बन्द दरवाज़ों का शहर- रश्मि रविजा
अभ्युदय-1- नरेंद्र कोहली(समीक्षा)
मिथकीय चरित्रों की जब भी कभी बात आती है तो सनातन धर्म में आस्था रखने वालों के बीच भगवान श्री राम, पहली पंक्ति में प्रमुखता से खड़े दिखाई देते हैं। बदलते समय के साथ अनेक लेखकों ने इस कथा पर अपने विवेक एवं श्रद्धानुसार कलम चलाई और अपनी सोच, समझ एवं समर्थता के हिसाब से उनमें कुछ ना कुछ परिवर्तन करते हुए, इसके किरदारों के फिर से चरित्र चित्रण किए। नतीजन...आज मूल कथा के एक समान होते हुए भी रामायण के कुल मिला कर लगभग तीन सौ से लेकर एक हज़ार तक विविध रूप पढ़ने को मिलते हैं। इनमें संस्कृत में रचित वाल्मीकि रामायण सबसे प्राचीन मानी जाती है। इसके अलावा अनेक अन्य भारतीय भाषाओं में भी राम कथा लिखी गयीं। हिंदी, तमिल,तेलुगु,उड़िया के अतिरिक्त संस्कृत,गुजराती, मलयालम, कन्नड, असमिया, नेपाली, उर्दू, अरबी, फारसी आदि भाषाएँ भी राम कथा के प्रभाव से वंचित नहीं रह पायीं।
राम कथा को इस कदर प्रसिद्धि मिली कि देश की सीमाएँ लांघ उसकी यशकीर्ति तिब्बत, पूर्वी तुर्किस्तान, इंडोनेशिया, नेपाल, जावा, बर्मा (म्यांम्मार), थाईलैंड के अलावा कई अनेक देशों तक जा पहुँची और थोड़े फेरबदल के साथ वहाँ भी नए सिरे से राम कथा को लिखा गया। कुछ विद्वानों का ऐसा भी मानना है कि ग्रीस के कवि होमर का प्राचीन काव्य इलियड, रोम के कवि नोनस की कृति डायोनीशिया तथा रामायण की कथा में अद्भुत समानता है। राम कथा को आधार बना कर अमीश त्रिपाठी ने हाल फिलहाल में अंग्रेज़ी भाषा में इस पर हॉलीवुड स्टाइल का तीन भागों में एक वृहद उपन्यास रचा है तो हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार श्री नरेन्द्र कोहली भी इस अद्भुत राम कथा के मोहपाश से बच नहीं पाए हैं।
दोस्तों.... आज मैं बात करने जा रहा हूँ श्री नरेन्द्र कोहली द्वारा रचित "अभ्युदय-1" की। इस पूरी कथा को उन्होंने दो भागों में संपूर्ण किया है। इस उपन्यास में उन्होंने देवताओं एवं राक्षसों को अलौकिक शक्तियों का स्वामी ना मानते हुए उनको आम इंसान के हिसाब से ही ट्रीट किया है।
उनके अनुसार बिना मेहनत के जब भ्रष्टाचार, दबंगई तथा ताकत के बल पर कुछ व्यक्तियों को अकृत धन की प्राप्ति होने लगी तो उनमें नैतिक एवं सामाजिक भावनाओं का ह्रास होने के चलते लालच, घमंड, वैभव, मदिरा सेवन, वासना, लंपटता तथा दंभ इत्यादि की उत्पत्ति हुई। अत्यधिक धन तथा शस्त्र ज्ञान के बल पर अत्याचार इस हद तक बढ़े कि ताकत के मद में चूर ऐसे अधर्मी लोगों द्वारा सरेआम मारपीट तथा छीनाझपटी होने लगी। अपने वर्चस्व को साबित करने के लिए राह चलते बलात्कार एवं हत्याएं कर, उन्हीं के नर मांस को खा जाने जैसी अमानवीय एवं पैशाचिक करतूतों को करने एवं शह देने वाले लोग ही अंततः राक्षस कहलाने लगे।
