पूतोंवाली - शिवानी
आजकल के इस आपाधापी से भरे माहौल में हम सब जीवन के एक ऐसे फेज़ से गुज़र रहे हैं जिसमें कम समय में ज़्यादा से ज़्यादा पा लेने की चाहत की वजह से निरंतर आगे बढ़ते हुए बहुत कुछ पीछे ऐसा छूट जाता है जो ज़्यादा महत्त्वपूर्ण या अच्छा होता है। उदाहरण के तौर पर टीवी पर कोई उबाऊ दृश्य या विज्ञापन आते ही हम झट से चैनल बदल देते हैं कि शायद अगले चैनल पर कुछ अच्छा या मनोरंजक देखने को मिल जाए। मगर चैनल बदलते-बदलते इस चक्कर में कभी हमारा दफ़्तर जाने का समय तो कभी हमारा सोने का समय हो जाता है और हम बिना कोई ढंग का कार्यक्रम देखे ख़ाली के ख़ाली रह जाते हैं। कुछ ऐसी ही बात किताबों के क्षेत्र में भी लागू होती है कि हम ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ने की चाह में आगे बढ़ते हुए पीछे कुछ ऐसा छोड़ जाते हैं जो ज्ञान या मनोरंजन की दृष्टि से ज़्यादा अहम..ज़्यादा फायदेमंद होता है।
दोस्तों..आज मैं इस बात को अपने समय की प्रसिद्ध लेखिका शिवानी की रचनाओं के बारे कह रहा हूँ जिनकी रचनाओं को पढ़ने का मौका तो मुझे कई बार मिला मगर किसी न किसी वजह से मैं उनका लिखा पढ़ने से हर बार चूक गया। आज से तीन महीने पहले उनकी लिखी "पूतोंवाली" किताब को पढ़ने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ है कि मैं कितना कुछ पढ़ने से वंचित रह गया। लेकिन फ़िर कुछ ऐसा हुआ कि चाह कर भी इस बेहद रोचक किताब पर कुछ लिख नहीं पाया। अब लिखने के बारे में सोचा तो एक बार पुनः किताब पर नज़र दौड़ाने के बहाने इस किताब को फ़िर से पढ़ा गया।
दोस्तों हिन्द पॉकेट बुक्स के श्रद्धांजलि संस्करण 2003, में छपी इस किताब 'पूतोंवाली' में उनके लिखे दो लघु उपन्यास और तीन कहानियाँ शामिल हैं।
'पूतोंवाली' नाम लघु उपन्यास है उस औसत कद-काठी और चेहरे मोहरे वाली 'पार्वती' की जिसे उसकी माँ की मृत्यु के बाद सौतेली माँ की चुगली की वजह से पिता के हाथों रोज़ मार खानी पड़ी। पिता के आदेश पर मोटे दहेज के लालच में सुंदर, सजीले युवक से ब्याह दी गयी।
अपने रूपहीन चेहरे और कमज़ोर कद-काठी की वजह से पति की उपेक्षा का शिकार रही 'पार्वती' को आशीर्वाद के रूप में मिले 'दूधो नहाओ पूतों फलो' जैसे शब्द सच में ही साकार हुए जब उसने एक-एक कर के पाँच पुत्रों को जन्म तो दिया मगर..
इसी संकलन के एक बेहद रोचक लघु उपन्यास 'बदला' की कहानी पुलिस महकमे के ठसकदार अफ़सर 'त्रिभुवनदास' की नृत्य कला में निपुण बेहद खूबसूरत बेटी 'रत्ना' की बात करती है। जो अपनी मर्ज़ी के युवक से शादी करना चाहती है मगर उसका दबंग पिता उस युवक को रातों रात ग़ायब करवा उसका ब्याह किसी और युवक से करवा देता है। अब देखना यह है कि अपने प्रेमी के वियोग में तड़पती 'रत्ना' क्या उसे भूल नयी जगह पर अपने पति के साथ राज़ीखुशी घर बसा लेती है अथवा...
इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'श्राप' में रात के वक्त सोते-सोते लेखिका अचानक किसी ऐसे सपने की वजह से हड़बड़ा कर उठ बैठती है जो उसे फ़्लैशबैक के रूप में दस वर्ष पीछे की उस घटना की तरफ़ ले जाता है जिसमें वह अपनी मकान मालकिन के कहने पर, उसकी बहन के रहने के लिए, उसे अपने पोर्शन के दो कमरे कुछ दिनों के लिए इसलिए इस्तेमाल करने के लिए दे देती है कि उसे वर पक्ष वालों की ज़िद के चलते अपनी सुंदर, सुशील बेटी की शादी उनके शहर में आ कर करनी पड़ रही है। वधु पक्ष की तरफ़ से दिल खोल कर पैसा खर्च करने के बावजूद भी इस बेमेल शादी में कहीं ना कहीं कुछ खटास बची रह जाती है।
विवाह के कुछ महीनों बाद लेखिका को अचानक पता चलता है कि शादी के चार महीनों बाद एक दिन ससुराल में रसोई में काम करते वक्त लापरवाही की वजह से उनकी बेटी की जलने की वजह से मौत हो गयी।
इसी संकलन की एक अन्य कहानी में अचानक एक दिन लेखिका की मुलाक़ात बरसों बाद अपनी उस ख़ूबसूरत सहेली 'प्रिया' से रेलवे स्टेशन पर मुलाक़ात होती है, जिनकी दोस्ती कॉलेज वालों के लिए एक मिसाल बन चुकी थी। और उसकी उसी सहेली ने एक दिन बिना कोई वजह बताए अचानक से कॉलेज छोड़ दिया था। इस ट्रेन वाली मुलाक़ात में 'प्रिया' लेखिका के साथ गर्मजोशी तो काफी दिखाती है मगर अपना पता ठिकाना बताने से साफ़ इनकार कर देती है।
इस बात के काफ़ी वर्षों के बाद एक दिन नैनीताल के किसी उजाड़ पहाड़ी रास्ते पर लेखिका की मुलाक़ात अचानक एक लंबे चौड़े..मज़बूत कद काठी के नितांत अजनबी व्यक्ति से होती है जो 'प्रिया' और लेखिका के बीच घट चुकी निजी बातों और घटनाओं का बिल्कुल सही एवं सटीक वर्णन करता है। जिससे लेखिका घबरा जाती है। अब सवाल उठता है कि आख़िर कौन था वो अजनबी जो उन दोनों के बीच घट चुकी एक-एक बात को जानता था?
इसी संकलन की अंतिम कहानी में ट्रेन में रात का सफ़र कर रही लेखिका के कूपे में बड़ा सा चाकू लिए एक लुटेरा घुस आता है और सब कुछ लूट कर जाने ही वाला होता है कि अचानक कुछ ऐसा होता है कि लूटने के बजाय वही लुटेरा लेखिका के पास फॉरन करैंसी से भरा हुआ एक बटुआ छोड़ कर चला जाता है।
127 पृष्ठीय इस बेहद रोचक और पठनीय किताब के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है 'सरस्वती विहार' (हिन्द पॉकेट बुक्स का सजिल्द विभाग है) ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 125/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
मैमराज़ी - जयंती रंगनाथन
1970-80 के दशक में जहाँ एक तरफ़ मारधाड़ वाली फिल्मों का ज़माना था तो वहीं दूसरी तरफ़ आर्ट फिल्में कहलाने वाला समांतर सिनेमा भी अपनी पैठ बनाना शुरू कर चुका था। इसी बीच व्यावसायिक सिनेमा और तथाकथित आर्ट सिनेमा की बीच एक नया रास्ता निकालते हुए हलकी-फुल्की कॉमेडी फिल्मों का निर्माण भी होने लगा जिनमें फ़ारुख शेख, दीप्ति नवल और अमोल पालेकर जैसे साधारण चेहरे-मोहरे वाले कलाकारों का उदय हुआ। इसी दौर की एक मज़ेदार हास्यप्रधान कहानी 'मैमराज़ी' को उपन्यास की शक्ल में ले कर इस बार हमारे समक्ष हाज़िर हुई हैं प्रसिद्ध लेखिका जयंती रंगनाथन।
मूलतः इस उपन्यास के मूल में कहानी है दिल्ली के उस युवा शशांक की जो दिल्ली में अपनी गर्लफ्रैंड 'सुंदरी' को छोड़ कर भिलाई के स्टील प्लांट में बतौर ट्रेनी इंजीनियर अपनी पहली सरकारी नौकरी करने के लिए आया है। भिलाई पहुँचते ही पहली रात उसके साथ कुछ ऐसा होता है कि वो भौचंक रह जाता है।
अगले दिन सुबह पड़ोसन के घर से नाश्ता कर के निकले शशांक के साथ कुछ ऐसा होता है कि आने वाले दिनों में वह अपने अफ़सर से ले कर कुलीग तक का इस हद तक चहेता बन बैठता है कि उनकी पत्नियाँ उसके साथ अपनी बेटी, बहन या रिश्तेदार की लड़की को ब्याहने के लिए उतावली हो उठती हैं। अब देखना ये है कि क्या शशांक ऐसे किसी मकड़जाल में फँस वहीं का हो कर रह जाएगा अथवा दिल्ली में बेसब्री से अपना इंतज़ार कर रही गर्लफ्रेंड सुंदरी के पास वापिस लौट जाएगा? उपन्यास को पढ़ते वक्त अमोल पालेकर की कॉमेडी फिल्म "दामाद" जैसा भी भान हुआ। मज़ेदार परिस्थितियों से गुज़रते इस तेज़ रफ़्तार रोचक उपन्यास में पता ही नहीं चलता कि कब वह खत्म हो गया।
इस उपन्यास के पेज नम्बर 164 में एक पंजाबी भाषा के एक संवाद में लिखा दिखाई दिया कि..
