रुकावट के लिए खेद है

***राजीव तनेजा***


"बात पिछले साल की है....चार दिन थे अभी त्योहार आने में... मैँ मोबाईल से दनादन 'एस.एम.एस'किए जा रहा था" "क्रिसमस का त्योहार जो सिर पर था लेकिन ये 'एस.एम.एस' मैँ..अपने खुदगर्ज़ दोस्तों को या फिर मतलबी रिश्तेदारों को नहीं कर रहा था" "ये तो मैँ उन रेडियो वालों को भेज रहा था जो गानों के बीच-बीच में अपनी टाँग अडाते हुए बार-बार फलाने व ढीमके नम्बर पे 'एस.एम.एस' करने की गुजारिश कर रहे थे कि फलाने-फलाने नम्बर पे 'जैकपॉट'लिख के 'एस.एम.एस' करो तो 'साँता' आपके घर-द्वार आ सकता है ढेर सारे ईनामात लेकर"

(रुकावट के लिए खेद है)

 

नोट: इस बार व्यस्ता कह लें या फिर आलस कह लें...के चलते कुछ नया नहीं लिख पाया...इसलिए अपनी पुरानी कहानी 'बड़ा दिन'

को ही फिर से नए नाम से पोस्ट कर रहा हूँ।उम्मीद है कि आपको पसन्द आएगी...क्योंकि उम्मीद पे ही तो ये दुनिया...ये कायनात कायम है।



"सो!...मैने भी चाँस लेने की सोची कि यहाँ दिल वालों की दिल्ली में लॉटरी तो बैन है ही तो चलो 'एस.एम.एस' ही सही" "क्या फर्क पडता है?" "बात तो एक ही है"..."एक साक्षात जुआ है तो दूसरा मुखौटा ओडे उसी के पद-चिन्हों पे खुलेआम चलता हुआ उसी का कोई भाई-भतीजा" "साले!...यहाँ भी रिश्तेदारी निभाने लगे" "सो!...अपुन भी किए जा रहे थे 'एस.एम.एस' पे 'एस.एम.एस' कि जब खुद ऊपरवाला आ के छप्पर फाड रहा है अपने तम्बू का और बम्बू समेत ही हमें ले चल रहा है शानदार-मालादार भविष्य की तरफ कि...
"लै पुत्तरर !..कर लै हुण मौजाँ ही मौज़ाँ" ..."हो जाण गे हुण तेरे वारे-न्यारे" "अब ये कोई ज़रूरी नहीं कि हमेशा तीर ही लगें निशाने पे"... "तुक्के भी तो लग ही जाया करते हैँ निशाने पे कभी-कभार"... "कोई हैरानी की बात नहीं है इसमें जो इस कदर कौतुहल भरा चौखटा लिए मेरी तरफ ताके चले जा रहे हैँ आप" "क्या किस्मत के धनी सिर्फ आप ही हो सकते हैँ?"
"मैँ नहीं"...
"उसके घर देर है ...अन्धेर नहीं"...
"कुछ तो उसकी बे-आवाज़ लाठी से डरो"
"अब यूँ समझ लो कि अपुन को तो पूरा का पूरा सोलह ऑने यकीन ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास हो चला है कि...
अपनी बरसों से जंग खाई किस्मत का दरवाज़ा...अब खुला कि....अब खुला"
"दिन में पच्चीस-पच्चीस दफा कलैंडर की तरफ ताकता कि अब कितने दिन बचे हैँ पच्चीस तारीख आने में"
"पच्चीस तारीख!...?"..
"अरे!...बुरबक्क...लगा दी ना टोक"
"हाँ!...पच्चीस तारीख"
"कितनी बार कहा है कि यूँ सुबह-सुबह किसी के शुभ काम में अढंगा मत लगाया करो लेकिन...
तुम्हें अक्ल आए तब ना"
"पच्चीस बार पहले ही बता चुका हूँ कि पच्चीस दिसम्बर को ही तो मनाया जाता है 'बडा दिन' दुनिया भर में"...
और आप हैँ कि हर बार इसे 'बडा खाना' समझ लार टपकाने लगते हैँ"
"पेटू इंसान कहीं के "...
"बडा खाना तो होता है फौज में लेकिन तुम क्या जानो ये फौज-वौज के बारे में"...
"कभी राईफल हाथ में पकड के भी देखी है या माउज़र चला के देखा है कभी?"
"छोडो!...अब ये तुम्हारे लडकियों की नाज़ुक कलाईयाँ को थामने को बेताब हाथ क्या राईफल-शाईफल पकडेंगे?"
"यू!..बेवाकूफ 'सिविलियन'..."
"इन मेनकाओं का मोह त्याग ...देश की फिक्र करो बन्धुवर...देश की"
"हाँ!..तो मैँ कह रहा था कि जैसे-जैसे पच्चीस तारीख नज़दीक आती जा रही थी...मेरी 'एस.एम.एस'करने की स्पीड में भी तेज़ी से इज़ाफा होता जा रहा था"..."कई हज़ार के तो मैँ रिचार्ज करवा चुका था अभी तक "
"पुराना चावल जो ठहरा"..."मालुम जो था कि जितने ज़्यादा 'एस.एम.एस'...उतना ही ज़्यादा चाँस जीतने का"..."सो!...भेजे जा रहा था धडाधड 'एस.एम.एस' पे 'एस.एम.एस'"

"अब तो मोबाईल में भी बैलैंस कम हो चला था लेकिन फिक्र किस कम्भखत को थी? लेकिन सच कहूँ तो थोडी टैंशन तो थी ही कि सब यार-दोस्त तो पहले से ही बिदके पडे हैँ अपुन से "..."फाईनैंस का इंतज़ाम कैसे होगा?".. ."कहाँ से होगा?"
"ऐसे आडॆ वक्त पे अपने  'जीत बाबू' की याद आ गयी"
"बडे सज्जन टाईप के इंसान हैँ"...
"किसी को न नहीं कहा आज तक"
"भले ही कितनी भी तंगी चल रही हो लेकिन कोई उनके द्वार से खाली नहीं गया कभी"
"किसी पराए का दुख तक नहीं देखा जाता उनसे"
"नाज़ुक दिल के जो ठहरे"
"जो आया...जब आया...हमेशा सेवा को तत्पर"
"इतने दयालु कि कोई गारैंटी भी नहीं माँगते"
"बस तसल्ली के लिए घर,दुकान,प्लाट या गाडी-घोडे के कागज़ात भर रख लेते हैँ अपने पास "
"वैसे औरों से तो दस टका ब्याज लेते है मंथली का लेकिन...
अपुन जैसे पर्मानैंट कस्टमरज़ के लिए विशेष डिस्काउंट दे देते हैँ"
"बस बदले में उनके छोटे-मोटे काम करने पड जाते हैँ जैसे...
भैंसो को चारा डालना....
उनके 'टोमी' को सुबह-शाम गली-मोहल्ले में घुमा लाना"
"काम का काम हो जाता है और सैर की सैर"
"इसी बहाने अपुन का भी वॉक-शॉक हो जाता है"...