शांति से अपने परिश्रम एवं ईमानदारी द्वारा जीविकोपार्जन करने के इच्छुक लोगों को ऐसी राक्षसी प्रवृति वालों के द्वारा सताया जाना आम बात हो गयी। आमजन को ऋषियों के ज्ञान एवं बौद्धिक नेतृत्व से वंचित रखने एवं शस्त्र ज्ञान प्राप्त करने से रोकने के लिए शांत एवं एकांत स्थानों पर बने गुरुकुलों एवं आश्रमों को राक्षसों द्वारा भीषण रक्तपात के बाद जला कर तहस नहस किया जाने लगा कि ज्ञान प्राप्त करने के बाद कोई उनसे, उनके ग़लत कामों के प्रति तर्क अथवा विरोध ना करने लगे।
वंचितो की स्थिति में सुधार के अनेक मुद्दों को अपने में समेटे हुए इस उपन्यास में मूल कहानी है कि अपने वनवास के दौरान अलग अलग आश्रमों तथा गांवों में राम, किस तरह ऋषियों, आश्रम वासियों और आम जनजीवन को संगठित कर, शस्त्र शिक्षा देते हुए राक्षसों से लड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। पढ़ते वक्त कई स्थानों पर मुझे लगा कि शस्त्र शिक्षा एवं संगठन जैसी ज्ञान की बातों को अलग अलग आश्रमों एवं स्थानों पर बार बार घुमा फिरा कर बताया गया है। जिससे उपन्यास के बीच का हिस्सा थोड़ा बोझिल सा हो गया है जिसे संक्षेप में बता कर उपन्यास को थोड़ा और चुस्त दुरस्त किया जा सकता था। लेकिन हाँ!...श्रुपनखा का कहानी में आगमन होते ही उपन्यास एकदम रफ्तार पकड़ लेता है।
इस उपन्यास में कहानी है राक्षसी अत्याचारों से त्रस्त ऋषि विश्वामित्र के ऐसे राक्षसों के वध के लिए महाराजा दशरथ से उनके पुत्रों, राम एवं लक्षमण को मदद के रूप में माँगने की। इसमें कहानी है अहल्या के उद्धार से ले कर ताड़का एवं अन्य राक्षसों के वध, राम-सीता विवाह, कैकयी प्रकरण, राम वनवास, अगस्त्य ऋषि एवं कई अन्य उपकथाओं से ले कर सीता के हरण तक की। इतनी अधिक कथाओं के एक ही उपन्यास में होने की वजह से इसकी मोटाई तथा वज़न काफी बढ़ गया है। जिसकी वजह इसे ज़्यादा देर तक हाथों में थाम कर पढ़ना थोड़ा असुविधाजनक लगता है।
700 पृष्ठों के इस बड़े उपन्यास(पहला भाग) को पढ़ते वक्त कुछ स्थानों पर ऐसा भी भान होता है कि शायद लेखक ने कुछ स्थानों पर इसे स्वयं टाइप कर लिखने के बजाए किसी और से बोल कर इसे टाइप करवाया है क्योंकि कुछ जगहों पर शब्दों के सरस हिंदी में बहते हुए प्रवाह के बीच कर भोजपुरी अथवा मैथिली भाषा का कोई शब्द अचानक फुदक कर उछलते हुए कोई ऐसे सामने आ जाता है।
धाराप्रवाह लेखन से सुसज्जित इस उपन्यास को पढ़ने के बाद लेखक की इस मामले में भी तारीफ करनी होगी कि उन्होंने इसके हर किरदार के अच्छे या बुरे होने के पीछे की वजहों का, सहज मानवीय सोच के साथ मंथन करते हुए उसे तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया है।
700 पृष्ठों के इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण की कीमत ₹450/- रुपए है और इसके प्रकाशक हैं डायमंड बुक्स। उपन्यास का कवर बहुत पतला है। एक बार पढ़ने पर ही मुड़ कर गोल होने लगा। अंदर के कागजों की क्वालिटी ठीकठाक है।फ़ॉन्ट्स का साइज़ थोड़ा और बड़ा होना चाहिए था। इन कमियों की तरफ ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। आने वाले भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।
अमेरिका में 45 दिन- सोनरूपा विशाल
अक्कड़ बक्कड़- सुभाष चन्दर
कौन..किसकी..कहाँ सुनता है?
