वो फ़ोन कॉल- वंदना बाजपेयी
जब भी हम किसी लेखक या लेखिका की रचनाओं पर ग़ौर करते हैं तो पाते है कि बहुत से लेखक/लेखिकाएँ अपने एक ही सैट पैटर्न या ढर्रे पर चलते हुए..एक ही जैसे तरीके से अपनी रचनाओं का विन्यास एवं विकास करते हैं। उनमें से किसी की रचनाओं में दृश्य अपने पूरे विवरण के साथ अहम भूमिका निभाते हुए नज़र आते हैं। तो किसी अन्य लेखक या लेखिका की रचनाओं में श्रंगार रस हावी होता दिखाई देता है। कुछ एक रचनाकारों की रचनाएँ बिना इधर उधर फ़ालतू की ताक झाँक किए सीधे सीधे मुद्दे की ही बात करती नज़र आती हैं। खुद मेरी अपनी स्वयं की रचनाओं में दो या तीन से ज़्यादा किरदार नहीं होते जो संवादों के ज़रिए अपनी बात को पूरा करते हैं।
ऐसे में अगर कभी आपको विविध शैलियों में लिखने वाले किसी रचनाकार की रचनाएँ पढ़ने को मिल जाएँ तो इसे आप सोने पे सुहागा समझिए।
दोस्तों.. आज मैं अपने आसपास के माहौल से प्रेरित होकर लिखी गई रचनाओं के एक ऐसे कहानी संकलन की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'वो फ़ोन कॉल' के नाम से लिखा है वंदना बाजपेयी ने।
इस संकलन की प्रथम कहानी में अपने अवसाद ग्रसित भाई, विवेक को पहले ही खो चुकी रिया के पास जब एक रात अचानक किसी अनजान नम्बर से मदद की चाह में एक अनचाही कॉल आती है तो वो खुद भी बेचैन हो उठती है कि दूसरी तरफ़ कोई अनजान युवती, आत्महत्या करने से पहले उससे अपना दुःख..अपनी तकलीफ़.. अपनी व्यथा सांझा करना चाहती है। ऐसी ही मानसिक परिस्थितियों को अपने घर में स्वयं देख चुकी रिया क्या ऐसे में उसकी कोई मदद कर पाएगी?
इसी संकलन की एक अन्य कहानी में तरह-तरह के व्यंजन बनाने में निपुण ज्योति चाहती है कि उसका पति उसके बनाए खाने की तारीफ़ करे मगर उसे ना अपने पति से और ना ही बेटे से कभी किसी किस्म की तारीफ़ मिलती है। कहानी के अंत तक आते आते उसे अपने बनाए खाने की तारीफ़ मिलती तो है मगर..
तो वहीं एक अन्य कहानी उन मध्यमवर्गीय परिवारों की उस पित्तात्मक सोच को व्यक्त करती नज़र आती है जिसके तहत बेहद ज़रूरी होने पर भी घर की स्त्रियों को कभी झिझक..कभी इज़्ज़त तो कभी आत्म सम्मान के नाम पर बाहर काम कर के कमाने के लिए अनुमति नहीं दी जाती है।
इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की प्रेरणा देती अपने अंत तक पहुँचते पहुँचते भावुक कर देती है। तो वहीं एक अन्य कहानी छोटे शहर से दिल्ली में नौकरी करने आयी उस वैशाली की बात करती है जो ऑफिस में अपने बॉस द्वारा खुद को लगातार घूरे जाने से परेशान है। नौकरी छोड़ वापिस अपने शहर लौटने का मन बना चुकी वैशाली क्या इस दिक्कत से निजात पा पाएगी या फ़िर इस सबके के आगे घुटने टेक यहीं की हो कर रह जाएगी?