"वैसे इस बेफाल्तु से काम के लिए अपने पास अपने लिए भी टाईम कहाँ है?"
"ये तो बाबा रामदेव जी के सोनीपत वाले शिविर में उन्हें कहते सुना था कि...
सुबह-सुबह चलना सेहत के लिए फायदेमन्द है"
"फायदे की बात और वो मै ना मानूँ? ...
"ऐसा हरजाई नहीं"


"ऐसी गुस्ताखी करने की मैं सोच भी कैसे सकता था?"
"सो!..अपुन ने भी सोच-समझ के अँगूठा टिकाया और...
अपने जीत बाबू से पाँच ट्के ब्याज पे पैसा उठा धडाधड झोँक दिया इस 'एस.एम.एस' की आँधी में"
"अब दिल की धडकनें दिन प्रतिदिन तेज़ होने लगी ठीक कि ...
क्या होगा?...
"कैसे सँभाल पाउँगा इतनी दौलत को?"
"कभी देखा जो नहीं था ना ढेर सारा पैसा एक साथ"
"क्या-क्या खरीदूँगा?"...
"क्या-क्या करूँगा?"जैसे सैंकडो सवाल मन में उमड रहे थे"
"मैँ अकेली जान!..कैसे मैनेज करूँगा सब का सब?"
"हाँ!..अकेली ही कहना ठीक रहेगा"...
"बीवी को तो कब का छोड चुका था मैँ"
"वैसे!..अगर ईमानदारी से सच कहूँ तो उसी ने मुझे छोडा था"
"अब पछताती होगी "...
"उस बावली को मेरे सारे काम ही जो फाल्तू के लगते थे"..
"हमेशा पीछे पडी रहती थी के बचत करो...बचत करो"...
"कोई काम नहीं आया है और ना कोई आएगा"...
"काम आएगा तो सिर्फ गाँठ में बन्धा पैसा ही"
"दोस्त-यार...रिश्तेदार सब बेकार का...
फालतू का जमघट है"...
"बच के रहो इनसे"
"उस बावली को क्या पता कि ज़िन्दगी कैसे जिया करते हैँ"..
"उसे तो बस यही फिक्र पडी रहती हमेशा कि...
'फीस का इंतज़ाम हुआ बच्चों की?'...
'ये नैट कटवा क्यूँ नहीं देते?'...
'कार साफ करने वाला पैसे माँग रहा था'...
'गाडी की किश्त जमा करवा दी?'
"वो बोल-बोल के परेशान हुए रहती थी बे-फाल्तू में ही"
"शायद!...इसी चक्कर में दुबली भी बहुत हो गई थी"
"अरे!...अगर फीस नहीं भरी तो कौन सा आफत आ जाएगी?"...
"ज़्यादा से ज़्यादा क्या करेंगे?"...
"नाम ही काट देंगे ना?"
"तो काट दें साले!..."...
"कौन रोकता है?"...
"सरकारी स्कूल बगल में ही तो है"...
"एक तो फीस भी कम...
"ऊपर से पैदल का रास्ता"...
"बचत ही बचत"...
"उल्टा!..जो पैसे बच जाएंगे...
तो उनसे कार की किश्त भी टाईम पे भर दी जाएगी"
"वैरी सिम्पल"
"ये आना-जाना तो चलता ही रहता है"
"कभी इस स्कूल तो कभी उस स्कूल"
"कहती थी कि नैट कटवा दूँ"...
"हुँह!..बडी आई नैट कटवाने वाली"...
"इतनी जो फैन मेल बनाई है दो बरस में...
सब!..छू मंतर नहीं हो जाएगी?"
"गुरू!..यहाँ तो चढते सूरज को सलाम है"...
"दिखते रहोगे तो बिकते रहोगे"...
"दिखना बन्द तो समझो बिकना भी बन्द"
"बैठे रहो आराम से"
"फैनज़ का क्या है?"...
"आज हैँ...कल नहीं"...
"आज शाहरुख के कर रहे हैँ तो कल रितिक के पोस्टर रौशन करेंगे लडकियों के बैडरूम"
"टिकाऊ नहीं होती है ये प्रसिद्धी-वर्सिद्धी "...
"बडे जतन से संभाला जाता है इसे"
"अपने!..'कुमार गौरव' का हाल तो मालुम ही है ना?"
"वन फिल्म वण्डर"
"एक फिल्म से ही सर आँखों पे बिठा लिया था पब्लिक ने और...
अगले ही दिन दूजी फिल्म पे उसी दिवानी पब्लिक ने ज़मी पे भी ला पटका था"
"टाईम का कुछ पता नहीं"...
"आज अच्छा है"....
"कल का मालुम नहीं"....
"रहे...रहे"...
"ना रहे ...ना रहे"
"क्या यार!...यहाँ तो पहले ही टैंशन है इतना कि मोबाईल में बैलैंस बचा पडा है और...
दिन जो हैँ वो प्रतिदिन कम होते जा रहे हैँ"
"कैसे भेज पाउंगा सारे पैसे के 'एस.एम.एस'?"
"अब ये सब सोच-सोच के मैँ सोच में डूबा हुआ ही था कि घंटी बजी और लगा कि...
जैसे मेरे सभी सतरंगी सपनों के सच होने का वक्त आ गया"
"मेरे बारे में मालुमात किया उन्होंने ....
पूछने पे पता चला कि रेडियो वाले ही थे और मेरा नम्बर उन्होंने सलैक्ट कर लिया है बम्पर ईनाम के लिए "
"बाँछे खिल उठी मेरी"...
"इंतज़ार की घडियाँ खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी"
"प्यास के मारे हलक सूखा जा रहा था लेकिन पानी पीने का होश और फुरसत किसे थी?"
डर जो था कि कहीं 'साँता जी' गल्ती से ही किसी और के घर ना जा घुसें"...
"खास कर के बाजू वाले शर्मा जी के यहाँ"...
"साले!...दोगले किस्म के इंसान"..
"सामने कुछ और...पीठ पीछे कुछ"
"ऊपर-ऊपर से तो बेटा-बेटा करते रहते थे और अन्दर ही अन्दर मेरी ही बीवी पे नज़र रखते थे"
"बडा समझाते रहते थे मुझे दिन भर कि ...
"बेटा ऐसे नहीं करो...वैसे नहीं करो"
"अरे!...मेरा घर ...मेरी बीवी...
मेरी मरज़ी जो जी में आए करूँ"
"तुम होते कौन हो बीच में अडंगी लगाने वाले?"
"कहीं!...बीवी ही तो नहीं सिखा के गई उन्हें ये सब?"
"क्या पता!..पीठ पीछे क्या-क्या गुल खिलते रहे हैं यहाँ?"
"ये सब सोच-सोच के मैँ परेशान हो ही रहा था कि साँता जी आ पहुँचे"...
"उनका ओज से भरा चेहरा देख ही मेरे सभी दुख ....सभी चिंताएँ हवा हो गई"
"लम्बा तगडा कसरती बदन"...
"सुर्ख लाल दमकता चेहरा"...

