होगा तो आपको होगा या फिर आपके घरवालों को होगा"..
"यार!...यो तो ठीक्के कहे सै तू...ऐतराज तो मन्ने बी ज्यादा कोणी पर म्हारी बीरबानी ने घणा ऐतराज सै"ताऊ का मायूस स्वर...
"किस बात का?"...
"इसै बात का?"...
"ये रोने-पीटने की बात का?"...
"ना!...मेरे रोवण-पीटण का उसणे क्यों ऐतराज होण लागा?...इसका ऐतराज होवेगा तो सौ परसैंट मन्ने होवेगा.. उसणे भला क्यों होवेगा?"...
"ओह!...तो फिर उन्हें किस बात का ऐतराज़ है?"...
"मन्ने के बेरा?"...
"क्या मतलब?...आपको नहीं पता कि उन्हें किस बात पे ऐतराज़ है?"..
"छोरी...ं%$&# &^%$% के..अगर मन्ने बेरा होवे तो मैँ उसणे राजी ना कर ल्यूँ?"...
"लेकिन फिर भी ...कोई बात तो हुई होगी"....
"बात के होणी है?..तैन्ने तो बेरा सै कि मैँ पूरे दो साल बाद फौज तै छुट्टी ले के घरां आया सूँ"...
"जी!...आप तो 'आसाम राईफल्ज़' में थे ना?"..
"थे से के मतबल्ल?...ईब्ब बी सूँ...इब्बे कौण सा मैँ रिटायर हो ग्या सूँ?"....
"ओह!...ये तो बहुत ही बढिया बात है"...
"ओर नय्यी ते के?"....
"अभी कितने साल बचे हैँ आपकी नौकरी में?"..
"पूरे चार साल बाकी सैँ इब्बे तो म्हारे रिटायर होण में अगर गलती से रिटायर्ड हर्ट ना हो ग्या तो"...
"अजी!..आप क्यों भला रिटायर्ड हर्ट होने लगे...रिटायर्ड हर्ट होंगे तो आपके दुश्मन होंगे...आपके पड़ौसी होंगे...आपके रिश्तेदार होंगे"...
"यो बात तो तू ठीक्के कवै सै...मैँ भला इतणी जल्दी क्यों रिटायर होणा लागा? लेकिन मेरी बीरबानी का कोई भरोसा कोणी ...कब डल्ला मार के सर फोड़ दे”...
"क्या मतलब?"..
"तू मन्ने एक बात बता"...
"जी"...
"मैँ तन्ने कीस्सा लागूँ सूँ?"ताऊ जी कुछ-कुछ शरमाते हुए से बोले...
"क्या मतलब?"...
"तू बता ना के मैँ तन्ने कीस्सा लागूँ सू?"..
"आप तो...आप तो बहुत बढिया...इनसान हैँ"...
"यो नय्यी!..तू....तू मन्ने ये बता के तैन्ने मेरी 'बॉडी' कीस्सी लागे सै?"...
"क्क्क्या?...क्या मतलब?"मैं झेंपता हुआ बोला..
"तू ये बता के मेरी 'बॉडी' कीस्सी सै"...
"कैसी है से क्या मतलब?"..जैसी सबकी होती है..वैसी ही है"मैं कुछ शरमाता हुआ सा बोला ..
"अरे यार!...तू नय्यी समझा.....तू ये बता के मेरे ये भीमसैनी 'डौल्ले' कीस्से सैं?"ताऊ बाजू फैला अपने डौले दिखाता हुआ बोला ...
"ओह!...डौल्ले"मैं सकपकाता हुआ बोला ...
"ओर तू के समझेया था?"...
"मैँ तो..मैँ तो...
"ये मैँ...मैँ कर के मिमियाणा छोड़ ओर सूधी तरियाँ ये बता के मैँ तैन्ने एकदम फिट दीक्खूँ सूँ के नय्यी?...
"आप तो एकदम तन्दुरस्त...बिलकुल परफैक्ट...फिटटम फिट  हैँ"मैं मस्का लगाता हुआ बोला ...
"फेर म्हारी बीरबानी मन्ने..."दम कोणी...दम कोणी" कह के रोज ताना क्यूँकर मारै सै?"...
"क्या मतलब?...आप...आप तो बहुत दमदार इंसान हैं"...
"ओर नय्यी तो के?...पूरी बटालियन में आज बी मेरे नाम का डंका बाजे सै"ताऊ गर्व से फूल कर कुप्पा होता हुआ बोला ...
"लेकिन फिर ये आपकी घरवाली ऐसे क्यों कहती है कि .....
"समझ तो मेरे बी कोणा आती उसकी बात...सुसरी कब्बी कैवे सै कि... "आओ जी!...किरकट खेलें"...कब्बी कैवे सै कि ... "आओ जी!..रम्मी खेंलें"...
"तो इसमें क्या दिक्कत है?...आप खेल लिया करें 'रम्मी"...
"तू खेल के दिखा दे रोज-रोज एके खेल"...
"सुसरी...कबी कहवे सै कि.. "आज आप 'बैटिंग' करो...मैँ 'फील्डिंग' करूँगी"...
"तो उसमें क्या दिक्कत है?...अगर उन्हें 'फीलडिंग' का शौक है तो आप कर लिया करें 'बैटिंग'"...
"तू कर के दिखा दे ना रोज-रोज बैटिंग"ताऊ ताव में आता हुआ बोला ...
"कमाल है!...एक तो आपको 'फील्डिंग' के बजाय 'बैटिंग' का मौका मिलता है तो भी आप इनकार कर देते हैँ"मेरे स्वर में हैरानी थी ...
"चल!...आज मेरी जगह तू ही बैटिंग कर के दिखा दे"...
"चल!...अब चल बी"..ताऊ तैश में आ मेरा हाथ पकड़ मुझे लगभग घसीटता हुआ बोला...
"लेकिन कहाँ?"मैं अपना हाथ वापिस खींचता हुआ बोला...
"म्हारे घर...ओर कहाँ?"..
"क्क्या...क्या मतलब?...आपके घर में कौन सी 'पिच' या 'ग्राउंड' है?"मैं सकपका कर बोल उठा ...
"योही तो मैँ बी कहूँ सूँ उस तै कि...."अरी भागवान!...इस कुल जमा डेढ सौ गज के मकान में कोई क्रिकेट खेले तो कैसे खेले?"...
"जी!...
"लेकिण सुसरी माने तब ना"...
"क्यों?..क्या कहती हैँ वो?"...
"बावली पूँच कवै सै कि... "पलँग पे खेलेंगे"...
"क्रिकेट?...पलँग पे?"...
"हाँ"...
"लेकिन कैसे?"..
"मन्ने के बेरा?"...
"क्या मतलब?...आपको पूछना तो चाहिए था कि..."कैसे?"...
"मैँ तैन्ने सोलह दूनी आठ नज़र आऊँ सूँ?"...
"क्या मतलब?"...
"मैँने कई बार बूझ लिया सुसरी तै कि.."भागवान!...ये तो बता कि इत्ती छोटी जगह पे तू खेलेगी कैसे?"...
"ओह!..फिर क्या जवाब दिया उन्होंने?"...
"हर बार दीद्दे फाड़ के हँसते हुए कहती थी कि.. "आप चालो तो सही...मैँ आप ही खेल लियूँगी"...
"फिर क्या हुआ?"...
"होणा के था..मैँ कोई बावला तो सूँ नहीं कि उसकी बातां में आ जाता...साफ नॉट गया कि..."म्हारे बस का नहीं है यो किरकट-फिरकट खेलना"...
"ठीक किया आपने...पलँग पे कोई क्रिकेट खेला जाता है?...वहाँ पर तो...
"रम्मी खेली जावे है"...
"रम्मी?"...
"ओर नहीं तो के मम्मी?"...
"क्या मतलब?"...
"जब मैँ उस तै साफ नॉट ग्या कि अपणे बस का नहीं सै यो किरकट-फिरकट खेलना तो जिद पे अड़ के खड़े हो ग्यी कि .. "चलो!...फेर 'रम्मी-रम्मी' खेलें"...
"रम्मी तो आपको खेल लेनी चाहिए थी"...
"तो मैँ कोण सा नॉट रेहा था लेकिण पलंग पे बैठते ही सुसरी आँख मारती बोली.. "लेट ज्याओ"....
"लेट जाओ?"...
"हाँ!...लेट जाओ"...
"क्क्या मतलब?"...
"योही...इस्से तरियाँ मेरा माथा बी ठनकेया था जीब्ब वो बोली कि... "लेट ज्याओ"...
"ओह!...फिर क्या हुआ?"...
"होणा के था..मैँणे सोची कि क्या पता?..मेरे ड्यूटी पे जाए पाच्छे शायद कोई नया तरीका इजाद होया हो रम्मी खेलण का...तो मैँ आँख मूंद के लेट ग्या"..
"लेकिन आँख मूंद के क्यों?...आँखे खोल के क्यों नहीं?"..
"मैन्ने सोची कि बेचारी ओरत जात है...इसणे पत्ते सैट कर लेण देता हूँ...राजी हो ज्यागी"...
"गुड!...ये आपने ठीक किया"..
"के ठीक किया?...सुसरी तो बत्ती बन्द कर के म्हारे धोरे आ ली"..
"क्या मतलब?"..
"योही तो मैँने बी उस तै बूझेया कि..."यो इस तरियाँ अचाणक बत्ती बुझाण का के मतबल्ल?"...
"तो फिर क्या कहा उसने?"...
"कहणा के था?...मुँह फुला के...बाहर म्हारी माँ के धोरे जा के पड़ ग्यी"...
"ओह!...फिर क्या हुआ?"...
"होणा के था..म्हारी माँ कौण सा कम थी?...उसणे उसे धार काढन के काम पै लगा दिया फौरन"...
"किसकी धार काढ़न के काम पे?"...
"मेरी माँ की"...
"म्म...माँ की?...क्या मतलब?"..
"छोरी ^%$##$%^&&*& के ...धार किसकी काढ़ी जाए सै?"...
"ग्ग...गाय-भैंस की"....
"तो फेर?"..
?...?...?...?...
"मेरी माँ ने उस्तै म्हारी मैँस का दूध काढन तायीं काम पै लगा दिया"...
"ओह!...फिर क्या हुआ?"...
"होणा के था?..गुस्से में पैर पटकती हुई बाल्टी ने ठा के सूदधा डांगरा धोरे ज्या ली"...
"ओह!...
"लेकिन किस्मत खराब थी बेचारी की...
"क्यों?...क्या हुआ?"...
"मैँस तो दूध देण तै साफ नॉट ग्यी"...
"ओह!..तो फिर उन्हें अपनी सास याने के आपकी माता जी को सारी बात बता देनी चाहिए थी"...
"बताया ना"...
"फिर क्या हुआ?"मेरा उत्सुक स्वर...
"मेरी माँ कोण सा कम थी...उसी बखत उसणे उसे  'नथ्थूराम' धोरे भेज दिया?"...
"नत्थू राम के पास?...
"हाँ"...
"लेकिन किसलिए?"...
"किसलिए क्या?...उस धोरे झोट्टा सै"...
"तो?"...
"उसै के पास अपणी मैँस ने हरी कराण खातर भेद दिया"...
"ओह!...  
"लेकिन वो पट्ठा बी इतणा जिद्दी के...साफ नॉट ग्या?"...
"कौन?...नत्थूराम?"...
"नत्थूराम भला क्यों नाटण लागा?..यो तो उसका काम सै"..
"भैंसों को हरी करने का?"...
"हाँ"...
"क्या बात कर रहे हैँ आप?...एक मर्द हो के...एक जानवर के साथ...छी...
"छी-छी!...कोई ऐसी बात सोच भी कैसे सकता है?"...
"इंसान तो बेट्टे इतणा कमीण सै के यो कुछ बी सोच सके सै लेकिन तू एक बात बता"...
"जी"...
"कहीं तैन्ने आज भांग तो ना चढा रक्खी सै?"ताऊ मेरा मुँह सूँघता हुआ बोला ...
"मैँने?"...
"ओर नहीं तो के मैँन्ने?"...
"क्क्या मतलब?"...
"छै सौ किलो के तन्दुरस्त झोट्टे के होये पाच्छे वो भला आप क्यों मैँसाँ ने हरी करण लागा?"...
"तो फिर किसने इनकार कर दिया था?"...
"झोट्टे ने..ओर किसणे?"...
"झोट्टे ने?...उसको क्या प्राबलम थी?"...
"मन्ने के बेरा?"...
"ओह!...फिर क्या हुआ?"...
"फेर वो 'रामदित्ते' के बिगड़ैल झोट्टे के धोरे बी गय्यी लेकिन उस सुसरे ने बी मौत पड़े थी"...
"क्या मतलब?"...
"उड़े बी वोही हाल"...
"ओह!...क्या वो भी मना कर गया?"मेरा स्वर उत्सुकता से भर चुका था...
"ओर नय्यी तो के?"...
"ओह!...फिर क्या हुआ?"...
"होणा के था?....म्हारी बीरबानी बुड़बुड़ करती उलटे पाँव वापस आ ली"...
"उलटे पाँव वापिस आ गई?...लेकिन क्यों?"...
"ओर नय्यी तो के उड़े बैठ के धूप-बत्ती करती?"...
"झोट्टे की?"...
"ओर नय्यी तो के उसके जुगाड़ की?"...
"ओह!...फिर क्या हुआ?"...
"होना के था...मेरे धोरे आ के ज़ोर-ज़ोर से रोण लागी"...
"छाती-पीट-पीट के?"..
"ओर नय्यी तो के मुँह नोच-नोच के?"मेरी तरफ गुस्से से देखता हुआ ताऊ बोला ...
"ओह!...गुस्से में क्या कह रही थीं वो?"...
"म्हारी तो समझ में कतिए कोणी आवै थी उसकी बकवास के..."गजब का टैम आ ग्या ईब्ब तो...गजब का"..
"ईब्ब मैं के करूँ?...कित्त जाऊँ?"...
"गाम के सारे झोट्टे 'आसाम रैफल' में भरती होग्ये"...
"गाम के सारे झोट्टे 'आसाम रैफल' में भरती होग्ये"...

