नई इबारत - सुधा जुगरान

जब भी मैं किसी कहानी संकलन या उपन्यास को पढ़ने का विचार बनाता हूँ तो अमूमन सबसे पहले मेरे सामने ये दुविधा उत्पन्न हो जाती है कि मैं किस किताब से अपने नए साहित्यिक सफ़र की शुरुआत करूँ? एक तरफ़ वे किताबें होती हैं जो मुझे अन्य नए/पुराने लेखकों अथवा प्रकाशकों ने बड़े स्नेह और उम्मीद से भेजी होती हैं कि मैं उन पर अपनी पाठकीय समझ के हिसाब से कोई सारगर्भित प्रतिक्रिया अथवा सुझाव दे सकूँ। तो वहीं दूसरी तरफ़ मुझे अपनी ओर वे किताबें भी खींच रही होती हैं जिन्हें मैंने अपनी समझ के अनुसार इस आस में खरीदा होता है कि मुझे उनसे मुझे कुछ ना कुछ सीखने को अवश्य मिलेगा। 


दोस्तों..आज मैं जिस कहानी संग्रह की बात करने जा रहा हूँ उसे 'नई इबारत' के नाम से लिखा है सुधा जुगरान ने। 


इस कहानी संग्रह की एक कहानी 'अनाम रिश्ता', उस सविता की व्यथा व्यक्त करती है जो अपने दो बेटों, निक्की और सुहेल को किसी न किसी वजह से खो चुकी है। निक्की को अपने पहले पति अनुपम की अकाल मृत्यु के बाद, अपने दूसरा विवाह करने के निर्णय से और अश्विनी से उत्पन्न, सुहेल को एक बस एक्सीडेंट की वजह से। ऐसे में अपने बच्चों के वियोग में तड़पती सविता की बरसों बाद मुलाक़ात निक्की से होती तो है मगर..


इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'अपना-अपना नज़रिया' में लेखिका हाउसवाइफ भाभी और कामकाजी ननद के आपसी रिश्ते के ज़रिए इस बात को समझाने का प्रयास करती दिखाई देती हैं कि अपने-अपने कार्यक्षेत्र में किसी की किसी से कोई तुलना नहीं की जा सकती। घरेलू कामकाज के ज़रिए घर संभालना और बाहर जा कर जीविका अर्जित करने जैसे कामों का एक जैसा ही महत्व है। इनमें से कोई भी किसी से कमतर नहीं है। इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'अपना घर' में अमीर घर द्वारा गोद ली गयी स्मृति अपने असली माता-पिता के बारे में जानने..समझने के लिए बेचैन है कि उन्होंने उसे पैदा कर के उससे किनारा क्यों कर लिया। गोद लेने वाले माता-पिता से जब उसे उनके बारे में पता चलता है तो वह उनसे मिलने और उनके साथ रहने के लिए उतावली हो उठती है।


इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'आशियाना' में अपनी पत्नी, रूमा के निधन के बाद अकेले रह गए 62 वर्षीय योगेश, अपना समय व्यतीत करने के अपने नौकर के बच्चों को पढ़ाना शुरू तो करते हैं मगर बेटे-बहू की ज़िद पर उन्हें मुंबई, उनके पास रहने के लिए जाना पड़ता है। अब देखना ये है कि बड़े शहर की आबोहवा रास आती है या नहीं। इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'एक साथी की तलाश' में दो दिन पहले रिटायर हुए मधुप उस वक्त परेशान हो जाते हैं जब बरसों से उनकी सेवा कर रहा बिस्वा हमेशा-हमेशा के लिए अपने गाँव जाने की बात करता है। अब देखना यह है कि अपने अहम की वजह से बरसों से अपनी पत्नी श्यामला से अलग रह रहे मधुप क्या अपनी ग़लती महसूस कर अपनी पत्नी के पास वापिस लौट पाएँगे या नहीं।


इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'ख़ामोश कोलाहल' में प्रेम विवाह के बावजूद तन्वी और देवांश के रिश्ते में विवाह के तीन वर्षों के भीतर ही अजनबियत भरा सूनापन अपने पैर पसार चुका है। जिसे दूर करने के लिए दोनों के परिवार मिल कर कुछ ऐसा करते हैं कि उनका आपसी रिश्ता फ़िर से पटरी पर लौट आता है। एक अन्य कहानी 'तार-तार रिश्ते' में 

13 वर्षीय संधू और उसका छोटा भाई बंटी उस वक्त खुशी के मारे पुलकित हो उठते हैं जब उन्हें पता चला है कि उनका 20 वर्षीय मामा सोनू, शहर में पढ़ाई के इरादे से उनके घर रहने के लिए आ रहा है। मगर देखना यह है कि दिन पर दिन समझदार होती संधू की वक्ती खुशी बरक़रार रह पाती है अथवा नहीं। 


