"अच्छा...सुनो...मैं सोच रही थी कि बड़े दिन हो गए सिंपल सिंपल सा बनाते खाते हुए...तो आज कुछ अच्छा बना लेती हूँ। बोलो..क्या बनाऊँ?"
"अपने आप देख लो।"
"नहीं...तुम बताओ...
"सबसे अच्छा तो मेरे ख्याल से तुम मुँह बनाती हो।"
"तुम भी ना...हर टाइम बस मज़ाक ही करते रहा करो और कोई काम तो है नहीं।"
"अरे!....काम का तो तुम नाम ही मत लो। जब से ये मुय्या कोरोना शुरू हुआ है। काम धंधे तो वैसे ही सारे के सारे ठप्प पड़ गए हैं।"
"हम्म!...बात तो तुम सही ही कह रहे हो।"
"अच्छा...अब अगर तुम तशरीफ़ ले जाओ तो अपना मैं काम कर लूँ?"
"हुंह!...ये किताबें पढ़ना भी भला कोई काम है? ये तो तुम अपने मज़े के लिए पढ़ते हो।"
"तो तुम भी मज़े ले लो। लो...एक...बस एक किताब पूरी पढ़ के दिखा दो तो मैं मान जाऊँ।"
"मेरे बस का नहीं है ये किताब फिताब पढ़ना। एंड फ़ॉर यूअर काइंड इन्फॉर्मेशन...काम उसे कहते हैं जिससे चार पैसे रोज़ाना घर में आएँ। ये नहीं कि दिन रात इन्हीं में तुम अपनी आँखें गड़ा कर चश्मे का नम्बर बढ़वाते फ़िरो और घर आए चवन्नी भी नहीं। बताओगे ज़रा कि साल में तुम अपने पल्ले से कितने रुपयों के चश्में बदलवाते हो?"
"फिर शुरू हो गयी ना तुम? पता भी है कुछ कि कितना दिमाग लगता है इनको पढ़ने और फिर इन पर समीक्षा लिखने में?"
"मुझे बस इतना पता है कि तुम इन्हें अपने मज़े के लिए पढ़ते हो।
"तो तुम भी मज़े ले लो ना...किसने रोका है? अच्छा...एक काम करो...तुम एक नहीं...दो दो मज़े ले लो।"(एक के बजाय दो दो किताबें पकड़ाते हुए।)
"ना...मुझे नहीं लेने ये वाले मज़े। मैं तो अपने आप अलग तरीके से मज़े ले लूँगी।"
"कैसे?"
"लाओ...मुझे अभी के अभी पाँच हज़ार रुपए दो।"
"किसलिए?"
"मज़े करूँगी।"
"कैसे?"
"क्यों बताऊँ? तुम बस मुझे पैसे दे दो।"
"अरे!...लेकिन पता तो चले कि किसलिए तुम्हें चाहिए पैसे?"
"तुम मुझे बताते हो कि तुम कैसे और कहाँ खर्च करते हो पैसे?"
"तो?"
"तो मैं भी नहीं बताऊँगी कि मैं पैसों का क्या करूँगी।"
"ये तो कोई भी बात नहीं हुई कि नहीं बताओगी। बिना बताए तो भय्यी बिल्कुल पैसे नहीं मिलेंगे।"
"मुझे ना..दरअसल एक अवार्ड मिल रहा है।"
"घर बैठे?"
"हाँ....
"अरे!...वाह...कौन बेवकूफ है जो....
"मैं ज़रा सा कुछ बोल दूँ सही... फटाक से ताना मार दोगे कि...फिर से शुरू हो गयी। अब बताओगे ज़रा कि अब कौन शुरू हुआ है?"
"अच्छा....चलो छोड़ो....मगर कैसे? कौन सा ऐसा अवार्ड है जो बिना कुछ करे धरे...घर बैठे ही मिलने लगा?"