"झक लाल कपडे"..
"उन्होंने बडे ही प्यार से सर पे हाथ फिराया"...
"मस्तक को प्यार से चूमा"
"चेहरा ओज से परिपूर्ण था "
"नज़रें मिली तो मैँ टकटकी लगाए एकटक देखता रह गया"
"आँखे चौंधिया सी रही थी"...
"सो!...ज़्यादा देर तक देख नहीं पाया मैँ"
"निद्रा के आगोश ने मुझे घेर लिया था"
"आँखे बन्द होने को थी"
"मुँह में आए शब्द मानो अपनी आवाज़ खो चुके थे"...
"चाह कर भी मैँ कुछ कह नहीं पा रहा था"
"शायद पवित्र आत्मा से मेरा पहला सामना था इसलिए"
"ऐसा ना मैंने पहले कभी देखा था और ना ही कभी इस बारे में कुछ सुना था"
"शायद!...आत्मा से परमात्मा का मिलन इसे ही कहते होंगे "
"ये आम इंसान से परम ज्ञानी बनने का सफर बहुत भा ही रहा था मुझे कि ...
उन्होंने पूछ लिया...
"चिंता ना कर वत्स !...बता क्या चाहिए तुझे?"
"अब से तेरे जीवन में बस मौजां ही मौजां"...
"मैँ कुछ बोलने से पहले सकुचाया"..
"शरमा मत...बता..क्या इच्छा है तेरी?"...
"मेरे कंठ से आवाज़ न निकली"
उन्होंने फिर प्रेम से पूछा"बता!...तेरी रज़ा क्या है?"
"चुप देख मुझे ...
उन्होंने खुद ही 'एयर कंडीशनर' की तरफ इशारा किया"
"मैंने मुण्डी हिला हामी भर दी"
"फिर टीवी की तरफ इशारा किया तो मैँने फिर मुण्डी हिला दी"
"उसके बाद तो फ्रिज...
'डीवीडी प्लेयर'...
'होम थियेटर'...
'हैण्डी कैम'...सबके लिए मैँ हाँ करता चला गया"
"वैसे होने को तो ये सारी की सारी चीज़े मेरे पास पहले से ही मौजूद थी लेकिन कोई भरोसा नहीं था इनका"
"बीवी के साथ कैसा जो चल रहा था कोर्ट में"
"क्या पता साली!...सब वापिस लिए बिना नहीं माने"
"इसलिए कैसे इनकार कर देता साँता जी को?"
"इतनी तो समझ है मुझे कि अच्छे मौके बार-बार नहीं मिला करते"
"सो!...हाथ आया दाव बिना चले कैसे रह जाता?"
"पहली बार तो मेरी किस्मत ने पलटी मारी थी और वो भी तब जब बीवी नहीं थी मेरे साथ"..
"शायद ऊपरवाले ने भी यही सोचा होगा कि इसके घर की लक्ष्मी तो हो गयी उडनछू....
तो क्यों न बाहर से ही कोटा पूरा कर दिया जाए इसका"
"नेक बन्दा है...कुछ ना कुछ बंदोबस्त तो करना ही पडेगा इसका"
"मैँ खुशी से पागल हुआ जा रहा था कि आवाज़ आई कि...
"वक्त के साथ-साथ मैँ भी बूढा हो चला हूँ"...
"इतना सामान कँधे पे उठा नहीं सकता और....
भला दिल्ली की सडकों पर बर्फ गाडी याने स्लेज का क्या काम?"
"इसलिए!...स्लेज छोड ट्रक ही ले आया हूँ मैँ"...