(डायनिंग टेबल पर क्रॉकरी सैट करते करते श्रीमती जी कैमरे से मुखातिब होते हुए।)
हाय फ्रैंडज़...कैसे हैं आप?
उम्मीद है कि बढ़िया ही होंगे। मैं भी एकदम फर्स्ट क्लास। और सुनाएँ..कैसे चल रहा है सब? सरकार ने भले ही लॉक डाउन खोल दिया है लेकिन अपनी चिंता तो भय्यी..हमें खुद ही करनी पड़ेगी। क्यों?...सही कहा ना मैंने?
दरअसल इस लॉक डाउन ने हमें बहुत कुछ सिखा और समझा दिया है। कई लोगों के नए यूट्यूब चैनल बन गए और कइयों के पुराने यूट्यूब चैनल फिर से रंवा हो.. एक्टिव हो गए। बहुत से लोगों ने वीडियो देख देख के बढ़िया खाना बनाने और खाने के साथ साथ यूट्यूब के ज़रिए लोगों को सिखाना भी शुरू कर दिया। मिठाई और खाना वगैरह तो छोड़ो.. हेयर कटिंग करना वगैरह भी खुद ही करना सीख लिया। यूँ समझ लीजिए कि इस लॉक डाउन में जहाँ लोगों ने बहुत कुछ अगर गंवाया है तो बहुत कुछ सीख कर कमाया भी है।
सैनीटाइज़र...मास्क और होम सैनिटाइज़ेशन जैसे नए नए धंधे सामने उभर आए हैं। अब आप ये कहेंगे कि उनमें भी अब कंपीटीशन हो गया है। जिस सैनिटाइज़र की बोतल पहले 1000-1100 में लाइन लगा के बिक रही थी वो अब छह- साढ़े छह सौ में धक्के खा रही है। तो ये सब तो भय्यी...होना ही था। शुरू शुरू में तो सभी चाँदी कूटते हैं। असली आटे दाल का भाव तो बाद में ही पता चलता है।
अब ये ले के चलो कि हमारे देश की आबादी बहुत है तो इस कारण ये तो लाज़मी ही है कि हर धंधे में कंपीटीशन ने तो खैर बढ़ना ही है लेकिन इससे आपको बिल्कुल भी घबराना नहीं है। जहाँ औरों को बिरियानी मिल रही है तो चिंता ना करें..आपको भी केसरी या फिर तवा पुलाव तो खैर...मिल ही जाएगा।
अरे!...हाँ...तवा पुलाव से याद आया कि आज तो मैं लंच में तवा पुलाव बनाने जा रही थी। कैसा लगता है आपको तवा पुलाव? ऐसे तो कल की दाल बची पड़ी है लेकिन मुझे ना...हमेशा फ्रैश ही खाने की आदत है। फ्रैश खाने की तो बात ही निराली है। पता नहीं लोग कैसे एक दो दिन पुराना..बचा हुआ खाना खा लेते हैं। और फिर मुझे तो सच्ची तवा पुलाव के साथ रायता ना बड़ा ही यम्मी लगता है और लगे भी क्यों ना? उसे आखिर बनाता ही कौन है? मैं बनाती हूँ जनाब...मैं और भला कौन बनाएगा? ये तो हमेशा किताबों में ही घुसे रहते हैं। एक मिनट...
"हाँ!...सुनो...आज कौन सी किताब पढ़ रहे हो?"
