"क्यों लिखता हूँ मैँ"

"क्यों लिखता हूँ मैँ"

***राजीव तनेजा***


"हुह!..."खाने की तरफ देखते ही मैँ नाक-भों सिकोडता हुआ बोला

"ऑय-हॉय आज फिर मूंग की दाल?"...

"कुछ और नहीं बना सकती थी क्या?"

"कितनी बार कहा है कि इस घर में खाना बनेगा तो सिर्फ मेरी मर्ज़ी का"...

"पर पता नहीं तुम्हारे कान पे जूँ तक क्यूँ नहीं रेंगती है?"

"हर रोज़ बस वही उल्टे-सीधे खाने...

कभी 'करेला' तो कभी 'घिया'...

कभी 'तोरई' तो कभी 'बैंगन का भुर्ता'"


"अरे!...गुस्सा तो इतना आता है कि अभी के अभी मार-मार के तुम्हारा ही भुर्ता बना दूँ"मैँ गुस्से से बिफरता हुआ बोला


"तो फिर समझाओ ना अपने माँ-बाप को...

क्यूँ थोक के भाव उठा लाते हैँ ?"

"बडा चाव चढा हुआ है बुढापे में हरी सब्ज़ियाँ पाडने का...

"ये नहीं कि जो सबको पसन्द है ...वो ही पकवाएँ और वो ही खाएँ"

"और उनके इस नव्वें शौक के चक्कर में कोई भी प्रोग्राम कहाँ ठीक से देख पाती हूँ टीवी पर"

"किसी सीरियल का स्टार्ट मिस हो जाता है तो किसी का एण्ड"

"अब बीच में से देखो तो पल्ले ही कहाँ पडती है कहानी"...

"कुछ समझ नहीं आता है कि कौन किसका देवर है तो कौन किसकी भाभी"...

"और ऊपर से कोई किसी सीरियल में वैम्प का किरदार निभा रही होती है तो वही...

किसी दूसरे चैनल पे नायिका बन इठला रही होती है"


"किस का किस से क्या रिश्ता है कुछ समझ में ही नहीं आता है"...

"कभी 'मिहिर' मरा हुआ नज़र आता है तो कभी ज़िन्दा दिखाई देता है"...

"एक बार कॉटीन्यूटी टूट जाए सही तो समझो...गयी भैंस पानी में"

"अब ले लो मज़े....सब का सब गडबड झाला हो जाता है" ...

"कंफ्यूज़न ही कंफ्यूज़न"...

"घोर कंफ्यूज़"


"इसलिए तो कहती हूँ बार-बार कि बीच में टोका ना करो"...


"और हाँ!...आईन्दा खाना मिलेगा तो प्रोग्राम से पहले या फिर प्रोग्राम के बाद"...

"बीच में बिलकुल नहीं"

"कोई नखरा नहीं चलेगा अब किसी का"...


"मैँ तो तंग आ चुकी हूँ तुम सब की फरमाईशें पूरी करते-करते"...


"किसी को कुछ चाहिए तो किसी को कुछ"..


"ये नहीं कि जो बना है चुपचाप ठूस लो आराम से और चैन के बैठ के देखने दो मुझे टीवी घडी दो घडी"...

"और इसके अलावा शौक ही क्या है मेरा?"


"अब ये चैटिंग-वैटिंग तो तुम मजबूरी में ही करती होगी?"मैँ बोल पडा


"तुम्हें तो बस मौका मिले सही...पीछे पड जाया करो मेरे"

"घडी दो घडी किसी से दो बोल बात-बतला लेती हूँ तो उसमें भी एतराज है जनाब को?"


"चिंता नहीं करो ना कोई मुझे ले जाएगा और..ना ही मैँ तुम्हें छोड के जाने वाली हूँ कहीं"

"कहीं तुम्हारे मन में लड्डू फूट रहे हों कि ये जाए सही और मैँ झट से बुलवा लूँ कनाडा वाली को"

"बार-बार सुनाते जो रहते हो कि वो ये-ये बनाती है और वो-वो पकाती है"


"कान खोल के सुन लो तुम भी सब के सब"बीवी बच्चों की तरफ मुखातिब होती हुई बोली...

"अब हर एक के नखरे उठाना बस का नहीं है मेरे"

"खाना है तो खाओ"...

"नहीं तो भाड में जाओ"बीवी रिमोट का बटन दबाते हुए बोली


"मैँ भी इंसान हूँ कोई मशीन नहीं कि बस चलती जाऊँ"...

"बस चलती जाऊँ"


"ओफ्फो!...अब ये केबल भी अभी ही जानी थी"...

"कितनी बार कहा है कि ये केबल-शेबल को टाटा कर 'टाटा स्काई' अपनाओ या फिर...

'डिश टीवी'की 'डिश' में परोसे हुए चैनल देखो आराम से"...


"ना केबल वालों की दादागिरी का पंगा"...

"ना ही केबल कटने का डर"...

"ऊपर से एकदम क्लीयर प्रफार्मैंस"...

"यानी के फुल्ल-फुल्ल मज़ा ..अनलिमिटिड"...

"बस रिचार्ज करो और हो जाओ शुरू"


"लेकिन!..कोई मेरी बात मानें तब ना"....

"चाहे जितना चिल्लाती रहूँ लेकिन कोई असर ही नहीं होता है इस चिकने घडे पर"बीवी मेरी तरफ उँगलियाँ नचाती हुई बोली

"बस!..खाया-पिया और बैठ गए लिखने फाल्तू की कहानियाँ"

"बठे-बिठाए खाने को जो मिल जाता है तो ये वेल्ले काम रह जाते हैँ जनाब के पास करने को"

"कहने को कहते हैँ कि एक ना एक दिन मेरी किस्मत जागेगी और सब मेरी लेखनी का लोहा मानेंगे"


"अरे!...तुम्हारी का तो पता नहीं कि कब जागेगी ...या जागेगी भी या नहीं लेकिन...

इतना तो पक्का है कि मेरी ही किस्मत फूटी थी दोस्त जो इस घर में तुम संग ब्याहे चली आई"...

"लाख रिश्ते आए थे मेरे लिए"

"पता नहीं कमभख्त अक्ल पे कौन से पत्थर पडे थे मेरी जो इस बावले संग ब्याह रचाया"

"पता नहीं था ना कि ये मोटू सिर्फ खाने और लिखने के लिए ही जीता है"

"अगर ज़रा सी भी भनक लग जाती तो बीच फेरों में ही भाग खडी होती"


"अरे हाँ...याद आया....

याद है ना कि नहीं शादी पे जाना है अपनी 'तुलसी'की?"


"वो भी तो कितने तरले कर रहा था मेरे"बीवी जैसे पुरानी यादों में खो गई

"क्या होता जो दिल्ली छोड इलाहबाद बसना पडता?"

"बस जाती तो बस जाती"...

"ठाठ से तो रहती कम से कम"


"अच्छा!...वो वाला?"

"हाँ-हाँ!...वो ही वाला"बीवी आँखे नचाती हुई बोली

"रानी बना के रखता!....रानी"


"अरे!...वो तो कब का सन्यासी बन गया था तेरे चक्कर में"

"वो हाथ नहीं आने वाला था वैसे भी"


"ये सन्यासी-वन्यासी तो सब धरा का धरा रह जाता"...

"बस!..मैँ ही ढीली पड गई तुम्हारे कारण"


"मेरे कारण?"


"और नहीं तो क्या"..

"अच्छा होता जो मना लेती उसे किसी तरह"..


"इतना तो अब भी विश्वास है मुझे कि मेरे एक-आध गाना गाने की देर थी और...

उसने मेरी मुट्ठी में होना था"बीवी आह भरती हुई बोली


"बीवी ने लम्बी तान ली और शुरू हो गयी...

"चल सन्यासी मन्दिर में"...

"तेरा चिमटा...मेरी चूडियाँ"...

"दोनों साथ-साथ खनकाएंगे"


" अरे!...शक्ल देखी थी कभी ध्यान से उसकी?"

"कालू राम कहीं का"....

"पूरा मद्रासी दिखता था....पूरा मद्रासी"

"इसकी बजाए अगर तुम कुछ इस तरह से गाती तो शायद बात बन जाती"

"काबू में आ भी जाता तुम्हारे"


मैँ भी शुरू हो गया...

"चल'मद्रासी'...'होटल' में"...

"तेरा 'डोसा'...मेरा 'समोसा'...

"दोनों साथ-साथ खाएँगे"


"ऑय-हॉय अब क्या करूँ इस मोटू का?"

"इसे तो हर वक्त खाने की ही पडी रहती है"

"मजाल है जो कभी ध्यान टस से मस हो जाए"

"बात कहाँ की हो रही थी और ये बीच में घुसेड लाया 'डोसा' और 'समोसा'"

"हर जगह बस लेखक का कीडा ही छाया रहता है इनके दिल-ओ-दिमाग पर"...


"लानत है ऐसी ज़िन्दगी पर"...

"बेवाकूफ!...कभी तो अक्ल से काम लिया करो"

"ये नहीं कि हर वक्त बस चबड-चबड"

"खाते जाओ...खाते जाओ और कीबोर्ड पे उँगलियाँ घिसते जाओ"


"तुम ही कौन सा तीर मार रही होती हो इस मुय्ये इडियट बॉक्स में आँखे गडाए-गडाए?"


"खबरदार!..जो इसे 'इडियट बॉक्स' या 'बुद्धू बक्सा'कहा"

"माना!..कि कभी हुआ करता था ये 'इडियट' किसी ज़माने में लेकिन अब तो इसका कोई सानी नहीं हैँ"


"तुम सोचते हो कि ये बावली बैठी-बैठी बस यूँ ही फोक्ट में अपनी आँखे आँसुओं से टप-टप लाल किए फिरती है"...

"अरे!...इतनी बावली नहीं हूँ मैँ"...

"मुफ्त में तो मैँ किसी को अपना बुखार तक ना दूँ"


"अब इस 'तुलसी' को ही लो....

माना कि एकटिंग ठीक-ठाक कर लेती है लेकिन मैनें भी इसे मेल भेज -भेज के ऐसा चने के झाड पे चढा है कि...

पट्ठी मेरे हर खत का जवाब खुद ही पर्सनली देती है"...

"अभी परसों ही तो इनवीटेशन भेजा है अगली ने अपनी शादी का"


"इनवीटेशन?"...

"शादी का?"...


"और नहीं तो क्या?"..


"ये देखो....साफ साफ लिखा है...

"तुलसी की शादी....8.00 बजे...

बारात:6.00 बजे

दिन:बुध वार...

तारीख:21 नवम्बर 2007


स्थान: मुस्सदी लाल धर्मशाला,नरेला(दिल्ली)बीवी कार्ड हवा में लहराते हुए बोली



"मुम्बई छोड दिल्ली मिली उसे घर बसाने को?"


"अरे!...मुम्बई में रहती है तो क्या?"

"दिल तो उसका दिल्ली में ही बसता है ना?"

"इलैक्शन भी तो यहीं दिल्ली से ही लडी थी ना कमल वालों की तरफ से"

"अब हार गयी...तो हार गयी"...

"क्या फर्क पडता है?"...


"अब!..ये तुम देखो कि तुमने जाना है कि नहीं जाना है"....

"मैँ तो ज़रूर जाऊँगी"..

"पर्सनली इनवाईटेड जो हूँ"बीवी शान बघारते हुए बोली

"बडे बडे लोग आएँगे"...

"बिज़नस मैन...इडस्ट्रियलिस्ट...सैलीब्रिटीज़..वगैरा...वगैरा"..

"सबके ऑटोग्राफ लूँगी"...

"वक्त-बेवक्त सहेलियों पे रौब जमाने के काम आएँगे"...


"वैसे आप भी खाली घर में बैठ के क्या करोगे?"..

"क्यों नहीं चल पडते मेरे साथ?"...

"साथ का साथ हो जाएगा और काम का काम"


"काम का काम?"..

"कैसा काम?"...

"कौन सा काम?"


"हे भगवान!...क्या सब कुछ मुझे ही समझाना पडेगा इस लल्लू को?"

"छोडो अब ये कहानियाँ-वहानिय़ाँ लिखना" ..

"कोई फायदा नहीं जब इनसे कुछ वसूल ना सको"...

"और वैसे भी ये सब मोह-माय का चक्कर तुम्हारे बस की बात नहीं"...


"यूँ ही बेफिजूल में लिखना-लिखाना छोडो"...

"पढता ही कौन है तुम्हें?"

"अपनी तसल्ली भर के लिए ही लिखते हो ना?"


"मैँ भी तुम्हें इसलिए नहीं टोकती तुम्हें कि अच्छा है बिज़ी रहें"...

"वर्ना तुम्हारी तो कभी फरमाईशें ही खत्म नहीं होती कि...

कभी ये ला...तो कभी वो बना"


"चलो तुम भी...

खाली घर बैठ इस लिखने -लिखाने के चक्कर में कही सुनहरा मौका न हाथ से निकल जाए"...


"सुनहरा मौका?"


"और नहीं तो क्या?"...

"क्या पता खुद 'एकता कपूर' खुद आ रही हो वहाँ"...





"'एकता' और 'तुलसी'?"...

"एक साथ?"...

"एक ही मँच पर?"...

"भाँग चढा रखी है क्या?"


'अब ये 'तुलसी'से 'एकता' में छत्तीस के आँकडे वाली खबर का तो मुझे भी पता है लेकिन...

इन टीवी और फिल्म वालों का कुछ पता नहीं होता है"...

"कोई पता नहीं कि...कल ऊँट किस करवट बैठा था?और...

आज किस करवट बैठेगा?"...

"और कोई गारैण्टी नहीं कि बैठेगा भी या नहीं?"


"इन सालों के खाने के दाँत और होते हैँ और दिखाने के और"


"अब!..अपनी'अलीशा'को ही लो ना...

कुछ साल पहले तक तो 'अनु मलिक' को दिन में सौ-सौ गालियाँ बकती थी लेकिन..

अब दोनों एक साथ...एक ही मँच पर 'मंच'खाते हुए 'इंडियन आईडल'चुनने का ड्रामा करते नज़र आ रहे थे"


"ले चलना तुम भी अपनी ये कहानियाँ-वहानियाँ"...

"क्या पता कि किस्मत जाग जाए और तुम वेल्ले से नामी गिरामी राईटर बन जाओ"

"उस वक्त मुझे तो नहीं भूल जाओगे ना?"बीवी शरारती मुस्कान चेहरे पे लाती हुई बोली


"लो!..अब कह रहे हो कि कोई कहानी तैयार नहीं है"

"इतने महीनों से क्या झक्ख मार रहे थे?"बीवी गुस्से से बौखला उठी

"कोई काम ढंग से होता भी है तुमसे?...

"बस मेरे ही सहारे बैठे रहा करो हमेशा"...

"बच्चे नहीं हो अब दूध पीते कि मैँ ही अब उँगली पकड के चलना भी सिखाऊँ तुम्हें हमेशा"

"जिस दिन मैँ नहीं रहूँगी ना बच्चू...तब पता चलेगा"


"खैर!..छोडो ये सब और ध्यान से सुनो मेरी बात"...

"अभी दो दिन पडे हैँ 'तुलसी'की शादी को"

"सबसे पहले जाओ 'तनेजा कम्प्यूटर'वाले के पास और अपना 'प्रिंटर'ठीक कराओ"


"लेकिन इस सब से होगा क्या आखिर?"मैँ असमंजस भरे स्वर में बोला


"बेवाकूफ!..जो कुछ भी...जितना कुछ भी लिखा है अभी तक...

सबका प्रिंट आउट ले लो"लेकिन...

इतना ध्यान रखना है कि...सब की सब कहानियों के 'टाईटल' बदले हुए होने चाहिए"

"पुराने माल पे नया लेबल लगा दिखाई देना चाहिए"

"और हाँ!..सब के सब टाईटल "क"अक्षर से शुरू होने चाहिए"


"वो भला क्यों?"मैँ मासूम चेहरा लिए बोला....


"इतना भी नहीं पता बुद्धू?"...