***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
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मेरी नौवीं कहानी नवभारत टाईम्स पर

पहली कहानी- बताएँ तुझे कैसे होता है बच्चा
दूसरी कहानी- बस बन गया डाक्टर
तीसरी कहानी- नामर्द हूँ,पर मर्द से बेहतर हूँ
चौथी कहानी- बाबा की माया
पाँचवी कहानी- व्यथा-झोलाछाप डॉक्टर की
छटी कहानी-काश एक बार फिर मिल जाए सैंटा
सातवीं कहानी-थमा दो गर मुझे सत्ता
आठवी कहानी- मेड फॉर ईच अदर
नौवीं कहानी- बतलाने की कृपा करेंगे आप?



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बतलाने की कृपा करेंगे आप?

6 Jan 2010, 1731 hrs IST 
राजीव तनेजा
मान्यवर नेता जी ,  
प्रणाम ,
एक बार फिर से चुनाव में विजयी हो हमारे क्षेत्र का पुन: प्रतिनिधित्व करने के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई...अपने पिछले कार्यकाल के दौरान आपने हमारे क्षेत्र के लिए जो-जो कार्य किए...उनके लिए आप प्रशंसा के पात्र हैं...आपकी पुरज़ोर कोशिशों के चलते ही इलाके में तीन किलोमीटर लंबे फ्लाईओवर एवं सबवे का निर्माण संभव हो पाया...जिससे क्षेत्र की जनता को हर दिन घंटों तक लगने वाले जाम में फंसे रहने से मुक्ति मिल गई है।
  • अपने क्षेत्र की जनता पर किए गए आपके इस एहसान के बदले हम आपके सदैव ऋणी रहेंगे..लेकिन एक जिज्ञासु एवं जागरुक मतदाता होने के नाते मेरे दिमागी भंवर में आपकी नेतृत्व क्षमता को लेकर कुछ प्रश्न मंडरा रहे हैं...राइट टु इन्फॉर्मेशन कानून के तहत मैं उनका उत्तर आपसे जानना चाहूंगा। उम्मीद है कि आप मुझको निराश नहीं करेंगे।
  • आपने हमारे यहां की कच्ची गलियों को कंक्रीट की बनवा हमें कीचड़ एवं बदबू भरे माहौल से मुक्ति दिलवा दी, इसके लिए हम आपके बहुत-बहुत आभारी हैं...लेकिन इन गलियों के कच्चे से पक्के होने के पूरे प्रकरण में आपके कितने घर कच्चे से पक्के हो गए ? ये बतलाने की कृपा करेंगे आप ?
  • आप अच्छी-भली स्ट्रीट लाईटों को खंभों समेत बदलवा उनका नवीनीकरण करवा रहे हैं, यह बहुत अच्छी बात है लेकिन बदले गए इन पुराने खंभों का क्या होगा ? क्या उन्हें पुन: इस्तेमाल के लिए संभाल कर रखा जाएगा या फिर किसी दिन उन्हें निष्क्रिय एवं नाकारा घोषित कर किसी स्क्रैप डीलर को कबाड़ के भाव तौल दिया जाएगा ? मेरा मन कहता है कि पुरानी चीज़ों को सम्भाल कर रखना बेवाकूफी से बढ़कर कुछ नहीं है...उम्मीद है कि मेरी इस बात से आप भी सहमत होंगे...अगर ऐसा है तो उन्हें किस कबाड़ी को और कितनी रकम के बदले बेचा जाएगा ? उसमें से आपका और आपके मातहतों का कितना हिस्सा होगा ? ये बतलाने की कृपा करेंगे आप ?
  • आप की छत्रछाया में हमारे इलाके की सड़कों...फुटपाथों एवं कूड़ेदानों के नवीनीकरण के जरिए शहर का सौन्दर्यकरण हो रहा है। यह हमारे लिए गर्व की बात है लेकिन इस सारे प्रकरण के जरिए आप कितने नोट अपनी तिजोरी के अन्दर करेंगे ? ये बतलाने की कृपा करेंगे आप ?
  • अपने क्षेत्र के मतदाताओं की बेरोज़गारी दूर करने के लिए आपके राज में नई नौकरियां गढ़ीं एवं दी जा रही हैं। इन भर्तियों की एवज में आप कितनों की, किस तरह (कैश..चैक...मनीऑर्डर या बैंक ड्राफ्ट/क्रेडिट कार्ड) और कितनी जेबें ढीली करेंगे ? ये बतलाने की कृपा करेंगे आप ?
  • आप  के सतत प्रयासों के जरिए हमारा इलाका साफ-सुथरा एवं सुन्दर बनता जा रहा है...इसके लिए आप प्रशंसा के पात्र हैं। इसी बात को जान कर यहां पर सफाई कर्मचारियों ने भी हाज़री लगाना लगभग बन्द सा कर दिया है। उनकी इस गैरहाज़री के बदले आप कितनी रकम अपनी तिजोरी के अन्दर हाज़िर करते हैं ? ये बतलाने की कृपा करेंगे आप ?
  • आप  ज़मीन से जुड़े हुए नेता हैं, इसलिए आपके राज में रेहड़ी-पटरी एवं खोमचे वाले खूब फल-फूल रहे हैं। उन्हें इस पूरे इलाके को नर्क बनाने की छूट देने के बदले आप उनसे कितना और कब-कब वसूलते हैं ? ये बतलाने की कृपा करेंगे आप ?
  • आपके इलाके में खाली पड़ी निजी एवं सरकारी ज़मीनों पर कब्ज़ा कर झुग्गी माफिया (गरीब-गुरबा बेघर लोगों को छत प्रदान कर पुण्य का काम करते हुए) लाखों-करोड़ों के वारे-न्यारे कर रहा है। शहर का मुखिया होने के नाते इसमें आपका कितना बड़ा हिस्सा है ? ये बतलाने की कृपा करेंगे आप ?
प्रश्न तो अभी दिल में और भी कई हैं लेकिन एक साथ इतने प्रश्नों का उत्तर देने से उत्पन्न होने वाली दुविधा को समझते हुए मैं अपने इस पत्र को यहीं विराम देता हूं। बस आपसे एक अंतिम निवेदन करना चाहता हूं कि इस बार विजयी होने पर आपने पूरे क्षेत्र में जगह-जगह जो अपने आदमकद पोस्टर लगवाए हैं, उनसे शहर का सौन्दर्य बिगड़ने के साथ-साथ आते-जाते लोगों का ध्यान भी बार-बार बंट रहा है। इससे आए दिन नित नई दुर्घटनाओं के घटित होने की संभावना बलवती होती जा रही है। आपसे निवेदन है कि उन्हें हटवा कर आप उन सब के बजाए पूरे क्षेत्र में अपना सिर्फ एक आदमकद पोस्टर किसी प्राईम लोकेशन पर लगवाएं। इससे शहर भी साफ-सुथरा रहेगा और आते-जाते वहां से गुज़रने वाले क्षेत्र के जिम्मेदार एवं प्रबुद्ध नागरिकों को आप पर थूकने में किसी किस्म की असुविधा भी नहीं होगी।
विनीत:
अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों के प्रति सचेत एक जिम्मेदार नागरिक
जय हिंद