इसी संकलन की एक अन्य रचना में लेखिका ने विभिन्न पत्रों के माध्यम से एक माँ के अपने बेटे के साथ जुड़ाव और उसमें आए बदलाव को बेटे के जन्म से ले कर उसके (बेटे के) प्रौढ़ावस्था तक पहुँचने की यात्रा के ज़रिए वर्णित किया है।
इसी संकलन की एक अन्य कहानी में माँ समेत सभी बच्चे पिताजी के गुस्से की वजह से सहमे और डरे हुए हैं कि माँ, अपनी बार बार भूलने की आदत की वजह से, इस बार भी अपने हाथ की दोनों अँगूठियों को कहीं रख कर भूल कर चुकी है। जो अब एक हफ़्ते बाद भी लाख ढूँढने के बावजूद भी नहीं मिल रही हैं। क्या माँ समेत सभी बच्चों की उन्हें ढूँढने की सारी मेहनत..सारी कवायद रंग लाएगी अथवा अब उन अँगूठियों को इतने दिनों बाद भूल जाना ही बेहतर होगा?
इसी संकलन की एक अन्य कहानी एक ऐसे दंपत्ति की बात करती दिखाई देती देती है जो, समाज में दिखावे के लिए खरीदे गए, बड़े फ्लैट और महँगी गाड़ी इत्यादि की ई.एम.आई भरने की धुन में दिन रात ओवरटाइम कर पैसा तो कमा रहे हैं। मगर इस चक्कर में वे अपने इकलौते बेटे तक को भी उसकी परवरिश के लिए ज़रूरी समय और तवज्जो नहीं दे पाते। नतीजन टी.वी, मोबाइल और लैपटॉप के ज़रिए अपने अकेलेपन से जूझ रहा उनका बेटा एक दिन आत्महत्या को उकसाती एक भयावह वीडियो गेम के चंगुल में फँसता चला जाता है। अब देखना ये है कि क्या समय रहते उसके माँ-बाप चेत पाएँगे अथवा अन्य हज़ारों अभिभावकों की तरह वे भी अपने बच्चे की जान से हाथ धो बैठेंगे?
इसी संकलन की एक अन्य कहानी ऑर्गेनिक फल-सब्ज़ियों से होती आजकल के तथाकथित फ़टाफ़ट वाले डिस्पोजेबल प्यार के ज़रिए इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि कई बार हम सब कुछ पास होते हुए ख़ाली हाथ होते हैं।
इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ प्रतिशोध की ज्वाला में जलते हुए उस सफ़ल व्यवसायी नीरज की बात करती है जिसे उसके बचपन में दादा ने अपने बेटे की अचानक हुई मौत के बाद ये कहते हुए उसकी माँ के साथ घर से दुत्कार कर निकाल दिया था कि वो उसके बेटे को खा गयी और ये एक नाजायज़ औलाद है। तो वहीं एक अन्य कहानी घर भर के सारे काम करती उस छोटी बहू, राधा की बात करती है जिसकी सौतेली माँ और पिता ने उसे , उसके ब्याह के बाद बिल्कुल भुला ही दिया है। घर में बतौर किराएदार रखे गए कुंवारे जीवन की निस्वार्थ भाव से मदद करने की एवज में उस पर घर की जेठ-जेठानियों द्वारा झूठे लांछन लगाए तो जाते हैं मगर अंततः सच की जीत तो हो कर रहती है।
इसी संकलन की एक कहानी एक ऐसी नयी लेखिका की व्यथा व्यक्त करती नज़र आती है जो एक तरफ़ अपनी रचनाओं के लगातार अस्वीकृत होने से परेशान है तो दूसरी तरफ़ लोगों की साहित्य के प्रति अरुचि के चलते फुटपाथ पर रद्दी के भाव बिकती साहित्यिक किताबों को देख कर टूटने की हद तक आहत है।
इस संकलन की एक आध कहानी मुझे थोड़ी फिल्मी लगी। कुछ कहानियाँ जो मुझे ज़्यादा बढ़िया लगी। उनके नाम इस प्रकार हैं।
*वो फ़ोन कॉल
*तारीफ़
*अम्मा की अँगूठी
*ज़िन्दगी की ई.एम.आई
*बददुआ
*वज़न
इस कहानी संकलन की जो कॉपी मुझे पढ़ने को मिली, उसमें बाइंडिंग के स्तर पर कमी दिखाई दी कि पेज एक तरतीब में सिलसिलेवार ढंग से लगने के बजाय अपने मन मुताबिक आगे पीछे लगे हुए दिखाई दिए जैसे कि पेज नम्बर 52 के बाद सीधे पेज नम्बर 65 और 68 के बाद 77 दिखाई दिया। इसके बाद पेज नम्बर 80 के बाद पेज नम्बर 61 लगा हुआ दिखाई दिया। ठीक इसी तरह आगे भी आगे के पेज पीछे और पीछे के पेज आगे लगे हुए दिखाई दिए। जिस पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है।
वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का इस्तेमाल ना किया जाना थोड़ा खला। प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी काफ़ी जगहों पर 'कि' की जगह पर 'की' लिखा हुआ नज़र आया। इसके अतिरिक्त पेज नंबर 50 पर लिखा दिखाई दिया कि..
