फुगाटी का जूता- मनीष वैद्य

जब कभी ज़माने की विद्रूपताएं एवं विसंगतियां हमारे मन मस्तिष्क को उद्वेलित कर उसमें अपना घर बनाने लगती हैं तो हताशा और अवसाद में जीते हुए हम में से बहुत से लोग अपने मन की भड़ास को कभी आपस में बोल बतिया कर तो कभी चीख चिल्ला कर शांत कर लिया करते हैं। इसके ठीक विपरीत कोई लेखक या फिर कवि ह्रदय जब इस तरह की बातों से व्यथित होता है तो अपने मन की भावनाओं को अमली जाम पहनने के लिए वो शब्दों का...अपनी लेखनी का सहारा लेता है।


इस तरह की तमाम विसंगतियों से व्यथित हो जब कोई कलमकार अपनी बात...अपनी व्यथा...अपने मनोभावों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए अपनी कलम उठाता है तो स्वत: ही उसकी लेखनी में वही बात...वही क्रोध...वही कटुता...वही हताशा स्वतः ही परिलक्षित होने लगती है। 

दोस्तों...आज मैं बात कर रहा हूँ प्रसिद्ध कहानीकार मनीष वैद्य जी के कहानी संकलन 'फुगाटी का जूता' की। निरंतर होती तरक्की के बीच पिछड़ते चरित्रों...उनके दुखों..उनके संघर्षों को संजीदगी से ज़ुबान देती हैं मनीष वैद्य जी के इस संग्रह की कहानियाँ।

 इसको पढ़ते वक्त मुझे अपनी एक पुरानी कविता की कुछ पँक्तियाँ स्वतः ही  याद आ गयी...

"सोने नहीं देती है 
दिल की चौखट पे..
ज़मीर की ठकठक
उथल पुथल करते 
विचारों के जमघट
जब बेबस हो...
तमाशाई हो
देखता हूँ अन्याय हर कहीं"



उनके इस संकलन की किसी कहानी में आज के इस यूज़ एंड थ्रो वाले  युग में पुराने सामान की मरम्मत करने वालों का दर्द और उनकी व्यथा दिखाई देती है तो किसी कहानी में बूढ़ी हो चुकी आँखों के ज़रिए भारत-पाकिस्तान से जुड़ी पुरानी यादों को फिर से  जीते हुए ताज़ा किया गया है। इसी संग्रह की एक अन्य कहानी में बात है किसी बड़े नेता के किसी पिछड़े इलाके में होने वाले दौरे और उसकी वजह से संपूर्ण अफसरशाही और मीडिया में मची घालमेल मिश्रित अफरा तफरी की। इसमें बात है अफसरशाही के द्वारा आनन फानन में इलाके को जैसे तैसे चमकाने को ले कर होने वाली कवायद की। इसमें बात है गरीब आदमी की बात को कुचलने...उसे गंभीरता से ना लेते हुए उसका माखौल उड़ा...उसे दबाने की।

इस संग्रह में बात है फौजी अफसर और आदिवासी लड़की के प्रेम और फिर विवाह की। इसमें बात है पुरानी चिट्ठियों के ज़रिए अपनापन महसूसते बूढ़े झुर्रीदार चेहरे की। इसमें बात है चिट्ठी की बाट जोहती बूढ़ी आँखों और उसकी हताशा की। इसमें बात है फौज द्वारा शहीद घोषित किए जा चुके फौजी के इंतज़ार की।

इस संग्रह की कहानी 'फुगाटी का जूता' में बात है 'उलटे बाँस बरेली' कहावत को चरितार्थ करने और नई-पुरानी पीढ़ी की सोच में आते बदलाव की तो किसी कहानी में बात है बुंदेलखंड के ओरछा के राजा जूदेव के बेटों जुझार सिंह और हरदौल की। इसमें बात है कान के कच्चे जुझार सिंह के अपनी पत्नी चंपावती और भी हरदौल को ले कर उत्पन्न हुए शक की। इसमें बात है भाभी का मान बचाने को अपनी जान देने वाले हरदौल की। 

इस संग्रह की किसी कहानी में बात है खुद को भीड़ से अलग...ऊँचा मानने और फिर इस सबका भ्रम टूटने की। तो किसी कहानी में बात है मृत करार दिए जा चुके व्यक्ति के खुद को ज़िंदा साबित करने की जद्दोजहद और टूटते रिश्तों के ज़रिए होते विश्वास के हनन की। 

इसमें बात है मशीनीकरण और आधुनिकीकरण के ज़रिए तररकी की राह पर बढ़ रहे देश और उसमें निरंतर बेरोज़गार होते हाथ के हुनरमंद लोगों की व्यथा की। इसमें बात है चलतेपुर्ज़े लोगों के जुगाड़ के ज़रिए राजनीति में उतरने और झूठे वायदों के दम पर राजनैतिक रोटियाँ सेंकने की। 

इसमें बात है गरीबी हटाने के नाम पर सरकार द्वारा दलितों/भूमिहीनों में बाँटे जा रहे भूमि के पट्टों और इस खेल के सारे गोरखधंधे की। इसमें बात है तानाशाह के अत्याचारों और बग़ावती सुरों की। इसमें बात है तरक्की की राह पर समय के साथ बदलते गांवों और साथ ही बदलते लोक व्यवहार से भौंचक हुए एक निराश बूढ़े और उसकी ज़िद की। 

लेखक की भाषा प्रवाहमयी एवं किस्सागोई शैली की है। पढ़ते वक्त आप कहानी के साथ..उसकी रौ में बहते चले जाते हैं इस पूरे संग्रह की कहानियों को पढ़ते वक्त मैंने नोट किया कि ज़्यादातर कहानियों में दुःख...अवसाद और निराशा की बात है। कहानियों की विषय सामग्री और उनके ट्रीटमेंट से पता चलता है कि लेखक, ज़माने के तौर तरीके, चलन तथा व्यवस्था से खासा नाराज़ है। एक तरह से हम कह सकते हैं कि वैश्वीकरण के इस युग में सरकारी नीतियों और ज़माने भर से मोहभंग हुए लोगों का कहानी संग्रह है 'फुगाटी का जूता'। लेखक से निवेदन है कि पूरे संग्रह में निराशा और अवसाद की कहानियों के साथ अगर साकारात्मता का पुट लिए हुए भी कुछ कहानियाँ और होती तो उनका यह संग्रह और भी ज़्यादा दमदार होता।

132 पृष्ठीय बढ़िया क्वालिटी के इस उम्दा कहानी संग्रह के पेपरबैक संस्करण को छापा है बोधि प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र ₹120/- जो कि बहुत जायज़ है। कम कीमत पर एक बढ़िया कहानी संग्रह उपलब्ध कराने के लिए लेखक तथा प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई। आने वाले सुखद भविष्य के लिए दोनों को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

बन्द दरवाज़ों का शहर- रश्मि रविजा


अंतर्जाल पर जब हिंदी में लिखना और पढ़ना संभव हुआ तो सबसे पहले लिखने की सुविधा हमें ब्लॉग के ज़रिए मिली। ब्लॉग के प्लेटफार्म पर ही मेरी और मुझ जैसे कइयों की लेखन यात्रा शुरू हुई। ब्लॉग पर एक दूसरे के लेखन को पढ़ते, सराहते, कमियां निकालते और मठाधीषी करते हम लोग एक दूसरे के संपर्क में आए। बेशक एक दूसरे से हम लोग कभी ना मिले हों लेकिन अपने लेखन के ज़रिए हम लोग एक दूसरे से उसके नाम और काम(लेखन) से अवश्य परिचित थे। ऐसे में जब पता चला कि एक पुरानी ब्लॉगर साथी और आज के समय की एक सशक्त कहानीकार रश्मि रविजा जी का नया कहानी संग्रह "बन्द दरवाज़ों का शहर" आया है तो मैं खुद को उसे खरीदने से रोक नहीं सका। 

धाराप्रवाह शैली से लैस अपनी कहानियों के लिए रश्मि रविजा जी को विषय खोजने नहीं पड़ते। उनकी पारखी नज़र अपने आसपास के माहौल से ही चुन कर अपने लिए विषय एवं किरदार खुदबखुद छाँट लेती है। दरअसल... यतार्थ के धरातल पर टिकी कहानियों को पढ़ते वक्त लगता है कि कहीं ना कहीं हम खुद उन कहानियों से...किसी ना किसी रूप में खुद जुड़े हुए हैं। इस तरह के विषय हमें सहज...दिल के करीब एवं देखे भाले से लगते हैं। इसलिए हमें उनके साथ, अपना खुद का संबंध स्थापित करने में किसी किस्म की कोई परेशानी नहीं होती। आइए!...अब बात करते हैं उनके इस कहानी संग्रह की।

इस संकलन की एक कहानी में सपनों की बातें हैं कि हर जागता.. सोता इंसान सपने देखता है मगर सपने अगर सच हो जाएँ तो फिर उन्हें सपना कौन कहेगा? अपने सपनों के पूरा ना हो पाने की स्थिति में अक्सर हम अपने ही किसी नज़दीकी के ज़रिए अपने सपने के पूरे होने की आस लगा बैठते हैं। ऐसे में अगर हमारा अपना ही...हमारा सपना तोड़ चलता बने तो दिल पर क्या बीतती है? 

बचपन की शरारतें..झगड़े,  कब बड़े होने पर हौले हौले प्रेम में बदल जाते हैं...पता ही नहीं चलता। पता तब जा के चलता है जब बाज़ी हाथ से निकल चुकी या निकल रही होती है। ऐसे में बिछुड़ते वक्त एक कसक...एक मलाल तो रह ही जाता है मन में और ज़िंदगी भर हम उम्मीद का दामन थामे..अपने प्यार की बस एक झलक देखने की आस में बरसों जिए चले जाते हैं।

इस संकलन की एक अन्य कहानी में कॉलेज के समय से एक दूसरे के प्रेम में पड़े जोड़े के सामने जब जीवन में कैरियर बनाने की बात आती है तो अचानक ही पुरुष को अपने सपनों...अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के सामने स्त्री की इच्छाएँ...उसकी भावनाएँ गौण नज़र आने लगती हैं। ऐसे में क्या स्त्री का उस पुरुष के साथ बने रहना क्या सही होगा?
इसी संकलन की एक दूसरी कहानी में नशे की गर्त में डूबे युवा की मनोस्थिति का परत दर परत विश्लेषण है कि किस तरह  घर में किसी नयी संतान के जन्म के बाद पहले वाली संतान कुदरती तौर पर माँ- बाप की उपेक्षा का शिकार होने लगती है। ऐसे में उसे बहकते देर नहीं लगती और नौबत यहाँ तक पहुँच जाती है कि स्थिति , लाख संभाले नहीं संभालती। जब तक अभिभावक चेतते हैं बात बहुत आगे तक बढ़ चुकी होती है।

इसी संकलन की किसी कहानी में स्कूल की मामूली जान पहचान बरसों बाद कॉलेज की रीयूनियन पार्टी फिर से हुई मुलाकात पर प्यार में बदलने को बेताब हो उठती है। तो किसी कहानी में मैट्रो शहरों में खड़ी ऊँची ऊंची अट्टालिकाओं के बने कंक्रीट जंगल में सब इस कदर अपने कामों में व्यस्त हो जाते हैं कि किसी को किसी की सुध लेने की फुरसत ही नहीं होती। ऐसे में घरों में बचे खुचे लोग अपनी ज़िंदगी में स्थाई तौर पर बस चुकी बोरियत से इतने आज़िज़ आ जाते हैं कि सुकून के कुछ पलों को खोजने के लिए किसी ना किसी का साथ चाहने लगते हैं कि जिससे वे अपने मन की बात...अपने दिल की व्यथा कह सकें मगर हमारा समाज स्त्री-पुरुष की ऐसी दोस्ती को भली नज़र से भला कब देखता है?

इस संकलन की किसी कहानी में पढ़ाई पूरी करने के तीन साल बाद भी बेरोज़गारी की मार के चलते आस पड़ोस एवं नाते रिश्तेदारों के व्यंग्यबाणों को झेल रहे युवक की कशमकश उसका बनता काम बिगाड़ देती है। तो किसी कहानी में इश्क में धोखा खा चुकने के बाद, ब्याह में भी असफल हो चुकी युवती के दरवाजे पर फिर से दस्तक देता प्यार क्या उसके मन में फिर से उमंगे जवां कर पाता है? 

इसी संकलन की एक कहानी इस बात की तस्दीक करती है कि...हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती। दरअसल हम इंसानों को जो हासिल होता है, उसकी हम कद्र नहीं करते और जो हासिल नहीं होता, उसे पाने...या फिर उस जैसा बनने के लिए तड़पते रहते हैं। 

नयी बहु बेशक घर की जितनी भी लाडली हो लेकिन उसके विधवा होते ही उसको ले कर सबके रंग ढंग बदल जाते हैं और उसका दर्जा मालकिन से सीधा नौकरानी का हो उठता है। ऐसे में शारीरिक तथा मानसिक यंत्रणा झेलती उस स्त्री के जीवन में राहत के क्षण तभी आते हैं जब उसके अपने बच्चे लायक निकल आते हैं।

अच्छी नीयत के साथ देखे गए सपने ही जब बदलते वक्त के साथ नाकामयाबी में बदलने लगे और अपनों द्वारा ही जब उनकी...उनकी सपने की कद्र ना की जाए तो कितना दुख होता है। ऐसे में प्रोत्साहन की एक हलकी सी फुहार भी मन मस्तिष्क को फिर से ऊर्जावान कर उठती है।

इस कहानी संकलन में कुल 12 कहानियाँ हैं।  रश्मि रविजा जी की भाषा शैली ऐसी है कि एक बार शुरू करने पर वह खुद कहानी को पढ़वा ले जाती है। आखिर की कुछ कहानियाँ थोड़ी भागती सी लगी। उन पर थोड़ा तसल्लीबख्श ढंग से काम होना चाहिए था। काफ़ी जगहों पर अंग्रेज़ी तथा हिंदी के कुछ शब्द आपस में जुड़े हुए लगे जैसे:

जाकर, पाकर, लाकर, पीकर,भरकर, कसकर इत्यादि। मुझे लगता है कि सही शब्द में शब्द से  'कर' अलग लिखा जाना चाहिए। अब पता नहीं मैं सही हूँ या नहीं लेकिन मुझे इस तरह लिखे गए शब्द थोड़ा अखरे। कुछ जगहों पर अंग्रेज़ी शब्दों को इस तरह लिखा देखा कि उसके मायने ही बदल रहे थे जैसे..एक जगह लिखा था 'फिलिंग वेल' जिसका शाब्दिक अर्थ होता है कुएँ को भरना लेकिन असल में लेखिका कहना चाहती है 'फीलिंग वैल'-feeling well). एक जगह अंग्रेज़ी शब्द 'आयम' दिखाई दिया जिसे दरअसल 'आय एम' या फिर 'आई एम' होना चाहिए था। खैर!...ये सब छोटी छोटी कमियां हैं जिन्हें आने वाले संस्करणों तथा नयी किताबों में आराम से दूर किया जा सकता है।

180 पृष्ठों के इस कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹225/- जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

अभ्युदय-1- नरेंद्र कोहली(समीक्षा)

