सुनो... तुम्हें प्रेम बुलाता है - शिखा श्रीवास्तव 'अनुराग'

आम बॉलीवुडीय फ़िल्मों को अगर दो कैटेगरीज़ में बाँटने का प्रयास करें तो मेरे ख़्याल से एक तरफ़ तमाम मसाला फ़िल्में तो दूसरी तरफ राजश्री प्रोडक्शन्स की 'मैंने प्यार किया', 'नदिया के पार' या फ़िर 'हम आपके हैं कौन सरीखी' साफ़सुथरी संस्कारी  फ़िल्में आएँगी। 
सिक्के के पहलुओं की तरह जीवन में भी अच्छे और बुरे, दो तरह के लोग होते हैं। जहाँ एक तरफ़ कुछ लोग ऐसे होते हैं जो मौका मिलने पर डसने से नहीं चूकते तो वहीं दूसरी तरफ़ कुछ इस तरह के लोग भी होते हैं जिनके संस्कार उन्हें किसी के साथ कुछ भी बुरा नहीं करने देते। 
दोस्तों... आज मैं यहाँ राजश्री प्रोडक्शन्स की फ़िल्मों की ही तरह की साफ़सुथरी कहानी से लैस जिस उपन्यास का जिक्र करने जा रहा हूँ उसे 'सुनो... तुम्हें प्रेम बुलाता है' के नाम से लिखा है शिखा श्रीवास्तव 'अनुराग' ने। इस उपन्यास के मूल में एक तरफ़ कहानी है पढ़ाई-लिखाई में औसत रहने वाली उस ईशाना की जो अपने ट्यूशन टीचर की मदद एवं प्रेरणा से अपनी क्लास में अव्वल स्थान प्राप्त करती है तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है उस सागर की जो ईशाना को ट्यूशन पढ़ाने के साथ-साथ स्वयं भी पढ़ाई कर अपना कैरियर बनाने का प्रयास कर रहा है। धीमी आँच पर सहज..सरल तरीके से पकती इस प्रेम कहानी में पढ़ाई के दौरान दोनों एक-दूसरे के प्रति आकर्षण तो महसूस करते हैं मगर मर्यादा एवं संस्कार में बँधे होने के कारण दोनों में से कोई भी अपने मन की बात को खुलकर नहीं कह पाता। 
आपसी गलतफहमियों के चलते एक-दूसरे से बिछुड़ने के 10 वर्षों बाद दोनों की फ़िर से मुलाक़ात होती है। अब देखना यह है कि क्या अब भी उनमें प्रेम की तपिश बाक़ी है या फ़िर वक्त के थपेड़ों के साथ वे एक-दूसरे को भूल अपने जीवन में अलग रास्ता अख्तियार कर चुके हैं। 
इस उपन्यास में कहीं UPSC की तैयारी में कोई कसर बाक़ी न रखने के बावजूद भी सफ़लता न मिलने पर कहीं हताशा उत्पन्न होती दिखाई देती है तो कहीं सहज तरीके से एक-दूसरे को समझने और संभालने का प्रयास होता नज़र आता है। फ्लैशबैक के आधार पर बढ़ती हुई इस कहानी में कहीं आपसी कम्युनिकेशन ना हो पाने की वजह से ग़लतफ़हमी उत्पन्न होती नज़र आती है। तो कहीं अपने दुःख को किसी के साथ बाँटने के बजाय नायिका अंदर ही अंदर घुटती दिखाई देती है।
कहीं धर्मवीर भारती जी की कालजयी रचना 'गुनाहों का देवता' का जिक्र होता नज़र आता है तो कहीं प्रसिद्ध उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' की कोई पंक्ति मौजूदा परिस्थितियों के अनुसार कोट की जाती दिखाई पड़ती है। तो कहीं 12th फेल और डार्क हॉर्स जैसे उपन्यासों के ज़रिए निरंतर संघर्ष करते रहने की प्रक्रिया पर बल दिया जाता दिखाई देता है। कहीं बचत के पैसों के ज़रिए किताबें खरीदने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं निजी लायब्रेरी में सही एवं सुचारू ढंग से किताबों को ऑर्गेनाइज़ करने का तरीका बताया जाता दिखाई देता है। 
कहीं 'नदिया के पार' फ़िल्म के केशव प्रसाद मौर्य के उपन्यास 'कोहबर की शर्त' पर बेस्ड होने की बात होती नज़र आती है तो कहीं विवाह पश्चात पति-पत्नी द्वारा बराबर की ज़िम्मेदारी निभाए जाने की बात होती नज़र आती है। कहीं खाने की कद्र करने को लेकर भोजन की महत्ता का जिक्र होता नज़र आता है तो कहीं बिना किसी ताम झाम या दिखावे के विवाह करने की बात होती दिखाई देती है। 
इसी उपन्यास में कहीं प्यार भरी चुहल से तो कहीं मीठी शरारतों से पाठक रु-ब-रु होते दिखाई देते हैं।
कहीं स्त्रियों द्वारा शॉपिंग इत्यादि में ज़्यादा समय लगाए जाने की बात को हल्के-फुल्के अंदाज़ में कहा जाता दिखाई देता है तो कहीं लड़कों को भी घर के काम आने चाहिए, की बात पर बल दिया जाता दिखाई देता है। कहीं स्त्रियों की शिक्षा एवं उनके स्वावलंबी होने की आवश्यकता पर बल दिया जाता दिखाई देता है तो कहीं बच्चों में थोड़ा डर बना कर रखने की बात होती दिखाई पड़ती है।
■ उपन्यास को पढ़ते वक्त मुझे इसमें 'कौन बनेगा करोड़पति' वाले दृश्य के साथ-साथ ईशाना और सागर के विवाह का प्रसंग भी कुछ ज़्यादा लंबा और जबरन खिंचा हुआ लगा। जिन्हें संक्षिप्त किया जाता तो बेहतर होता। साथ ही इस उपन्यास में तथ्यात्मक ग़लती के रूप में मुझे  पेज नम्बर 12 में लिखा दिखाई दिया कि..
'समस्या यह है कि कार्यक्रम की सारी टिकट बिक चुकी हैं। अब बस एक ही सीट बची है आखिरी पंक्ति की वही आखिरी सीट जो आप हमेशा रिजर्व करवा कर रखती हैं।'
कहानी के हिसाब से यहाँ कहानी की नायिका की किताब के विमोचन के कार्यक्रम की टिकटों के बिकने की बात हो रही है। जबकि असल में ऐसा होता नहीं है। किताबों के विमोचन इत्यादि में तो श्रोताओं को आग्रह अथवा निवेदन करके विनम्रतापूर्वक बुलाना पड़ता है। 
इसके बाद पेज नंबर 95-96 में लिखा दिखाई दिया कि..
'शानदार गाड़ी में बैठकर हम शानदार होटल में पहुँचे। पहली बार इस होटल में मैंने ऑटोमेटिक दरवाजा भी देखा और फिर होटल के उस कमरे में मैंने पहली बार इतना छोटा फ्रिज भी देखा जिसमें सिर्फ पानी की बोतलें रखी हुई थीं'
यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि बड़े होटलों के कमरे में जो फ्रिज रखे हुए होते हैं, उनमें पानी की नहीं बल्कि कोल्डड्रिंक और बीयर इत्यादि रखी हुई होती हैं। जिन्हें इस्तेमाल करने पर उनकी कीमत अलग से चुकानी पड़ती है। पानी की कॉम्प्लीमेंट्री दो बोतलें तो अलग से दी जाती हैं। 
■ बेहद सावधानी के साथ की गई इस किताब की प्रूफरीडिंग के बावजूद मुझे दो-चार जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त कुछ प्रिंटिंग मिस्टेक्स दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 38 में लिखा दिखाई दिया कि..
'वी भी बिल्कुल तरोताजा होकर, नींद भरी हुई आँखों से नहीं'
यहाँ 'वी भी बिल्कुल तरोताजा होकर' की जगह 'वो भी बिल्कुल तरोताजा होकर' आएगा। 
◆ पेज नंबर 49 में लिखा दिखाई दिया कि..
'यह केक-वेक काटना पता नहीं क्यों, से यह अजीब लगता है मुझे'
यहाँ 'यह केक-वेक काटना पता नहीं क्यों, से यह अजीब लगता है मुझे' की जगह 'यह केक-वेक काटना पता नहीं क्यों, शुरू से ही अजीब लगता है मुझे' आना चाहिए।
◆ पेज नंबर 58 में लिखा दिखाई दिया कि..
'ऐसी मान्यता थी कि इस मंदिर में जो शिवलिंग विराजमान है वह धरती के अंदर से प्रकट हुअ था'
यहाँ 'वह धरती के अंदर से प्रकट हुअ था' की जगह 'वह धरती के अंदर से प्रकट हुआ था' आएगा। 
◆ पेज नंबर 75 में लिखा दिखाई दिया कि..
'अब तो न उसे गाहे-बगाहे छत पर मिलने वाली सागर की झलक का सहारा था, न जब चाहे तब उसे फोन कर लेने का और ना ही साहस करके कुछ मिनट में सागर के घर ही चले जाने का आसरा था अब'
इस वाक्य के शुरू और अंत में 'अब' शब्द आया है जबकि बाद वाले 'अब' शब्द की यहाँ ज़रूरत ही नहीं है।
◆ पेज नंबर 186 में लिखा दिखाई दिया कि..
'सागर ने नीलू से कहा तब उसनं ईशाना के का हाथ उसके हाथ में देते हुए कहा'
यहाँ 'उसनं ईशाना के का हाथ उसके हाथ में देते हुए कहा' की जगह 'उसने ईशाना के का हाथ उसके हाथ में देते हुए कहा' आएगा।
◆ पेज नंबर 126 में लिखा दिखाई दिया कि..
'हाँ तो मैंने कोई चोरी थोड़े ही की है जो सबसे छिपता फिरूँ'
दृश्य के हिसाब से यहाँ 'छिपता फिरूँ' की जगह अगर 'छिपाता फिरूँ' आए तो बेहतर। 
◆ पेज नंबर 166 में लिखा दिखाई दिया कि..
'हो सकता है कि अब तक शायद तुम्हारा गुस्सा शांत हो गया होगा और तुम मेरे घर मेरे बारे में पता करने गई होगी, लेकिन जब माँ ने कहा कि तुम नहीं आईं तब मुझे बहुत धक्का पहुँचा'
कहानी में चल रही परिस्थिति के हिसाब से मुझे यह वाक्य सही नहीं लगा। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए था कि..
'हो सकता था कि तब तक शायद तुम्हारा गुस्सा शांत हो गया होता और तुम मेरे घर मेरे बारे में पता करने गई होती, लेकिन जब माँ ने कहा कि तुम नहीं आईं तब मुझे बहुत धक्का पहुँचा'
◆ पेज नंबर 170 में लिखा दिखाई दिया कि..
'वो दोनों खामोश से बस एक-दूसरे के एहसास को महसूस कर रहे थे'
यहाँ 'वो दोनों खामोश से बस एक-दूसरे के एहसास को महसूस कर रहे थे' की जगह अगर 'वो दोनों खामोशी से बस एक-दूसरे के एहसास को महसूस कर रहे थे' आए तो बेहतर। 
अंत में चलते-चलते एक और बात कि पेज नंबर 52 में मुझे लिखा दिखाई दिया कि..
'ईशाना ने सागर से उसके हँसने का कारण पूछा तो उसने अपनी उँगली से उसके होठों के पास लगा हुआ चीज हटाकर उसे दिखा दिया'
यहाँ 'चीज हटाकर उसे दिखा दिया' की जगह 'चीज़ हटाकर उसे दिखा दिया' आना चाहिए क्योंकि 'चीज/चीज़' का भारतीय भाषा में प्रयोग किसी वस्तु के लिए किया जाता है जबकि यहाँ बात अँग्रेज़ी वाले cheese (एक तरह का पनीर) की हो रही है। अतः इसे स्पष्ट किया जाता तो बेहतर होता। 
• पराठे - परांठे
• चीज - चीज़ (Cheese) 
• कुनकुनी दोपहर - गुनगुनी दोपहर
• बरात - बारात 
यूँ तो पठनीय सामग्री से लैस यह रोचक उपन्यास मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहारस्वरूप प्राप्त हुआ मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 245 पृष्ठीय इस उम्दा उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है सुरभि प्रकाशन (किताबघर प्रकाशन समूह का उपक्रम) ने और इसका मूल्य रखा है 400/- रुपए जो कि मुझे क्वालिटी, कंटैंट तथा हिंदी पाठकों की जेब के हिसाब से ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

मुंबई नाइट्स - संजीव पालीवाल

थ्रिलर, मिस्ट्री और क्राइम बेस्ड फ़िल्मों, कहानियों एवं उपन्यासों का मैं शुरू से ही दीवाना रहा। एक तरफ़ ज्वैल थीफ़, गुमनाम, विक्टोरिया नम्बर 203 या फ़िर ऑक्टोपुसी जैसी देसी एवं विदेशी फ़िल्मों ने मन को लुभाया तो दूसरी तरफ़ वेद प्रकाश शर्मा के थ्रिलर उपन्यासों के रोमांच ने मुझे कहीं किसी और दिशा में फटकने न दिया। 


बरसों बाद जब फ़िर से पढ़ना शुरू हुआ तो थ्रिलर उपन्यासों के बेताज बादशाह सुरेन्द्र मोहन पाठक की लेखनी ने इस हद तक मोहित किया कि मैं पिछले लगभग 4 सालों में उनके लिखे 225 से

ज़्यादा उपन्यास पढ़ चुका हूँ और निरंतर उनका लिखा बिना किसी नागे के पढ़ रहा हूँ। 


दोस्तों... आज थ्रिलर फ़िल्मों और कहानियों की बातें इसलिए कि आज मैं यहाँ इसी तरह के विषय से संबंधित एक ऐसे उपन्यास का जिक्र करने जा रहा हूँ, 

जिसे 'मुंबई नाइट्स' के नाम से लिखा है संजीव पालीवाल ने। संजीव पालीवाल अब तक तीन हिट उपन्यास लिख चुके हैं। जिनमें से पहले दो उपन्यास थ्रिलर बेस्ड और एक उपन्यास प्रेम कहानी के रूप में है। 


मुंबई फ़िल्मनगरी की रंगीन दुनिया के काले सच को उजागर करती इस तेज़ रफ़्तार कहानी में एक तरफ़ बड़े फ़िल्म स्टार रोहित शंकर सिंह द्वारा ख़ुदकुशी किए जाने के केस की जाँच को लेकर कॉलेज में पढ़ने वाली एक ग़रीब मगर खूबसूरत लड़की दिल्ली के अय्याश तबियत जासूस विशाल सारस्वत की सेवाएँ हायर करती है। तो दूसरी तरफ़ शक के घेरे में आयी रोहित की प्रेमिका अनामिका त्रिपाठी भी इसी केस की निष्पक्ष जाँच के लिए, कभी विशाल सारस्वत की माशूका रह चुकी, मुंबई की जासूस अमीना शेख़ को नियुक्त करती है। 


आपसी मतभेदों के बावजूद ये दोनों इस केस पर एकसाथ काम करने के लिए तैयार होते हैं और संयुक्त रूप से की गई इनकी जाँच के दौरान शक के छींटे जब फ़िल्म एवं राजनीति से जुड़ी कुछ ताकतवर हस्तियों पर पड़ते हैं तो एक के बाद एक सिलसिलेवार हत्याएँ एवं जानलेवा हमले होते चले जाते हैं। अब देखना यह है कि हत्याओं के इस जानलेवा सिलसिले के बीच अंततः वे मुजरिम को उसके अंजाम तक पहुँचा पाते हैं या नहीं। 


इस उपन्यास में कहीं कास्टिंग एजेंसीज़ के बाहर रोज़ाना फिल्मों में नाम कमाने के इच्छुक सैंकड़ों लड़के-लड़कियों की लाइन लगने की बात होती नज़र आती है तो कहीं कास्टिंग डायरेक्टर को पटा फिल्में हथियाने की कवायद में खूबसूरत लड़कियाँ मोहरा बन यहाँ-वहाँ दिखाई देती हैं। कहीं हीरोइन बनने की चाह में मुंबई में आई खूबसूरत नवयुवतियां काम न मिलने पर स्वेच्छा अथवा मजबूरी में अपनी देह बेचती दिखाई पड़ती हैं।


इसी उपन्यास में कहीं एशिया की सबसे बड़ी स्लम बस्ती 'धारावी' के निर्माण के बारे में पता चलता है कि 1895 में पहले पहल अँग्रेज़ सरकार द्वारा ये ज़मीन चमड़े का काम करने वाले मुस्लिम और नीची जाति के लोगों को 99 साल की लीज़ पर दी गयी थी। 


इसी उपन्यास में कहीं किसी ग़रीब को धोखे में रख उसके नाम पर ऐसा गैरकानूनी धंधा चलता दिखाई देता है जिसके बारे में उसे रत्ती भर भी पता नहीं होता है। तो कहीं नारियल के पेड़ लगाने के नाम पर हासिल की गई सस्ती ज़मीन पर सरकारी मिलीभगत एवं राजनैतिक हस्तक्षेप के ज़रिए करोड़ों की कीमत वाला आलीशान नाइट क्लब चलता दिखाई देता है। कहीं लेखक अपने किरदारों के ज़रिए फिलॉसफ़िकल चिंतन करते नज़र आते हैं तो कहीं ऑर्गी सैक्स (सामूहिक सैक्स) जैसी विकृत मानसिकता से अपने पाठकों को रु-ब-रु करवाते दिखाई पड़ते हैं।


कहीं इस क्राइम थ्रिलर में राजनीति का पदार्पण होता नज़र आता है तो कहीं राजनीति और पुलिस के गठजोड़ का घिनौना चेहरा उजागर होता दिखाई देता है। कहीं पुत्रमोह में पड़ कर राज्य की गृहमंत्री अपने अय्याश बेटे के काले कारनामों पर अपनी आँखें मूँदती हुई नज़र आती है तो कहीं गठबंधन की राजनीति में होने वाली दिक्कतों की बात होती दिखाई देती है। 


कहीं फर्ज़ी एनकाउंटर के केस में सज़ा से बचने के लिए कोई बड़ा अफ़सर गृहमंत्री और उसके बेटे की जी-हजूरी भरी चाकरी करता दिखाई पड़ता है। तो कहीं तफ़्तीश के नाम पर स्वयं पुलिसवाले ही सबूत नष्ट, ग़ायब अथवा फर्ज़ी सबूत गढ़ते दृष्टिगोचर होते हैं। कहीं बड़े ब्यूरोक्रेट्स से लेकर नेता, सांसद और धनाढ्य वर्ग के तथाकथित नामी गिरामी शरीफ़ लोग अपनी अय्याशियों के लिए मुंबई नाइट्स जैसी आलीशान और भव्य जगह का धड़ल्ले से बेहिचक इस्तेमाल करते दिखाई देते हैं। तो कहीं हिडन एवं स्पाई कैमरे के ज़रिए ब्लैकमेल का खेल जाता नज़र आता है। 


■ पेज नंबर 149 में लिखा दिखाई दिया कि..


