सितारों में सूराख़ - अनिलप्रभा कुमार

अभी हाल-फिलहाल में ही एक ख़बर सुनने..पढ़ने एवं टीवी के ज़रिए जानने को मिली कि हमारे यहाँ किसी उन्मादी सिपाही ने चलती ट्रेन में अपनी सरकारी बंदूक से एक ख़ास तबके के निरपराध यात्रियों पर गोलियाँ बरसा, मानवता को तार-तार करते हुए उनकी हत्या कर दी। इसी तरह की कुछ ख़बरें भारत के पूर्वोत्तर में स्थित मणिपुर से भी लगातार आ रही हैं जहाँ, वहाँ के दो समुदायों, बहुसंख्यक मैतेई और अल्पसंख्यक कुकी के बीच हिंसक झड़पों में सैंकड़ों लोग रोज़ाना मारे जा रहे हैं। इस तरह की ख़बरों को देख या सुन कर हम सभी चौंके तो सही मगर ऐसा नहीं हुआ कि इससे एकदम से हाय तौबा मच गई हो या सत्ता के गलियारों की बुलंद इमारत और बुनियाद वगैरह हिल गयी हो। दरअसल इस तरह की ख़बरों की जानकारी होने के बावजूद भी हम सब चुप रहते हैं कि ये सब हम पर थोड़े ही ना बीत रहा है।  मगर हम सब यह नहीं जानते कि जो आग हमारे घरों के बाहर अभी फ़िलहाल जल रही है, एक न एक दिन हमारे घरों एवं परिवारों को भी अपनी चपेट में ले लेगी। कमोबेश इसी तरह की मनोस्थिति या विचारधारा को समर्थन करते लोग केवल  भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व भर में  फैले हुए हैं।

दोस्तों..आज इस तरह की त्रासदी से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं इसी गंभीर विषय से जुड़े एक प्रभावी उपन्यास 'सितारों में सूराख' की बात करने जा रहा हूँ जिसे लिखा है लेखिका अनिलप्रभा कुमार ने।

 इस उपन्यास के मूल में कहानी है अमेरिका के एक टीवी चैनल में अपनी आजीविका के लिए नौकरी कर रहे जय, उसकी पत्नी जैस्सी उर्फ़ जसलीन और उसकी नौवीं में पढ़ रही बेटी चिन्नी की। देर रात ओवर टाइम कर के घर लौट रहे जय, किसी अज्ञात नकाबपोश द्वारा बन्दूक की नोक पर लूट लिया जाने से चिंतित हो अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा के लिए अपने एक दोस्त की मदद से एक पिस्टल खरीद तो लेता है मगर...

इस उपन्यास में कहीं द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नाज़ियों द्वारा गैस चैम्बर में बंद कर 60 लाख से ज़्यादा यहूदियों के संहार किए जाने की बात होती नजर आती है। तो कहीं भारत विभाजन की त्रासदी से जुड़ी बातें होती नज़र आती हैं। इस उपन्यास में कहीं किसी दृश्य की भयावहता और विभीस्तता के ज़रिए उसके बिकाऊ होना या ना होना तय किया जाता दिखाई देता है। कहीं टीवी पत्रकारिता के लिए सच को तोड़ा मरोड़ा जाता दिखाई देता है तो कहीं किसी नाईट क्लब में बेगुनाह लोगों पर सरेआम गोलियां बरसा उनका क़त्ल कर देने  की बात को भी महज़ एक सनसनीखेज ख़बर के नज़रिए  से देखा जाता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं बतौर संदर्भ भारत-पाक विभाजन के दर्द से उपजी सोच की वजह से हिन्दू-मुस्लिम के बीच की संकीर्णता उभर कर मुखर होती दिखाई देती है। तो कहीं नफ़रत भूल आगे बढ़ने की बात सकारात्मक ढंग से होती दिखाई देती है। कहीं कोई  भारत-पाक़ विभाजन के 70 वर्षों बाद भी उस वक्त के भयावह मंज़र को गले लगाए बैठा नज़र आता है। तो कहीं कोई खुद ही अपनी बेटी को इस वजह से कुँए में धकेलता दिखाई देता है कि अगर उसने ऐसा नहीं किया तो उसकी मासूम बेटी दंगाइयों की भेंट चढ़ अपनी जान और आबरू दोनों ही खो बैठेगी। इसी उपन्यास में कहीं घर के दामाद के मुस्लिम होने की वजह से पूरा हिन्दू परिवार दंगाइयों के कहर से बचता दिखाई देता है कि इस घर के सभी सदस्य मुसलमान हैं।

इसी उपन्यास में कहीं सुरक्षा के मद्देनज़र तो कहीं फैशन..दिखावे या स्टेटस सिंबल के तौर पर दिन-रात पनपते गन कल्चर की बात होती दिखाई देती है। तो कहीं अपने वैलेट में हमेशा कुछ न कुछ डॉलर ले कर चलने की सलाह महज़ इस वजह से दी जाती दिखाई देती है कि किसी उठाइगीरे या लुटेरे से मुठभेड़ के दौरान नकद रकम मिलने की वजह से आप कम से कम जान से मारे नहीं जाएँगे। 