एक अन्य कहानी 'दूर के दर्शन का सुख' में जहाँ 10वीं पास करने के बाद ग़रीब घर का बसंत अपने परिवार का सहारा बनने के इरादे से एक जानकार की मदद से दुबई में नौकरी करने चला जाता है। मगर अब देखना यह है कि घर-परिवार की ज़िम्मेदारी निबटाने के बाद भी वह वापिस घर लौट कर आता है या फ़िर वहीं का हो कर रह जाता है। तो वहीं एक अन्य कहानी 'नई इबारत' एक तरह से स्त्री अधिकारों की पैरवी सी करती हुई प्रतीत होती है। जिसमें घरेलू कामकाज के लिए लेखिका के घर सर्वेंट क्वाटर में रंजना नाम की एक पहाड़ी लड़की अपने तीन बच्चों के साथ रहने के लिए आती है। जिसे उसके पति ने एक तरह से छोड़ रखा है। उसके संघर्ष की कहानी सुनकर लेखिका मन ही मन अपनी बेटी से उसकी तुलना करने लगती है।


इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'नया दौर' में जहाँ एक तरफ़ जब निविधा अपने पति को बताती है कि उसका उपन्यास साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हो रहा है तो वह हर्षित होने के साथ-साथ अपने भीतर ग्लानि का अनुभव भी करता है कि विवाह के बाद वर्षों तक उसने अपनी पत्नी के हुनर को उभरने का मौका नहीं दिया। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी 'फ़क़त रेत' में लेखिका ने एक डायनिंग टेबल के चार पायों के माध्यम से स्त्रियों की स्थिति में पीढ़ियों के साथ आए बदलाव को बतलाने का प्रयास किया है कि किस तरह पहले की स्त्रियाँ अपने माता-पिता एवं पति की बात मान उनकी इच्छानुसार ही चला करतीं थीं। समय के साथ आए बदलाव में अगली पीढ़ी अपने मन की इच्छा का करने का प्रयास तो करती रही मगर पूर्णतया कभी सफ़ल नहीं हो पाई जबकि आज की स्त्री अपने हक़ की लड़ाई को सफलतापूर्वक लड़ने के साथ-साथ सवाल भी कर रही है। 


एक अन्य कहानी 'मन भये न दस बीस' में जहाँ 49 वर्षीय उस अविवाहित आरुषि की बात करती है जिसने कैरियर की चाह में अब तक विवाह नहीं किया है। अब उम्र के इस मुकाम पर जब वह एक साथी चाहती तो है मगर हर बार उसकी अफ़सरी की ठसक के बीच में आ जाने से कहीं भी उसकी बात नहीं बन पा रही। तो वहीं इस संकलन की अंतिम कहानी 'रिश्तों का आत्मघात' में जब शरद को उसके पिता की मृत्यु की बाद मकान के स्वामित्व को लेकर चाचा की तरफ़ से कानूनी नोटिस मिलता है वह हैरान रह जाता है कि जिस चाचा को बचपन से उसके पिता ने अपने पिता की मृत्यु के बाद पढ़ा-लिखा कर कमाने-धमाने लायक काबिल बनाया, उसी ने उस मकान पर अपने स्वामित्व के लिए नोटिस भेजा है जिसको बनाने के लिए सारा पैसा उसके पिता ने खर्च किया था। 


धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस कहानी संग्रह की कुछ कहानियाँ मुझे थोड़ी सतही या फ़िर भाषण देतीं सी भी लगीं। पढ़ते वक्त कुछ एक जगहों पर प्रूफ़रीडिंग की कमियों के अतिरिक्त कुछ वर्तनी की त्रुटियाँ भी दिखाई दीं।



पेज नंबर 13 में लिखा दिखाई दिया कि..


'उन्हें ऐसा लग रहा था... उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे वह उसे बहुत अच्छी तरह से जानते हैं'


इस वाक्य में 'उन्हें ऐसा लग रहा था' ग़लती से दो बार छप गया है। 


पेज नंबर 64 में लिखा दिखाई दिया कि..


'इतने वर्षों बाद अकेले घर में उनका दिल श्यामला की उपस्थिति में अजीब से कुतूहल से धड़क रहा था'


यहाँ 'कौतूहल' की जगह ग़लती से 'कुतूहल' छप गया है। 


पेज नंबर 68 पर लिखा दिखाई दिया कि..


'दोनों अब पाँच साल के रिश्ते को नाम देने का शिद्दत से सोचने की कोशिश कर रहे थे पर सोच पुख़्ता नहीं हो पा रही थी'


यह वाक्य सही नहीं बना। मेरे हिसाब से सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..


'दोनों अब पाँच साल के रिश्ते को नाम देने के बारे में शिद्दत से सोचने की कोशिश कर रहे थे पर सोच पुख़्ता नहीं हो पा रही थी'


पेज नंबर 69 में लिखा दिखाई दिया कि..


'वह कुछ-कुछ छिड़ता हुआ बोला'


यहाँ 'छिड़ता हुआ बोला' की जगह 'छेड़ता हुआ बोला' आएगा। 


पेज नंबर 87 में लिखा दिखाई दिया कि..


'पहली बार बसंत के तयेरे भाई मातवर ने यह जानकारी बसंत को दी थी'


इस वाक्य में ग़लती से शायद 'चचेरे भाई' की जगह 'तयेरे भाई' छप गया है क्योंकि 'तयेरे भाई' जैसा शब्द कभी मेरे पढ़ने में नहीं आया। 


इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..


