पाकिस्तान मेल - खुशवंत सिंह - उषा महाजन (अनुवाद)


भारत-पाकिस्तान के त्रासदी भरे विभाजन ने जहाँ एक तरफ़ लाखों करोड़ों लोगों को उनके घर से बेघर कर दिया तो वहीं दूसरी तरफ़ जाने कितने लोग अनचाही मौतों का शिकार हो वक्त से पहले ही इस फ़ानी दुनिया से कूच कर गए। हज़ारों-लाखों लोग अब तक भी अपने परिवारजनों के बिछुड़ जाने के दुख से उबर नहीं पाए हैं। सैंकड़ों की संख्या में बलात्कार हुए और अनेकों बच्चे अपने परिवारजनों से बिछुड़ कर अनाथ के रूप में जीवन जीने को मजबूर हो गए। इसी अथाह दुःख और विषाद से भरी घड़ियों को ले कर अब तक अनेकों रचनाएँ  लिखी जा चुकी हैं और आने वाले समय में भी लिखी जाती रहेंगी। 


दोस्तों आज मैं इसी भयंकर राजनैतिक भूल से उपजी दुःख और अवसादभरी परिस्थितियों को ले कर रचे गए ऐसे उपन्यास के हिंदी अनुवाद की बात करने जा रहा हूँ जिसे मूलतः अँग्रेज़ी में 'ट्रेन टू पाकिस्तान' के नाम से लिखा था प्रसिद्ध अँग्रेज़ी लेखक 'खुशवंत सिंह' ने और इसी उपन्यास का 'पाकिस्तान मेल' के नाम से हिंदी अनुवाद किया है उषा महाजन ने।


इस उपन्यास की मूल कथा में एक तरफ़ कहानी है भारत-पाकिस्तान की सीमा पर बसे एक काल्पनिक गाँव 'मनो माजरा' में रहने वाले जग्गा नाम के एक सज़ायाफ्ता मुजरिम की। जिसने अपने गांव की ही एक मुस्लिम युवती के प्यार में पड़ सभी बुरे कामों से तौबा कर ली है। इसी बात से नाराज़ उसके पुराने साथियों को उसकी ये तौबा रास नहीं आती और वे जानबूझकर उसे फँसाने के लिए उसी के गांव में डाका डाल कर एक व्यक्ति की हत्या कर देते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है वामपंथी विचारधारा से प्रेरित एक पढ़े-लिखे सिख युवक इकबाल सिंह की, जिसे आम जनता के विचारों की टोह लेने एवं उन्हें प्रभावित करने के मकसद से 'मनो माजरा' में उसके नेताओं द्वारा भेजा गया है। 


इस उपन्यास में कहीं भारत-पाक विभाजन की त्रासदी के दौरान पनपती आपसी नफ़रत और अविश्वास की बात होती नज़र आती है तो कहीं धार्मिक सोहाद्र और इंसानियत से भरी प्रेमभाव की बातें होती नज़र आती हैं। कहीं कत्लेआम के ज़रिए दोनों पक्षों (हिंदू और मुसलमान) के निरपराध नागरिक हलाक होते नज़र आते हैं तो कहीं अफसरों के ऐशोआराम और अय्याशियों की बात होती नजर आती है। 


कहीं देश हित के नाम पर तख़्तापलट के ज़रिए सत्ता परिवर्तन के मंसूबों को हवा मिलती दिखाई देती है तो कहीं देश में बेहिसाब बढ़ती जनसंख्या की बात की जाती दिखाई देती है।

इसी उपन्यास में कहीं जबरन उलटे- सीधे आरोप लगा कर किसी को भी पुलिस अपने जाल में फँसाती नज़र आती है तो कहीं पुलिस थानों में होने वाली कागज़ी कार्यवाही में अपनी सुविधानुसार लीपापोती की जाती दिखाई देती है। कहीं जेल में कैदियों को दी जाने वाली सुविधाओं में भी कैदी-कैदी के बीच भेदभाव होता दिखाई देता है तो कहीं सरकारी महकमों में पद और योग्यता के हिसाब से ऊँच-नीच होती नज़र आती है।


इसी कहानी में कहीं हिन्दू लाशों से भर कर पाकिस्तान से ट्रेन के आने की बात के बाद सरकारी अमला अलर्ट मोड में आता दिखाई देता है तो कहीं गाँव घर से इकट्ठी की गई लकड़ी और मिट्टी के तेल की मदद से उन्हीं लाशों का सामुहिक दाहकर्म होता दिखाई देता है। कहीं लकड़ी और तेल की कमी के चलते सामूहिक रूप से लाशें दफनाई जाती नज़र आती हैं। तो कहीं  सरकार एवं पुलिस महकमा अपने उदासीन रवैये के साथ पूरी शिद्दत से मौजूद नज़र आता है। कहीं लूट-खसोट, छीनाझपटी और बलात्कार इत्यादि में विश्वास रखने वाले हावी होते नज़र आते हैं तो कहीं पुलिसिया कहर और हुक्मरानों द्वारा जबरन अपनी इच्छानुसार किसी पर भी कोई भी इल्ज़ाम थोप देने की बात होती नज़र आती है। 