इसी उपन्यास में कहीं कोई असाध्य कैंसर से पीड़ित अपनी बेटी को असहनीय पीड़ा से मुक्ति दिलाने के नाम पर एक-एक कर के बंदूकों का अंबार खरीदता नज़र आता है। तो कहीं व्यस्क होने के मतलब को अपने निर्णय स्वयं लेने के अधिकार और सही-ग़लत के लिए खुद ज़िम्मेदार होने की बात से परिभाषित किया जाता दिखाई देता है। कहीं हाई स्कूल प्राॉम की पार्टी के लिए बेटी की ख़ुशी और उल्लास को देख कर उसकी माँ भी मन ही मन उत्साहित नज़र आती है कि उसके अपने समय में इस सब की छूट नहीं थी। बेहद ज़रूरी मुद्दे को उठाते इस महत्त्वपूर्ण उपन्यास में  कहीं भारत-पाकिस्तान के लोगों के एक जैसे खान-पान, बोली, रहन-सहन और परिधानों की बात कर इस बात पर प्रश्न मंडराता दिखाई देता है कि जब सब कुछ हम में एक जैसा है, तो फ़िर ये दुश्मनी..ये नफरत क्यों? 
 
इसी उपन्यास में कहीं पुलिस कर्मियों द्वारा सरेआम किसी अश्वेत के साथ मानवाधिकारों के हनन का स्पष्ट मामला उजागर होता दिखाई देता है। तो कहीं कोई अज्ञात बंदूकधारी आवेश में आ किसी स्कूल में इस तरह अंधाधुंध गोलियाँ बरसाता दिखाई देता है कि उसकी चपेट में आ कई मासूम बच्चे मारे जाते हैं। इसी उपन्यास में कहीं कोई पत्नी अपने घर में पति के द्वारा  हथियार रखने से आहत दिखाई देती है। 

 तो कहीं यह उपन्यास इस बात की तस्दीक करता दिखाई देता है कि दुख  ना धर्म, ना जाति, ना देश और ना ही त्वचा के रंग के हिसाब से किसी के साथ कोई भेदभाव करता दिखाई देता है। 
 
इसी उपन्यास में कहीं किसी दफ़्तर में मोटी रकम ले नौकरी छोड़ने की गरिमामयी बर्खास्तगी को बाय आउट का नाम दिया जाता दिखाई देता है। तो कहीं नयी जानकारी के रूप में पता चलता है कि अमेरिका में हथियार खरीदने की अपेक्षा कोई कुत्ता गोद लेना ज़्यादा मुश्किल काम है।

कहीं कोई स्कूल तो कहीं कोई शॉपिंग मॉल या कैसीनो अंधाधुंध गोलाबारी का शिकार होते कभी ब्राज़ील से अमेरिका में अवैध तरीके से घुस आए लोग दिखाई देते हैं तो कभी उनके अपने ही लोग इस सब से हताहत होते नज़र आते हैं। तो कहीं दिन-रात परिपक्व होती इस गन कल्चर के खिलाफ़ व्यथित हो महिलाएँ स्वयं ही  एकजुट हो इस मुहिम को आगे बढ़ाती नज़र आती हैं कि घर में हथियार होने से सबसे ज़्यादा वे सब ही घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं। इसी उपन्यास में कहीं जगह-जगह होती इस गोलाबारी से आहट के बीच एक बेटी व्यथित हो अपने माता-पिता को अपनी वसीयत के रूप में एक पत्र लिखती दिखाई देती है कि वह उन दोनों से कितना प्यार करती है। 

इसी किताब में कहीं स्कूल-कॉलेज..सिटी एवं स्टेट काउन्सिल से ले कर सत्ता तक के गलियारों में महिलाओं का वर्चस्व बढ़ता दिखाई देता है।

कहीं कोई पुलिस वाला स्वयं ही पुलिस स्टेशन में हथियार सौंपने आए जय को अवैध तरीके से हथियार बेचने के लिए उकसाता दिखाई देता है। तो कहीं दुनिया की मात्र 4 प्रतिशत अमेरीकी आबादी के पास दुनिया के 42 प्रतिशत हथियार होने का आंकड़ा दिया जाता दिखाई देता है।

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस उपन्यास में कुछ एक जगहों पर मुझे प्रूफ़रीडिंग की कमियाँ दिखाई दीं। इसके अतिरिक्त उपन्यास की कहानी के हिसाब से जय विदेश में अपनी पत्नी के साथ रह कर वहाँ के टेलिविज़न चैनल के लिए काम कर रहा है। किसी भी ख़बर के नियत समय पर होने वाले टेलीकॉस्ट को ले कर शुरू हुई गहमागहमी और आपाधापी का दर्शाता दृश्य पेज नंबर 12 के दूसरे पैराग्राफ़ में आता है। इस पैराग्राफ़ की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'यही है दूरदर्शन की दुनिया'

आम धारणा एवं मान्यता के अनुसार भारत के सरकारी टीवी चैनल का नाम 'दूरदर्शन' है जबकि जय तो विदेश में रह कर वहाँ के किसी टीवी चैनल के लिए काम कर रहा है। ऐसे में यहाँ 'दूरदर्शन' का नाम लिया जाना सही नहीं है। 

बढ़िया क्वालिटी में छपे इस दमदार उपन्यास के 152 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 195/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

2 comments:

रेखा श्रीवास्तव said...

समीक्षा पढ़कर लगा कि उपन्यास में कहीं बिखराव है। क्या सम्पूर्ण किताब में एक तारतम्य है। यदि हाँ तो जरूर पढ़ूँगी।

राजीव तनेजा said...

ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि उपन्यास में कहीं बिखराव है। मुझे तो बहुत पसन्द आया।

 
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