'इसकी वजह शायद यह भी थी कि विशाल भी वैसे हालातों से दो चार हो चुका था' 


इसके बाद पेज नंबर 151 में लिखा दिखाई दिया कि..


'इन हालातों में पुलिस को चिंता हुई बेटे की'


और आगे बढ़ने पर पेज नंबर 156 में लिखा दिखाई दिया कि..


'जब अदालत उसे पिछले केस में असली नाम पर सजा ना सुन सकी, तो कुणाल वाधवा का अब के हालातों में जहां सबूत भी हमारे पक्ष में नहीं हैं, क्या कर सकती है' 


यहाँ यह बात ग़ौरतलब है कि इन तीनों उदाहरणों में एक कॉमन शब्द 'हालातों' का इस्तेमाल किया गया है जबकि असलियत में ऐसा कोई शब्द होता ही नहीं है। 'हालत' शब्द का बहुवचन 'हालात' शब्द होता है। इसलिए इन तीनों जगहों पर 'हालातों' की जगह 'हालात' आना चाहिए।


■ धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस रोचक उपन्यास में पढ़ते वक्त कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की कमियाँ एवं वर्तनी की त्रुटियाँ भी देखने को मिलीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 16 में लिखा दिखाई दिया कि..


'मुझे यही जानना है कि किस हालात में उसने यह फैसला किया'


यहाँ 'किस हालात में' की जगह 'किन हालात में' आना चाहिए।


पेज नंबर 20 में लिखा दिखाई दिया कि..


'मेरे आने के बाद एक हफ्ते में आखिर ऐसा क्या हुआ जो वह फांसी के फंदे पर झूल गया'


कहानी के हिसाब से यहाँ 'मेरे आने के बाद एक हफ्ते में' की जगह 'मेरे जाने के बाद एक हफ्ते में' आना चाहिए।


पेज नंबर 62 में लिखा दिखाई दिया कि..


'अमीना ने रुख किया आराम नगर का। वर्सोवा का आराम नगर एक ऐसा इलाका जहां गली-गली में एक्टर रहते हैं। यहां हर रोज कास्टिंग एजेंसी के बाहर लाइन लगी रहती है। यहां दिन भर एक्टर बनने की ख्वाहिश लिए लड़के और लड़कियां एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे पर सिर्फ यह जानने के लिए भटकते रहते हैं कि वहां ऑडिशन हो रहा है क्या।'


इससे अगले पेज यानी कि पेज नंबर 63 पर लिखा दिखाई दिया कि..


'आराम नगर की गलियों में सिल्वर कास्टिंग एजेंसी का ऑफिस खोजने में ज्यादा देर नहीं लगी। पिछले 10 सालों में यहां कास्टिंग एजेंसियों की संख्या काफी बढ़ गई है'


इन दो पैराग्राफ़स को पढ़ कर पता चलता है कि वर्सोवा के आराम नगर इलाके में कास्टिंग एजेंसियों के काफ़ी दफ़्तर खुले हुए हैं जबकि पहले पैराग्राफ के शुरू में बताया गया है कि वर्सोवा के आराम नगर इलाके की गली-गली में एक्टर रहते हैं। कायदे से यहाँ एक्टरों के रहने की बजाय कास्टिंग एजेंसियों के दफ़्तरों के होने की ही बात आनी चाहिए थी।


पेज नंबर 81 में दिखा दिखाई दिया कि..


'कहां से चले थे कहा आ गये'


यहाँ 'कहा आ गये' की जगह 'कहां आ गये' आएगा। 


पेज नंबर 83 में लिखा दिखाई दिया कि..


'विशाल ने देखा कि कुणाल वाधवा एक कोने कुछ लोगों के साथ खड़ा है'


यहाँ 'एक कोने कुछ लोगों के साथ खड़ा है' की जगह 'एक कोने में कुछ लोगों के साथ खड़ा है' आएगा। 


पेज नंबर 94 में लिखा दिखाई दिया कि..


'लेकिन मनीष मेहरा तो पिछले वीकेंड तो वह नहीं गया था'


यहाँ 'मनीष मेहरा तो पिछले वीकेंड तो वह नहीं गया था' की जगह 'मनीष मेहरा तो पिछले वीकेंड में नहीं गया था' आएगा। 


पेज नंबर 115 में लिखा दिखाई दिया कि..


'वह यह जानते हैं कि तुम्हारा और रोहित शेखर का झगड़ा हुआ था'


यहाँ पहले शब्द 'वह' के ज़रिए विशाल और अमीना की बात हो रही है जो कि एक नहीं बल्कि दो अलग-अलग शख़्सियत हैं। इसलिए यहाँ उनके लिए 'वह' शब्द का नहीं बल्कि 'वे' शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..


'वे यह जानते हैं कि तुम्हारा और रोहित शेखर का झगड़ा हुआ था'


पेज नंबर 126 में लिखा दिखाई दिया कि..


'लड़की देखने में एकदम बच्ची जैसी ही होगा'


यहाँ 'बच्ची जैसी ही होगा' की जगह 'बच्ची जैसी ही होगी' आएगा। 


पेज नंबर 149 में लिखा दिखाई दिया कि..


'सेना में रहने के दौरान अपने भी तो कई ऑपरेशन में भाग लिया होगा'


यहाँ 'कई ऑपरेशन में भाग लिया होगा' की जगह 'कई ऑपरेशनों में भाग लिया होगा' आएगा।


इसी पेज पर और आगे दिखा दिखाई दिया कि..


'हर हत्या अपना दाग छोड़ती है, और थोड़ा सा जीवन अपने साथ ले जाती है। भले ही जिसकी हत्या हुई है वह शख्स क्यों ना आपकी ही जान लेने की कोशिश में आत्मरक्षा में मारा गया हो'


इन वाक्यों में दूसरा वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य कुछ इस तरह का होना चाहिए कि..


'भले ही आपकी जान लेने की कोशिश करने वाला कोई शख़्स आपके द्वारा किए गए अपनी आत्मरक्षा के प्रयासों के तहत स्वयं मारा गया हो'


पेज नंबर 155 में लिखा दिखाई दिया कि..


'अमीना ने सिर से अपने हाथ हटाया'


यहाँ 'अमीना ने सिर से अपने हाथ हटाया' की जगह 


'अमीना ने अपने सिर से हाथ हटाया' या फ़िर 'अमीना ने सिर से अपना हाथ हटाया' आए तो बेहतर। 


पेज नंबर 170 में लिखा दिखाई दिया कि..


'विशाल ने आगे बढ़कर देखा तो वहा एक छोटा सा कमरा बना हुआ है'


यहाँ 'वहा' की जगह 'वहां' आएगा। 


पेज नंबर 186 में लिखा दिखाई दिया कि..


'ये लिस्ट है उन सारे एंडोर्समेंट की यानी विज्ञापन की जो रोहित शेखर सिंह ने किए हैं'


यहाँ चूंकि विज्ञापन एक से ज़्यादा हैं, इसलिए यहाँ 'एंडोर्समेंट' की जगह 'एंडोर्समेंट्स' और 'विज्ञापन' की जगह 'विज्ञापनों' आएगा। 


पेज नंबर 190 में लिखा दिखाई दिया कि..


'एक बार भी उसे ये पता नहीं चला की अपहरण करने वाले क्या चाहते हैं' 


यहाँ 'पता नहीं चला की' में 'की' शब्द की जगह 'कि'

आएगा। 


पेज नंबर 194 में लिखा दिखाई दिया कि..


'कई फैसले ऐसे होते हैं जिसके नतीजे में हम दुनिया का संवारना और बिखरना एक साथ देखते हैं'


यहाँ चूंकि एक से अधिक फ़ैसलों की बात हो रही है, उसलिए यहाँ 'जिसके नतीजे में हम दुनिया का संवारना और बिखरना एक साथ देखते हैं' की जगह 'जिनके नतीजे में हम दुनिया का संवारना और बिखरना एक साथ देखते हैं' आएगा। 


• बामारी - बीमारी

• जनम - जन्म 

• सक्रिप्ट - स्क्रिप्ट

• प्राइवेसी ब्रिच - प्राइवेसी ब्रीच

• कहा - कहाँ

• नीचि - नीची

• कव्वालिटी - क्वालिटी

• मारजिन - मार्जिन

• पहुंतने - पहुँचने/पहुंचने

• तव्वजुह - तवज्जो 

• आई एस सॉरी - आई एम सॉरी 

• लिखायी - लिखाई 

• वहा - वहाँ/वहां

• बहशीपन - वहशीपन

• बैगर - बग़ैर



बढ़िया क्वालिटी में छपे इस 200 पृष्ठीय तेज़ रफ़्तार रोचक उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है सर्व भाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली ने और इसका मूल्य रखा गया है 299/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

काग़ज़ के फूल - संजीव गंगवार

ज़िंदा रहा तो मिली गालियाँ
मरने के बाद मिली  तालियाँ

दोस्तों... जाने क्या सोचकर यह टू लाइनर आज से कुछ वर्ष पहले ऐसे ही किसी धुन में लिख दिया था मगर अब अचानक यह मेरे सामने इस रूप में फ़िर सामने आ जाएगा, कभी सोचा नहीं था। तब भी शायद यही बात ज़ेहन में थी कि बहुत से लोगों के काम को उनके जीते जी वह इज़्ज़त..वह मुकाम..वह हक़ नहीं मिल पाता, जिसके वे असलियत में हक़दार होते हैं। मगर उनके इस दुनिया से रुखसत हो जाने बाद लोगों की चेतना कुछ इस तरह जागृत होती है कि उन्हें उनकी..उनके काम की अहमियत और कीमत का एहसास हुए बिना नहीं रह पाता। ऐसा किसी लेखक, कवि , चित्रकार, नग़मा निगार या किसी फ़िल्मकार के साथ भी हो सकता है। विज्ञान अथवा राजनीतिशास्त्र के लोग भी इस सबसे अछूते नहीं रह पाए हैं। 

साहित्य के क्षेत्र की अगर बात करें तो मेरे ख्याल से प्रेमचंद जी से बड़ा इसका कोई उदाहरण नहीं हो सकता। जिनका पूरा जीवन मुफ़लिसी और फ़ाका कशी में बीता लेकिन उनके जाने के बाद उनकी किस्मत ने कुछ ऐसा पलटा खाया कि अब हिंदी साहित्य के क्षेत्र में उनका नाम एवं काम एक मिसाल बन चुका है। इसी तरह के कुछ अन्य उदाहरण विश्व साहित्य तथा फ़िल्मों के क्षेत्र में भी मिल जाएँगे।

 बॉलीवुड की अगर बात करें तो यहाँ भी प्रसिद्ध एक्टर, प्रोड्यूसर, डायरेक्टर राजकपूर तथा गुरुदत्त के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। राजकपूर की फ़िल्म 'मेरा नाम जोकर' और गुरुदत्त की फ़िल्म 'कागज़ के फूल' ऐसी ही फ़िल्मों के उदाहरण हैं। दोनों की दोनों फिल्में अपनी रिलीज़ के वक्त डिज़ास्टर साबित हो बहुत बड़ी फ़्लॉप साबित हुईं मगर इन्हीं फिल्मों ने बाद में ऐसा नाम कमाया कि हर तरफ़ इन्हीं की धूम मच गई।बॉक्सऑफिस पर 10-12 दिन भी न चलने वाली 'कागज़ के फूल' को आज संसार के लगभग 12 विश्वविद्यालयों में कोर्स के रूप में पढ़ाया जा रहा है।


दोस्तों... आज मैं गुरुदत्त के जीवन और उनकी फिल्मों से जुड़ी जिस शोधपत्र रूपी किताब की मैं यहाँ बात करने जा रहा हूँ, उसे 'काग़ज़ के फूल' के नाम से लिखा है लेखक संजीव गंगवार ने। गुरुदत्त के आरंभिक जीवन से लेकर उनकी मृत्यु तक के सफ़र को कवर करती इस किताब में जहाँ एक तरफ़ उनके तंगहाली भरे बचपन और अभिनय, नृत्य एवं संगीत से उनके लगाव की बातें हैं तो दूसरी तरफ़ इसी किताब में सिनेमा के प्रति उनकी लगन... ज़ुनून एवं पैशन की बातें हैं। 

इसी किताब में जहाँ एक तरफ़ गीतादत्त से उनके प्रेम..विवाह और बिछोह से जुड़ी बातों पर लेखक प्रकाश डालते नज़र आते हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ वे वहीदा रहमान से अकस्मात हुई उनकी मुलाक़ात के बाद उसके स्टार बनने की कहानी कहते दिखाई देते हैं। इसी किताब में कहीं वे गीतादत्त और वहीदा के बीच सैंडविच बने गुरुदत्त की मनोस्थिति पर मनन एवं चिंतन करते दिखाई पड़ते हैं तो कहीं वे प्यासा फ़िल्म के लिए दिलीप कुमार के हाँ करने के बावजूद भी शूटिंग पर ना आने और गुरुदत्त के मजबूरी में स्वयं नायक बनने की कहानी कहते नज़र आते हैं। 

कहीं वे गुरुदत्त की फिल्मों के सूक्ष्म निरीक्षण के बहाने उनकी कहानियों एवं एक-एक करके सभी दृश्यों की विभिन्न आयामों एवं नज़रिए से गहन पड़ताल करते नज़र आते हैं। तो कहीं वे उनकी फिल्मों में व्याप्त भ्रष्टाचार समेत अनेक मुद्दों पर पूरे समाज को ही कठघरे में खड़े करते दिखाई देते हैं। कहीं वे इस किताब के बहाने स्त्रियों के हक़ में अपनी आवाज़ उठाते दिखाई देते हैं तो बहुत सी जगहों पर वे उनकी फिल्मों में उठाए गए मुद्दों को विस्तार दे पाठकों पर अपनी सोच..अपना एजेंडा थोपते हुए से भी दिखाई देते हैं। 

कई बार लेखक/निर्देशक किसी वाकये या दृश्य को अपनी समझ के अनुसार लिख/फिल्मा तो लेता है मगर पढ़ने/देखने वाले उन्हीं दृश्यों या वाक्यों में से कुछ ऐसा खोज लेते हैं जिसके बारे में स्वयं लेखक/निर्देशक ने भी नहीं सोचा होता है। इन्हीं अनचीन्ही..अनछुई बातों से रु-ब-रु करवाती इस ज़रूरी किताब में पाठकों को बहुत कुछ ऐसा मिल जाता है जिस पर उन्होंने उस अलहदा नज़रिए से कभी सोचा...समझा एवं चिंतन नहीं किया होता। काग़ज़ के फूल, प्यासा और साहब बीवी गुलाम समेत उनकी सभी फिल्मों की बेहतरीन अंदाज़ में विस्तृत समीक्षा से सजी यह किताब बहुत सी जगहों पर दोहराव की भी शिकार हुई। जिससे बचा जाना चाहिए था। 

■ किस तरह एक छोटी सी चूक या शब्दों के हेरफेर से अर्थ का अनर्थ होने में देर नहीं लगती, इसका उदाहरण भी इस किताब में पेज नंबर 196 में देखने को मिला।

यहाँ लिखा दिखाई दिया कि..