मिथकीय चरित्रों की जब भी कभी बात आती है तो सनातन धर्म में आस्था रखने वालों के बीच भगवान श्री राम, पहली पंक्ति में प्रमुखता से खड़े दिखाई देते हैं। बदलते समय के साथ अनेक लेखकों ने इस कथा पर अपने विवेक एवं श्रद्धानुसार कलम चलाई और अपनी सोच, समझ एवं समर्थता के हिसाब से उनमें कुछ ना कुछ परिवर्तन करते हुए, इसके किरदारों के फिर से चरित्र चित्रण किए। नतीजन...आज मूल कथा के एक समान होते हुए भी रामायण के कुल मिला कर लगभग तीन सौ से लेकर एक हज़ार तक विविध रूप पढ़ने को मिलते हैं। इनमें संस्कृत में रचित वाल्मीकि रामायण सबसे प्राचीन मानी जाती है। इसके अलावा अनेक अन्य भारतीय भाषाओं में भी राम कथा लिखी गयीं। हिंदी, तमिल,तेलुगु,उड़िया के अतिरिक्त  संस्कृत,गुजराती, मलयालम, कन्नड, असमिया, नेपाली, उर्दू, अरबी, फारसी आदि भाषाएँ भी राम कथा के प्रभाव से वंचित नहीं रह पायीं।

राम कथा को इस कदर प्रसिद्धि मिली कि देश की सीमाएँ लांघ उसकी यशकीर्ति तिब्बत, पूर्वी तुर्किस्तान, इंडोनेशिया, नेपाल, जावा, बर्मा (म्यांम्मार), थाईलैंड के अलावा कई अनेक देशों तक जा पहुँची और थोड़े फेरबदल के साथ वहाँ भी नए सिरे से राम कथा को लिखा गया। कुछ विद्वानों का ऐसा भी मानना है कि ग्रीस के कवि होमर का प्राचीन काव्य इलियड, रोम के कवि नोनस की कृति डायोनीशिया तथा रामायण की कथा में अद्भुत समानता है। राम कथा को आधार बना कर अमीश त्रिपाठी ने हाल फिलहाल में अंग्रेज़ी भाषा में इस पर हॉलीवुड स्टाइल का तीन भागों में एक वृहद उपन्यास रचा है तो हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार श्री नरेन्द्र कोहली भी इस अद्भुत राम कथा के मोहपाश से बच नहीं पाए हैं।

दोस्तों.... आज मैं बात करने जा रहा हूँ श्री नरेन्द्र कोहली द्वारा रचित "अभ्युदय-1" की। इस पूरी कथा को उन्होंने दो भागों में संपूर्ण किया है। इस उपन्यास में उन्होंने  देवताओं एवं राक्षसों को अलौकिक शक्तियों का स्वामी ना मानते हुए उनको आम इंसान के हिसाब से ही ट्रीट किया है। 

उनके अनुसार बिना मेहनत के जब भ्रष्टाचार, दबंगई तथा ताकत के बल पर कुछ व्यक्तियों को अकृत धन की प्राप्ति होने लगी तो उनमें नैतिक एवं सामाजिक भावनाओं का ह्रास होने के चलते लालच, घमंड, वैभव, मदिरा सेवन, वासना, लंपटता तथा दंभ इत्यादि की उत्पत्ति हुई। अत्यधिक धन तथा शस्त्र ज्ञान के बल पर अत्याचार इस हद तक बढ़े कि ताकत के मद में चूर ऐसे अधर्मी लोगों द्वारा सरेआम मारपीट तथा छीनाझपटी होने लगी। अपने वर्चस्व को साबित करने के लिए राह चलते बलात्कार एवं हत्याएं कर, उन्हीं के नर मांस को खा जाने जैसी अमानवीय एवं पैशाचिक करतूतों को करने एवं शह देने वाले लोग ही अंततः राक्षस कहलाने लगे।

शांति से अपने परिश्रम एवं ईमानदारी द्वारा जीविकोपार्जन करने के इच्छुक लोगों को ऐसी राक्षसी प्रवृति वालों के द्वारा सताया जाना आम बात हो गयी। आमजन को ऋषियों के ज्ञान एवं बौद्धिक नेतृत्व से वंचित रखने एवं शस्त्र ज्ञान प्राप्त करने से रोकने के लिए शांत एवं एकांत स्थानों पर बने गुरुकुलों एवं आश्रमों को राक्षसों द्वारा भीषण रक्तपात के बाद जला कर तहस नहस किया जाने लगा कि ज्ञान प्राप्त करने के बाद कोई उनसे, उनके ग़लत कामों के प्रति तर्क अथवा विरोध ना करने लगे।

वंचितो की स्थिति में सुधार के अनेक मुद्दों को अपने में समेटे हुए इस उपन्यास में मूल कहानी है कि अपने वनवास के दौरान अलग अलग आश्रमों तथा गांवों में राम,  किस तरह ऋषियों, आश्रम वासियों और आम जनजीवन को संगठित कर, शस्त्र शिक्षा देते हुए राक्षसों से लड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। पढ़ते वक्त कई स्थानों पर मुझे लगा कि शस्त्र शिक्षा एवं संगठन जैसी ज्ञान की बातों को अलग अलग आश्रमों एवं स्थानों पर बार बार घुमा फिरा कर बताया गया है। जिससे उपन्यास के बीच का हिस्सा थोड़ा बोझिल सा हो गया है जिसे संक्षेप में बता कर उपन्यास को थोड़ा और चुस्त दुरस्त किया जा सकता था। लेकिन हाँ!...श्रुपनखा का कहानी में आगमन होते ही उपन्यास एकदम रफ्तार पकड़ लेता है।

इस उपन्यास में कहानी है राक्षसी अत्याचारों से त्रस्त ऋषि विश्वामित्र के ऐसे राक्षसों के वध के लिए  महाराजा दशरथ से उनके पुत्रों, राम एवं लक्षमण को मदद के रूप में माँगने की। इसमें कहानी है अहल्या के उद्धार से ले कर ताड़का एवं अन्य राक्षसों के वध, राम-सीता विवाह, कैकयी प्रकरण, राम वनवास, अगस्त्य ऋषि एवं  कई अन्य उपकथाओं से ले कर सीता के हरण तक की। इतनी अधिक कथाओं के एक ही उपन्यास में होने की वजह से इसकी मोटाई तथा वज़न काफी बढ़ गया है। जिसकी वजह इसे ज़्यादा देर तक हाथों में थाम कर पढ़ना थोड़ा असुविधाजनक लगता है।

700 पृष्ठों के इस बड़े उपन्यास(पहला भाग) को पढ़ते वक्त कुछ स्थानों पर ऐसा भी भान होता है कि शायद लेखक ने कुछ स्थानों पर इसे स्वयं टाइप कर लिखने के बजाए किसी और से बोल कर इसे टाइप करवाया है क्योंकि कुछ जगहों पर शब्दों के सरस हिंदी में बहते हुए प्रवाह के बीच कर भोजपुरी अथवा मैथिली भाषा का कोई शब्द अचानक फुदक कर उछलते हुए कोई ऐसे सामने आ जाता है।

धाराप्रवाह लेखन से सुसज्जित इस उपन्यास को पढ़ने के बाद लेखक की इस मामले में भी तारीफ करनी होगी कि उन्होंने इसके हर किरदार के अच्छे या बुरे होने के पीछे की वजहों का, सहज मानवीय सोच के साथ मंथन करते हुए उसे तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया है।

700 पृष्ठों के इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण की कीमत ₹450/- रुपए है और इसके प्रकाशक हैं डायमंड बुक्स। उपन्यास का कवर बहुत पतला है। एक बार पढ़ने पर ही मुड़ कर गोल होने लगा। अंदर के कागजों की क्वालिटी ठीकठाक है।फ़ॉन्ट्स का साइज़ थोड़ा और बड़ा होना चाहिए था। इन कमियों की तरफ ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। आने वाले भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।


अमेरिका में 45 दिन- सोनरूपा विशाल


किसी भी देश, उसकी सभ्यता, उसके रहन सहन..वहाँ के जनजीवन के बारे में जब आप जानना चाहते हैं तो आपके सामने दो ऑप्शन होते हैं। पहला ऑप्शन यह कि आप खुद वहाँ जा कर रहें और अपनी आँखों से...अपने तन मन से उस देश...उस जगह की खूबसूरती...उस जगह के अपनेपन को महसूस करें। दूसरा ऑप्शन यह होता है कि आप वहाँ के बारे में किसी ऐसे व्यक्ति से जानें जो वहाँ पर कुछ वक्त बिता चुका हो। 

अब ये तो ज़रूरी नहीं कि आपकी किस्मत इतनी अच्छी हो कि आप चाहें और तुरंत ऐसा व्यक्ति  आपके सामने हाज़िर नाज़िर हो जाए और अगर हो भी जाए तो ये कतई ज़रूरी नहीं कि वह आपको...अपने अनुभव..आपकी ही सुविधानुसार..आपके द्वारा ही तय किए गए समय के मुताबिक अपने अनुभव आपको सुनाने को बेताब हो। यहाँ ये बात काबिल ए ग़ौर है कि बेताब व्यक्ति ही आपके सामने  खुले मन और खुले दिल से अपने दिल की...अपने मन की बात रख सकता है।

ऐसे में हमारे सामने ये दुविधा उत्पन्न हो जाती है कि अव्वल तो ऐसे आदमी को ढूंढें कहाँ से और चलो..अगर घणी मशक्कत के बार अगर ऐसा मानुस मिल भी गया तो क्या गारेंटी है कि वह अपने अनुभव सुनाने को हमारी ही जितनी उत्कंठा और बेताबी को महसूस कर रहा होगा? ऐसे में काम भी बन जाए और लाठी भी ना टूटे, इसके लिए बढ़िया यही होगा है कि हम किसी के लिखे यात्रा वृतांत को पढ़ें। 

अब उस यात्रा वृतांत को लिखने वाले ने खामख्वाह ही तो लिख नहीं डाला होगा। जब उसके जज़्बातों ने मन की चारदीवारी से बाहर निकल औरों को भी अपने अनुभव का साझीदार बना डालने की ठानी होगी, तभी उसने अपने कीमती समय में  से समय निकाल अपने भावों को...अपने अनुभवों को...अपने उदगारों को अपनी लेखनी के ज़रिए पहले शब्दों के रूप में और फिर उन्हीं शब्दों को किताब का रूप दिया होगा।

दोस्तों...आज मैं बात कर रहा हूँ प्रसिद्ध कवियत्री सोनरूपा विशाल जी के द्वारा लिखे गए "अमेरिका में 45 दिन" नामक यात्रा वृत्तांत की। इस किताब में 1980 में अमेरिका जा कर बस गए भारतीयों द्वारा स्थापित 'अंतराष्ट्रीय हिंदी समिति' द्वारा आयोजित उनके अमेरिका और कनाडा के अलग अलग शहरों में हुए 24 कवि सम्मेलनों और उनके चक्कर में हुए 45 दिन के प्रवास की बातें हैं। इस सफ़र में उनके साथी थे हास्य व्यंग्य के प्रसिद्ध मंचीय कवि सर्वेश अस्थाना और मुम्बई से गौरव शर्मा। मूलतः कवियत्री होने की वजह से उनके लेखन में जगह जगह पद्य की झलक भी दिखाई देती है। 

उनकी इस यात्रा संस्मरण में ज़रिए हम अमेरिका के डैलस, इंडियाना पोलीस, डेट्रॉयट, डेटन, शिकागो, टोलीडो और क्वींस लैंड आदि शहरों के बारे में जान पाते हैं कि किस तरह अमेरिका के विभिन्न शहरों में भारतीय अपने अथक परिश्रम के बल पर आज उस देश का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन बैठे हैं और वहाँ पर अपने देश की संस्कृति तथा अपने देश के रीति रिवाजों को शिद्दत के साथ संजोए बैठे हैं। 

बेशक अमेरिका में रहने वाले भारतीयों की वेशभूषा पर पाश्चात्य की झलक ने अपना थोड़ा बहुत असर दिखाया हो लेकिन अपनी मिट्टी से अपने जुड़ाव...अपने लगाव की वजह से तीज त्योहारों के मौके पर वे अपने भारतीय परिधानों को पहनना नहीं भूलते हैं। देसी व्यंजनों और उनके तड़के की महक अब भी उनकी रसोई से निकल अपने आसपास के वातावरण को महकाती है।

इस वृतांत में उन्होंने बात की अपने प्रवास के दौरान आने वाले विभिन्न शहरों और उनकी खासियतों की। उन्होंने बात की कोलंबस में बसे उर्दू पसंद करने वाले पाकिस्तानी और भारतीय श्रोताओं की। उन्होंने बात की अटलांटा के युवा वालेंटियर्स और हिंदी के प्रति उनके लगाव की। उन्होंने बात की वहाँ पढ़ाई जाने वाली हिंदी और वहाँ के स्वामी नारायण मंदिर की।उनकी इस किताब से एक और खासियत अमेरिका के मंदिरों की पता चली कि वहाँ एक ही मंदिर में साथ साथ भारत के सभी भगवानों की मूर्तियां विराजमान होती हैं भले ही वह दक्षिणी राज्यों में पूजे जाने वाले  कोई भगवान हों अथवा भारत के किसी अन्य हिस्से के। 

इस किताब में उन्होंने बात की अमेरिका और कनाडा के दोनों तरफ से बहते नियाग्रा प्रपात की। इसमें बात है नैशविल, पिट्सबर्ग, हैरिसबर्ग, फिलाडेल्फिया, फीनिक्स और न्यूयॉर्क आदि शहरों की। इसमें बात है 
बोस्टन, वाशिंगटन, रिचमंड और रालेह की। उन्हीं की किताब से जाना की ह्यूस्टन के डाउन टाउन और सिएटल की ख़ासियत वहाँ के टनल्स हैं। वहाँ गर्मी से बचने के पूरा शहर ज़मीन के ऊपर और आवाजाही के लिए टनल्स ज़मीन के नीचे बनी हुई हैं।

इस किताब के ज़रिए हमें  पता चलता है कि अमेरिका में होने वाले किसी भी शादी अथवा रिसैप्शन में खाना और ब्रंच तो मेज़बान देते हैं लेकिन  होटल और कार रेंट वगैरह का खर्चा मेहमान खुद वहन करते हैं। और बहुत महँगा देश होने की वजह से वहाँ पर घर-दफ़्तर की सफाई से ले कर अपने आसपास उग आई बेतरतीब घास काटने तक के काम खुद ही करने पड़ते हैं लेकिन इस स्वावलंबन और आत्मनिर्भर होने के चक्कर में सब वहाँ आत्मकेंद्रित से होते जा रहे हैं। 

आमतौर पर कवि सम्मेलनों में भारी भीड़ का समावेश होता है लेकिन जब एक कवि सम्मेलन के लिए श्रोताओं की भारी कमी पड़ गयी तो भी इन  कवियों की तिकड़ी की दाद देनी होगी कि इन्होनें कार्यक्रम को कैंसिल करने के बजाय आयोजक का मनोबल बढ़ाना उचित समझा और महज़ 16 श्रोताओं के लिए भी पूरे मनोयोग से कार्यक्रम किया। 