"एकता को "क" अक्षर का 'फोबिया' है"...

"कपडे भी काले पहनती है"..

"किसी को कहते सुना था कि रहती भी हमेशा काले लोगों के बीच ही है"...

"स्पाट बॉय से लेकर एक्टर,डाईरैक्टर...हर बन्दा काले लबादे में ही नज़र आता है"...

"लेकिन अपुन को तो इन अफवाहों में रत्ती भर भी विश्वास नहीं है"


"लेकिन फिर भी हम कोई रिस्क भला क्यों लें?"...

"सेफ साईड चलने में बुराई ही क्या है आखिर?"


"मुझे कुछ नहीं पता बस"...

"तुम्हारी हर कहानी का नाम 'क'से ही शुरू होना चाहिए "बीवी लाड भरे स्वर में बोली


"जैसे!..काणा कुत्ता कमाल का"...

"काली कबूतरी दुध वर्गी"...वगैरा...वगैरा"मैँ हँसते हुए बोला


"तुम भी ना?"बीवी शिकायती लहज़े में बोली


"इस सब की चिंता छोडो...मैँ अपने आप सम्भाल लूँगा"


"वैसे भी नाम में क्या रखा है?"...

"कहानी में दम होना चाहिए"मैँ बोला...


"कुछ समझ नहीं आए तो बस ऐसे ही दो चार पेजों पर कलम घसीट डालना"...

"बस इतना ध्यान रहे कि कहानी ऐसी लिखना जिसमें बहुत से किरदारों को जोडने-घटाने की गुंजाईश हो"

"बाकि सारे मसाले 'एकता'अपने आप फिट कर लेगी जैसे..

'फैमिली ड्रामा'...

'आँसुओँ की बारिश'...

'बदला'...

'अवैध संतान'...

'नाजायज़ रिश्ते'...

'बिज़नस राईवलरी'....

'विदेशी लोकेशन'...

'आलीशान सैट'...

'मँहगे कॉस्ट्यूमस'वगैरा...वगैरा"बीवी बोली....


"कौन सा सीरियल कितने हफ्ते या कितने साल चलाना है?"....

"कैसे उनकी 'टी आर पी' मेनटेन रखनी है?"....

जैसी बेसिक बातें समझाने की ज़रूरत नहीं है उसे"...

"ये सब खींचतान बिना किसी लाग-लपेट के अच्छी तरह जानती है वो"...

"तजुर्बा...मेरी जान तजुर्बा इसे ही कहते हैँ "बीवी जैसे खुद से ही बातें करती हुई बोली


"अब ये एक्टर-वक्टर की चिंता तुम काहे मोल ले रहे हो?"...

"अगली का काम है अपने आप सम्भालती फिरेगी"बीवी मेरी तरफ देखती हुई बोली

"किसी को रखे..ना रखे ..उसकी मर्ज़ी"...


"एक बात तो है कॉमन है तुम दोनों में"मैँ बोल पडा


"क्या.. ?"बीवी कौतुकपूर्ण नज़रों से मेरी तरह ताकती हुई बोली


"यही कि...ना तुम अपने आगे किसी की चलने देती हो और ना ही वो"


"तुम भी ना!..बस यूँ ही बेसिर पैर की उडाते रहा करो हमेशा"बीवी तिलमिलाती हुई बोली


"अब अगर कोई उसी की छाती पे...उसी के सामने मूँग दलना शुरू कर दे तो और करे भी क्या बेचारी?"


"सही करती है बिलकुल कि...

कोई ज़रा सी भी ना नुकुर करे सही...

अगले एपीसोड में ही पत्ता साफ"...


"बस चले उसका तो बीच एपीसोड में ही कत्ल करवा डाले"मैँ बीच में ही टाँग घुसाता हुआ बोला


"अब भले ही उसके लिए वो कहानी में फेरबदल कर उसका मर्डर करवाए या फिर एक्सीडैंट"

"हमें क्या लेना?"


"शो मस्ट गो ऑन"...

"कुछ फर्क नहीं पडता...कहानी यूँ ही चलती रहती है"


"हाँ!...कोई फर्क नहीं पढ्ता है अपनी भोली जनता को"मुझसे व्यंगात्मक लहज़े में बोले बिना रहा नहीं गया


"कलाकारों का ट्रैफिक यूँ ही बदलता रहेगा...भोली जनता..तुम देखो मगर प्यार से"


"और हम लेखकों का क्या?"

"हमें भी किसी दिन ऐसे ही दूध से मक्खी की तरह निकाल बाहर फैँका तो?"मुझे गुस्सा आने को था


"हमारी छोडो"...

"हमारा क्या है?"..

"हम ठहरे रमते जोगी"

"आज इस ठौर तो....कल उस ठौर"

"अपुन ने तो बस आईडिया देना है और माल बटॉरना है"...

"भले ही उसे 'तुलसी'भुनाए या फिर 'एकता'उसकी आँच पे अपने भुट्टे भूने"

"अपनी तरफ से दाम चुका ...कोई ले ले"बीवी बोली

"सबने अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकनी हैँ"बीवी बोली


"अब भले ही सामने वाला हमें चवन्नी दिखाए और खुद हज़ारों कमाए...हमें इस से क्या?"

"वाह!...क्या इंसाफ है ...वाह"मैँ भडकने को था


"मज़दूर का पसीना सूखने से पहले उसे उसकी मज़दूरी मिल जाए...इस से बढकर और क्या होगा"बीवी ने जवाब दिया


"अब ये कहानी-वहानी नाम की कोई चीज़ होती भी है इन प्रोग्रामज़ में?"...

"नहीं ना?"...

"असल चीज़ होती है पैकिंग"...

"किस तरीके से 'माल'को पेश किया जा रहा है और कहाँ पेश किया जा रहा है?...

यही सब मायने रखता है"बीवी बोली


"मतलब?"..


"जैसे..अगर कोई सीरियल दूरदर्शन पे दिखाया जा रहा है तो कोई ढंग का स्पॉंसर भी नहीं मिलेगा"...

"और अगर वही सीरियल थोडे जायकेदार मसालों के साथ 'स्टार' या फिर 'सोनी' पे आ रहा है तो...

यकीनन सभी टॉप के स्पॉसर हाथ जोड कतार बाँधे नज़र आएँगे"बीवी समझाती हुई बोली...


"इसका मतलब सब पैकिंग का कमाल है?"....


"और नहीं तो क्या?"


"ध्यान से देखोगे तो जान जाओगे कि सभी कहानियाँ एक जैसी ही होती हैँ"....

"एक जैसे सैट"..

'एक जैसे मेक अप'...

'एक जैसे गैट अप'...

'एक जैसे किरदार'...


"यानी सब कुछ एक जैसा"


"तुम्हारा मतलब सभी लेखक फुद्दू ही होते हैँ?"


"और नहीं तो क्या"बीवी पूरी लेखक बिरादरी का मज़ाक उडाते हुए बोली


"बहुत हो गयी ये पुरानी कहानियों से चेपा-चेपी"लेखक और उसकी लेखनी की ऐसी बुरी गत मुझसे देखी ना गई और ज़ोर से चिल्ला पडा

"लिखूँगा तो एक्दम ओरीजिनल लिखूँगा वर्ना लिखना छोड दूंगा""


"क्यों सुबह-सुबह मुझे बहकाते हो?"...

"ये लेखकीय कीडा कभी किसी का छूटा है जो तुम्हारा छूट जाएगा?"

"लिखो...लिखो..चुपचाप लिखो"बीवी मानों आदेश देती मुद्रा में बोली


"अब मैँ बेचारा...किस्मत का मारा"...

"क्या करता?".. .

"कोई और चारा भी था मेरे पास?"

"चुपचाप बैठ गया लिखने"...

"पापी पेट का सवाल जो था"

"पता था कि जब तक दो-चार घंटे बीवी के कानों में कीबोर्ड की टक-टकाटक नहीं गूंजेगी...

खाना तो मिलने से रहा"


"चुपचाप लिखने बैठ गया"

"अब चैन किसे था?"

'एकता'खुद ही बारम्बबार आ-आ के मेरे ख्वाबों की एकाग्रता को भंग करने लगी थी "

"सोचूँ कुछ...मन को समझाऊँ कुछ और असल में लिखा जाए कुछ"

"कुछ समझ नहीं आ रहा था"

"जिस भी सीन को झाड-पोंछ के तैयार करूँ...बीवी तपाक से बोल पडे कि ...

"ये?...

ये वाला तो फलाने-फलाने सीरियल में 'एकता'पहले ही दिखा चुकी है"

"बडे लेखक बनते हो ...

कुछ ओरिजिनल नहीं लिख सकते क्या?"बीवी ताना मारते हुए बोली


"अब मैँ बेचारा सोचता रहा और बस सोचता रहा लेकिन कोई धाँसू आईडिया दिमाग में ज़ोर मारने को तैयार ही नहीं"


"साला!...कहाँ से लिखूँ ओरीजिनल कहानी?"...

"इस 'एकताई भूत' ने जीना-मरना...सोना-जागना सब हराम कर डाला था मेरा"...

"आँखो में बसा उल्लू नींद को मुझसे कोसों दूर ले जा चुका था"...

"आँखो के डेल्ले पुराने वाले अदनान सामी की तरह फैले जा रहे थे"


"कभी पुरानी कहानियों में ही नए-नए जुगाड फिट करने की सोचने लगा था मैँ लेकिन...

इस'एकता'के आगे सबको एक ही झटके में धराशाई होते मैँ खुद ही अपने त्रिनेत्र से देख रहा था मैँ"


"सो!...ये आईडिया भी ड्राप करने के अलावा कोई चारा नहीं था"


"उधेडबुन में डूबा-डूबा कभी कुछ तो कभी कुछ लिख रहा था कि...

अचानक सिनेमाई लेखकों वाले बेबाक आईडिए ने ढिचाँक कर के दिमाग में ऑन दा स्पाट फॉयर कर डाला"


"सो!..आव देखे बिना ही ताव से अँग्रेज़ी फिल्मों की सात-आठ डीवीडी मँगवाई किराए पे और सारी की सारी देख डाली एक ही झटके में"


"बस फिर क्या था...लिखता गया...बस लिखता गया"....


"बीवी भी मुझे पूरी लगन और इमानदारी से काम करता देख फूली नहीं समा रही थी"


"दो दिन बाद मैँ प्रिंट आउटस के साथ रैडी था"

"अब तो बस!..'तुलसी'की शादी में 'एकता'का ही इंतज़ार है कि...

कब हो शादी और कब मैँ वहाँ अपनी रचनाओं के पुलिन्दे से उडा दूँ सबकी किल्ली और मार लूँ मैदान"


"चैन अब किसे था ए राजीव?"


"एकता जो खुद नोटों के बण्डल हाथों में ले आ-आ मेरे ख्वाबों की एकाग्रता को भंग करने लगी थी"

"खैर....किसी ना किसी करके सैलीब्रेशन का दिन आ पहुँचा...

"सुबह जल्दी ही उठ गया था मैँ"...

"इसलिए नहीं कि शादी पे जाना है बल्कि इसलिए कि भूख के मारे बुरा हाल था"..

"बीवी ने पिछले तीन दिनों से सुबह-शाम दो फुल्कों के अलावा कुछ दिया भी तो नहीं था"

"कहती थी कि यहीं खा-पी लोगे तो वहाँ जा के क्या पाढोगे?"

"कद्दू...?"

"अब समय काटे नहीं कट रहा था कि कब शाम हो और कब मैँ तैयार होऊँ?"

"शैम्पू-वैम्पू...कँघी-वँघी कर हम मियाँ-बीवी तैयार हो जाने को तैयार खडे थे कि मैँ बीवी से बोला..

"ज़रा कार्ड तो लाओ शादी का"

"देख तो लें कि जाना कहाँ है"

"कहीं बाद में पता चले कि जाना था किसी शादी में और पहुँच गए किसी और में"...

"याद है ना पिछली बार का जब 'रोज़ी'की शादी का न्योता आया था इन्दौर से ...

"बडे मज़े से टिकट कटवा पहुँच गए थे हम दोनों"..

"ये तो वहाँ जा के पता चला था कि हम समझे कुछ और वो 'खसमाँ नूँ खाणी'निकली और कुछ"


"फोटो अभी तक सम्भाल के रखी है मैँने"...

"महीने-सवा महीने में ताक ही लेता हूँ उसकी तरफ कि फिर कभी न हो ऐसा"

"हादसे भी कभी भूले जाते हैँ यूँ ही साल दो साल में?"




"उफ!...कर दिया ना सत्यानाश तुमने?"मैँ कार्ड का मज़मून पढते ही चिल्ला पडा

"बडी आई मुझे अक्ल देने वाली कि ये-ये लिखो और वो-वो ना लिखो"

"खुद को अक्ल नहीं है धेल्ले की और बाँटने चली हो इस परमज्ञानी को ज्ञान"



"हुँह!...बडी आई मुझे शादी का चौदह साल पुराना कोट-पैंट एडजस्ट करवा बॉबू बनाने वाली". .

"सच्ची!...पहन लो...हैडसम लगोगे बहुत...कसम से"

"ये सब कह-कह के बडा मक्खन लगाया जा रहा था कि आ जाऊँ किसी तरह से तुम्हारे झाँसे में"


"और मैँ मूर्ख तुम्हारे इस भुलावे में फँस पूरे तीन दिन भूखा रहा कि ...

"ले बेटा!...कर ले डॉयटिंग-शॉयटिंग"...

"घटा ले तोंद-शोंद"...

"क्या पता हीरो का चाँस ही दे डाले अपनी'एकता"

"हुँह!...."


"आखिर हुआ क्या?"...

"कुछ बोलोगे भी"

"या यूँ ही बकवास करते रहोगे बे फाल्तू में?"


"ले!...

ले पढ खुद ही"...


"आज भी जलूस निकलवा के ही दम लेना था मेरा?"


"देख! ...


हाँ!...ध्यान से देख....कौन सी 'तुलसी' की शादी हो रही है वहाँ"


"ठीक ही तो लिखा है कि 'तुलसी'की शादी है"बीवी मिचमिचाती हुई आँखो पे ज़ोर डाल पढती हुई बोली

"बेवाकूफ...आँखो के ढक्कन पे वाईपर मार ढंग से और ध्यान से देख कि. ..

ये तेरी सीरियल वाली 'तुलसी'नहीं बल्कि...




'तुलसी मैय्या'की शादी है अपने 'विष्ण भगवान (Vishnu Bhagvaan)के साथ "


"आज ही के दिन तो होती है"



"ये तो शुक्र है 'तुलसी मैय्या'का कि बचा लिया वर्ना तुमने तो अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोडी थी जलूस निकलवाने में"


"जय हो!...