'यह फिर "काग़ज़ के फूल" को तुम्हारा वेस्ट वर्क मान लिया जाये'

पहले बात तो ये कि यहाँ 'यह' की जगह 'या' आना चाहिए और दूसरी सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये कि यह पूरी किताब गुरूदत्त के काम को 'कागज़ के फूल' के ज़रिए महिमामंडित किए जाने के लिए लिखी गयी है लेकिन यहाँ ग़लती से 'कागज़ के फूल' को ही उनका 'वेस्ट वर्क' यानी कि बेकार या वाहियात काम करार दिया जा रहा है। 

यहाँ सही वाक्य के लिए इसमें 'वेस्ट' शब्द की जगह 'बेस्ट/बैस्ट' शब्द का इस्तेमाल किया जाना चाहिए था।

■ तथ्यात्मक ग़लती के रूप में मुझे पेज नंबर 29 में लिखा दिखाई दिया कि..

'और फिर वर्मा शेल कंपनी में क्लर्क की नौकरी की'

यहाँ ग़ौरतलब है कि कंपनी का नाम 'वर्मा शेल कंपनी' नहीं बल्कि 'बर्मा शेल कंपनी' था।


पेज नंबर 80 में लिखा दिखाई दिया कि..

'75000 से एक लाख की मामूली सैलरी वाले प्रशासनिक लोग महज़ कुछ वर्षों में ही करोड़ों की संपत्ति के मालिक हो जाते हैं'

यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ बेरोज़गारी के अपने चरम पर होने की वजह से लोग दस-पंद्रह हज़ार रुपए महीने तक की नौकरी करने तक के लिए भी मारे-मारे फिर रहे हैं मगर उन्हें काम नहीं मिल रहा है। वहीं लेखक को जाने किस हिसाब से 75000/- से लेकर 1 लाख रुपए प्रति महीने तक का मेहनताना मामूली लग रहा है। भले ही वह किसी प्रशासनिक अधिकारी ही क्यों ना हो लेकिन उसे मामूली करार नहीं दिया जा सकता।


इसी तरह पेज नंबर 124 में लिखा दिखाई दिया कि..

'तुम्हारा गरम कोट कहाँ है'

उसके बाद इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'सिन्हा अपना गरम कोट उतार कर शान्ती को दे देते हैं और कहते हैं कि मैंने ब्राण्डी पी रखी है इसलिए मुझे कुछ नहीं होगा'

इसके बाद आगे चलने पर यही गरम कोट जाने कैसे पेज नंबर 149 में एक रेनकोट में तब्दील हो गया।

इस पेज पर लिखा दिखाई दिया कि..

'एक रेनकोट से शुरू होकर एक स्वेटर तक की यात्रा करने वाली कितनी प्रेम कहानियाँ हमने देखी हैं'

इसी पेज के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..

'शान्ती और सिन्हा की यह प्रेम कहानी एक रेनकोट से लेकर एक स्वेटर तक का सफ़र तय करती है'

इसके बाद पेज नंबर 170 में लिखा दिखाई दिया कि..

'अर्थात यह जमींदार खानदान लूट के पैसे का कोई हिसाब-किताब नहीं रखता। बड़ा ही इज्जतदार घराना है और मजे की बात यह कि स्त्रियों की हालत इस इज्जतदार घराने में सोचनीय है'

यहाँ पहली बात तो यह कि यहाँ 'सोचनीय' की जगह 'शोचनीय' आएगा और दूसरी बात के रूप में यहाँ मुझे बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि स्त्रियों की शोचनीय हालत किसी के भी लिए मज़े की बात कैसे हो सकती है?

■ वाक्य विन्यास की दृष्टि से भी इस किताब में कुछ कमियाँ नज़र आईं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 31 में लिखा दिखाई दिया कि..

'गुरुदत्त अपने कैमरे के प्रति मामा बेनीवाल की सख्ती के बाबजूद उनका कैमरा इस्तेमाल कर लेते थे'

यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..

''गुरुदत्त कैमरे के प्रति अपने शौक़ की वजह से मामा बेनीवाल की सख्ती के बावजूद उनका कैमरा इस्तेमाल कर लेते थे'

पेज नंबर 105 में लिखा दिखाई दिया कि..

'माँ अपने बड़ो बेटों के व्यवहार से खुश नहीं थी'

यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..

'माँ अपने बड़े बच्चों (बेटों) के व्यवहार से ख़ुश नहीं थी। 

इस किताब को पढ़ते वक्त इसमें कुछ जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग की भी कमियाँ दृष्टिगोचर हुईं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 13 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसके कपड़े और ओढ़ी हुई साल गीली हो गई थी'

यहाँ 'ओढ़ी हुई साल' की जगह 'ओढ़ी हुई शॉल' आएगा। 

पेज नंबर 24 में लिखा दिखाई दिया कि..

'गुरु ने वहीदा को 'प्यासा' में अभिनय दिया'

यहाँ 'वहीदा को 'प्यासा' में अभिनय दिया' की जगह 'वहीदा को 'प्यासा' में अभिनय का मौका/अवसर दिया' आना चाहिए। 

पेज नंबर 60 में लिखा दिखाई दिया कि..

'यह अलग बात है कि आज भी इस फ़िल्म को ठीक से समझा न गया हो'

यहाँ 'आज भी इस फ़िल्म को ठीक से समझा न गया हो' की जगह 'आज भी इस फ़िल्म को ठीक से समझा नहीं गया है' आना चाहिए।

पेज नंबर 90 के पहले पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..

'यहां तक की उनके घर-परिवार, बच्चे, मित्र और समाज में सभी लोग प्रतिदिन नियम से उनकी आलोचना करते हैं' 

यहाँ 'यहां तक की उनके घर-परिवार' में 'की' की जगह 'कि' आएगा। 

पेज नंबर 107 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसके निहत्थे प्रश्न समाज के प्रभु वर्ग में हलचल पैदा करते हैं'

यहाँ 'प्रभु वर्ग' की जगह 'प्रबुद्ध वर्ग' आएगा। 

इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'जहां उसकी बुत की पूजा हो रही है'

यहाँ 'उसकी बुत की पूजा हो रही है' की जगह 'उसके बुत की पूजा हो रही है' 

या फ़िर यहाँ 'बुत' की जगह 'प्रतिमा' शब्द का इस्तेमाल किया जाता तो यह वाक्य सही रहता। 

पेज नंबर 119 में लिखा दिखाई दिया कि..

'अर्थात रॉकी की भूमिका हास्य उत्पन्न करके फ़िल्म के निराशावाद को कम करना है'

यहाँ 'रॉकी की भूमिका हास्य उत्पन्न करके फ़िल्म के निराशावाद को कम करना है' की जगह 'रॉकी की भूमिका ने/को हास्य उत्पन्न करके फ़िल्म के निराशावाद को कम करना है' आएगा।

पेज नंबर 159 में लिखा दिखाई दिया कि..

'बाकी दुनिया के दिखाबे तो ढकोसले हैं'

यहाँ 'दिखाबे' की जगह 'दिखावे' आएगा। 

इसी तरह की एक कमी पेज नंबर 160 में भी छपी दिखाई  कि..

'अब सिन्हा साहब के इस वक्तव्य का जबाब शान्ती देवी क्या देती हैं'

यहाँ 'शान्ती' की जगह 'शांति' और 'जबाब' की जगह 'जवाब' आएगा। 

पेज नंबर 172 में लिखा दिखाई दिया कि..

'पुरुष पुरुष प्रधान वर्चस्व का समाज' 

इस वाक्य में 'पुरुष' शब्द ग़लती से दो बार छप गया है।

पेज नंबर 177 के अंतिम पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..

'छोटी बहू के मुंह में जबरन शराब की बोतल उड़ते हैं'

यहाँ 'मुंह में जबरन शराब की बोतल उड़ते हैं' की जगह 'मुँह में जबरन शराब की बोतल उड़ेलते हैं' आएगा। 

पेज नंबर 180 में लिखा हुआ दिखाई दिया कि..

'लेकिन छीनी गई संपत्ति की यही नियत होती है जैसा कि फ़िल्म में दिखाया गया है'

यहाँ 'लेकिन छीनी गई संपत्ति की यही नियत होती है' की जगह 'लेकिन छीनी गई संपत्ति की यही नियति होती है' आएगा।

पेज नंबर 183 के शुरू में लिखा दिखाई दिया कि..

'आज सभी राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय संदर्भों में भी उतना ही प्रासंगिक है जितना की फ़िल्म में'

यहाँ 'जितना की फ़िल्म में' में 'की' की जगह 'कि' आएगा। 

पेज नंबर 194 की पहली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'दुनिया का कोई भी बड़ा सेफ़ कोई स्त्री नहीं है'

यहाँ 'सेफ़' की जगह 'शेफ़' आएगा। 

पेज नंबर 196 में दिखा दिखाई दिया कि..

'जबकि सुरेश सिन्हा को ट्रेजडी सामाजिक ट्रेजडी थी जिसे तुमने कितने यत्न से गढ़ा था' 

यहाँ 'सुरेश सिन्हा को ट्रेजडी' की जगह 'सुरेश सिन्हा की ट्रेजडी' आएगा। 

पेज नंबर 199 में लिखा दिखाई दिया कि..

'ट्रिंग-ट्रिंग की आवाज़ उसे मीरव वातावरण को कोलाहल से भर रही थी'

यहाँ 'मीरव वातावरण को कोलाहल से भर रही थी' की जगह 'नीरव वातावरण को कोलाहल से भर रही थी' आएगा।

• फ़्लॉफ - फ़्लॉप
• ओढ़ी हुई साल - ओढ़ी हुई शॉल
• शाप - श्राप 
• बेबड़ा - बेवड़ा
• शान्ती - शांति
• बाबजूद - बावजूद
• खीचँता - खींचता
• अंशका - आशंका
• जुआँ - जुआ
• आत्यन्तिक - अत्याधिक
• व्यंग - व्यंग्य
• हूनर - हुनर 
• प्रभु वर्ग - प्रबुद्ध वर्ग
• आसूँ - आँसू
• ऊचाइयों - ऊँचाइयों
• शिगार - सिगार
• सोचनीय - शोचनीय 
• अबरार अल्बी - अबरार अल्वी 
• पर्तें - परतें 
• दिखाबे - दिखावे
• जबाब - जवाब 
• सड़ाँद - सड़ांध
• खुद व खुद - खुद-ब-खुद
• सेफ़ - शेफ़ (शेफ़)- [रसोइया] 
• गाडियाँ - गाड़ियाँ
• मीरव - नीरव 
• जागिंग - जॉगिंग

महत्त्वपूर्ण विषय पर गहन शोध के साथ को लिखी गयी इस ज़रूरी किताब के 200 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है बोधरस प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 349/- रुपए। किताब की बढ़िया क्वालिटी होने के बावजूद भी मुझे इसके दाम थोड़े ज़्यादा लगे। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को
बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

कथाओं का आँगन - पूजा मणि

आप सबने ये पुरानी कहावत सुनी तो होगी ही कि..'सहज पके सो मीठा होय' अर्थात किसी भी चीज़ को परिपक्व होने अर्थात पकने के लिए पर्याप्त समय की ज़रूरत होती है। मगर आजकल के ज़माने में सब्र कहाँ। जल्दबाज़ी के चक्कर में जहाँ एक तरफ़ कैमिकल के प्रयोग से फल कभी ज़्यादा पक कर गल जाता है तो कभी बाहर से पका और भीतर से कच्चा या फ़ीका रह जाता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस जल्दी से जल्दी और ज़्यादा से ज़्यादा पा लेने की  भेड़चाल से हमारा साहित्यजगत भी अछूता नहीं रह पाया है। इस हफ़ड़ा-धफड़ी (आपाधापी) के आलम में सबको इतनी जल्दी होती है कि उनके पास वर्तनी की त्रुटियों को सुधारने के साथ-साथ अपने खुद के लिखे की ही सही से प्रूफ़रीडिंग करने या कराने तक का भी समय नहीं होता कि जब तक इन्हें सुधरेंगे तब तक तो हम एक किताब और लिख मारेंगे। ख़ैर.. इस बारे में और बातें फ़िर कभी। 
अब बात करते हैं एक नयी किताब की तो जैसा कि आप सबने देखा, सुना एवं महसूस किया होगा कि आमतौर पर किस्से-कहानियों का जन्म हमारे आसपास के माहौल से प्रेरित होकर ही होता है। 
कई बार इनके गवाह हम ख़ुद होते हैं तो कई बार इधर-उधर से कुछ किस्से गुफ़्तगू करने के लिए हमारे कानों में कभी चुपचाप तो कभी शोर मचाते हुए आ धमकते हैं। उन्हीं किस्सों में से कुछ किस्सों को अपने आँगन में इस बार सजाया है पूजा मणि ने अपनी कहानियों की किताब 'कथाओं का आँगन' में। जिससे रूबरू होने का मुझे मौका मिला।
दोस्तों..इस संकलन की किसी कहानी में जहाँ एक तरफ़ मामूली नोकझोंक के बाद प्रेमी-प्रेमिका बने आर्यन और गहना जब अपने हनीमून पर आगरा जाते हैं तो ताजमहल भ्रमण के दौरान कुछ ऐसा घटना है कि आगरा के हर अख़बार में गहना की तस्वीर छपी नज़र आने लगती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी मृत्युशैया पर पड़ी उस सुगना अम्मा की व्यथा व्यक्त करती दिखाई देती है, जिसका कम उम्र में ही दो जवान बच्चों के पिता से ब्याह कर दिया गया। अपने स्वयं के तीन बच्चों और दो सौतेले बेटों के होने के बावजूद भी उसके अंत समय में उनमें से कोई भी उसके साथ नहीं था।
इसी संकलन की एक अन्य कहानी में अपनी माँ की मृत्यु के बाद अकेली रह गई ध्रुवी, ईर्ष्यावश अपने पिता की दूसरी पत्नी, सुमन को कभी दिल से अपना नहीं पाती मगर शादी के पाँच वर्षों बाद कुछ ऐसा घटता है कि..
इसी संकलन की एक कहानी में जहाँ एक तरफ़ प्रकृति और जंगल से प्रेम करने वाली अपनी बचपन की मित्र गौरैया से विवाह कर चुका अरण्य, वकालत की पढ़ाई करने के लिए शहर जाने के बाद, उसे भूल वहीं एक अन्य लड़की शरण्या से शादी कर लेता है मगर फ़िर कुछ ऐसा घटता है कि उसे लौट कर वापिस अपने गाँव, गौरैया के पास आना पड़ता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में नरेश जी असमंजस में हैं कि क्या उन्होंने अपने दोस्त कपिल को मुसीबत में देख, उसकी प्यार में धोखा खा, किसी और से गर्भवती हो चुकी बेटी, भूमि का विवाह अपने बेटे अंबर से करने का निर्णय लेकर सही किया अथवा ग़लत।
इसी संकलन की अन्य कहानी के माध्यम से लेखिका, जहाँ अपनी ज़मीन में मोबाइल टॉवर लगवा कर मोटी कमाई का लालच देने वाले ठगों के प्रति अपने पाठकों को आगाह करने का प्रयास करती नज़र आती हैं। तो वहीं एक अन्य कहानी मध्यमवर्गीय परिवार की उस तेज़तर्रार और महत्त्वकांक्षी लड़की नीरू की कहानी कहती है जो लड़कों को अपनी उँगलियों पर नचा अपना हर काम निकालना जानती है। इसी नीरू के साथ कुछ ऐसा घटता है कि सबके सामने उसकी पोल खुल जाती है।
इसी संकलन की एक अन्य कहानी में नदियों को साफ़ रखने की बात होती दिखाई देती हैं तो कहीं किसी दूसरी कहानी में लेखिका लोगों को ऑनलाइन ठगी के प्रति आगाह करती नज़र आती हैं। 
अच्छे एवं ज़रूरी विषयों को लेकर लिखी गयी इस किताब में मुझे तथ्यात्मक ग़लतियाँ दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 15 में लिखा दिखाई दिया कि..
'ताजमहल का प्रतिबिम्ब खरीदने के लिए आर्यन से वो उलझ पड़ी थी'
यहाँ ग़ौर करने वाली बात ये है कि आईने में दिख रही प्रतिछाया को प्रतिबिंब कहा जाता है जबकि यहाँ बात ताजमहल की रेप्लिका अर्थात उसकी ही शक्ल के खिलौने या उसके जैसी ही मूर्ति (प्रतिमूर्ति) को खरीदने की हो रही है। अतः यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..
'ताजमहल की रेप्लिका/खिलौना खरीदने के लिए वो आर्यन से उलझ पड़ी थी'
पेज नंबर 37 में लिखा दिखाई दिया कि…
‘मैं एक करोड़ दूँगा बस जमीन मेरे नाम हो जाए। कहता हुआ पच्चीस लाख पैसों से भरा बैग उसके तरफ बढ़ा दिया’
यहाँ इस घटना में बात लाखों रुपयों की हो रही है लेकिन यहाँ लिखा हुआ है कि..
‘पच्चीस लाख पैसों से भरा बैग उसके तरफ बढ़ा दिया’ 
जो कि महज़ पच्चीस हज़ार रुपयों की रकम बनती है। इसलिए सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
‘पच्चीस लाख रुपयों से भरा बैग उसकी तरफ़  बढ़ा दिया।
पेज नंबर 79 के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..
‘समीर के एक कदम आगे बढ़ते ही एक सनसनाती गोली उसके साथ खड़े दोनों सिपाहियों को लगी और वो गिर गए’
यहाँ सोचने वाली बात ये है कि एक ही गोली, एक साथ दो सिपाहियों को कैसे लग सकती है?
पेज नंबर 101 के एक दृश्य में विवाह के लिए लड़की देखने के इरादे से निवेश अपनी दादी के साथ लड़की वालों के घर जाता है। वहाँ उसके द्वारा गोद ली हुई बच्ची, रावी के बारे में जब सवाल उठता है तो भड़क कर निवेश कह उठता है कि..
'अरे आप क्या रिश्ता तोड़ेंगे मैं ऐसे मतलबी घर की बेटी को अपनी जीवन संगिनी के रूप में कभी भी नहीं अपनाऊंगा'
यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि अभी तो उनकी लड़की का निवेश से रिश्ता जुड़ा ही नहीं है। ऐसे में रिश्ता तोड़ने की बात कैसे की जा सकती है?
पेज नंबर 103 में लिखा दिखाई दिया कि..
'सारी बच्चियों ने अपने दिए गए विषय पर अपना वक्तव्य रख दिया'
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए था कि..
'सारी बच्चियों ने दिए गए विषयों पर अपना-अपना वक्तव्य दिया'
यहाँ यह बात भी ध्यान देने लायक है कि इस दृश्य में बात छोटी कक्षाओं में पढ़ने वाली बच्चियों की हो रही है। अतः उनकी छोटी उम्र के हिसाब से 'वक्तव्य' एक बहुत ही भारी भरकम शब्द है। यहाँ इसकी जगह किसी आसान शब्द का इस्तेमाल किया जाना चाहिए था।
■ अब बात वाक्यों की सही बुनावट की तो उस दृष्टि से भी इस संकलन की कहानियों में काफ़ी कमियाँ नज़र आयीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 17 में लिखा दिखाई दिया कि..
'जैसे ही उसने अपने कमरे का दरवाजा खोला कि जैसा उसने सोचा था आर्यन आराम से घोड़े बेचकर सोया हुआ था'
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
'जैसे ही उसने अपने कमरे का दरवाजा खोला तो उसने पाया कि उसकी सोच के अनुसार ही आर्यन आराम से घोड़े बेचकर सोया हुआ था'
पेज नंबर 18 में लिखा दिखाई दिया कि..
'आज शाम को उड़ान है मेरे भोले-भाले पतिदेव'
यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि 'उड़ान' शब्द का प्रयोग पक्षियों के उड़ने के सिलसिले में किया जाता है।
जहाज़ के उड़ने के लिए मेरे ख्याल से अँग्रेज़ी का 'फ्लाइट' शब्द ही सबसे उत्तम है। इसलिए सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..
'आज शाम को हमें जहाज़ से जाना है मेरे भोले-भाले पतिदेव' या फ़िर 'आज शाम की हमारी फ्लाइट है मेरे भोले-भाले पतिदेव'
इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..
'जाओ-जाओ मुझे तुम्हारी रक्षा नहीं करनी पड़ जाए'
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..
'जाओ-जाओ कहीं मुझे तुम्हारी ही रक्षा नहीं करनी पड़ जाए'
पेज नंबर 29 में लिखा दिखाई दिया कि..
‘बचपन में तुम्हें छोड़कर दूजा विवाह रचा लिया होता सुगना ने तो तुम कम से कम दर-दर की ठोकर खाते फिरते’
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..
‘सुगना ने बचपन में ही तुम्हें छोड़कर दूसरा विवाह रचा लिया होता तो तुम दर-दर की ठोकरें खाते फ़िरते’
पेज नंबर 32 में लिखा दिखाई दिया कि..
‘अपने आँख पर से हर हाल में औरत ग़लत होती है ये पट्टी उतार कर देखिए’
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि…
‘अपनी आँखों से ये पट्टी उतार कर देखिए कि हर हाल में औरत ग़लत होती है’
इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..
‘इसे कोख से जन्म भर नहीं दिया है बाकी कलेजा भी काट कर रख दूँ इसके लिए’
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
‘इसे कोख से जन्म भर ही नहीं दिया है मगर फ़िर भी इसके लिए मैं अपना कलेजा काट कर रख दूँ’
इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि…
‘इतना कहकर सुमन अपना मोबाइल फोन निकाली गगन और शोभा देवी को आनंद की करतूत दिखा दी’
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि…
‘इतना कहकर सुमन ने अपना मोबाइल फोन निकाला और गगन और शोभा देवी को उसने आनंद की करतूत दिखा दी’
पेज नंबर 35 में लिखा दिखाई दिया कि…
‘गगन हड़बड़ाकर गाना बंद कर कर, अरण्य के सामने फाइल लेकर भागा’ 
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
‘गगन ने हड़बड़ाते हुए गाना बंद किया और भाग कर अरण्य के पास फ़ाइल लेकर आया’
इसी पैराग्राफ में आगे लिखा दिखाई दिया कि..
‘वहाँ का विधायक जंगल कटवा कर कृषि अनुसंधान लगवाना चाहता है’
यहाँ ‘कृषि अनुसंधान लगवाना चाहता है’ की जगह कृषि अनुसंधान संस्थान/केन्द्र बनवाना चाहता है’ आएगा।
इसी पैराग्राफ में आगे लिखा दिखाई दिया कि..
‘इसलिए अब आपसे बड़ा वकील तो कोई है नहीं।आज विधायक अपने दल बल के साथ आया था, मुंहमांगी रकम देने को तैयार है’
मेरे हिसाब से ये दोनों वाक्य सही नहीं बने। सही वाक्य इस प्रकार होने चाहिए कि.. 
‘अब आपसे बड़ा वकील तो कोई है नहीं। इसलिए आज विधायक अपने दल बल के साथ आया था और आपको मुंहमांगी रकम देने को तैयार है’
पेज नंबर 36 में लिखा दिखाई दिया कि..
‘इस स्थिति को समझने का नाकामयाब कोशिश करने लगा और सोचते सोचते चाय मंगाने के लिए फोन उठा लिया’
वाक्य विन्यास की दृष्टि से यह वाक्य भी सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
‘इस स्थिति को समझने की नाकामयाब कोशिश करने लगा और सोचते-सोचते चाय मँगाने के लिए उसने फ़ोन उठाया’
पेज नंबर 39 में लिखा दिखाई दिया कि..
‘अरे पगले! तू कितना अभागा है। तूने इसका प्रेम ठुकरा दिया। हो सके ये अभागी रही होगी लेकिन इस जंगल और इस पूरे गाँव को माँ की तरह संरक्षण करती है तो इस जंगल की भांति घना और गहरा है इसका विश्वास और प्रेम दोनों’
यह पूरा पैराग्राफ़ बहुत ही अटपटा लिखा गया है। इसी बात को कम और साधारण शब्दों में इस प्रकार लिखा जाना चाहिए था कि..
‘अरे पगले! तू कितना अभागा है। तूने इस अभागी का, जो इस जंगल और पूरे गाँव की रक्षा करती है, का प्रेम ठुकरा दिया। इस जंगल की भांति ही घना और गहरा है इसका तेरे प्रति प्यार।
पेज नंबर 42 में लिखा दिखाई दिया कि..
‘ज़ब पेट में भूख से मरोड़ उठने लगी तब उसने पके आम की खुशबू से अपनी पेट की आग मिटाने की इच्छा जाहिर की’
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
‘जब पेट में भूख से मरोड़ उठने लगे, तब उन्होंने पके आमों से अपनी पेट की आग मिटाने की इच्छा ज़ाहिर की’
पेज नम्बर 44 में लिखा दिखाई दिया कि..
‘मैं आपके हर फैसले को सर झुकाकर सुनना अपना कर्तव्य मानता हूँ’
यहाँ ‘हर फैसले को सर झुकाकर सुनना अपना कर्तव्य मानता हूँ’ की जगह ‘हर फैसले को सर झुकाकर मानना अपना कर्तव्य मानता हूँ’ आएगा।
पेज नंबर 45 में लिखा दिखाई दिया कि..
‘एक पल के लिए जो पछतावे का ख्याल नरेश जी के मन में आया था, कन्यादान करते समय सारे आँखों से बह रहे मोती के साथ चमकने लगे’
यह वाक्य बहुत ही अटपटा बना है। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..
‘एक पल के लिए जो पछतावे का ख्याल नरेश जी के मन में आया, वह कन्यादान करते समय आँखों से बह रहे मोतियों के साथ ही बह गया’
इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..
‘चल मेरे साथ थोड़ी देर तुम दोनों से एक साथ कुछ बात करनी है’
यह वाक्य भी सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
‘चलो मेरे साथ थोड़ी देर के लिए। तुम दोनों से एक साथ कुछ बात करनी है’ 
इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..
‘अंबर बेटा, थोड़ा स्वार्थी ही सही समझ लो, अब जो हाथ थाम लिया है तो मेरे समाज में मान बने रहने देना’
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
‘अंबर बेटा, बेशक मुझे थोड़ा स्वार्थी ही समझ लो मगर अब जो हाथ थाम लिया है तो समाज में मेरा मान बने रहने देना’
पेज नंबर 46 में लिखा दिखाई दिया कि..
‘लाल बनारसी साड़ी में भरी माँग केसरिया सिंदूर से भूमि का चेहरा बिल्कुल दमक रहा था’
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
‘लाल बनारसी साड़ी में केसरिया सिंदूर से भरी माँग के बीच भूमि का चेहरा बिल्कुल दमक रहा था’
इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..
‘मायके की दहलीज से विदा होकर भूमि अब अपने ससुराल के दहलीज पर अपने स्वागत के इंतजार में खड़ी थी। उसकी सासू मां राधा जी आरती की थाल लिए उसके स्वागत में खड़ी थी। भूमि की आरती के बाद उसकी शानदार स्वागत उसकी ननद अन्या ने किया’
वाक्य विन्यास की दृष्टि से ये सभी वाक्य सही नहीं बने। सही वाक्य इस प्रकार होंगे कि..
‘मायके की दहलीज से विदा होकर भूमि जब अपनी ससुराल पहुंची तो उसकी सासू मां राधा, आरती का थाल लिए उनके  स्वागत में खड़ी थी। आरती उतारने के बाद भूमि का उसकी ननद अन्या ने शानदार स्वागत किया’
पेज नंबर 53 में लिखा दिखाई दिया कि..
'सामने वाला दगाबाज और फरेबी निकला तो इसमें उसका कसूर है, मेरा नहीं। समझे मेरे जीवन के घुसपैठिये महान इंसान'
यहाँ इस वाक्य 'समझे मेरे जीवन के घुसपैठिये महान इंसान' को हटा ही दिया जाए तो बेहतर।
पेज नंबर 55 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..
'कपिल जी और नरेश जी अपने बाग के इस फूल को एक साथ खेलते देखकर आशीर्वाद देकर प्रसन्न हो रहे थे'
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
'कपिल जी और नरेश जी अपने बाग के इन फूलों को एक साथ खिलते देखकर प्रसन्न थे'
पेज नंबर 61 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..
'सर से बहते खून की धारा के बावजूद राधिका के होंठ मुस्कान और आँखें जलधारा बरसा रही थी'
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..
'सर से बहती खून की धारा के बावजूद राधिका के होठों से मुस्कान और आँखों से जलधारा बह रही थी'
पेज नंबर 85 में लिखा दिखाई दिया कि..
‘बाहर मीडिया का जमावड़ा और अस्पताल में मौत का शोर इतना कुछ झेलते हुए अपने बुढ़ापे की लाठी के छीन जाने का दर्द सब एक साथ वो झेल नहीं पाई और अचेत होकर जमीन पर गिर पड़ी’
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..
‘बाहर मीडिया का जमावड़ा और अस्पताल में मौत का शोर। और अब अपनी बुढ़ापे की लाठी के छिन जाने का दर्द, सब एक साथ वो झेल नहीं पाई और अचेत होकर जमीन पर गिर पड़ी’
पेज नंबर 89 में लिखा दिखाई दिया कि..
‘सड़क पर जमे पानी से गाड़ी के पहिए से उसके मुंह पर जोर से पानी उसके मुँह पर आया’
वाक्य-विन्यास की दृष्टि से यह वाक्य बिलकुल भी सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
‘सड़क पर जमा हुए पानी में गाड़ी के पहियों के पड़ने से पानी ज़ोर से उछल कर उसके मुँह पर आया’
पेज नंबर 98 में लिखा दिखाई दिया कि..
‘खाना खाकर और बच्ची को सुलाकर बाजार जाकर अपनी कागजात की प्रतिलिपि करवा कर जब वो घर लौटा’ 
वाक्य विन्यास की दृष्टि से यह वाक्य बिलकुल भी सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
‘खाना खाने और बच्ची को सुलाने के बाद वो अपने ज़रूरी कागज़ात की फोटोकॉपी करवा कर जब घर लौटा’
इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..
‘पुलिस बच्ची के परिवार वालों को ढूंढ नहीं पाती है तो क्या आप इसे बच्चों को देख-रेख कर रही संस्था को बच्ची को सौंप देंगे’
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
‘पुलिस अगर बच्ची के परिवार वालों को ढूँढ नहीं पाती है तो क्या आप इसे बच्चों की देख-रेख करने वाली संस्था को सौंप देंगे”
पेज नंबर 100 में लिखा दिखाई दिया कि..
'अचानक उसकी नजर बच्चों के झूले पर पड़ी और उसने उसे खरीद कर घर ले गया'
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
' उसकी नज़र बच्चों के झूले बेचने वाली एक दुकान पर पड़ी तो उसने एक झूला ख़रीद लिया'
इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..
'धीरे-धीरे समय गुजरने लगा और रावी धीरे-धीरे बड़ी होने लगी'
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
'धीरे-धीरे समय गुजरने लगा और रावी बड़ी होने लगी'
इससे अगली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..
'निवेश का हाथ पकड़कर उसके अँगने में वो धीरे-धीरे चलना सीख रही थी'
यह वाक्य भी सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
'निवेश का हाथ पड़कर वह आंगन में धीरे-धीरे चलना सीख रही थी'
इसी पेज पर और आगे बढ़ने पर लिखा दिखाई दिया कि..
'एक संस्थान की मदद से रावी की गोद लेने की प्रक्रिया शुरू कर दिया था'
यहाँ 'रावी की गोद लेने की प्रक्रिया शुरू कर दिया था' की जगह 'रावी को गोद लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी' आएगा। 
इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..
'निवेश, रावी के लालन-पालन के साथ अपनी पढ़ाई भी तन-मन से करता रहता था। उसके परिणाम स्वरुप उसे उसके शहर के बीडीओ के पोस्ट पर नौकरी लग गई'
यहाँ 'उसके परिणाम स्वरुप उसे उसके शहर के बीडीओ के पोस्ट पर नौकरी लग गई' की जगह 'जिसके परिणाम स्वरूप उसकी, उसी के शहर में बीडीओ की पोस्ट पर नौकरी लग गई' आए तो बेहतर। 
पेज नंबर 101 में लिखा दिखाई दिया कि..
'आपने गोद लिया बच्ची को बहुत ही नेक काम किया है'
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
'आपने बच्ची को गोद लेकर बहुत ही नेक काम किया है'
पेज नंबर 103 में लिखा दिखाई दिया कि..
'इतना सुनते ही पास खड़ी नियति उसकी पीठ पर खड़े होकर, उसका हाथ पकड़ कर उसे वहाँ से हटाने लगी'
यहाँ यह बात ध्यान देने वाली है कि यहाँ बच्ची(रावी) को उसकी टीचर (नियति) द्वारा स्टेज से हटाने की बात हो रही है। ऐसे कोई भी टीचर भला एक छोटी बच्ची की पीठ पर क्यों चढ़ेगी या चढ़ने के प्रयास करेगी? 
😊
इसी वजह से यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..
'इतना सुनते ही पास खड़ी नियति ने उसका हाथ पकड़ कर उसे वहाँ से हटाने का प्रयास किया'
पेज नंबर 109 में लिखा दिखाई दिया कि..
'मैं अपने गुनाह की सजा सात साल जेल की सजा काटकर भुगत चुका हूँ' 
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..
'मैं सात साल जेल में रहकर अपने गुनाह की सज़ा भुगत चुका हूँ'
पेज नंबर 113 में लिखा दिखाई दिया कि..
'रूपा को लगा जैसे भूमि ही उसके अमावस्या वाली रातों के बाद आने वाली पूर्णमासी की चांद है'
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..
'रूपा को लगा कि जैसे भूमि ही उसकी अमावस्या वाली रातों के बाद आने वाला पूर्णमासी की चांद है'
इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..
'सुबह जब रूपा उठी तब उसकी नजर आईने पर पड़ी और वह खुद पर मुस्कुरा उठी'
परिस्थितियों के हिसाब से यहाँ रूपा को मुस्कुराना नहीं बल्कि रोना चाहिए। इसलिए यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..
'सुबह जब रूपा सोकर उठी, तब उसकी नज़र आईने पर पड़ी और उसे खुद पर रोना आया'
पेज नंबर 119 में लिखा दिखाई दिया कि..
'तीनों अपने में मगन अपने मोबाइल पर ध्यान नहीं दिया और कैंटीन में बैठी गप्पे हाँक रही थीं'
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
'तीनों अपने में इस हद तक मग्न थीं कि किसी ने भी अपने मोबाइल पर ध्यान नहीं दिया और कैंटीन में बैठी आपस में गप्पें हाँकती रहीं'
■ बहुत से लेखक अपनी भाषा पर क्षेत्रीयता के असर की वजह से स्त्रीलिंग और पुल्लिंग में या फ़िर एकवचन और बहुवचन में आसानी से भेद नहीं कर पाते हैं। यह किताब भी इन कमियों से बच नहीं पाई है। यहाँ मैं कुछ शुरुआती कमियों के ही जिक्र कर रहा हूँ जैसे कि..
पेज नम्बर 16 में लिखा दिखाई दिया कि..
'आगरा में ताजमहल की गुम्बद से भी ऊँची आपकी अकड़ लगती है मैडम'
यहाँ 'ताजमहल की गुम्बद से भी ऊँची आपकी अकड़ लगती है' की जगह 'ताजमहल के गुम्बद से भी ऊँची आपकी अकड़ लगती है' आना चाहिए।
पेज नंबर 17 में लिखा दिखाई दिया कि..
'पूर्णिमा की चाँद के साथ भी दूध सी संगमरमर की सफेदी को अपने अंदर उतारा है'
इस वाक्य में 'पूर्णिमा की चाँद के साथ भी' की जगह 'पूर्णिमा के चाँद के साथ' आएगा तथा 'दूध सी संगमरमर की सफेदी को अपने अंदर उतारा है' की जगह 'दूध सी संगमरमर की सफेदी को भी अपने अंदर उतारा है' आएगा।
पेज नंबर 21 में लिखा दिखाई दिया कि..
'गहना के अस्पताल पहुंचने के बाद ही पुलिस भी उसके पीछे-पीछे आ गई'
यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि गहना अपने घायल पति आर्यन को लेकर अस्पताल गई थी। इसलिए यहाँ
'पुलिस भी उसके पीछे-पीछे आ गई' की जगह 'पुलिस भी उनके पीछे-पीछे आ गई' आएगा।
पेज नम्बर 24 में लिखा दिखाई दिया कि..
'ये जो यहाँ ममतामयी माँ के रूप में खड़ी जिस विशालकाय वृक्ष की छाया में तुम फ़ल-फूल रही हो, वो अन्दर से खोखली है'
यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि यहाँ ममतामयी माँ की तुलना एक विशालकाय वृक्ष से की जा रही है इसलिए यहाँ 'ममतामयी माँ के रूप में खड़ी जिस विशालकाय वृक्ष की छाया में' की जगह 'ममतामयी माँ के रूप में खड़े जिस विशालकाय वृक्ष की छाया में' आएगा तथा 'वो अन्दर से खोखली है' की जगह 'वो अन्दर से खोखला है' आएगा।
* घुंघट - घूँघट
* पढाई - पढ़ाई
* वारिश - वारिस
* बोरबेल - बोरवैल/बोरवेल
* गुगुनाती - गुनगुनाती
* बड़बडाए - बड़बड़ाए
* खिंचकर - खींचकर
* तपीश - तपिश
* चलाक - चालाक
* बिगड - बिगड़
* (साजो-सज्जा) - साज-सज्जा
* बूंदें (कानों में पहनने वाले) - बुंदे (कानों में पहनने वाले)
* (हालए - दिल) - (हाल-ए-दिल)
* सासस सुर - सास ससुर
* (कर्तव्य-निष्ठ) - कर्तव्यनिष्ठ
* समाज़ - समाज
* सिपाहीयों - सिपाहियों
* आतंकवादीयों - आतंकवादियों
* फूस्स - फुस्स
* खूद - ख़ुद
* बढा - बढ़ा
* बढाया - बढ़ाया
* सीखाने - सिखाने
* छीन जाने - छिन जाने
* फक्र - फ़ख्र
* मिडिया - मीडिया
* भींगती - भीगती
* गिले कपड़े - गीले कपड़े
* पीछले - पिछले
* चिढाते - चिढ़ाते
* शरी - शरीफ़
* बैलगाडी - बैलगाड़ी
* अलमीरा - अलमारी
* गस्त - गश्त
* एनथिसिया - एनस्थीसिया
* (डेट्स लाइक ए गुड गर्ल) - (दैट्स लाइक ए गुड गर्ल)
* डिलवरी - डिलीवरी
* मेँ - में
* मे - में
* ज़ब - जब
* उसमेँ - उसमें
* लडके - लड़के
*ज़ब - जब
यूँ तो यह कहानी संकलन मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके 163 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है Shopizen. in ने और इसका मूल्य रखा गया है 335/- रुपये जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से बहुत ज़्यादा है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