"अन्धा बाँटे रेवड़ियाँ"

***राजीव तनेजा***


"क्या हुआ?….आते ही ना राम-राम..ना हैलो-हाय...बस..बैग पटका सीधा सोफे पे और तुरन्त जा गिरे पलंग पे...धम्म से...कम से कम हाथ मुँह तो धो लो".....
"अभी नहीं...थोड़ी देर में"..
"चाय बनाऊँ?"...
"नहीं!...मूड नहीं है".. .
"क्या हुआ तुम्हारे मूड को?...जब से आए हो..कुछ परेशान से...थके-थके से...लग रहे हो"..
"बस ऐसे ही"...
"फिर भी..पता तो चले"... .
"कहा ना...कुछ नहीं हुआ है"...
"ना..मैँ नहीं मान सकती...आप जैसा मस्तमौला इनसान इस तरह गुमसुम हो के चुपचाप बैठ जाए तो..कुछ ना कुछ गड़बड़ तो ज़रूर है...
"क्यों बेफिजूल में बहस किए जा रही हो?...एक बार कह तो दिया कि कुछ नहीं हुआ है"मैँ गुस्से से बोल उठा..
"हुँह!...एक तो तुम्हारी फिक्र करो और ऊपर से तुम्हारा गुस्सा भी सहो....नहीं बताना है तो ना बताओ...तुम्हारी मर्ज़ी"...
"ये तो तुम कुछ परेशान से...बुझे-बुझे से दिखे तो पूछ लिया...वर्ना मुझे कोई शौक नहीं है कि बेफाल्तू के चक्करों में माथापच्ची करती फिरूँ"..
"एक तुम हो जो सारी बातें गोल कर जाते हो और एक अपने पड़ोसी शर्मा जी हैँ कि आते ही...पानी बाद में पीते हैँ...अपनी राम कहानी पहले बतियाते हैँ"...

"तुम्हें?"..
"मुझे भला क्यों बताने लगे?...अपनी घरवाली को बताते हैँ"...
"ओह!...फिर ठीक है"मेरे चेहरे पे इत्मिनान था
"कल ही तो देखा था उसे पड़ोस वाले कैमिस्ट की दुकान से दवाई लेते हुए"...

"तो?"...
"पेट कमज़ोर है स्साले का...दस्त लगे रहते हैँ हमेशा...तभी तो कोई बात पचा नहीं सकता"... 
"और तुम?..तुम तो सारी की सारी बात ही गोल कर जाते हो...कुछ बताते ही नहीं"..
"सुनो"मैं उसे अनसुना कर अपनी ही धुन में बोला... 
"क्या?"... 
"ज़रा कम्प्यूटर ऑन कर के नैट तो चलाना"... 
"उफ...तौबा!...आप और...आप का कम्प्यूटर….शाम होते ही इंतज़ार रहता है कि कब जनाब आएँ और कब कड़क चाय की प्याली के साथ दो-चार प्यार भरी बातें हों"...
"कुछ मैँ इधर की कहूँ..कुछ आप उधर का हाल सुनाओ लेकिन आप हैँ कि..आते ही कम्प्यूटर ऑन करने को कह रहे हैँ....कम्प्यूटर ना हुआ..मेरी सौत हो गया"... 

"इस मुय्ये कम्प्यूटर से तो अच्छा था कि तुम मेरी सौत ही ला के घर पे बिठा देते तो बढिया रहता"... 
"वो कैसे?"... 
"कम से कम लड़-झगड़ के ही सही...टाईम तो पास हो जाया करता मेरा"... 
"ओह!....
"यहाँ तो बस चुपचाप टुकुर-टुकुर ताकते रहो जनाब को कम्प्यूटर पे उँगलियाँ टकटकाते हुए...और तो जैसे कोई काम ही नहीं है मुझे".. 
"अरे यार!..राखी सावंत का नया आईटम नम्बर आया है ना"... 
"कौन सा?"... 
"जो सबको क्रेज़ी किए जा रहा है"... 
"तो?":... 
"उसी का विडियो डाउनलोड करना है"... 
"किसलिए?"... 
"रिंकू ने मंगवाया है".. 
"सब पता है मुझे कि रिंकू ने मंगवाया है या फिर पिंकू ने मंगवाया है"... 
"अरे यार!...तुम तो खामख्वाह शक करती हो...सच में..उसी ने मंगवाया है"... 
"कम से कम झूठ तो ऐसा बोलो कि पकड़ में ना आए..क्यों अपने कमियों को छुपाने के लिए दूसरे का नाम ले ...उसे बदनाम करते हो?"... 
"क्या मतलब?"...
"कई बार तो देख चुकी हूँ कि खुद तुम्हारा मोबाईल उस कलमुँही की अधनंगी तस्वीरों और विडियोज़ से भरा पड़ा है "..
"पता नहीं ऐसा क्या धरा है इस मुय्यी राखी की बच्ची में कि बच्चे...बूढे सब उसी पे लट्टू हुए जा रहे हैँ?....मेरा बस चले तो अभी के अभी कच्चा चबा जाऊँ"... 

"अरे!..तुम्हें क्या पता कि क्या गज़ब की आईटम है ...आईटम क्या पूरी बम्ब है बम्ब".... 
"उसका फिगर...उसकी सैक्स अपील...वल्लाह...क्या कहने?"मैँ मन ही मन बुदबुदाया.. 
"अरे!..सब का सब नकली माल है...उसका असली ...बिना मेकअप पुता चौखटा देख लो तो कभी फटकोगे भी नहीं उसके पास"बीवी ने मानो मेरे मन की बात भांप ली थी.... 
मैं कुछ कहने ही वाला था कि ट्रिंग..ट्रिंग...की सुरीली ताने के साथ फोन घनघना उठा ..... 
"सुनो!...अगर कोई मेरे बारे में पूछे तो कह देना कि अभी आए नहीं हैँ"... 
"क्यों?...क्या हुआ?...बात क्यों नहीं करना चाहते?".. 
"कहा ना"... 
"क्या?".. 
"यही कि...कोई मेरे बारे में पूछे तो साफ मना कर देना"... 
"हुँह!....खुद तो पहले से ही सौ झूठ बोलते हैँ और अब मुझसे भी बुलवा रहे हैँ".. 
"समझा कर यार"मैँ रिकवैस्ट भरी नज़रों से देखता हुआ बोला.... 
"क्या समझूँ?"... 
"प्लीज़".. 
"ठीक है!...इस बार तो बोले देती हूँ लेकिन अगली बार नहीं "... 
"ठीक है...अभी की मुसीबत तो निबटाओ...बाद की बाद में देखेंगे"... 
"हैलो..".. 
"नमस्ते.."... 
"जी..".. 
"जी.."... 
"अभी तो आए नहीं हैँ...हाँ!..आते ही मैसैज दे दूंगी 
"ओ.के....बाय...ब्ब बॉय"... 
"कौन था?"... 
"वही..तुम्हारी माशूका...'कम्मो'....और कौन?"... 
"तो फिर दिया क्यों नहीं फोन?"... 
"तुमने खुद ही तो मना किया था"... 
"इसके लिए थोड़े ही किया था"... 
"और किसके लिए किया था?"... 
"व्वो...वो तो ...दरअसल ..... 
"याद करो...तुमने ही कहा था कि जो कोई भी हो...साफ मना कर देना"... 
"तुमसे तो बहस करना ही बेकार है..अपने आप दिमाग नहीं लगा सकती थी क्या?".. 
"गल्तियाँ तुम करो और उन्हें भुगताऊँ मैँ?"... 
"ओ.के बाबा!...मेरी ही गलती है...तुम्हें साफ़-साफ़ नहीं बताया ....तुम सही...मैँ गलत".... 
"अब ठीक?"... 
"हम्म!...... 
"और तुम्हें पिछली बार भी समझाया था कि 'कम्मो' मेरी माशूका नहीं....बल्कि बहन है"... 
"सब पता है मुझे कि कौन?..किसकी?...कैसी बहन है?...और...कौन?...किसका?...कैसा भाई है?"... 
"क्या मतलब?...मतलब क्या है तुम्हारा?"मैँ आगबबूला हो उठा... 
"सब जानते हो तुम कि मेरे कहने का क्या मतलब है".. 
"ट्रिंग..ट्रिंग... ट्रिंग..ट्रिंग" तभी ट्रिंग..ट्रिंग करता फोन फिर से चिंघाड़ उठा 
"जो कोई भी मेरे बारे में पूछे ...साफ इनकार कर देना"... 
"नहीं...बिलकुल नहीं".. 
"पक्का..इस बार उसी का होगा"मैँ बड़बड़ाता हुआ बोला... 
"किसका?"... 
"प्लीज़...मुझे फोन मत देना".. 
"तुम्हें मेरी कसम"... 
"हुँह..."इतना कह बीवी फोन की तरफ बढ गई... 
"हैलो"... 
"कौन?".... 
"ओह!...नॉट अगेन"कहते हुए बीवी ने फोन क्रैडिल पर रख दिया... 
"किसका फोन था?"... 
"पता नहीं...ऐसे ही कोई पागल है...बार-बार फोन कर के तंग करता है"... 
"कहता क्या है?"... 
"कुछ नहीं"... 
"मतलब?"... 
"बस ऐसे ही ...ऊटपटांग बकता रहता है "... 
"क्या?"... 
"कुछ भी उल्टा-पुल्टा"... 
"ज़रूर तुम्हारा कोई आशिक होगा"... 
"मेरा?"... 
"और नहीं तो मेरा?".. 
"रहने दो...रहने दो...ये वेल्ला शौक मैँने नहीं पाला हुआ है"... 
"तुमने नहीं पाला तो क्या?...उसने तो पाला हुआ है ना जो तुम्हें बारंबार फोन करता है"... 
"मुझे क्या पता?...कहीं से नम्बर मिल गया होगा"... 
"पता नहीं लोगों  को क्या मिल जाता है ऐसे ही बेकार में फ़ालतू का वक्त बर्बाद कर के"...
"अच्छा...अब ये बताओ कि तुम फोन उठाने से कतरा क्यों रहे थे?"... 
"बस ऐसे ही"... 
"फिर भी ..पता तो चले"... 
"अरे!...वो स्साला...'घंटेश्वरनाथ बल्लमधारी' नाक में दम किए बैठा है".. 
"ओह!..तो उसी के डर से फोन स्विच ऑफ किए बैठे हैँ जनाब?"बीवी पलंग से फोन उठा मुझे दिखाती हुई बोली.... 
"यही समझ लो"... 
"तुम तो ऐसे ही बेकार में हर किसी ऐरे-गैरे...नत्थू खैरे से डरते रहते हो"... 
"अरे!..वो कोई ऐरा-गैरा नहीं है बल्कि एक माना हुआ नामी-गिरामी साहित्यकार है"... 
"तो तुम क्या चिड़ीमार हो?...तुम भी तो एक उभरते हुए व्यंग्यकार ही हो ना?"... 
"अरे!...वो पुराना चावल अंदर तक घिस-घिस के संवर चुका है इस साहित्य की लाईन में और मैँ अभी नया खिलाड़ी हूँ"... 
"लेकिन अब तो तुम्हारा भी थोड़ा-बहुत नाम हो चला है"...
"हाँ!...हो तो चला है"...
"सो!..कमी किस बात की है?"...
"माना कि नाम हो चुका है लेकिन सिर्फ ब्लागजगत की दुनिया में"... 
"तो क्या हुआ?...क्या कमी है तुम्हारी आभासी दुनिया में?...इस ब्लॉगिंग की वजह से ही तुमने लिखना शुरू किया और इसी वजह से तुम में हौंसला आया कि अपने लिखे को अखबारों वगैरा में भेज के देखा जाए"
"हम्म....