जय हो!..'तुलसी'मैय्या की"






***राजीव तनेजा***

इस प्यार को क्या नाम दूँ-राजीव तनेजा


***राजीव तनेजा***
"दिल की ये आरज़ू थी कोई दिलरुबा मिले"...
"आखिर तुम्हें आना है...ज़रा देर लगेगी"...
आज ये सब गाने मुझे बेमानी से लग रहे थे क्योंकि सब कुछ धीरे-धीरे सैटल जो होता जा रहा था|आज भी पुराने दिन याद करता हूँ तो सिहर-सिहर उठता हूँ|उफ!..वो दिन भी क्या दिन थे जब मैँ दिन रात इसी सपने में खोया रहता कि... काश..सपने में ही दिख जाए वो मुझे किसी तरह|असलियत में तो नामुमकिन सी बात जो लगती थी|उसका चेहरा हमेशा मेरी आँखो के आगे छाया रहता|ज़मीन पर रह कर चाँद को पाने की चाहत थी मेरी|पहली बार बचपन में बडे पर्दे पर ही तो देखा था उसे|
"सामने ये कौन आया...दिल में हुई हलचल...
देख के बस एक ही झलक...हो गए हम पागल"..
उफ!..क्या कयामत बरपायी थी उसने अपने पहले ही जलवे में..जिसे देखो...वही शैंटी फ्लैट हुए जा रहा था तो अपुन किस खेत की गाजर-मूली थे?थे तो हम भी हाड़-माँस के मामुली इंसान ही ना?...सो!..कैसे बचे रह्ते उसके मोह पाश से? बस अब तो ना दिन को चैन था और ना रही रातों की नींद|जानता था कि मेरी किस्मत में नहीं है वो..कोई बड़ा आदमी ही ले जाएगा उसे
"मेरी किस्मत में तू नहीं शायद...क्यूँ तेरा इंतज़ार करता हूँ...
मैँ तुझे कल भी प्यार करता था...मैँ तुझे अब भी प्यार करता हूँ"
लोगों से सुना है...किताबों में लिखा है...सबने यही कहा है कि...
“नखरे बहुत हैँ स्साली के….खर्चीली इतनी कि पूछो मत...किसी आँडू-बाँडू को पुट्ठे पे हाथ तक नहीं धरने देती है"
अब ये बावले क्या जानें कि नखरे तो होने ही हैं....टॉप की आईटम जो ठहरी...अब हर किसी ऐरी-गैरी...नत्थू-खैरी के बस का कहाँ कि वो लटके-झटके दिखाती फिरे? नखरे दिखाना भी अदा होती है ...स्टाईल होता है|
अब तो खुमार ऐसा छाया दिल ओ दिमाग पे कि लाख उतारे ना उतरा|सबने बहुत समझाया कि…
“रहने दे...तेरे बस कि बात नहीं...ऊँचे लोगों की ऊँची पसन्द भला गरीब के घर में एडजस्ट कैसे करेगी?"
"बड़े ही प्यार से...जतन से रखूँगा…सब नखरे सह-सह लूंगा|रूठ गयी तो ...प्यार से...मान मनौवल से मना लूंगा"
अब किसी और को बसाने की इस दिल ए नादाँ में चाहत ना रही|बचपन से ही दिल में यही इकलौती इच्छा समाई हुई थी कि...एक ना एक दिन उसे लाना ज़रूर है| जब जवान हुआ और थोड़ा-बहुत कमाना भी शुरू कर दिया तो कईओं ने घर आ-आ के खुद ही कहना शुरू कर दिया कि….
“आप हमारी वाली ले जाएँ"
"मैँ मन ही मन सोचता कि…
“इनकी जूठन?...और..वो मैँ सम्भालूँ?"
"हुंह!…ऐसी होने से तो न होना ही अच्छा है”…
 लेकिन कम कमाई होने की वजह से सिवाय चुप लगा के रहने के मेरे पास कोई चारा नहीं होता था|अफसोस भी तो इसी बात का था कि कोई फ्रैश पीस स्साली आ के ही राज़ी नहीं था मेरे पास| जो भी मिलती ...जैसी भी मिलती …कोई ना कोई कमी साथ लिए ज़रूर होती|किसी का फिगर बेकार तो किसी के रंग रूप में दम वाली बात नज़र नहीं आती|कोई सूरत-शक्ल से बेकार तो कोई नैन-नक्श से कंडम| कोई ज़रूरत से ज़्यादा तगड़ी कि लाख संभाले ना संभले तो किसी का कमज़ोरी में कोई सानी नहीं|कोई मेकअप से लिपी-पुती...
तो कोई बिना मेकअप के अपना कांति विहीन दीन चेहरा लिए नज़र आती|
अपुन ने तो अपने सभी यार-दोस्तों से साफ-साफ कह दिया था कि..
"लाएँगे तो एक्दम सॉलिड पीस ही लाएँगे वर्ना खाली हाथ बैठे रहेंगे|अब…ये बेकार की '*&ं%$#@'पीस अपने बस की बात नहीं”
सुन जो रखा था बड़े-बुजुर्गों से कि…सब्र का फल मीठा होता है...तो सोचा कि क्यों ना सब्र करके भी देख लिया जाए?
डायबिटीज़ हुई तो क्या हुआ?...थोड़ा-बहुत मीठा तो झेल ही लूँगा| और फिर इसमें आखिर हर्ज़ ही क्या है? क्या मालुम आने वाला कल सुनहरा ही हो?
"हम होंगे कामयाब एक दिन...हो..हो...मन में है विश्वास...पूरा है विश्वास"
"खैर!...हम सब्र पे सब्र करते रहे और वो ऊपर बैठा-बैठा हमारे सब्र का इम्तिहान लेता रहा|पहले तो ये बहाना था जनाब के पास कि मुंडा कमाता नहीं है|
“अरे!…अब तो ठीकठाक कमाने भी लगा हूँ...अब क्या एतराज़ है आपको?"
अब वैसे कहने को तो कई ठीक-ठाक काम चलाऊ अपने रस्ते में आती रही...टकराती रही लेकिन इस चक्कर में कि सिर्फ और सिर्फ सालिड मॉल पे ही हाथ डालना है….मैँ बेवाकूफ!..सबको एक लाइन से रिजैक्ट पे रिजैक्ट करता चला गया|यही सोच थी मेरी कि ऊपरवाला रहमदिल है...उसके घर देर है पर अन्धेर नहीं है|कोई ना कोई तो उसने मेरे लिए भी ज़रूर बनाई होगी|सुन जो रखा था कि…
“जोड़ियाँ ऊपर..स्वर्ग में ही तय हो जाया करती हैं”
तो चलो!...देख ही लेते हैँ कि कब जागती है अपनी रूठी हुई किस्मत? बस!…इसी चक्कर में उम्र बढती रही..बढती रही|अब तो पड़ोसियों तक ने भी टोकना शुरू कर दिया था कि...
“अब मज़े नहीं लेगा तो क्या बुढापे में लेगा?…बाद में तेरे किसी काम ना आएगी...दूसरे ही मौज उड़ायेंगे|जब कब्र में पैर लटके होंगे तो ला के क्या धूप-बत्ती करेगा?”
“अगर ढंग की एक नहीं मिलती है तो कामचलाऊ दो ही ले आओ"एक मज़ाक उड़ाता हुआ बोला
"आजकल बडी सस्ती मिल रही हैँ नेपाल में और आसाम में"
मुझे गुस्सा आ गया...बोला…."नेपाल और आसाम का लोकल माल आप ही को मुबारक हो शर्मा जी|अपुन को तो चाहिए..एकदम स्टाईलिश वाला"
“तेरे बस का नहीं है ये सब"उधर से उखड़ा-उखड़ा सा जवाब मिला
"शर्मा जी!...आपसे अपनी तो संभलती नहीं ठीक से और चले हैँ लैक्चर देने दूसरों को...पहले अपना घर तो ठीक करो जा के”मैं भी कौन सा कम था…छूटते ही जवाब दिया
"चिनॉय सेठ!...जिनके घर शीशे के होते हैँ वो दूसरों के घरों पे पत्थर नहीं फैंका करते"
"कुछ इल्म भी है आपको कि कभी कोई तो…कभी कोई आपकी वाली के साथ मौज उडा रहा होता है?…कभी चाँदनी चौक तो कभी चॉयना? और आप हैं कि आपको कोई फिक्र ही नहीं…कोई चिंता ही नहीं…वाह साहब!..वाह"
"एक-आध को तो मैँने 'बाराटूटी' में भी गुल्छर्रे उडाते देखा था आपकी वाली के साथ…सच...इन्हीं आँखो से|आप बुज़ुर्ग हैँ...आपकी इज़्ज़त कर रहा हूँ वर्ना आपकी जगह कोई और इतनी चूं-चपड़ करता तो अभी के अभी मुँह तोड़ के दांत हाथ में दे देता"…
“अरे!…तो फिर पहले बताना था ना….मेरी ये…बायीं दाढ़ पिछले दो महीने से बड़ी तंग कर रहा था…आज ही उखड़वा के आया हूँ ससुरी को ..
“हुंह!…खामख्वाह में पैसे बर्बाद कर दिए…एक मुक्का ही तो लगता….थोड़ा दर्द ही तो होता”…
"हाँ-हाँ!…मैं तो जैसे आपको घसियारा नज़र आता हूँ ना जो मुफ्त में ही दांत तोड़ देता?”…
“अरे!…अपनों से भी भला कोई पैसे लेता है?”…
“सही है…देवर को नहीं देनी भले ही जंग लगे खूंटे से …..
शर्मा जी की नीयत देख मूड खराब हो चला था मेरा…एक तो पैसे नहीं…ऊपर से लग रहा था कि बिना उस…अपनी दिलरुबा के ही पूरी ज़िन्दगी काटनी पडेगी|
"ये सब ख्यालात दिल में उमड़-घुमड़ ही रहे थे कि अखबार में छपे एक इश्तेहार ने सारा मूड एकदम से फ्रैश कर दिया|बार-बार उसी…एक ही सफे को मैं पढे जा रहा था जिसमें मेरी जॉनेमन का जिक्र था| अपनी चमचम कर चमकती किस्मत पे जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था मुझे|बार-बार खुद को यहाँ-वहाँ चिकोटी काटता कि... "या अल्लाह!...क्या ये सच है?"
अब दिल का भंवर झूम-झूम गाने लगा..
"जिसका मुझे था इंतज़ार...वो घडी आ गयी...आ गयी"...
"जिसके लिए था दिल बेकरार...वो घडी आ गयी..आ गयी"
अब रुका किस कम्भख्त से गया? सीधा दिया हुआ फोन नम्बर मिलाया और सारी बातचीत करने के बाद तुरंत ही बताए गए पते पे जा पहुँचा|वो…तैयार खडी मानों मेरी ही राह तक रही थी|
“उफ्फ!…इस प्यार को क्या नाम दूँ?…दबे हुए जज़बातों को क्या अल्फाज़ दूँ?"
शायद!...पहली नज़र का पहला वाला प्यार यही था…लव ऐट फर्स्ट साईट|जब अपने बारे में सब कुछ तफ्तीश से बताया उन्हें कि...
तनख्वाह के अलावा कितना कमाता हूँ ऊपर से और...क्या क्या शौक हैँ मेरे वगैरा वगैरा|तो कहीं जा के उन्हें तसल्ली हुई कि यही बन्दा ठीक रहेगा|हर किसी राह चलते ऐरे-गैरे नत्थू खैरे के हाथ कैसे थमा देते? पहले भी तो देख चुके थे किसी अनाड़ी के हाथ में उसका हाथ दे के|
क्या हुआ?…
“दो दिन भी ठीक से सम्भाला नहीं गया और उल्टे पाँव लौटा दी…बैरंग?"
अब तसल्ली हो चुकी थी दिल को कि अब किसी को फाल्तू बोलने का मौका नहीं मिलेगा|यार-दोस्त...पड़ोसी-रिश्तेदार...सबके मुँह बन्द हो जाएँगे खुद बा खुद|बड़े कहते फिरते थे कि...
“राजीव के बस का कुछ नहीं..ऐसे ही वेल्ले हाँकता फिरता है" ..
ये!..बड़ा सा...मोटा सा…किंग साईज का ताला लग जाएगा उनकी लपलपाती ज़बान को|अब अपने मुँह से क्या तारीफ करूँ कि...
वो दिखने में कैसी है? रंग-रूप कैसा है उसका?..स्टाईल कैसा है उसका?…फिगर कैसी है उसकी? वगैरा...वगैरा...
उफ!...कैसे तारीफ करूँ उसकी? रंग-रूप तो ऐसा कि एक बारगी तो चाँद भी शर्मा उठे| कोमल इतनी कि छू लेने भर से दाग लग जाए|बस…यूँ समझ लो कि एक दम मक्खन के माफिक चिकनी| चाल ऐसी मतवाली कि धन्नो को फेल कर दे|जब सड़क पे वो सज-धज के निकले तो सब की सब निगाहेँ थम जाएँ| कसा हुआ भरपूर बदन ऐसा कि बडे-बडे विश्वामित्र ललचा उठें…आँखे चौँधिया जाएँ उनकी…बोलती बन्द हो उठे|
"तारीफ करूँ क्या उसकी...जिसने तुम्हें बनाया...
ये चाँद सा रौशन चेहरा…ज़ुल्फों का रंग सुनहरा"...
ऊप्स!..ये ज़ुल्फें कहाँ से आ गई बीच में?..हैँ ही कहाँ उसके ज़ुल्फें? ..मुझे तो कहीं दिखाई ही नहीं दी|
अब वो ऐसी है...या फिर वो वैसी है...मेरे कहने से तो आप मानने से रहे|तो आप खुद ही ज़हमत उठाते हुए उसकी एक झलक देख क्यों नहीं लेते?आप भी अगर फिदा न हो उठें तो मेरा नाम भी तनेजा… ‘राजीव तनेजा'  नहीं"...
जय हिंद
***राजीव तनेजा***

"इंकलाब ज़िन्दाबाद"



"इंकलाब ज़िन्दाबाद"

***राजीव तनेजा***

"क्या मुझे जीने का कोई हक नहीं?"..

"क्या मेरे भी कुछ अरमाँ नहीं हो सकते?"...

"क्या हर वक्त...

हर घडी मेरे अरमानों का यूँ ही गला घोटा जाता रहेगा?"...

"क्या सिवाय चुपचाप टुकुर-टुकुर ताकने के कुछ भी नहीं कर पाऊँगा मैँ?"...

"क्या मेरे अरमानों कि चिता यूँ ही खुलेआम जलती रहेगी?"...

"क्या मेरी तमाम हसरतें यूँ ही ज़िन्दा दफ्न होती रहेंगी हमेशा?"...

"क्या मेरा साथ देने वाला कोई नहीं होगा इस पूरे जहाँ में?"..

"क्या मुझे कभी खुशी नसीब होगी?"...

"होगी भी या नहीं?"...

"क्या मुझे हर घडी यूँ ही घुट-घुट के जीना पडेगा"..


"क्या सपने देखना गुनाह है?"...

"पाप है!..?"


"हाँ!..अगर ये गुनाह है..पाप है ...तो...

ये गुनाह...

ये पाप मैँ हर रोज़ करूँगा"..

"बार-बार करूँगा"


"रोक सको तो रोक लो"


"जी में तो आता है कि...

कहीं से '56' या '47'मिल जाए घडी दो घडी के लिए और..

आव देखूँ ना ताव...सीधे-सीधे दाग दूँ पूरी की पूरी '6' की'6'"


"आखिर बरदाश्त की भी एक हद होती है"...

"बच्चे की भी एक ज़िद होती है"


"दोस्तो!...आज मेरा जो हाल हो रहा है"...

"जो मुझ बदनसीब पर बीत रही है"

"भगवान ना करें कि ऐसा मेरे किसी दुशमन के साथ भी कभी हो"


"मगर!...असलियत में सच तो ये है कि यही सब आपके साथ भी होने वाला है"

"चाहे आज हो...या फिर कल...या फिर किसी और दिन"


"इसलिए वक्त के तकाज़े और मौके की नज़ाकत को समझते हुए...

आओ!..हम एक हो जाएँ और...

इस ज़ुल्म और अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाएँ"


"याद रहे!..

"बन्द है मुट्ठी तो...लाख की...

खुल गयी तो फिर...खाक की"


"इकलाब ज़िन्दाबाद"

"ज़िन्दाबाद...ज़िन्दाबाद"


"कह दें आज हम उनसे कि हम एक थे ...

एक हैं और एक रहेंगे"

"जो हमसे टकराएगा...चूर-चूर हो जाएगा"


"बहुत सह लिए हमने ज़ुल्म ओ सितम"

"अब उनकी बारी है"

"आने वाला कल हमारा है"...


"हमारा है...हमारा है"


"हमारे सब्र का इम्तिहाँ अब और ना लो...फूस को चिँगारी अब और न दो"


"आखिर!..क्या नाजायज़ माँगा था मैँने उस से ?"

"क्या घिस जाता उसका?"

"कौन सा मैँ उस से ..घर बसाने की बात कर रहा था जो इतना भडक खडी हुई?"

"सिर्फ दोस्ती का हाथ ही तो माँगा था बस...

"और क्यों ना माँगता भला?...

"आखिर!..पहल भी तो उसी ने की थी"

"पहली 'मेल' भी तो उसी की तरफ से ही आई थी..."