इसी किताब में कहीं अंधविश्वास और सेक्स से जुड़ी बातों को लेकर भारतीय मानसिकता की बात की जाती दिखाई देती है। तो कहीं मिलजुल कर शांति और प्रेमभाव से रह रहे सिखों और मुसलमानों के बीच शक-शुबह के बीज बो नफ़रत पैदा करने के हुक्मरानी मंसूबो को हवा मिलती नज़र आती है। कहीं पाकिस्तान की तरफ़ से सतलुज नदी में कत्ल कर दिए गए बेगुनाह बच्चों, बूढ़ों और औरतों के कष्ट-विक्षत शवों के बह कर भारत की तरफ़ आने का रौंगटे खड़े कर देने वाला दृश्य पढ़ने को मिलता है। तो कहीं योजना बना कर मुसलमानों से भरी पाकिस्तान जा रही ट्रेन में सामूहिक नरसंहार को अंजाम दिया जाता दिखाई देता है। जिस पर पुलिस एवं स्थानीय प्रशासन भी अपने उदासीन रवैये के ज़रिए इस सब को होने देने के लिए रज़ामंद नज़र आता है। 


इस तेज़, धाराप्रवाह, रौंगटे खड़े कर देने वाले रोचक उपन्यास 

में कुछ एक जगहों पर मुझे प्रूफरीडिंग की कमियाँ दिखाई दीं। जिन पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है। 


● पेज नंबर 100 में लिखा दिखाई दिया कि..


'आग की लाल लपटें काले आकश में लपक रही थीं'


यहाँ 'काले आकश में' की जगह 'काले आकाश में' आएगा। 


● पेज नंबर 109 में लिखा दिखाई दिया कि..


'बादलों के काले पंखों में हवा भर रही है। हवा से प्रकाश को लजा जाती है। बादलों के काले पंखों में हवा भर रही है।


यहाँ 'हवा से प्रकाश को लजा जाती है' की जगह 'हवा से प्रकाश को लज्जा आती है' या फ़िर 'हवा से प्रकाश को लज्जा आ रही है' आना चाहिए।


इसके बाद अगली पंक्ति में एक बार फ़िर से लिखा दिखाई दिया कि..


'बादलों के काले पंखों में हवा भर रही है'


यह पंक्ति ग़लती से दो बार छप गई है। 


● पेज नंबर 123 में लिखा दिखाई दिया कि..


'हफ्ते-भर तक इकबाल अपनी कोठी में अकेला ही था'


इस दृश्य में इकबाल थाने में बंद है। इसलिए यहाँ 'कोठी' नहीं 'कोठरी' आना चाहिए। 


● पेज नंबर 125 में लिखा दिखाई दिया कि..


'इनका मनो-मस्तिष्क हमेशा इससे त्रस्त रहता है'


यहाँ 'मनो-मस्तिष्क' की जगह 'मन-मस्तिष्क' आना चाहिए। 


● पेज नंबर 142 में लिखा दिखाई दिया कि..


'पुलिस ककने डकैती के सिलसिले में मल्ली को गिरफ़्तार कर दिया है'


यहाँ 'पुलिस ककने डकैती के सिलसिले में' की जगह 'पुलिस ने डकैती के सिलसिले में' आएगा। 


पेज नंबर 151 की पहली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'जाते वक्त मेरे साथ ऐसी निठुर ना बन'

यहाँ 'ऐसी निठुर ना बन' की जगह 'ऐसी निष्ठुर ना बन' आएगा। 

पेज नंबर 183 में लिखा दिखाई दिया कि..

'मैं जानता हूँ कि आज मेरे से नाराज होंगे'

यहाँ 'आज मेरे से नाराज होंगे' की जगह 'आप मेरे से नाराज होंगे' आएगा। 

* जँभाई - जम्हाई

इस बेहद रोचक उपन्यास के बढ़ियाअनुवाद के लिए उषा महाजन जी बधाई की पात्र हैं। इस 208 पृष्ठीय दमदार उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है राजकमल पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 299/- जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। 

2 comments:

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

यह उपन्यास मैंने ग्यारहवीं बारहवीं में स्कूल की लाइब्रेरी से लेकर पढ़ा था। उस वक्त अंग्रेजी में ही पढ़ा था। रोचक लगा था उस वक्त भी। भारतीय विभाजन के ऊपर लिखे गए अच्छे और तेज रफ्तार उपन्यासों में से एक है ये। आपके लेख ने पुनः इसे पढ़ने की इच्छा जागृत कर दी है।

राजीव तनेजा said...

शुक्रिया जी
😊💐

 
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