'वहाँ यहाँ कि तरह छोटे-मोटे ढाबे नहीं होते'


यहाँ 'कि' की जगह 'की' आएगा। 


पेज नंबर 89 में लिखा दिखाई दिया कि..


'दुबई का ऐसा नशा चढ़ा था बसंत को कि ख़्वाबों में भी ख़्याली दुबई ही दिखता'


यहाँ 'ख़्याली दुबई ही दिखता' की जगह 'ख़ाली दुबई ही दिखता' आए तो बेहतर।


इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..


'बस आने के कुछ दिन मातवर भाई ने थोड़ा बहुत घुमा दिया था ख़ास-ख़ास जगह'


यह वाक्य मेरे हिसाब से सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..


'बस आने के कुछ दिनों बाद तक मातवर भाई ने थोड़ा बहुत घुमा दिया था ख़ास-ख़ास जगहों पर' 


इससे अगली पंक्ति मुझे सही से समझ नहीं आयी कि उसमें लिखा था कि..


'इस चमकती सुविधा-संपन्न दुबई में साधनहीन भला सामने कहाँ दिखेगा'


पेज नंबर 90 में लिखा दिखाई दिया कि..


'दो साल बाद बसंत का 10वीं पूरा हुआ'


यहाँ 'बसंत का 10वीं पूरा हुआ' की जगह 'बसंत की 10वीं पूरी हुई' आएगा।


इससे अगली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..


'उसके आसपास के जानने में कई लड़के बहरीन, क़तर वगैरह खाड़ी के कई दूसरे देशों में कुक, ड्राइवर, क्लीनर आदि की नौकरी के लिए गए हुए थे'


इस वाक्य में 'उसके आसपास के जानने में कई लड़के' की जगह 'उसके आसपास के जानने वालों में कई लड़के' आएगा। 


पेज नंबर 91 में लिखा दिखाई दिया कि..

'जब वह दुबई पहुँचा तो कुछ ही दिनों में उसकी नौकरी एक मॉल के 'कैरफ़ोर' में लग गई'


यहाँ 'उसकी नौकरी एक मॉल के 'कैरफ़ोर' में लग गई' की जगह 'उसकी नौकरी एक मॉल, 'कैरफ़ोर' (कैरिफोर) में लग गई' आएगा।


पेज नंबर 101 में लिखा दिखाई दिया कि..


'और गाहे-बगाहे रंजना के ननद का पति भी'


यहाँ 'रंजना के ननद का पति भी' की जगह 'रंजना की ननद का पति भी' आएगा। 


पेज नंबर 104 में लिखा दिखाई दिया कि..


'एक नाबालिग़ से बयान ने उसे इतने वर्षों का वनवास दे दिया'


यहाँ 'एक नाबालिग़ से बयान ने' की जगह 'एक नाबालिग़ के बयान ने' आएगा। 


पेज नंबर 105 में लिखा दिखाई दिया कि..


'लेकिन इसके तबके की बात यदि छोड़ दी जाए तो'


यहाँ 'लेकिन इसके तबके की बात यदि छोड़ दी जाए तो' की जगह ''लेकिन इस तबके की बात यदि छोड़ दी जाए तो' आएगा। 


पेज नंबर 108 में लिखा दिखाई दिया कि..


'35 की हो गई अनाया को माँ भी नहीं बनना है अभी भी'


यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि 


'35 की हो गई अनाया को माँ नहीं बनना है अभी'


पेज नंबर 116 का दिखाई दिया कि..


'उसके हाथ तो खज़ाने का नक्शा हाथ लग गया था'


इस वाक्य में दूसरी बार आए 'हाथ' शब्द की ज़रूरत ही नहीं है।


पेज नंबर 122 में लिखा दिखाई दिया कि..


'आज की लड़की माँ ही नहीं बनना चाहती... यह काफी सोचनीय प्रसंग है'


यहाँ 'सोचनीय प्रसंग है' की जगह 'शोचनीय प्रसंग है' आएगा। 


पेज नंबर 132 में लिखा दिखाई दिया कि..


'यह एक नई प्रकार के असंतुलन को जन्म दे रहा है'


यहाँ 'नई प्रकार के असंतुलन को जन्म दे रहा है' की जगह 'नए प्रकार के असंतुलन को जन्म दे रहा है' आएगा।


पेज नंबर 132 में आगे लिखा दिखाई दिया कि..