"मेरी तरफ से नहीं"

"मैँने तो बस!..रिप्लाई भर ही किया था"


"सलामे इश्क मेरी जाँ...ज़रा कबूल कर लो...

तुम हमसे प्यार करने की ज़रा सी भूल कर लो"



"कर्म फूटे थे मेरे जो...

वो जो जो पूछती चली गयी...

मैँ साला!...राजा हरीश चन्द्र की औलाद ...

सब का सब सच सच बताता चला गया"


"इस साले!..सच्चाई के कीडे ने मुझे कहीं का ना छोडा"

"अगर पता होता कि वो ऐसे पागल घोडी की तरह बिदकेगी तो....

मैँ क्या मेरे बाप की तौबा जो कभी भूले से सच का नाम भी ज़बान पे लाता"


"अब किसे क्या दोष दूँ ए राजीव?...जब चिडिया चुग गयी खेत"

"मति तो मेरी ही मारी गयी थी ना?"

"इस साले!..सच बोलने के भूतिए पिशाच ने मुझे कहीं का नहीं छोडा"


"क्या ज़रूरत पड गयी थी उस बावली को इतना फुदकने की?कि..

मुझ मासूम से भी तो सच बोले बिना रहा कहाँ गया कि...

"मैँ शादीशुदा हूँ और मेरे तीन 'न्याणे' भी हैँ"


"मैँने तो यही सोचा था कि एक तजुर्बेकार दोस्त पा कर वो फूली नहीं समाएगी और .. .

बैठे-बिठाए अपनी मौज हो जाएगी"


"सच है!..बिन माँगे मोती भी मिल जाए तो उसकी वो कद्र नहीं होगी जो होनी चाहिए"

"बैठे बिठाए बावली को अच्छा-भला गुरू मिल रहा था और वो मुझे गुरू घंटाल समझ बिना मेरी घंटी खडकाए चली गयी"


हुण तुस्सी आप ही दस्सो कि...

"की शादी करणा गुनाह हैगा?"

"पॉप हैगा?"

"अफैंस हैगा?"


"अगर है वी ते एदे विच्च मेरा की कसूर?"

"जा के फडो मेरे माँ-प्यो नूँ कि तुस्सी ऐ ज़ुल्म राजीव नॉल क्यों कीत्ता?"

"चंगे भले न्याणे नूँ ज्वाकाँ आला बना के छड्ड दित्ता"


"आय हाय!.हुणॅ ऍ पँजाबी कित्थों वड गयी आ के विच्च सिर्.रर सड्डान नूँ?"

"छ्ड्डो जी पँजाबी नूँ अते.. फडिए अपणी हिन्दी ज़बान नूँ"

"पूछो!..मेरे माँ बाप से कि क्या जल्दी पड गयी थी उन्हेँ मुझे इस दुनिया में लाने की?"

"अब लाए तो लाए"...

"कोई बात नहीं...लेकिन...

फिर क्या जल्दी पड गयी थी मुझे इतना जल्दी ब्याहने की?"

कौन सा टैक्स लगा जा रहा था कि. ..

"बेटा!..जल्दी से शादी कर ले"...

"सुना है!...'एण्टरटॆनमैंट' टैक्स बढने ही वाला है"

"अब बढ रहा था तो बढने देते"...

"कौन सा अपुन ने कभी टैक्स भरा है जो अब भर देते?"

"कभी शेर को गीदड का पानी भरते देखा है ?"

"नहीं ना?"

"फिर?"



"और वैसे भी अभी कौन सा मैँ बुड्ढा हो मरे जा रहा था इस जस्ट चालीस की उम्र में ?जो...

आव देखा ना ताव और बाँध दी अपुन के गले में घंटी कि...

"ले बेटा!..अब तू ही बजा इस घडियाल को"


"हाँ!..घंटी कहाँ?...घडियाल ही तो थमा दिया था उन्होंने मेरे हाथ में कि...

"ले बेटा!...मोटा दहेज अंटी में आ रहा है ...थाम ले बिना किसी लाग लपेट के"

"अब थोडा-बहुत तो काँप्रोमाईज़ करना ही पडता है लाईफ में"

"सो!...मुझे भी करना पडा माँ-बाप की खातिर"

"आज्ञाकारी जो ठहरा"

"अब खुद तो उन्होंने गुज़ार दी अपनी पूरी ज़िन्दगी एक ही...इकलौते खूँटे से बन्धे-बन्धे..

वैसे सच कहूँ तो ये अपुन का अन्दाज़ा भर ही है कि...खूँटा एक ही था"

"अब अपने दही को खट्टा कैसे कहूँ?"

"हलवाई बिरादरी का ना हुआ तो क्या हुआ ..

इतनी समझ तो रखता ही हूँ पल्ले कि क्या सही है और क्या गल्त"


"अब वैसे भी मुझे क्या मतलब कि खूँटा एक ही था या फिर बहुत सारी खूँटियाँ?....

"अपुन को तो तीनों टाईम रोटियाँ पकी-पकाई मिल ही जाया करती थी"

"कभी पिताजी बाहर से ले आते थे तो कभी माँ जी"

"लेकिन अपने चक्कर में मेरी तो सोची नहीं गई उनसे और ऐसी तैसी कर डाली मेरी"...

"वजह पूछो तो जवाब मिलता कि अभी नहीं करोगे तो फिर कोई मिलनी भी नहीं है बुढापे में"

"अब उन्हें कौन समझाए ए राजीव कि मर्द और घोडा कभी बुड्ढा हुआ है भला?...जो मैँ हो जाता"


"इतना तो देख ही सकते थे वो कि...

अभी तो ये पट्ठा एकदम से पूरा का पूरा...

सोलह आने....सौ फीसदी...

लँबा चौडा मर्द तंदुरस्त जवाँ मर्द है"

"अगर अपनी औलाद पे विश्वास नहीं था तो कम से कम बाजू वाली पडोसन से ही तो पूछ लेते"...

"खूब छनती जो है उस से "

"उसने भी यही जवाब देना था कि अब मैँ अपने मुँह से कैसे कहूँ?...

पडोस वाली शर्मा ऑटी से ही पूछ लो"


"अब यार!..आप तो समझदार हैँ...

ऐसे भरे-पूरे जवाँ मर्द की कोई ऐरी-गैरी...नथ्थू खैरी यूँ ही मिनट भर में...

मिट्टी पलीद कर दे तो गुस्सा नहीं आएगा क्या?"


"इसमें गल्त ही क्या है?"

"आप ही बताओ...

बताओ...बताओ"


"ज़्यादा हँसो मत"...

"नकली बत्तीसी है"...

"टपक पडेगी"


"ये सच्चे आशिक की ऑह है"...

"लगे बिना नहीं मानेगी"


"क्या हुआ जो हमारा सडक छाप आशिक हुए?"...

"आशिक तो आशिक होता है"

"अमीरे-गरीब...

छोटा-बडा..

हिन्दू-मुस्लिम...

सिख-इसाई...

काला-गोरा...

उसके लिये ये सब कुछ मायने नहीं रखता"

"तो आओ आशिको!...आओ"..

"आज हम साबित कर दें इन बद-दिमाग लडकियों को कि....

"हम एक हैँ...एक थे...और एक रहेंगे"

"हाँ!...हम में है दम"



"इंसाफ की डगर पे ...लडको दिखाओ चल के...

ये लडकियाँ हैँ तुम्हारी...आशिक तुम्हीं हो कल के"


"इन लडकियोँ की तानाशाही...

नहीं चलेगी...नहीं चलेगी"


"हम से जो टकराएगा...चूर-चूर हो जाएगा"

"हम किसी से कम नहीं"..

"देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है"

"तो आओ!..मिलकर आज हम ये अहद करेँ...

"अपनी आवाज़ बुलन्द करें"...

"उठाओ झण्डा और... हो जाओ शुरू...

"इंकलाब ज़िन्दाबाद"...

"ज़िन्दाबाद...ज़िन्दाबाद"

"जय हिन्द"....


"तालियाँ"

***राजीव तनेजा***

"आओ खेलें हम ब्लॉगर बलॉगर"

"आओ खेलें हम ब्लागर-बलागर"

***राजीव तनेजा***


सम-समायिक पे तुम लिखो
हास्य में व्यंग्य मैँ लाता हूँ
चिट्ठे पे मेरे तुम टिपिआओ
तुम्हारे चिट्ठे मैँ टिपियाता हूँ

आओ खेलें हम ब्लागर-बलागर...
आओ खेलें हम ब्लागर-बलागर...

जतन से तुम ये-ये लिखो
प्रयत्न से मैँ वो-वो लिखता हूँ
कॉपी तुम वहाँ से करो
पेस्ट यहाँ से मैँ करता हूँ

आओ खेलें हम ब्लागर-बलागर...
आओ खेलें हम ब्लागर-बलागर...

एडसैंस मेरी तुम चटकाओ
तुम्हारी किस्मत मैँ ज़माता हूँ
टीका टिपण्णी तुम करो..
नुक्ता चीनी मैँ करता हूँ

आओ खेलें हम ब्लागर-बलागर...
आओ खेलें हम ब्लागर-बलागर...

तुम मेल कर मेल बढाओ
मैँ मोबाईल से बतियाता हूँ
ओनलाईन नहीं घर आओ
वाईन पकोडे मैँ मँगवाता हूँ

आओ खेलें हम ब्लागर-बलागर...
आओ खेलें हम ब्लागर-बलागर...

कवि गोष्ठी तुम रखवाओ
ब्लॉगर मीट मैँ बुलवाता हूँ
नॉन वैज तुम खिलवाओ
शाकाहार मैँ परोसवाता हूँ

आओ खेलें हम ब्लागर-बलागर...
आओ खेलें हम ब्लागर-बलागर...

नारद शरणम तुम जाओ
चिट्ठाजगत हो मैँ आता हूँ
नारद बन चुगली तुम करो
चिट्ठा मैँ सबका फैलाता हूँ

आओ खेलें हम ब्लागर-बलागर...
आओ खेलें हम ब्लागर-बलागर...

ब्ळोगवाणी से तुम्हें प्यार हो
सारथी रथ का मैँ घुडसवार हूँ
इष्ट का अपने तुम नाम जपो
सिद्ध को अपने मैँ तकता हूँ

आओ खेलें हम ब्लागर-बलागर...
आओ खेलें हम ब्लागर-बलागर...


***राजीव तनेजा***

तलाश मुझे है किसकी"

"तलाश मुझे है किसकी"

***राजीव तनेजा***

तलाश मुझे है किसकी
क्यूँ ये मैँ नहीं जानता
भूल जाऊँ कैसे उसे
दिल है नहीं मानता

एक झलक देखी जब से
अवचेतन मन बसी तब से
काश मिल जाए वो मुझे
सच जो चाहत है मेरी

भूल जा कहे गर खुदा भी
उडने दूं कैसे अपनी हँसी
पल-पल याद करता दिल
खोज लाउंगा ढूँढ लाउँगा
करूँगा हासिल

***राजीव तनेजा***

"बडा दिन"

"बडा दिन"

***राजीव तनेजा***

"बात पिछले साल की है....चार दिन थे अभी त्योहार आने में...

मैँ मोबाईल से दनादन 'एस.एम.एस'किए जा रहा था"

"क्रिसमस का त्योहार जो सिर पर था लेकिन ये 'एस.एम.एस' मैँ..

अपने खुदगर्ज़ दोस्तों को या फिर मतलबी रिश्तेदारों को नहीं कर रहा था"

"ये तो मैँ उन रेडियो वालों को भेज रहा था जो ....

गानों के बीच-बीच में अपनी टाँग अडाते हुए बार-बार ..

फलाने व ढीमके नम्बर पे 'एस.एम.एस' करने की गुजारिश कर रहे थे कि...

फलाने-फलाने नम्बर पे 'जैकपॉट'लिख के 'एस.एम.एस' करो तो...

'साँता'आपके घर-द्वार आ सकता है ढेर सारे ईनामात लेकर"







"सो!...मैने भी चाँस लेने की सोची कि यहाँ दिल वालों की दिल्ली में लॉटरी तो बैन है ही ...

तो चलो 'एस.एम.एस' ही सही"...

"क्या फर्क पडता है?"

"बात तो एक ही है"...

"एक साक्षात जुआ है तो दूसरा मुखौटा ओडे उसी के पद-चिन्हों पे खुलेआम चलता हुआ उसी का कोई भाई-भतीजा"

"साले!...यहाँ भी रिश्तेदारी निभाने लगे"


"सो!...अपुन भी किए जा रहे थे 'एस.एम.एस' पे 'एस.एम.एस'कि....

जब खुद ऊपरवाला आ के छप्पर फाड रहा है अपने तम्बू का और...

बम्बू समेत ही हमें ले चल रहा है शानदार-मालादार भविष्य की तरफ कि...


"लै पुत्तरर !..कर लै हुण मौजाँ ही मौज़ाँ"


"हो जाण गे हुण तेरे वारे-न्यारे"


"अब ये कोई ज़रूरी नहीं कि हमेशा तीर ही लगें निशाने पे"...

"तुक्के भी तो लग ही जाया करते हैँ निशाने पे कभी-कभार"...

"कोई हैरानी की बात नहीं है इसमें जो इस कदर कौतुहल भरा चौखटा लिए मेरी तरफ ताके चले जा रहे हैँ आप"


"क्या किस्मत के धनी सिर्फ आप ही हो सकते हैँ?"

"मैँ नहीं"...


"उसके घर देर है ...अन्धेर नहीं"...


"कुछ तो उसकी बे-आवाज़ लाठी से डरो"


"अब यूँ समझ लो कि अपुन को तो पूरा का पूरा सोलह ऑने यकीन ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास हो चला है कि...

अपनी बरसों से जंग खाई किस्मत का दरवाज़ा...

अब खुला कि....अब खुला"


"दिन में पच्चीस-पच्चीस दफा कलैंडर की तरफ ताकता कि अब कितने दिन बचे हैँ पच्चीस तारीख आने में"


"पच्चीस तारीख!...?"..


"अरे!...बुरबक्क...लगा दी ना टोक"


"हाँ!...पच्चीस तारीख"


"कितनी बार कहा है कि यूँ सुबह-सुबह किसी के शुभ काम में अढंगा मत लगाया करो लेकिन...

तुम्हें अक्ल आए तब ना"


"पच्चीस बार पहले ही बता चुका हूँ कि पच्चीस दिसम्बर को ही तो मनाया जाता है 'बडा दिन' दुनिया भर में"...


और आप हैँ कि हर बार इसे 'बडा खाना' समझ लार टपकाने लगते हैँ"


"पेटू इंसान कहीं के "...


"बडा खाना तो होता है फौज में लेकिन तुम क्या जानो ये फौज-वौज के बारे में"...

"कभी राईफल हाथ में पकड के भी देखी है या माउज़र चला के देखा है कभी?"


"छोडो!...अब ये तुम्हारे लडकियों की नाज़ुक कलाईयाँ को थामने को बेताब हाथ क्या राईफल-शाईफल पकडेंगे?"


"यू!..बेवाकूफ 'सिविलियन'..."


"इन मेनकाओं का मोह त्याग ...देश की फिक्र करो बन्धुवर...देश की"


"हाँ!..तो मैँ कह रहा था कि जैसे-जैसे पच्चीस तारीख नज़दीक आती जा रही थी...

मेरी 'एस.एम.एस'करने की स्पीड में भी तेज़ी से इज़ाफा होता जा रहा था"...


"कई हज़ार के तो मैँ रिचार्ज करवा चुका था अभी तक "


"पुराना चावल जो ठहरा"


"मालुम जो था कि जितने ज़्यादा 'एस.एम.एस'...उतना ही ज़्यादा चाँस जीतने का"


"सो!...भेजे जा रहा था धडाधड 'एस.एम.एस' पे 'एस.एम.एस'"



"अब तो मोबाईल में भी बैलैंस कम हो चला था लेकिन फिक्र किस कम्भखत को थी?"


"लेकिन सच कहूँ तो थोडी टैंशन तो थी ही कि सब यार-दोस्त तो पहले से ही बिदके पडे हैँ अपुन से "...