ये इश्क़ नहीं आसां - संजीव पालीवाल


लगभग 3 साल पहले कॉलेज के मित्रों के साथ जोधपुर और जैसलमेर घूमने के लिए जाने का प्रोग्राम बना। जहाँ अन्य दर्शनीय स्थानों के साथ-साथ जैसलमेर के शापित कहे जाने वाले गाँव कुलधरा को भो देखने का मौका मिला। लोक कथाओं एवं मान्यताओं के अनुसार जैसलमेर में कुलधरा नाम का एक पालीवाल ब्राह्मणों का गाँव था जो राजस्थान के पाली क्षेत्र से वहाँ आ कर बसे थे। उन्होंने कुलधरा समेत 84 गांवों का निर्माण किया था। कहा जाता है कि 19वीं शताब्दी में घटती पानी की आपूर्ति के कारण यह पूरा गाँव नष्ट हो गया।


एक अन्य मान्यता  यह भी है कि जैसलमेर के अय्याश एवं अत्याचारी दीवान सालम सिंह द्वारा उन्हें इस हद तक पर शोषित, प्रताड़ित एवं अपमानित किया गया कि उससे तंग आ कर एक रात संयुक्त पंचायत के बाद सभी 84 गांवों के बाशिंदे अचानक अपना सब कुछ वहीं छोड़, गाँव खाली कर के चले गए।  किवंदंतियों के अनुसार कि उस गांव में छोड़ी गई दौलत पर जिस किसी ने अपना हाथ साफ़ किया, वो बरबाद हो गया। तब से यह गाँव शापित कहलाता है। 


दोस्तों..आज कुलधरा के इस शापित कहे जाने वाले गाँव की बात इसलिए कि आज मैं यहाँ जिस उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ, उसे इसी कहानी को केंद्र में रख कर एक प्रेम कहानी के रूप में लिखा है लेखक संजीव पालीवाल ने। इससे पहले वे दो थ्रिलर उपन्यास लिख चुके हैं।


इस उपन्यास के मूल में कहानी है एक कहानीकार/यूट्यूबर अमन और जैसलमेर के एक होटल की मालकिन अनन्या के बीच पनप रही प्रेम की। तो दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है अमन की नाराज़गी झेल रहे उस व्यवसायी पिता राज सिंह चौधरी की, जिसकी कंस्ट्रक्शन कम्पनी जल्द ही अपना आईपीओ लाने वाली है और इससे संबंधित ज़रूरी कागज़ात पर उन्हें अपने बेटे के हस्ताक्षर चाहिए। मगर उनके लाख चाहने के बावजूद भी उनसे अलग रह रहा अमन उनके पास लौट कर आने को राज़ी नहीं है कि वह अपनी बीमार माँ की मौत का ज़िम्मेवार अपने पिता को मानता है। 


साथ ही इस उपन्यास में कहानी है बैंक से लोन के रूप में बड़ी रकम उधार ले चुकी उस मजबूर अनन्या की जो इस वक्त 'करो या मरो' की परिस्थिति में इस हद तक फँस चुकी है कि लोन चुकता ना कर पाने की स्थिति में बैंक द्वारा उसका होटल कुर्क कर लिया जाएगा। 


इस उपन्यास में लेखक कहीं जैसलमेर के किले के वैभवशाली इतिहास से अपने पाठकों को रूबरू करवाते नज़र आते हैं तो कहीं उनके शब्दों के ज़रिए जैसलमेर के महल से सूर्योदय के नज़ारे का आनंद साक्षात प्रकट होता दिखाई देता है। कहीं जैसलमेर के किले को लाइव फोर्ट का दर्ज़ा दिया जाता दिखाई देता है कि इस किले बारहवीं शताब्दी से लगातार लोग रहते आ रहे हैं तो कहीं महल के सुरक्षा प्रबंधों से पाठकों को अवगत कराया जाता नज़र आता है। 


इसी उपन्यास में कहीं जैसलमेर के शापित गाँव कुलधरा सहित पालीवालों के सभी 84 गाँवों के इतिहास के बारे में जानने का मौका मिलता है तो कहीं

पोखरण के नज़दीक भादरिया राय माता मंदिर में बनी एशिया की सबसे बड़ी भूमिगत लाइब्रेरी से लेखक अपने पाठकों का परिचय करवाते नज़र आते हैं। कहीं जैसलमेर के किले में स्थित उस सात मंज़िले शीशमहल की बात होती दिखाई देती है जिसकी उपरली दो मंज़िलों को तोड़ने का आदेश जैसलमेर के महाराजा ने इस वजह से दिया था कि उसकी ऊँचाई उनके किले से भी ज़्यादा हो गयी थी।


इसी उपन्यास में कहीं हमारे देश में पालीवालों द्वारा व्यर्थ बह जाने वाले बरसाती पानी को बचा कर रखने की मुहिम के रूप में पहले पहल रेन हार्वेस्टिंग शुरू किए जाने की बात का पता चलता है तो कहीं ठाकुर जी के उस ऐतिहासिक मंदिर के बारे में पढ़ने को मिलता है जहाँ पर सालिम सिंह के अत्याचारों से आहत पालीवालों की आख़िरी पंचायत हुई थी। जिसके बाद 84 गाँवों के पालीवालों ने एक साथ सारा इलाका छोड़ दिया था। 


सीधी-साथी इस प्रेम कहानी में दर्ज कुलधरा गाँव और पालीवालों के इतिहास को अगर उस समय के घटनाक्रम एवं किरदारों के द्वारा स्वयं अपने शब्दों में फ्लैशबैक के ज़रिए बयां किया जाता तो उपन्यास और ज़्यादा प्रभावी एवं दमदार बनता। 


बेहद सावधानी के साथ की गयी प्रूफरीडिंग के बावजूद भी इस उपन्यास में मुझे कुछ कमियाँ दिखीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 12 में लिखा दिखाई दिया कि..


'अमन का मन कर था कि इससे बात करता रहे' 


यहाँ ''अमन का मन कर था कि' की जगह 'अमन का मन कर रहा था कि' आएगा। 


पेज नंबर 42 में लिखा दिखाई दिया कि..


'जैसे पूरी कायनात को समटे लेना चाहती हो अपनी आगोश में'


यहाँ 'समटे लेना चाहती हो' की जगह 'समेट लेना चाहती हो' आएगा तथा 'अपनी आगोश में' में की जगह 'अपने आग़ोश में' आए तो बेहतर।


इसके बाद पेज नम्बर 65 में लिखा दिखाई दिया कि..


'क्या आपको पता है कि हम लोग, यानी पालीवाल रक्षाबंधन का त्योहार क्यों नहीं मानते'


यहाँ 'त्योहार क्यों नहीं मानते' की जगह 'त्योहार क्यों नहीं मनाते' आएगा। 


पेज नम्बर 100 में लिखा दिखाई दिया कि..


'ज़िन्दगी को दखने के दो ही नज़रिये हैं'


यहाँ 'दखने' की जगह 'देखने' आएगा। 


पेज नंबर 141 में दिखा दिखाई दिया कि..


'पूछो भी तो कई जवाब नहीं मिलता था'


यहाँ 'कई जवाब' की जगह 'कोई जवाब' आएगा। 


170 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है eka ने और इसका मूल्य रखा गया है 170/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।





ख़्वाबगाह - सूरज प्रकाश

सृष्टि के अन्य जीवों की भांति ही इंसान भी बारिश, तूफ़ान जैसी प्राकृतिक अवस्थाओं से ख़ुद को सुरक्षित रखने के लिए कोई न कोई ऐसी पनाह..ऐसा घर..ऐसा नीड़ चाहता है जहाँ निजता के साथ रहते हुए वह अपनों का अपनापन महसूस कर सके। रिश्तों के स्थायित्व से भरा एक ऐसा घरौंदा जहाँ वह स्वतंत्रता से विचर सके..अपने मन की कह और अपनों की सुन सके। 

हर इंसान अपनी रुचि, ख्वाहिश एवं हैसियत के हिसाब से अपने सपनों का घर..अपनी ख़्वाबगाह का निर्माण करता है। ख़ास कर के स्त्रियाँ एक ऐसा घर..ऐसी ख़्वाबगाह चाहती हैं जिसे वे अपनी रुचि के अनुसार सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा सकें। दोस्तों आज घर यानी कि ख़्वाबगाह से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं जिस लघु उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ, उसे 'ख़्वाबगाह' के ही नाम से लिखा है प्रसिद्ध लेखक सूरज प्रकाश जी ने। 

मोनोलॉग शैली में लिखे गए इस रोचक उपन्यास में मूलतः कहानी है एक ऐसी नायिका की है जो पति और प्रेमी नाम के दो पाटों बीच इस प्रकार भंवर में फँसी हुई है कि चाह कर भी किसी एक से मुक्त नहीं हो पा रही। एक तरफ़ उसके मन में अपने प्रेमी से मुक्त हो, अपने परिवार को बचाने की जद्दोजहद चल रही है। तो दूसरी तरफ़ अपमान सहते हुए हुए भी अपने उस तथाकथित प्रेमी के मोह से आज़ाद नहीं हो पा रही है जिसने पहले से शादीशुदा होते हुए भी उसे अपने प्रेमजाल में फँसाया। 

रोचक ढंग से लिखे गए इस बेहद उम्दा उपन्यास में प्रिंटिंग की कमी के रूप में काफ़ी जगहों पर शब्द आपस में जुड़े हुए दिखाई दिए। साथ ही प्रूफरीडिंग की छोटी-छोटी कमियां भी दिखाई दीं जैसे कि..

पेज नम्बर 7 में लिखा दिखाई दिया कि..

'हंस कर टल जाती थी'

कहानी के हिसाब से यहाँ 'हंस कर टल जाती थी' की जगह 'हँस कर टाल जाती थी' आना चाहिए। 

पेज नंबर 13 में लिखा दिखाई दिया कि..

'बहुत देर तक तो मुझे देर तक समझ में नहीं आया कि हो क्या गया है'

यहाँ 'बहुत देर तक तो मुझे देर तक समझ में नहीं आया कि हो क्या गया है' की जगह 'बहुत देर तक तो मुझे समझ में नहीं आया कि हो क्या गया है'
आए तो बेहतर। 

पेज नंबर 15 में लिखा दिखाई दिया कि..

'हमारी हम मुलाक़ात समय की सारी सीमाएं लांघ जाती थी'

यहाँ 'हमारी हम मुलाक़ात समय की सारी सीमाएं लांघ जाती थी' की जगह 'हमारी हर मुलाक़ात समय की सारी सीमाएं लांघ जाती थी' आएगा। 

पेज नंबर 36 में लिखा दिखाई दिया कि..

'और मैं हर दिन सिर भारी होने और नींद पूरी होने के कारण कुछ भी काम न कर पाती'

कहानी के हिसाब से यहाँ नींद पूरी ना हो पाने की बात की जा रही है। इसलिए यहाँ 'और मैं हर दिन सिर भारी होने और नींद पूरी होने के कारण कुछ भी काम न कर पाती' की जगह 'और मैं हर दिन सिर भारी होने और नींद पूरी न होने के कारण कुछ भी काम न कर पाती' आना चाहिए। 

पेज नंबर 60 में लिखा दिखाई दिया कि..

'एक दूसरे को छेड़ रहे थे, मजेदार खेल रहे थे, और पुरानी बातें याद कर करके ज़ोर-ज़ोर से हंस रहे थे'

यहाँ 'मजेदार खेल रहे थे' की जगह 'मज़ेदार खेल, खेल रहे थे' आना चाहिए। 

पेज नंबर 78 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'तभी उसने पैग तैयार करके कुल्लड़ मेरी तफ बढ़ाया'

यहाँ 'मेरी तफ बढ़ाया' की जगह 'मेरी तरफ़ बढ़ाया' आएगा। 

पेज नंबर 86 में लिखा दिखाई दिया कि..

'तो जवाब की नीयत खराब हो रही है'

यहाँ 'जवाब की नीयत खराब हो रही है' की जगह 'जनाब की नीयत ख़राब हो रही है' आएगा। 

पेज नंबर 94 में लिखा दिखाई दिया कि..