"नतीजा तुमहरे सामने है...तुमने आठ रचनाएँ भेजी नवभारत टाईम्स वालों को और उन्होंने बिना किसी कट के आठों की आठों ही अप्रूव कर छाप दी"..
"हम्म... 
"अब तो खुद मेल भेज-भेज के दूसरी साईट वाले भी इंवाईट करते हैँ तुम्हें लिखने के लिए".. 
"बात तो तुम्हारी ठीक है लेकिन नैट पे लिखना और बात है और किताबों और अखबारों में छपना-छपाना और बात है"... 
"लेकिन मैँने तो सुना है कि ब्लॉगिग भी साहित्य की ही एक नई विधा है और उससे कहीं बेहतर है"... 
"बात तो तुम्हारी सोलह ऑने सही है...यहाँ राईटर से लेकर पब्लिशर तक...हम अपनी मर्ज़ी के मालिक खुद जो होते हैँ".. 
"हम्म!...
"यहाँ हम किसी सम्पादक या पब्लिशर की दया के मोहताज नहीं होते क्योंकि यहाँ कोई हमारी रचनाओं को खेद सहित नहीं लौटाता है"...
"और एक खूबी ये भी तो है कि हमें अपने लिखे पर कमेंट भी तुरंत ही मिलने शुरू हो जाते हैँ".. 
"बिलकुल!...यहाँ लिखते के साथ ही पता चलना शुरू हो जाता है कि हमने सही लिखा या फिर गलत".. 
"इन्हीं सब खूबियों की वजह से ब्लॉगिंग साहित्य से बेहतर है ना?"... 
"लेकिन कईयों के हिसाब ये ये खूबियाँ नहीं बल्कि कमियाँ हैँ".... 
"ये सब उन्हीं नामचीनों के द्वारा फैलाया गया प्रापोगैंडा होगा जिन्हें तुम ब्लॉगरो के चलते अपनी कुर्सी खतरे में नज़र आ रही होगी"...
"मैँने अभी हाल ही में कहीं पढा था कि 'बी.बी.सी' के किसी बड़े अफसर ने कहा है कि...
"हमें टीवी...अखबार...मैग्ज़ीनज़ के अलावा हर उस व्यक्ति से खतरा है जिसके पास एक अदद कम्प्यूटर और नैट का कनैक्शन है".. 

"बिलकुल सही कहा है...तुम्हें पता है कि कई बार मीडिया की सुर्खियों में आने से भी बहुत पहले कुछ खबरें ब्लॉगजगत में धूम मचा रही होती है".. 
"जैसे?"..
"ये 'मोनिका लैवैंसकी' और 'बिल क्लिंटन' वाला काण्ड भी सबसे पहले नैट पे ही उजागर हुआ था"...
"अच्छा?"..
"और ये समाजवादी पार्टी से अमर सिंह के इस्तीफ़े की खबर भी मीडिया वालों को सबसे पहले उनके ब्लॉग से ही मिली थी"...

"ओह!...क्या ये सही है कि आजकल चीन के दमन के चलते तिब्बत से आने वाली लगभग हर खबर का जरिया ब्लाग और इंटरनैट ही है?"...
"बिलकुल!... बाहरले मीडिया को जो खबरों के कवरेज की इज़ाज़त नहीं है"...
"और वहाँ का लोकल मीडिया तो सारी खबरें सैंसर होने के बाद ही दे रहा होगा?".. 
"यकीनन"... 
"आज हर बड़ी से बड़ी हस्ती का अपना ब्लॉग है..चाहे वो 'आमिर खान' हो या फिर 'अमिताभ बच्चन और उनकी भी यहाँ वही अहमियत है जो मेरी है या फिर किसी भी अन्य ब्लॉगर की".. 
"ओह!..
"सीधी बात है कि जिसकी लेखनी में दम होगा...जिसका लिखा रुचिकर होगा उसी के पास रीडर खिंचे चले आएँगे".. 
"आमिर खान का तो मैँने सुना था लेकिन ये 'बच्चन साहब' को ब्लॉग बनाने की क्या सूझी?"...
"अरे यार!..मीडिया में बहुत कुछ अंट-संट बका जा रहा था ना उनके खिलाफ".. 
"तो?"...
"उसी चक्कर में अपना पक्ष रखने के लिए कोई ना कोई माध्यम तो चुनना ही था उन्हें...तो ऐसे में ब्ळॉग से बेहतर और भला क्या होता?"... 
"हम्म!.. 
"पता है...उनकी एक-एक पोस्ट के लिए पाँच-पाँच सौ से भी ज़्यादा टिप्पणियाँ आ रही हैँ?"... 
"अरे वाह!...तो इसका मतलब कि यहाँ भी आते ही धूम मचा दी उन्होने".. 
"बिलकुल!..लेकिन एक कमी खल रही है उनके ब्ळॉग में मुझे"... 
"क्या?"... 
"हिन्दी भाषी होने के बावजूद....हिन्दी फिल्मों की बदौलत नाम..काम...शोहरत और पैसा पाने के बावजूद...उन्होंने अपना ब्लॉग अंग्रेज़ी में बनाया"...
"ओह!... ये 'बिग बी' का खिताब भी तो उन्हें हिन्दी फिल्मों की बदौलत ही मिला है ना?"...
"हाँ"...
"अंग्रेज़ी में ब्लॉग बनाने के पीछे...ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक अपनी बात पहुँचाने की मंशा रही होगी उनकी"...

"लगता तो यही है"...
"वैसे अभी तुम्हारे हिन्दी के ब्लॉग हैँ ही कितने?".. 
"आठ"...
"बस!...आठ?"...
"और नहीं तो क्या साठ?"...
"क्या मतलब?...सिर्फ आठ ब्लाग ही बने हैं हिन्दी के अभी तक?"...
"हाँ!..आठ तो मेरे अपने...खुद के हैं"...
"ओह!...लेकिन मैं सभी के मिला के पूछ रही थी कि कुल कितने ब्लॉग होंगे हिन्दी के?"...
"सभी के मिला के तो लगभग 15000 के आस-पास होंगे"...
"इन पंद्रह हज़ार में से रोज़ाना कितने सक्रिय होते होंगे?"....
"मुश्किल से एक या दो फीसदी"...
"तो तुम ये डेढ़-दो सौ ब्लागरों के दम पे हिन्दी का उद्धार करने चले हो?"..
"तो क्या हुआ?..बूँद-बूँद से घड़ा भरता है ...आज डेढ़-दो सौ ब्लागर सक्रिय हैं तो कल को डेढ़-दो हज़ार तो और आने वाले समय में डेढ़-दो करोड़ भी होंगे"...
"हमारा भविष्य उज्जवल है...बहुत उज्जवल"..
"बड़े लोगों के इस ब्लॉगिरी की लाईन में कूदने से एक फायदा तो हुआ है"... 
"क्या?"...
"यही कि कुछ साल पहले जिन सैलीब्रिटीज़ से रूबरू मिलने...उनसे बात करने की हम कभी सपने में भी सोच भी नहीं सकते थे..आज हम उनके ब्ळॉग पे कमैंट कर डाईरैक्ट अपने दिल की बात कह सकते हैँ".. 