एक दिन निशा की एक सहेली उससे मिलने आयी और छोटे से फोन पर फेसबुक करते हुए बोली'
यहाँ निशा की सहेली ने निशा को छोटे से फोन पर फेसबुक करते हुए देख कर बोला है यह वाक्य बोला है जबकि वाक्य पढ़ने से ऐसा लग रहा है जैसे निशा की सहेली ने ही छोटे फोन का इस्तेमाल किया है जबकि ऐसा नहीं है। इसलिए यह वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..
'एक दिन निशा की एक सहेली उससे मिलने आयी और उसे छोटे से फोन पर फेसबुक करते हुए देख बोली'
पेज नंबर 122 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..
'मजाल है दफ़्तर जाने में किसी को देर ना हो जाए'
यहाँ घर की छोटी बहू के काम की पाबंद होने की बात कही जा रही है लेकिन ये वाक्य इसी बात को काटता दिखाई दिया। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
'मजाल है दफ़्तर जाने में किसी को देर हो जाए'
इसी संकलन की एक कहानी का प्रसंग मुझे तथ्यात्मक रूप से सही नहीं लगा जिसमें पति की अचानक हुई मृत्यु के बाद अपने पाँच वर्षीय बेटे के भविष्य की चिंता में उसे ले कर जब उसकी माँ अपने गुस्सैल ससुर के पास जाती है। तो उनके अंतरजातीय विवाह से नाराज़ उसका ससुर उसे व उसके बेटे यानी कि अपने पोते को ये कह कर दुत्कारते हुए भगा देता है कि "वो उसके बेटे को खा गयी है और ये उसकी नहीं बल्कि किसी और की नाजायज़ औलाद है।" अपनी माँ को रोता गिड़गिड़ाता हुआ देख पोता, अपने दादा से इस अपमान का बदला लेने की कसम खाते हुए गुस्से में वहाँ से अपनी माँ के साथ लौट जाता है और ईंटों के एक भट्ठे पर काम कर के अपना तथा अपनी माँ का पेट भरने के साथ साथ दसवीं तक की पढ़ाई भी करता है।
यहाँ मेरे ज़ेहन में ये सवाल कौंधा कि क्या मात्र पाँचवीं में पढ़ने वाला बच्चा स्वयं में इतना सक्षम था या हो सकता है कि पढ़ने के साथ- साथ वो कड़ी मेहनत से अपना व अपनी माँ का पेट भी भर सके? हो सकता है जिजीविषा और हिम्मत के बल पर ऐसा हो पाना संभव हो मगर फ़िर यहाँ सवाल उठ खड़ा होता है कि अगर ऐसा संभव है
भी तो क्या उसकी माँ स्वयं, खुद हाथ पे हाथ धरे बैठ, अपने बेटे को कड़ी मशक्कत कर पसीना बहाते देखती रही?
यूँ तो धारा प्रवाह शैली में लिखा गया ये उम्दा कहानी संकलन मुझे लेखिका से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस 167 पृष्ठीय बढ़िया कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 225/- रुपए जो कि क्वॉलिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई।