बेहटा कलां - इंदु सिंह

आज़ादी बाद के इन 76 सालों में तमाम तरह की उन्नति करने के बाद आज हम बेशक अपने सतत प्रयासों से चाँद की सतह को छू पाने तक के मुकाम पर पहुँच गए हैं मगर बुनियादी तौर पर हम आज भी वही पुराने दकियानूसी विचारों वाले पिछड़े के पिछड़े ही हैं। आज भी हमारे देश के गाँवों और अपवाद स्वरूप कुछ एक शहरों में लड़कों के मुकाबले लड़कियों के साथ जो भेदभाव बरसों पहले से होता आया है, कमोबेश वही सब अब भी किसी न किसी रूप में जारी है। 

इस तरह के भेदभाव के पीछे एक तरफ़ घरों में पितात्मक सत्ता का प्रभाव नज़र आता है तो दूसरी तरफ़ स्त्री से स्त्री की ईर्ष्या ही मुखरित हो स्पष्ट झलकती दिखाई  देती है। दोस्तों..आज महिलाओं से होते आए भेदभाव की बात इसलिए कि आज मैं इसी मुद्दे पर लिखे गए एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'बेहटा कलां' के नाम से लिखा है इंदु सिंह। 

इस उपन्यास के मूल में एक तरफ़ कहानी है पढ़ने-लिखने में रुचि रखने वाली उस अन्नु की जो पढ़-लिख कर डॉक्टर बनना चाहती थी मगर उसकी माँ ने अपनी ज़िद के चलते, अन्नु की और उसके पिता की इच्छा को दरकिनार कर मात्र 14 वर्ष की उम्र में ही उसका ऐसी जगह ब्याह कर दिया जहाँ तमाम तरह की बंदिशों और दबावों को झेलते हुए दिन-रात घर के कामों में खट कर उसने अपना जीवन इस हद तक होम कर दिया कि अंततः वह अपना मानसिक संतुलन भी खो बैठी।  

इसी उपन्यास में कहीं कोई माँ बड़े चाव से अपनी बेटी के सुखी भावी जीवन के मद्देनज़र उसे दहेज में वे सब चीज़ें देना चाहती है जिनसे कि उसे नए परिवार में जाने पर कोई दिक्कत या परेशानी ना हो। तो कहीं वह अपनी बेटी को ससुराल में हर दुःख.. हर कष्ट सह कर भी मायके का नाम खराब न करने की सलाह देती नज़र आती है। जिसकी वजह से अन्नु बिना किसी विरोध के ससुराल में धीमे बोलने, हर समय घूँघट में रहने और रेडियो ना सुनने तक के निर्देशों का पालन करती दिखाई देती है। इसी उपन्यास में कहीं घर की स्त्रियों के ज़ोर से हँसने पर रोक लगी होने की बात होती दिखाई देती है। 

इसी उपन्यास में कहीं दस-दस कमरों के घर में आराम से रहने वाली अन्नू अपनी माँ की ज़िद के चलते जल्दी विवाह करने के बाद महज़ एक कोठरी जितने बड़े कमरे में रहने के साथ-साथ दिशा मैदान के लिए भी लौटा ले बाहर खेतों में जाने को मजबूर कर दी जाती है। जहाँ मात्र इस वजह से उसे सुबह शौच जाने से जबरन रोका जाता दिखाई देता है कि वह सो कर देर से उठी है। तो कहीं उसे सुबह का बचा खाना रात को महज इस वजह से खाने के मजबूर किया जाता दिखाई देता है कि आज उसने दाल ज़्यादा बना दी थी। 

इसी उपन्यास में कहीं अन्नू को दहेज में उसके लिए मिली साड़ियों, कपड़ों, चप्पलों इत्यादि पर बड़ी ननद अपना हक़ जमाए दिखती है तो कहीं उसके दहेज के सामान को छोटी ननद अपने ब्याह में पूरी शानोशौकत और ठसक के साथ ले जाती नज़र आती है। कहीं महीनों से घर में टिकी ननद अपनी भाभी को महज इस वजह से प्रताड़ित करती नज़र आती है कि उसे, उसकी ससुराल में उसकी ननद द्वारा तंग किया जाता रहा है। तो कहीं अन्नु को उसके मायके लिवाने के लिए आए उसके भाई या पिता को वही ननद यह कह कर इनकार कर देती है कि हमारे यहाँ बहुएँ बार-बार मायके नहीं जाती है।  