"वक्त के साथ-साथ खुद को भी बदलना पडता है...
"सो!...बदल लिया"साँता जी मुस्कुराते हुए बोले
"मैने भी झट से कह दिया कि आपक नाहक परेशान न हों...मैँ हूँ ना"
"उसी वक्त उनके साथ जा के सारा सामान ट्रक से अनलोड किया ही था कि इतने में नज़र लगाने को शर्मा जी आ पहुँचे"
बोले"ये क्या कर रहे हो?"...
"मैँ चुप रहा"..
"वो फिर बोल पडे"...
"मुझे गुस्सा तो बहुत आया लेकिन चुप रहा कि कौन मुँह लगे और अपना अच्छा-भला मूड खराब करे"
फिर बोल पडे"ये क्या कर रहे हो?"
"अब मुझसे रहा न गया"...
"आखिर बर्दाश्त की भी एक हद होती है"
"तंग आकर आखिर बोलना ही पडा कि...
"मेरा माल है"...
"मैँ जो चाहे करूँ"..
"आपको मतलंब?"
"शर्मा जी बेचारे तो मेरी डांट सुन के चुपचाप अपने रस्ते हो लिए"
"साँता जी के चेहरे पे अभी भी वही मोहिनी मुस्कान थी"
"उनकी सौम्य आवाज़ आई"अब मैँ चलता हूँ"....
"अगले साल फिर से मिलता हूँ"
"और वो पलक झपकते ही गायब हो चुके थे"
"मैँ खुशी से फूला नहीं समा रहा था कि अगले साल फिर से आने का वादा मिला है"...
"इस बार तो मिस हो गया लेकिन अगली बार नहीं"...
"अभी से ही लिस्ट तैयार कर लूंगा कि ये भी माँगना है और वो भी माँगना है"
"बार-बार सारे गिफ्टस की तरफ ही देखे जा रहा था मैँ"...
"नज़र हटाए नहीं हट रही थी कि पता ही नहीं चला कि कब आँख लग गयी"
"सपने में भी उस महान आत्मा के ही दर्शन होते रहे रात भर"
"जब आँख खुली तो देखा कि दोपहर हो चुकी थी"
"सर कुछ भारी-भारी सा था"
"उनींदी आँखो से सारे सामान पे नज़र दौडाई"..
"लेकिन!...ये क्या?"
"जो देखा...देख के गश खा गया मैँ"...
"सब कुछ बिखरा-बिखरा सा था"
"न कहीं टीवी नज़र आ रहा था और ना ही कहीं फ्रिज और होम थिएटर"
"हैण्डी कैम का कहीं अता-पता नहीं था"
"कायदे से तो हर चीज़ दुगनी-दुगनी होनी चाहिए थी पर यहाँ तो इकलौता पीस भी नदारद था"
"देखा तो तिजोरी खुली पडी थी"
"कैश....गहने-लत्ते...क्रैडिट कार्ड....
कुछ भी तो नहीं था"
"सब का सब माल गायब हो चुका था"
"मैंने बाहर जा के इधर-उधर नज़र दौडाई तो कहीं दूर तक कोई नज़र नहीं आया"
"कोई साला!..मेरे सारे माल पे हाथ साफ कर चुका था"
"मैँ ज़ोर-ज़ोर से धाड मार-मार रोने लगा"...
"भीड इकट्ठी हो चुकी थी "
"सबको अपना दुखडा बता ही रहा था कि शर्मा जी की आवाज़ आई...
"क्यों अपने साथ-साथ सबका दिमाग भी खराब कर रहे हो बेफिजूल में?"...
"रात को सारा सामान खुद ही तो लाद रहे थे ट्रक में और अब ड्रामा कर रहे हो चोरी का"
"मैने अपनी आँखो से देखा और आपसे पूछा भी तो था कि ये आप क्या कर रहे हैँ?"
"आपने ने तो उल्टा मुझे ही डपट दिया था कि मैँ अपना काम करूँ"
"रेडियो स्टेशन से पता किया तो मालुम हुआ कि ईनाम पाने वालों की लिस्ट में मेरा नाम ही नहीं था"
"अब लगने लगा था कि वो साला साँता फ्राड था एक नम्बर का "
"किसी तरीके से मेरा नम्बर पता लगा लिया होगा उसने"
"और शायद मुझे हिप्नोटाईज़ कर चूना लगा गया"


"अब तो यही के उम्मीद की किरण बाकि है कि शायद वो अपना वायदा निभाए और अगले साल वापिस आए"
"एक बार मिल तो जाए सही कम्भख्त,फिर बताता हूँ कि कैसे सम्मोहित किया जाता है"...फिर उसे बताऊँगा कि कैसे करते हैँ मौजां ही मौजां"
"बस इसी आस में कि वो आएगा मैँ इस बार भी 'एस.एम.एस' किए जा रहा हूँ...किए जा रहा हूँ"


"जय हिन्द"


***राजीव तनेजा***

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कभी तो माएके जा री बेगम(ऑडियो/पँजाबी)सहित

मुझे मेरे एक मित्र ने ये कविता मेरे मोबाईल में ब्लूटुथ के जरिए फॉरवर्ड की थी।मुझे सुनने में बहुत अच्छी लगी तो मैँने सोचा कि इसे सभी के साथ शेयर करना बेहतर रहेगा।ये कविता दरअसल पंजाबी में है और जिन सज्जन ने इसे लिखा है ..मैँ उनका नाम नहीं जानता।शायद वो पाकिस्तान से हैँ।अपने सभी पढने वालों के फायदे के लिए मैँने इसका हिन्दी में अनुवाद करने की कोशिश की है।

उम्मीद है कि आप सभी को पसन्द आएगी। असली रचियता से साभार सहित
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राजीव तनेजा

मेरी पाँचवी कहानी नवभारत टाईम्स पर

पहली कहानी- बताएँ तुझे कैसे होता है बच्चा

दूसरी कहानी- बस बन गया डाक्टर

तीसरी कहानी- नामर्द हूँ,पर मर्द से बेहतर हूँ

चौथी कहानी- बाबा की माया

पाँचवी कहानी- व्यथा-झोलाछाप डॉक्टर की


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'व्यथा-झोलाछाप डॉक्टर की'


10 Dec 2008, 1130 hrs IST,नवभारतटाइम्स.कॉम 

राजीव तनेजा


कसम ले लो मुझसे ' खुदा ' की या फिर किसी भी मनचाहे भगवान की। तसल्ली न हो तो बेशक ' बाबा रामदेव ' के यहां मत्था टिकवा कर पूरे सात के सात वचन ले लो, जो मैंने या मेरे पूरे खानदान में कभी किसी ने ' वीआईपी ' या किसी फैशनेबल लगेज के अलावा कोई देसी लगेज जैसे- थैला, बोरी, कट्टा, ट्रंक, अटैची या फिर कोई और बारदाना इस्तेमाल किया हो।

