मुंबई नाइट्स - संजीव पालीवाल
थ्रिलर, मिस्ट्री और क्राइम बेस्ड फ़िल्मों, कहानियों एवं उपन्यासों का मैं शुरू से ही दीवाना रहा। एक तरफ़ ज्वैल थीफ़, गुमनाम, विक्टोरिया नम्बर 203 या फ़िर ऑक्टोपुसी जैसी देसी एवं विदेशी फ़िल्मों ने मन को लुभाया तो दूसरी तरफ़ वेद प्रकाश शर्मा के थ्रिलर उपन्यासों के रोमांच ने मुझे कहीं किसी और दिशा में फटकने न दिया।
बरसों बाद जब फ़िर से पढ़ना शुरू हुआ तो थ्रिलर उपन्यासों के बेताज बादशाह सुरेन्द्र मोहन पाठक की लेखनी ने इस हद तक मोहित किया कि मैं पिछले लगभग 4 सालों में उनके लिखे 225 से
ज़्यादा उपन्यास पढ़ चुका हूँ और निरंतर उनका लिखा बिना किसी नागे के पढ़ रहा हूँ।
दोस्तों... आज थ्रिलर फ़िल्मों और कहानियों की बातें इसलिए कि आज मैं यहाँ इसी तरह के विषय से संबंधित एक ऐसे उपन्यास का जिक्र करने जा रहा हूँ,
जिसे 'मुंबई नाइट्स' के नाम से लिखा है संजीव पालीवाल ने। संजीव पालीवाल अब तक तीन हिट उपन्यास लिख चुके हैं। जिनमें से पहले दो उपन्यास थ्रिलर बेस्ड और एक उपन्यास प्रेम कहानी के रूप में है।
मुंबई फ़िल्मनगरी की रंगीन दुनिया के काले सच को उजागर करती इस तेज़ रफ़्तार कहानी में एक तरफ़ बड़े फ़िल्म स्टार रोहित शंकर सिंह द्वारा ख़ुदकुशी किए जाने के केस की जाँच को लेकर कॉलेज में पढ़ने वाली एक ग़रीब मगर खूबसूरत लड़की दिल्ली के अय्याश तबियत जासूस विशाल सारस्वत की सेवाएँ हायर करती है। तो दूसरी तरफ़ शक के घेरे में आयी रोहित की प्रेमिका अनामिका त्रिपाठी भी इसी केस की निष्पक्ष जाँच के लिए, कभी विशाल सारस्वत की माशूका रह चुकी, मुंबई की जासूस अमीना शेख़ को नियुक्त करती है।
आपसी मतभेदों के बावजूद ये दोनों इस केस पर एकसाथ काम करने के लिए तैयार होते हैं और संयुक्त रूप से की गई इनकी जाँच के दौरान शक के छींटे जब फ़िल्म एवं राजनीति से जुड़ी कुछ ताकतवर हस्तियों पर पड़ते हैं तो एक के बाद एक सिलसिलेवार हत्याएँ एवं जानलेवा हमले होते चले जाते हैं। अब देखना यह है कि हत्याओं के इस जानलेवा सिलसिले के बीच अंततः वे मुजरिम को उसके अंजाम तक पहुँचा पाते हैं या नहीं।
इस उपन्यास में कहीं कास्टिंग एजेंसीज़ के बाहर रोज़ाना फिल्मों में नाम कमाने के इच्छुक सैंकड़ों लड़के-लड़कियों की लाइन लगने की बात होती नज़र आती है तो कहीं कास्टिंग डायरेक्टर को पटा फिल्में हथियाने की कवायद में खूबसूरत लड़कियाँ मोहरा बन यहाँ-वहाँ दिखाई देती हैं। कहीं हीरोइन बनने की चाह में मुंबई में आई खूबसूरत नवयुवतियां काम न मिलने पर स्वेच्छा अथवा मजबूरी में अपनी देह बेचती दिखाई पड़ती हैं।
इसी उपन्यास में कहीं एशिया की सबसे बड़ी स्लम बस्ती 'धारावी' के निर्माण के बारे में पता चलता है कि 1895 में पहले पहल अँग्रेज़ सरकार द्वारा ये ज़मीन चमड़े का काम करने वाले मुस्लिम और नीची जाति के लोगों को 99 साल की लीज़ पर दी गयी थी।
इसी उपन्यास में कहीं किसी ग़रीब को धोखे में रख उसके नाम पर ऐसा गैरकानूनी धंधा चलता दिखाई देता है जिसके बारे में उसे रत्ती भर भी पता नहीं होता है। तो कहीं नारियल के पेड़ लगाने के नाम पर हासिल की गई सस्ती ज़मीन पर सरकारी मिलीभगत एवं राजनैतिक हस्तक्षेप के ज़रिए करोड़ों की कीमत वाला आलीशान नाइट क्लब चलता दिखाई देता है। कहीं लेखक अपने किरदारों के ज़रिए फिलॉसफ़िकल चिंतन करते नज़र आते हैं तो कहीं ऑर्गी सैक्स (सामूहिक सैक्स) जैसी विकृत मानसिकता से अपने पाठकों को रु-ब-रु करवाते दिखाई पड़ते हैं।