"हाँ!..ये बात तो है".. 
"खैर!...उनकी छोड़ो...वो सब तो पहले से ही जाने-माने लोग हैँ...उनसे क्या मुकाबला?...तुम इस 'घंटेश्वरनाथ' की बात करो...ये तो आम आदमी ही है ना?".. 
"अरे!...इसका भी बड़ा नाम है आजकल...चाहे कोई 'कवि सम्मेलन' हो या फिर कोई 'मुशायरा'...या फिर हो किसी नए पुराने लिक्खाड़ की किताब का विमोचन..हर जगह उसी को पूछा जाता है...उसी को बारंबार मान-सम्मान दे पूजा जाता है"...
"अरे!..मान-सम्मान दिया नहीं जाता बल्कि वो खुद ही सब कुछ अपने फेवर में मैनुप्लेट करके अपना जुगाड़ बना लेता है".. 

"रोज़ाना अखबारों...पत्रिकाओं...मैग्ज़ीनों ...पर्चों वगैरा में उसका कोई ना कोई लेख छपता रहता है"... 
"तो क्या?...उन्हीं में यदा-कदा तुम्हारी कहानियाँ भी तो छपती ही हैँ ना?"...
"अरे!..उसे तो लिखने के पैसे मिलते हैँ और मेरा माल मुफ्त में ही हड़प लिया जाता है"... 
"अफसोस तो इसी बात का है कि..जहाँ एक तरफ उसे मंच पे खाली बैठे-बैठे पान चबा...जुगाली करने के नाम पे बड़ा लिफाफा थमा दिया जाता है...वहीं दूसरी तरफ तुमसे फोकट में कविता पाठ से लेकर मंच संचालन तक करा लिया जाता है".. 
"मैँ तो यही सोच के खुद को तसल्ली का झुनझुन्ना थमा देता हूँ कि चलो कम से कम इसी बहाने मेरे काम की चर्चा तो होती है"... 
"लेकिन ऐसी फोकट की चर्चा से फायदा क्या कि चाय भी अपने पल्ले से पीनी और पिलानी पड़े?"... 
"ऊपरवाले के घर देर है पर अंधेर नहीं...कभी तो नोटिस में लिया जाएगा मेरा काम"मेरा हताश स्वर... 
"मुझे तो लगता है कि शर्म के मारे तुम खुद ही कुछ नहीं मांगते होगे"... 
"बात तो यार...तुम्हारी कुछ-कुछ सही ही है".. 
"अरे!...बिना रोए कभी माँ ने भी बच्चे को दूध पिलाया है?...जो लोग खुद ही तुम्हें पैसे देने लगे?...हक बनता है तुम्हारा...बेधड़क हो के माँग लिया करो"... 
"हम्म!..
"काम कर के देते हो...कोई मुफ्त में ख़ैरात नहीं माँगते...इसमें शर्म काहे की?"... 
"यार!...कभी-कभार हिम्मत कर के पैसे मांगने की जुर्रत कर भी लो तो 'घंटेश्वरनाथ' का यही टका सा जवाब मिलता है कि...
"शुक्र करो!...हमारी बदौलत मीडिया की सुर्खियों में तो छाए हुए हो कम से कम...वरना कोई पूछता भी नहीं तुम्हें".. 
"अब अगर कहीं कोई प्रोग्राम हो तो मुझे ज़रूर ले चलना".. 
"तुम क्या करोगी?"...
"उसी से पूछूँगी कि ऐसी फोक्की सुर्खियों को क्या नमक बुरका के चाटें हम?"...
"छोड़ो ना...कभी तो अपने दिन भी फिरेंगे"...
"हुंह!...कभी तो दिन फिरेंगे"..बीवी मुँह बनाती हुई बोली
"बस!...इस बात की तसल्ली है मुझे कि इसी बहाने से ही सही...मेरी अपनी...खुद की फैन फालोइंग तो बन गई है"... 
"और नहीं तो क्या?...उसके जैसे चमचों के बल पे इकट्ठा की हुई भीड़ के दम पे नहीं कूदते हो तुम"... 
"हाँ!..ये बात तो सच है"...
"बस!..अब से तुम्हें कोई ज़रूरत नहीं है उससे डरने-वरने की"... 
"हम्म!...
"ज़्यादा चूँ-चाँ करे तो उसी के खिलाफ खुल्लमखुल्ला मोर्चा खोल देना"....
"अरे यार!...कैसे विरोध करूँ उसका?..गुरू है वो मेरा"...
"गुरू गया तेल लेने...ऐसी कोई अनोखी दीक्षा नहीं दी है उसने तुम्हें जो तुम पूरी ज़िन्दगी गुरूदक्षिणा ही देते रहो"... 
"तुम में जन्मजात गुण था लिखने का...माँ जी बता रहती थी कि बचपन से ही पन्ने काले करते रहते थे"... 
"वो सब बात तो ठीक है लेकिन मंच पे कविता पढ़ने का पहला चाँस तो उसी की बदोलत ही मिला था ना?".. 
"हुँह!...चाँस मिला था... अपनी ही गर्ज़ को तुम्हें बुलवा लिया था..ऐन टाईम पे उसका विश्वसनीय प्यादा जो बिमार पड़ गया था".. 
"सो!...महफिल में रंग जमाने...तुम्हें स्टैपनी बना...तुम्हारा सहारा लिया था उसने".. 
"हाँ!...ये बात तो है...मजबूरी थी उसकी....आयोजकों से मोटी रकम जो एडवांस में पकड़ चुका था"...  
"तुम जैसे नए रंग-रूटों को मोहरा बना अपना उल्लू सीधा करता है वो".. 
"हम्म!...
"कोई ज़रूरत नहीं है फालतू में उसके चक्करों में पड़ने की...अपना मस्त हो के काम करो...एक न एक दिन तुम्हें अपनी करनी का फल ज़रूर मिलेगा"... 
"करनी का फल मिलेगा?...मैं कुछ गलत कर रहा हूँ क्या?"...
"नहीं!..मेरा मतलब था कि तुम्हें अपने द्वारा किए गए काम का प्रतिफल ज़रूर मिलेगा"...
"ओह!..मैं तो डर ही गया था"...
"कई बार तो इतना गुस्सा आता है उस पर कि मार के घूँसा उसके सभी के सभी दाँत तोड़ दूँ"...
"नहीं!...ऐसा गजब बिल्कुल नहीं करना"...
"क्यों?...क्या हुआ?"...
"बिना दाँतो के वो तो एकदम विलायती बंदर जैसा दिखेगा"...
"तो?...तुम्हें इसमें क्या एतराज़ है?"...
"नहीं!..मैं नहीं चाहती कि हमारे किसी भी कृत्य से उसकी मशहूरी हो...प्रसिद्धि हो"..
"ओह!..तुम कहती हो तो मैं अपना आइडिया ड्रॉप कर देता हूँ...मुल्तवी कर देता हूँ"...
"ओ.के!...लेकिन उसके प्रति तुम्हारे दिल में जो नफरत का सैलाब उमड़ रहा है उसे शांत नहीं होने देना है"...
"लेकिन यार!...कुछ भी कहो..है तो वो आखिर मेरा गुरु ही ना?"..
"हुंह!...बड़े देखे हैँ ऐसे गुरू-शूरू मैँने".. 
"सच कह रही हो तुम...कई बार तो मैं खुद यही सोच-सोच के परेशान हो उठता हूँ कि आखिर कब तक उसके गुरुत्व की कीमत चुकाता रहूँगा?"... 
"आपको तो नाहक ही परेशान होने की आदत पड़ी हुई है...खा थोड़े ही जाएगा हमें?"... 
"हाँ!..ये बात तो है"...
"तुम एक काम करो"... 
"क्या?"... 
"ऐसा सबक सिखाओ पट्ठे को कि छटी का दूध याद करते करते उसे नानी भी याद होने को आए"..  
"लेकिन कैसे?"...
"ये सब भी मैं ही बताऊँगी तो तुम क्या घास छीलोगे?"..
"?...?...?...?..."...
"अरे!..लेखक हो तुम घसियारे नहीं...कलम की ताकत को पहचानो...उसी से वार करो"... 
"अरे!...तुम जानती नहीं हो उसे....बड़ा ही पहुँचा हुआ खुर्राट है वो...एक बार में ही समझ जाएगा कि सब कुछ उसी के बारे में लिखा है मैँने".. 
"तो क्या हुआ?...समझ जाएगा तो समझ जाएगा...कौन सा हम उसके हाथ के गुँथे आटे की रोटियाँ पाड़ रहे हैँ?...और वैसे भी हम कोई नाम थोड़े ही उसका लिखेंगे"... 
"हाँ!..ऐसे तो चाहते हुए भी वो हमारा कुछ नहीं उखाड़ पाएगा"मैं खुश होता हुआ बोला.. 
"बिलकुल!..खूब नमक मिर्च लगा के...ऐसा तीखा मसालेदार लिखना कि बस अंदर तक तड़प के रह जाए"... 
"हम्म!...
"ऐसी-ऐसी बातें लिखना कि बिना खुल्लमखुल्ला खुलासा किए ही सब समझ जाएँ कि किसकी बात हो रही है"... 
"लेकिन क्या ऐसा करना ठीक रहेगा?"... 
"क्यों?...वो क्या हमारे साथ सब कुछ ठीक ही करता आया है अब तक?...पिछले तीन साल से हर सम्मेलन...हर मुशायरे...में तुम उसी की तो बँधुआगिरी कर रहे हो"... 
"हाँ!..बात तो तुम्हारी सही है...देना-दिलाना कुछ होता नहीं है और जहाँ मन होता है...वहीं फटाक से फोन करके बुलवा लेता है कि...फलानी-फलानी जगह पे फलाने-फलाने टाईम पे पहुँच जाना"..
"हुँह!...तुम्हारे बाप के नौकर हैं जैसे?"...
"ये नहीं कि किराए-भाड़े के नाम पे ही कुछ थमा दे... टाईम का टाईम खोटी करो और ऑटो खर्चा भी पल्ले से भरो"... 
"लेकिन मैँ तो बस से... 
"अरे!...ओ राजा हरीशचन्द्र की औलाद...हर जगह क्या अपनी गुरबत का ढिंढोरा ही पीट डालोगे?....पर्सनली जानता ही कौन है तुम्हें इस किस्से-कहानियों की दुनिया में?...थोड़ी-बहुत गप भी तो मार सकते हो"... 
"कैसे?"...
"ये भी मैं ही बताऊँ?... तुम्हें तो लिखना चाहिए कि मैँ हमेशा 'ए.सी' कार में सफर करता हूँ...फाईव स्टार सैलून से बाल कटाता हूँ...नोकिया 'एन' सिरीज़ का मोबाईल इस्तेमाल करत हूँ वगैरा ...वगैरा  और तुम हो कि अपनी सब पोल -पट्टी ही खोले दे रहे हो"...
"ओह!..आई एम सारी ...वैरी सारी.....माय मिस्टेक".. 
"और हाँ!...एक बात का हर हालत में ध्यान रखना है कि....कहानी के शुरू में और आखिर में मोटे-मोटे शब्दों में ये लिखना बिलकुल नहीं भूलना कि ये कहानी पूर्ण रूप से काल्पनिक है...इसका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई भी...किसी भी तरह का संबध नहीं है".. 
"बाद में सौ लफड़े खड़े हो सकते हैँ...इसलिए समय रहते ही चेत जाओ ज़्यादा अच्छा है".. 
"तुम्हारा कहना सही है लेकिन समझ नहीं आ रहा कि कहानी कहाँ से शुरू करूँ?"... 
"वहीं से...जहाँ से उसने शुरूआत की थी"... 
"मतलब...जब उसने शादी की....तब से?"...
"नहीं!...उससे भी पहले से...जब वो हमेशा उस ऐंटीक माडल की टूटी साईकिल पे नज़र आया करता था".... 
"वही?..जो कई बार बीच रास्ते ही जवाब दे पंचर हो जाया करती थी?"... 
"कई बार क्या?...हमेशा ही तो उसी को घसीटता नज़र आता था बल्कि यूँ कहो तो ज़्यादा अच्छा रहेगा कि वो साईकिल पे कम और साईकिल उस पे ज़्यादा लदी नज़र आती थी" 
"बिलकुल सही कहा... ये प्वाईंट तो नोट कर लिया...अब आगे?"मैँ नोटबुक में कलम घिसता हुआ बोला... 
"वो सब बातें लिखना कि कैसे वो उल्टे सीधे दाव पेंच चलता हुआ...एक मामुली कवि से आज साहित्य जगत की मानी हुई हस्ती बन बैठा है"...
"हम्म!...
"कैसे उसकी हाजरी के बिना हर महफिल सूनी-सूनी सी लगती है".. 
"लेकिन कहीं ये उसकी तारीफ तो नहीं हो जाएगी ना?"...
"यही तो इश्टाईल होना चाहिए बिड्ड़ु"...
"क्या मतलब?"..
"मज़ा तो तब है जब तुम्हारे एक वाक्य के दो-दो मतलब निकलें"...
"कैसे?"...
"तुम्हारी लेखनी से एक तरफ लोगों को लगना चाहिए कि तुम तारीफ कर रहे हो और...वहीं दूसरी तरफ दूसरों को साफ़-साफ़ दिखाई देना चाहिए कि तुम तबीयत से दिल खोल के जूतमपैजार कर रहे हो"... 
"लेकिन क्या ऐसे किसी इनसान की इस तरह सरेआम पोल खोलना ठीक रहेगा?"... 
"इनसान?"...
"अरे!...अगर सही मायने में इनसान होता तो आज अपने घर में रह रहा होता ना कि घर जमाई बन के अपने ससुर के बँगले पे कब्ज़ा जमा उन्हीं की रोटियाँ तोड़ रहा होता"...
"हम्म!...
"सब जानती हूँ मैँ कि कैसे उसने उस मशहूर कवि की बेटी को अपने प्यार के जाल में फँसा शादी का चक्कर चलाया"... 