कहीं सही पढ़ाई के अभाव में गाँवों के बच्चे पान, बीड़ी और गुटखे इत्यादि की शरण में जाते दिखाई देता है तो कहीं किसी को अपने जीवन में पढ़ने के अनुकूल मौके ना पा कर मलाल होता दिखाई देता है। कहीं कानपुर में फैले चमड़ा उद्योग की वजह से वहाँ फैले प्रदूषण और गन्दगी की बात की जाती दिखाई देती है। तो कहीं लखनऊ की साफ़ सफ़ाई और तहज़ीब की बात की जाती दिखाई देती है।कहीं हड़ताल के बाद महीनों तक तनख्वाह रुकने की परेशानी झेलता परिवार घर के राशन तक को तरसता दिखाई देता है। 

कहीं अन्नू की कर्मठता और कर्तव्यपरायणता देख घर की देवरानी भी आलसी हो अपने सारे काम अन्नु को सौंप निठल्ली बैठी दिखाई देती है। 
इसी उपन्यास में कहीं कोई सरकारी नौकरी से अवकाश प्राप्त पिता जानबूझ कर घर के  खर्चों के प्रति शुरू से अनभिज्ञ होने का दिखावा करता प्रतीत होता नज़र आता है। कहीं गाँव की नाउन सास और बहुओं में अँग्रेज़ों की तर्ज़ पर फूट डाल शासन करने यानी कि फ़ायदा उठाने के मंसूबे बाँध, दोनों हाथों से लड्डू बटोरती दिखाई देती है। 

इसी उपन्यास में कहीं पुराने तौर-तरीकों के रूप में अरहर की दाल को कल्हारने जैसी बात होती दिखाई देती है तो कहीं पुरानी हो चुकी परंपराओं के बेटियों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होने की बात होती नज़र आती है। 

इस उपन्यास में क्षेत्रीय भाषा अथवा हिंदी के अपभ्रंश शब्द भी काफ़ी जगहों पर पढ़ने को मिले। पृष्ठ के अंत में उनके हिंदी अर्थ भी साथ में दिए जाते तो बेहतर होता। साथ ही पूरे उपन्यास में संवादों के इनवर्टेड कॉमा में ना होने की वजह से भी कई जगहों पर कंफ्यूज़न क्रिएट होता दिखा कि संवाद कौन बोल रहा है। कुछ एक जगहों पर थोड़ी-बहुत वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग की भी कुछ कमियाँ दिखाई दीं। 

■ आमतौर पर किसी भी कहानी को लिखते वक्त कहानी का हल्का सा प्लॉट ज़ेहन में होता है जो कहानी में भावों का प्रवाह बढ़ने के साथ-साथ डवैलप या परिपक्व होता जाता है। ऐसे में कई शब्दों , वाक्यों या दृश्यों को पीछे जा कर जोड़ना, घटाना, बदलना अथवा पूर्णरूप से हटाना पड़ता है। इस उपन्यास में इस चीज़ की हल्की से कमी दिखाई दी ।  

उपन्यास में कुछ एक जगहों पर पुरानी बातों का इस तरह जिक्र होता नजर आया मानों वह चीज़ या बात पहले से ही होती आ रही है जैसे कि पेज नम्बर 95 मैं लिखा दिखाई दिया कि..

'राघव भी बचपन से ही कैलाश की तरह गंभीर व्यक्तित्व का स्वामी था। राघव को अच्छी नौकरी मिल जाए इसके लिए अन्नु सालों से बृहस्पतिवार का व्रत रखती आ रही थी' 

इसी तरह पेज नंबर 128 के अंतिम पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..