कहीं इस क्राइम थ्रिलर में राजनीति का पदार्पण होता नज़र आता है तो कहीं राजनीति और पुलिस के गठजोड़ का घिनौना चेहरा उजागर होता दिखाई देता है। कहीं पुत्रमोह में पड़ कर राज्य की गृहमंत्री अपने अय्याश बेटे के काले कारनामों पर अपनी आँखें मूँदती हुई नज़र आती है तो कहीं गठबंधन की राजनीति में होने वाली दिक्कतों की बात होती दिखाई देती है।
कहीं फर्ज़ी एनकाउंटर के केस में सज़ा से बचने के लिए कोई बड़ा अफ़सर गृहमंत्री और उसके बेटे की जी-हजूरी भरी चाकरी करता दिखाई पड़ता है। तो कहीं तफ़्तीश के नाम पर स्वयं पुलिसवाले ही सबूत नष्ट, ग़ायब अथवा फर्ज़ी सबूत गढ़ते दृष्टिगोचर होते हैं। कहीं बड़े ब्यूरोक्रेट्स से लेकर नेता, सांसद और धनाढ्य वर्ग के तथाकथित नामी गिरामी शरीफ़ लोग अपनी अय्याशियों के लिए मुंबई नाइट्स जैसी आलीशान और भव्य जगह का धड़ल्ले से बेहिचक इस्तेमाल करते दिखाई देते हैं। तो कहीं हिडन एवं स्पाई कैमरे के ज़रिए ब्लैकमेल का खेल जाता नज़र आता है।
■ पेज नंबर 149 में लिखा दिखाई दिया कि..
'इसकी वजह शायद यह भी थी कि विशाल भी वैसे हालातों से दो चार हो चुका था'
इसके बाद पेज नंबर 151 में लिखा दिखाई दिया कि..
'इन हालातों में पुलिस को चिंता हुई बेटे की'
और आगे बढ़ने पर पेज नंबर 156 में लिखा दिखाई दिया कि..
'जब अदालत उसे पिछले केस में असली नाम पर सजा ना सुन सकी, तो कुणाल वाधवा का अब के हालातों में जहां सबूत भी हमारे पक्ष में नहीं हैं, क्या कर सकती है'
यहाँ यह बात ग़ौरतलब है कि इन तीनों उदाहरणों में एक कॉमन शब्द 'हालातों' का इस्तेमाल किया गया है जबकि असलियत में ऐसा कोई शब्द होता ही नहीं है। 'हालत' शब्द का बहुवचन 'हालात' शब्द होता है। इसलिए इन तीनों जगहों पर 'हालातों' की जगह 'हालात' आना चाहिए।
■ धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस रोचक उपन्यास में पढ़ते वक्त कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की कमियाँ एवं वर्तनी की त्रुटियाँ भी देखने को मिलीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 16 में लिखा दिखाई दिया कि..
'मुझे यही जानना है कि किस हालात में उसने यह फैसला किया'
यहाँ 'किस हालात में' की जगह 'किन हालात में' आना चाहिए।
पेज नंबर 20 में लिखा दिखाई दिया कि..
'मेरे आने के बाद एक हफ्ते में आखिर ऐसा क्या हुआ जो वह फांसी के फंदे पर झूल गया'
कहानी के हिसाब से यहाँ 'मेरे आने के बाद एक हफ्ते में' की जगह 'मेरे जाने के बाद एक हफ्ते में' आना चाहिए।
पेज नंबर 62 में लिखा दिखाई दिया कि..
'अमीना ने रुख किया आराम नगर का। वर्सोवा का आराम नगर एक ऐसा इलाका जहां गली-गली में एक्टर रहते हैं। यहां हर रोज कास्टिंग एजेंसी के बाहर लाइन लगी रहती है। यहां दिन भर एक्टर बनने की ख्वाहिश लिए लड़के और लड़कियां एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे पर सिर्फ यह जानने के लिए भटकते रहते हैं कि वहां ऑडिशन हो रहा है क्या।'
इससे अगले पेज यानी कि पेज नंबर 63 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'आराम नगर की गलियों में सिल्वर कास्टिंग एजेंसी का ऑफिस खोजने में ज्यादा देर नहीं लगी। पिछले 10 सालों में यहां कास्टिंग एजेंसियों की संख्या काफी बढ़ गई है'
इन दो पैराग्राफ़स को पढ़ कर पता चलता है कि वर्सोवा के आराम नगर इलाके में कास्टिंग एजेंसियों के काफ़ी दफ़्तर खुले हुए हैं जबकि पहले पैराग्राफ के शुरू में बताया गया है कि वर्सोवा के आराम नगर इलाके की गली-गली में एक्टर रहते हैं। कायदे से यहाँ एक्टरों के रहने की बजाय कास्टिंग एजेंसियों के दफ़्तरों के होने की ही बात आनी चाहिए थी।
पेज नंबर 81 में दिखा दिखाई दिया कि..