'स्त्रियों से उनकी मनसा नहीं पूछी जाती थी'


यहाँ 'मनसा नहीं पूछी जाती थी' की जगह 'मंशा नहीं पूछी जाती थी' आएगा। 


* रोब (जमाना) - रौब (जमाना) 

* कुतूहल - कौतूहल

* कोराना काल - कोरोना काल

* अज़माया - आज़माया


अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 157 पृष्ठीय इस बढ़िया कहानी संग्रह के पेपरबैक संस्करण को छपा है अद्विक प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 240/- रुपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।



घातक कथाएँ - अलंकार रस्तोगी


व्यंग्य से पहलेपहल मेरा वास्ता/परिचय नवभारत टाईम्स में छपने वाले शरद जोशी जी के अख़बारी कॉलम के ज़रिए हुआ। सरल शब्दों में उनकी लेखनी से निकला एक-एक व्यंग्य मुझे कहीं न कहीं..कुछ न कुछ सोचने एवं मुस्कुराने की वजह दे जाता था और मज़े की बात ये कि तब मुझे पता भी नहीं था कि व्यंग्य किस चिड़िया का नाम है और वो कहाँ..किस जंगल में और किस तरह के घोंसले में पाई जाती है।


शरद जोशी जी के लेखन में मुझे उनके द्वारा इस्तेमाल की गयी सरल भाषा एवं पठनीयता आकर्षित करती थी कि किस तरह गंभीर से गंभीर मुद्दों पर भी वे इतनी सरलता से लिख लेते हैं। दरअसल किसी भी कहानी, लेख, व्यंग्य अथवा उपन्यास में तत्व के साथ-साथ अगर मनोरंजन भरी पठनीयता भी हो तो उसे पढ़ना, समझना एवं उससे कुछ ग्रहण करना आसान हो जाता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए बहुत से लेखक/व्यंग्यकार अपनी बात को यथासंभव सरल तरीके से कहने का प्रयास करते हैं। 


दोस्तों... आज मैं सरल भाषा में लिखे गए एक ऐसे ही व्यंग्य संग्रह की बात करने जा रहा हूँ जिसमें व्यंग्यकार अलंकार रस्तोगी ने पुरानी धुन 'जातक कथाओं' (बौद्ध धर्म की कथाएँ) के आधार पर अपनी नई धुन 'घातक कथाएँ' रचने का प्रयास किया है।अनेक पुरस्कारों से सम्मानित लेखक अलंकार रस्तोगी का यह सातवाँ व्यंग्य संग्रह है। 


इस संकलन के किसी व्यंग्य में प्यासे कौवे के माध्यम से एक तरफ़ पानी की किल्लत से जूझने का मुद्दा उठाया जाता दिखाई देता है तो दूसरी तरफ़ शहर के पॉश इलाकों में स्विमिंग पूल इत्यादि के ज़रिए पानी की बरबादी पर भी तंज कसा जाता नज़र आता है। कहीं किसी व्यंग्य में साँप के माध्यम से डॉक्टरों द्वारा खामख्वाह के टेस्ट लिखे जाने एवं दलबदलू नेताओं की दल बदलने की आदत पर तंज कसने के प्रयास किया जाता दिखाई देता है।


इसी संकलन के एक अन्य व्यंग्य में गधों द्वारा संगठित होकर अपने उत्पीड़न के खिलाफ़ आवाज़ उठाने का प्रयास किया जाता दिखाई देता है। तो किसी अन्य व्यंग्य में पान मसाला चबाने वालों की भैंसों द्वारा जुगाली करने की आदत से तुलना की जाती नज़र आती है। कहीं भैंसों की बीच इस मुद्दे पर गहन चर्चा होती दिखाई देती है कि अक्ल उनसे छोटी होते हुए भी बड़ी कैसे है। 


कहीं किसी रचना में कछुए और ख़रगोश के बीच चुनावी जंग का माहौल बनता दिखाई देता है तो कहीं किसी अन्य रचना में पुरानी रचना के विपरीत एक लोमड़ी गधे को मूर्ख बना अंततः ऊँचाई पर लगे अँगूर पा ही लेती है। कहीं शेर, लोमड़ी और गधे के माध्यम से आम जनता के बार-बार नेताओं द्वारा मूर्ख बनाए जाने की बात का उल्लेख होता नज़र आता है। 


कहीं किसी रचना में लेखक गधे के सिर से सींगों के ग़ायब होने वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए राजनीति के लंपट नेताओं का उदाहरण देते नज़र आते हैं कि शरीफ़ दिखने के लिए उन्होंने अपने सींग कटवा कर ग़ायब किए हुए होते हैं। तो कहीं किसी व्यंग्य में जंगल के विभिन्न जानवरों की तुलना उनकी आदतों को ध्यान में रखते हुए इंसान के साथ की जाती दिखाई देती है। 


कहीं इंडियन आइडल सरीखे कार्यक्रमों में किसी प्रतिभागी को दीन-हीन दिखा, टीआरपी का खेल खेल जाने पर जनवरों के माध्यम से तंज कसने के साथ-साथ बिल्ली के गले में घंटी बाँधी जाती नज़र आती है। कहीं किसी रचना में कोई कुत्ता नदी में गिरी अपनी रोटी को फ़िर से पाने के लिए मछलियों को बरगलाता दिखाई देता है।


कहीं अजगर, शेर के साथ मिलकर अपनी सात पुश्तों के लिए भोजन का जुगाड़ करता दिखाई देता है। तो कहीं चींटी और टिड्डे के माध्यम से भारतीय राजनीति में सत्तापक्ष द्वारा बाँटे जाने वाले फ्री राशन इत्यादि पर हल्के फुल्के अंदाज़ में तंज कसा जाता दिखाई देता है। कहीं बिल्ली और चूहे का माध्यम से देश में बनने वाले मिलावटी दूध व अन्य चीज़ो के साथ-साथ देश के भ्रष्टतंत्र पर भी कटाक्ष किया जाता नज़र आता है। 