इस किताब के ज़रिए पता लगा क्लीवलैंड के नज़दीक एक आदिम प्रवृत्ति वाले गांव की जो आज भी सरकार द्वारा प्रदत्त बिजली और तमाम तरह की आधुनिक सुविधाओं से दूर है। वहाँ पर आज भी बैलों द्वारा ही खेतों को जोता जाता है तथा लैंप द्वारा घरों में रौशनी की जाती है। अब चूंकि वे सरकार द्वारा दी जाने वाली किसी भी सुविधा का उपयोग नहीं करते हैं तो टैक्स भी नहीं देते हैं। इसके ठीक विपरीत हमारे देश में बहुत सी सरकारी सुविधाओं का प्रयोग करते हुए भी बहुत से लोग डायरेक्ट टैक्स के रूप में सरकार को धेला तक नहीं थमाते हैं।

इसी किताब से हमें पता चलता है कि हमारे यहाँ लोग जबकि ठीकठाक...ज़िंदा...स्वस्थ आदमी की भी परवाह नहीं करते और बेधड़क अपनी गाड़ी उन पर चढ़ा देते हैं वहीं अमेरिका में विकलांगों और बच्चों और जानवरों तक की तरफ भी इस हद तक ध्यान दिया जाता है कि जिस कॉलोनी में ऑटिज़्म की बीमारी ग्रस्त अगर कोई बच्चा रहता है तो कॉलोनी के बाहर एक बोर्ड लगा दिया जाता है 'ऑटिज़्म चाइल्ड' के नाम से कि वहाँ चालक गाड़ी धीरे से चलाएँ।

 इस यात्रा वृतांत को पढ़ते वक्त दो बार सुखद एहसास से मैं रूबरू हुआ जब इसमें मुझे हमारे समय के दो महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों...तेजेन्द्र शर्मा और सुधा ओम ढींगरा जी का जिक्र मिला। पहली बार तब, जब बारिश के बीच जॉन एफ कैनेडी की कब्र देखने का कार्यक्रम और वहाँ की पार्किंग में गाड़ियों की भीड़ की बात हुई कि उसमें प्रख्यात साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा जी का उनकी कहानी 'ओवर फ्लो' (जो हंस पत्रिका में छपी थी) का जिक्र आया कि उसमें भी बारिश और क्रेमेटोरियम का जिक्र है। और दूसरी बार तब जब अमेरिका में रह रही विख्यात लेखिका सुधा ओम ढींगरा जी से उनकी मुलाक़ात और उनसे हुए लेखिका के साक्षात्कार को उन्होंने अपने इस यात्रा वृतांत का हिस्सा बनाया। 

इस किताब में लेखिका ने कई स्थानों पर अपने अमेरिका प्रवास के फोटो भी लगाए हैं जो किताब के कंटैंट को विश्वसनीय तो बनाते हैं मगर उन फोटोग्राफ्स को किताब में स्थान देते वक्त प्रकाशक से चूक हो गयी है कि उसने फोटोग्राफ्स की ब्राइटनेस और क्लीयरिटी पर ध्यान नहीं दिया जिसकी वजह से ज़्यादातर फोटो एकदम काले आए  हैं जिसकी वजह से किताब की साख पर एक छोटा सा ही सही मगर बट्टा तो लगता है। उम्मीद है कि किताब के आने वाले संस्करणों को इस तरह की त्रुटियों से मुक्त रखा जाएगा।
 
अगर आप अमेरिका और वहाँ के शहरों के बारे में  जानने और उसे ले कर अपने मन में फैली हुई भ्रांतियों को दूर करने के इच्छुक है तो सरल...प्रवाहमयी भाषा में लिखी गयी यह किताब आपके मतलब की है। 120 पृष्ठीय इस यात्रा वृतांत की किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म ब्लू ने और इसका बहुत ही जायज़ मूल्य मात्र ₹100/- रखा गया है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

अक्कड़ बक्कड़- सुभाष चन्दर

आम तौर पर हमारे तथाकथित सभ्य समाज दो तरह की प्रजातियाँ पाई जाती हैं। एक कामकाजी लोगों की और दूसरी निठल्लों की। हमारे यहाँ कामकाजी होने से ये तात्पर्य नहीं है कि...बंदा कोई ना कोई काम करता हो या काम के चक्कर में किसी ना किसी हिल्ले से लगा हो अर्थात व्यस्त रहता हो बल्कि हमारे यहाँ कामकाजी का मतलब सिर्फ और सिर्फ ऐसे व्यक्ति से है जो अपने काम के ज़रिए पैसा कमा रहा हो। ऐसे व्यक्ति जो किसी ना किसी काम में व्यस्त तो रहते हों  लेकिन उससे धनोपार्जन बिल्कुल भी ना होता हो तो उन्हें कामकाजी नहीं बल्कि वेल्ला या फिर निठल्ला भी कहा जाता है।

ऐसे लोगों के लिए पुराने लोगों को कई बार कहते सुना था कि खाली बैठे आदमी का दिमाग शैतान का होता है। उसे हर वक्त कोई ना कोई शरारत..कोई ना कोई खुराफ़ात ही सूझती रहती है। अब बंदा कुछ करेगा धरेगा नहीं तो भी तो उसे किसी ना किसी तरीके अपना समय तो व्यतीत करना ही है। तो ऐसे में इस तरह की प्रजाति के लोगों को कोई ना कोई शरारत...कोई ना कोई खुराफ़ात...कोई ना कोई शैतानी अवश्य सूझती है जिससे कि दूसरे को परेशान और खुद का मनोरंजन किया जा सके।

                  ऐसे लोगों पर ना शहरों का...ना कस्बों का और ना ही गांवों का एकाधिकार पाया जाता है। इस तरह के निठल्ले लोग सर्वत्र याने के हर तरफ...हर दिशा में पाए जाते हैं। ऐसे ही वेल्ले लोगों को ध्यानाकर्षण का केंद्र बना कर सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार सुभाष चन्दर जी ने अपने व्यंग्य उपन्यास "अक्कड़ बक्कड़" का पूरा ताना बाना रचा है। 

इस उपन्यास में कहानी है नंगला नाम के एक गांव की जिसे जलन वश अन्य गांवों वालों के द्वारा कंगलों का नंगला भी कहा जाता है। आतिथ्य देवो भव की तर्ज पर इस गांव के निवासी अपने गांव में आने वाले लोगों का फजीहत की शक्ल में स्वागत करने से कतई नहीं चूकते हैं। निठल्ले युवाओं में ठरकीपना, लालच, चुगली तथा मारपीट जैसी सहज सुलभ इच्छाओं एवं खासियत का स्वत: ही प्रचुर मात्रा में समावेश हो जाता है। इस गांव में हर बुराई..हर कमी को तर्कसंगत ढंग से एक उपलब्धि के तौर पर लिया जाता है और बुरे व्यक्ति का सर्वसम्मति से अपने सामर्थ्यनुसार यशोगान तथा महिमामंडन भी किया जाता है।

इस एक उपन्यास के ज़रिए उन्होंने हमारे पूरे ग्रामीण  एवं कस्बाई समाज का नक्शा हमारे सामने हूबहू उतार के रख दिया है। जहाँ एक तरफ उनके उपन्यास में मारपीट, दबंगई, हफ्ता वसूली, अक्खड़पने जैसे सहज आकर्षणों के चलते गांव देहात के युवाओं में पुलसिया नौकरी की तरफ रुझान पैदा होने की बात है तो वहीं दूसरी तरफ इसमें आदर्श ग्राम जैसी थोथी सरकारी घोषणाएं, सफाई, कीचड़..बदबू से बदबदाती कच्ची नालियाँ की पोल खोलती पंक्तियाँ भी हैं। उनकी पारखी नज़र से सरकारी विद्यालयों की दुर्दशा और उनमें अध्यापकों की गैरहाज़िरी भी बच नहीं पायी है।

इसमें गांव- कस्बों की टूटी सड़कों के साथ साथ  बिजली की लगातार चलती आंखमिचौली की बात है तो इसमें अस्पतालों, डॉक्टरों और मेडिकल सुविधाओं की कमी का जिक्र भी है। इसमें गरीबी, बेरोज़गारी, लूटमार, ठगी, राहजनी इत्यादि का  वर्णन है तो उसी ठसके के साथ इसमें विकास के नाम पर धांधली और उसमें गांव के मुखियाओं का कमीशन को लालायित होना भी है। इसमें बेवजह मांग से उत्पन्न होता भ्रष्टाचार है तो भ्रष्टाचार की वजह से राजनीति में पदार्पण का सहज आकर्षण भी अपने चर्मोत्कर्ष पर है। इसमें भाइयों के आपस के झगड़े और उन झगड़ों से फ़ायदा उठा, उन्हें शातिर किस्म के कमीने और काइयां वकीलों के चंगुल में फँसा कर फायदा उठाते  बिचौलिए भी हैं। 


इसमें भारतीय रेल और उसकी एक्प्रेस ट्रेनों तथा जनरल बोगी की दुर्दशा है तो इसमें बिना टिकट यात्रियों, ठगों तथा लंपटों की वजह से छेड़खानी का शिकार होती युवतियों तथा प्रौढ़ाओं का भी विस्तार से वर्णन है। इसमें अगर चलते पुर्ज़े और मजनूँ टाइप के आवारागर्द लड़के हैं तो चालू किस्म की चुलबुलाती लड़कियाँ भी कम नहीं हैं। इसमें चुनाव और उसके ज़रिए  सरकारी पैसे से अपना..खुद का विकास करने की मंशा वाले लोग हैं तो दूसरी तरफ चुनावों में मुफ्त की दारू और साड़ी वगैरह पाने के इच्छुक भी बहुतेरे हैं। इसमें चुनावों के दौरान पनपता जातिगत संघर्ष है तो इसमें जुगाड़ू, खुराफ़ाती,ऐय्याश, दबंग लोगों को महिमामंडित किया जाना भी है। इसमें पुलिस की जबरन वसूली, उनकी दबंगई, उनकी आपसी खींचतान और पुलसिया पैंतरे भी कम नहीं हैं।

 बहुत ही रोचक अंदाज़ में लिखे गए इस धाराप्रवाह उपन्यास का हर पृष्ठ यकीन मानिए आपको हँसी के..आनंद के कुछ ना कुछ पल अवश्य दे कर जाएगा। हालांकि इस उपन्यास में एक किरदार की जोधपुर यात्रा के आने जाने का वर्णन मुझे थोड़ा लंबा और खिंचा हुआ लगा जिसे थोड़ा छोटा किया जा सकता था लेकिन इस बात के लिए भी लेखक बधाई के पात्र हैं कि उन पृष्ठों को भी उन्होंने उबाऊ नहीं होने दिया है और किसी ना किसी रूप में, उन्हीं पृष्ठों में हमारे समूचे कस्बाई भारत का एक खाका सा हमारे सामने बहुत ही सहज एवं सरल ढंग से रख दिया है। 

अपनी पंक्तियों और कथानक में "रागदरबारी" शैली की झलक दिखाते इस मज़ेदार उपन्यास को पढ़ने के बाद सहज ही विश्वास होने लगता है कि हमारे देश में भी ब्लैक ह्यूमर लिखने वाले दिग्गज अब भी मौजूद हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि उनके इस उपन्यास पर जल्द ही कोई वेब सीरीज़ या फिर सीमित श्रृंखलाओं का कोई सीरियल बनता दिखे।

160 पृष्ठीय इस मज़ेदार संग्रहणीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और उसका बहुत ही जायज़ मूल्य ₹200/- मात्र रखा गया है जिसके लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

कौन..किसकी..कहाँ सुनता है?


(डायनिंग टेबल पर क्रॉकरी सैट करते करते श्रीमती जी कैमरे से मुखातिब होते हुए।)

हाय फ्रैंडज़...कैसे हैं आप?
उम्मीद है कि बढ़िया ही होंगे। मैं भी एकदम फर्स्ट क्लास। और सुनाएँ..कैसे चल रहा है सब? सरकार ने भले ही लॉक डाउन खोल दिया है लेकिन अपनी चिंता तो भय्यी..हमें खुद ही करनी पड़ेगी। क्यों?...सही कहा ना मैंने?

दरअसल इस लॉक डाउन ने हमें बहुत कुछ सिखा और समझा दिया है। कई लोगों के नए यूट्यूब चैनल बन गए और कइयों के पुराने यूट्यूब चैनल फिर से रंवा हो.. एक्टिव हो गए। बहुत से लोगों ने वीडियो देख देख के बढ़िया खाना बनाने और खाने के साथ साथ यूट्यूब के ज़रिए लोगों को सिखाना भी शुरू कर दिया। मिठाई और खाना वगैरह तो छोड़ो.. हेयर कटिंग करना वगैरह भी खुद ही करना सीख लिया। यूँ समझ लीजिए कि इस लॉक डाउन में जहाँ लोगों ने बहुत कुछ अगर गंवाया है तो बहुत कुछ सीख कर कमाया भी है।

सैनीटाइज़र...मास्क और होम सैनिटाइज़ेशन जैसे नए नए धंधे सामने उभर आए हैं। अब आप ये कहेंगे कि उनमें भी अब कंपीटीशन हो गया है। जिस सैनिटाइज़र की बोतल पहले 1000-1100 में लाइन लगा के बिक रही थी वो अब छह- साढ़े छह सौ में धक्के खा रही है। तो ये सब तो भय्यी...होना ही था। शुरू शुरू में तो सभी चाँदी कूटते हैं। असली आटे दाल का भाव तो बाद में ही पता चलता है।

अब ये ले के चलो कि हमारे देश की आबादी बहुत है तो इस कारण ये तो लाज़मी ही है कि हर धंधे में कंपीटीशन ने तो खैर बढ़ना ही है लेकिन इससे आपको बिल्कुल भी घबराना नहीं है। जहाँ औरों को बिरियानी मिल रही है तो चिंता ना करें..आपको भी केसरी या फिर तवा पुलाव तो खैर...मिल ही जाएगा।

अरे!...हाँ...तवा पुलाव से याद आया कि आज तो मैं लंच में तवा पुलाव बनाने जा रही थी। कैसा लगता है आपको तवा पुलाव? ऐसे तो कल की दाल बची पड़ी है लेकिन मुझे ना...हमेशा फ्रैश ही खाने की आदत है। फ्रैश खाने की तो बात ही निराली है। पता नहीं लोग कैसे एक दो दिन पुराना..बचा हुआ खाना खा लेते हैं। और फिर मुझे तो सच्ची तवा पुलाव के साथ रायता ना बड़ा ही यम्मी लगता है और लगे भी क्यों ना? उसे आखिर बनाता ही कौन है? मैं बनाती हूँ जनाब...मैं और भला कौन बनाएगा? ये तो हमेशा किताबों में  ही घुसे रहते हैं। एक मिनट...

"हाँ!...सुनो...आज कौन सी किताब पढ़ रहे हो?"

"अरे!...बड़ा मज़ेदार नॉवेल है अपने सुभाष चन्दर जी का "अक्कड़-बक्कड़"। पढ़ने वाला हँस हँस के पागल हो जाएगा इतना मज़ेदार लिखा है।"

"लेकिन तुम तो एकदम सीरियस हो के बता रहे हो।"

"अब इसमें में क्या कर सकता हूँ? ऊपरवाले से चौखटा ही ऐसा दिया है।"

"तो?...इसका मतलब तुम्हें हँसी आती ही नहीं है?"