"हम्म!...शादी के पहले था ही क्या उस टटपूंजिए के पास? और अब ठाठ देखो पट्ठे के"..  
"पहले तो ले दे के वही एक ही...महीनों तक ना धुलने की वजह से सफेद से पीला पड़ा हुआ कुर्ता पायजामा नज़र आता था उसके तन पे...और अब?...अब एक से एक फ्लोरोसैंट कलर के कुर्ते पायजामे जैकेट के साथ उसके बदन की शोभा बढा रहे होते हैँ"...
"मैंने तो यहाँ तक सुना है कि पूरे तीस सैट बिना नाड़े के पायजामे सिलवा रखे हैँ पट्ठे ने".. 
"बिना नाड़े के?"...
"हाँ!..बिना नाड़े के"...
"लेकिन वो भला किसलिए?"...
"किसलिए क्या?..अपने कैरियर के शुरुआती दिनों में हूटिंग के डर से पायजामा ढीला हो जाया करता होगा पट्ठे का..
"ओह!...तो इसका मतलब उसी के डर के मारे उसने पायजामे में नाड़े के बजाए इलास्टिक का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया?"
"और नहीं तो क्या?"...
"खैर!..हमें क्या?...नाड़े वाले सिलवाए या बिना नाड़े वाले"... 
"साफ कपड़े पहनने से कोई सचमुच में अन्दर से साफ नहीं हो जाता ...रहेगा तो वो हमेशा ओछा का ओछा ही"... 
"हम्म!...ये सब आईडियाज़ तो नोट कर लिए मैँने...अब?"...
"ये भी लिखना नहीं भूलना कि कैसे वो अपने ब्लॉग के रीडरस और की संख्या बढाने के लिए...
अपनी रचनाओं में सरासर सैक्स परोस रहा है".. 

"मेरे ख्याल से ये लिखना ठीक नहीं रहेगा".. 
"क्यों?".. 
"क्योंकि...कहानी पे पकड़ बनाए रखने के लिए और ..मनोरंजन के लिहाज से कई बार ऐसा करना ज़रूरी भी होता है..मैँ खुद ऐसा कई बार कर चुका हूँ".. 
"तुम तो ज़रा सा..हिंट भर ही देते हो ना?...वो तो बिलकुल ही खुल्लमखुल्ला सब कुछ कह डालने से भी नहीं चूकता"... 
"पर...?...?...?.."मेरे स्वर में असमंजस था...
"एक बात गांठ बाँध लो कि हमेशा दूसरों पे कीचड उछालना ज़्यादा आसान रहता है"... 
"हाँ!...ये बात तो है"...
"सो!..तुम भी बेधड़क हो के उछालो".. 
"किसी ने टोक दिया तो?"... 
"मुँह ना नोच लूँगी उसका?...एक मिनट...एक मिनट में सबक ना सिखा दिया तो मेरा भी नाम संजू नहीं"... 
"देखती हूँ कि कौन रोकता है तुम्हें?"बीवी अपनी साड़ी संभाल ब्लाउज़ की आस्तीन ऊपर करती हुई बोली.....
"बस बस!...ये दम खम बचा के रखो...रात को काम आएगा"मैँ शरारती हँसता हुआ बोला 

"हुँह!..तुम्हारे दिमाग में तो बस हर वक्त उल्टा-पुल्टा ही चलता रहता है"... 
"मैँने तो यहाँ तक सुना है कि आजकल वो नए-नए तौर तरीके अपना रहा है अपने विरोधियों पछाड़ने के लिए"... 
"कौन से तौर तरीके?".. 
"सभागारों में ...थिएटरों में...मीटिंगो में ...सम्मेलनों में...मंचों पर...बैठकों में...यूँ समझ लो कि हर जगह उस जगह जहाँ दो चार जानने वाले मिल जाते हैँ बस अपने विरोधियों को गालियाँ देना शुरू हो जाता है"...
"हाँ!...अगर तुम्हें शिकवे हैँ...शिकायतें हैँ तो...प्यार से...दुलार से उनका हल ढूँढो ना..ऐसे भी कहीं होहल्ले के बीच किसी के 'मोहल्ले' पर निकाली जाती है 'भड़ास'?...पता नहीं कब अकल आएगी?"...