"फाईनैंस का इंतज़ाम कैसे होगा?".. .

"कहाँ से होगा?"

"ऐसे आडॆ वक्त पे अपने 'जीत बाबू'की याद आ गयी"


"बडे सज्जन टाईप के इंसान हैँ"...

"किसी को न नहीं कहा आज तक"

"भले ही कितनी भी तंगी चल रही हो लेकिन कोई उनके द्वार से खाली नहीं गया कभी"

"किसी पराए का दुख तक नहीं देखा जाता उनसे"

"नाज़ुक दिल के जो ठहरे"

"जो आया...जब आया...हमेशा सेवा को तत्पर"

"इतने दयालु कि कोई गारैंटी भी नहीं माँगते"

"बस तसल्ली के लिए घर,दुकान,प्लाट या गाडी-घोडे के कागज़ात भर रख लेते हैँ अपने पास "

"वैसे औरों से तो दस टका ब्याज लेते है मंथली का लेकिन...

अपुन जैसे पर्मानैंट कस्टमरज़ के लिए विशेष डिस्काउंट दे देते हैँ"


"बस बदले में उनके छोटे-मोटे काम करने पड जाते हैँ जैसे...

भैंसो को चारा डालना....

उनके 'टोमी' को सुबह-शाम गली-मोहल्ले में घुमा लाना"


"काम का काम हो जाता है और सैर की सैर"

"इसी बहाने अपुन का भी वॉक-शॉक हो जाता है"...

"वैसे इस बेफाल्तु से काम के लिए अपने पास अपने लिए भी टाईम कहाँ है?"


"ये तो बाबा रामदेव जी के सोनीपत वाले शिविर में उन्हें कहते सुना था कि...

सुबह-सुबह चलना सेहत के लिए फायदेमन्द है"


"फायदे की बात और वो मै ना मानूँ? ...

"ऐसा हरजाई नहीं"

"ऐसी गुस्ताखी करने की मैं सोच भी कैसे सकता था?"


"सो!..अपुन ने भी सोच-समझ के अँगूठा टिकाया और...

अपने जीत बाबू से पाँच ट्के ब्याज पे पैसा उठा धडाधड झोँक दिया इस 'एस.एम.एस' की आँधी में"


"अब दिल की धडकनें दिन प्रतिदिन तेज़ होने लगी ठीक कि ...

क्या होगा?...

"कैसे सँभाल पाउँगा इतनी दौलत को?"

"कभी देखा जो नहीं था ना ढेर सारा पैसा एक साथ"


"क्या-क्या खरीदूँगा?"...

"क्या-क्या करूँगा?"जैसे सैंकडो सवाल मन में उमड रहे थे"


"मैँ अकेली जान!..कैसे मैनेज करूँगा सब का सब?"


"हाँ!..अकेली ही कहना ठीक रहेगा"...

"बीवी को तो कब का छोड चुका था मैँ"


"वैसे!..अगर ईमानदारी से सच कहूँ तो उसी ने मुझे छोडा था"

"अब पछताती होगी "...

"उस बावली को मेरे सारे काम ही जो फाल्तू के लगते थे"..

"हमेशा पीछे पडी रहती थी के बचत करो...बचत करो"...

"कोई काम नहीं आया है और ना कोई आएगा"...

"काम आएगा तो सिर्फ गाँठ में बन्धा पैसा ही"

"दोस्त-यार...रिश्तेदार सब बेकार का...

फालतू का जमघट है"...


"बच के रहो इनसे"


"उस बावली को क्या पता कि ज़िन्दगी कैसे जिया करते हैँ"..

"उसे तो बस यही फिक्र पडी रहती हमेशा कि...

'फीस का इंतज़ाम हुआ बच्चों की?'...

'ये नैट कटवा क्यूँ नहीं देते?'...

'कार साफ करने वाला पैसे माँग रहा था'...

'गाडी की किश्त जमा करवा दी?'


"वो बोल-बोल के परेशान हुए रहती थी बे-फाल्तू में ही"

"शायद!...इसी चक्कर में दुबली भी बहुत हो गई थी"

"अरे!...अगर फीस नहीं भरी तो कौन सा आफत आ जाएगी?"...

"ज़्यादा से ज़्यादा क्या करेंगे?"...

"नाम ही काट देंगे ना?"

"तो काट दें साले!..."...

"कौन रोकता है?"...


"सरकारी स्कूल बगल में ही तो है"...

"एक तो फीस भी कम...

"ऊपर से पैदल का रास्ता"...

"बचत ही बचत"...


"उल्टा!..जो पैसे बच जाएंगे...

तो उनसे कार की किश्त भी टाईम पे भर दी जाएगी"

"वैरी सिम्पल"

"ये आना-जाना तो चलता ही रहता है"

"कभी इस स्कूल तो कभी उस स्कूल"


"कहती थी कि नैट कटवा दूँ"...

"हुँह!..बडी आई नैट कटवाने वाली"...

"इतनी जो फैन मेल बनाई है दो बरस में...

सब!..छू मंतर नहीं हो जाएगी?"


"गुरू!..यहाँ तो चढते सूरज को सलाम है"...

"दिखते रहोगे तो बिकते रहोगे"...

"दिखना बन्द तो समझो बिकना भी बन्द"

"बैठे रहो आराम से"


"फैनज़ का क्या है?"...

"आज हैँ...कल नहीं"...


"आज शाहरुख के कर रहे हैँ तो कल रितिक के पोस्टर रौशन करेंगे लडकियों के बैडरूम"


"टिकाऊ नहीं होती है ये प्रसिद्धी-वर्सिद्धी "...


"बडे जतन से संभाला जाता है इसे"


"अपने!..'कुमार गौरव'का हाल तो मालुम ही है ना?"


"वन फिल्म वण्डर"


"एक फिल्म से ही सर आँखों पे बिठा लिया था पब्लिक ने और...

अगले ही दिन दूजी फिल्म पे उसी दिवानी पब्लिक ने ज़मी पे भी ला पटका था"


"टाईम का कुछ पता नहीं"...

"आज अच्छा है"....

"कल का मालुम नहीं"....

"रहे...रहे"...

"ना रहे ...ना रहे"


"क्या यार!...यहाँ तो पहले ही टैंशन है इतना कि मोबाईल में बैलैंस बचा पडा है और...

दिन जो हैँ वो प्रतिदिन कम होते जा रहे हैँ"

"कैसे भेज पाउंगा सारे पैसे के 'एस.एम.एस'?"

"अब ये सब सोच-सोच के मैँ सोच में डूबा हुआ ही था कि घंटी बजी और लगा कि...

जैसे मेरे सभी सतरंगी सपनों के सच होने का वक्त आ गया"

"मेरे बारे में मालुमात किया उन्होंने ....

पूछने पे पता चला कि रेडियो वाले ही थे और मेरा नम्बर उन्होंने सलैक्ट कर लिया है बम्पर ईनाम के लिए "

"बाँछे खिल उठी मेरी"...

"इंतज़ार की घडियाँ खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी"


"प्यास के मारे हलक सूखा जा रहा था लेकिन पानी पीने का होश और फुरसत किसे थी?"


डर जो था कि कहीं 'साँता जी' गल्ती से ही किसी और के घर ना जा घुसें"...

"खास कर के बाजू वाले शर्मा जी के यहाँ"...

"साले!...दोगले किस्म के इंसान"..

"सामने कुछ और...पीठ पीछे कुछ"

"ऊपर-ऊपर से तो बेटा-बेटा करते रहते थे और अन्दर ही अन्दर मेरी ही बीवी पे नज़र रखते थे"


"बडा समझाते रहते थे मुझे दिन भर कि ...

"बेटा ऐसे नहीं करो...वैसे नहीं करो"

"अरे!...मेरा घर ...मेरी बीवी...

मेरी मरज़ी जो जी में आए करूँ"

"तुम होते कौन हो बीच में अडंगी लगाने वाले?"


"कहीं!...बीवी ही तो नहीं सिखा के गई उन्हें ये सब?"

"क्या पता!..पीठ पीछे क्या-क्या गुल खिलते रहे हैं यहाँ?"


"ये सब सोच-सोच के मैँ परेशान हो ही रहा था कि साँता जी आ पहुँचे"...

"उनका ओज से भरा चेहरा देख ही मेरे सभी दुख ....सभी चिंताएँ हवा हो गई"


"लम्बा तगडा कसरती बदन"...

"सुर्ख लाल दमकता चेहरा"...



"झक लाल कपडे"..

"उन्होंने बडे ही प्यार से सर पे हाथ फिराया"...

"मस्तक को प्यार से चूमा"

"चेहरा ओज से परिपूर्ण था "


"नज़रें मिली तो मैँ टकटकी लगाए एकटक देखता रह गया"

"आँखे चौंधिया सी रही थी"...

"सो!...ज़्यादा देर तक देख नहीं पाया मैँ"

"निद्रा के आगोश ने मुझे घेर लिया था"

"आँखे बन्द होने को थी"

"मुँह में आए शब्द मानो अपनी आवाज़ खो चुके थे"...

"चाह कर भी मैँ कुछ कह नहीं पा रहा था"

"शायद पवित्र आत्मा से मेरा पहला सामना था इसलिए"

"ऐसा ना मैंने पहले कभी देखा था और ना ही कभी इस बारे में कुछ सुना था"

"शायद!...आत्मा से परमात्मा का मिलन इसे ही कहते होंगे "


"ये आम इंसान से परम ज्ञानी बनने का सफर बहुत भा ही रहा था मुझे कि ...

उन्होंने पूछ लिया...

"बता वत्स !...क्या चाहिए तुझे?"

"बता!..क्या इच्चा है तेरी?"...


"मेरे कंठ से आवाज़ न निकली"

उन्होंने फिर प्रेम से पूछा"बता!...तेरी रज़ा क्या है?"

"चुप देख मुझे ...

उन्होंने खुद ही 'एयर कंडीशनर' की तरफ इशारा किया"

"मैंने मुण्डी हिला हामी भर दी"

"फिर टीवी की तरफ इशारा किया तो मैँने फिर मुण्डी हिला दी"

"उसके बाद तो फ्रिज...

'डीवीडी प्लेयर'...

'होम थियेटर'...

'हैण्डी कैम'...सबके लिए मैँ हाँ करता चला गया"


"वैसे होने को तो ये सारी की सारी चीज़े मेरे पास पहले से ही मौजूद थी लेकिन कोई भरोसा नहीं था इनका"

"बीवी के साथ कैसा जो चल रहा था कोर्ट में"

"क्या पता साली!...सब वापिस लिए बिना नहीं माने"

"इसलिए कैसे इनकार कर देता साँता जी को?"

"इतनी तो समझ है मुझे कि अच्छे मौके बार-बार नहीं मिला करते"

"सो!...हाथ आया दाव बिना चले कैसे रह जाता?"

"पहली बार तो मेरी किस्मत ने पलटी मारी थी और वो भी तब जब बीवी नहीं थी मेरे साथ"..

"शायद ऊपरवाले ने भी यही सोचा होगा कि इसके घर की लक्ष्मी तो हो गयी उडनछू....

तो क्यों न बाहर से ही कोटा पूरा कर दिया जाए इसका"

"नेक बन्दा है...कुछ ना कुछ बंदोबस्त तो करना ही पडेगा इसका"

"मैँ खुशी से पागल हुआ जा रहा था कि आवाज़ आई कि...

"वक्त के साथ-साथ मैँ भी बूढा हो चला हूँ"...

"इतना सामान कँधे पे उठा नहीं सकता और....

भला दिल्ली की सडकों पर बर्फ गाडी याने स्लेज का क्या काम?"

"इसलिए!...स्लेज छोड ट्रक ही ले आया हूँ मैँ"...




"वक्त के साथ-साथ खुद को भी बदलना पडता है...

"सो!...बदल लिया"साँता जी मुस्कुराते हुए बोले


"मैने भी झट से कह दिया कि आपक नाहक परेशान न हों...मैँ हूँ ना"

"उसी वक्त उनके साथ जा के सारा सामान ट्रक से अनलोड किया ही था कि इतने में नज़र लगाने को शर्मा जी आ पहुँचे"

बोले"ये क्या कर रहे हो?"...


"मैँ चुप रहा"..


"वो फिर बोल पडे"...

"मुझे गुस्सा तो बहुत आया लेकिन चुप रहा कि कौन मुँह लगे और अपना अच्छा-भला मूड खराब करे"


फिर बोल पडे"ये क्या कर रहे हो?"


"अब मुझसे रहा न गया"...

"आखिर बर्दाश्त की भी एक हद होती है"

"तंग आकर आखिर बोलना ही पडा कि...

"मेरा माल है"...

"मैँ जो चाहे करूँ"..

"आपको मतलंब?"


"शर्मा जी बेचारे तो मेरी डांट सुन के चुपचाप अपने रस्ते हो लिए"

"साँता जी के चेहरे पे अभी भी वही मोहिनी मुस्कान थी"

"उनकी सौम्य आवाज़ आई"अब मैँ चलता हूँ"....

"अगले साल फिर से मिलता हूँ"


"और वो पलक झपकते ही गायब हो चुके थे"

"मैँ खुशी से फूला नहीं समा रहा था कि अगले साल फिर से आने का वादा मिला है"...

"इस बार तो मिस हो गया लेकिन अगली बार नहीं"...

"अभी से ही लिस्ट तैयार कर लूंगा कि ये भी माँगना है और वो भी माँगना है"

"बार-बार सारे गिफ्टस की तरफ ही देखे जा रहा था मैँ"...

"नज़र हटाए नहीं हट रही थी कि पता ही नहीं चला कि कब आँख लग गयी"

"सपने में भी उस महान आत्मा के ही दर्शन होते रहे रात भर"

"जब आँख खुली तो देखा कि दोपहर हो चुकी थी"

"सर कुछ भारी-भारी सा था"

"उनींदी आँखो से सारे सामान पे नज़र दौडाई"..

"लेकिन!...ये क्या?"

"जो देखा...देख के गश खा गया मैँ"...

"सब कुछ बिखरा-बिखरा सा था"

"न कहीं टीवी नज़र आ रहा था और ना ही कहीं फ्रिज और होम थिएटर"

"हैण्डी कैम का कहीं अता-पता नहीं था"

"कायदे से तो हर चीज़ दुगनी-दुगनी होनी चाहिए थी पर यहाँ तो इकलौता पीस भी नदारद था"

"देखा तो तिजोरी खुली पडी थी"

"कैश....गहने-लत्ते...क्रैडिट कार्ड....

कुछ भी तो नहीं था"

"सब का सब माल गायब हो चुका था"

"मैंने बाहर जा के इधर-उधर नज़र दौडाई तो कहीं दूर तक कोई नज़र नहीं आया"


"कोई साला!..मेरे सारे माल पे हाथ साफ कर चुका था"

"मैँ ज़ोर-ज़ोर से धाड मार-मार रोने लगा"...

"भीड इकट्ठी हो चुकी थी "

"सबको अपना दुखडा बता ही रहा था कि शर्मा जी की आवाज़ आई...

"क्यों अपने साथ-साथ सबका दिमाग भी खराब कर रहे हो बेफिजूल में?"...

"रात को सारा सामान खुद ही तो लाद रहे थे ट्रक में और अब ड्रामा कर रहे हो चोरी का"

"मैने अपनी आँखो से देखा और आपसे पूछा भी तो था कि ये आप क्या कर रहे हैँ?"

"आपने ने तो उल्टा मुझे ही डपट दिया था कि मैँ अपना काम करूँ"

"रेडियो स्टेशन से पता किया तो मालुम हुआ कि ईनाम पाने वालों की लिस्ट में मेरा नाम ही नहीं था"

"अब लगने लगा था कि वो साला साँता फ्राड था एक नम्बर का "

"किसी तरीके से मेरा नम्बर पता लगा लिया होगा उसने"

"और शायद मुझे हिप्नोटाईज़ कर चूना लगा गया"

"अब तो यही के उम्मीद की किरण बाकि है कि शायद वो अपना वायदा निभाए और अगले साल वापिस आए"

"एक बार मिल तो जाए सही कम्भख्त,फिर बताता हूँ कि कैसे सम्मोहित किया जाता है"

"बस इसी आस में कि वो आएगा मैँ इस बार भी 'एस.एम.एस' किए जा रहा हूँ...किए जा रहा हूँ"

"जय हिन्द"

***राजीव तनेजा***

"ठण्डे-ठण्डे पानी से नहाना चाहिए"

"ठण्डे-ठण्डे पानी से नहाना चाहिए"

***राजीव तनेजा***


"क्या मियाँ!....?"...