कहीं कौवे के काले रंग को ज़रिया बना देश भर में बिक रही फेयरनैस क्रीमों की व्यर्थता पर सवाल उठता दिखाई देता है। 


कहीं रोटी के पिछले बँटवारे से आहत बिल्लियाँ आपस में एका कर बन्दर को सबक सिखाने के लिए कमर कसती नज़र आती हैं। तो कहीं नौ सौ चूहे खा कर बिल्ली के हज पर चले जाने वाली कथा के माध्यम से इन्सान की तुलना विभिन्न जानवरों की डसने, रंग बदलने, धूर्तता आदि से की जाती नज़र आती है। कहीं रँगा सियार अपनी पिछली कथा से सबक लेता हुआ इस बार साधु का वेश बना जंगल-जंगल घूम कर अपने शिकार का प्रबंध करता दिखाई देता है। 


कहीं बन्दर की नकलची प्रवृति और टोपीवाले की टोपियों से प्रभावित रचना मोदी जी द्वारा वरिष्ठ लालकृष्ण आडवाणी जी को साइड लाइन कर अपने रास्ते से हटाने की घटना पर भी कटाक्ष करती दृष्टिगोचर होती है। साथ ही कुएँ में शेर के प्रतिबिंब और खरगोश की कहानी से प्रेरित एक अन्य रचना में शेर, मीडिया को अपने काबू में कर ख़रगोश की जंगल मे चल रही वर्तमान सरकार के खिलाफ़ अनर्गल एवं झूठी बातें फैला तथा जनता को अच्छे दिनों का झुनझुना दिखा सत्ता पर काबिज़ हो अपने विरोधियों को देशद्रोही बता जेल में ठूँसता दिखाई देता है।


कहीं किसी रचना में अपनी रंग बदलने की खूबी का कॉपीराइट करवाने को आतुर गिरगिट उस वक्त शर्मिंदा हो उठती है जब वो देखती है कि इन्सान तो रंग बदलने की कला में उससे भी ज़्यादा माहिर हो चला है। 


इस व्यंग्य संग्रह को पढ़ते वक्त मुझे कुछ एक जगहों पर तथ्यात्मक रूप से ग़लतियाँ दिखाई दीं जैसे कि

पेज नंबर 10 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..


'तब शायद अब की तरह लोगों का पानी मरा नहीं था'


यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि असली कहावत 'पानी मरना' नहीं बल्कि'आँख का पानी मरना' अर्थात बेशर्म होना है।


इसलिए यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..


'तब शायद अब की तरह लोगों की आँख का पानी मरा नहीं था'


इसी तरह पेज नम्बर 72 में लिखा दिखाई दिया कि..


'मैं पहले ही काले रंग के कारण सामाज से बेदखल हूँ और उस पर तुर्रा ये कि मैं हंस कि चाल भी नहीं उड़ सकता हूँ'


यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि किसी की चाल, चला जाता है ना कि उड़ा जाता है। पुरानी कहावत 'कौवा चला हंस की चाल' है ना कि 'कौवा उड़ा हंस की उड़ान' 


पढ़ते वक्त इस व्यंग्य संग्रह में जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना बहुत खला। साथ ही प्रूफ़रीडिंग और वर्तनी की स्तर पर हद से ज़्यादा त्रुटियाँ दिखाई दीं। जिससे ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे इस किताब की प्रूफ़रीडिंग की ही नहीं गयी है। किसी भी किताब में इतनी ज़्यादा प्रूफ़रीडिंग एवं वर्तनी की त्रुटियों का होना लेखक एवं प्रकाशक की साख पर बट्टा तो लगाता ही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस व्यंग्य संग्रह के आने वाले संस्करण एवं अन्य किताबों में इस तरह की कमियों को दूर करने का सार्थक प्रयास किया जाएगा। 


पेज नंबर 21 में लिखा दिखाई दिया कि..


'एक गधे के लिए 'गठबंधन' जैसा भारी भरकम शब्द दिमाग दस हज़ार वाट का लोड डाल गया'


यहाँ 'दिमाग दस हज़ार वाट का लोड डाल गया' की जगह 'दिमाग में दस हज़ार वाट का लोड डाल गया' आएगा। 


पेज नंबर 28 में लिखा दिखाई दिया कि..


'तुम्हें नहीं मालूम की नेता के लिए किसी को भी गधा बनाना कितना आसान काम है'


यहाँ 'तुम्हें नहीं मालूम की नेता के लिए' की जगह 'तुम्हें नहीं मालूम कि नेता के लिए' आएगा। 


पेज नम्बर 29 की पहली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..


'शेर की तरह सत्ता पाने वाल बन जाता है'


यहाँ 'सत्ता पाने वाल बन जाता है' की जगह 'सत्ता पाने वाला बन जाता है' आएगा।


पेज नंबर 38 में लिखा दिखाई दिया कि..