"छोड़ो!...हमें क्या?...अच्छा है...लड़ते-भिड़ते रहें...तुम बस अपना ध्यान में मग्न हो लिखते जाओ"... 
"हम्म!..
"वैसे उसका नाम ये 'घंटेश्वरनाथ बल्लमधारी' कैसे पड़ा?....बड़ा दिलचस्प और खानदानी नाम है ना?"... 
"खानदानी?...अरे!...उस लावारिस को खुद नहीं पता कि वो किस खानदान का है?".. 
"क्या मतलब?"...
"यूँ समझ लो कि उसकी कहानी पूरी फिल्मी है...एकदम फिल्मी"...
"कैसे?"...
"दरअसल!...हुआ क्या कि एक पुरोहित को ये मन्दिर की सीढियों पर रोता बिलखता मिल गया था"...
"ओह!...
"कोई उसे लावारिस हालत में छोड़ गया था वहाँ"..
"ओह!...
"पुजारी बेचारा...ठहरा सीधा सरल आदमी...तरस आ गया उसे और अपने पास रख लिया इसे"... 
"हम्म!...
"अब ये रोज़ सुबह मन्दिर को झाड़ू-पोंछा लगा साफ सुथरा रखता और बदले में मन्दिर के चढावे में चढने वाले फल-फूल खा के अपना पेट भर लेता"..
"ओह!..और जो नकदी वगैरा चढती थी चढावे में...उसका क्या होता था?"..
"उसे?...उसे तो पुरोहित अपने पास रख लेता था...किसी को नहीं देता था...पक्का कंजूस मक्खीचूस था".. 
"आगे?"...
"कुछ बड़ा हुआ तो शाम को आरती के वक्त मन्दिर का घंटा बजाने लगा"... 
"तभी उसका नाम 'घंटेश्वरनाथ' पड़ गया होगा?".. 
"हाँ"... 
"और 'बल्लमधारी' का तखलुस्स?...वो कैसे जुड़ा इसके नाम के साथ?".. 
"मंदिर में सुबह-शाम एक सज्जन आते थे अपनी बिटिया के साथ...काफी पहुँचे हुए कवि थे और...उनकी बेटी...एक उभरती शायरा".... 
"जब कभी भी वो खाली होते थे तो मंदिर से सटे बाग में समय बिताने को आ जाया करते थे"..
"ओ.के"...
"कई बार जब खुश होते थे तो अपनी मर्ज़ी से तन्मय होकर कविता पाठ किया करते थे"..
"ओ.के"...
"बस!...उन्हीं की संगत में रहकर ये भी कुछ-कुछ तुकबन्दी करना सीख गया"...
"ओ.के"... 
"शायरी की बारीकियाँ सीखने के बहाने उसने उनकी बेटी से भी नज़दीकियाँ बढा ली और उसी के कहने पर इसने भी बाकि साहित्यकारों की तरह अपना उपनाम रखने की सोची जैसे किसी ने अपने नाम के साथ 'चोटीवाला' तखलुस्स रखा था... तो किसी ने 'चक्रधर'... किसी ने 'बेचैन'...तो किसी ने 'लुधियानवी'
"ओ.के"...  
"गाँव के बिगड़ैल लठैतों के संगत में लड़ते भिड़ते बल्लम चलाना भी सीख चुका था"... 
"ओ.के"...
"सो!..'बल्लमधारी' से बढिया भला और क्या नाम होता?"... 
"वाह!...क्या सटीक नाम चुना है उल्लू के चरखे ने?...घंटेश्वरनाथ 'बल्लमधारी' ...वाह-वाह"...  
"अरे!...ये क्या?...बातों-बातों में पता ही नहीं चला कि कब हम उसकी बुराई करते-करते अचानक उसी का गुणगान करने लगे"... 
"जी"...
"ध्यान रहे!...हमारा मकसद अपनी लेखनी के जरिए उसे नीचा दिखाना है ना कि ऊँचा उठाना".. 
"ओह!.. ये तो मैंने सोचा ही नहीं था"...
"तो फिर सोचो और सोच-सोच के उसके ख़िलाफ़ ऐसी-ऐसी बातें लिखो कि सब दंग रह जाएँ"...
"लेकिन क्या लिखूँ?...बहुत सोचने के बाद भी कुछ समझ ही नहीं आ रहा है" मैँ माथे पे हाथ रख कुछ सोचता हुआ बोला... 

"अरे!...इसमें सोचने वाली बात क्या है?...जो भाव दिल में उमड़-घुमड़ रहे हैँ...बस...सीधे-सीधे उन्हीं को अपनी लेखनी के जरिए कागज़ पे उतारते चले जाओ".. 
"मगर यार!...सब का सब झूठ लिखने से कहीं लोग ना भड़क जाएं".. 
"नहीं!...बिल्कुल झूठ नहीं...थोड़ी बहुत सच्चाई तो टपकनी ही चाहिए तुम्हारी लेखनी से"...
"वोही तो".. 
"लेकिन ध्यान रहे कि तारीफ में जो कुछ भी लिखना ...कमज़ोर शब्दों में लिखना...ढीले शब्दों में लिखना "... 
"वो भला क्यों?"...
"ओफ्फो!...इतना भी नहीं समझते?....दोस्त नहीं...वो दुश्मन है तुम्हारा"... 
"हाँ"...
"सो!...ज़्यादा तारीफ अच्छी नहीं रहेगी हमारी सेहत के लिहाज से"..
"हाँ!...ये तो है".. 
"तो क्या ये भी लिख दूँ कि कभी ये घंटेश्वरनाथ एक दम गाय के माफिक भोला और सीधा हुआ करता था?"... 
"ठीक है!...लिख देना"बीवी अनमने मन से हामी भरते हुए बोली 
"ये भी लिखना कि कैसे वो नेताओं के साथ रह-रह के उनके दाव...पैंतरे और गुर सब सीख गया है"..
"हाँ!..ये सब तो वो जान गया है कि कैसे पब्लिक को फुद्दू बना माल कमाया जाता है".. 
"इतना चालू है कि कई बार कार्यक्रम संचालन के पैसे तक नहीं लेता है"..
"पैसे नहीं लेता है?...इसलिए वो चालू हो गया?"...
"हाँ"...
"मेरे हिसाब से तो ऐसे आदमी को चालू नहीं बल्कि बेवाकूफ कहा जाता है".. 
"अरे!..वो सिर्फ बड़े-बड़े नेताओं और अफसरों की महफिलों को ही मुफ्त में सजाता है...बाकि सब की तो खाल उतार लेता है....लेकिन कई बार तो ताजुब्ब भी होता है जब वो मोटी-मोटी असामियों के फंक्शन भी मुफ्त में अटैंड कर लेता है".. 
"अरे!...कोई ना कोई मतलब ज़रूर होता होगा इस सब के पीछे...वो तुम्हारी तरह लल्लू नहीं है जो फोकट में ही अपनी ऐसी तैसी करवाता फिरेगा"...
"पता नहीं क्या मतलब निकालता होगा इस सब का?"...
"इतने सालों तक क्या घास छीलते फिरते रहे उसके साथ?"... 
"क्या मतलब?"...
"मैँ घर बैठे-बैठे सब समझ रही हूँ उसके दांव-पेंच"... 
"कैसे दाव-पेंच?".. 
"अरे!..जिन नेताओं की महफिलें वो मुफ्त में सजाया करता था... उन्हीं में से एक की सिफारिश के बल पर ही तो वो सरकारी कालेज में हिन्दी का प्रोफैसर नहीं बन बैठा था क्या?"..
"हाँ!..ये बात तो सही है... एक बड़े अफसर की रिकमैंडेशन पर बाद में उसे बिना किसी उचित योग्यता के पदोन्नत भी कर दिया गया था"... 
"मुझे तो पहले से ही इस बात का शक था"...
"लेकिन अगर इतना सब कुछ है तो फिर इन तथाकथित मोटी असामियों की चमचागिरी करने का क्या अचौतिय है?"... 
"अरे!..खोटा सिक्का कब चल जाए कुछ पता नहीं"... 
"हम्म!...
"सो!...किसी को नाराज़ ना करते हुए गधों को भी बाप बना लेता है"... 
"हम्म!...अब तो कई चेले भी तैयार हो गए उसके...उनमें से कुछ एक तो उभरते हुए कवि-लेखक भी हैँ....कुछ एक ने तो उसे गुरू धारण कर लिया है...वही लगे रहते हैँ उसकी सेवा-श्रुषा में"..
"मैं तो ये भी सुना है कि अब हिन्दी के उत्थान के नाम पे कई संस्थाओं का अध्यक्ष...तो कई कमेटियों का परमानैंट मैम्बर बन चुका है"...

"मैंने तो कुछ और ही सुना है उसके बारे में"...
"क्या?"..
"यही कि एक दो छोटी-मोटी संस्थाओं का चेयरमैन बनाया जा रहा था उसे लेकिन उसने साफ इनकार कर दिया...शायद...काम के बोझ की वजह से"...
"टट्टू!...काम के बोझ की वजह से?"...
"क्या मतलब?"...
"अरे!..ऐसी छोटी-मोटी ऑफरों को साफ ठुकरा देना ही बेहतर होता है क्योंकि वहाँ पैसा बनने की कोई गुंजाईश नहीं होती है"... 

"हाँ!...ये बात तो है...सुना है की आजकल तो लोगों की खूब जेबें ढीली कर के अपने खीसे में नोट भर रहा है"..
"वो कैसे?"... 
"कहा ना कि कई चेले तैयार कर लिए हैँ उसने अपने".. 
"तो?"... 
"कभी होली मिलन के नाम पर तो कभी इफ्तार पार्टी के नाम पर ये साहित्यकारों का सम्मेलन बुलवाता रहता है".. 
"तो क्या हुआ?...ये तो अच्छी बात है...हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए".. 
"माय फुट ...हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए"...
"अरे!...अन्दरखाते इन निजी कार्यक्रमों को गुपचुप तरीके से पलक झपकते ही सरकारी कार्यक्रम प्रोग्राम बना डालता है"...
"क्या मतलब?".. 
"गूगल या याहू ग्रुपस को मेल भेज-भेज के हम जैसे नए खिलाड़ियों को किसी मीटिंग या गोष्ठी में भाग लेने के लिए इनवाईट कर डालता है"...
"तो?"...
"जहाँ एक तरफ हम लोग इस लालच में पहुँच जाते हैँ कि चलो इसी बहाने बड़े लोगों से मिलना जुलना हो जाएगा....वहीं दूसरी तरफ ये सरकार से हमारे आने के एवज में यात्रा खर्च और हमारी फीस के फर्ज़ी बिल पेश कर पैसे ऐंठ लेता है"... 
"ओह!...
"आजकल एक नया ही शगूफा छोड़ा हुआ है पट्ठे ने"...
"क्या?"... 
"पता नहीं सरकारी अफसरों को क्या घुट्टी पिलाता है कि एक से एक टॉप का ऑडिटोरियम उसके एक इशारे पे मुफ्त में बुक हो जाता है".. 
"किसलिए?"...
"वहीं पर तो हिन्दी की सेवा के नाम पे ये 'घंटेश्वरनाथ' हर महीने किसी ना किसी को पुरस्कार दिलवा रहा है"... 
"ये तो बड़ी अच्छी बात है"..
"खाक!...अच्छी बात है...अंधा बाँटे रेवड़ियाँ...फिर फिर अपनों को देय"... 
"क्या मतलब?".. 
"हर बार अपने ही किसी खास बन्दे को कभी लैपटाप तो कभी कम्प्यूटर गिफ्ट दिलवा देता है"... 
"ओह!...दूसरों को हर महीने लैपटाप दिलवा रहा है और तुम्हें कभी लालीपाप भी दिलवाने की नहीं सोची?" 
"गम तो इसी बात का है"...
"इन प्रोग्रामों से नाम तो इसका होता है लेकिन जेब दूसरों की ढीली होती है"... 
"दूसरों की कैसे?"... 
"हर बार किसी मोटी पार्टी को चने के झाड़ पे चढा के ईनाम स्पांसर करवा डालता है...तो किसी से चाय-नाश्ते के बिल भरवा डालता है"... 
"अभी हाल ही में अपने एक बेटे को 'क ख ग' फिलम्स के नाम से एक कम्पनी खुलवा दी तो दूसरे से....
साहित्य को समर्पित एक वैबसाईट लाँच करवा दी"...
 