"आती क्यों नहीं है?..बिल्कुल आती है...रोज़ ही किसी ना किसी बात पे आ जाती है।"

"कब?...मैंने तो तुम्हें कभी हँसते हुए नहीं देखा।"

"अरे!...मैं मन में हँस लेता हूँ ना। इसलिए तुम्हें नहीं पता चलता।"

"कमाल है...चलो!...ठीक है...तुम पढ़ो अपना आराम से।"

ये बंदा भी बताओ कैसा पल्ले पड़ गया है मेरे। हँसेगा तो वो भी मन में। बताओ भला कोई ऐसे कैसे मन में हँस सकता है? खैर छोड़ो...हम बात कर रहे थे "अक्कड़ बक्कड़" की ऊप्स!....सॉरी तवा पुलाव की तो चलिए आज मैं आपको तवा पुलाव बनाना सिखाती हूँ...आप भी क्या याद करेंगे कि किसी दिलदार से पाला पड़ा था। वैसे तो खैर आपने नोट किया ही होगा कि आजकल लोग दूसरों को कुछ भी सिखाने से कतराते हैं भले ही वो मोबाइल हो, कम्प्यूटर हो या फिर लैपटॉप हो। बताओ!...ये भी कोई बात हुई?

अगर आप में कोई हुनर... कोई टैलेंट ऊपरवाले ने आपको एज़ ए गिफ्ट दे दिया है तो उसे दूसरों में भी बाँटो लेकिन नहीं...उन्होंने तो अपने ज्ञान...अपने टैलेंट को अपने साथ...अपनी छाती पे बाँध के साथ ऊपर ले जाना है। बेवकूफों को ये नहीं पता चलता कि बाँटने से ज्ञान घटता नहीं बल्कि बढ़ता है। तो फ्रैंडज़ आप भी तवा पुलाव का ए टू ज़ैड सीखना चाहेंगे ना? चलिए!...ठीक है फिर हम शुरू करते हैं।

बढ़िया खाना बनाने का सबसे पहला रूल होता है कि सब ज़रूरी चीजों और मसालों को आप पहले ही किचन के प्लैटफॉर्म पर सजा लें। आपकी किचन बिल्कुल भी मैस्सी नहीं दिखनी चाहिए। दरअसल साफ सुथरी किचन में खाना बनाने का अपना अलग ही मज़ा है। दरअसल सफाई....चलिए!...छोड़िए...
सफाई की बात किसी अन्य वीडियो में। अभी अगर सफाई पर लैक्चर देना शुरू किया ना तो मेरा तवा पुलाव बस ऐसे ही बिना बने धरा का धरा रह जाएगा। चलिए!...अब हम मुद्दे से ना भटकते हुए सीधे काम की बात याने के तवा पुलाव की बात करते हैं।

तो सबसे पहले आप बढ़िया क्वालिटी के एक ग्लास  बासमती चावल कम से कम आधा घँटा पहले भिगो के रख लें और अगर घर में बढ़िया वाले चावल ना हों तो आप टेंशन ना लें। आप नार्मल चावल भी इस्तेमाल कर सकते हैं। वैसे एक बात बताऊँ...ये बढ़िया और घटिया चावल की बात ना बस..मन का वहम है। असली स्वाद ना जीभ से ज़्यादा आपकी आँखों में होता है। अगर खाने की शक्ल अच्छी हो और आप उसे अच्छे मूड में  खाएँ तो यकीन मानिए...आपको सब कुछ अच्छा ही अच्छा लगेगा।

खैर!... जब तक आपके चावल भीग रहे हैं...तब तक आप ज़रूरी सब्ज़ियों जैसे अलग अलग रंग की शिमला मिर्च, बारीक टुकड़ों में कटे हुए आलू और पनीर के टुकड़े,नमक, मिर्च और जीरे के अलावा हल्दी, गरम मसाला, तेज पत्ता, कसूरी मेथी और हींग, छोटी बड़ी इलायची वगैरह सब अपने आसपास ही तैयार कर के रख लें।

इसके बाद सब्ज़ियों में आप लाल, पीली और हरी वाली शिमला मिर्च को बारीक बारीक टुकड़ों में काट लें। ध्यान रहे कि आपने  टुकड़े बारीक काटने हैं...उनके ये लंबे लंबे लच्छे नहीं बनाने हैं। आप तवा पुलाव बनाने जा रहे हैं ना कि चाउमीन या फिर कढ़ाही पनीर। उनकी रेसिपी किसी और दिन। आज हम सिर्फ और सिर्फ तवा पुलाव की बात करेंगे।

अब लगने को तो कई लोगों को लग सकता है कि लाल और पीली शिमला मिर्च तो बड़ी महँगी आती है। ये तो हमारा कूंडा करवाएगी या फिर भट्ठा बिठाएगी। तो फ्रैंडज़...ऐसे में आप इन दोनों रंगों की शिमला मिर्च को स्किप भी कर सकते हैं और वैसे भी इनसे स्वाद वगैरह तो कुछ खास बढ़ता नहीं है। बस दिल को ही मानसिक संतुष्टि होती है कि आप कुछ महँगी...कुछ रॉयल चीज़ खा रहे हो। आप सिर्फ सिंपल वाली हरी शिमला मिर्च भी इस्तेमाल कर सकते हैं। यकीन मानिए कि इससे स्वाद में उन्नीस बीस का भी फर्क नहीं पड़ेगा।

अब यहाँ पर कुछ लोग इस बात पर ऑब्जेक्शन उठा सकते हैं कि उन्हें शिमला मिर्च से एलर्जी है या फिर पनीर तो उन्हें जड़ से ही पसंद नहीं है और आप बात कर रही हैं उन्हें बनाने और खाने की? तो ऐसे में मैं अपने दोस्तों को ये कहना चाहूँगी कि भय्यी...अगर नहीं पसंद है तो मत खाइए। कौन सा ये एंटी रैबीज़ का इंजेक्शन है कि ठुकवान ही पड़ेगा?

उफ्फ!....हमारे यहाँ तो आज बहुत गर्मी है और ऊपर से ए.सी भी सही से काम नहीं कर रहा। इससे तो अच्छा मैं कल की पड़ी दाल के साथ दो फुल्के ही सेंक लेती। हाँ!...ये आईडिया बढ़िया है। मैं अभी फुल्के ही सेंक लेती हूँ। कौन सा मेरी बहुत बड़ी खुराक है जो मैं ये सब पंगे लेती फिरूँ? अभी पिछले साल ही तो तवा पुलाव खाया था पड़ोसियों के घर में।

तो फ्रैंडज़...जैसा कि आपने देखा...मेरा तवा पुलाव बनाने का प्रोग्राम तो फिलहाल कैंसिल हो ही चुका है तो अब आप भी आयोडेक्स मलिए और काम पर चलिए और हाँ!... अगर ज़्यादा ही मूड कर रहा हो तवा पुलाव खाने का तो आप यूट्यूब से दो चार रेसिपी देखिए और फिर अपनी मर्ज़ी से उनमें कुछ भी फेरबदल कर के बनाइए और खाइए। मैंने भी तो वहीं से देखना और फिर अपनी मर्ज़ी से कुछ घटा बढ़ा के बनाना था। वैसे भी ए टू ज़ेड आजकल भला कौन कहाँ किसकी सुनता और मानता है? 


शार्ट वीडियो का लिंक

https://youtu.be/taWDE0W9H1c



अंधेरे कोने@ फेसबुक डॉट कॉम


जिस तरह एक सामाजिक प्राणी होने के नाते हम लोग अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए आपस में बातचीत का सहारा लेते हैं। उसी तरह अपनी भावनाओं को व्यक्त करने एवं उनका अधिक से अधिक लोगो  तक संप्रेषण करने के लिए कवि तथा लेखक,गद्य अथवा पद्य, जिस भी शैली में वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में सहज महसूस करते हैं, को ही अपनी मूल विधा के रूप में अपनाते हैं। मगर कई बार जब अपनी मूल विधा में वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में खुद को असमर्थ पाते हैं भले ही इसकी वजह विषय का व्यापक होना हो अथवा अत्यंत संकुचित होना हो। तब अपनी मूल शैली को बदल, वे गद्य से पद्य या फिर पद्य से गद्य में अपने भावों को स्थानांतरित कर देते हैं।

ऐसे में पद्य छोड़ कर जब कोई कवि गद्य के क्षेत्र में उतरता है तो उम्मीद की जाती है कि उसकी लेखनी में भी उसकी अपनी शैली याने के पद्य की ही किसी ना किसी रूप में बानगी देखने को मिलेगी और उस पर भी अगर वह कवि, वीर रस याने के ओज का कवि होगा तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उसके गद्य लेखन में भी जोश खरोश और ओज की कोई ना कोई बात अवश्य होगी। मगर हमें आश्चर्यचकित हो तब आवाक रह जाना पड़ता है जब अपनी मूल विधा याने के पद्य का लेशमात्र भी हमें उनके गद्य में दिखाई नहीं देता।

दोस्तों...आज मैं बात कर रहा हूँ ओज के जाने माने मंचीय कवि अरविंद पथिक जी और उनके लिखे नए उपन्यास "अंधेरे कोने@फेसबुक डॉट कॉम" की। पहले उपन्यास और फिर उसके लेखक के रूप में अरविंद पथिक जी के नाम को देख एक सहज सी जिज्ञासा मन में उठी कि आखिर एक ओज के कवि को उपन्यास जैसी कठिन विधा में उतरने के लिए बाध्य क्यों होना पड़ा? दरअसल उपन्यास का कैनवास ही इतना बड़ा एवं विस्तृत होता है कि  उसमें हमें शब्दों से खेलने के लिए एक विस्तृत एवं व्यापक विषय के साथ साथ उसमें मौजूद ढेरों अन्य आयामों की आवश्यकता होती है। 

जिस तरह पूत के पाँव पालने में ही नज़र आ जाते हैं ठीक उसी तरह उपन्यास के शुरुआती पन्नों को पढ़ने से ही यह आभास होने लगता है लेखक इस क्षेत्र में भी लंबी रेस का घोड़ा साबित होने वाला है। भावुकता से लबरेज़ इस उपन्यास में कहानी है फेसबुक चैट/मैसेंजर से शुरू हुई एक हिंदू-मुस्लिम प्रेम कहानी की। इसमें कहानी है एक ऐसे प्रौढ़ प्रोफेसर की जो अपनी विद्वता...अपने ज्ञान, अपनी तर्कशीलता, अपनी वाकपटुता, अपने व्याख्यानों एवं अपने वक्तव्यों  की वजह से शहर के बुद्धिजीवी वर्ग में एक खासा अहम स्थान रखने के बावजूद भी अपने से बहुत छोटी एक युवती के प्रेम में गिरफ्त हो जाता है। इसमें कहानी है ज़ोया खान नाम की एक मुस्लिम युवती की जो अपने से 15 साल बड़े एक प्रोफेसर को अपना सब कुछ मान चुकी है और उसके लिए हर बंधन...हर पाबंदी से किसी भी कीमत पर निबटने को आमादा है।

इसमें कहानी है फेसबुक जैसे सोशल मीडिया की वजह से कुकुरमुत्तों के माफिक जगह जगह उपजते एवं ध्वस्त होते प्रेम संबंधों की। इसमें कहानी है उज्जवल भविष्य की चाह में बीसियों लाख की रिश्वत देने को तैयार युवक और  शिक्षा माफिया की। इसमें कहानी है सोशल मीडिया के आकर्षण और उससे मोहभंग की। इसमें कहानी है प्यार, नफरत और फिर उमड़ते  प्यार की। इसमें कहानी है ज़िम्मेदारी का एहसास होने पर अपने वादे से पीछे हट अपने प्यार को नकारने की...अपनी भूल को सुधारने और अपने प्रायश्चित की। इसमें कहानी है अलग अलग जी रहे प्रेमी युगल को जोड़ने वाली लेखक रूपी कड़ी की।

इस उपन्यास को पढ़ते वक्त एक अलग तरह का प्रयोग देखने को मिला कि  पूरी कहानी कृष्ण और मीरा के अमिट प्रेम की शक्ल अख़्तियार करते हुए लगभग ना के बराबर वर्तमान या फिर पुरानी चिट्ठियों, डायरियों अथवा फ्लैशबैक के माध्यम से आगे पीछे चलती हुई कब संपूर्ण कहानी का रूप धर लेती है...आपको पता भी नहीं चलता। 

उपन्यास की भाषा सरल एवं प्रवाहमयी है और पाठक को अपनी रौ में अपने साथ बहाए ले चलने में पूरी तरह से सक्षम है। अंत तक रोचकता बनी रहती है। हालांकि कुछ जगहों पर एक पाठक के नज़रिए से मुझे कहानी थोड़ी सी खिंची हुई सी भी लगी। उपन्यास में दिए गए प्रोफ़ेसर के व्याख्यानों को थोड़ा छोटा या फिर जड़ से ही समाप्त किया जा सकता था लेकिन उन्हें मेरे ख्याल से उपन्यास के मुख्य किरदार को डवैलप करने के लिहाज़ से रखा गया हो सकता है या फिर उपन्यास की औसत पृष्ठ संख्या को पूरा करने के हिसाब से भी शायद कहानी को बढ़ाया गया हो। 

उपन्यास में लेखक की भूमिका पर नज़र दौड़ाने से पता चलता है कि यह उपन्यास उन्होंने 2019 में लिखा और कहानी के माध्यम से हमें पता चलता है कि उसमें पिछले 15 से 20 वर्षों की कहानी को समाहित किया गया है। यहाँ पर इस हिसाब से देखा जाए तो उपन्यास में तथ्यात्मक खामी नज़र आती है कि...कहानी की शुरुआत सन 2000 के आसपास होनी चाहिए जबकि असलियत में फेसबुक की स्थापना ही सन 2004 में पहली बार हुई थी। इस खामी को अगर छोड़ भी दें तो दूसरी ग़लती यह दिखाई देती है कि फेसबुक ने पहली बार चैट की सुविधा सन 2008 में शुरू की थी और उसके मैसेंजर वाले वर्ज़न को महज़ 8 साल और दस महीने पहले ही पहली बार लांच किया गया था। जब आप आप अपनी कहानी में कहीं किसी चीज़ का प्रमाणिक ढंग से उल्लेख कर रहे होते हैं  तो आपका तथ्यात्मक रूप से भी सही होना बेहद ज़रूरी हो जाता है। उम्मीद है कि इस उपन्यास के आने वाले संस्करणों में इस कमी को दूर करने की तरफ लेखक तथा प्रकाशक, दोनों ध्यान देंगे।

160 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है यश पब्लिकेशंस ने और इसका मूल्य ₹199/- मात्र रखा गया है जो कि उपन्यास की क्वालिटी एवं कंटेंट को देखते हुए जायज़ है।आने वाले भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