'वैसे भी उस पर रोटी गंवाने के बावजूद लालची का ठप्पा लगाने ही वाला था'


यहाँ 'लालची का ठप्पा लगाने ही वाला था' की जगह 

'लालची का ठप्पा लगने ही वाला था' आएगा। 


पेज नंबर 41 में लिखा दिखाई दिया कि..


'जिसमे उसे भी खानदानी रवायत के कारण 'सन बाथ' लेते हुए गुनगुनाने का पूरा मूड कर रहा था'


यहाँ 'जिसमे उसे भी खानदानी रवायत के कारण' की जगह 'जिसमें उसका भी खानदानी रवायत के कारण' आएगा।


पेज नंबर 45 में लिखा दिखाई दिया कि..


'उसे लगने लगा मानो पूरी चिड़िया जाति पर नजर ना लगे इसी लगे इसलिए उसे नजरबट्टू बनाकर भेजा गया है'


नुक्तों की कमी के अतिरिक्त इस वाक्य में 'इसी लगे' शब्दों की कोई ज़रूरत नहीं थी। 


पेज नंबर 55 में लिखा दिखाई दिया कि..


'बच्चे का नाम सुनते ही बकरी इमोशनल अत्याचार के आगे सियार के आगे नतमस्तक होते हुए बोली'


यहाँ 'इमोशनल अत्याचार के आगे' की जगह 'इमोशनल अत्याचार से डर कर' आएगा।


पेज नंबर 67 में लिखा दिखाई दिया कि नेताजी ने अपने श्रीमुख में पिछले आधे घंटे से भरे हुए पान मसाले पर रहम करते हुए उसे थूकते हुए कहा'


यहाँ 'पान मसाले पर रहम करते हुए उसे थूकते हुए कहा' की जगह 'पान मसाले पर रहम कर उसे थूकते हुए कहा' आएगा। 


इससे अगली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..


'तुम सबसे एक ठौ सवाल पूछ रहा हूँ देखे कौन बता लेता है'


यहाँ ' देखे कौन बता लेता है' की जगह 'देखें कौन बता पाता है' आएगा। 


पेज नंबर 70 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..


 'कुत्ते के जलवे घर में भी है'


यहाँ 'कुत्ते के जलवे घर में भी है' की जगह 'कुत्ते के जलवे घर में भी हैं' आएगा। 


पेज नंबर 72 में लिखा दिखाई दिया कि..


'वहाँ तो नेता से लेकर अभिनेता तक सब अपनी समस्या का समाधान करवाने के लिए वहाँ लाइन लगाए खड़े थे'


इस वाक्य में दो बार 'वहाँ' शब्द छप गया है जबकि दूसरे वाले 'वहाँ' शब्द की यहाँ कोई ज़रूरत ही नहीं थी।


इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..


'मैं पहले ही काले रंग के कारण सामाज से बेदखल हूँ और उसे पर तुर्रा ये कि मैं हंस कि चाल भी नहीं उड़ सकता हूँ'


यहाँ 'सामाज' की जगह 'समाज' आएगा। 

साथ ही 'हंस कि चाल' की जगह 'हंस की चाल' आएगा।


पेज नंबर 77 में लिखा दिखाई दिया कि..


'किसी ने शेर के खिलाफ खिलाफ परचा तक दाखिल नहीं किया'


इस वाक्य में 'खिलाफ' शब्द ग़लती से दो बार छप गया है।


पेज नंबर 80 के अंतिम पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..


'ना रहने की जगह है और खाने-पीने का सामान बचा है'


यहाँ 'और खाने-पीने का सामान बचा है' की जगह 'और न खाने-पीने का सामान बचा है' आएगा।


यूँ तो यह संग्रह मुझे विमोचन के दिन, हिंदी भवन - दिल्ली में आयोजकों की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस 84 पृष्ठीय व्यंग्य संग्रह के पेपरबैक संस्करण को छापा है इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए जो कि मुझे कंटेंट की दृष्टि से बहुत ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।


* बर्दास्त- बर्दाश्त

* उत्पीडन - उत्पीड़न

* फुल प्रूफ़ - फूलप्रूफ

* ख्रफिफ्टी - फिफ्टी

* अंतरमन - अंतर्मन

* बरसो से- बरसों से

* सिटी स्कैन - सी.टी स्कैन

* केचुल - केंचुल

* इन्ही - इन्हीं

* भैस - भैंस

* छटाक - छटाँक

* अकल - अक्ल

* डबल डोज - डबल डोज़

* झाडी - झाड़ी

* अशाश्वत - आश्वस्त

* अश्वासन - आश्वासन

* हडपने - हड़पने

* जिसमे - जिसमें

* चीटी - चींटी

* चौक कर - चौंक कर

* गाने गुनगाने - गाने गुनगुनाने

* गुनगुनी धुप - गुनगुनी धूप

* नजरबट्टू - नज़रबट्टू

* येन केन प्रकारेण - येन केन प्रकरेण 

* साथ ख्रसाथ - (साथ-साथ) 