"इस सब से फायदा?"... 
"अरे!...वही कम्पनी उसके सभी कार्यक्रम के विडियो और स्टिल शूट करती है और उलटे सीधे बिल पेश कर सरकार को चूना लगती है"...
"ओह!...
"भुगतान तो खुद ही ने पास करना होता है सो...बिल क्लीयर होने में कोई दिक्कत भी पेश नहीं आती"...
"हम्म!...ये बात तो समझ में आ गई लेकिन वैब साईट से फायदा?"...
"अरे!...दूर की सोच रहा है वो...हमारी तरह ढीला नहीं है कि जब प्यास लगे तभी कुँआ खोदने की सोचें".. 
"क्या मतलब?"... 
"आने वाले समय में पैसा छापने की मशीन का काम करेगी वो वैब साईट"... 
"वो कैसे?".. 
"रोज़ाना दुनिया भर से लाखों लोग पहुँचेगे उसकी साईट पर".. 
"तो?"...
"यकीनन उनमें से कुछ बेवकूफ टाइप के भी होंगे जो बेकार की रागपट्टी सुनने के लिए शुल्क भी चुकाएंगे"...
"ओह!...
"कुछ मेरे-तेरे जैसे वेल्ले उस साईट पे आने वाली एड्स को क्लिक करके अपना भट्ठा बिठाएंगे और उन्ही के जरिए वो लाखों रुपया कमाएगा"..
"लेकिन इस काम में तो बरसों लग जाएंगे".. 
"तो क्या ?...वो नहीं तो उसकी आने वाली पीड़ियाँ तो ऐश करेंगी"... 
"बस यूँ समझ लो कि बढिया और उम्दा फसल के लालच में बीज डाल दिया है उसने बंजर खेत में"....  "देखते हैं कि पौधा फलदायी निकलता है कि नहीं"...
"वैसे इन कार्यक्रमों में आखिर होता क्या है?"... 
"खुद का एक दूसरे के द्वारा यशोगान"... 
"मतलब?".. 
"तू मेरी खुजा..मैं तेरी खुजाता हूँ की तर्ज पे सब लगे रहते हैँ एक दूसरे की तारीफ करने में".. 
"इसका मतलब खुद ही मियाँ मिट्ठू बन रहे होते हैँ?"...
"बिलकुल.. वहाँ जब इनको या इन जैसे कइयों को सुनता हूँ तो बहुत हँसी आती है"...
"वो किसलिए?"...
"अरे!..इस से ज़्यादा तो हमें आता है...हर बार हम नई रचना तो सुनाते हैँ कम से कम"...  
"और ये?...ये क्या सुनाते हैं?".. 
"हर कवि सम्मेलन में...हर मुशायरे में...हर राजनीतिक मंच पर पब्लिक डिमांड के नाम पर वही सुनाते हैँ जो बरसों पहले हिट हो चुका हो"...
"ट्रिंग ट्रिंग".. 
"ओह!..इस बार तो पक्का ...उसी का फोन होगा"...
"लो!...तुम खुद ही बात कर लो"... 
"न्न...नहीं"...
"इसमें घबराने की क्या बात है?...खा थोड़े ही जाएगा?...बेखौफ हो के बात करो और हाँ!...कहीं जाने के लिए बोले तो साफ मना कर देना"... 
"हम्म!... 
"हैलो"... 
"कौन?"... 
"क्या बात?...आवाज़ भी पहचाननी बन्द कर दी?"... 
"ओह!...आप...मुझे लगा कि शायद कोई और है"...
"हाँ भय्यी!..बड़े लेखक बन गए हो...अब हमारी आवाज़ भला क्यों पहचानने लगे?".. 
"नहीं जी!...ऐसी तो कोई बात नहीं है...आप तो मेरे गुरू हैँ...आपकी आवाज़ भला कैसे नहीं पहचानूँगा?".. 
"अच्छा!...तो फिर सुनो"...
"जी".. 
"कल शाम को क्या कर रहे हो?".. 
"कुछ खास नहीं"... 
"तो फिर ठीक पाँच बजे तालकटोरा स्टेडियम पहुँच जाना...तुमसे व्यंग्य पाठ कराना है"... 
"व्यंग्य पाठ?"...
"हाँ!...व्यंग्य पाठ"... 
"वो चक्रवर्ती कहाँ है?"...
"बीमार है...इसीलिए तो तुम्हें याद किया"..
"पैसे कितने मिलेंगे?"मैं मन पक्का कर के बोला... 
"मिलना-मिलाना तो कुछ खास है नहीं लेकिन हाँ...तुम्हारे फेवरेट 'हल्दीराम' हलवाई के यहाँ से चाय नाश्ते का इंतज़ाम है"...
"लेकिन मैंने तो आजकल डायटिंग शुरू की हुई है"... 
"तो?"...
"खाऊँगा-पीऊँगा नहीं तो कम से कम कुछ तो...
"अरे यार!..मैँ खुद कुछ नहीं कमा रहा...कसम से"...
"लेकिन मैँने फोकट में काम करना छोड़ दिया है"मेरा दृढ़ स्वर...
"सोच लो!...ऐसे मौके बार-बार नहीं मिलते...खुद...मंत्री जी ने खास तुम्हारी डिमांड की है"... 
"म्म..मंत्री जी ने?"...
"और नहीं तो क्या संतरी जी ने?"... 
"दरअसल!...बात ये है कि लालकिले वाले मुशायरे में तुमने उस विरोधी पार्टी के नेता की बखिया उधेड़ी थी ना"... 
"तो?"... 
"बस!...तभी से मुरीद हो गए हैँ तुम्हारे...सीधा कहने लगे कि तनेजा को ज़रूर बुलाना...घणा एण्डी लिखे सै"... 
"मंत्री जी ने खुद ऐसा कहा?"... 
"और नहीं तो क्या?" ...
"लेकिन मुझे तो दवाई लेने भी जाना था"... 
"और हाँ!...राखी सावंत का आईटम नम्बर भी रखवाया है"... 
"राखी सावंत का?"...
"हाँ भय्यी!...राखी सावंत का...खास...तुम्हारे लिए"...
"ठीक है!...तो फिर मैँ टाईम पे पहुँच जाऊँगा"...  
"और दवाई?".. 
"कोई बात नहीं...कुछ तबियत तो उसका नाम सुनते ही ठीक हो गई है" ... 
"हा हा हा ....और बाकि उसके ठुमके देख के अपने आप हो जाएगी"  
"जी!...बिलकुल"
***राजीव तनेजा***
 
नोट:यह कहानी पूर्ण रूप से काल्पनिक है।किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है

Rajiv Taneja
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ब्लागर सम्मेलनों की ऐसी की तैसी

हद हो गई ब्लागर सम्मेलनों की ...कोई यहाँ से बुला रहा है तो कोई वहाँ से पुकार रहा है... इनकी ऐसी की तैसी ....

मैं अकेली जान ...किसका घर आबाद करूँ और किसका बंटाधार करूँ?  . और फिर सारे यही कहते हैं की आ जाओ हमारी नगरी..हमारे द्वारे..

पण भैया ई तो पहले तनिक बता दिओ की टिकिट अपने पल्ले से खरीद के आवे के बिना टिकिट ही घोड़े के माफिक हिनहिनाते हुए सरपट दौड़े चले आएं?..

हाँ-हाँ!...सब जानत है हम...आप तो ईहे कहोगे न कि हमरे राज मे टिकिट-फिकेट का कौनु जरूरी नाहीं...

आप बस सरपट दौड़े चले आईए ...हम पूछता हूँ भाई कि... रेलवे हमरे बाप की है क्या?...और फिर हम कोनु को गाय-बलद या घोड़ा-खच्चर थोड़े ही हूँ कि बेलगाम हो के सरपट दौड़ा चला आऊँ?..

हम ज़रूर आऊँगा...बिल्कुल आऊँगा...बकायदा आऊँगा...गाजे-बाजे के साथ धूमधाम से आऊँगा...

लेकिन उसमे तो अभी थोड़ा टाइम लगेगा ना...वो क्या है कि सर्दी बहुत है भाई...अब एक ठौ कंबल या रज़ाई से अपना तो कुछ होने वाला नहीं...इसलिए हम अपने घर मे ही भले...

हां!...लेकिन मैं आऊँगा जरूर...इंतज़ार रहेगा ना?..

"मुझे तुम याद करना और मुझको याद आना तुम

मैं इक दिन लौट के आऊँगा ये मत भूल जाना तुम"...

हमारी गैरहाजिरी मे आप इन फोटुओं से ही काम चला लीजिये  और मौज लीजिये

 

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