"हाँ!....मैं तो जैसे कुछ करती ही नहीं हूँ।"
"अरे!...मैं घर के कामों की बात नहीं कर रहा हूँ।"
"मुझे ना...मुझे ना दरअसल कोरोना वारियर्स का अवार्ड मिल रहा है।"
"लेकिन अब तक के पूरे लॉक डाउन में तो इस डर से तुम घर से बाहर निकली ही नहीं कि कहीं ग़लती से भी तुम्हें कोरोना ना चिपट जाए।"
"तो?...पुष्पा, जमीला और राधा भी कौन सा घर से बाहर निकली हैं लेकिन अवार्ड तो उन्हें भी मिल रहा है।"
"मगर कैसे?"
"बस...ऐसे ही।"
"चलो..छोड़ो...अच्छा ये बताओ कि क्या अवार्ड की खुशी को सेलिब्रेट करना चाहती हो जो उसके लिए पैसे चाहिए?"
"नहीं...अभी फिलहाल तो लॉक डाउन के चक्कर में पार्टी करना पॉसिबल ही नहीं है। अगर चोरी छुपे कैसे भी कर के कर भी ली तो तुम्हें पता नहीं कि आजकल जलने वालों की कमी नहीं है।"
"तो?...उनके डर से पार्टी नहीं करोगी?"
"अरे!... कोई ना कोई कंबख्त पुलिस मे रिपोर्ट कर ही देगा और फिर पुलिस का तो तुम्हें पता ही है कि कैसे दनादन लट्ठ बजाती है? अभी पिछले हफ्ते ही तो....
"तुम ना बस मेरे ही पीछे पड़ी रहा करो। अभी ज़रूरी था उस बात का जिक्र करना?"
"चलो!....अच्छा सॉरी। पार्टी के लिए तो मैं तुमसे बाद में अलग से पैसे लूँगी। "
"ओके डन...अभी मगर फिलहाल तो मुझे ये समझ नहीं आ रहा कि तुम्हें कोई अवार्ड क्यों और कैसे मिल रहा है? "
"पहली बात तो ये कि ये कोई वाला अवार्ड नहीं है। बहुत ही प्रतिष्ठित अवार्ड है और दूसरा ये कि तुम ना बस मुझे कभी घर की मुर्गी दाल बराबर से ज़्यादा मत समझना। बाहर जा के पता करो कि मेरा कितना नाम है...लोग कितनी मेरी इज़्ज़त करते हैं...मुझे कितना पूछते हैं।"
"बाहर?"
"हाँ!....बाहर"
"ये बाहर जा के पता करने की बात तुम जानबूझ के कर रही हो ना?"
"ओह....अच्छा....सॉरी....सॉरी।"
"हम्म....
"अच्छा ये बताओ...तुम घंटेश्वर जी को जानते हो?"
"क्या वही घंटेश्वर जी, जिनके तुम फेसबुक पर बड़े बड़े पुलिस वालों के साथ फोटो दिखाती रहती हो? ओह!....हाँ...याद आया वही ना...जिनका फेसबुक पर 'पुलिस के साथी' के नाम से पेज और शायद ग्रुप भी बना हुआ है।"
"हाँ...हाँ...वही।"
"क्यों?...क्या हुआ?...कोरोना के लपेटे में आ के क्या कंबख्त लुड़क गया?"
"हुंह!...तुम्हें तो हर वक्त बस मज़ाक ही सूझता रहता है। कोई काम की बात करने लगो तो मज़ाक। बिना काम की बात करो तो मज़ाक।"
"अच्छा...अच्छा बाबा...मैं सीरियस हो जाता हूँ। तुम बताओ कि क्या हुआ है उसको?"
"किसी का नाम तमीज़ से भी लिया जा सकता है।"
"ओह!....सॉरी...अच्छा ये बताओ की उनको क्या हुआ है?"
"फ़ॉर यूअर इन्फॉर्मेशन...उनको कुछ नहीं हुआ है। बल्कि जो हुआ है...मुझको ही हुआ है।"
"क्या?"
"उनसे अवार्ड लेने का भूत सवार।"
"वो अवार्ड बाँटते हैं?"