"अब तो दिवाली को गुज़रे हुए भी कई घंटे हो गए"...

"अब तो ये आलस-शालस को मारो गोली और सीधा बाथरूम में जा घुसो"...

"बाल्टी,साबुन.तेल,शैम्पू सब याद कर रहे हैँ"

"बाजुएँ अकड गयी हैँ उनकी तुमसे मिले बिना"

"और तुम हो कि....कोई फिक्र ना फ़ाका"..


"याद है ना...

'शानू जी'के कवि सम्मेलन में जाना है?"और...

दो दिन बाद अपनी शायर फैमिली वाली'श्रधा जी'भी तो आ रही है सिंगापुर से"...


"उनसे भी तो मिलने जाना है पटपडगंज"

"आज ही तो पता और फोन नम्बर नोट कराया है उन्होंने"


"कहीं भूले तो नहीं बैठे हैँ जनाब?"

"कहा भी था कि अच्छी तरहा नक्शा-वक्शा बना लो दोनों पतों का"

"कहीं हम गली-गली भटकते फिरें और भूखे-प्यासे तब पहुँचे मँज़िल पे जब...

जूठे पत्तल चाटने के अलावा कोई और जुगाड ही न बचा हो"


"जल्दी से हो जाओ तैयार"...

"इंतज़ार हो रहा होगा हमारा वहाँ"...


"अब ये कोई ज़रूरी तो नहीं कि खुद ही फोन करें शानू जी और श्रधा जी कि....

"आ जाओ!...हम इंतज़ार कर रहे हैँ"


"इतने वी.आई.पी भी नहीं हम"


"सौ तरह के सौ-सौ काम होंगे उन्हें"


"हमारी तुम्हारी तरह वेली थोडी हैँ वो दोनों कि न्यौता आ जाए सही कहीं से और...

बस मुँह उठाएँ और चल दें "


"याद है ना पिछली बार जब चंबल से न्योता आया था अपुन को ?"...

"बडे मज़े से पहुँच गए थे अगली ही गाडी से लॉलीपॉप चूसते-चूसते"...


"ये तो वहाँ जा के पता चला था कि वो 'इनवीटेशन कार्ड'नहीं बल्कि...

फिरौती के लिए लिखा गया पत्र था जिसे हम न्योता समझ कूदे-कूदे फिर रहे थे"


"ये तो शुक्र है कि उसी दिन पुलिस ने धावा बोल मुठभेड में'लाखन सिंह'को मार गिराया था"...

"वर्ना हम तो कब के लग गए होते 'खुड्डल लाईन'"


"सब तुम्हारी बेवाकूफी का नतीज़ा था"...

"ना खुद खत ढंग से पढा और ना ही मुझे ठीक से पढने दिया"


"और नतीजे में!..याद है ना कैसे बीहडों में जाग-जाग काटी थी रात?"


"साले!...उन गीदडों ने भी तो हुआँ-हुआँ कर जीना हराम कर डाला था"


"हुह!...बडे आए कहने वाले तुम कि....

"पापा जी!..आप चिंता ना करें"...

"मैँ सब सम्भाल लूंगा"...


"कहीं उस दिन मेरी दौलत याने मेरी बीवी को ही संभालने की नहीं सोच रहे थे ना ?"


"ऐसा सोचने के बारे में सोचना भी मत"...


"इसलिए नहीं कि पराई नॉर पे नज़र डालना पाप है...गुनाह है "

"बल्कि इसलिए कि ऐसी सोच सोच के भी तुम पछताओगे"


"उफ!...किस मनहूस की याद दिला दी?"

"रोयाँ-रोयाँ तक काँप उठता है आज भी जब माथे पे हाथ फेरता हूँ"


"देख रहे हो ना?"


"अभी भी सूजन नहीं गई है उस दिन वाले बेलन की मार की"


"पट्ठी का निशाना ही इतना पक्का है कि बस पूछो मत"...

"सौ गज़ के फासले से भी अचूक वार करती है"...

"बचपन में मारन पिट्टी जो खेला करती थी"


"वैसे एक बात समझ नहीं आ रही कि मैँ ये सब राज़ की बातें मैँ तुमसे क्यों करता जा रहा हूँ?"

"खैर छोडो इन बेफिजूल की बातों को"...

"कुछ नहीं धरा इनमें"


"हाँ!...तो मैँ कह रहा था कि....

बेचारी शानू जी तो काम के बोझ से अधमरी हुई जा रही होंगी और श्रधा जी सफर की थकान के मारे चूर"


"शानू जी ही तो सब इंतज़ामात कर रही हैँ कवि सम्मेलन का"


"अपनी श्रधा जी भी कौन सी कम हैँ?"

"पूरा फोरम और ब्लॉग संभाल रही हैँ अपने दम पे"


"बहुत टैंशन हो जाती होगी इन दोनों को तो"...


"पता नहीं कैसे मैनेज कर लेती होंगी ये सब ?"...

'बिज़िनस'संभालना...

'घर-परिवार'देखना...

'कविता' लिखना....

'शायरी' झाडना....

'ब्लॉग' अप टू डेट रखना...

'दूसरों के चिट्ठों पे टिपियाना वगैरा...वगैरा. .."


"और अपुन?"...

"अपुन ठहरे रमते जोगी"...


"अपना क्या है...

"ऐन टाईम पे जाना है"...

"चाय-नाश्ता पाडना है"

"दो-चार बार जहाँ सबने ताली बजाई....

सो!...हमने भी बजा देनी है "


"थोडी बहुत वाह-वाह भी कर देंगे अपने गुरुदेव 'समीर लाल जी'के लिए...

"वो भी तो आ रहे हैँ ना कनेडा से"


"सो!...तैयार हो जाओ फटाफट"


"कोई ज़रूरी नहीं कि पिछली होली और दिवाली की तरह इस बार भी तुम्हें ज़बर्दस्ती ही नहलाया जाए"


"अबकि बार तो आपको एक्दम से गोरा-चिट्टा बना के ही दम लेना है"...

"बॉय गॉड...कसम से"...

"अपनी श्रधा जी जो आ रही हैँ"


"उफ!...क्या गज़ब के क्यूट और हैंडसम लगोगे"


"पता है ना!....पिछली बार जो हैदराबाद वाली ऑंटी ताना मारा था कि...

खुद तो इतना बन-संवर के रहते हो और अपने दोस्त का कोई ख्याल नहीं"



"तो बन्धु मेरे..इस बार किसी को कोई शिकायत का मौका नहीं"

"अब ये उनींदी आँखो से नींद का पर्दा हटाओ और चौखटे पे पानी के छींटे मारते हुए सीधे जा घुसो नहाने को"...


"क्या कहा?"

"नींद आ रही है?"

"वाह रे!..मेरे कुम्भकरण...वाह"


"रामलीला कब की खत्म हो गयी और अब भी कुम्भकरण के पात्र को ही जिए चले जा रहे हो?"


"वाह!..."...


"ये तुम राजेश खन्ना कब से बन गए कि चाहे दस बरस पहले से ही बुढाए पडे हो लेकिन. ..

रोल 'हीरो'का ही करना है उस्ताद ने"


"रजनीकाँत समझ रखा है क्या खुद को ?"

"अरे!...झंडू का च्यवनप्राश खाता है वो दिन में तीन-तीन दफा और तुम हो कि...

पैग पे पैग चढाए रहते हो हरदम"


"पता भी है कि दारू पीने से 'लीवर'खराब होता है लेकिन अब इस बुड्ढे 'काका'को समझाए कौन?"

"डिम्पल जी की बात तो सुनते ही कहाँ हैँ?"


"उफ!...किसका नाम ले लिया?"

"लुट गया ना सब सुख चैन मेरा?"

"याद दिला ना'बॉबी'की?"...

"अब रातें करवटें बदल-बदल ही काटनी पडा करेंगी"


"अपनी 'बॉबी डार्लिंग'उर्फ श्रीमति मायके जो गयी हुई है"


"रात काटने से याद आया कि मियाँ!...कब तक यूँ कुँभकरण की नींद उँघाते रहोगे?"

"डाक्टर ने नहीं कहा था कि रामलीला में कुंभकरण का रोल करो?"...

"कोई और रोल नहीं था क्या करने को?"

"ह्म्म!...तो यहाँ भी तुम्हारे आलस ने ही ज़ोर मारा होगा कि...

'सोने'को खूब मिलेगा और नाम का नाम होगा"...


"खाक!..सोना मिलेगा"....

"दिहाडी तो पूरी दी नहीं गयी इन मुय्ये रामलीला वालों से"...


"हुँह!...बडे आए सोना देने वाले"..

"एक पीतल का पानी चढी गद्दा थमाई...

वो भी 'डिब्ब-खडिब्बी' कि..

"ले बेटा!...चढ जा स्टेज पे"...

"छुडा दे छक्के"...

"मार ले मैदान"


"तुमने भी सोचा होगा कि चलो इसे ही बेच कुछ दाम वसूल लूगा"

"पर वो भी तो पट्ठों ने वापिस छीन ली और उल्टा पुलिस में जाने की धमकी देने लगे सो अलग"...


"और ले लो वडेंवे!..."...


"वाह!..रे मेरे बंटुक नाथ"...

"वाह"...

"बडे आए थे कहने वाले कि अब होंगे आम के आम और गुठलियों के भी पूरे-पूरे दाम"


"दिखा दी न तुमने अपनी बनिया बुद्धी"...

"हर चीज़ में फायदा ढूंढते हो"...


"अब!...ये जो दो-दो महीने नहीं नहाते हो"...

"तो!...इसमें भी कोई न कोई फायदा ही ढूँढते होंगे महाशय...?"


"है ना!...?"


"हाय!...अब क्या करूँ तुम्हारी इस मूढ बुद्धी का?"अब कह रहे हो कि....

'साबुन'बचता है...

'तेल' बचता है...

'तौलिया-कंघी'कम घिसते हैँ"



"और!..ये जो दो-दो महीने की मैल को जब चाकू से खुरच-खुरच के उतारते हो ?"

"वो सब क्या होता है?"


"याद है ना पिछली बार का?"...

"जब धार कुंद पड गयी थी चाकू की तो बीच में ही पिताश्री से 'ब्लेड'माँग काम चलाना पडा था किसी तरह"..

"और ऊपर से कँजूसों के महा कँजूस तुम्हारे पिताजी"...

"थमा दिया उन्होंने दो साल से पडा-पडा जंग खा रहा ब्लेड"...

"वो भी पूरा नहीं...आधा ही थमाया था कि बचा हुआ आधा वक्त-बेवक्त काम आएगा"

"बचत में कैसी शर्म?"


"अगर 'सैप्टिक-शैप्टिक'हो जाता तो उनकी बला से?"..


"फिर पता चलता बच्चू को"

"ट्ट्टू पता चलता तुम्हारे पिताश्री को?"

"उन्होंने तो उसी घसियारे 'डाक्टर'के बच्चे से ही ठुकवा देने थे 'इंजैक्शन'धडाधड"


"हाँ!..ठुकवाने ही तो थे"..

"कौन सा डिग्रीधारी था वो डाक्टर ?"...

"पट्ठा!..पंचर जो लगाया करता था पहले"...

"पुरानी आदतें इतनी जल्दी कहाँ पीछा छोडती हैँ?"

"पहले 'टायर'से कील निकाला करता था अब अब बदन में कील घुसेडा करता है"..

"खैर छोडो...क्या रखा है टाईम खोटी करने में?"

"ये आलस का पुलिंदा छोडो और उठ के नहा लो फॅटाक से फटाफट "...


"नहीं तो!...पता है ना मेरा?"


"क्या कहा?"...

"नहीं पता?"


"तो!..तुम ऐसे नहीं मानोगे?"

"लगता है!..'थर्ड डिग्री'ही अपनानी पडेगी?"


"थर्ड डिग्री से याद आया कि स्कूल तो 'थर्ड' में ही छोड दिया था मैंने"..


"बस!..तभी तो पड गया था दो नम्बर के धन्धे में"...

"फिर आना-जाना तो लगा ही रहा ताउम्र"...

"कभी अपने देश में तो कभी परदेस में"...


"अब अपने देश वालों में इतना दम कहाँ कि वो अपने पर थर्ड डिग्री अपना सकें?..

"ये तो वो साले फिरंगी पुलिस वाले ही नहीं समझते किसी को कुछ"...

"ज़रा सी!..बस ज़रा सी 'चूं-चपड'करुं सही...

उन्हें तो बस मौका भर चाहिए हाथ साफ करने का"...


"साले!...बन्दे को बन्दा नहीं समझते हैँ"...

"पता नहीं मेरे चौखटे में ऐसे कौन से सुरखाब के पर लगे हैँ जो देखते ही...

अपने-अपने लट्ठों को तेल पिलाना चालू कर देते हैँ"


"अब कुछ ना पूछो कि कैसे बचते बचाते जुगाड-पानी से दे-दिला कर...

उनका 'तौलिया'गायब करवाया है खास तुम्हारे लिए"


"देख लिया ना?"

"आखिर दोस्त ही दोस्त के काम आता है!...दुशमन नहीं"


"अब तुम्हारे इस चक्कर में मेरी हालत का मुझे ही पता है कि क्या-क्या हुआ मेरे साथ"...

"आह!...पराया तन क्या जाने मेरी पीड"

"बडी मुशकिल से उसे 'हिन्दोस्तानी' ज़बान सिखाई है"...

"अब तो बेटे लाल!...इशारे पे नाचता है...इशारे पे"..


"तौलिया?"...

"नाचता है?"...

"इशारे पे?"दोस्त एक झटके से कई सवालों को चेहरे पे लिए उठ खडा हुआ


"हाँ!...मेरे प्यारे 'बंटुक नाथ'..

"इशारे पे"...


"और आज इसी के दम पे ठान लिया है कि...

चाहे लाख तूफाँ आएँ...

चाहे जान भी अब तेरी चली जाए...

तुझे नहला के ही लेंगे हम दम...

ऐ सनम"...


"क्या कहा?"...

"ज़रा फिर से तो कहना"


"अच्छा!...नहीं नहाओगे?"...


"देखो!..हर फैसला यूँ जल्दबाज़ी में लेना ठीक नहीं"...

"अच्छी तरह सोच-विचार लो"


"फिर वो ही बात?"...

कह रहे हो कि....

"हमको नहला सके ...ये ज़माने में दम नहीं...

हमसे है ज़माना...ज़माने से हम नहीं"


"कोई माई का लाल पैदा नहीं हुआ तुम्हें नहला सकने वाला?"


"ठीक है!...आज ही और अभी ही फैसला हो जाए फिर तो"...


"कल किसने देखा है?"...

"क्या मालुम कल को तुम ही...हो न हो"


"देखो!...दोस्त हो तुम मेरे,इसीलिए कह रहा हूँ फिर से"...

"मेरी बात मान लो और अच्छे बच्चों की तरह जा के चुपचाप से नहा लो"



"मालुम था मुझे!..."...

"हाँ!...मालुम था मुझे"


"तो फिर!...नहीं मानोगे तुम?"


"अच्छा!...एक बार....

बस एक बार...नज़र भर देख तो लो 'तौलिए'को"


"फिर ये न कहना कि मौका नहीं दिया 'राजीव'ने बचाव का"


"बच्चू!...किस फिराक में हो तुम?"

"भागने का मौका तक ना मिलेगा"...

"किस हवा में उडे-उडे फिर रहे हो तुम?"कि...

मैँ ये कर दूंगा...

मैँ वो कर दूंगा"


"बेटे लाल!...देसी नहीं...