थोड़ा हँस ले यार- सुभाष चन्दर


आमतौर पर किसी कहानी संग्रह को पढ़ते वक्त हमारे ज़हन में उस उस कहानी से जुड़े पात्रों को लेकर  मन में कभी त्रासद परिस्थितियों की वजह से करुणा तो कभी क्षोभ वश कटुता उपजती है। ज़्यादा हुआ तो एक हल्की सी...महीन रेखा लिए एक छोटी सी मुस्कुराहट भी यदा कदा हमारे चेहरे पर भक्क से प्रदीप्त हो उठती है। मगर कई बार किसी किताब को पढ़ते वक्त किताब में आपकी नज़रों के सामने कोई ऐसा वाकया  या ऐसा पल भी आ जाता है कि पढ़ना छोड़ बरबस आपकी हँसी छूट जाती है। अगर ऐसा कभी आपके साथ भी हुआ है तो समझिए कि वह किताब पाठकों को अपने साथ... अपनी रौ में बहाए ले जाने में पूर्णतः सक्षम है और अगर उसी किताब में पृष्ठ दर पृष्ठ आपके सामने ऐसे ही वाकयों की भरमार लग जाए तो सोचिए कि आपकी हालात कैसी होगी उस समय, आप पढ़ कम रहे होंगे और ठठा कर हँस ज़्यादा रहे होंगे। 

ऐसे ही कभी खुल कर खिलखिलाने को तो कभी ठहाके लगाने को मजबूर करता है प्रसिद्ध व्यंग्यकार सुभाष चन्दर जी का कहानी संग्रह "थोड़ा हँस ले यार"। पूर्णतः हास्य कहानियों के संग्रह के रूप में यह कहानी संग्रह लगभग 32 साल बाद छपा था। कमाल का हास्य बोध छिपा रहता है उनकी कहानियों में। अमूमन लगातार पढ़ने वालों को पढ़ते वक्त पहले से यह अंदाज़ा लग जाता है कि अगले वाक्य का ऊँट किस करवट बैठने वाला है? मगर सुभाष चन्दर जी की कहानियों में सीधा चलता वाक्य भी कब अचानक खुराफाती बंदर की तरह गुलाटी मार हुडदंग मचा दे...कोई भरोसा नहीं।

 इनकी कहानियाँ अमूमन अपने में ग्रामीण अथवा क़स्बाई चरित्र के किरदारों को समेटे हुए होती हैं सहज एवं स्वाभाविक स्थितियों से भी कैसे हास्य उत्पन्न किया जा सकता है, ये जानना चाहने वाले जिज्ञासुओं एवं शोधार्थियों के लिए सुभाष चन्दर जी का लिखा हुआ पढ़ना एक उत्तम उपाय कहा जा सकता है। 

इस संग्रह में कहीं...कोई युवा तथाकथित लव गुरु की मदद से अपनी प्रेम कहानी शुरू कर अपना बेड़ा पार लगाना चाहता है तो कहीं मूंछों की लड़ाई अपने चरम पर है। इसमें कहीं हँसती गुदगुदाती झोलाछाप डॉक्टर की व्यथा कथा है तो कहीं इसमें हवाई यात्रा के नाम पर किसी अनाड़ी के द्वारा अजब ग़ज़ब पापड़ बेले जाने का वर्णन है। कहीं किसी मरियल...सींकिया को ब्याह करने की शर्त के रूप में कुश्ती तक लड़नी पड़ जाती है तो कहीं बददिमाग एवं गुस्सैल पति को अपने ही ढंग से सबक सिखाती उसकी नवविवाहिता बीवी नज़र आती है। 

इसमें कहीं बच्चे की ज़िद और उसकी माँ की शह पर कुत्ता पालने को मजबूर पति की दुर्गत दिखाई देती है तो कहीं इसमें ससुरालियों की होली का हुड़दंग है। कहीं इसमें गांव के ऊधम मचाते बच्चों की कारस्तानियां हैं तो कहीं इसमें खटारा स्कूटर को ले कर पूरी कथा का ताना बाना बुना गया है। कहीं इसमें चंट लड़कियों के दाव पैंतरे हैं तो कहीं इसमें पूरा का पूरा गांव ही लफून्डरों से भरा पड़ा है। 

कहीं इसमें शातिर दंपति के पड़ोस में आ बसने की बात है तो कहीं किसी कुएँ के मेढ़क छाप दंपत्ति के पहली बार शताब्दी जैसी बढ़िया ट्रेन में सफर करने की बात है। कहीं चेपू टाइप के शुभचिंतकों के कारनामे हैं तो कहीं काइयां रिश्तेदार को सबक सिखाने की बात है। 

संयोग से ऐसा हुआ कि इस किताब की जो प्रति मुझे मिली इसमें बाइंडर की ग़लती से सब पेज इधर के उधर हो गए। उम्मीद है कि प्रकाशक इस कमी पर आगे आने वाली किताबों में ध्यान देंगे।

136 पृष्ठीय इस बढ़िया हास्य कहानियों के संग्रणीय संकलन को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसके पेपरबैक संस्करण का मूल्य रखा गया है  ₹175/ जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले सुखद भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

चमत्कार को नमस्कार

(कॉलबेल की आवाज़

बीवी के दरवाज़ा खोलने पर पति अन्दर आता है और अपना बैग साइड पर रखने के बाद भगवान के आगे माथा टेकता है। उसे ऐसा करते देख बीवी हैरान हो कर कहती है....

"अरे!...ये अचानक सूरज पश्चिम से कैसे निकल आया? तुम और मंदिर में?...ये तो सच्ची कमाल हो गया। आज ना सच्ची...मैं बहुत खुश हूँ....भगवान ने मेरी सुन ली। तुम बस रुको एक मिनट...मैं प्रसाद ले कर आती हूँ।"

"अरे!....प्रसाद की तुम चिंता ना करो... मैं अभी मंदिर से ही हो कर आ रहा हूँ। लो...तुम भी प्रसाद ले लो।"

"मुझे ना सच्ची....विश्वास ही नहीं हो रहा कि आप...ऐसे अचानक...कमाल है...इतना कायापलट एक ही दिन में?"

"अरे!....एक ही दिन में नहीं बल्कि कुछ ही घँटों में कहो। अभी कुछ घँटों पहले ही मुझे ये एहसास हुआ कि कोई ना कोई ऐसी शक्ति तो ज़रूर है इस नश्वर संसार में जो हवा, पानी, आग और हम सबको अपने कंट्रोल में रखती है।"

"मगर कैसे?....तुम तो इन सब चीजों को बिल्कुल नहीं मानते थे। उलटा मुझे डाँटते रहते थे कि मैं खामख्वाह के फण्ड करती रहती हूँ।"

"अब यार...क्यों शर्मिंदा कर रही हो? मैं अपनी ग़लती मान तो रहा हूँ। बस इतना समझ लो कि जब जागो तब सवेरा। अब तो मैनें ठान लिया है कि रोज़ सुबह शाम मंदिर जाया करूँगा और सारे के सारे व्रत उपवास वगैरह भी रखूँगा।"

"सच्ची....मैंने तो भगवान से कुछ और भी माँगा होता ना तो मेरी वो मन्नत भी पूरी हो जाती...थैंक गॉड।"

"सच बताऊँ...आज अगर वो बाबा मुझे नहीं मिलता ना तो मुझे कभी भी इन चमत्कारों और दैवीय शक्तियों में यकीन नहीं आता।"

"बाबा?"

"हाँ!....आज एक बहुत ही चमत्कारी बाबा से मेरी मुलाकात हुई।"

"लेकिन कहाँ?...तुम तो सीधा अपने काम पर ही गए थे ना?  या कहीं और तो नहीं चले गए थे? देखो...मुझसे झूठ बिल्कुल नहीं बोलना। तुम्हें मेरी कसम है।"

"अरे!...बाबा...काम पर ही गया था और कहीं नहीं गया था। तुम चाहो तो सीसीटीवी की रेकॉर्डिंग चैक कर लो।"

"वो तो मैं करती ही रहती हूँ हमेशा। बस...आज ही नहीं की।"(बीवी के चेहरे पे अफसोस के भाव।)

"तुम ना बस्स मुझे शुरू से सब बताओ कि क्या हुआ था?"(बीवी का उत्साहित स्वर।)

"सुबह जब मैं घर से निकला ना तो बीच रस्ते मुझे लिफ्ट के एक लिए एक बूढ़े फकीर ने हाथ दे के रोक लिया।"

"लिफ्ट के लिए?"

"हाँ!...

"दिमाग खराब है तुम्हारा? उस खटारा बैट्री वाले स्कूटर में इतनी जान भी है कि तुम किसी को लिफ्ट देते फ़िरो? 18- 20 से ज़्यादा की स्पीड तो पकड़ता नहीं है और....

"18- 20 नहीं...वो तो बड़े आराम से  24- 25 की स्पीड दे देता है। मैन खुद कई बार चैक किया है कि.....

"बात मानने वाली तो है नहीं लेकिन चलो...मैं मान लेती हूँ...24- 25 की ही सही लेकिन इस स्पीड की स्कूटरी भर भला कौन किसको लिफ्ट देता है? हुंह!....लिफ्ट देने वाला भी पागल और लिफ्ट देने वाला भी पागल।"

"अरे!....उनको तो पागल बिल्कुल मत खो। उनकी वजह से ही तो...उनके चमत्कार की वजह से ही तो मेरा ईश्वर में विश्वास जगा है। मैं उसके वजूद को मानने लगा हूँ।"


"चमत्कार?"

"हाँ!....चमत्कार।"

"तुम मुझे पूरी बात बताओ कि क्या हुआ था?"


"अब मैंने स्कूटर को रोक तो लिया....

"स्कूटर नहीं...स्कूटरी को।"

"हाँ...जो मर्ज़ी समझ लो।"

"जो मर्ज़ी समझ लो का क्या मतलब? स्कूटर...स्कूटर होता है और स्कूटरी...स्कूटरी होती है।"

"ओके बाबा....अब मैंने स्कूटरी को रोक तो लिया मगर बाबा के डील डौल देख कर असमंजस में पड़ गया कि कहीं...ये हम दोनों को ले के ही ना बैठ जाए।"

"हम्म....मेरे दिल में तो सुन के ही हौल पड़ने लगा है कि...उस पिद्दी सी बेचारी के साथ इतना अत्याचार? खैर...फिर क्या हुआ?"

"उनको बिठाने के बाद कायदे से तो ये होना चाहिए था कि उसके इंजर पिंजर सब एकदम ढीले हो जाने चाहिए थे।"

"किसके?...बाबा के?"

"नहीं!...स्कूटरी के।"

"नहीं हुए"?( हैरानी का भाव।)

"अरे!....यही तो कमाल है कि स्कूटरी एकदम टनाटन।"

"और तुम? तुम भी ठीकठाक हो ना? कहीं कोई गुम चोट वगैरह तो नहीं लगी?"

"अरे!...मैं भी टनाटन...स्कूटरी भी एकदम टनाटन।"

"ओह!....इसका मतलब बाबा तो गया काम से। चच्च...बेचारा।" बीवी अफ़सोस जताते हुए बोली।

"अरे!...उनको भी कुछ नहीं हुआ। एकदम सही सलामत हैं वो भी।"

"पक्का ना? कहीं मेरा मन रखने के लिए झूठ तो नहीं बोल रहे हो?"

"झूठ बोल के क्या मुझे वड़ेवें मिलने हैं?"

"अच्छा...चलो छोड़ो...तुम मुझे बताओ की उसके बाद क्या हुआ?"

"अब उनको बिठाने के बाद मेरा दिमाग घूमने लगा कि आज तो मीटर की सुई 18-20 से ऊपर तो बढ़ ही नहीं पाएगी।" 

"हम्म!....

"लेकिन कमाल ये कि उनके बैठते ही स्कूटरी तो फर्राटे भरती हुई हवा से बातें करने लगी और सुई?....सुई तो 35-36 से नीचे एक सैकंड को भी नहीं हुई।"

"क्या बात कर रहे हो? पक्का...तुम्हें वहम हुआ होगा।"

"वोही....तो...मैंने भी एकदम यही सोचा और दो चार बार आँखें मिचमिचा कर भी देखा लेकिन सुई तो नीचे उतरने  का नाम ही नहीं ले रही थी और कमाल ये कि बाबा के उतरते ही वही ढाक के तीन पात।"

"मतलब...स्पीड फिर वापिस वही की वही?"

"और नहीं तो क्या?"

"ओह!...

"बस...तभी मुझे विश्वास हो गया कि ज़रूर उनके पास कोई दैवीय शक्ति रही होगी या फिर बाबा खुद ही कहीं....ओह....ओह....माय गॉड....वो सचमुच भगवान ही थे...आज....आज उन्होंने मुझे साक्षात दर्शन दिए....ओह माय गॉड....मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा।" पति प्रफुल्लता के अतिरेक में हड़बड़ा कर चिल्लाता हुआ बोला।

"एक मिनट...लैट मी थिंक...तुमने उन्हें कहाँ से लिफ्ट दी थी?"

"पंजाबी बाग से....क्यों?....क्या हुआ?"

"और कहाँ तक दी थी?"

"ज़्यादा नहीं बस...आधे पौने किलोमीटर के बाद वो उतर गए थे।"

"हम्म!....पंजाबी बाग में कहाँ?..एगजैकट लोकेशन बताओ....उसके आसपास कोई मंदिर या मज़ार ज़रूर होनी चाहिए।"

"पहले एक थी तो सही लेकिन शायद pwd वालों ने तोड़ दिया उसको।"

"फिर तो बहुत ग़लत किया उन्होंने। ज़रूर कोई भटकती रूह होगी।"

"ओह!....

"चलो!....उठो....प्लीज़ मुझे अभी ले चलो वहाँ पर। मुझे भी दर्शन करने हैं उस दिव्य आत्मा के।"

"लेकिन वो तो शायद कह रहे थे कि उन्हें वहाँ से बस मिल जाएगी झंडेवालान की।"

"ओह!...तुमने उन्हें कहाँ पर छोड़ा था?"

"पंजाबी बाग गोल चक्कर पर।"

"और लिया कहाँ से था?"

"पंजाबी बाग फ्लाईओवर के ऊपर से।"

"क्या?"

"हाँ...वहीं से लिया था....फ्लाईओवर के ऊपर से ही।"

"हे भगवान!....जाने कब अक्ल आएगी मेरे इस निखट्टू पति को।"

"क्या हुआ?"

"अरे!...बेवकूफ....फ्लाईओवर से जब कोई भी गाड़ी नीचे उतरेगी तो उसकी स्पीड अपने आप नहीं बढ़ जाएगी।"

"ओह!....शिट...ये तो मैंने सोचा ही नहीं।"

(समाप्त)

संकल्प- लघुकथा


"तुझे पता है ना... मैं हमेशा सच बोलता हूँ मगर कड़वा बोलता हूँ। सीधी सच्ची बात अगर मेरे मुँह से तू सुनना चाहता है ना तो सुन... तू कामचोर था...तू कामचोर है।" राजेश, मयंक को समझा समझा कर थक जाने के बाद अपने हाथ खड़े करता हुआ बोला।

"लेकिन भइय्या....(मयंक ने कुछ कहने का प्रयास किया।)

" अब मुझे ही देख...मैं भी तो तेरी तरह इसी शहर में पिछले दो साल से हूँ लेकिन देख...गांव में इसी शहर की बदौलत मैंने पक्का मकान बना लिया...नयी मोटरसाइकिल खरीद ली और तूने बता इन दो सालों में क्या कमाया है? तेरे राशन तक का खर्चा भी तो मैं...(राजेश ने बात अधूरी छोड़ दी।)

 "मगर भइय्या...मम्...मैं दरअसल...
 