'इडियट, सुंदरी की शादी किसी और से करवाएगा तू? बैन दे टके'
जो कि पंजाबी उच्चारण के हिसाब से सही नहीं है। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
यहाँ 'बैन दे टके' की जगह 'भैंण दे टके' या 'भैन दे टके'
184 पृष्ठीय इस दिलचस्प उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्द युग्म और YELLOW ROOTS India मिल कर और इसका मूल्य रखा गया है 249/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
आउट - नॉट आउट
"आउट - नॉट आउट"
राजीव तनेजा
शोर-शराबे के तनाव भरे माहौल के बीच माथे पर चिंता के गहन भावों के साथ दर्शक दीर्घा में बेहद डर और उत्सुकता का मिलाजुला माहौल। हार या जीत का सारा दारोमदार मैदान में खेल रहे खिलाड़ियों के दम-खम पर। अब देखना ये है कि शातिर गेंदबाजों की तिकड़मी गेंदें हावी होती हैं या फ़िर बल्लेबाज की हिम्मत और धैर्य के साथ खेले गए शॉट।
लंबे रनअप के बाद निशाना साधे गेंदबाज़ की एक तेज़ बाउंसर बिना संभलने का मौका दिए सीधा बल्लेबाज की तरफ़ हावी होती हुई। हड़बड़ा कर बल्लेबाज ने तेज़ आक्रमण से बचने का भरपूर प्रयास किया मगर इससे पहले कि वो कामयाब हो, गेंद सीधा उसके हेलमेट से जा टकराई। बल्लेबाज ने लड़खड़ा कर गिरते हुए संभलने का प्रयास किया। पसीना पोंछते गेंदबाज के चेहरे पर एक विजयी मुस्कान।
बल्लेबाज के चेहरे पर थकान मगर सधे अंदाज़ में गेंदबाज़ पर नज़रें गड़ाए सावधानी से अगली गेंद खेलने के लिए तैयार। लंबे रनरअप के बाद ये एक और तेज़ गति से स्विंग होती हुई गेंद। पहले से तैयार खड़े मुस्तैद बल्लेबाज ने ज़ोर से हवा में बल्ला घुमाया और इसके साथ ही गेंद हवा में उड़ती हुई बाउंड्री पार चार रनों के लिए। तालियों की गड़गड़ाहट और करतल ध्वनि के बीच तेज़ गति से दौड़ते गेंदबाज की अगली गेंद थोड़ी धीमी गति के साथ बल्लेबाज की तरफ़ लपकी। सावधानी से खड़े बल्लेबाज से बल्ला घुमाया मगर ये क्या, बल्लेबाज को छकाती हुई गेंद ने अचानक टर्न लिया और सीधा मिडल विकेट की गिल्ली उड़ाती हुई पीछे विकेटकीपर द्वारा रोक ली गयी। अंपायर का 'आउट' का इशारा और थके कदमों से बल्लेबाज वापिस पवैलियन की तरफ़।
"लो.. इतनी जल्दी इसकी विकेट भी उड़ गयी। अब देखते हैं कि अगला कब तक टिकता है।" नर्स ने मुस्कुराते हुए पास खड़े वार्ड ब्वाय से कहा और संजीदा चेहरे के साथ अगले पेशेंट की तरफ़ बढ़ गयी।
इसके साथ ही C.C.U (क्रिटिकल केयर यूनिट) के बाहर रिश्तेदारों के रोना-बिलखना शुरू हो चुका था।
द डार्केस्ट डेस्टिनी - डॉ. राजकुमारी