खालिस सोलह ऑने शुद्ध विलायती तौलिया है...खालिस विलायती"

"बडों-बडों को तिगनी का नाच नचा दे ये तो"...

"तुम किस खेत की गाजर-मूली हो?"...


"ये क्या?...तुमने तो लपेटना चालू कर दिया?"

"अरे!...फैंक नहीं रहा हूँ मैँ..जो तुम लपेटे चले जा रहे हो"


"पता चल जाएगा कुछ ही पल में कि मैँ सच्ची बात कर रहा हूँ कि झूठी"...

"हाथ कँगन को आरसी क्या...पढे लिखे को फारसी क्या"

"खुद ही देख लो और भली भांति जाँच लो"...


"ठण्डे-ठण्डे पानी से नहाना चाहिए...

ओ पुत्रा!..लिखना आए या ना आए...लिखना चाहिए"...


"अब ये!...लिखना-लिखाना तो तुम्हारे बस का है नहीं"


"तो!...क्या कहते हो?"...

"कर आऊँ गीज़र ऑन?"


"नहाना तो तुम्हें है ही"..

"दो मिनट पहले सही...दो मिनट बाद में सही"

"कहीं यही बहाना न मिल जाए बाद में तुम्हें कहीं कि...

"ठण्ड लग रही है"..

"अगली दिवाले पे नहा लूंगा"...

"पक्का!...'गॉड प्रामिस'


***राजीव तनेजा***











"मेरी कहानी नवभारत टाईम्स पर"

"मेरी कहानी नवभारत टाईम्स पर"

22.10.2007 को नवभारत टाईम्स में मेरी कहानी छपी है "बताएँ तुम्हे बच्चा कैसे होता है" के नाम से

www.navabharattimes.com -पाठकपन्ना-कहानियाँ - बताएँ तुम्हें बच्चा कैसे होता है
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/2480094.cms




जिसे एक ब्लॉगर बन्धु श्री पवन कुमार मल्ल जी ने जस का तस कॉपी-पेस्ट कर डाला है अपने ब्लॉग पे ...
http://pawankumarmall.blogspot.com/
उनका मैँ अत्यंत आभारी हूँ कि उन्होने कहानी के साथ मेरा नाम नहीं लिखा..जिसके लिए मैंने उन्हें कमैंट भी किया और उन्होंने इसके लिए सॉरी भी कहा ...




लेकिन अभी भी वहाँ से मेरा नाम नदारद है ...


चलो इसी बहाने एक पोस्ट और लिखने का मौका मिला और मेरी कहानी एक बार फिर से आप सभी ब्लॉगर बन्धुओं के सामने पेश है


बताएं तुझे कैसे होता है बच्चा...


बड़े दिन हो गए थे। खाली बैठे बैठे , कोई काम-धाम तो था नहीं, बस कभी-कभार कंप्यूटर खोला और थोडी-बहुत ' चैट-वैट ' ही कर ली। सच पूछो तो यार बेरोज़गार था मैं और इसमें अपनी सरकार का कोई दोष नहीं , दरअसल अपनी पूरी जेनरेशन ही ऐसी है। अब कोई छोटी-मोटी नोकरी तो हम करने से रहे। अब यार हर किसी ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे को घड़ी-घड़ी कौन सलाम बजाता फिरे ? कोई छोटा- मोटा धंधा करना तो अपने बस की बात नहीं। बाप-दादा जो थोडी-बहुत पूंजी छोड गए थे , वो भी आहिस्ता-आहिस्ता खत्म होने को आ रही थी। आखिर वह भी भला कब तक साथ देती ? बीवी के तानों का तो शुरू से ही मुझ पर कोई असर होता नहीं था। उसकी हर बात को मैं एक कान से सुनता और दूसरे से बाहर निकाल देता। कई बार तो कान में घुसने तक ही ना देता।
पहले नकदी खत्म हुई फिर , गहने-लत्तों का नंबर भी आ गया। एक-एक करके चीज़ें खत्म होती जा रही थीं लेकिन मेरी अकड़ ढीली होने का नाम ही नहीं ले रही थी। एक दिन मज़े से टीवी पर ' नो-एंट्री ' फिल्म देखते-देखते अचानक खुशी के मारे उछल पडा। इसलिए नहीं कि फिल्म अच्छी थी बल्कि...अपुन के भेजे मे आइडिया आ गया था नोट कमाने का। अरे नोट कमाने का क्या, वह तो नोट छापने का आइडिया था। जैसे ही बीवी को बताया कि एक आइडिया मिला है नोट छापने का तो वह गश खा कर गिरी और वहीं बेहोश हो गई।

होश मे आने के बाद बोली, " बस जेल जाने की कसर ही बाकी रह गई थी .... नोट छाप कर वह भी पूरी करने का इरादा है जनाब का? "
मेरी हंसी रोके ना रुकी। बोला, " अरी भागवान , नोट छापने का असली मतलब सचमुच में नोट छापना नहीं है। "
" तो फिर ?"
" देखा नहीं, फिल्म में उस ज्योतिषी को ?.... कितनी सफाई से सलमान से पैसे ऐंठ लेता है और अनिल कपूर बेवकूफ बनाता है। "
" तो क्या हुआ ?"
" अपुन का भी बस यही आइडिया है। "
" तुम्हारे पूरे खानदान में भी कोई ज्योतिषी हुआ है जो तुम बनोगे ?"
" है तो नहीं लेकिन हमारी आनेवाली नस्ल ज़रूर राज ज्योतिषी कहलाएगी। "
" पर ये सब करोगे कैसे ?"
" अरे कुछ खास नहीं, बस थोड़ा-बहुत त्याग तो मुझे करना ही होगा। "
" वह भला कैसे ?"
अरे ये हीरो-कट बाल छोड़ सीधे-सीधे लम्बे बाल रखूंगा। "
" उसमें तो नाई का खर्चा भी बचेगा, " बीवी चहक उठी ।
" कर दी ना तुमने दो कौड़ी वाली बात .... अरे मैं लाखों में खेलने की सोच रहा हूं और तुम इन छोटी-छोटी बातों पर नज़र गड़ाए बैठी हो। "
" लेकिन आता-जाता तो कुछ है नहीं, खाली वेष बदलने से क्या होगा ?" बीवी फिर बोल पड़ी।
" अरे यार, पहले पूरी प्लानिंग तो सुन ले। "
" जी बताऒ, " बीवी आतुर नज़रों से मेरी तरफ ताकते हुए बोली।
" हां, तो मैं त्याग करने की बात कह रहा था। तो दूसरा त्याग यह करना पडेगा कि....ये गोविंदा-छाप कपड़े छोड़ धोती-कुरता पहनना पड़ेगा। "
" वह तो शादी का पड़ा-पड़ा अभी तक सड़ रहा है अलमारी में, " बीवी चहकते हुए फिर बोल पड़ी।
" चलो, यह काम तो आसान हुआ. अब कोने वाले कबाड़ी की दुकान से रद्दी छांटनी पड़ेगी। "
" आय-हाय। अब क्या रद्दी भी बेचोगे ?"
" जब पता नहीं होता , तो बीच में चोंच मत लड़ाया कर, " मैं आँखे तरेरता हुआ बोला, " बेवकूफ, पुराने अखबारों में जो भविष्यफल आता है, उसकी कतरनों को सम्भालकर रखूंगा, वक्त-बेवक्त काम आएंगी और अगर एस्ट्रॉलजी से रिलेटेड कोई किताब मिल गई तो... पौ-बारह समझो। "
" पौ-बारह मतलब ?"
" अरे बेवकूफ, पौ-बारह मतलब लॉटरी लग गई समझो। "
" लेकिन यह जन्तर-मन्तर कहां से सीखोगे भला ?"
" कोई खास मुश्किल नहीं है यह सब भी , बस...बल्ली सागू या फिर बाबा सहगल के किसी भी रैप सॉन्ग को कुछ इस अन्दाज़ से तेज़ी से होंठो ही होंठो मे बुदबुदाना होगा कि किसी के पल्ले कुछ ना पडे। बस हो गया.... ' जन्तर-मन्तर काली कलन्तर... "
" ऒह समझ गई.... समझ गई। "

बस फिर क्या था मोटी कमाई के चक्कर में बीवी के बटुए का मुंह खुल चुका था। ज़रूरी सामान इकट्ठा करने के बहाने पैसे ले मैं चल पड़ा बाज़ार। पहले ठेके से दारू की बोतल खरीदी और फिर जा पहुंचा बाज़ू वाले कबाड़ी की दुकान पर। एक-दो पेग मरवाए उसे और अपने मतलब की रद्दी छांट लाया।
अब दिन-रात एक करके हम मियां-बीवी उन कतरनो का एक-एक अक्षर चाट गए और इस नतीजे पर पहुंचे कि " पूरी दुनिया में इससे आसान काम तो कोई हो ही नहीं सकता। " अब आप पूछोगे कि , " वो भला कैसे ?"
तो ये मैं आपको क्यों बताऊं ? और अपने पैर पर ख़ुद ही कुलहाड़ी मार लूं ? कहीं मुझसे ही कॉम्पिटीशन करने का इरादा तो नहीं है आपका ?
क्या कहा ?.... चिंता ना करूँ ?
तो सुन लीजिए...कुछ ख़ास मुश्किल नहीं है यह सब.... बस सिम्पल-सी कुछ बातें गांठ बांध लो कि... " हर बंदा अपने को अच्छा और बाक़ी सबको बुरा समझता है। "
हर-एक को यही लगता है कि वह सही है और बाक़ी सब ग़लत, कोई उसे सही ढंग से समझ ही नहीं पाया आज तक, वह अपनी तरफ़ से कड़ी मेहनत करता है लेकिन उसका पूरा फल नहीं मिलता, सबके सब उसकी कामयाबी से जलते हैं, कोई उसका भला नहीं चाहता ... दोस्त-यार ... रिश्तेदार .. भाई-बहन ... पड़ोसी ... सब के सब मतलबी हैं ... कोई उसकी ख़ुशी से ख़ुश नहीं हैं...वह सब पर तरस ख़ाता है, लेकिन कोई उस पर नहीं खाता ... किसी ने उस पर कोई जादू-टोना किया हुआ है ... या फ़िर उसकी दुकान या मकान बांध दिया है...
बस कुछ सामने वाले का चौख़टा देख कर अंदाज़ा लगाओ कि उस पर कौन-कौन से डायलॉग फ़िट बैठेंगे। बस चौखटा देखो और मार दो हथौड़ा। अगर तीर सही निशाने पर लगा तो समझो कि अपनी तो निकल पड़ी।
" और अगर निशाना ग़लत लगा तो ?"
फिकर नॉट... घुमा-फिरा कर 2-4 डायलॉग और मार दो बस... " कोई ना कोई तो अटकेगा ज़रूर। और हाँ... अगर ऊं चे लेवल का गेम खेलना है, तो दो-चार चेले-चपाटे भी साथ रख लो, एकाध चेली हो तो कहना ही क्या। अगर कोई ना मिले तो चौक से ही दिहाड़ी पर पकड़ लाओ।
बड़े बे-रोज़गार हैं , कोई ना कोई अपने मतलब का मिल ही जाएगा पर इतना ज़रूर ध्यान रखना कि....चेला रखना है गुरु नहीं ... । कहीं अगले दिन ही वह तुम्हारे सामने तेल की शीशी और चटाई लिए बैठा तुम्हारा ही बंटाधार करता न मिला। चौक पर बिकने वाला तोता अगर मिल जाए, तो धंधे में और रौनक आ जाएगी।
बस तोते को भूखा रखना है और... भविष्य की पर्चियों पर अनाज का दाना चिपका देना है। पंछी बेचारा तो भूख के मारे अनाज के दाने वाली पर्ची उठाएगा और बकरा बेचारा बस यही समझेगा कि मिट्ठू महाराज ने उसका नसीब बांच दिया है।
" और उस पर्ची के अंदर लिखा क्या होगा ?" बीवी बोल पड़ी।
" हे भागवान, पूरी रामायण खत्म होने को आई और यह पूछ रही है कि ... सीता , राम की कौन थी ?"
" अरी भागवान, अभी ऊपर सारे मंतर तो बताता आया हूँ...कोई ना कोई तो फ़िट बैठेगा ज़रूर।"
" हुं! " बीवी की समझ मैं बात आ चुकी थी।

सो एक दिन ऊपरवाले का नाम लिया और जा पहुंचा बीच बाज़ार और बरगद के पेड़ के नीचे डेरा जमाया। " कोई न कोई कोई असामी रोज़ टकराने लगी। किसी को कुछ , तो किसी को कुछ इलाज बताता उसकी हर तक़लीफ़ या बीमारी का। एक से तो मैने एक ही झटके में पूरे बारह हज़ार ठग डाले थे। बड़ी आई थी मज़े से कि " महाराज बच्चा नहीं होता है , कोई उपाय बताओ। "
मैंने सोचा, अरे नहीं होता है तो कुछ ' ओवर-टाइम ' लगाओ , ' माल-शाल खाओ और अगर फिर भी बात नहीं बने तो किसी डॉक्टर-शॉक्टर के पास जाओ। यह क्या कि सीधे मुंह उठाया और ज्योतिषी के पास चली आई। अब यार, अपने घर की ड्यूटी तो बजाई नहीं जाती अपुन से, ओवरटाइम कौन कंबख्त करता फिरे ? लेकिन धंधा तो धंधा है सो , उस बेचारी को कुछ उलटी-पुलटी चीज़ें बताई लाने के लिए जैसे ' काली शेरनी का दूध... जंगली भैंसे का सींग ... शुतुर्मुर्ग का कलेजा और न जाने क्या-क्या...
मुंह उतर आया उस बेचारी का कि मैं अबला नारी... " कहाँ से लाऊंगी ये सब ?"
मैंने कहा, " आप चिंता ना करें। परसों मेरा शागिर्द नेपाल से आनेवाला है, उसको फ़ोन किए देता हूँ , वही सब इंतज़ाम कर देगा। " उसने हामी भर दी।
और चारा भी क्या था उसके पास ?
नकद गिन के पूरे बारह हज़ार धरवा लिए मैने। फिर जाने दिया उसे।
मोटी-कमाई हो चुकी थी, सो मैने अपना झुल्ली बिस्तरा संभाला और चल पड़ा घर की ओर।
रास्ते में विलायती की पेटी ले जाना नहीं भूला।

ख़ुश बहुत था मैं, बस पीता गया, पीता गया। कुछ होश नहीं कि कितनी पी और कितनी नहीं पी। होश आया तो बीवी ने बताया , " पूरे तीन दिन तक टुल्ली थे आप। ख़ूब उठाने की कोशिश की लेकिन कोई फ़ायदा नहीं। "
" तो क्या पूरे तीन दिन दुकान बन्द रही ?"
" और नहीं तो क्या ?"
मैं झट से खड़ा हुआ और भाग लिया सीधा दुकान की ओर। पूरे रास्ते यही सोचे जा रहा था कि तीन दिन में पता नहीं कितने का नुक़सान हो गया होगा ?
कई बार तो पता नहीं कैसे मेरा तुक्का सही लगने लगा था और किसी-किसी को थोड़ा-बहुत फ़ायदा भी होने लगा लेकिन 8-10 बार शिकायत भी आई कि " महाराज आपकी तरकीब तो काम न आई, कोई और जुगाड बताओ। " ऐसे बकरों का तो मुझे बेसब्री से इंतज़ार रहता था। एक ही पार्टी को 2-2 दफा शैंटी-फ्लैट करने का मज़ा ही कुछ और है। उसके द्वारा किए गये इलाज में कोई न कोई कमी ज़रूर निकलता और नये सिरे से बकरा हलाल होने को तैयार। पुरानी कहावत भी तो है कि " खरबूजा चाहे छुरी पर गिरे या फ़िर छुरी खरबूजे पर , कटना तो खरबूजे को ही पड़ता है।

अपुन का कॉन्फिडेंस ' टॉप-ओ-टॉप बढता ही जा रहा था कि एक दिन एक ' जाट-मोलढ ' टकरा गया ....
पूरी कहानी सुनने के बाद मैंने उससे , उसकी परेशानी का इलाज बताने के नाम पर 2 हज़ार माँग लिए। जाट सौदेबाज़ी पर उतर आया। आख़िर में सौदा 450 रुपये में पटा। उसने धोती ढीली करते हुए जो नोट निकाले, तो मेरी आंखें फटी की फटी रह गईं। नज़र धोती में बंधी नोटों की गड्डी पर जा अटकी, लेकिन अब क्या फ़ायदा, जब चिड़िया चुग गयी खेत। मैं तो यही सोचे बैठा था कि बेचारा ग़रीब मानुस है, इसे तो कम से कम बख्श ही दूं। आख़िर ऊपर जाने के बाद वहां भी तो हिसाब देना पड़ेगा। लेकिन यह बांगड़ू तो मोटी आसामी निकला। यहीं तो मार खा गया इंडिया।

साढ़े चार सौ जेब के हवाले करते हुए मुंह से बस यही निकला, " ताऊ काम तो करवा रहे हो पूरे ढाई-हज़ार का और नोट दिखा रहे हो टट्टू ।"
" बेटा टट्टू तो तुमने अभी देखा ही कहाँ है ?"
" वो तो अब मैं तुम्हें दिखाऊंगा, " कहते हुए उसने किसी को इशारा किया और तुरंत ही मेरे चारों तरफ़ पुलिस ही पुलिस थी। " साले! पब्लिक का फुद्दू खींचता है। अब बताएंगे तुझे...चल थाने। बड़ी शिकायतें मिली हैं तेरे खिलाफ़। साले! वो S.H.O साहेब की मैडम थीं, जिससे तूने बारह हज़ार ठगे थे । चल अब हम तुझे बताते हैं कि बच्चा कैसे होता है।
राजीव तनेजा

"मंगल-कामना"


"मंगल-कामना"

***राजीव तनेजा***

"दिपावली की शुभ मंगल-कामनाएँ आप सभी को....