"अरे!...बड़ा मज़ेदार नॉवेल है अपने सुभाष चन्दर जी का "अक्कड़-बक्कड़"। पढ़ने वाला हँस हँस के पागल हो जाएगा इतना मज़ेदार लिखा है।"
"लेकिन तुम तो एकदम सीरियस हो के बता रहे हो।"
"अब इसमें में क्या कर सकता हूँ? ऊपरवाले से चौखटा ही ऐसा दिया है।"
"तो?...इसका मतलब तुम्हें हँसी आती ही नहीं है?"
"आती क्यों नहीं है?..बिल्कुल आती है...रोज़ ही किसी ना किसी बात पे आ जाती है।"
"कब?...मैंने तो तुम्हें कभी हँसते हुए नहीं देखा।"
"अरे!...मैं मन में हँस लेता हूँ ना। इसलिए तुम्हें नहीं पता चलता।"
"कमाल है...चलो!...ठीक है...तुम पढ़ो अपना आराम से।"
ये बंदा भी बताओ कैसा पल्ले पड़ गया है मेरे। हँसेगा तो वो भी मन में। बताओ भला कोई ऐसे कैसे मन में हँस सकता है? खैर छोड़ो...हम बात कर रहे थे "अक्कड़ बक्कड़" की ऊप्स!....सॉरी तवा पुलाव की तो चलिए आज मैं आपको तवा पुलाव बनाना सिखाती हूँ...आप भी क्या याद करेंगे कि किसी दिलदार से पाला पड़ा था। वैसे तो खैर आपने नोट किया ही होगा कि आजकल लोग दूसरों को कुछ भी सिखाने से कतराते हैं भले ही वो मोबाइल हो, कम्प्यूटर हो या फिर लैपटॉप हो। बताओ!...ये भी कोई बात हुई?
अगर आप में कोई हुनर... कोई टैलेंट ऊपरवाले ने आपको एज़ ए गिफ्ट दे दिया है तो उसे दूसरों में भी बाँटो लेकिन नहीं...उन्होंने तो अपने ज्ञान...अपने टैलेंट को अपने साथ...अपनी छाती पे बाँध के साथ ऊपर ले जाना है। बेवकूफों को ये नहीं पता चलता कि बाँटने से ज्ञान घटता नहीं बल्कि बढ़ता है। तो फ्रैंडज़ आप भी तवा पुलाव का ए टू ज़ैड सीखना चाहेंगे ना? चलिए!...ठीक है फिर हम शुरू करते हैं।
बढ़िया खाना बनाने का सबसे पहला रूल होता है कि सब ज़रूरी चीजों और मसालों को आप पहले ही किचन के प्लैटफॉर्म पर सजा लें। आपकी किचन बिल्कुल भी मैस्सी नहीं दिखनी चाहिए। दरअसल साफ सुथरी किचन में खाना बनाने का अपना अलग ही मज़ा है। दरअसल सफाई....चलिए!...छोड़िए...