"पहली बात तो यह समझ ले कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता। अब मुझे ही ले...अगर मैं भी तेरी तरह शर्म करता रहता ना तो आज तेरे जैसे ही मैं भी धक्के खा रहा होता। बोल मानेगा ना मेरी बात?" राजेश लाड़ से मयंक के बालों में अपनी उंगलियाँ फिराता हुआ बोला।

"ठीक है भइय्या...अब से जैसे आप कहेंगे, मैं वैसे ही करूँगा।" कर्ज़े में डूबे माँ बाप का चेहरा सामने आते ही असमंजस में डूबा मयंक अपने मन को पक्का करता हुआ बोला।

"शाबाश...ये हुई ना मर्दों वाली बात। ले....ये पकड़ चूड़ियाँ, नयी साड़ी और मेकअप का सामान। कल ठीक 10 बजे अच्छे से तैयार हो के आ जाना। मैं पीरागढ़ी चौक पर तुम्हारा इंतज़ार करूँगा।" कहते हुए राजेश वहाँ से चल दिया।
 
चेहरे पर दृढ़ संकल्प लिए मयंक का चेहरा अब उज्ज्वल भविष्य की आस में चमक रहा था।
 

चढ़ी जवानी बुड्ढे नूं

{पति ड्रेसिंग टेबल के आगे सज संवर रहा है ।उसको देख कर उसकी पत्नी कैमरे की तरफ मुंह करके शुरू हो जाती है।}

"देखा आपने कैसे बुढ़ापे में इनको ये सब चोंचले सूझ रहे हैं।  बताओ...ज़रा से बाल बचे हैं सिर पर लेकिन जनाब को तो हफ्ते में दो बार शैम्पू विद कंडीशनर इस्तेमाल करना है और ड्रायर...ड्रायर तो बिना नागा रोज़ ही फेरना है। अब आप ही बताओ क्या रोज़ रोज़ ड्रायर फेरना सही है? एक तो पहले से ही खेत बंजर होता जा रहा है। ऊपर से ये क्या कि बची खुची फसल को सुखा मारो? माना की कभी शशि कपूर जैसी पर्सनैलिटी थी लेकिन अब...अब कुछ दिन और ऐसे हालात रहे ना तो पिंचु कपूर तक पहुँचते देर नहीं लगेगी।"

"औरों की तो छोड़ो...अपने घर में...अपने ही बीवी बच्चों से कंपीटीशन करने चले है।"

"जब से ये मुय्या ऑनलाइन का सिस्टम शुरू हुआ है। घर बैठे जनाब मोबाइल पे उंगलियाँ टकटकाते हैं और कभी बाल रंगने का डाई तो कभी दाढ़ी मुलायम करने की क्रीम घर बैठे मँगवा मारते हैं।  बताओ जवानी में तो कभी सोचा नहीं...अब  इस उम्र में ये मुलायमियत का एहसास करवाएंगे?"

'मैं तो सच्ची तंग आ गयी हूँ इनसे। कभी फेसवाश तो कभी माउथ वाश....अब मुँह के अंदर थोड़ी बहुत ठंडक आ भी गयी तो बताओ किसको फ्रैशनैस का फील करवाना है? और सुनो...थोड़ी सी दाढ़ी चिट्टी क्या नज़र आने लगी..कहने लगे कि...

"उठा कूची और फेर से समूची।"

"कोई बताए इनको कि इस उम्र में इनको अब भजन कीर्तन और माला जपना वगैरह शुरू कर देना चाहिए लेकिन नहीं...जनाब को तो संजय दत्त के कीड़े ने काटा है। कहते हैं कि 300 प्लस की गिनती पार कर के रहेंगे। डीजे पे डाँस करने लगें तो दो ठुमकों में ही हांफ..हांफ चिल्लाने लगते हैं कि....

"हाय मेरी कमर...उफ्फ मेरी कमर।" 

"लेकिन नहीं...जनाब को तो सदाबहार के कीड़े ने काटा है ना। बताओ... देव आनंद समझते हैं खुद को। रोज़ रोज़...नए नए सैलून और स्पा वगैरह सर्च करते रहते हैं ऑनलाइन। एक दिन मुझे कहने लगे कि....बैंगलोर में एक नया लगज़रियस स्पा खुला है...सुना है कि 100%  नैचुरल ...ऑर्गेनिक हेयर डाय इस्तेमाल करते हैं। दो चार दिन के लिए हो आऊँ?"

मैंने भी कह दिया कि चलो...कोई बात नहीं...थोड़ा "खर्चा ही तो है ना...हो आओ। बस...तसल्ली कर लेना कि सब नैचुरल...ऑर्गैनिक हो।"

"अब आप ही बताइए अगर सब नैचुरल है...ऑर्गेनिक है...तो फिर क्या बुराई है? बंदा आखिर...कमाता धमाता किसके लिए है...अपने लिए ही ना? थोड़ा खर्चा ही तो करते हैं मगर चलो...खुश तो रहते हैं कम से कम।"

"अच्छा फ्रैंडज़...आज तो मैंने आपका काफी समय ले लिया। अब मैं भी चलती हूँ...खाने की तैयारी भी तो करनी हैं।"

"एक मिनट मैं मेन बात तो करना भूल ही गयी। उस दिन जब ये वापिस बैंगलोर से आए तो बड़े खुश खुश थे। मैं भी खुश कि चलो...कैसे भी कर के ये बस खुश रहा करें। लेकिन एक बात समझ नहीं आयी कि बाद  में आ के पुलिस वाले जाने क्यूँ हमारे घर के बाहर स्टिकर लगा के चले गए कि इस घर को दो हफ्तों के लिए क्वारैंटाइन किया जा रहा है। माना की एहतिहातन किया होगा लेकिन उन घरों को जा कर करें ना जहाँ से कोई विदेश गया हो।  हमारे यहाँ से तो कोई बैंकाक गया ही नहीं है।"
(समाप्त)

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हींग लगी ना फिटकरी

"अच्छा...सुनो...मैं सोच रही थी कि बड़े दिन हो गए सिंपल सिंपल सा बनाते खाते हुए...तो  आज कुछ अच्छा बना लेती हूँ। बोलो..क्या बनाऊँ?"

"अपने आप देख लो।"

"नहीं...तुम बताओ...

"सबसे अच्छा तो मेरे ख्याल से तुम मुँह बनाती हो।"

"तुम भी ना...हर टाइम बस मज़ाक ही करते रहा करो और कोई काम तो है नहीं।"

"अरे!....काम का तो तुम नाम ही मत लो। जब से ये मुय्या कोरोना शुरू हुआ है। काम धंधे तो वैसे ही सारे के सारे ठप्प पड़ गए हैं।"

"हम्म!...बात तो तुम सही ही कह रहे हो।"

"अच्छा...अब अगर तुम तशरीफ़ ले जाओ तो अपना मैं काम कर लूँ?"

"हुंह!...ये किताबें पढ़ना भी भला कोई काम है? ये तो तुम अपने मज़े के लिए पढ़ते हो।"

"तो तुम भी मज़े ले लो। लो...एक...बस एक किताब पूरी पढ़ के दिखा दो तो मैं मान जाऊँ।"

"मेरे बस का नहीं है ये किताब फिताब पढ़ना। एंड  फ़ॉर यूअर काइंड इन्फॉर्मेशन...काम उसे कहते हैं जिससे चार पैसे रोज़ाना घर में आएँ। ये नहीं कि दिन रात इन्हीं में तुम अपनी आँखें गड़ा कर चश्मे का नम्बर बढ़वाते फ़िरो और घर आए चवन्नी भी नहीं। बताओगे ज़रा कि साल में तुम अपने पल्ले से कितने रुपयों के चश्में बदलवाते हो?"

"फिर शुरू हो गयी ना तुम? पता भी है कुछ कि कितना दिमाग लगता है इनको पढ़ने और फिर इन पर समीक्षा लिखने में?"

"मुझे बस इतना पता है कि तुम इन्हें अपने मज़े के लिए पढ़ते हो।

"तो तुम भी मज़े ले लो ना...किसने रोका है? अच्छा...एक काम करो...तुम एक नहीं...दो दो मज़े ले लो।"(एक के बजाय दो दो किताबें पकड़ाते हुए।) 

"ना...मुझे नहीं लेने ये वाले मज़े। मैं तो अपने आप अलग तरीके से  मज़े ले लूँगी।"

"कैसे?"

"लाओ...मुझे अभी के अभी पाँच हज़ार रुपए दो।"

"किसलिए?"

"मज़े करूँगी।"

"कैसे?"

"क्यों बताऊँ? तुम बस मुझे पैसे दे दो।"

"अरे!...लेकिन पता तो चले कि किसलिए तुम्हें चाहिए पैसे?"

"तुम मुझे बताते हो कि तुम कैसे और कहाँ खर्च करते हो पैसे?"

"तो?"

"तो मैं भी नहीं बताऊँगी कि मैं पैसों का क्या करूँगी।"

"ये तो कोई भी बात नहीं हुई  कि नहीं बताओगी। बिना बताए तो भय्यी बिल्कुल पैसे नहीं मिलेंगे।"

"मुझे ना..दरअसल एक अवार्ड मिल रहा है।"

"घर बैठे?"

"हाँ....

"अरे!...वाह...कौन बेवकूफ है जो....

"मैं ज़रा सा कुछ बोल दूँ सही... फटाक से ताना मार दोगे  कि...फिर से शुरू हो गयी। अब बताओगे ज़रा कि अब कौन शुरू हुआ है?"

"अच्छा....चलो छोड़ो....मगर कैसे? कौन सा ऐसा अवार्ड है जो बिना कुछ करे धरे...घर बैठे ही मिलने लगा?"

"हाँ!....मैं तो जैसे कुछ करती ही नहीं हूँ।"

"अरे!...मैं घर के कामों की बात नहीं कर रहा हूँ।"

"मुझे ना...मुझे ना दरअसल कोरोना वारियर्स का अवार्ड मिल रहा है।"

"लेकिन अब तक के पूरे लॉक डाउन में तो इस डर से  तुम घर से बाहर निकली ही नहीं कि कहीं ग़लती से भी तुम्हें कोरोना ना चिपट जाए।"

"तो?...पुष्पा, जमीला और राधा भी कौन सा घर से बाहर निकली हैं लेकिन अवार्ड तो उन्हें भी मिल रहा है।"

"मगर कैसे?"

"बस...ऐसे ही।"

"चलो..छोड़ो...अच्छा ये बताओ कि क्या अवार्ड की खुशी को सेलिब्रेट करना चाहती हो जो उसके लिए पैसे चाहिए?"

"नहीं...अभी फिलहाल तो लॉक डाउन के चक्कर में पार्टी करना पॉसिबल ही नहीं है। अगर चोरी छुपे कैसे भी कर के कर भी ली तो तुम्हें पता नहीं कि आजकल जलने वालों की कमी नहीं है।"

"तो?...उनके डर से पार्टी नहीं करोगी?"

"अरे!... कोई ना कोई कंबख्त पुलिस मे रिपोर्ट कर ही देगा और फिर पुलिस का तो तुम्हें पता ही है कि कैसे दनादन लट्ठ बजाती है? अभी पिछले हफ्ते ही तो....

"तुम ना बस मेरे ही पीछे पड़ी रहा करो। अभी ज़रूरी था उस बात का जिक्र करना?"

"चलो!....अच्छा सॉरी।  पार्टी के लिए तो मैं तुमसे बाद में अलग से पैसे लूँगी। "

"ओके डन...अभी मगर फिलहाल तो मुझे ये समझ नहीं आ रहा कि तुम्हें कोई अवार्ड क्यों और कैसे मिल रहा है? "

"पहली बात तो ये कि ये कोई वाला अवार्ड नहीं है। बहुत ही प्रतिष्ठित अवार्ड है और दूसरा ये कि तुम ना बस मुझे कभी घर की मुर्गी दाल बराबर से ज़्यादा मत समझना। बाहर जा के पता करो कि मेरा कितना नाम है...लोग कितनी मेरी इज़्ज़त करते हैं...मुझे कितना पूछते हैं।"

"बाहर?"

"हाँ!....बाहर"

"ये बाहर जा के पता करने की बात तुम जानबूझ के कर रही हो ना?"

"ओह....अच्छा....सॉरी....सॉरी।"

"हम्म....

"अच्छा ये बताओ...तुम घंटेश्वर जी को जानते हो?"

"क्या वही घंटेश्वर जी, जिनके तुम फेसबुक पर बड़े बड़े पुलिस वालों के साथ फोटो दिखाती रहती हो? ओह!....हाँ...याद आया वही ना...जिनका फेसबुक पर 'पुलिस के साथी' के नाम से पेज और शायद ग्रुप भी बना हुआ है।"

"हाँ...हाँ...वही।"

"क्यों?...क्या हुआ?...कोरोना के लपेटे में आ के क्या कंबख्त लुड़क गया?"

"हुंह!...तुम्हें तो हर वक्त बस  मज़ाक ही सूझता रहता  है। कोई काम की बात करने लगो तो मज़ाक। बिना काम की बात करो तो मज़ाक।"

"अच्छा...अच्छा बाबा...मैं सीरियस हो जाता हूँ। तुम बताओ कि क्या हुआ है उसको?"

"किसी का नाम तमीज़ से भी लिया जा सकता है।"

"ओह!....सॉरी...अच्छा ये बताओ की उनको क्या हुआ है?"

"फ़ॉर यूअर इन्फॉर्मेशन...उनको कुछ नहीं हुआ है। बल्कि जो हुआ है...मुझको ही हुआ है।"

"क्या?"

"उनसे अवार्ड लेने का भूत सवार।"

"वो अवार्ड बाँटते हैं?"

"पहले का तो पता नहीं...मगर हाँ....आजकल तो खूब बाँट रहे हैं...धड़ाधड़ बाँट रहे हैं।"

"अब अगर कोई बंदा अपनी खुशी से सब में खुशी बाँट रहा है तो मर्ज़ी है तुम्हारी....ले लो लेकिन मुझे ना ये सब कुछ  ठीक नहीं लग रहा कि कोई ऐसे...खामख्वाह...फ्री में अवार्ड बाँट रहा है। ज़रूर दाल में कुछ काला है या फिर उसे किसी पागल कुत्ते  के काटा होगा।"

"हुंह!...पागल कुत्ते  के काटा होगा और फिर फ्री में तुमसे किसने कह दिया कि दे रहा है? उसी को देने के लिए ही तो मैं तुमसे 5000 माँग रही थी।"

"इसका मतलब पागल कुत्ते ने उसको नहीं..पक्का तुमको काटा है।"

"मुझे भला क्यों काटने लगा...मैं कौन सा घर से बाहर निकलती हूँ?"

"अरे!...जब किस्मत फूटी हो ना तो ऊँट पे बैठे हुए बंदे को भी कुत्ता काट जाता है।"

"बंदे को ही ना...बंदी को तो नहीं ना?"