* बाते - बातें

* कुंवे - कुँए

* नियत पाली हुई थी - नीयत पाली हुई थी

* मिडिया - मीडिया

* पलके - पलकें 

* रिर्सर्च - रिसर्च

* श्री मुख - श्रीमुख

* देखे - देखें

* रिसोर्ट - रिज़ॉर्ट

* लुवी डुवी - (लवी-डवी)

* सोलहवे दिन - सोलहवें दिन

* लोमड - लोमड़

* कपडे - कपड़े

* जित्तना - जितना

* उन्ही - उन्हीं

* दिलावाओं - दिलवाओ

* (खुशी-खुसी) - (खुशी-खुशी)

* सामाज - समाज

* समस्या ग्रस्त मिले - समस्याग्रस्त मिलें 

* ग्यारहवे - ग्यारहवें 

* पैसा वसूल लेते है - पैसा वसूल लेते हैं 

* खिलाफ - ख़िलाफ

* बढाने - बढ़ाने

* कोसो - कोसों 

* सिलिब्रिटी - सैलिब्रिटी

अंजुरी भर नेह - रेणु गुप्ता

अस्सी के दशक को लुगदी साहित्य का स्वर्णिम युग कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। युवाओं से लेकर अधेड़ों एवं बुज़ुर्गों तक के हाथ में इसी तरह के उपन्यास नज़र आते थे। घरों में पाबंदी होने के बावजूद किसी के तकिए के नीचे ऐसे उपन्यास नज़र आते तो कोई सबकी नज़र बचा इन्हें टॉयलेट अथवा स्टोर रूम इत्यादि में छिप कर पढ़ रहा होता था। बस अड्डों से लेकर रेलवे स्टेशनों तक, हर तरफ़ इन्हीं का बोलबाला था। गली मोहल्लों की छोटी-छोटी दुकानों में इस तरह के उपन्यास किराए पर मिला करते।
इन उपन्यासों में जहाँ एक तरफ़ रोमानियत से भरे ख़ुशनुमा पल नुमायां होते तो वहीं दूसरी तरफ़ घर-घर की कहानी के रूप में मौजूद घरेलू कलहों को इनमें भरपूर स्थान मिलता। इन उपन्यासों में कोई रोमांचक जासूसी कहानियों का दीवाना था तो कोई प्रेम कहानियों का। कहने का मतलब ये कि हर किसी को उसकी ज़रूरत एवं रुचि के अनुसार मनोरंजनहेतु उसके मतलब का सामान पढ़ने को मिल जाता। बॉलीवुड इन कहानियों से इतना ज़्यादा प्रेरित हुआ कि गुलशन नंदा सरीखे लुगदी साहित्य के लेखकों की कलम के ज़रिए कई फिल्में ब्लॉक बस्टर भी साबित हुईं। 
 दोस्तों...आज मैं 80 के दशक की कहानियों से प्रेरित एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे  'अंजुरी भर नेह' के नाम से लिखा है वरिष्ठ लेखिका रेणु गुप्ता जी ने। 
प्रेम के विभिन्न आयामों से गुज़रते हुए इस उपन्यास में मूल में एक तरफ़ कहानी है कॉलेज में वकालत की पढ़ाई कर रहे ग़रीब घर के देवव्रत और अमीर घर की चंदा के आपसी स्नेह, विश्वास एवं प्रेम की। किस्मत की मार कि जब जज बनने के बाद देवव्रत पहली बार चंदा से अपने प्रेम का इज़हार एक ऐसे प्रेमपत्र के ज़रिए करता है जो अपने लिखे जाने के अनेक वर्षों बाद तक दुर्भाग्य से चंदा को नहीं मिल पाता। पारिवारिक दबाव में आ चंदा को मिलनसार स्वभाव के एक आईपीएस अफ़सर वरदान से विवाह रचाना पड़ता है। बरसों बाद देवव्रत और चंदा फ़िर मिलते हैं मगर अब देखना ये है कि उनका रिश्ता कैसी और किस तरफ़ अपनी करवट बदलता है। 
कहने को तो इस उपन्यास के बारे में कहने को अभी बहुत कुछ बाक़ी है मगर बेहतर यही कि बाक़ी का मज़ा पाठकों की बेहतरी के लिए जस का तस छोड़ दिया जाए। 
सरल भाषा में लिखे गए इस तेज़ रफ़्तार में प्रूफरीडिंग की कुछ कमियों के अतिरिक्त दो-चार जगहों पर वर्तनी की त्रुटियाँ भी दिखाई दीं। साथ ही आवश्यकता होने पर भी बहुत सी जगहों पर नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला।
◆  पेज नंबर 125 में लिखा दिखाई दिया कि..
'ट्यूलिप आज संडे है और इस दिन तो गॉड ने भी हर काम की छुट्टी कर रखी है, फ़िर मुझे गरीब पर यह अत्याचार क्यों'
यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि छुट्टियों को गॉड यानी कि भगवान ने नहीं बल्कि हम जैसे इन्सानों द्वारा चुनी गयी सरकारों या फ़िर प्रतिष्ठानों ने छुट्टियों का दिन तय किया हुआ होता है। जो कि देश-देश या फ़िर राज्य-राज्य या फ़िर अलग-अलग प्रतिष्ठानों ने अपनी मर्ज़ी से नियत किया हुआ होता है। इनका एक जैसा होना कतई ज़रूरी नहीं है। इसलिए यह कहना कि छुट्टी का दिन गॉड तय करता है, कदापि सही नहीं है।