आमतौर पर जब भी कभी किसी के परिवार में कोई खुशी या पर्व का अवसर होता है, तो हम देखते हैं कि हमारे घरों में हिजड़े (किन्नर) आ कर नाचते-गाते हुए बधाइयाँ दे कर इनाम वगैरह ले जाते हैं। किन्नर या हिजड़ों से अभिप्राय उन लोगों से है, जिनके किसी ना किसी कमी की वजह से जननांग पूरी तरह विकसित न हो पाए हों अथवा पुरुष होकर भी जिनका स्वभाव स्त्री जैसा हो या जिन्हें पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के बीच रहने में सहजता महसूस हो।
दोस्तों..आज मैं इसी महत्त्वपूर्ण मुद्दे से जुड़े एक ऐसे उपन्यास का जिक्र करने जा रहा हूँ जिसे 'द डार्केस्ट डेस्टिनी' के नाम से लिखा है डॉ. राजकुमारी ने। दलित लेखक संघ की अध्यक्ष, डॉ. राजकुमारी की रचनाएँ कई साझा संकलनों के अतिरिक्त अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं। प्रसिद्ध साहित्यकार रामदरश मिश्र जी के लेखन पर स्वतंत्र किताबों के अतिरिक्त इनका एक शायरी तथा एक कविता संग्रह भी आ चुका है।
किन्नर विमर्श को केंद्र में रख आत्मकथ्य के रूप में लिखे गए इस उपन्यास के मूल में कहानी है लैंगिक विकृति के साथ पैदा हुई एक आदिवासी लड़की अमृता की। उस अमृता की जिसे अपने बचपन से ले कर जवानी तक घृणा और तिरस्कार भरे जीवन से दो चार होना पड़ा। इस उपन्यास में कहीं अमृता के घर-परिवार से ले कर गाँव-समाज तक में कभी दैहिक तो कभी मानसिक रूप से प्रताड़ित..शोषित होने की बातें नज़र आती हैं तो कहीं किन्नर परंपराओं से जुड़ी बातें भी पढ़ने को मिलती हैं।
इसी उपन्यास में कहीं शारीरिक रूप से एकदम ठीक होते हुए कुछ लड़कों के स्वेच्छा से किन्नर वेश अपना पैसे कमाने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं किसी को जबरन किन्नर बनाए जाने की बात भी होती नज़र आती है। इसी किताब में कहीं हालात से समझौता कर घुटने टेकने की बात होती नज़र आती है तो कहीं अधिकारों के लिए संघर्ष करने की बात भी पूरे दमख़म के साथ उभर कर सामने आती दिखाई देती है।
इसी उपन्यास में भीमराव अंबेडकर जी की विचारधारा से प्रेरणा लेते किन्नर नज़र आते हैं तो कहीं किन्नरों द्वारा अरावल राक्षस की मूर्ति से पूर्ण श्रंगार कर मंगलसूत्र इत्यादि पहन सामूहिक विवाह करने की बात और उसके मरने पर मंगलसूत्र तोड़ सामूहिक रूप से विलाप करने की परंपरा की बात होती नज़र आती है।
पूरा उपन्यास अंततः एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाता दिखाई देता है कि जब कुछ व्यक्तियों को मात्र सैक्स का आनंद उठा पाने में सक्षम ना होने की वजह से किन्नर मान लिया जाता है तो जो पुरुष या स्त्री बच्चे पैदा करने में किसी भी वजह से सक्षम नहीं हो पाते, उन्हें भी किन्नर श्रेणी में डाल, उनका किन्नरों की ही भांति बहिष्कार क्यों नहीं किया जाता? जब उन्हें सामान्य श्रेणी में डाल, समाज का ही एक अटूट हिस्सा माना जा सकता है तो किन्नरों को क्यों नहीं?