'वह ठीक मेरे सामने बैठा धीरे अपनी बीयर सिप कर रहा था'

यहाँ 'वह ठीक मेरे सामने बैठा धीरे अपनी बीयर सिप कर रहा था' की जगह 'वह ठीक मेरे सामने बैठा धीरे-धीरे अपनी बीयर सिप कर रहा था' आना चाहिए। 

पेज नंबर 96 की पहली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसका सब चले तो मुझे बैकलेस या स्लीवलेस ब्लाउज भी ना पहनने दे'

यहाँ 'उसका सब चले तो' की जगह 'उसका बस चले तो' आएगा। 

पेज नंबर 107 में लिखा दिखाई दिया कि..

'और यह दूसरी संयोग था कि उधर विनय से अरसे से रुकी मुलाकातों का सिलसिला चल पड़ा था'

यहाँ 'और यह दूसरी संयोग था' की जगह 'और यह दूसरा संयोग था' आएगा। 

पेज नंबर 109 में लिखा दिखाई दिया कि..

'सारी बातें सोचने के बाद कुछ अरसे बाद हम से फ़िर पहले की तरह ख़्वाबगाह में मिलने लगे थे'

यहाँ 'सारी बातें सोचने के बाद कुछ अरसे बाद हम से फ़िर पहले की तरह ख़्वाबगाह में मिलने लगे थे' की जगह 'सारी बातें सोचने के कुछ अरसे बाद से हम फ़िर पहले की तरह ख़्वाबगाह में मिलने लगे थे' आना चाहिए। 

पेज नंबर 110 की पहली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'मुकुल क जब घर पर ड्रिंक करने का मूड होता है'

यहाँ 'का' की जगह ग़लती से 'क' छप गया है। 

पेज नंबर 111 में लिखा दिखाई दिया कि..

'जब तक कोई मेरे बालों में कोई उंगलियां ना फेरे, मुझे नींद नहीं आती'

यहाँ 'जब तक कोई मेरे बालों में कोई उंगलियां ना फेरे' की जगह 'जब तक कोई मेरे बालों में उंगलियां ना फेरे' आएगा। 

• छूआ - छुआ 
• जीएगी - जिएगी
• सिंगापूर - सिंगापुर
• कूआं - कुआं (कुआँ)

उम्दा एवं धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस 112 पृष्ठीय बेहद रोचक के पेपरबैक संस्करण को छापा है इंडिया नेटबुक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 120/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

अम्बर परियाँ - बलजिन्दर नसराली

आमतौर पर कोई भी लेखक हर उस चीज़, वाकये या अपने आसपास के माहौल में घट रही या घट चुकी किसी न किसी ऐसी घटना से प्रेरित हो कर कुछ न कुछ ऐसा रचने का प्रयास करता है जो उसके ज़ेहन के भीतर चल रही तमाम हलचलभरी कवायद को व्यथा, उद्वेग या फ़िर भड़ास के ज़रिए बाहर निकाल उसके चित्त को शांत कर सके। 

इन घटनाओं से वह स्वयं भी किसी ना किसी माध्यम से जुड़ा हो सकता है अथवा उसने इन्हें घटते हुए स्वयं देखा अथवा किसी और से इनके बारे में जाना हो सकता है। उन साधारण या फ़िर असाधारण सी दिखने वाली घटनाओं को लेखक अपनी कल्पनाशक्ति, रिसर्च, तजुर्बे तथा अपने लेखनशिल्प के ज़रिए विस्तार देकर ऐसा रूप दे देता है कि वह घटना किसी कहानी या उपन्यास में पूर्णतः या फ़िर आंशिक रूप से समाहित होकर पठनीय बन जाती है। 

दोस्तों..आज मैं शिक्षाजगत की सच्चाइयों से रूबरू कराते एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'अम्बर परियाँ' के नाम से मूल रूप से पंजाबी में लिखा है लेखक बलजिन्दर नसराली ने। इसका पंजाबी से हिंदी में अनुवाद किया है प्रसिद्ध लेखक एवं अनुवादक सुभाष नीरव जी ने। 

मूलतः इस उपन्यास में कहानी है औसत शक्ल और सूरत के उस अम्बर की जिसने बचपन से अपने परिवार में शिक्षा का माहौल ना होने के बावजूद शिक्षा के महत्त्व को समझा और अपनी लग्न, मेहनत और जिजीविषा के बल पर उच्च शिक्षा ग्रहण कर पहले मलेरकोटला (पंजाब) के कॉलेज में अध्यापक की नौकरी और बाद में जम्मू-कश्मीर यूनिवर्सिटी में बतौर प्रोफ़ेसर मुकाम पाया। 

पारिवारिक एवं स्वयं की रज़ामंदी से उसका ब्याह औसत शक्लोसूरत की किरणजीत के साथ हो तो जाता है मगर अब भी उसका मन किसी न किसी ख़ूबसूरत सहचरी के लिए भटकता है। ऐसे में उसकी मुलाक़ात उसी के कॉलेज में बतौर संगीत शिक्षिका नियुक्त सुंदर रंग-रूप की अवनीत से होती है जिसका सपना मशहूर सिंगर बनना है। संयोग कुछ ऐसा बनता है कि अब तक दो बच्चों का पिता बन चुके अम्बर की बौद्धिक क्षमताओं पर मोहित हो अवनीत उस पर आसक्त हो मर मिटती है और अम्बर भी उसके मोहपाश से बचा नहीं रह पाता।

साथ ही इस उपन्यास में कहानी है कश्मीर के एक सिख परिवार में जन्मी उस ज़ोया की है जो जम्मू के एक बड़े होटल में बतौर मैनेजर नौकरी कर रही है और जम्मू यूनिवर्सिटी में कभी-कभी होटल मैनेजमेंट से संबंधित विषयों पर लैक्चर देने जाती है। वहाँ उसकी मुलाक़ात अम्बर से होती है और कुछ एक मुलाक़ातों के बाद वे दोनों एक-दूसरे को पसन्द करने लगते हैं।  

अब देखना यह है कि अवनीत से किनारा कर चुका अम्बर क्या स्वयं को इस रिश्ते में इस हद तक सहज पाता है कि अपनी पत्नी किरणजीत से तलाक लेकर ज़ोया से विवाह कर ले जबकि किरणजीत को पढ़ा-लिखा कर उसने इसी वजह से स्वावलंबी बनवाया था कि उसके छोड़ जाने के बाद वह अपनी स्वयं की तथा उनके (किरणजीत और अम्बर के) बच्चों की अच्छे से देखभाल कर सके।  

इस उपन्यास में कहीं किताबों और लायब्रेरी की महत्ता एवं ज़रूरत का जिक्र चलता दिखाई देता है तो कहीं गाँव-देहात के पुराने हो चुके बुज़ुर्गों द्वारा कही जाने वाली बात कि.. ज़्यादा पढ़ने-लिखने से दिमाग़ ख़राब हो जाता है' की बात होती नज़र आती है। कहीं गाँव की औरतों के कष्टों से भरे जीवन की बात होती दिखाई देती हैं तो कहीं गाँवों के अविवाहित रह गए युवक किसी विधवा से विवाह कर या फ़िर किसी अन्य विवाहिता से संबंध बना अपनी हताशा दूर करने का प्रयास करते नज़र आते हैं।

इसी उपन्यास में कहीं साहूकारों के द्वारा किसानों के हिसाब-किताब में कच्चा होने का फ़ायदा उठाने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं कहीं पंजाब के किसानों द्वारा खेती की ज़मीन के महंगे होने की वजह से उनके यूपी की तरफ़ माइग्रेट होने की बात उठती दिखाई देती है कि वहाँ पर खेती की ज़मीनों के दाम पंजाब के दामों के मुकाबले पाँच से छह गुणा तक कम हैं।

कहीं पंजाब से पलाश के पेड़ों के लुप्तप्राय होने की बात उठती दिखाई देती है तो कहीं पाकिस्तान के हिस्से में आए शहर 'सियालकोट' के 'मदरपुर' से 'शाकला' और 'शाकला' से 'सियालकोट' होने की बात पता चलती है।

 इसी किताब में कहीं 'चन्द्रभागा' नदी के 'चिनाब' हो जाने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं कलकत्ता की ट्राम के बहाने बंगाल की प्रसिद्ध संस्कृति को जानने का प्रयास होता दिखाई देता है। कहीं बंगालियों के अतिआत्मविश्वासी होने की बात होती नज़र आती है तो कहीं कश्मीर और पुंछ के निवासियों के बीच उनके सामाजिक स्तर में व्याप्त अंतर को लेकर बात दिखाई देती है। कहीं पुंछ की भागौलिक परिस्थिति के कष्टप्रद और कश्मीर की भागौलिक परिस्थिति के आरामदायक होने की वजह से वहाँ के निवासियों के बीच आर्थिक स्तर का अंतर भी साफ़ परिलक्षित होता दृष्टिगोचर होता है। 

कहीं पैसे के लालच कॉलेजों के बड़े-बड़े प्रोफ़ेसरों तक के ईमान डोल जाने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं अम्बर सरीखा प्रोफ़ेसर कॉलेज छोड़ते समय कॉलेज के बकाया पैसों को भरने को उतावला होता नज़र आता है। कहीं कॉलेज में लेक्चरार की भर्ती के लिए हर कोई अपने-अपने उम्मीदवार के नाम की गोटियाँ सेट करता नज़र आता है तो कहीं किसी को अपने मुकाबले ना टिकने देने की कवायद चलती दिखाई देती है। कहीं यूनिवर्सिटी में क्षेत्रीयता के हिसाब से छात्रों के अलग-अलग गुट बने दिखाई देते हैं। 

इसी उपन्यास में कहीं पुलिस अफसरों द्वारा प्रमोशन के चक्कर में फर्ज़ी एनकाउंटर करवाए जाते दिखाई देते हैं तो कहीं कोई अपना ही इनके नापाक मंसूबों की बलि चढ़ता दिखाई देता है। कहीं कश्मीर के 'उजाड़ना' गाँव की कहानी पढ़ने को मिलती है कि किस तरह एक श्राप की वजह से उस गाँव के बाशिंदों को हर बारह साल बाद अपने घर का सारा सामान  लाद कर ले जाने (अपनी जगह से उजड़ने) की रस्म को निबाहना पड़ता है। तो कहीं कश्मीरी सिखों की पंजाब के सिखों के प्रति नापसंदगी भी उजागर होती नज़र आती है कि कश्मीरी सिख अपने मज़हब के अनुसार अपनी दाढ़ियों को बढ़ा कर रखते हैं जबकि पंजाब के सिख अपनी दाढ़ियों को कटवा लिया करते हैं।

कहीं आज़ादी से पहले सियालकोट के निवासियों द्वारा जम्मू में आ के फ़िल्म देखने की बात होती नज़र आती है तो कहीं जालंधर से पुंछ तक बैलगाड़ियों और गड्डों के ज़रिए अपना व्यापार फैलाने वाले लुबाणों की बात होती दिखाई देती है। कहीं मलेरकोटला के जर्जर होते महल के बारे में पढ़ने को मिलता है तो कहीं मनुष्य के कबीलों से घर, खेतों और परिवार में तब्दील होने के पीछे की वजह तलाशी जाती दिखाई देती है।

शिक्षा विभाग में व्याप्त अनिमितताओं एवं भ्रष्टाचार की परत दर परत उधेड़ते इस उपन्यास में कहीं बिना ज़रूरी योग्यता के कोई सिफ़ारिश के बल पर कोई प्रिंसिपल की कुर्सी हासिल करता दिखाई देता है। तो कहीं पंजाबी-अँग्रेज़ी मिश्रित भाषा को क्रियोल कहे जाने का पता चलता है। कहीं विदेशों में प्रचलित हो रही डायवोर्स पार्टी जैसी नई कुरीति के भारत के महानगरों और फ़िर छोटे शहरों-कस्बों में सेंध लगाने की बात होती नज़र आती है।

इसी उपन्यास में कहीं पढ़ने को मिलता है कि भारत-पाक विभाजन के दौरान पंजाब के मलेरकोटला शहर में ना कोई दंगा हुआ था और ना ही कोई मुसलमान पाकिस्तान की तरफ़ पलायन कर गया था। तो कहीं मलेरकोटला के 'हाय का नारा' गुरुद्वारे के बारे में पता चलता है कि उसका नामकरण मलेरकोटला के नवाब शेर मोहम्मद के नाम पर हुआ है क्योंकि गुरु गोविंद जी के बच्चों को शहीद करने के लिए उसी ने मुग़ल सल्तनत के विरुद्ध बच्चों के हक़ में आवाज़ उठाई थी। 

बेहतरीन अनुवाद और बढ़िया से प्रूफ़रीडिंग होने के बावजूद मुझे दो-चार जगहों पर कुछ कमियाँ भी दिखाई दीं। एक बड़े उपन्यास में इस तरह की छिटपुट ग़लतियाँ रह जाना आम बात है।

पेज नंबर 21 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसके अंदर संशय जाग उठा था कि कई बार एक बार बिछड़े लोगों से दोबारा मेल-मुलाकात होती ही नहीं'

यहाँ 'कई बार एक बार बिछड़े लोगों से दोबारा मेल-मुलाकात होती ही नहीं' की जगह 'कई बार बिछड़े लोगों से दोबारा मेल-मुलाकात होती ही नहीं' आएगा। 

पेज नंबर 43 में लिखा दिखाई दिया कि..

'आसमानी रंग की उसने कार उनके पास साल भर रही थी'

यहाँ 'उसने कार' की जगह 'ऊनो कार' आएगा। 

पेज नंबर 105 में लिखा दिखाई दिया कि..

'मुसलमान डोगरे उसको अपना समझते थे, पर वे खुलकर उसके साथ नहीं खड़ा होते थे'

यहाँ 'उसके साथ नहीं खड़ा होते थे' की जगह 'उसके साथ नहीं खड़े होते थे' आना चाहिए। 

पेज नंबर 262 में लिखा दिखाई दिया कि..

'वे दोनों चुपचाप बैठे व्हिस्की शिप करते रहे थे''

यहाँ 'व्हिस्की शिप करते रहे थे' की जगह 'व्हिस्की सिप करते रहे थे' आएगा। 

पेज नंबर 264 में लिखा दिखाई दिया कि..

'जंगल के वृक्षों के पत्तों उनके नीचे उड़ रहे थे'

यहाँ 'वृक्षों के पत्तों उनके नीचे उड़ रहे थे' की जगह 
'वृक्षों के पत्ते उनके नीचे उड़ रहे थे' आएगा। 

पेज नंबर 267 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'बच्चों का पालन-पोषण माता-पिता के बजाय पेशावर लोगों द्वारा किया जाता है'

यहाँ 'माता-पिता के बजाय पेशावर लोगों द्वारा किया जाता है' की जगह 'माता-पिता के बजाय पेशेवर लोगों द्वारा किया जाता है' आएगा। 

* लकलीफ़ - तकलीफ़
* होशियर - होशियार
* अस्टेट (फॉर्म) - अटेस्ट (फॉर्म) 
* इंग्लिस - इंग्लिश 

यूँ तो यह पठनीय उपन्यास मुझे लेखक की तरफ़ से बतौर उपहार मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस बढ़िया उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है राधाकृष्ण पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 350/- रुपए जो कि कंटैंट की दृष्टो से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

फ़रेब का सफ़र - अभिलेख द्विवेदी

आजकल के इस आपाधापी भरे युग में कामयाब होने की ख़ातिर सब आँखें मूंद बढ़े चले जा रहे हैं। ऐसे समय में ना किसी को नैतिक मूल्यों की परवाह है ना ही इसकी कोई ज़रूरत समझी जा रही है। भविष्य की चिंता छोड़ महज़ आज को अच्छे से जीने की बात हो रही है। भले ही इसके लिए साम, दाम, दण्ड, भेद में से कुछ भी..किसी भी हद तक अपनाना पड़े या इसके लिए बेशक़ हमें, हमारे अपनों के प्रति ही भीतरघात करना पड़े या फ़िर फ़रेब का सहारा लेना पड़े। असली मकसद बस यही है कि कैसे भी कर सफ़लता हाथ लगनी चाहिए। 

दोस्तों, आज मैं ऐसे ही फ़रेबी विषय पर लिखे गए एक उपन्यास 'फ़रेब का सफ़र' की बात करने जा रहा हूँ जिसे लिखा है मिर्ची एफ.एम में बतौर सीनियर कॉपी राइटर काम कर रहे अभिलेख द्विवेदी ने।

इस उपन्यास के मूल में एक तरफ़ कहानी गेमिंग और गैजेट फ्रीक, टेक एक्सपर्ट रोहित की जो अपने दोस्त रॉबी के ज़रिए एक डेटिंग एप डेवेलप करवाना चाहता है। मगर एप के अन एथिकल सैक्शन की वजह से वो उससे इनकार कर देता है। ऐसे में मोटी तनख्वाह पर एप डेवेलप करने का काम मोहित को मिलता है। उस मोहित को जिसकी वजह से उनके कॉमन दोस्त सनी का ब्रेकअप सिमरन से हुआ है। 

सनी, जिसके किसी न किसी वजह से पहले ही दो ब्रेकअप हो चुके हैं। ऐसे में रोहित अपनी डेटिंग एप आज़माने के लिए सनी को कहता है। जिस पर सनी को एक-एक कर के रिया, तान्या और सोनल नाम के तीन मैच मिलते हैं। एक साथ तीनों से डेट करने वाला सनी अंततः फ़रेब के ऐसे जाल में फँसता है कि उसके हाथ कुछ नहीं आता है। फ़रेब के इस रोचक सफ़र में अब देखना ये है कि कौन किससे और किस हद तक फ़रेब कर रहा है या फ़िर इस हमाम में सभी नंगे हैं। 

शुरुआत से अंत तक रोचकता बनाए रखने वाले इस तेज़ रफ़्तार उपन्यास में कहीं डेटिंग एप के ज़रिए मनचाहा साथी खोजने की कवायद होती नज़र आती है तो कहीं आपसी सहमति से थ्रीसम सैक्स वजूद में आता दिखाई देता है। कहीं लिवइन में आने का आग्रह होता दिखाई देता है तो कहीं लिवइन से छुटकारा पाने को मन मचलता नज़र आता है। 

कहीं पहली ही चैट में मोबाइल नंबर एक्सचेंज होते नज़र आते हैं तो कहीं को कैरियर की ख़ातिर किसी को सीढ़ी बनाता दिखाई देता है। कहीं कैरियर के मद्देनज़र दोस्ती की बलि चढ़ती दिखाई देती है। कहीं आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के ज़रिए लोगों के मन पढ़ने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं कोई सबको अपनी उँगलियों पर कठपुतली माफ़िक नचाता नज़र आता है। 

एक आध जगह वर्तनी की त्रुटि के अतिरिक्त कुछ एक जगहों पर प्रूफ़रीडिंग की छोटी-छोटी कमियाँ दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नम्बर 75 में लिखा दिखाई दिया कि..