"तुम ना बस...बात पकड़ के बैठ जाया करो।"

"तो?...बीवी किसकी हूँ?"

"हाँ!....अफसोस तो इसी बात का है कि बीवी तो तुम मेरी ही हो।"(ठंडी सांस लेते हुए)

"तो लाओ...निकालो इसी बात पे पूरे पाँच हज़ार रुपए।"

"अच्छा...कब होना है ये अवार्ड?"

"होना क्या है? वो तो आलरेडी चल रहा है।"

"कहाँ?"

"फेसबुक पर।"

"तो अवार्ड भी इसका मतलब फेसबुक पर ही मिलेगा?"

"और नहीं तो क्या घर पे आ के देंगे?"

"एक मिनट....अवार्ड फेसबुक पर मिलेगा। तो इसका मतलब सर्टिफिकेट वगैरह भी सब फेसबुक पर ही मिलेगा?" (कुछ सोचते हुए।)

"हाँ...

"इसका मतलब...हाथ में छूने के लिए कुछ ठोस नहीं मिलेगा?"

"मिलेगा ना।"

"क्या?"

"घँटा...

"कक्....क्या? तुमने घँटा कहा?"

"हाँ....पैसे ऑनलाइन भेजने के बाद अपना एड्रेस भी भेजना है उनको।"

"किसलिए?"

"अभी बताया तो...

"क्या?"

"यही कि...कोरियर से वो भेजेंगे।"

"घँटा?" 

"हाँ...

"मैं कुछ समझा नहीं।"

"तुम ना निरे बुद्धू हो।"

"कैसे?"

"पिछली बार मैंने क्या बताया था?"

"क्या?...

"यही कि उनके ग्रुप का लोगो 'घँटा" है। तो बट नैचुरल ही है कि वो हमें घँटा ही भेजेंगे।"

"पीतल का?"

"नहीं!...सोने का।"

"सच्ची?"

"दिमाग खराब है तुम्हारा? वैसे इतना समझदार बनते हो मगर महज़ पाँच हज़ार में सोने का घँटा सोच रहे हो। घंटा दिमाग है तुम्हारे पास।"

"मगर....

"अरे!...अगर उनके ग्रुप का लोगो घँटा है तो इसका ये मतलब तो नहीं हो जाता कि वो सचमुच का घँटा ही भेजें।"

"तो?"

"सर्टिफिकेट पे मेरे नाम के साथ छपा हुआ गोल्डन कलर का घँटा फ्रेम करवा कर भेजेंगे।"

"बस्स?....

"अरे!....इतना मान सम्मान दे रहे है। ये क्या कम है?" 

"नहीं...नहीं...ये तो बहुत है। इतना है कि संभाले नहीं संभलेगा हमसे।"

"और नहीं तो क्या?"

"अच्छा...एक बात सच सच बताओ...

"क्या?"

"यही कि इस अवार्ड की सुबह शाम तुम धूप बत्ती करोगी या फिर नींबू मिर्च लगा के चाटोगी?"

"हाँ....चाटूँगी लेकिन फ़ॉर यूअर काइंड इन्फॉर्मेशन...नींबू मिर्च लगा कर नहीं बल्कि दूध मलाई लगा कर चाटूँगी।"

"कैसे?"

"वो ऐसे...इस अवार्ड के मिलने के बाद हमारे सारे रिश्तेदार और  सारी सहेलियों की छाती पे तो पक्का साँप लौटने वाले तो। तो मारे खुशी के मैं दूध मलाई ही तो जी भर के चाटूँगी।"

"ओह!...यय....ये क्या? ये तुम्हारा हाथ क्यूँ कांप रहा है? तबियत तो ठीक है ना?"

"कुछ खास नहीं...बस ऐसे ही....तुम बेझिझक  हो के बेधड़क सुनाओ...मैं  लपेट रहा हूँ।"

"हुंह!...इसका मतलब तुम पैसे नहीं दोगे?"

"बेफालतू के कामों के लिए मेरे पास पैसे नहीं है।"

"ये बेफालतू का काम है।"

"नहीं!....बहुत ज़रूरी काम है।"

"सीधे सीधे तुम कह क्यूँ नहीं देते कि तुम मेरी सफलता से...मेरी कामयाबी से जलते हो।"

"मैं?...मैं जलता हूँ।"

"हाँ...तुम...तुम जलते हो।"

"अच्छा...तुम्हें बस सर्टिफिकेट ही चाहिए ना?"

"हाँ....

"अगर बिना कुछ खर्च किए तुम्हें मैं दिला दूँ तो खुश हो जाओगी?"

"हाँ....बिल्कुल।"

"मगर सर्टिफिकेट पे नाम तुम्हारे उस घंटेश्वर जी का नहीं होगा।"

"मुझे नाम से भला क्या लेना है? वैसे भी उसे फेसबुक से बाहर की दुनिया में और भला जानता ही कौन है?"

"हम्म!....सर्टिफिकेट और अवार्ड दिखा कर वैसे भी तो रिश्तेदारों और सहेलियों को ही तो बस इम्प्रेस करना है।"

"बिल्कुल।"

"तो बस अभी तुम मुझे आधा एक घँटा दो। ऐसा धाँसू अवार्ड और सर्टिफिकेट का डिज़ायन ना बनाया ना तो मेरा तुम नाम बदल देना।"

"तुम बनाओगे?....सच्ची तुम बनाओगे?"

"हाँ!...भय्यी...मैं ही बनाऊँगा। तुम्हें पता तो है कंप्यूटर ग्राफिक्स में मेरा हाथ कमाल का चलता है।"

"अरे!...फिर तो मज़ा आ जाएगा। हींग लगी ना फिटकरी और रंग चोखा ही चोखा।"

"बिल्कुल....

"अच्छा एक काम करोगे?"

"एक क्या दो बोलो...बस बेफालतू का खर्चा नहीं होना चाहिए।"

"हा....हा....हा...मैं सोच रही थी कि...
 अच्छा एक काम करो...जब प्रिंट निकालने लगो ना तो दो चार सर्टिफिकेट एक्स्ट्रा निकाल लेना पुष्पा, जमीला और राधा के नाम से।"

"किसलिए?"

"मैं सोच रही थी कि उनकी भी क्यों हींग और फिटकरी लगे?"

"अरे!...वाह...नेकी भी करना चाहती और वो भी पूछ पूछ के?  बिल्कुल बना दूँगा। अगर बोलोगी तो दो चार और का भी बना दूँगा।"

"रहने दो...ऐसे रेवड़ियों की तरह बाँट के मुझे अपने अवार्ड की भदद नहीं पिटवानी है।"

{अंत में दोनों एक साथ)

"ऐसे ठगों से बचें जो आपको अवार्ड देने के नाम पर आपकी मेहनत का पैसा ठगने की फिराक में रहते हैं।"

बेसिक स्टोरी आईडिया- सुमित प्रताप सिंह

खिड़कियों से झाँकती आँखें- सुधा ओम ढींगरा

आमतौर पर जब हम किसी फ़िल्म को देखते हैं तो पाते हैं कि उसमें कुछ सीन तो हर तरह से बढ़िया लिखे एवं शूट किए गए हैं लेकिन कुछ माल औसत या फिर उससे भी नीचे के दर्ज़े का निकल आया है।  ऐसे बहुत कम अपवाद होते हैं कि पूरी फ़िल्म का हर सीन...हर ट्रीटमेंट...हर शॉट...हर एंगल आपको बढ़िया ही लगे। 

कमोबेश ऐसी ही स्थिति किसी किताब को पढ़ते वक्त भी हमारे सामने आती है जब हमें लगता है कि इसमें फलानी फलानी कहानी तो बहुत बढ़िया निकली लेकिन एक दो कहानियाँ... ट्रीटमेंट या फिर कथ्य इत्यादि के हिसाब से औसत दर्ज़े की भी निकल ही आयी। लेकिन खैर... अपवाद तो हर क्षेत्र में अपनी महत्त्वपूर्ण पैठ बना के रखते हैं। 

तो ऐसे ही एक अपवाद से मेरा सामना हुआ जब मैंने प्रसिद्ध कथाकार सुधा ओम ढींगरा जी का कहानी संग्रह "खिड़कियों से झाँकती आंखें" पढ़ने के लिए उठाया। कमाल का कहानी संग्रह है कि हर कहानी पर मुँह से बस यही लफ़्ज़ निकले कि..."उफ्फ...क्या ज़बरदस्त कहानी है।" 

सुधा ओम ढींगरा जी की कहानियॉं अपनी शुरुआत से ही इस तरह पकड़ बना के चलती हैं कि पढ़ते वक्त मन चाहने लगता है कि...ये कहानी कभी खत्म ही ना हो। ग़ज़ब की किस्सागोई शैली में उनका लिखा पाठकों के समक्ष इस तरह से आता है मानों वह खुद किसी निर्मल धारा पर सवार हो कर उनके साथ ही शब्दों की कश्ती में बैठ वैतरणी रूपी कहानी को पार कर रहा हो। 

चूंकि वो सुदूर अमेरिका में रहती हैं तो स्वाभाविक है कि उनकी कहानियों में वहाँ का असर...वहाँ का माहौल...वहाँ के किरदार अवश्य दिखाई देंगे लेकिन फिर उनकी कहानियों में भारतीयता की...यहाँ के दर्शन...यहाँ की संस्कृति की अमिट छाप दिखाई देती है। मेरे हिसाब से इस संग्रह में संकलित उनकी सभी कहानियाँ एक से बढ़ कर एक हैं। उनकी कहानियों के ज़रिए हमें पता चलता है कि देस या फिर परदेस...हर जगह एक जैसे ही विचारों...स्वभावों वाले लोग रहते हैं। हाँ...बेशक बाहर रहने वालों के रहन सहन में पाश्चात्य की झलक अवश्य दिखाई देती है लेकिन भीतर से हम सब लगभग एक जैसे ही होते हैं।

उनकी किसी कहानी में अकेलेपन से झूझ रहे वृद्धों की मुश्किलों को उनके नज़दीक रहने आए एक युवा डॉक्टर के बीच पैदा हो रहे लगाव के ज़रिए दिखाया है। तो कुछ कहानियॉं...इस विचार का पूरी शिद्दत के साथ समर्थन करती नज़र आती हैं कि....

"ज़रूरी नहीं कि एक ही कोख से जन्म लेने वाले सभी बच्चे एक समान गुणी भी हों। परिवारिक रिश्तों के बीच आपस में जब लालच व धोखा अपने पैर ज़माने लगता है। तो फिर रिश्तों को टूटने में देर नहीं लगती।"

 इसी  मुख्य बिंदु को आधार बना कर विभिन्न किरदारों एवं परिवेशों की कहानियाँ भी इस संग्रह में नज़र आती हैं। 

इस संग्रह में सहज हास्य उत्पन्न करने वाली कहानी नज़र आती तो रहस्य...रोमांच भी एक कहानी में ठसके के साथ अपनी अहमियत दर्ज करवाने से नहीं चूकता। किसी कहानी में भावुकता अपने चरम पर दिखाई देती है तो एक कहानी थोड़ी धीमी शुरुआत के बाद आगे बढ़ते हुए आपके रौंगटे खड़े करवा कर ही दम लेती है। 

बहुत ही उम्दा क्वालिटी के इस 132 पृष्ठीय संग्रणीय कहानी संग्रह के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है शिवना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र ₹150/- जो कि कंटैंट एवं क्वालिटी को देखते हुए बहुत ही कम है। कम कीमत पर इस स्तरीय किताब को लाने के लिए लेखिका तथा प्रकाशक का बहुत बहुत आभार। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

बहुत दूर गुलमोहर- शोभा रस्तोगी

जब कभी भी हम अपने समकालीन कथाकारों के बारे में सोचते हैं तो हमारे ज़हन में बिना किसी दुविधा के एक नाम शोभा रस्तोगी जी का भी आता है जो आज की तारीख में किसी परिचय का मोहताज नहीं है। लघुकथाओं के क्षेत्र में उन्होंने उल्लेखनीय काम किया है। ऐसे में जब पता चला कि इस बार जनवरी के पुस्तक मेले में उनकी एक नई किताब "बहुत दूर गुलमोहर" आ रही है तो उसे लेना तो बनता ही था। 

अब फुरसत के इन पलों में जब उनकी किताब को पढ़ने के लिए उठाया तो सुखद आश्चर्य के तहत पाया कि इस किताब में उनकी लघुकथाएँ नहीं बल्कि कुछ  छोटी कहानियाँ हैं। लिखते समय शोभा रस्तोगी जी धाराप्रवाह शैली में ग़ज़ब की किस्सागोई के साथ बहुत ही सहज ढंग से स्थानीय तथा प्रांतीय शब्दो  का इस्तेमाल करते हुए शब्दों से खुल कर खेलती हैं। शहरी, ग्रामीण तथा क़स्बाई संस्कृति के किरदार आमतौर पर उनकी कहानियों के मुख्य पात्र बनते हैं। 

उनकी कहानियों में एक तरफ पढ़े लिखे किरदार दिखाई देते हैं तो दूसरी तरफ वेश्या जैसा किरदार भी उनकी कहानी में मुख्य जगह बनाता है। किसी कहानी में अपने ही रिश्तेदारों द्वारा प्रताड़ित एक विधवा है जिसे साज़िशन डायन का तमगा दे उसके अपने ही घर से बेदखल कर दिया जाता है। किसी कहानी में घर की बड़ी बेटी को उसके ही अभिभावकों द्वारा महज़ नोट कमाने की मशीन समझ उसके अरमानों का गला घोंटने की बात है। 

इसी संकलन की एक कहानी टूटते रिश्तों की कहानी है कि किस तरह रिश्तों की अहमियत के बीच जब पैसा आड़े आने लगता है तो उनके बिखरने में देर नहीं लगती। इसी संकलन की एक  अन्य कहानी में ट्रेन के सफ़र के दौरान कामातुर अधेड़ और एक युवती की कहानी है कि किस तरह वह युवती उस अधेड़ को शर्मिंदा करते हुए ट्रेन से उतरने पर मजबूर कर देती है। 

इसी संकलन की एक कहानी इस बात को ले कर लिखी गयी है कि किस तरह खुद के उज्ज्वल भविष्य की चाह में कई बार गरीब माँ बाप अपनी किसी संतान को गोद तो देते हैं लेकिन फिर उसकी कोई पूछ खबर नहीं रखते। इसी संकलन की एक कहानी में इस बात का जिक्र है कि किस तरह बाल मन, घर और स्कूल की डाँट से त्रस्त हो आत्महत्या तक की बात सोचने लगता है। इसी संकलन की एक कहानी में घर वैभव सब कुछ के होते हुए भी अपने पति की उपेक्षा झेल रही एक विवाहिता, अवैध कहे जाने वाले संबंध की गर्त में उलझ तो जाती है लेकिन फिर तुरंत ही पछताते हुए लौटने का प्रयास करती है मगर क्या वो इसमें सफल हो पाती है?