कुछ एक सरफिरे अमीरज़ादे तो ' सैम्सोनाइट ' का महंगा लगेज भी इस्तेमाल करने लग गए हैं आजकल। आखिर स्टैंडर्ड नाम की भी कोई चीज़ होती है कि नहीं। लेकिन, इस सब में भला आपको क्या इंट्रेस्ट ? आपने तो न कुछ पूछना है , न पाछना है और सीधे ही बिना सोचे - समझे झट से सौ के सौ इल्ज़ाम लगा देने हैं हम मासूमों पर। मानों हम जीते-जागते इंसान न होकर कसाई खाने में बंधी भेड़ - बकरियां हो गए कि जब चाहा जहां चाहा झट से मारी और फट से हांक दिया।
अच्छा लगता है क्या, किसी अच्छे भले सूटेड-बूटेड आदमी को ' झोला छाप ' कह उसकी पूरी पर्सनैलिटी पूरी इज़्जत की वाट लगाना ? मज़ा आता होगा न आपको हमें सड़क छाप कह कर हमारे काम, हमारे धंधे की तौहीन करते हुए ? सीधे-सीधे कह क्यों नहीं देते कि अपार खुशी का मीठा-मीठा एहसास होता है आपको, हमें नीचा दिखाने में ? वैसे यह कहां की भलमनसत है कि हमारे मुंह पर ही हमें हमारे छोटेपन का एहसास कराया जाए ?
यह सब इसलिए न कि हम आपकी तरह ज़्यादा पढ़े लिखे नहीं, ज़्यादा सभ्य नहीं, ज़्यादा समझदार नहीं ? हमारे साथ यह दोहरा मापदंड, यह सौतेला व्यवहार इसलिए न कि हमारे पास डिग्री नहीं, सर्टिफिकेट नहीं है ? मैं आपसे पूछता हूं कि हकीम लुकमान के पास कौन से कॉलिज या विश्वविद्यालय की डिग्री थी ? या धनवंतरी ने ही कौन सा मेडिकल कॉलिज से एमबीबीएस या एमडी पास आऊट किया था ? सच तो यही है दोस्त कि उनके पास कोई डिग्री नहीं थी। फिर भी वह देश के जाने-माने हकीम थे, वैद्य थे, लाखों करोड़ों लोगों का सफलतापूर्वक इलाज किया था उन्होंने। क्यों है कि नहीं ?
उनके इस बेमिसाल हुनर के पीछे उनका सालों का तजुर्बा था, न कि कोई डिग्री। हमारी कंडीशन भी कुछ-कुछ उनके जैसी ही है। यानी कि 'ऑलमोस्ट सेम टू सेम ' क्योंकि जैसे उनके पास कोई डिग्री नहीं, वैसे ही हमारे पास भी कोई डिग्री नहीं, सिम्पल। वैसे आपकी जानकारी के लिए मैं एक बात और बता दूं कि ये लहराते बलखाते बाल मैंने ऐसे ही धूप में सफेद नहीं किए हैं, बल्कि इस डॉक्टरी में पूरे पौने नौ साल का प्रैक्टिकल तजुर्बा है मुझे और खास बात यह कि यह तजुर्बा मैंने इन तथाकथित एमबीबीएस या एमडी डॉक्टरों की तरह किसी बेज़ुबान चूहे या मेंढक का पेट काटते हुए हासिल नहीं किया है, बल्कि इसके लिए खुद इन्हीं नायाब हाथों से कई जीते जागते ज़िन्दा इंसानों के बदन चीरे हैं मैंने।
है क्या किसी ' डिग्रीधारी ' डॉक्टर या फिर मेडिकल ऑफिसर में ऐसा करने की हिम्मत ? और यह आपसे किस गधे ने कह दिया कि डिग्रीधारी डॉक्टरों के हाथों मरीज़ मरते नहीं हैं ? रोज़ ही तो अखबारों में इसी तरह का कोई ना कोई केस छाया रहता है कि फलाने सरकारी अस्पताल में फलाने डॉक्टर ने लापरवाही से ऑपरेशन करते हुए वक्त सरकारी कैंची को गुम कर दिया। अब कर दिया तो कर दिया, लेकिन नहीं अपनी सरकार भी न, पता नहीं क्या सोच कर एक छोटी सी सस्ती कैंची का रोना ले कर बैठ जाती है। यह भी नहीं देखती कि कई बार बेचारे डॉक्टरों के नोकिया ' एन ' सीरीज़ तक के महंगे-महंगे फोन भी मरीज़ों के पेट में बिना कोई शोर-शराबा किए गर्क हो जाते हैं। लेकिन, शराफत देखो उनकी, वे उफ तक नहीं करते।

अब कोई छोटा-मोटा सस्ता वाला चायनीज़ मोबाइल हो तो बंदा भूल-भाल भी जाए, लेकिन नोकिया और वह भी ' एन ' सीरीज़ कोई भूले भी तो कैसे भूले ? अब इसे कुछ डॉक्टरों की किस्मत कह लें या फिर उनका खून-पसीने की मेहनत से कमाया पैसा कि उन्होंने अपने फोन को बॉय डिफॉल्ट ' वाईब्रेशन ' मोड पर सेट किया हुआ होता है। जिससे न चाहते हुए भी कुछ मरीज़ पेट में बार-बार मरोड़ उठने की शिकायत लेकर उसी अस्पताल का रुख करते हैं, जहां उनका इलाज हुआ था।
वैसे बाबा रामदेव झूठ न बुलवाए तो यही कोई दस बारह केस तो अपने भी बिगड़ ही चुके होंगे इन पौने नौ सालों में, लेकिन इसमें इतनी हाय तौबा मचाने की कोई ज़रूरत नहीं। आखिर इंसान हूं और इंसानों से ही गलती होती है। लेकिन, अफसोस सबको मेरी ही गलती नज़र आती है। क्या किसी घायल, किसी बीमार की सेवा कर उसका इलाज कर, उसे ठीक भला चंगा करना गलत है ? नहीं न ? फिर ऐसे में अगर कभी गलती से लापरवाही के चलते कोई छोटी-बड़ी चूक हो भी गई तो इसके लिए इतना शोर-शराबा क्यों ?

मुझमें भी आप ही की तरह देश सेवा का जज़्बा है। मैं भी आप सभी की तरह सच्चा देशभक्त हूं और सही मायने में देश की भलाई के लिए काम कर रहा हूं। कहने को अपनी सरकार हमेशा बढ़ती जनसंख्या का रोना रोती रहती है, लेकिन अगर हम मदद के लिए आगे बढ़ते हुए अपनी सेवाएं दें तो बात फांसी तक पहुंच जाती है। वे कहें तो पुण्य और हम करें तो पाप। वाह री मेरी सरकार, कहने को कुछ और, करने को कुछ और।
जहां एक तरफ इंदिरा गांधी के ज़माने में कांग्रेस सरकार ने टारगिट पूरा करने के लिए जबरन नसबंदी का सहारा लिया था और अब वर्तमान कांग्रेस सरकार जगह-जगह 'कॉन्डम के साथ चलें ' के बैनर लगवा रही है। दूसरी तरफ कोई अपनी मर्जी से अबॉर्शन करवाना चाहे तो जुर्माना लगा फटाक से अंदर कर देती है। यह भला कहां का इंसाफ है कि अबॉर्शन करने वालों को और करवाने वालों को पकड़कर जेल में डाल दिया जाए ?