'कहां से चले थे कहा आ गये'
यहाँ 'कहा आ गये' की जगह 'कहां आ गये' आएगा।
पेज नंबर 83 में लिखा दिखाई दिया कि..
'विशाल ने देखा कि कुणाल वाधवा एक कोने कुछ लोगों के साथ खड़ा है'
यहाँ 'एक कोने कुछ लोगों के साथ खड़ा है' की जगह 'एक कोने में कुछ लोगों के साथ खड़ा है' आएगा।
पेज नंबर 94 में लिखा दिखाई दिया कि..
'लेकिन मनीष मेहरा तो पिछले वीकेंड तो वह नहीं गया था'
यहाँ 'मनीष मेहरा तो पिछले वीकेंड तो वह नहीं गया था' की जगह 'मनीष मेहरा तो पिछले वीकेंड में नहीं गया था' आएगा।
पेज नंबर 115 में लिखा दिखाई दिया कि..
'वह यह जानते हैं कि तुम्हारा और रोहित शेखर का झगड़ा हुआ था'
यहाँ पहले शब्द 'वह' के ज़रिए विशाल और अमीना की बात हो रही है जो कि एक नहीं बल्कि दो अलग-अलग शख़्सियत हैं। इसलिए यहाँ उनके लिए 'वह' शब्द का नहीं बल्कि 'वे' शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
'वे यह जानते हैं कि तुम्हारा और रोहित शेखर का झगड़ा हुआ था'
पेज नंबर 126 में लिखा दिखाई दिया कि..
'लड़की देखने में एकदम बच्ची जैसी ही होगा'
यहाँ 'बच्ची जैसी ही होगा' की जगह 'बच्ची जैसी ही होगी' आएगा।
पेज नंबर 149 में लिखा दिखाई दिया कि..
'सेना में रहने के दौरान अपने भी तो कई ऑपरेशन में भाग लिया होगा'
यहाँ 'कई ऑपरेशन में भाग लिया होगा' की जगह 'कई ऑपरेशनों में भाग लिया होगा' आएगा।
इसी पेज पर और आगे दिखा दिखाई दिया कि..
'हर हत्या अपना दाग छोड़ती है, और थोड़ा सा जीवन अपने साथ ले जाती है। भले ही जिसकी हत्या हुई है वह शख्स क्यों ना आपकी ही जान लेने की कोशिश में आत्मरक्षा में मारा गया हो'
इन वाक्यों में दूसरा वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य कुछ इस तरह का होना चाहिए कि..
'भले ही आपकी जान लेने की कोशिश करने वाला कोई शख़्स आपके द्वारा किए गए अपनी आत्मरक्षा के प्रयासों के तहत स्वयं मारा गया हो'
पेज नंबर 155 में लिखा दिखाई दिया कि..
'अमीना ने सिर से अपने हाथ हटाया'
यहाँ 'अमीना ने सिर से अपने हाथ हटाया' की जगह
'अमीना ने अपने सिर से हाथ हटाया' या फ़िर 'अमीना ने सिर से अपना हाथ हटाया' आए तो बेहतर।
पेज नंबर 170 में लिखा दिखाई दिया कि..
'विशाल ने आगे बढ़कर देखा तो वहा एक छोटा सा कमरा बना हुआ है'
यहाँ 'वहा' की जगह 'वहां' आएगा।
पेज नंबर 186 में लिखा दिखाई दिया कि..
'ये लिस्ट है उन सारे एंडोर्समेंट की यानी विज्ञापन की जो रोहित शेखर सिंह ने किए हैं'
यहाँ चूंकि विज्ञापन एक से ज़्यादा हैं, इसलिए यहाँ 'एंडोर्समेंट' की जगह 'एंडोर्समेंट्स' और 'विज्ञापन' की जगह 'विज्ञापनों' आएगा।
पेज नंबर 190 में लिखा दिखाई दिया कि..
'एक बार भी उसे ये पता नहीं चला की अपहरण करने वाले क्या चाहते हैं'
यहाँ 'पता नहीं चला की' में 'की' शब्द की जगह 'कि'
आएगा।
पेज नंबर 194 में लिखा दिखाई दिया कि..