'जब तान्या ने फ्लाइट बोर्ड की तो साथ-ही-साथ उसने   सनी को भी मैसेज कर दिया की उसने फ्लाइट बोर्ड कर ली है'

यहाँ 'मैसेज कर दिया की उसने फ्लाइट बोर्ड कर ली है' में 'की' जगह 'कि' आएगा। 

पेज नंबर 77 में लिखा दिखाई दिया कि..

'लेकिन वो भी जनता था कि वह ऐसा कुछ नहीं करने वाला'

यहाँ 'जनता' की जगह 'जानता' आएगा। 

पेज नंबर 96 में लिखा दिखाई दिया कि..

'रिया ने के स्माइल के साथ पेपर्स को लहराते हुए सनी को दिया'

यहाँ 'रिया ने के स्माइल के साथ पेपर्स को लहराते हुए सनी को दिया' की जगह 'रिया ने स्माइल के साथ पेपर्स को लहराते हुए उन्हें सनी को दिया' आएगा। 

पेज नंबर 113 में लिखा दिखाई दिया कि..

'रियाज़ ने के बारे में सारे सवाल खड़े कर दिए'

यहाँ 'रियाज़ ने के बारे में' की जगह 'रियाज़ ने रिया के बारे में' आएगा। 

इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'अब इस नंबर से मैसेज आए तो मुझे यही लगा की वह वापस आ गई है'

यहाँ 'मुझे यही लगा की' में 'की' की जगह 'कि' आएगा। 

पेज नंबर 115 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसने सनी के किसी जवाब का इंतज़ार किया'

यहाँ 'किसी जवाब का इंतज़ार किया' की जगह 'किसी जवाब का इंतज़ार नहीं किया' आएगा। 

128 पृष्ठीय इस उम्दा पैसा वसूल उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है सन्मति पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 135/- रुपये जो कि कंटैंट की दृष्टि से बिल्कुल जायज़ अलबत्ता कुछ कम ही है। कोई आश्चर्य नहीं कि जल्द ही इस उपन्यास पर आधारित कोई फ़िल्म या वेब सीरीज़ देखने को मिले। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

मोमीना - गोविन्द वर्मा सिराज

भारत पर मुग़लों ने लगभग 800 वर्ष और अँग्रेज़ों ने 200 वर्षों तक हुकूमत की। मगर मुग़लों के 800 सालों में कभी ऐसा नहीं हुआ कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच आपस में दंगे भड़क उठे हों जबकि अँग्रेज़ों ने लगातार हिंदुओं और मुसलमानों के बीच आपस में फूट डाल कर उन्हें इस कदर आपस में लड़वाया कि वे एक-दूसरे को अपनी कौम का दुश्मन समझने लगे..एक-दूसरे से नफ़रत करने लगे। 

आज़ादी के बाद अँग्रेज़ों के ही नक़्शेकदम पर चल भारतीय राजनीतिज्ञ भी हमारी आपसी फ़ूट एवं दुश्मनी को हवा दे अपना उल्लू सीधा करते रहे। दोस्तों..आज मैं हिंदू-मुस्लिम दंगों पर आधारित एक ऐसे उपन्यास कर बारे में बात करने जा रहा हूँ जिसे 'मोमीना- एक नेकदिल औरत' के नाम से लिखा है प्रसिद्ध शायर एवं लेखक गोविन्द वर्मा सिराज जी ने। 

इस उपन्यास के मूल में एक तरफ़ कहानी है एक ही शहर में रहने वाली दो क़द्दावर हस्तियों, अखिलेश त्रिपाठी और मौलाना अब्दुल बिन शीरानी की। बतौर हिंदू चेहरा, अखिलेश त्रिपाठी वर्तमान सरकार में गृहमंत्री के पद पर काबिज़ है तथा मुसलमानों के स्वयंभू मसीहा के तौर पर मौलाना अब्दुल बिन शीरानी
तैनात है। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है एक ही फैक्ट्री में काम करने वाले विशंभर और माजिद नाम के दो दोस्तों और इनकी पत्नियों, केतकी और मोमीना के बीच आपसी स्नेह एवं भाईचारे की। 

मंथर गति से चल रही इस कहानी में उबाल तब आता है जब विधायक रामसुमेर मिश्र के बेटे, गोलू की वजह से कसाई जात के डल्ला की बेटी, नन्नी गर्भवती हो जाती है और डल्ला इस बात पर अड़ जाता है कि विधायक के बेटे से उसकी बेटी का निकाह पढ़वाया जाए। जो कि विधायक, रामसुमेर मिश्र और अखिलेश त्रिपाठी के मुताबिक़ नामुमकिन है। अखिलेश त्रिपाठी और मौलाना अब्दुल बिन शीरानी के बीच चल रहे इस शह और मात के खेल में अब देखना यह है कि ऊँट किस करवट बैठता है। 

इस उपन्यास में कहीं कोई अपनी ही कौम के प्रति ग़द्दारी करता नजर आता है तो कहीं हिंदू-मुस्लिम गठजोड़ मिल कर दंगों को अंजाम देता दिखाई देता है। कहीं कोई धार्मिक उन्माद फैला दंगे करवाने का ठेका लेता दिखाई देता है तो कोई कितने विकेट उड़ाए का हिसाब-किताब लगाता नज़र आता है। 

इसी उपन्यास में कहीं धन-दौलत के बलबूते सरकार को संकट में डालने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं कोई अपने समर्थकों के दम पर उछलता दिखाई देता है। कहीं पैसे के बल पे मीडिया मैनेज किया जाता दिखाई देता है तो कहीं मदद के बहाने विपक्ष आपदा में अवसर ढूँढता दिखाई देता है। कहीं कोई बेगुनाह अपनों को दंगाइयों के हाथों मरता देख बदला लेने को खुद भी उन्हीं की राह चलता नज़र आता है तो कहीं किसी दंगाई हृदयपरिवर्तन के बाद सीधी राह चलता दिखाई देता है। 

इसी उपन्यास में कहीं एक-दूसरे की कम को सबक सिखाने के नाम पर समाज के विभिन्न तबक़े एकजुट होते नज़र आते हैं तो कहीं कोई पुलिस का जवान अफ़सर ही दंगा भड़काने के लिए अपने हथियार पेश करने और आँखें मूंद लेने की बात करता दिखाई देता है। कहीं अपने इलाकों की सुरक्षा हेतु गली मोहल्ले के लोग बिना हिंदू-मुस्लिम का भेदभाव किए, मिलकर सजगता बरतते नज़र आते हैं तो कहीं कोई हिंदू ही दंगाइयों के लिए हिंदू घरों की निशानदेही करता दिखाई देता है। 

कहीं शांति बहाली के बाद घरों से लाशें एकत्र करते आए सरकारी कर्मचारियों द्वारा शवों की बेकद्री होती दिखाई देती है तो कहीं किसी लाश के पास पराए बच्चे को बिलखते देख किसी की ममता जाग उठती है। कहीं अपहरण के ज़रिए करोड़ों की फिरौती के मंसूबे बाँधे जाते दिखाई देते हैं तो कहीं को नहले पे दहले के रूप में उसके अरमानों को मिट्टी में मिलाता नज़र आता है 

इसी उपन्यास में कहीं हिंदू-मुस्लिम मिल कर मंदिर की सुरक्षा के लिए मुस्तैद खड़े नज़र आते हैं तो कहीं कोई हथियारों के दम पर भीड़ को लूटपाट और कत्लेआम के लिए भड़काता दिखाई देता है। दंगे की चपेट में कहीं कोई निर्दोष बेवजह ही मौत के आगोश में पहुँचता नज़र आता है तो कहीं कोई अबला बलात्कार का शिकार होती दिखाई देती है।

किसी भी कहानी या उपन्यास के प्रभावी होने के लिए यह ज़रूरी होता है कि लेखक, स्वयं को भूल उस कहानी के किरदारों के ज़रिए ही कहानी को उसके अंजाम यानी कि अंत तक पहुँचाए। जबकि इस उपन्यास में बहुत सी जगहों पर लेखक स्वयं, आने वाले दृश्य के मद्देनज़र अपना नज़रिया पेश करते से लगे। 

■ पेज नम्बर 120 में लिखा दिखाई दिया कि..

'फैज़ल होंठों से "पुच्च" "पुच्च" की आवाज़ निकाल अफ़सोस ज़ाहिर करता है'

यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि "पुच्च" "पुच्च" की ध्वनी का इस्तेमाल किसी को (चूमने के समय किया जाता है जबकि यहाँ अफ़सोस प्रकट किया जा रहा है। इसलिए यहाँ इन शब्दों का प्रयोग सही नहीं है। अफ़सोस प्रकट करने के लिए सही शब्द "च्च" च्च" है। इसलिए सही वाक्य इस प्रकार बनेगा कि..

'फैज़ल होंठों से  "च्च- च्च" की आवाज़ निकाल अफ़सोस ज़ाहिर करता है'

■ पेज नंबर 157 के 29वें चैप्टर में दंगों के बाद शांति स्थापित करने के लिए सरकारी मंत्रालयों एवं एन.जी.ओ  द्वारा पीड़ितों में राहत सामग्री बाँटे जाने का काम शुरू किया गया है। इसी के अंतर्गत पेज नंबर 158 में लिखा दिखाई दिया कि..

'एक मज़े की बात और सामने आई है, एन.जी.ओ ने हिंदू इलाक़ों में जिन वॉलेंटियर्स को जिम्मेवारी दी है, उसकी देखरेख अबू फ़ज़ल के जिम्मे है और मुस्लिम हिस्सों में बांटे जाने वाली मदद की अगुवाई बैजन तोड़ा कर रहा है।'

यहाँ बतौर लेखक एवं पाठक के यह बात मुझे काबिल-ए-एतराज़ लगी कि जिन दंगों में सैंकड़ों की तादाद में बेगुनाह लोग मारे गए, उनके लिए वाक्य की शुरुआत "एक मज़े की बात और सामने आयी है" कह कर शुरू की जा रही है। यहाँ मेरे हिसाब से वाक्य की शुरुआत  "एक मज़े की बात और सामने आयी है" के बजाय अगर "बड़े दुख की बात" से शुरू होती तो ज़्यादा सही रहता।

■ पेज नंबर 165 से शुरू हुए चैप्टर नंबर 31 में बताया गया है कि किस तरह दंगों के बाद शांति के मद्देनज़र निकाली गयी प्रभात फेरी में से शीरानी और अखिलेश त्रिपाठी, अलग हो खंडहर में उस हिस्से में जा बैठते है, जिसमें भीड़ के डर से मोमीना छुपी हुई है। उन दोनों की तंजभरी आपसी बातचीत से मोमीना जान लेती है कि जिस लड़की 'नन्नी' की वजह से ये दंगा भड़क उठा था, शीरानी ने ही उसका ब्लात्कार करने के बाद उसकी लाश को इसी खंडहर में फिंकवा दिया है। उन दोनों के निकल जाने के बाद मोमीना कर उसकी छिपी हुई जगह से बाहर निकलने के प्रसंग में पेज नंबर 169 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उनके जाने के बाद मोमीना भी बाहर आकर कमर सीधी करती है। उसे अफ़सोस हो रहा है, इन लोगों की वजह से उसका यहाँ कितना वक़्त फुज़ूल में ही ज़ाया हो गया'

यहाँ मुझे ये हैरानी के साथ-साथ यह दुख की बात भी लगी कि इतने अहम राज़ के उजागर होने के बावजूद लिखा जा रहा है कि..

'मोमीना बाहर निकल कर आराम से अपनी कमर सीधी करती है और उसे, उसके वक़्त के फ़ुज़ूल जाया होने का अफ़सोस हो रहा है'

मेरे हिसाब से चैप्टर के इस हिस्से को संजीदगी भरे शब्दों में लिखा जाना चाहिए था। 

■ पेज नंबर 180 से शुरू हुए चैप्टर नंबर 34 में दंगों के बाद शहर में कर्फ़्यू लग चुका है और सत्तापक्ष एवं विपक्ष द्वारा घर-घर राहत सामग्री बाँटी जा रही है कि कर्फ़्यू की वजह से लोगबाग कहीं आ-जा नहीं सकते। इसी चैप्टर के अंतर्गत पेज नंबर 181 के शुरुआती पैराग्राफ़ में लिखा दिखाई दिया कि..

'ना जाने कर्फ़्यू कब तक चले'

आगे बढ़ने पर इसी चैप्टर की अंतिम पंक्तियों (पेज नंबर 183) में लिखा नज़र आया कि..

'तीनों मोमीना के घर की जानिब निकल पड़ते हैं'

अब यहाँ ये सवाल उठता है कि पूरे शहर में कर्फ़्यू लगा होने की वजह से जब सबका आना-जाना बंद है तो ऐसे में वे तीनों मोमीना के घर जाने के लिए कैसे निकल सकते हैं?

चैप्टर नंबर 35 में मोमीना में जब बच्चे को गोद में जब मोमीना घर से बाहर निकलती है तो उसे कुछ अनजान नौजवान मिलते हैं। उनमें से एक उसे कुछ राहत सामग्री देते हुए कहता है कि..

'लीजिये मैडम! निश्चिंत होकर घर जाईये और यह आपके बेटे के काम आयेगी'

यहाँ मेरे हिसाब से 'आपके बेटे के काम आयेगी' की जगह 'आपके बच्चे के काम आएगी' आए तो बेहतर क्योंकि उन नौजवानों को पता नहीं है कि मोमीना की गोद में जो बच्चा है, वह लड़का है अथवा लड़की।

ज़रूरी मुद्दे पर लिखे गए इस उपन्यास में वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त काफ़ी जगहों पर मुझे प्रिंटिंग मिस्टेक के रूप में मुझे कुछ एक जगहों पर शब्द आपस में जुड़े हुए दिखाई दिए। साथ ही प्रूफ़रीडिंग की काफ़ी कमियों से दोचार भी होना पड़ा। जिन्हें दूर किए जाने की आवश्यकता है।

पेज नम्बर 63 में लिखा दिखाई दिया कि..

'इंसानियत से कोसों का वास्ता नहीं'

यहाँ 'इंसानियत से कोसों का वास्ता नहीं' की जगह 'इंसानियत से कोसों दूर तक का वास्ता नहीं' आएगा। 

पेज नम्बर 65 में लिखा दिखाई दिया कि..

'मैं तो तुम्हारा नाम तक नहीं जानता और तुम हो मान ना मान मैं तेरा मेहमान'

यहाँ 'और तुम हो मान ना मान मैं तेरा मेहमान' की जगह और तुम हो कि मान ना मान मैं तेरा मेहमान' आएगा।

पेज नम्बर 115 में लिखा नज़र आया कि..

'उनके दामाद उनकी बेटी रुख़्सार का गौने की विदा कराने आये हैं और उसी ख़्वाबों ख़याल में बैठे वह  कभी मुस्करा उठते हैं, तो कभी संजीदा हो जाते हैं'

यहाँ 'उनकी बेटी का गौने की विदा कराने आये हैं  की जगह 'उनकी बेटी के गौने की विदा कराने आये हैं' आएगा तथा 'उसी ख़्वाबों ख़याल में बैठे' की जगह 'उन्हीं ख़्वाबों ख्यालों में बैठे' आना चाहिए।

इससे अगली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'उनकी ऐसे कैफ़ियत देख उनके पास बैठे शमशाद और रुख्सार मज़े ले रहे हैं'

यहाँ 'उनकी ऐसे कैफ़ियत देख' की जगह ''उनकी ऐसी कैफ़ियत देख' आएगा।

पेज नम्बर 124 में लिखा दिखाई दिया कि..