कोई कुछ कहे न कहे, लेकिन मेरे जैसे लोग तो डंके की चोट पर यही कहेंगे कि अगर लड़का पैदा होगा तो वह बड़ा होकर कमाएगा धमाएगा, खानदान का नाम रौशन करेगा। ठीक है, मान ली आपकी बात कि आजकल लड़कियां भी कमा रही हैं और लड़कों से दोगुना-तिगुना तक कमा रही हैं, लेकिन ऐसी कमाई किस काम की, जो वह शादी के बाद फुर्र हो अपने साथ ले चलती बनें ? यह भला क्या बात हुई कि खर्च करते करते बेचारा बाप बूढ़ा हो जाए और जब पैसे कमाने की बारी आए तो पति महाशय क्लीन शेव होते हुए भी अपनी मूछों को ताव देते पहुंच जाएं ? मज़ा तो तब है जब, जो पौधे को सींचे वही फल भी खाए। क्यों ? है कि नहीं। खैर छोड़ो, हमें क्या ? अपने तो सारे बेटे ही बेटे हैं। जिन्हें बेटी है, वही सोचेगा।
आप कहते हैं कि हम इलाज के दौरान हाइजीन का ध्यान नहीं रखते। सिरिंजो को उबालना, दस्तानों का इस्तेमाल करना वगैरह, तो क्या आपके हिसाब से पैसा मुफ्त में मिलता है या फिर किसी पेड़ पर उगता है ? आंखे हमारी भी हैं, हम भी देख सकते हैं कि अगर सिरिंजें दोबारा इस्तेमाल करने लायक होती हैं, तभी हम उन्हें काम में लाते हैं वर्ना नहीं। ठीक है, माना कि कई बार जंग लगे औज़ारों के इस्तेमाल से खतरा बन जाता है और यदा कदा केस बिगड़ भी जाते हैं। तो ऐसे नाज़ुक मौकों पर हम अपना पल्ला झाड़ते हुए मरीज़ों को किसी बड़े अस्पताल या फिर किसी बड़े डॉक्टर के पास भी रेफर तो कर देते हैं।
अब अगर कोई काम हमसे ठीक से नहीं हो पा रहा है तो यह कहां का धर्म है कि हम उससे खुद चिपके रह कर मरीज़ की जान खतरे में डालें। आखिर, वह भी हमारी तरह जीता जागता इंसान है, कोई खिलौना नहीं।
ट्रिंग...ट्रिंग
- हलो
- कौन ?
- नमस्ते
- बस, यहीं आस-पास ही हूं।
- ठीक है, आधे घंटे में पहुंच जाऊंगा।
- ओके, सारी तैयारियां करके रखो। फायनली मैं आने के बाद चेक कर लूंगा।
- हां, मेरे आने तक पार्टी को बहला कर रखो कि डॉक्टर साहब ओटी में ऑपरेशन कर रहे हैं।
- एक बात और, कुछ भी कह सुन कर पूरे पैसे अडवांस में जमा करवा लेना। बाद में पेशंट मर-मरा गया तो रिश्तेदार तो ड्रामा खड़ा कर नाक में दम कर देंगे। पहले पैसे ले लो तो ठीक, वर्ना बाद में बड़ा दुखी करते हैं।

अच्छा दोस्तो, कहने-सुनने को बहुत कुछ है। फिलहाल, जैसा कि आपने अभी सुना, शेड्यूल थोड़ा व्यस्त है। फिर मिलेंगे कभी, शायद जब आप बीमार हों।

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याहू!.....10000 का आँकड़ा पार

याहू!....

हँसते रहो पर आने वालों की सँख्या 10000(दस हज़ार) के आँकड़े को पार कर गई है।

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मैँ राजीव तनेजा अपने सभी चाहने वालों का तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ कि उन्होंने इस नाचीज़ की छोटी-छोटी कहानियों को पढने के लिए अपना कीमती वक्त दिया।

एक बार फिर से आप सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया

राजीव तनेजा

पिछ्ले लेख


कसम कनखजूरे के तिरछे कान की

***राजीव तनेजा***

"सुनो"...

"ये 'ट्यूब' कितने की आती है?"....

"बूत्था(चेहरा) चमकाना है कि दाँत मंजवाने हैँ?"...

"क्यों?...मेरे चौखटे को क्या हुआ है?"...

"अच्छा-भला तो है"...

"और दाँत?...दाँत देखे हैँ कभी आईने में?"...

"क्यों?...दाँतो में मेरे क्या कमी दिख गई जनाब को"....

"अच्छे भले मोतियों जैसे तो हैँ"...

"तो मैँने कब कहा कि मोती सिर्फ सफेद ही हुआ करते हैँ?"...

"तुम्हारा मतलब मेरे दाँत पीले हैँ?"....

"ऐसा मैँने कब कहा?"...

"तुम क्या मुझे घसियारिन समझते हो जो मैँ तुम्हारी इन आड़ी-तिरछी बातों का मतलब ना समझूँ?"....

"सब समझती हूँ मैँ...तुम्हारा इशारा कहीं और होता है और निशाना कहीं और"...

"तो मैँने क्या गलत कह दिया?"...

"क्या तुम्हारे दाँतों में हल्की सी 'ऑफ व्हाईटिश' टोन नहीं है?"...

"है"...

"तो?"...

"उससे क्या फर्क पड़ता है?"...

"फर्क क्यों नहीं पड़ता?"...

"आज ज़रा से पीले हैँ...ध्यान नहीं रखोगी तो कल को सुनहरे होंगे और फिर भूरे हो बदरंग होते देर ना लगेगी"...

"और वैसे भी बच्ची नहीं हो तुम कि तुम्हें डांट-डपट के ज़बरदस्ती वाश-बेसिन के आगे खड़ा कर ब्रश करवाया जाए"....

"अच्छा!...तो अब तुम मुझे डांटोगे?"....बीवी कमर पे हाथ रख चिल्लाती हुई बोली

"ऐसा मैँने कब कहा?"....

"कहने में कोई कसर छोड़ी भी है?"...

"अरी भागवान!....कितनी बार प्यार से समझा चुका हूँ कि दिन में कम से कम तीन दफा ब्रश किया करो लेकिन मेरे कहे का तुम पे कोई असर हो...तब तो"...

"हुँह!...तीन दफा ब्रश किया करो"...

"और तो जैसे मुझे कोई काम ही नहीं है?"...