"पहले का तो पता नहीं...मगर हाँ....आजकल तो खूब बाँट रहे हैं...धड़ाधड़ बाँट रहे हैं।"
"अब अगर कोई बंदा अपनी खुशी से सब में खुशी बाँट रहा है तो मर्ज़ी है तुम्हारी....ले लो लेकिन मुझे ना ये सब कुछ ठीक नहीं लग रहा कि कोई ऐसे...खामख्वाह...फ्री में अवार्ड बाँट रहा है। ज़रूर दाल में कुछ काला है या फिर उसे किसी पागल कुत्ते के काटा होगा।"
"हुंह!...पागल कुत्ते के काटा होगा और फिर फ्री में तुमसे किसने कह दिया कि दे रहा है? उसी को देने के लिए ही तो मैं तुमसे 5000 माँग रही थी।"
"इसका मतलब पागल कुत्ते ने उसको नहीं..पक्का तुमको काटा है।"
"मुझे भला क्यों काटने लगा...मैं कौन सा घर से बाहर निकलती हूँ?"
"अरे!...जब किस्मत फूटी हो ना तो ऊँट पे बैठे हुए बंदे को भी कुत्ता काट जाता है।"
"बंदे को ही ना...बंदी को तो नहीं ना?"
"तुम ना बस...बात पकड़ के बैठ जाया करो।"
"तो?...बीवी किसकी हूँ?"
"हाँ!....अफसोस तो इसी बात का है कि बीवी तो तुम मेरी ही हो।"(ठंडी सांस लेते हुए)
"तो लाओ...निकालो इसी बात पे पूरे पाँच हज़ार रुपए।"
"अच्छा...कब होना है ये अवार्ड?"
"होना क्या है? वो तो आलरेडी चल रहा है।"
"कहाँ?"
"फेसबुक पर।"
"तो अवार्ड भी इसका मतलब फेसबुक पर ही मिलेगा?"
"और नहीं तो क्या घर पे आ के देंगे?"
"एक मिनट....अवार्ड फेसबुक पर मिलेगा। तो इसका मतलब सर्टिफिकेट वगैरह भी सब फेसबुक पर ही मिलेगा?" (कुछ सोचते हुए।)
"हाँ...
"इसका मतलब...हाथ में छूने के लिए कुछ ठोस नहीं मिलेगा?"
"मिलेगा ना।"
"क्या?"
"घँटा...
"कक्....क्या? तुमने घँटा कहा?"
"हाँ....पैसे ऑनलाइन भेजने के बाद अपना एड्रेस भी भेजना है उनको।"
"किसलिए?"
"अभी बताया तो...
"क्या?"
"यही कि...कोरियर से वो भेजेंगे।"
"घँटा?"
"हाँ...
"मैं कुछ समझा नहीं।"
"तुम ना निरे बुद्धू हो।"
"कैसे?"
"पिछली बार मैंने क्या बताया था?"
"क्या?...
"यही कि उनके ग्रुप का लोगो 'घँटा" है। तो बट नैचुरल ही है कि वो हमें घँटा ही भेजेंगे।"
"पीतल का?"
"नहीं!...सोने का।"
"सच्ची?"
"दिमाग खराब है तुम्हारा? वैसे इतना समझदार बनते हो मगर महज़ पाँच हज़ार में सोने का घँटा सोच रहे हो। घंटा दिमाग है तुम्हारे पास।"
"मगर....
"अरे!...अगर उनके ग्रुप का लोगो घँटा है तो इसका ये मतलब तो नहीं हो जाता कि वो सचमुच का घँटा ही भेजें।"
"तो?"
"सर्टिफिकेट पे मेरे नाम के साथ छपा हुआ गोल्डन कलर का घँटा फ्रेम करवा कर भेजेंगे।"
"बस्स?....
"अरे!....इतना मान सम्मान दे रहे है। ये क्या कम है?"
"नहीं...नहीं...ये तो बहुत है। इतना है कि संभाले नहीं संभलेगा हमसे।"
"और नहीं तो क्या?"
"अच्छा...एक बात सच सच बताओ...
"क्या?"