इसी संकलन की एक अन्य कहानी ऐसी युवती की कहानी है जिसके पति को विवाह होते ही पुलिस एक ऐसे जुर्म में गिरफ्तार कर जेल में डाल देती है जिसमें उसे उम्रकैद होने की संभावना है। ऐसे में वक्त के साथ समझौता करते हुए बहु पूरे मनोयोग से लाख झिड़कियाँ सहती हुई भी अपनी सास की सेवा करती रहती है। ऐसे में सास भी उसे अपनी बेटी मान उससे स्नेह जताते हुए उसके अन्यत्र कहीं विवाह को हामी भर घरजमाई बनाने की मंशा जताती है मगर तभी उसका बेटा बाइज़्ज़त छूट कर घर लौट आता है।

अंत में एक सुझाव है कि...कुछ जगहों पर स्थानीय/ प्रांतीय भाषा के इस्तेमाल होने की वजह से कई बार पढ़ने में थोड़ी असुविधा भी हुई। बेहतर होगा कि इस पुस्तक के अगले  संस्करण तथा आने वाली पुस्तकों में ऐसे वाक्यों  के हिंदी अनुवाद भी साथ में दिए जाएँ। एक जगह और तथ्यात्मक ग़लती दिखी कि वहाँ पर "रामानंद सागर की मंदाकिनी" लिखा गया है जिसे "राजकपूर की मंदाकिनी" होना चाहिए। 

कुल 88 पृष्ठों की इस उम्दा क्वालिटी की संग्रणीय स्तर की किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है शिल्पायन बुक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹175/- जो मुझे कम पृष्ठ संख्या होने की वजह से थोड़ा ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।

खट्टर काका- हरिमोहन झा



कहते हैं कि समय से पहले और किस्मत से ज़्यादा कभी कुछ नहीं मिलता। हम कितना भी प्रयास...कितना भी उद्यम कर लें लेकिन होनी...हो कर ही रहती है। ऐसा ही इस बार मेरे साथ हुआ जब मुझे प्रसिद्ध लेखक हरिमोहन झा जी द्वारा लिखित किताब "खट्टर काका" पढ़ने को मिली। इस उपन्यास को वैसे मैंने सात आठ महीने पहले अमेज़न से मँगवा तो लिया था लेकिन जाने क्यों हर बार मैं खुद ही इसकी उपस्तिथि को एक तरह से नकारता तो नहीं लेकिन हाँ...नज़रंदाज़ ज़रूर करता रहा। बार बार ये किताब अन्य किताबों को खंगालते वक्त स्वयं मेरे हाथ में आती रही लेकिन प्रारब्ध को भला कौन टाल सका है? इस किताब को अब..इसी लॉक डाउन के समय में ही मेरे द्वारा पढ़ा जाना लिखा था। खैर...देर आए...दुरस्त आए।


दिवंगत हरिमोहन झा जी एक जाने-माने लेखक एवं आलोचक थे। एक ऐसे शख्स जिनकी लेखनी धार्मिक ढकोसलों के खिलाफ पूरे ज़ोरशोर से चलती थी। उनका लिखा ज़्यादातर मैथिली भाषा में है जिसका और भी अन्य कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। उन्होंने 'खट्टर काका' समेत बहुत सी किताबें लिखीं जो काफी प्रसिद्ध हुई। उन्हें उम्दा लेखन के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। 

अपनी किताबों में हरिमोहन झा जी ने अपने हास्य व्यंग्यों एवं  कटाक्षों के ज़रिए सामाजिक तथा धार्मिक रूढ़ियों को आईना दिखाते हुए अंधविश्वास इत्यादि पर करारा प्रहार किया  है। मैथिली भाषा में आज भी हरिमोहन झा सर्वाधिक पढ़े जाने वाले लेखक हैं।

अब बात करते हैं उनकी किताब "खट्टर काका" की तो इस किताब का मुख्य किरदार 'खट्टर काका' हैं जिनको उन्होंने सर्वप्रथम मैथिली भाषा में रचा था। इस किरदार की खासियत है कि यह एक मस्तमौला टाइप का व्यक्ति है जो हरदम भांग और ठंडाई की तरंग में रहता है और अपने तर्कों-कुतर्कों एवं तथ्यों के ज़रिए इधर उधर और जाने किधर किधर की गप्प हांकते हुए खुद को सही साबित कर देता है।

इस किताब के ज़रिए उन्होंने हिंदू धर्म में चल रही ग़लत बातों को अपने हँसी ठट्ठे वाले ठेठ देहाती अंदाज़ में निशाना बनाया है। और मज़े की बात कि आप अगर तार्किक दृष्टि से उनका लिखा पढ़ो तो आपको उनकी हर बात अक्षरशः सही एवं सटीक नज़र आती है। खट्टर काका हँसी- हँसी में भी जो उलटा-सीधा बोल जाते हैं...उसे फिर अपनी चटपटी बातों के ज़रिए सबको भूल भुलैया में डालते हुए साबित कर के ही छोड़ते हैं।

रामायण, महाभारत, गीता, वेद, पुराण उनके तर्कों के आगे सभी के सभी सभी उलट जाते हैं। खट्टर काका के नज़रिए से अगर देखें तो हमें, हमारा हर हिंदू धर्मग्रंथ महज़ ढकोसला नज़र आएगा जिनमें राजे महाराजों की स्तुतियों, अवैध संबंधों एवं स्त्री को मात्र भोगिनी की नज़र से देखने के सिवा और कुछ नहीं है। ऊपर से मज़े की बात ये कि उन्होंने अपनी बातों को तर्कों, उदाहरणों एवं साक्ष्यों के द्वारा पूर्णतः सत्य प्रमाणित किया है। उन्होंने अपनी बातों को सही साबित करने के लिए  अनेक जगहों पर संबंधित श्लोकों का सरल भाषा में अनुवाद करते हुए, उन्हें उनके धार्मिक ग्रंथों के नाम सहित उल्लेखित किया है।

अगर आप जिज्ञासा के चश्मे को पहन खुली आँखों एवं खुले मन से हिंदू धर्म में चली आ रही बुराइयों एवं आडंबरों को मज़ेदार अंदाज़ में जाने के इच्छुक हैं, तो ये किताब आपके बहुत ही मतलब की है। इस किताब के 18वें पेपरबैक संस्करण को छापा है राजकमल पेपरबैक्स ने और इसका बहुत ही वाजिब मूल्य सिर्फ ₹199/- रखा गया है। उम्दा लेखन के लिए लेखक तथा कम दाम पर एक संग्रणीय किताब उपलब्ध करवाने के लिए प्रकाशक को साधुवाद।

नॉस्टेल्जिया

"नॉस्टेल्जिया"

बताओ ना...
पुन: क्यूँ रचें...लिखें...पढ़ें..
या फिर स्मरण करें..
एक दूसरे को ध्यान में रख कर लिखी गयी 
उन सब तमाम..
बासी..रंगहीन..रसहीन प्रेम कविताओं को 

बताओ ना...
क्यूँ स्मरण करें हम...
अपने उस रूमानी..खुशनुमा दौर को 
क्या मिलेगा या फिर मिलने वाला है..
आखिर!..इस सबसे अब हमें..
सिवाए ज़िल्लत...परेशानी और दुःख के अलावा 

अब जब हम जानते हैं..
अच्छी तरह से कि...
अब इन सब बातों का..
कोई असितत्व..कोई औचित्य नहीं...

तुम भी खुले मन और अपने अंत:करण से...
किसी और को स्वीकार कर चुकी हो...
और मैंने भी अब किसी और को 
अब अपने मन मस्तिष्क में..
राज़ी ख़ुशी..ख़ुशी से बसा लिया है 

बताओ ना..
पुन: क्यूँ रचें...लिखें...पढ़ें..
या फिर स्मरण करें..
एक दूसरे को ध्यान में रख कर लिखी गयी 
उन सब तमाम..
बासी..रंगहीन..रसहीन प्रेम कविताओं को 

सिवाए इसके कि यही नोस्टैल्जिया ही अब..
उम्र भर हमें जीने का संबल देता रहेगा

राजीव तनेजा

सब्र

"सब्र"

मुंह में दांत नहीं...
पेट में आंत नहीं..
फिर भी देख..
मौजूद कितना..
मुझमें सब्र है 

ब्याह करने को..
अब भी उतावला हूँ..
बेशक..पाँव लटके हैं..
और तैयार देखो..
हो रही मेरी कब्र है

कचरा- लघुकथा

"तंग आ गए यार खाली बैठे बैठे। तू बात कर ना शायद कहीं कोई ऑनलाइन काम ही मिल जाए। लॉक डाउन की वजह से यहाँ बाहर तो सब का सब ठप्प पड़ा है।"

"हाँ!...यार...खाली बैठे बैठे तो रोटियों तक के लाले पड़ने को हो रहे हैं।"

"तू बात कर ना कहीं। तेरी तो इतनी जान पहचान है।"

"हम्म....बात तो तू सही कह रहा है। खाली बैठे-बैठे तो मेरा दिमाग भी...लेकिन इस लॉक डाउन के चक्कर में अव्वल तो कोई काम मिलेगा नहीं और अगर कहीं कोई काम मिल भो गया तो पैसे बहुत थोड़े मिलेंगे।"

"पेट भरने लायक ही मिल जाएँ फ़िलहाल तो बस। कमाने की बाद में देख लेंगे।"

"हम्म...एक आईडिया तो है।"

"क्या?"

" मैं ऑनलाइन लघुकथा गोष्ठी वाले किसी एडमिन से बात कर के देखता हूँ। आज भी उनकी एक गोष्ठी है।"

"वहाँ भला हम कम पढ़े लिखों को क्या काम मिलेगा?"

"मैसेज वगैरह तो डिलीट कर लेगा ना?"

"हाँ...उसमें क्या बड़ी बात है? रोज़ ही तो मैं अपनी गर्लफ्रैंड के साथ हुई चैट को डिलीट करता हूँ लेकिन इससे भला.....

"अरे!...यार...लाख बार उन्होंने समझ के देख लिया लेकिन मैम्बर हैं कि वही ठस्स के ठस्स दिमाग।"

"मतलब?"

"बार बार सबको समझा दिया कि अपने दिए गए टाइम से पहले कुछ पोस्ट नहीं करना है लेकिन सब के सब....'वाह-वाह'...'बहुत खूब'...'मार्मिक' जैसे सैंकड़ों मैसेज एक साथ पोस्ट कर के पूरी गोष्ठी की ऐसी तैसी करे दे रहे हैं।"

"ओह!....

"तो ऐसे में उनको भी तो कोई ना कोई हैल्पर चाहिए होता होगा ना ये सब फालतू का कचरा हटाने के लिए? बेचारे कब तक अपनी उंगलियों की ऐसी तैसी करवाते रहेंगे खुद ही? उन्हीं से बात करता हूँ...उनका काम भी हो जाएगा और हमारा भी।"

"हाँ!...यार...तू उनको फटाफट मैसेज या फिर फोन कर दे इस बारे में पूछने के लिए।" 

"मैसेज ही कर देता हूँ। एक आध मैसेज से कौन सा कचरा फैल जाएगा?"

पते की बात- लघुकथा

क्या करें यार...यहाँ इस स्साले  लॉक डाउन में फँस कर तो बहुत बुरा हाल हो गया है। पता नहीं कब छुटकारा मिलेगा। इससे अच्छा तो घर ही चले जाते।" नरेश बड़बड़ाया।

"अरे!...क्या खाक घर चले जाते? कोई जाने देता तब ना। सुना नहीं तूने कि बाडर पर ही रोक के रख रहे हैं सबको...घर जाने नहीं दे रहे। तो जब घर पहुंचना ही नहीं है तो जैसे यहाँ..वैसे वहाँ।" रमेश उसे समझता हुआ बोला।

"हुंह!...जैसे वहाँ...वैसे यहाँ। शक्ल देखी है इस सड़ी सी सरकारी बिल्डिंग की...पेंट प्लास्टर सब उधड़ा पड़ा है। ऐसे लग रहा है जैसे जेल में ठूंस दिया गया हो। ऊपर से मच्छर इतने कि रात तो रात...दिन में भी ऊंघने नहीं दे रहे। और फिर बंदा खाली भी कब तक बैठा रहे? ऐसे बैठे बैठे तो हमारे शरीर को जंग लग जाएगा।" नरेश बुरा सा  मुँह बनाता हुआ बोला।

"हाँ यार ये तो सही कहा तूने। इन कंबख्त मारे मच्छरों  ने तो बुरा हाल कर रखा है। चलते फिरते  तक तो फिर भी ठीक...जहाँ पल दो पल को बैठने लगो...इनकी भैं भैं चालू हो जाती है।" रमेश हाथ से मच्छर उड़ाता हुआ बोला।

"वेल्ले काम इन सरकारी बंदों से जितने मर्ज़ी करा लो लेकिन नहीं...हाड गोड़े चलाने में तो इन्हें शर्म आती है।" कुर्सी पर आराम फरमा रहे अफसर को देख नरेश मुँह बनाता हुआ बोला।

"हाँ!...तूने देखा गोदाम में? रंग रोगन का सारा सामान आया पड़ा है लेकिन इन स्सालों को गप्पबाज़ी से फुरसत मिले तब तो सोचें इस सब के बारे में।" रमेश, नरेश के कान में फुसफुसाया।

"इन स्सालों को तो बस बैठे बैठे तनख्वाह चाहिए एकदम खरी...शर्म भी नहीं आती भैंन के......@@#$%#@$ को।" वितृष्णा से वशीभूत हो नरेश ने गाली दी।

"यार...वैसे एक बात कहूँ? शर्म तो थोड़ी बहुत हमें भी आनी चाहिए कि दस दिन से बैठे बैठे मुफ्त में इनका दिया खा रहे हैं।" रमेश कुछ सोचता हुआ बोला।

"कौन सा इनकी जेब से जा रहा है? सरकारी पैसा है..सरकारी पैसे की तो ऐसे ही लूट होती है।" नरेश ने अपनी समझाइश दी।

"लेकिन यार...मेरा दिल नहीं मान रहा...ऐसे मुफ्त के माल से तो अच्छा है कि...( रमेश के चेहरे पर ग्लानि के भाव थे।)

"हम्म!...बात तो यार तू सही कह रहा है। क्यों ना एक काम करें?" नरेश खड़ा होता हुआ बोला।

"क्या?"

"और लोग भी तो हम जैसों को खिला के कुछ न कुछ पुण्य कमा ही रहे हैं।"

"तो?" रमेश ने प्रश्न किया।

"हमारा भी तो कोई फ़र्ज़ बनता है।"

"हाँ!...यार, बात तो तू सही कह रहा है लेकिन हम लेबर क्लास लोग..कर ही क्या सकते हैं?"

"करना चाहें तो यार...बहुत कुछ कर सकते हैं।"


"जैसे?

"जैसे इस बिल्डिंग को ही लो...इसी की ही सफाई पुताई कर के चमका देते हैं।"

"अफसर लोग मान जाएंगे?" रमेश ने शंका ज़ाहिर की।

"बात कर के देखते हैं...इसमें क्या हर्ज है? वैसे... ये तो यार तूने  एकदम पते की बात की। मैं अभी अफसर साब से बात कर के आता हूँ।" नरेश उठ कर खड़ा होता हुआ बोला।

"रुक...मैं भी साथ चलता हूँ। इस बहाने हाड गोड्डों को जंग भी नहीं लगेगा।"


 
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