"तुम्हारे फायदे की बात करो तो भी मुश्किल...ना करो ...तो भी मुश्किल"...

"कोई ज़रूरत नहीं है मेरे फायदे की सोचने की...अपना अच्छा-बुरा मैँ खूब समझती हूँ"....

"हुँह!...बड़े आए मेरा फायदा करवाने वाले"...

"खुद तो नुकसान पे नुकसान करते रहे पूरी ज़िन्दगी"....

"अब चले हैँ दूसरों का उद्धार करने"...

"अरे!..मेरा बैड लक मुझे कामयाबी पाने से हमेशा रोकता रहे तो इसमें मैँ क्या करूँ?"...

"स्साला!...हमेशा मुझसे दो कदम आगे चलने की होड़ में रहता है"...

"कौन?"...

"मेरा बुरा वक्त...और कौन?"....

"तो क्या डाक्टर कहता है कि कभी 'भलस्वा' तो कभी 'गुड़गांवा' तो कभी 'पानीपत' जा के डेरा जमाओ"...

"अरी भागवान मेरे दाहिने पांव के नीचे तिल है"...

"तो?"...

"मेरे पैर में चक्कर है"...

"सब बेकार की बात है"...

"अरे नही!...इसीलिए तो मैँ एक जगह टिक के नहीं बैठ सकता"...

"लेकिन चिंता ना कर...लौट के बुद्धू घर को आ चुका है"...

"मेरा अच्छा वक्त बस अब आया ही समझो"...

"इतने साल तो हो गए देखते-देखते....पता नहीं कब आएगा"...

"अरे!...कभी ना कभी तो घूरे के दिन भी फिरते हैँ"....

"परेशान ना हो...अब देर नहीं है अच्छा समय आने में....इसीलिए तो सब पंगे छोड़ के वापिस 'नांगलोई'...अपने अड्डे पे आ गया हूँ कि नहीं?"....

"यहाँ अपनी खुद की जगह है...ना कोई किराया और ना ही किसी और किस्म का ऊटपटांग खर्चा"...

"जो बचना है...अपने लिए...खुद के लिए बचना है".....

"वो सब तो ठीक है लेकिन कभी-कभी मुझे ये लगता है कि तुम तो मुझे बिलकुल भी प्यार नहीं करते"...

"अरे जानू!...मैँ तो तुम्हें इतना प्यार करता हूँ...इतना प्यार करता हूँ कि बस पूछो मत"....मैँ दोनों बाहें फैला प्यार का साईज़ सा बताता हुआ बोला

"तो फिर तुम हर समय मेरी बुराई क्यों करते रहते हो?....

और तो किसी को मेरे अन्दर कोई कमी नहीं दिखती"....

"तो क्या कोई तुम्हारी तारीफ भी करता है?"...

"छत्तीस हैँ!...किस-किस का नाम बताऊँ?"बीवी पंजा फैला आँखे नचाती हुई बोली...

"फिर भी!...पता तो चले"....

"अभी परसों ही की लो...बगल वाले 'शर्मा जी' कह रहे थे कि....

"संजू जी!..जब-जब आप हँसती हैँ तो ऐसे लगता है कि जैसे मोती झड़ रहे हों"...

"हाँ!...कमज़ोर ही इतने हैँ कि अब झड़े..कि अब झड़े"...

"तुम तो बस ऐसे ही ऊट पटांग बकते रहा करो?"...

"बक नहीं रहा हूँ...सही कह रहा हूँ"....

"जा के समझाओ उस 'शर्मा' के बच्चे को कि दूसरों की बीवियों को लाईन मारना बन्द करे और अपने चश्मे का नम्बर किसी अच्छे ऑप्टीशियन से चैक करवाए"...

"स्साले!...को नए-पुराने माल में फर्क दिखाई देना बन्द हो गया है"....

"तो मैँ तुम्हें बुढिया दिखती हूँ?"...बीवी फिर कमर पे हाथ रख चिल्लाई.

"ऐसा मैँने कब कहा?"...

"कहा तो नहीं लेकिन क्या तुमने मुझे उल्लू समझ रखा है?"...

"अरे!..मैँ तो उस 'शर्मा' के बच्चे की बात कर रहा था कि....

स्साला 'ठरकी' ना हो किसी जगह का तो"...

"बुढापे में हाथ को हाथ नहीं सूझता है और ये चला है लाईन मारने"...

"हाँ!...लाईन मारता है लेकिन उसे जो कहना या करना होता है...साफ-साफ तो करता है"...

"तुम्हारी तरह नहीं कि दिल में कुछ और....दिमाग में कुछ और"...

"क्यों?...मैँने क्या गलत कह दिया...या...कर दिया?"...

"रहने दो...रहने दो...सुबह-सुबह मेरी ज़ुबान खुलवा क्यों अपनी मिट्टी पलीद करवाते हो?"...

"नहीं!...जब इतनी खुल ही गई है तो बाकि की कसर भी क्यों छोड़ती हो?"...

"निकाल लो अपने दिल की भड़ास और बक डालो आज वो सब..जो तुम्हारे दिल में है"...

"वो जो उस दिन पार्टी में भविष्य बांचने के नाम पे तुम मेरी सहेली 'शिप्रा' के हाथ को बार-बार सहला रहे थे...वो क्या  था?"...

"तो यूँ कहो ना कि तुम्हें जलन हो रही है"...

"हुँह!...जले मेरी जूती"...

"अरे मेरी माँ!...मैँ तो बस ऐसे ही...ज़रा सा मज़ाक करने के मूड में था"....

"हाँ-हाँ!...अब तो मैँ तुम्हें माँ ही दिखूँगी....वो कमीनी जो मिल गई है"...

"मेरी ही गल्ती है जो मैँने उस करमजली को तुमसे इंट्रोड्यूस करवाया"....

"सब मेरी ही गल्ती है"...

"लेकिन उस कलमुँही को तो सोचना चाहिए था कि डायन भी हमला करने से पहले आजू-बाजू के सात घर छोड़ देती है".

"अरे यार!...तुम तो बुरा मान गई"....

"मैँ तो बस ऐसे मज़ाक-मज़ाक में ट्राई कर के देख रहा था कि सैट-वैट भी होती है कि नहीं"....

"तुमने उसको सैट करके आम लेने हैँ?"....

"अरे यार!...तुम्हारे मुँह से ही तो कई बार उसकी तारीफ सुनी थी"....