◆ किसी भी कहानी या उपन्यास में किसी भी पात्र की भाषा..लहज़ा उसके अभिभावकों की भाषा, माहौल, परिवेश एवं परवरिश अथवा प्रोफेशन के आधार पर तय होती है कि वह किरदार किस लहज़े या तरीके से बात करेगा। यहाँ इस उपन्यास की एक मुख्य पात्र 'ट्यूलिप' इस स्तर पर मुझे पिछड़ती हुई लगी कि कहानी के हिसाब से वह विदेशी माँ और भारतीय पिता की संतान है। 
उस पिता की संतान जिसका उसे सानिध्य महज़ 3 वर्ष की उम्र तक ही मिला। उसके बाद अभिभावकों का आपस में तलाक हो जाने की वजह से वह अपनी विदेशी माँ के साथ ही रही। ऐसे में उसका एकदम भारतीय लहज़े में चंद्रगुप्त इत्यादि की उक्तियाँ कोट करना या एकदम ख़ालिस उर्दू शब्दों का प्रयोग करना बतौर लेखक एवं पाठक मुझे अजीब लगा।  
यहाँ लेखिका को उसके संवाद लिखते वक्त अँग्रेज़ी/विदेशी लहज़े का ध्यान रखने के साथ-साथ उर्दू शब्दों से परहेज़ करना चाहिए था या फ़िर इसके पीछे किसी तार्किक वजह को बताना चाहिए था जैसे कि उसने विदेश में रह कर भारतीय संस्कृति एवं लहज़े की पढ़ाई इत्यादि की हुई थी। 
◆ उपन्यास में दो पात्रों के नामों 'आदि' और 'अभि' अन्य भिन्न अर्थ वाले शब्दों के नामों को लेकर थोड़ा भ्रम पैदा करते हैं।  'आदि' नामक पात्र का नाम (आदि, इत्यादि) शब्दों का तथा 'अभि' नामक पात्र का नाम 'अभी' शब्द  का। अतः इनके ये नाम ना हो कर कोई अन्य नाम होता तो बेहतर रहता।
इसके अतिरिक्त पेज नंबर 90 की दूसरी पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..
'पापा मल्टीनेशनल में प्रेसिडेंट हैं'
यहाँ 'मल्टीनेशनल में प्रेसिडेंट हैं' की जगह अगर 'मल्टीनेशनल कम्पनी में प्रेसिडेंट हैं' तो ज़्यादा अच्छे तरीके से क्लीयर होता।
इसके बाद पेज नंबर 91 में लिखा दिखाई दिया कि..
'उसने देखा, उनके पीछे एक बड़ी सी चट्टान पर बैठी धरा ज़ार-ज़ार रो रही थी'
यहाँ 'उसने देखा, उनके पीछे एक बड़ी सी चट्टान पर बैठी धरा ज़ार-ज़ार रो रही थी' की जगह 'उसने देखा कि उसके पीछे एक बड़ी सी चट्टान पर बैठी धरा ज़ार-ज़ार रो रही थी' आना चाहिए।
पेज नंबर 92 के अंतिम पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..
'वहाँ बीते घोर उतार-चढ़ाव भारी ट्रेनिंग ने अपने सभी ट्रेनीज़ को अपने देश की प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिदृश्य से परिचित कराया'
यहाँ ''वहाँ बीते घोर उतार-चढ़ाव भारी ट्रेनिंग ने' की जगह ''वहाँ बीती घोर उतार-चढ़ाव भारी ट्रेनिंग ने' आएगा। साथ ही 'अपने सभी ट्रेनीज़ को अपने देश की प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिदृश्य से परिचित कराया' की जगह 'सभी ट्रेनीज़ को अपने देश के प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिदृश्य से परिचित कराया' आएगा। 
पेज नंबर 101 में लिखा दिखाई दिया कि..
'रिश्तो में छलना से व्यथित, न जाने कितनी परतों में दबा-ढका उसका असली स्वरूप बहुत कम किसी की पकड़ में आता'
यहाँ 'रिश्तो में छलना से व्यथित' की जगह 'रिश्तों में छले जाने से व्यथित' आएगा। 
पेज नंबर 144 में लिखा दिखाई दिया कि..
'आई लव यू सो वेरी मच ट्यूलिप'
यहाँ 'सो' शब्द की ज़रूरत नहीं है। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
'आई लव यू वेरी मच ट्यूलिप'
* जियँ - जिएँ
* गिफ्टस् - गिफ्ट्स
* प्रेज़ेटस् - प्रेजेंट्स
* लाँ - लॉ
* प्राय - प्रायः
* होटेल - होटल
यूँ तो यह उपन्यास मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 179 पृष्ठीय इस बढ़िया उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है बोधरस प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 290/- जो कि मुझे थोड़ा ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। 
 
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