सफाई की बात किसी अन्य वीडियो में। अभी अगर सफाई पर लैक्चर देना शुरू किया ना तो मेरा तवा पुलाव बस ऐसे ही बिना बने धरा का धरा रह जाएगा। चलिए!...अब हम मुद्दे से ना भटकते हुए सीधे काम की बात याने के तवा पुलाव की बात करते हैं।
तो सबसे पहले आप बढ़िया क्वालिटी के एक ग्लास बासमती चावल कम से कम आधा घँटा पहले भिगो के रख लें और अगर घर में बढ़िया वाले चावल ना हों तो आप टेंशन ना लें। आप नार्मल चावल भी इस्तेमाल कर सकते हैं। वैसे एक बात बताऊँ...ये बढ़िया और घटिया चावल की बात ना बस..मन का वहम है। असली स्वाद ना जीभ से ज़्यादा आपकी आँखों में होता है। अगर खाने की शक्ल अच्छी हो और आप उसे अच्छे मूड में खाएँ तो यकीन मानिए...आपको सब कुछ अच्छा ही अच्छा लगेगा।
खैर!... जब तक आपके चावल भीग रहे हैं...तब तक आप ज़रूरी सब्ज़ियों जैसे अलग अलग रंग की शिमला मिर्च, बारीक टुकड़ों में कटे हुए आलू और पनीर के टुकड़े,नमक, मिर्च और जीरे के अलावा हल्दी, गरम मसाला, तेज पत्ता, कसूरी मेथी और हींग, छोटी बड़ी इलायची वगैरह सब अपने आसपास ही तैयार कर के रख लें।
इसके बाद सब्ज़ियों में आप लाल, पीली और हरी वाली शिमला मिर्च को बारीक बारीक टुकड़ों में काट लें। ध्यान रहे कि आपने टुकड़े बारीक काटने हैं...उनके ये लंबे लंबे लच्छे नहीं बनाने हैं। आप तवा पुलाव बनाने जा रहे हैं ना कि चाउमीन या फिर कढ़ाही पनीर। उनकी रेसिपी किसी और दिन। आज हम सिर्फ और सिर्फ तवा पुलाव की बात करेंगे।
अब लगने को तो कई लोगों को लग सकता है कि लाल और पीली शिमला मिर्च तो बड़ी महँगी आती है। ये तो हमारा कूंडा करवाएगी या फिर भट्ठा बिठाएगी। तो फ्रैंडज़...ऐसे में आप इन दोनों रंगों की शिमला मिर्च को स्किप भी कर सकते हैं और वैसे भी इनसे स्वाद वगैरह तो कुछ खास बढ़ता नहीं है। बस दिल को ही मानसिक संतुष्टि होती है कि आप कुछ महँगी...कुछ रॉयल चीज़ खा रहे हो। आप सिर्फ सिंपल वाली हरी शिमला मिर्च भी इस्तेमाल कर सकते हैं। यकीन मानिए कि इससे स्वाद में उन्नीस बीस का भी फर्क नहीं पड़ेगा।
अब यहाँ पर कुछ लोग इस बात पर ऑब्जेक्शन उठा सकते हैं कि उन्हें शिमला मिर्च से एलर्जी है या फिर पनीर तो उन्हें जड़ से ही पसंद नहीं है और आप बात कर रही हैं उन्हें बनाने और खाने की? तो ऐसे में मैं अपने दोस्तों को ये कहना चाहूँगी कि भय्यी...अगर नहीं पसंद है तो मत खाइए। कौन सा ये एंटी रैबीज़ का इंजेक्शन है कि ठुकवान ही पड़ेगा?
उफ्फ!....हमारे यहाँ तो आज बहुत गर्मी है और ऊपर से ए.सी भी सही से काम नहीं कर रहा। इससे तो अच्छा मैं कल की पड़ी दाल के साथ दो फुल्के ही सेंक लेती। हाँ!...ये आईडिया बढ़िया है। मैं अभी फुल्के ही सेंक लेती हूँ। कौन सा मेरी बहुत बड़ी खुराक है जो मैं ये सब पंगे लेती फिरूँ? अभी पिछले साल ही तो तवा पुलाव खाया था पड़ोसियों के घर में।
तो फ्रैंडज़...जैसा कि आपने देखा...मेरा तवा पुलाव बनाने का प्रोग्राम तो फिलहाल कैंसिल हो ही चुका है तो अब आप भी आयोडेक्स मलिए और काम पर चलिए और हाँ!... अगर ज़्यादा ही मूड कर रहा हो तवा पुलाव खाने का तो आप यूट्यूब से दो चार रेसिपी देखिए और फिर अपनी मर्ज़ी से उनमें कुछ भी फेरबदल कर के बनाइए और खाइए। मैंने भी तो वहीं से देखना और फिर अपनी मर्ज़ी से कुछ घटा बढ़ा के बनाना था। वैसे भी ए टू ज़ेड आजकल भला कौन कहाँ किसकी सुनता और मानता है?
शार्ट वीडियो का लिंक
https://youtu.be/taWDE0W9H1c