बतौर सजग पाठक होने के नाते मुझे इस उपन्यास के शुरुआती 30 पृष्ठ खामख्वाह में उपन्यास की लंबाई बढ़ाने के लिए लिखे गए दिखाई दिए जिनके होने या ना होने से कहानी पर कोई फ़र्क नहीं पड़ना था। साथ ही इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ लेखिका 'कि' और 'की' अन्तर को भी नहीं समझ पायी हैं तो वहीं दूसरी तरफ इस उपन्यास में हद से ज़्यादा वर्तनी की त्रुटियाँ दिखाई दीं। इसके अतिरिक्त प्रूफ़रीडिंग की कमियाँ भी ग़लतियों के मामले में वर्तनी की त्रुटियों से इस हद तक कड़ा मुकाबला करती दिखाई दीं कि 'किस में कितना है दम? उपन्यास को पढ़ते वक्त ऐसा प्रतीत हुआ कि लेखिका ने बिना प्रूफ़रीडिंग को चैक किए जल्दबाज़ी में किताब जस की तस छपवा ली है।
पेज नंबर 43 में लिखा दिखाई दिया कि..
'रंगीन दीवारें बीच-बीच में पंखे और बाहरी हवा के झोंकों से झूलती हुई नन्हे बल्बों की लाइनें और सुहागसेज के इर्द-गिर्द लगी पीले गेंदे की फूलों की लड़ियाँ अठखेलियाँ कर रही थी। कमरे में बिजली के बल्बों के अलावा भी बड़ी-बड़ी खूबसूरत और भिन्न-भिन्न रंगों की मामबत्तियां जल रही थी, जो उस कमरे के वातावरण को बहुत रोमांचक बना रही थी'
इस पैराग्राफ़ में परस्पर विरोधी बातें लिखी दिखाई दीं कि कमरे में पँखे की हवा के साथ-साथ बाहरी हवा भी आ रही थी और कमरे में बड़ी-बड़ी मोमबत्तियाँ भी जल रही थी। जबकि पँखे की या बाहरी हवा के आगे जलती मोमबत्तियों के लिए अपने वजूद को बचा पाना संभव ही नहीं है।
साथ ही सुहागरात के इस दृश्य में लेखिका ने यहाँ 'रोमांचक' शब्द का इस्तेमाल किया है जिसे मौके के हिसाब से बिल्कुल भी सही नहीं ठहराया जा सकता। इस मौके के लिए 'रोमांचक' की जगह सही शब्द 'रोमांटिक' होगा।
इसी पेज पर एक और कमी दिखाई दी कि इस पेज का काफ़ी बड़ा हिसा पेज नंबर 179-178 में रिपीट होता दिखा। हालांकि उसी पहले वाले दृश्य की पुनरावृत्ति हो रही थी लेकिन फिर भी शब्दों में अगर थोड़ा हेरफेर किया जाता तो बेहतर था।
पेज नंबर 88 में लिखा दिखाई दिया कि..
'सर्दियों के होली डेज़ में तो आमतौर पर यही होता था'
यहाँ लेखिका का 'होली डेज़' यानी कि हॉलीडेज़ से तात्पर्य सर्दियों की छुट्टियों से है जबकि शब्द में 'होली-डेज़' ग़लत जगह पर विच्छेद या स्पेस आने से इस शब्द के मायना ही बदल कर 'पवित्र दिन' हो गया है।
■ पेज नंबर 144 के दूसरे पैराग्राफ में लेखिका एक तरफ उपन्यास की नायिका अमृता बन किन्नर समाज की पैरवी करते-करते अचानक बीच पैराग्राफ के ही आम समाज की पैरवी करती दिखाई दी।
उदाहरण के तौर पर इसी पैराग्राफ में पहले लिखा दिखाई दिया कि..
'इन्हें मोरी में रहने वाला कीड़ा कहते हुए हमारी जुबान जरा भी नहीं लड़खड़ाती, ना ही लज्जा आती है। उनके चरित्र पर कीचड़ उछालकर उनकी छवि बिगाड़ने में हम तगड़ी मेहनत करते हैं'
■ पेज नंबर 148 से शुरू हुए एक ट्रेन यात्रा के दौरान छेड़खानी के दृश्य में किन्नरों द्वारा एक युवक को किसी लड़की के साथ छेड़खानी करने से रोका जाता है। इस प्रसंग के दौरान गुस्से में एक किन्नर उस युवक को झापड़ जड़ देता है जिससे उस युवक का मुँह लाल हो जाता है। उसके बाद तमाशा देखने के लिए भीड़ इकट्ठी हो जाती है।
इसी दृश्य से संबंधित पेज नम्बर 149 में लिखा दिखाई दिया कि..