'कई फैसले ऐसे होते हैं जिसके नतीजे में हम दुनिया का संवारना और बिखरना एक साथ देखते हैं'
यहाँ चूंकि एक से अधिक फ़ैसलों की बात हो रही है, उसलिए यहाँ 'जिसके नतीजे में हम दुनिया का संवारना और बिखरना एक साथ देखते हैं' की जगह 'जिनके नतीजे में हम दुनिया का संवारना और बिखरना एक साथ देखते हैं' आएगा।
• बामारी - बीमारी
• जनम - जन्म
• सक्रिप्ट - स्क्रिप्ट
• प्राइवेसी ब्रिच - प्राइवेसी ब्रीच
• कहा - कहाँ
• नीचि - नीची
• कव्वालिटी - क्वालिटी
• मारजिन - मार्जिन
• पहुंतने - पहुँचने/पहुंचने
• तव्वजुह - तवज्जो
• आई एस सॉरी - आई एम सॉरी
• लिखायी - लिखाई
• वहा - वहाँ/वहां
• बहशीपन - वहशीपन
• बैगर - बग़ैर
बढ़िया क्वालिटी में छपे इस 200 पृष्ठीय तेज़ रफ़्तार रोचक उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है सर्व भाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली ने और इसका मूल्य रखा गया है 299/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
काग़ज़ के फूल - संजीव गंगवार
कथाओं का आँगन - पूजा मणि
ये इश्क़ नहीं आसां - संजीव पालीवाल
लगभग 3 साल पहले कॉलेज के मित्रों के साथ जोधपुर और जैसलमेर घूमने के लिए जाने का प्रोग्राम बना। जहाँ अन्य दर्शनीय स्थानों के साथ-साथ जैसलमेर के शापित कहे जाने वाले गाँव कुलधरा को भो देखने का मौका मिला। लोक कथाओं एवं मान्यताओं के अनुसार जैसलमेर में कुलधरा नाम का एक पालीवाल ब्राह्मणों का गाँव था जो राजस्थान के पाली क्षेत्र से वहाँ आ कर बसे थे। उन्होंने कुलधरा समेत 84 गांवों का निर्माण किया था। कहा जाता है कि 19वीं शताब्दी में घटती पानी की आपूर्ति के कारण यह पूरा गाँव नष्ट हो गया।
एक अन्य मान्यता यह भी है कि जैसलमेर के अय्याश एवं अत्याचारी दीवान सालम सिंह द्वारा उन्हें इस हद तक पर शोषित, प्रताड़ित एवं अपमानित किया गया कि उससे तंग आ कर एक रात संयुक्त पंचायत के बाद सभी 84 गांवों के बाशिंदे अचानक अपना सब कुछ वहीं छोड़, गाँव खाली कर के चले गए। किवंदंतियों के अनुसार कि उस गांव में छोड़ी गई दौलत पर जिस किसी ने अपना हाथ साफ़ किया, वो बरबाद हो गया। तब से यह गाँव शापित कहलाता है।
दोस्तों..आज कुलधरा के इस शापित कहे जाने वाले गाँव की बात इसलिए कि आज मैं यहाँ जिस उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ, उसे इसी कहानी को केंद्र में रख कर एक प्रेम कहानी के रूप में लिखा है लेखक संजीव पालीवाल ने। इससे पहले वे दो थ्रिलर उपन्यास लिख चुके हैं।
इस उपन्यास के मूल में कहानी है एक कहानीकार/यूट्यूबर अमन और जैसलमेर के एक होटल की मालकिन अनन्या के बीच पनप रही प्रेम की। तो दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है अमन की नाराज़गी झेल रहे उस व्यवसायी पिता राज सिंह चौधरी की, जिसकी कंस्ट्रक्शन कम्पनी जल्द ही अपना आईपीओ लाने वाली है और इससे संबंधित ज़रूरी कागज़ात पर उन्हें अपने बेटे के हस्ताक्षर चाहिए। मगर उनके लाख चाहने के बावजूद भी उनसे अलग रह रहा अमन उनके पास लौट कर आने को राज़ी नहीं है कि वह अपनी बीमार माँ की मौत का ज़िम्मेवार अपने पिता को मानता है।
साथ ही इस उपन्यास में कहानी है बैंक से लोन के रूप में बड़ी रकम उधार ले चुकी उस मजबूर अनन्या की जो इस वक्त 'करो या मरो' की परिस्थिति में इस हद तक फँस चुकी है कि लोन चुकता ना कर पाने की स्थिति में बैंक द्वारा उसका होटल कुर्क कर लिया जाएगा।
इस उपन्यास में लेखक कहीं जैसलमेर के किले के वैभवशाली इतिहास से अपने पाठकों को रूबरू करवाते नज़र आते हैं तो कहीं उनके शब्दों के ज़रिए जैसलमेर के महल से सूर्योदय के नज़ारे का आनंद साक्षात प्रकट होता दिखाई देता है। कहीं जैसलमेर के किले को लाइव फोर्ट का दर्ज़ा दिया जाता दिखाई देता है कि इस किले बारहवीं शताब्दी से लगातार लोग रहते आ रहे हैं तो कहीं महल के सुरक्षा प्रबंधों से पाठकों को अवगत कराया जाता नज़र आता है।