'कैलाश खुद खेलकूद में बहुत अच्छे थे क्रिकेट और बैडमिंटन उनके प्रिय खेल थे। बैडमिंटन में तो पूरे जिले में कैलाश को कोई नहीं हरा सकता था। अनेक प्रतियोगिताओं में कैलाश ने भाग लिया था और हमेशा जीत उन्हीं की होती थी जबकि इन बातों का इससे पहले कहीं जिक्र होता नहीं दिखाई दिया। अगर इस तरह की कमियों से बचा जाए तो बेहतर है। 

साथ ही घर-जायदाद के बंटवारे की बात को शुरू कर अधूरा छोड़ दिया गया। 

■ पेज नम्बर 120 में राघव की बेटी यानी कि अन्नू की पोती अपनी दादी को रोबोट से संबंधित के कहानी सुना उसका अर्थ पूछती है। बच्ची की कम उम्र और समझ के हिसाब से  कहानी की भाषा मुझे कुछ ज़्यादा ही परिपक्व लगी। स्कूल की किताब के हिसाब से कहानी की भाषा सरल होती तो ज़्यादा बेहतर होता।


 ■ तथ्यात्मक ग़लती के रूप में पेज नम्बर 67 में लिखा दिखाई दिया कि..

'अन्नु की सास को हमेशा ही साँस लेने में दिक़्क़त रहती थी ख़ास कर तब जब मौसम बदल रहा हो तो उनकी तकलीफ़ बहुत बढ़ जाती थी। शहर में डॉक्टर से जाँच करवायी गयी तो पता चला कि उन्हें दमे की बीमारी थी। डॉक्टर ने उन्हें धूल और धुएँ से बचने के लिए कहा था साथ ही कुछ इनहेलर भी दिए थे कि यदि कभी अचानक ज़्यादा साँस उखड़े तो इससे आराम आ जाएगा। गाँव में तो धूल और धुएँ से बचना संभव ही नहीं है जिस कारण वह गाँव नहीं आ पा रही थी।'

आम डॉक्टरी मान्यता के अनुसार शहरों में गाँवों के अपेक्षाकृत प्रदूषण ज़्यादा होता है। इसलिए दमे इत्यादि के मरीजों को शहरों के बजाय गाँवों में जा कर रहने की सलाह दी जाती है लेकिन इस उपन्यास में इससे ठीक उलट बताया जा रहा है कि..'गाँव में तो धूल और धुएँ से बचना संभव नहीं था' जो कि सही नहीं है। 

अंत में चलते-चलते एक महत्त्वपूर्ण बात कि किसी भी कहानी, उपन्यास या किताब में रुचि जगाने के लिए उसके शीर्षक का प्रभावी..तर्कसंगत एवं दमदार होना बेहद ज़रूरी होता है। कहानी के किसी महत्त्वपूर्ण हिस्से..सारांश या मूड को आधार बना कर ही अमूमन किसी कहानी, उपन्यास या किताब का शीर्षक तय किया जाता है। इस कसौटी पर अगर कस कर देखें तो इस उपन्यास का शीर्षक 'बेहटा कलां' मुझे प्रभावी तो लगा मगर तर्क संगत नहीं क्योंकि उपन्यास की मुख्य किरदार, अन्नु बेशक 'बेहटा कलां' में पैदा हुई मगर पूरे उपन्यास की कहानी नज़दीकी गाँव 'पनई खुर्द' के इर्दगिर्द ही घूमती है जहाँ वह मात्र 14 वर्ष की उम्र में ही ब्याह कर चली गयी थी और जीवनपर्यंत वहीं रही। 

बेहद ज़रूरी मुद्दे को उठाते इस बढ़िया क्वालिटी में छपे प्रभावी उपन्यास के 136 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए जो कि मुझे ज़्यादा लगा। आम हिंदी पाठक तक इस ज़रूरी उपन्यास की पहुँच एवं पकड़ बनाने के लिए ज़रूरी है कि इसके दाम आम आदमी की जेब के अनुसार रखे जाएँ। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। 

0 comments:

 
Copyright © 2009. हँसते रहो All Rights Reserved. | Post RSS | Comments RSS | Design maintain by: Shah Nawaz