'सेंटर ने ही नहीं पड़ौस के राज्यों ने भी पी.ए.सी की बटालियनों का कुछ ही देर में शहर के इलाकों में गश्त करने का बताया जा रहा है'

यह वाक्य सही नहीं बना सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'सेंटर ने ही नहीं बल्कि पड़ोस के राज्यों ने भी पी.ए.सी की बटालियनों द्वारा कुछ ही देर में गश्त जारी करवाने का एलान कर दिया है' 
या फ़िर..

'सेंटर ने ही नहीं बल्कि पड़ोस के राज्यों ने भी पी.ए.सी की बटालियनों द्वारा कुछ ही देर में गश्त जारी करवाने के बारे में रज़ामंदी दे दी है'

पेज नम्बर 130 में लिखा दिखाई दिया कि..

'अनवर के साथ भी कुछ वैसा ही गुज़रते लम्हात ने उसे एहसास नहीं होने दिया है'

इसको अगर दो वाक्यों में इस तरह लिखा जाए तो मेरे ख्याल से ज़्यादा सही रहेगा कि..

 'अनवर के साथ भी कुछ वैसा ही हुआ है। गुज़रते लम्हात ने उसे एहसास नहीं होने दिया है'

पेज नम्बर 132 में लिखा दिखाई दिया कि..

'हिन्दू - मुसलामानों से बदला लें और मुसलमान - हिन्दुओं से, तो क्या ऐसे सारे हिसाब-किताब निबट जायेंगे...बराबर हो जाएगा इंसान' 

यहाँ 'हिन्दू - मुसलामानों से बदला लें' की जगह 'हिन्दू, मुसलामानों से बदला लें' और मुसलमान - हिन्दुओं से' की जगह 'और मुसलमान, हिन्दुओं से' आएगा तथा 'बराबर हो जाएगा इंसान' की जगह 'बराबर हो जाएगा इंसाफ़' आएगा।

इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'बच गया क्योंकि मैं कायर था'

यहाँ 'बच गया क्योंकि मैं कायर था' की जगह 'मैं बच गया क्योंकि मैं कायर था' आएगा।

यूँ तो बढ़िया क्वालिटी में छपा यह उपन्यास मुझे लेखक की तरफ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस उपन्यास के हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है हंस प्रशासन ने और इसका मूल्य रखा गया है 695/- रुपए जो कि मुझे बहुत ज़्यादा लगा। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

नई इबारत - सुधा जुगरान

जब भी मैं किसी कहानी संकलन या उपन्यास को पढ़ने का विचार बनाता हूँ तो अमूमन सबसे पहले मेरे सामने ये दुविधा उत्पन्न हो जाती है कि मैं किस किताब से अपने नए साहित्यिक सफ़र की शुरुआत करूँ? एक तरफ़ वे किताबें होती हैं जो मुझे अन्य नए/पुराने लेखकों अथवा प्रकाशकों ने बड़े स्नेह और उम्मीद से भेजी होती हैं कि मैं उन पर अपनी पाठकीय समझ के हिसाब से कोई सारगर्भित प्रतिक्रिया अथवा सुझाव दे सकूँ। तो वहीं दूसरी तरफ़ मुझे अपनी ओर वे किताबें भी खींच रही होती हैं जिन्हें मैंने अपनी समझ के अनुसार इस आस में खरीदा होता है कि मुझे उनसे मुझे कुछ ना कुछ सीखने को अवश्य मिलेगा। 


दोस्तों..आज मैं जिस कहानी संग्रह की बात करने जा रहा हूँ उसे 'नई इबारत' के नाम से लिखा है सुधा जुगरान ने। 


इस कहानी संग्रह की एक कहानी 'अनाम रिश्ता', उस सविता की व्यथा व्यक्त करती है जो अपने दो बेटों, निक्की और सुहेल को किसी न किसी वजह से खो चुकी है। निक्की को अपने पहले पति अनुपम की अकाल मृत्यु के बाद, अपने दूसरा विवाह करने के निर्णय से और अश्विनी से उत्पन्न, सुहेल को एक बस एक्सीडेंट की वजह से। ऐसे में अपने बच्चों के वियोग में तड़पती सविता की बरसों बाद मुलाक़ात निक्की से होती तो है मगर..


इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'अपना-अपना नज़रिया' में लेखिका हाउसवाइफ भाभी और कामकाजी ननद के आपसी रिश्ते के ज़रिए इस बात को समझाने का प्रयास करती दिखाई देती हैं कि अपने-अपने कार्यक्षेत्र में किसी की किसी से कोई तुलना नहीं की जा सकती। घरेलू कामकाज के ज़रिए घर संभालना और बाहर जा कर जीविका अर्जित करने जैसे कामों का एक जैसा ही महत्व है। इनमें से कोई भी किसी से कमतर नहीं है। इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'अपना घर' में अमीर घर द्वारा गोद ली गयी स्मृति अपने असली माता-पिता के बारे में जानने..समझने के लिए बेचैन है कि उन्होंने उसे पैदा कर के उससे किनारा क्यों कर लिया। गोद लेने वाले माता-पिता से जब उसे उनके बारे में पता चलता है तो वह उनसे मिलने और उनके साथ रहने के लिए उतावली हो उठती है।


इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'आशियाना' में अपनी पत्नी, रूमा के निधन के बाद अकेले रह गए 62 वर्षीय योगेश, अपना समय व्यतीत करने के अपने नौकर के बच्चों को पढ़ाना शुरू तो करते हैं मगर बेटे-बहू की ज़िद पर उन्हें मुंबई, उनके पास रहने के लिए जाना पड़ता है। अब देखना ये है कि बड़े शहर की आबोहवा रास आती है या नहीं। इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'एक साथी की तलाश' में दो दिन पहले रिटायर हुए मधुप उस वक्त परेशान हो जाते हैं जब बरसों से उनकी सेवा कर रहा बिस्वा हमेशा-हमेशा के लिए अपने गाँव जाने की बात करता है। अब देखना यह है कि अपने अहम की वजह से बरसों से अपनी पत्नी श्यामला से अलग रह रहे मधुप क्या अपनी ग़लती महसूस कर अपनी पत्नी के पास वापिस लौट पाएँगे या नहीं।


इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'ख़ामोश कोलाहल' में प्रेम विवाह के बावजूद तन्वी और देवांश के रिश्ते में विवाह के तीन वर्षों के भीतर ही अजनबियत भरा सूनापन अपने पैर पसार चुका है। जिसे दूर करने के लिए दोनों के परिवार मिल कर कुछ ऐसा करते हैं कि उनका आपसी रिश्ता फ़िर से पटरी पर लौट आता है। एक अन्य कहानी 'तार-तार रिश्ते' में 

13 वर्षीय संधू और उसका छोटा भाई बंटी उस वक्त खुशी के मारे पुलकित हो उठते हैं जब उन्हें पता चला है कि उनका 20 वर्षीय मामा सोनू, शहर में पढ़ाई के इरादे से उनके घर रहने के लिए आ रहा है। मगर देखना यह है कि दिन पर दिन समझदार होती संधू की वक्ती खुशी बरक़रार रह पाती है अथवा नहीं। 


एक अन्य कहानी 'दूर के दर्शन का सुख' में जहाँ 10वीं पास करने के बाद ग़रीब घर का बसंत अपने परिवार का सहारा बनने के इरादे से एक जानकार की मदद से दुबई में नौकरी करने चला जाता है। मगर अब देखना यह है कि घर-परिवार की ज़िम्मेदारी निबटाने के बाद भी वह वापिस घर लौट कर आता है या फ़िर वहीं का हो कर रह जाता है। तो वहीं एक अन्य कहानी 'नई इबारत' एक तरह से स्त्री अधिकारों की पैरवी सी करती हुई प्रतीत होती है। जिसमें घरेलू कामकाज के लिए लेखिका के घर सर्वेंट क्वाटर में रंजना नाम की एक पहाड़ी लड़की अपने तीन बच्चों के साथ रहने के लिए आती है। जिसे उसके पति ने एक तरह से छोड़ रखा है। उसके संघर्ष की कहानी सुनकर लेखिका मन ही मन अपनी बेटी से उसकी तुलना करने लगती है।


इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'नया दौर' में जहाँ एक तरफ़ जब निविधा अपने पति को बताती है कि उसका उपन्यास साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हो रहा है तो वह हर्षित होने के साथ-साथ अपने भीतर ग्लानि का अनुभव भी करता है कि विवाह के बाद वर्षों तक उसने अपनी पत्नी के हुनर को उभरने का मौका नहीं दिया। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी 'फ़क़त रेत' में लेखिका ने एक डायनिंग टेबल के चार पायों के माध्यम से स्त्रियों की स्थिति में पीढ़ियों के साथ आए बदलाव को बतलाने का प्रयास किया है कि किस तरह पहले की स्त्रियाँ अपने माता-पिता एवं पति की बात मान उनकी इच्छानुसार ही चला करतीं थीं। समय के साथ आए बदलाव में अगली पीढ़ी अपने मन की इच्छा का करने का प्रयास तो करती रही मगर पूर्णतया कभी सफ़ल नहीं हो पाई जबकि आज की स्त्री अपने हक़ की लड़ाई को सफलतापूर्वक लड़ने के साथ-साथ सवाल भी कर रही है। 


एक अन्य कहानी 'मन भये न दस बीस' में जहाँ 49 वर्षीय उस अविवाहित आरुषि की बात करती है जिसने कैरियर की चाह में अब तक विवाह नहीं किया है। अब उम्र के इस मुकाम पर जब वह एक साथी चाहती तो है मगर हर बार उसकी अफ़सरी की ठसक के बीच में आ जाने से कहीं भी उसकी बात नहीं बन पा रही। तो वहीं इस संकलन की अंतिम कहानी 'रिश्तों का आत्मघात' में जब शरद को उसके पिता की मृत्यु की बाद मकान के स्वामित्व को लेकर चाचा की तरफ़ से कानूनी नोटिस मिलता है वह हैरान रह जाता है कि जिस चाचा को बचपन से उसके पिता ने अपने पिता की मृत्यु के बाद पढ़ा-लिखा कर कमाने-धमाने लायक काबिल बनाया, उसी ने उस मकान पर अपने स्वामित्व के लिए नोटिस भेजा है जिसको बनाने के लिए सारा पैसा उसके पिता ने खर्च किया था। 


धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस कहानी संग्रह की कुछ कहानियाँ मुझे थोड़ी सतही या फ़िर भाषण देतीं सी भी लगीं। पढ़ते वक्त कुछ एक जगहों पर प्रूफ़रीडिंग की कमियों के अतिरिक्त कुछ वर्तनी की त्रुटियाँ भी दिखाई दीं।



पेज नंबर 13 में लिखा दिखाई दिया कि..


'उन्हें ऐसा लग रहा था... उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे वह उसे बहुत अच्छी तरह से जानते हैं'


इस वाक्य में 'उन्हें ऐसा लग रहा था' ग़लती से दो बार छप गया है। 


पेज नंबर 64 में लिखा दिखाई दिया कि..


'इतने वर्षों बाद अकेले घर में उनका दिल श्यामला की उपस्थिति में अजीब से कुतूहल से धड़क रहा था'


यहाँ 'कौतूहल' की जगह ग़लती से 'कुतूहल' छप गया है। 


पेज नंबर 68 पर लिखा दिखाई दिया कि..


'दोनों अब पाँच साल के रिश्ते को नाम देने का शिद्दत से सोचने की कोशिश कर रहे थे पर सोच पुख़्ता नहीं हो पा रही थी'


यह वाक्य सही नहीं बना। मेरे हिसाब से सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..


'दोनों अब पाँच साल के रिश्ते को नाम देने के बारे में शिद्दत से सोचने की कोशिश कर रहे थे पर सोच पुख़्ता नहीं हो पा रही थी'


पेज नंबर 69 में लिखा दिखाई दिया कि..


'वह कुछ-कुछ छिड़ता हुआ बोला'


यहाँ 'छिड़ता हुआ बोला' की जगह 'छेड़ता हुआ बोला' आएगा। 


पेज नंबर 87 में लिखा दिखाई दिया कि..


'पहली बार बसंत के तयेरे भाई मातवर ने यह जानकारी बसंत को दी थी'


इस वाक्य में ग़लती से शायद 'चचेरे भाई' की जगह 'तयेरे भाई' छप गया है क्योंकि 'तयेरे भाई' जैसा शब्द कभी मेरे पढ़ने में नहीं आया। 


इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..


'वहाँ यहाँ कि तरह छोटे-मोटे ढाबे नहीं होते'


यहाँ 'कि' की जगह 'की' आएगा। 


पेज नंबर 89 में लिखा दिखाई दिया कि..


'दुबई का ऐसा नशा चढ़ा था बसंत को कि ख़्वाबों में भी ख़्याली दुबई ही दिखता'


यहाँ 'ख़्याली दुबई ही दिखता' की जगह 'ख़ाली दुबई ही दिखता' आए तो बेहतर।


इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..


'बस आने के कुछ दिन मातवर भाई ने थोड़ा बहुत घुमा दिया था ख़ास-ख़ास जगह'


यह वाक्य मेरे हिसाब से सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..


'बस आने के कुछ दिनों बाद तक मातवर भाई ने थोड़ा बहुत घुमा दिया था ख़ास-ख़ास जगहों पर' 


इससे अगली पंक्ति मुझे सही से समझ नहीं आयी कि उसमें लिखा था कि..


'इस चमकती सुविधा-संपन्न दुबई में साधनहीन भला सामने कहाँ दिखेगा'


पेज नंबर 90 में लिखा दिखाई दिया कि..


'दो साल बाद बसंत का 10वीं पूरा हुआ'


यहाँ 'बसंत का 10वीं पूरा हुआ' की जगह 'बसंत की 10वीं पूरी हुई' आएगा।


इससे अगली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..


'उसके आसपास के जानने में कई लड़के बहरीन, क़तर वगैरह खाड़ी के कई दूसरे देशों में कुक, ड्राइवर, क्लीनर आदि की नौकरी के लिए गए हुए थे'


इस वाक्य में 'उसके आसपास के जानने में कई लड़के' की जगह 'उसके आसपास के जानने वालों में कई लड़के' आएगा। 


पेज नंबर 91 में लिखा दिखाई दिया कि..

'जब वह दुबई पहुँचा तो कुछ ही दिनों में उसकी नौकरी एक मॉल के 'कैरफ़ोर' में लग गई'


यहाँ 'उसकी नौकरी एक मॉल के 'कैरफ़ोर' में लग गई' की जगह 'उसकी नौकरी एक मॉल, 'कैरफ़ोर' (कैरिफोर) में लग गई' आएगा।


पेज नंबर 101 में लिखा दिखाई दिया कि..


'और गाहे-बगाहे रंजना के ननद का पति भी'


यहाँ 'रंजना के ननद का पति भी' की जगह 'रंजना की ननद का पति भी' आएगा। 


पेज नंबर 104 में लिखा दिखाई दिया कि..


'एक नाबालिग़ से बयान ने उसे इतने वर्षों का वनवास दे दिया'


यहाँ 'एक नाबालिग़ से बयान ने' की जगह 'एक नाबालिग़ के बयान ने' आएगा। 


पेज नंबर 105 में लिखा दिखाई दिया कि..


'लेकिन इसके तबके की बात यदि छोड़ दी जाए तो'


यहाँ 'लेकिन इसके तबके की बात यदि छोड़ दी जाए तो' की जगह ''लेकिन इस तबके की बात यदि छोड़ दी जाए तो' आएगा। 


पेज नंबर 108 में लिखा दिखाई दिया कि..


'35 की हो गई अनाया को माँ भी नहीं बनना है अभी भी'


यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि 


'35 की हो गई अनाया को माँ नहीं बनना है अभी'


पेज नंबर 116 का दिखाई दिया कि..


'उसके हाथ तो खज़ाने का नक्शा हाथ लग गया था'


इस वाक्य में दूसरी बार आए 'हाथ' शब्द की ज़रूरत ही नहीं है।


पेज नंबर 122 में लिखा दिखाई दिया कि..


'आज की लड़की माँ ही नहीं बनना चाहती... यह काफी सोचनीय प्रसंग है'


यहाँ 'सोचनीय प्रसंग है' की जगह 'शोचनीय प्रसंग है' आएगा। 


पेज नंबर 132 में लिखा दिखाई दिया कि..


'यह एक नई प्रकार के असंतुलन को जन्म दे रहा है'


यहाँ 'नई प्रकार के असंतुलन को जन्म दे रहा है' की जगह 'नए प्रकार के असंतुलन को जन्म दे रहा है' आएगा।


पेज नंबर 132 में आगे लिखा दिखाई दिया कि..


'स्त्रियों से उनकी मनसा नहीं पूछी जाती थी'


यहाँ 'मनसा नहीं पूछी जाती थी' की जगह 'मंशा नहीं पूछी जाती थी' आएगा। 


* रोब (जमाना) - रौब (जमाना) 

* कुतूहल - कौतूहल

* कोराना काल - कोरोना काल

* अज़माया - आज़माया


अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 157 पृष्ठीय इस बढ़िया कहानी संग्रह के पेपरबैक संस्करण को छपा है अद्विक प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 240/- रुपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।



 
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