इसी उपन्यास में कहीं जैसलमेर के शापित गाँव कुलधरा सहित पालीवालों के सभी 84 गाँवों के इतिहास के बारे में जानने का मौका मिलता है तो कहीं
पोखरण के नज़दीक भादरिया राय माता मंदिर में बनी एशिया की सबसे बड़ी भूमिगत लाइब्रेरी से लेखक अपने पाठकों का परिचय करवाते नज़र आते हैं। कहीं जैसलमेर के किले में स्थित उस सात मंज़िले शीशमहल की बात होती दिखाई देती है जिसकी उपरली दो मंज़िलों को तोड़ने का आदेश जैसलमेर के महाराजा ने इस वजह से दिया था कि उसकी ऊँचाई उनके किले से भी ज़्यादा हो गयी थी।
इसी उपन्यास में कहीं हमारे देश में पालीवालों द्वारा व्यर्थ बह जाने वाले बरसाती पानी को बचा कर रखने की मुहिम के रूप में पहले पहल रेन हार्वेस्टिंग शुरू किए जाने की बात का पता चलता है तो कहीं ठाकुर जी के उस ऐतिहासिक मंदिर के बारे में पढ़ने को मिलता है जहाँ पर सालिम सिंह के अत्याचारों से आहत पालीवालों की आख़िरी पंचायत हुई थी। जिसके बाद 84 गाँवों के पालीवालों ने एक साथ सारा इलाका छोड़ दिया था।
सीधी-साथी इस प्रेम कहानी में दर्ज कुलधरा गाँव और पालीवालों के इतिहास को अगर उस समय के घटनाक्रम एवं किरदारों के द्वारा स्वयं अपने शब्दों में फ्लैशबैक के ज़रिए बयां किया जाता तो उपन्यास और ज़्यादा प्रभावी एवं दमदार बनता।
बेहद सावधानी के साथ की गयी प्रूफरीडिंग के बावजूद भी इस उपन्यास में मुझे कुछ कमियाँ दिखीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 12 में लिखा दिखाई दिया कि..
'अमन का मन कर था कि इससे बात करता रहे'
यहाँ ''अमन का मन कर था कि' की जगह 'अमन का मन कर रहा था कि' आएगा।
पेज नंबर 42 में लिखा दिखाई दिया कि..
'जैसे पूरी कायनात को समटे लेना चाहती हो अपनी आगोश में'
यहाँ 'समटे लेना चाहती हो' की जगह 'समेट लेना चाहती हो' आएगा तथा 'अपनी आगोश में' में की जगह 'अपने आग़ोश में' आए तो बेहतर।
इसके बाद पेज नम्बर 65 में लिखा दिखाई दिया कि..
'क्या आपको पता है कि हम लोग, यानी पालीवाल रक्षाबंधन का त्योहार क्यों नहीं मानते'
यहाँ 'त्योहार क्यों नहीं मानते' की जगह 'त्योहार क्यों नहीं मनाते' आएगा।
पेज नम्बर 100 में लिखा दिखाई दिया कि..
'ज़िन्दगी को दखने के दो ही नज़रिये हैं'
यहाँ 'दखने' की जगह 'देखने' आएगा।
पेज नंबर 141 में दिखा दिखाई दिया कि..
'पूछो भी तो कई जवाब नहीं मिलता था'
यहाँ 'कई जवाब' की जगह 'कोई जवाब' आएगा।
170 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है eka ने और इसका मूल्य रखा गया है 170/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
ख़्वाबगाह - सूरज प्रकाश
अम्बर परियाँ - बलजिन्दर नसराली
फ़रेब का सफ़र - अभिलेख द्विवेदी
मोमीना - गोविन्द वर्मा सिराज
नई इबारत - सुधा जुगरान
जब भी मैं किसी कहानी संकलन या उपन्यास को पढ़ने का विचार बनाता हूँ तो अमूमन सबसे पहले मेरे सामने ये दुविधा उत्पन्न हो जाती है कि मैं किस किताब से अपने नए साहित्यिक सफ़र की शुरुआत करूँ? एक तरफ़ वे किताबें होती हैं जो मुझे अन्य नए/पुराने लेखकों अथवा प्रकाशकों ने बड़े स्नेह और उम्मीद से भेजी होती हैं कि मैं उन पर अपनी पाठकीय समझ के हिसाब से कोई सारगर्भित प्रतिक्रिया अथवा सुझाव दे सकूँ। तो वहीं दूसरी तरफ़ मुझे अपनी ओर वे किताबें भी खींच रही होती हैं जिन्हें मैंने अपनी समझ के अनुसार इस आस में खरीदा होता है कि मुझे उनसे मुझे कुछ ना कुछ सीखने को अवश्य मिलेगा।
दोस्तों..आज मैं जिस कहानी संग्रह की बात करने जा रहा हूँ उसे 'नई इबारत' के नाम से लिखा है सुधा जुगरान ने।
इस कहानी संग्रह की एक कहानी 'अनाम रिश्ता', उस सविता की व्यथा व्यक्त करती है जो अपने दो बेटों, निक्की और सुहेल को किसी न किसी वजह से खो चुकी है। निक्की को अपने पहले पति अनुपम की अकाल मृत्यु के बाद, अपने दूसरा विवाह करने के निर्णय से और अश्विनी से उत्पन्न, सुहेल को एक बस एक्सीडेंट की वजह से। ऐसे में अपने बच्चों के वियोग में तड़पती सविता की बरसों बाद मुलाक़ात निक्की से होती तो है मगर..
इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'अपना-अपना नज़रिया' में लेखिका हाउसवाइफ भाभी और कामकाजी ननद के आपसी रिश्ते के ज़रिए इस बात को समझाने का प्रयास करती दिखाई देती हैं कि अपने-अपने कार्यक्षेत्र में किसी की किसी से कोई तुलना नहीं की जा सकती। घरेलू कामकाज के ज़रिए घर संभालना और बाहर जा कर जीविका अर्जित करने जैसे कामों का एक जैसा ही महत्व है। इनमें से कोई भी किसी से कमतर नहीं है। इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'अपना घर' में अमीर घर द्वारा गोद ली गयी स्मृति अपने असली माता-पिता के बारे में जानने..समझने के लिए बेचैन है कि उन्होंने उसे पैदा कर के उससे किनारा क्यों कर लिया। गोद लेने वाले माता-पिता से जब उसे उनके बारे में पता चलता है तो वह उनसे मिलने और उनके साथ रहने के लिए उतावली हो उठती है।
इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'आशियाना' में अपनी पत्नी, रूमा के निधन के बाद अकेले रह गए 62 वर्षीय योगेश, अपना समय व्यतीत करने के अपने नौकर के बच्चों को पढ़ाना शुरू तो करते हैं मगर बेटे-बहू की ज़िद पर उन्हें मुंबई, उनके पास रहने के लिए जाना पड़ता है। अब देखना ये है कि बड़े शहर की आबोहवा रास आती है या नहीं। इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'एक साथी की तलाश' में दो दिन पहले रिटायर हुए मधुप उस वक्त परेशान हो जाते हैं जब बरसों से उनकी सेवा कर रहा बिस्वा हमेशा-हमेशा के लिए अपने गाँव जाने की बात करता है। अब देखना यह है कि अपने अहम की वजह से बरसों से अपनी पत्नी श्यामला से अलग रह रहे मधुप क्या अपनी ग़लती महसूस कर अपनी पत्नी के पास वापिस लौट पाएँगे या नहीं।
इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'ख़ामोश कोलाहल' में प्रेम विवाह के बावजूद तन्वी और देवांश के रिश्ते में विवाह के तीन वर्षों के भीतर ही अजनबियत भरा सूनापन अपने पैर पसार चुका है। जिसे दूर करने के लिए दोनों के परिवार मिल कर कुछ ऐसा करते हैं कि उनका आपसी रिश्ता फ़िर से पटरी पर लौट आता है। एक अन्य कहानी 'तार-तार रिश्ते' में
13 वर्षीय संधू और उसका छोटा भाई बंटी उस वक्त खुशी के मारे पुलकित हो उठते हैं जब उन्हें पता चला है कि उनका 20 वर्षीय मामा सोनू, शहर में पढ़ाई के इरादे से उनके घर रहने के लिए आ रहा है। मगर देखना यह है कि दिन पर दिन समझदार होती संधू की वक्ती खुशी बरक़रार रह पाती है अथवा नहीं।
एक अन्य कहानी 'दूर के दर्शन का सुख' में जहाँ 10वीं पास करने के बाद ग़रीब घर का बसंत अपने परिवार का सहारा बनने के इरादे से एक जानकार की मदद से दुबई में नौकरी करने चला जाता है। मगर अब देखना यह है कि घर-परिवार की ज़िम्मेदारी निबटाने के बाद भी वह वापिस घर लौट कर आता है या फ़िर वहीं का हो कर रह जाता है। तो वहीं एक अन्य कहानी 'नई इबारत' एक तरह से स्त्री अधिकारों की पैरवी सी करती हुई प्रतीत होती है। जिसमें घरेलू कामकाज के लिए लेखिका के घर सर्वेंट क्वाटर में रंजना नाम की एक पहाड़ी लड़की अपने तीन बच्चों के साथ रहने के लिए आती है। जिसे उसके पति ने एक तरह से छोड़ रखा है। उसके संघर्ष की कहानी सुनकर लेखिका मन ही मन अपनी बेटी से उसकी तुलना करने लगती है।
इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'नया दौर' में जहाँ एक तरफ़ जब निविधा अपने पति को बताती है कि उसका उपन्यास साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हो रहा है तो वह हर्षित होने के साथ-साथ अपने भीतर ग्लानि का अनुभव भी करता है कि विवाह के बाद वर्षों तक उसने अपनी पत्नी के हुनर को उभरने का मौका नहीं दिया। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी 'फ़क़त रेत' में लेखिका ने एक डायनिंग टेबल के चार पायों के माध्यम से स्त्रियों की स्थिति में पीढ़ियों के साथ आए बदलाव को बतलाने का प्रयास किया है कि किस तरह पहले की स्त्रियाँ अपने माता-पिता एवं पति की बात मान उनकी इच्छानुसार ही चला करतीं थीं। समय के साथ आए बदलाव में अगली पीढ़ी अपने मन की इच्छा का करने का प्रयास तो करती रही मगर पूर्णतया कभी सफ़ल नहीं हो पाई जबकि आज की स्त्री अपने हक़ की लड़ाई को सफलतापूर्वक लड़ने के साथ-साथ सवाल भी कर रही है।
एक अन्य कहानी 'मन भये न दस बीस' में जहाँ 49 वर्षीय उस अविवाहित आरुषि की बात करती है जिसने कैरियर की चाह में अब तक विवाह नहीं किया है। अब उम्र के इस मुकाम पर जब वह एक साथी चाहती तो है मगर हर बार उसकी अफ़सरी की ठसक के बीच में आ जाने से कहीं भी उसकी बात नहीं बन पा रही। तो वहीं इस संकलन की अंतिम कहानी 'रिश्तों का आत्मघात' में जब शरद को उसके पिता की मृत्यु की बाद मकान के स्वामित्व को लेकर चाचा की तरफ़ से कानूनी नोटिस मिलता है वह हैरान रह जाता है कि जिस चाचा को बचपन से उसके पिता ने अपने पिता की मृत्यु के बाद पढ़ा-लिखा कर कमाने-धमाने लायक काबिल बनाया, उसी ने उस मकान पर अपने स्वामित्व के लिए नोटिस भेजा है जिसको बनाने के लिए सारा पैसा उसके पिता ने खर्च किया था।
धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस कहानी संग्रह की कुछ कहानियाँ मुझे थोड़ी सतही या फ़िर भाषण देतीं सी भी लगीं। पढ़ते वक्त कुछ एक जगहों पर प्रूफ़रीडिंग की कमियों के अतिरिक्त कुछ वर्तनी की त्रुटियाँ भी दिखाई दीं।
पेज नंबर 13 में लिखा दिखाई दिया कि..
'उन्हें ऐसा लग रहा था... उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे वह उसे बहुत अच्छी तरह से जानते हैं'
इस वाक्य में 'उन्हें ऐसा लग रहा था' ग़लती से दो बार छप गया है।
पेज नंबर 64 में लिखा दिखाई दिया कि..
'इतने वर्षों बाद अकेले घर में उनका दिल श्यामला की उपस्थिति में अजीब से कुतूहल से धड़क रहा था'
यहाँ 'कौतूहल' की जगह ग़लती से 'कुतूहल' छप गया है।
पेज नंबर 68 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'दोनों अब पाँच साल के रिश्ते को नाम देने का शिद्दत से सोचने की कोशिश कर रहे थे पर सोच पुख़्ता नहीं हो पा रही थी'
यह वाक्य सही नहीं बना। मेरे हिसाब से सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..
'दोनों अब पाँच साल के रिश्ते को नाम देने के बारे में शिद्दत से सोचने की कोशिश कर रहे थे पर सोच पुख़्ता नहीं हो पा रही थी'
पेज नंबर 69 में लिखा दिखाई दिया कि..
'वह कुछ-कुछ छिड़ता हुआ बोला'
यहाँ 'छिड़ता हुआ बोला' की जगह 'छेड़ता हुआ बोला' आएगा।
पेज नंबर 87 में लिखा दिखाई दिया कि..
'पहली बार बसंत के तयेरे भाई मातवर ने यह जानकारी बसंत को दी थी'
इस वाक्य में ग़लती से शायद 'चचेरे भाई' की जगह 'तयेरे भाई' छप गया है क्योंकि 'तयेरे भाई' जैसा शब्द कभी मेरे पढ़ने में नहीं आया।
इसी पेज पर आगे लिखा दिखाई दिया कि..