'उसने उसके गाल पर एक झापड़ जड़ दिया। उसका मुँह लाल पड़ गया। सभी लोग इकट्ठे हो गए। लड़का हाथों की पकड़ ढीली होते ही मौका का भाग खड़ा हुआ।
अब यहाँ ये सवाल उठता है कि चलती ट्रेन में किन्नरों समेत अन्य लोगों की भीड़ में फँसा युवक भाग कैसे सकता है? और मान भी लिया जाए कि किस तरह भाग गया तो आख़िर वो भाग कर भला जा कहाँ सकता है?
■ किसी भी किरदार को जीवंत करने के लिए लेखक को परकाया में प्रवेश कर उसी किरदार की भांति सोचना, समझना एवं बोलना पड़ता है मगर उपन्यास में लेखिका साफ़ तौर पर इस मुद्दे पर पिछड़ती दिखाई देती हैं कि किरदार के बजाय वे स्वयं लेखिका के रूप में अपने किरदार पर हावी हो
किरदार के मुख से अपनी भाषा..अपने विचार बोलती दिखाई देती हैं।
उदाहरण के लिए पेज नंबर 150 में लिखा दिखाई दिया कि...
ऐ लड़की तुम। हाँ, तुम! कपड़े तो मॉडर्न पहन लिए थोड़ी हिम्मत भी जुटा ले। तुम इन इंसानों की खाल में लैंगिकता का दंभ भरने वाले भेड़ियों से खुद को बचाने की कोशिश ना कर के हिम्मत बढ़ाती हो।
■ बाइंडर की ग़लती से जो किताब मुझे मिली उसमें पेज नंबर 109-110 उलटे चिपके हुए अर्थात पेज नंबर 110 पहले और पेज नंबर 109 बाद में था।
इसके बाद पुनः यही ग़लती मुझे पेज नंबर 153-154 में दिखाई दी जिसमें पेज नंबर 154 पहले और 153 बाद में था।
बतौर पाठक, लेखक एवं एक समीक्षक होने के नाते मेरा मानना है कि आधे-अधूरे मन से लिखी गयी रचना कभी सफ़ल नहीं हो सकती। दमदार लिखने के लिए आप में सजगता के साथ संयम का होना बेहद ज़रूरी है। दरअसल होता क्या है कि ज़्यादातर लेखक अपने लिखे के मोह में पड़ उसे ऐसा ब्रह्म वाक्य समझ लेते हैं कि उसके साथ कोई छेड़छाड़ या काट-छाँट संभव ही नहीं। इसका नतीजा अंतत रचना को ही भुगतना पड़ता है जिसका भविष्य लेखक की थोड़ी सी समझदारी और धैर्य से उज्ज्वल हो सकता था मगर उसकी हठधर्मिता की वजह से जिसका बेड़ागर्क हो गया। आप मान कर चलिए कि आधे-अधूरे मन से किया गया कोई भी काम अँधों में काना राजा तो हो सकता है मगर कभी पूर्णतः सफ़ल नहीं हो सकता। एक अच्छी और सफ़ल किताब या रचना के लिए स्वयं लेखक का एक ऐसा निर्दयी संपादक का होना निहायत ही ज़रूरी है जो स्वयं ही अपनी रचना के भले के लिए उसमें धड़ल्ले से काट-छाँट कर सके।
■ पूरा उपन्यास पढ़ने के बाद स्वाभाविक रूप से मन में एक प्रश्न उमड़ता-घुमड़ता दिखाई देता है कि क्या बिना पढ़े, साहित्यजगत की प्रसिद्ध एवं नामचीन हस्तियों द्वारा, किसी किताब की भूमिका या प्रस्तावना के लिए अपना नाम एवं शब्द देना उचित है?
उम्मीद की जानी चाहिए कि इस किताब में हुई ग़लतियों से संज्ञान लेते हुए लेखिका एवं प्रकाशक अपनी आने वाली किताबों में इस तरह की कमियों से बचने का प्रयास करेंगे कि इससे लेखक/प्रकाशक की साख पर बट्टा तो लगता ही है।
यूँ तो लेखिका से यह उपन्यास मुझे उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस किताब के 192 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है देवसाक्षी पब्लिकेशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 199/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
सितारों में सूराख़ - अनिलप्रभा कुमार
बेहटा कलां - इंदु सिंह
स्तुति - सौरभ कुदेशिया
धनिका - मधु चतुर्वेदी
चौसर - जितेन्द्र नाथ
बर्फ़खोर हवाएँ - हरप्रीत सेखा - अनुवाद (सुभाष नीरव)
दरकते दायरे - विनीता अस्थाना
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