"यही कि इस अवार्ड की सुबह शाम तुम धूप बत्ती करोगी या फिर नींबू मिर्च लगा के चाटोगी?"
"हाँ....चाटूँगी लेकिन फ़ॉर यूअर काइंड इन्फॉर्मेशन...नींबू मिर्च लगा कर नहीं बल्कि दूध मलाई लगा कर चाटूँगी।"
"कैसे?"
"वो ऐसे...इस अवार्ड के मिलने के बाद हमारे सारे रिश्तेदार और सारी सहेलियों की छाती पे तो पक्का साँप लौटने वाले तो। तो मारे खुशी के मैं दूध मलाई ही तो जी भर के चाटूँगी।"
"ओह!...यय....ये क्या? ये तुम्हारा हाथ क्यूँ कांप रहा है? तबियत तो ठीक है ना?"
"कुछ खास नहीं...बस ऐसे ही....तुम बेझिझक हो के बेधड़क सुनाओ...मैं लपेट रहा हूँ।"
"हुंह!...इसका मतलब तुम पैसे नहीं दोगे?"
"बेफालतू के कामों के लिए मेरे पास पैसे नहीं है।"
"ये बेफालतू का काम है।"
"नहीं!....बहुत ज़रूरी काम है।"
"सीधे सीधे तुम कह क्यूँ नहीं देते कि तुम मेरी सफलता से...मेरी कामयाबी से जलते हो।"
"मैं?...मैं जलता हूँ।"
"हाँ...तुम...तुम जलते हो।"
"अच्छा...तुम्हें बस सर्टिफिकेट ही चाहिए ना?"
"हाँ....
"अगर बिना कुछ खर्च किए तुम्हें मैं दिला दूँ तो खुश हो जाओगी?"
"हाँ....बिल्कुल।"
"मगर सर्टिफिकेट पे नाम तुम्हारे उस घंटेश्वर जी का नहीं होगा।"
"मुझे नाम से भला क्या लेना है? वैसे भी उसे फेसबुक से बाहर की दुनिया में और भला जानता ही कौन है?"
"हम्म!....सर्टिफिकेट और अवार्ड दिखा कर वैसे भी तो रिश्तेदारों और सहेलियों को ही तो बस इम्प्रेस करना है।"
"बिल्कुल।"
"तो बस अभी तुम मुझे आधा एक घँटा दो। ऐसा धाँसू अवार्ड और सर्टिफिकेट का डिज़ायन ना बनाया ना तो मेरा तुम नाम बदल देना।"
"तुम बनाओगे?....सच्ची तुम बनाओगे?"
"हाँ!...भय्यी...मैं ही बनाऊँगा। तुम्हें पता तो है कंप्यूटर ग्राफिक्स में मेरा हाथ कमाल का चलता है।"
"अरे!...फिर तो मज़ा आ जाएगा। हींग लगी ना फिटकरी और रंग चोखा ही चोखा।"
"बिल्कुल....
"अच्छा एक काम करोगे?"
"एक क्या दो बोलो...बस बेफालतू का खर्चा नहीं होना चाहिए।"
"हा....हा....हा...मैं सोच रही थी कि...
अच्छा एक काम करो...जब प्रिंट निकालने लगो ना तो दो चार सर्टिफिकेट एक्स्ट्रा निकाल लेना पुष्पा, जमीला और राधा के नाम से।"
"किसलिए?"
"मैं सोच रही थी कि उनकी भी क्यों हींग और फिटकरी लगे?"
"अरे!...वाह...नेकी भी करना चाहती और वो भी पूछ पूछ के? बिल्कुल बना दूँगा। अगर बोलोगी तो दो चार और का भी बना दूँगा।"
"रहने दो...ऐसे रेवड़ियों की तरह बाँट के मुझे अपने अवार्ड की भदद नहीं पिटवानी है।"
{अंत में दोनों एक साथ)
"ऐसे ठगों से बचें जो आपको अवार्ड देने के नाम पर आपकी मेहनत का पैसा ठगने की फिराक में रहते हैं।"
बेसिक स्टोरी आईडिया- सुमित प्रताप सिंह