'वहाँ यहाँ कि तरह छोटे-मोटे ढाबे नहीं होते'
यहाँ 'कि' की जगह 'की' आएगा।
पेज नंबर 89 में लिखा दिखाई दिया कि..
'दुबई का ऐसा नशा चढ़ा था बसंत को कि ख़्वाबों में भी ख़्याली दुबई ही दिखता'
यहाँ 'ख़्याली दुबई ही दिखता' की जगह 'ख़ाली दुबई ही दिखता' आए तो बेहतर।
इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..
'बस आने के कुछ दिन मातवर भाई ने थोड़ा बहुत घुमा दिया था ख़ास-ख़ास जगह'
यह वाक्य मेरे हिसाब से सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..
'बस आने के कुछ दिनों बाद तक मातवर भाई ने थोड़ा बहुत घुमा दिया था ख़ास-ख़ास जगहों पर'
इससे अगली पंक्ति मुझे सही से समझ नहीं आयी कि उसमें लिखा था कि..
'इस चमकती सुविधा-संपन्न दुबई में साधनहीन भला सामने कहाँ दिखेगा'
पेज नंबर 90 में लिखा दिखाई दिया कि..
'दो साल बाद बसंत का 10वीं पूरा हुआ'
यहाँ 'बसंत का 10वीं पूरा हुआ' की जगह 'बसंत की 10वीं पूरी हुई' आएगा।
इससे अगली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..
'उसके आसपास के जानने में कई लड़के बहरीन, क़तर वगैरह खाड़ी के कई दूसरे देशों में कुक, ड्राइवर, क्लीनर आदि की नौकरी के लिए गए हुए थे'
इस वाक्य में 'उसके आसपास के जानने में कई लड़के' की जगह 'उसके आसपास के जानने वालों में कई लड़के' आएगा।
पेज नंबर 91 में लिखा दिखाई दिया कि..
'जब वह दुबई पहुँचा तो कुछ ही दिनों में उसकी नौकरी एक मॉल के 'कैरफ़ोर' में लग गई'
यहाँ 'उसकी नौकरी एक मॉल के 'कैरफ़ोर' में लग गई' की जगह 'उसकी नौकरी एक मॉल, 'कैरफ़ोर' (कैरिफोर) में लग गई' आएगा।
पेज नंबर 101 में लिखा दिखाई दिया कि..
'और गाहे-बगाहे रंजना के ननद का पति भी'
यहाँ 'रंजना के ननद का पति भी' की जगह 'रंजना की ननद का पति भी' आएगा।
पेज नंबर 104 में लिखा दिखाई दिया कि..
'एक नाबालिग़ से बयान ने उसे इतने वर्षों का वनवास दे दिया'
यहाँ 'एक नाबालिग़ से बयान ने' की जगह 'एक नाबालिग़ के बयान ने' आएगा।
पेज नंबर 105 में लिखा दिखाई दिया कि..
'लेकिन इसके तबके की बात यदि छोड़ दी जाए तो'
यहाँ 'लेकिन इसके तबके की बात यदि छोड़ दी जाए तो' की जगह ''लेकिन इस तबके की बात यदि छोड़ दी जाए तो' आएगा।
पेज नंबर 108 में लिखा दिखाई दिया कि..
'35 की हो गई अनाया को माँ भी नहीं बनना है अभी भी'
यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि
'35 की हो गई अनाया को माँ नहीं बनना है अभी'
पेज नंबर 116 का दिखाई दिया कि..
'उसके हाथ तो खज़ाने का नक्शा हाथ लग गया था'
इस वाक्य में दूसरी बार आए 'हाथ' शब्द की ज़रूरत ही नहीं है।
पेज नंबर 122 में लिखा दिखाई दिया कि..
'आज की लड़की माँ ही नहीं बनना चाहती... यह काफी सोचनीय प्रसंग है'
यहाँ 'सोचनीय प्रसंग है' की जगह 'शोचनीय प्रसंग है' आएगा।
पेज नंबर 132 में लिखा दिखाई दिया कि..
'यह एक नई प्रकार के असंतुलन को जन्म दे रहा है'
यहाँ 'नई प्रकार के असंतुलन को जन्म दे रहा है' की जगह 'नए प्रकार के असंतुलन को जन्म दे रहा है' आएगा।
पेज नंबर 132 में आगे लिखा दिखाई दिया कि..
'स्त्रियों से उनकी मनसा नहीं पूछी जाती थी'
यहाँ 'मनसा नहीं पूछी जाती थी' की जगह 'मंशा नहीं पूछी जाती थी' आएगा।
* रोब (जमाना) - रौब (जमाना)
* कुतूहल - कौतूहल
* कोराना काल - कोरोना काल
* अज़माया - आज़माया
अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 157 पृष्ठीय इस बढ़िया कहानी संग्रह के पेपरबैक संस्करण को छपा है अद्विक प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 240/- रुपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।