"ऊप्स!...सॉरी...

'मंगल' सिर्फ लड्कियों के लिए और....

'कामना' सिर्फ लडकों के लिए"


"बिकाझ उल्टी गंगा इझ नॉट अलाउड हीयर इन मॉय ब्लॉग"


"हिन्दी हैँ हम...वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा"


"समझा करो यार"...

"वैसे भी उलटे बाँस बरेली कहाँ जाता है आजकल?"

"देसी है हम...विलायती नहीं"...


"सुनो लडकियो!...पते की बात"..

"फिर न कहना कि मौका नहीं दिया और कर डाला झट से एक दो तीन"


"बेशक!...खुशी से सारे के सारे 'मंगल' तुम ले लो"...

"जी भर ले लो"...

"झोली भर-भर ले लो"...


"आखिर!..भाई है हमारा"...

"तुम्हारे काम नहीं आएगा तो फिर क्या 'ताडका' के काम आएगा?"


"याद है ना?...कि ताडका'के लिए तो अपने'लक्षमण जी'भी नकार दिए थे"

"लेकिन!..मजाल है जो ये अपना'मँगल'ज़रा सी भी चूँ-चपड कर जाए"...

"बखिया न उधेड डालेंगे पट्ठे की?"



"देख लेना!...उफ तक नहीं करेगा"...

"बहुत दम है पट्ठे में"

"आखिर बचपन का पिया 'बौर्नवीटा-शौर्नवीटा' किस दिन काम आएगा?"


"लेकिन हाँ!...एक बात कान खोल के सुन लें आप भी कि...

इन 'कामनाओ' की तरफ भूले से भी भूलकर नहीं ताकना है आपने"...

"वर्ना!..."...

"समझदार को इशारा कॉफी"...


"गुड!....

पल्ले पड गई आपके भेजे में भेजी हुई बात"...


"अच्छा है...

नहीं तो!...वहीं के वहीं कर डालते शैंटी फ्लैट क्योंकि...

ये 'मेनकाएँ'...ये 'कामनाएँ'हमारी है"...

"सिर्फ हमारी"


"अब ये अगला पैगाम सभी लडकों के नाम...

"चाहे ये 'पिंकी-शिंकी'...

'चेतना-वेतना'...

'सीता-गीता'...

'रेशमा-सेशमा'...

'हेमा-शेमा'...

'विनीता-सुनीता'...

'मोनिका-शोनिका'सब ले लो"

लेकिन!...

किंतु....

परंतु....

बाजू वाली'कामना'को मेरे लिए छोड देना प्लीज़!...."


"सुनो गौर से तुम भी लडको सारो...

बुरी नज़र न इस 'कामना' पे डालो"

"चूँकि ...सबसे आगे हूँ मैँ"...

"हाँ!...मैँ"...


"देखो!...इनकार न करना"..

"वो मेरी है!....सिर्फ मेरी"...

"समझा करो यार!...भाभी लगती है तुम्हारी"


"अच्छा बाबा!...ओ.के"....

"बाकि सब तुम्हारी"...

"हाँ!...गॉड प्रामिस"

"ठीक रहेगा ना?"

"कोई ट्ण्टा नहीं ना अब?"

"तो डील रही पक्की?"

"कोई गिला?"...

"कोई शिकवा तो नहीं ना?"


"ओ.के!...तो फिर तुम...

अपनी 'बिप्स-शिप्स'...

'मल्लिका-शल्लिका'..

के साथ 'ऐश-वैश'करो"...


"ऊप्स!..सॉरी अगेन"...

"इस 'ऐश'को तो आप बक्ष ही दें अब खरबूजा खा के"


"करने दो 'अभिषेक' को भी 'ऐश'के साथ ऐश"

"अपना ही बन्दा है"...

"कौन सा पराया है?"


"जाएँ अब आप भी अउर...

ई दिपावली की मौजवा के समुन्द्र में गोते लगाएँ एकदम से खुल के..."


"खुश रहें"...

"आबाद रहें"...

"बेशक!...यहाँ रहें या 'फरीदाबाद' रहें"


"आप चाहें तो बेशक 'मुरादाबाद' या फिर 'बरेली' में भी अपना तम्बू का बम्बू गाड लें"

"बेकाझ ई आज़ाद भारत में कौनु रोकने-टोकने वाला नहिंए है ना"


"एक ठौ बार फिर से दिपावली की शुभ व मँगल कामानाएँ आपके लिए"


"कर दी ना बुरबक वाली बात?"

"अरे बाबा!...हर वक्त थोडे ही चलता है मज़ाक-शज़ाक"


"अबकि बार सचमुच में दिपावली की शुभकामनाएँ आप ही के लिये शुद्ध व खालिस देसी घी में तैयार"

"अब विश्वास नहीं है ना आपको इस 'राजीव' की बात पर?"

"तो!..चख कर देख ही लें आप खुद ही"


"मज़ा न आए तो पूरे पैसे वापिस"


"अरे बाबा!...ई गूगलवा के एडसैस पे चटखा लगा के पहिले पैसा तो दिलवा दीजिए"

फिर कीजिए ना आप हमसे पैसे वापसी की खुल के बात"


"भय्यी देखिए...सीधी-सच्ची बात तो ये है बन्धुवर के...

अगर आप ई 'एड-वैड' पे 'क्लिक' नाही करेंगे तो समझ लीजिए कि...

आपका तो कुछ जाएगा नहीं और अपना कुछ रहेगा नहीं ई 'ब्लोगिंग-व्लॉगिंग' के चक्कर में"


"सो!..मार दीजिए ना दो-चार 'क्लिक'..

झोली भर-भर दुआएँ दूँगा आपको"...


"सच्ची!...सच्ची-मुच्ची"


"ओ.के बाबा!..."

"काले कुत्ते की कसम"...


"क्यूँ!..ठीक है ना?"



विनीत:

राजीव तनेजा

"कुछ जतन करो मेरे भाई"


"कुछ जतन करो मेरे भाई"


***राजीव तनेजा***

ना रहा अब दिन को चैन
ना रही अब रातों की नींद
सुख-चैन लुट गया है मेरा
कब-कब आओगे तुम रघुवीर

पढने वाले पढ-पढ रहे
समझ रहा ना कोई
कुछ जतन करो मेरे भाई
कुछ जतन करो मेरे भाई

पहले मैने इसे पिया
अब ये मुझे पीने लगी
ज़िन्दगी पहले सी कहाँ
बोझिल अब होने लगी

कुछ जतन करो मेरे भाई
कुछ जतन करो मेरे भाई


खुशी-खुशी मैँ इसे पीता था
हर गम भी सह-सह जाता था
बे-स्वाद बे-असर है अब
ना बचा इसमें कुछ बाकी है

कुछ जतन करो मेरे भाई
कुछ जतन करो मेरे भाई

क्यों जान इसी में अटकी है
क्यों तलवार गले पे लटकी है
समझ रहे मुझे किस जैसा
मैँ नहीं रहा कभी उन जैसा

कुछ जतन करो मेरे भाई
कुछ जतन करो मेरे भाई

सोच तुम्हारी है उल्ट-पुल्ट
बात है जबकि सीधी सच्ची
रास्ते हमारे अलग-अलग है
विचार हमेशा रहे जुदा-जुदा

कुछ जतन करो मेरे भाई
कुछ जतन करो मेरे भाई

बात सुरा की तुम करते हो
मैँ पान सुधा का करता हूँ
तुम विष का सेवन करते हो
अमृत का प्याला मैँ छकता हूँ


कुछ जतन करो मेरे भाई
कुछ जतन करो मेरे भाई

चाय की प्याली प्यारी मुझे
अद्धा-पव्वा है न्यारा तुम्हे
चाय को मन मेरा भटक रहा
पैग तुम्हारा अब छलक रहा


कुछ जतन करो मेरे भाई
कुछ जतन करो मेरे भाई

राधा-स्वामी नाम लिया है
जीवन उनके नाम किया है
छोड के तुम सारे व्य्सन
इष्ट का अपने जाप करो

कुछ जतन करो मेरे भाई
कुछ जतन करो मेरे भाई

***राजीव तनेजा***

"हाँ मैँ सरदार हूँ"

"हाँ मैँ सरदार हूँ"


***राजीव तनेजा***

"अब यार!...इन लडकियों को हम सरदार पसन्द क्यों नहीं आते हैँ भला?"

"ये बात तो आज तक अपने पल्ले नहीं पडी"

"आखिर!..क्या कमी है हम में?"

"पता नहीं उन्हें हम सरदारों के नाम से ही करैंट क्यों लगने लगता है?"

"अब यार!..इन कमबखत मारियों से लाख छुपाने की कोशिश की कि मैँ सरदार हूँ लेकिन कोई फायदा नहीं"

"पता नहीं इनको कैसे खबर हो जाती है और...

वो ऐसे पागल घोडी के माफिक बिदकती हैँ कि फिर कभी ऑनलाईन होने का नाम ही नहीं लेती"

"यहाँ तक कि मैने भी कई बार 'आई डी' बदल-बदल के 'ट्राई' मारी लेकिन....

हाल वही जस का तस"

"इन बावलियों को पता नहीं कहाँ से खुशबू आ जाती है कि सामने वाला सरदार है"

एक दिन हिम्मत कर के एक से पूछ ही लिया कि....

चलो माना कि मैँ सरदार हूँ लेकिन आपको कैसे पता चला इसका?"

"मैने तो अभी तक आपको अपने चौखटे के दर्शन भी नहीं करवाए हैँ"


"वैरी सिम्पल"..उसका जवाब था


"पर कैसे?"

"पता तो चले"


"इंटीयूशन ....बेबी ...इंटीयूशन"

"कुछ लोग तो शक्ल से ही सरदार होते हैँ और कुछ अक्ल से भी"वो जैसे मज़ाक उडाते हुए बोली

"तुम दूसरी वाली 'कैटेगरी' के हो"


"हाँ!...मैँ सरदार हूँ"...

"सरदार हूँ"...

"सरदार हूँ"...मुझे गुस्सा आ चुका था


"आपके लिए ये हँसी-ठिठोली की बात हो सकती है लेकिन मेरे लिए ये फख्र की बात है कि मैँ एक सरदार हूँ"


"आप सबकी ज़िन्दगी में रौनक लाने वाला कौन?"


"एक सरदार"...ना?"


"आपके 'बैण्ड' बजे चेहरे पे हँसी लाने वाला कौन?"


"एक सरदार!...ना?"

"'कशमीर' से 'कन्याकुमारी' तक...

'पँजाब' से 'नागालैण्ड' तक...

'आस्ट्रेलिया' से 'यू.एस' तक...

चाहे 'जापान' हो या हो 'फिज़ी'....

या फिर 'अफ्रीका' का कोई छोटा-मोटा देश"..

"हर जगह हमारा अपनी कामयाबी का झण्डा गाड चुके हैँ"

"अरे!...हम सरदार वो चीज़ हैँ जो रोते हुए चौखटों पे भी हँसी की बौछार ला दें"

"अब ये!..'लतीफे' या 'जोक्स' कहाँ से बनते हैँ?"


"अपने ही समाज से!...ना?"

"और अगर इस काम में हमारे जुड जाने से आपको इस 'टैंशन' भरे माहौल में...

खुशी के दो पल मिलते हैँ तो ये हमारे लिए गर्व की बात है...

फख्र की बात है"


"हमारे जैसा मेहनत-कश इंसान आपको पूरी दुनिया में ढूंढे ना मिलेगा"

"अरे!..हम वो हैँ जो अपनी मेहनत से रेगिस्तान में भी फूल खिला उसे गुलज़ार बना दें"

"हम वो हैँ जो पत्थर को भी पिघला दें"

"खास बात ये कि हम किसी भी काम को छोटा या बडा नहीं मानते"

"इसीलिए आज हमारे पास....

'दौलत' है...

'शोहरत' है...

'रुत्बा' है ...

'ताकत' है...

'पोज़ीशन' है"


"इंडिया का प्राईम मिनिस्टर कौन?"....

"एक सरदार!...ना?"

"उनके जैसा पढा-लिखा इंसान तो ढूढे से भी ना मिलेगा"

"आज़ादी की लडाई में भी हम सरदार ही सबसे आगे थे"

"पूर्व राष्ट्रपति कौन?"

"एक सरदार!...ना?"

"अब यार!...ये अच्छे-बुरे तो हर कौम में हो सकते हैँ"..

"इसके लिए हमारा सरदारों पर ही भला तोहमत क्यों?"

"ठीक है!...माना कि हमारा में कुछ गल्त भी हैँ लेकिन...

ऐसे बन्दे किस कौम में नहीं हैँ भला?"

"ज़रा बताओ तो"

"उसके लिए क्या सबको गल्त ठहरा देना जायज़ है?"


"नहीं ना?"

"तो फिर!...?"

"आज जो कुछ....

'आसाम'..

'बिहार'....

'बंगाल'....

'आन्ध्रा प्रदेश' या फिर किसी पडोसी मुल्क में हो रहा है....

"उसे कौन अंजाम दे रहा है?"

"क्या सरदार?"

"नहीं ना!..."

"कोई कौम या मज़हब गल्त नहीं होती"...

"गल्त होती है विचारधारा"

"अच्छे या बुरी विचारधारा वाला इंसान किसी भी कौम या मज़हब का हो सकता है"

"कोई ज़रूरी नहीं कि वो....

'हिन्दू' हो के 'मुस्लिम' हो....

'सिख' हो के 'इसाई' हो...

या फिर हो कोई और"

"मैँ लगातार बिना रुके बोलता चला गया"

"वो बेचारी सकपकाई सी चुपचाप सुनती रही सब का सब"


फिर बस उसने यही लिखा कि ...

"आई एम सॉरी"


"मैँ बडा खुश था कि चलो एक मोर्चा तो फतह हुआ"...

"लेकिन जंग जीतना अभी बाकि है"

"तो आओ सरदारो!...

आगे बढें और कहाँ दें दुनिया वालों से कि...

"हाँ!...हम सरदार हैँ"

"कोई शक?"


***राजीव तनेजा ***

नोट:अगर मेरे इस लेख से किसी की भावनाएँ आहत होती हैँ तो मैँ इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ-राजीव तनेजा
 
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