"तो?"....

"तो यही चैक कर रहा था कि बात सच में सच्ची है या फिर तुम ऐसे ही हवाई फॉयर कर रही थी"...

"कोई ज़रूरत नहीं है मेरी किसी भी सहेली के फाल्तू मुँह लगने की"....

"मैँ?...और तुम्हारी इन पान-गुटखा चबाती सहेलियों के मुँह लगूँ?"...

"सवाल ही नहीं पैदा होता"...

"तो फिर वो उस से चिपक-चिपक जो बातें कर रहे थे...वो क्या था?"....

"अरे!...सिर्फ बात ही तो कर रहा था"....

"कौन सा उसे ब्याह के घर ला रहा था?"...

"ला के तो देखो...टाँगे ना तोड़ दूंगी उसकी"...

"अरे!...ज़रा सा फ्लर्ट क्या कर लिया?....तुम तो बुरा मान के बैठ गई"...

"मालुम है मुझे!...इस उम्र में 'निकाह' या 'ब्याह' नहीं बल्कि सिर्फ फ्लर्ट ही हुआ करते हैँ"...

"गलत!....बिलकुल गलत"...

"ये तुमसे किस गधे ने कह दिया"...

"क्यों?....कहना या सुनना किससे है?....मुझे खुद पता है"...

"कितनी बार समझा चुका हूँ कि रोज़ाना सुबह अखबार पढने की आदत डालो"....

"इससे दीन-दुनिया में क्या चल रहा है...इसका पता रहता है"...

"लग गए ना फिर मेरी नुक्ताचीनी करने?"...

"अच्छा!...चलो बताओ क्या चल रहा है तुम्हारी इस दीन-दुनिया में?"...

"अभी कुछ दिन पहले की ही तो खबर है कि काठमांडू की जेल में बन्द चौसंठ साल के चार्ल्स शोभराज ने इसी दशहरे को अपनी बीस वर्षीय प्रेमिका से ब्याह रचाया है"...

"इसमें क्या है?...फिरंगी आदमी है...जब चाहे...जहाँ चाहे ब्याह कर अपनी ठरक ठण्डी करता फिरे"...

"हाँ!...चाहे तो ब्याह ना भी करे"....

"लेकिन उसकी देखादेखी हर कोई बेहय्याई पे उतर आए...ऐसा भी तो ठीक नहीं"...

"ओ.के...ओ.के मैडम जी"...

"तुम सही...मैँ गलत"...

"मैँ कभी गलत भी हुई हूँ?"...

"ना!...कभी नहीं"....

हाँ!...अब बताओ...कौन सी ट्यूब के दाम पूछ रही थी तुम?"...

"पैप्सोडैंट या फिर बोरोलीन?"....

"वो वाली नहीं रे बाबा"...

"तो फिर?"...

"अरे!..वो..जिस से चमचम चमकती हुई रौशनी पैदा होती है"...

"तो ऐसे बोलो ना"...

"बताओ!...किसका दाम बताऊँ?"...

"'फिलिप्स'....'सिलवैनिया' या फिर 'राम-लक्ष्मण'?"....

"राम-लक्ष्मण...माने?"..

"अरे!...'राम-लक्ष्मण' याने के 'लक्सराम'"...

"ओह!...अच्छा"....

"कोई भी हो...क्या फर्क पड़ता है?"....

"तुम बस दाम बताओ"...

"क्यों?..खराब हो गई क्या?"....

"अभी दस-बारह दिन पहले ही तो बदलवाई 'बिजली पहलवान' से"...

"बिजली पहलवान?"....

"लेकिन वो तो नाटा सा...सींकिया सा...मरियल सा है"....

"वो क्या खाक पहलवानी करेगा?"...

"अरे!..बदन पे ना जाओ उसके"...

"डील-डौल ना हुए तो क्या?...गज़ब की...चीते सी फुर्ती है पट्ठे में"...

"आज भी याद है मुझे...वो तपती दोपहरी में...सावन का...बिना बारिश वाला महीना....जब धूल भरी आँधी चल रही थी...ऐसे में उस 'चने-मुरमुरे' बेचने वाले 'पलटूद्दीन' ने बीचोंबीच सड़क के कीचड़ और गोबर से लथपथ हो अपने से दुगने वज़न के 'रामनिवास' को गज़ब की पलटी मारते हुए चारों खाने चित्त किया था"...

"रामनिवास को तो मैँ जानती हूँ लेकिन ये 'पलटूद्दीन' कौन?"...

"अरे!..इसी 'पलटूद्दीन' को तो अब सारा मोहल्ला 'बिजली पहलवान' के नाम से पुकारता है"...

"ओह!...लेकिन वो तो 'चने-मुरमुरे' बेचता था ना?"...

"अरे!...जब नाम 'बिजली पहलवान' रखा गया तो काम भी बदल लिया"....

"दर असल !...बचपन में कई बार बिजली चोरी के चक्कर में  खंबे पे चढ खूंटी फँसाते-फँसाते वो खुद भी बिजली के झटके खाने का आदि हो चुका था"...

"तो?"....

"तो क्या?.....इससे बेहतर और भला क्या काम रहता उसके लिए?"....

"एक मिनट!...इसे तो शायद मैँ भी जानती हूँ"....

"कैसे?"....

"एक मिनट!...सोचने दो"....

"हाँ!...याद आया"...

"तुम्हारे इस 'पलटूदीन' का असली नाम 'देवी प्रसाद' है"...

"तुम्हें कैसे पता?"...

"अरे वो बगल वाले 'चुन्नू' की मौसी बता रही थी कि उनके मोहल्ले में एक रिक्शेवाला हुआ करता था 'देवी प्रसाद' नाम का"...

"तो?"....

"उसे ढंग से रिक्शा चलाना आता नहीं था.....इसलिए बार-बार पलट जाता था"....

"बस!...लोगों ने उसका मज़ाक उड़ा उसे 'पलटू राम' कहना शुरू कर दिया"...

"तुम्हें गल्ती लगी है..वो कोई और होगा"....

"ये 'पलटू राम' नहीं बल्कि 'पलटूद्दीन' है और हिन्दू नहीं बल्कि मुस्लमान है"...

"नहीं!...ये हिन्दू है"....

"तुम्हें इतना यकीन कैसे है?"..  

"मैँ गारैंटी से कह सकती हूँ"...

"कैसे?"....

"अरे कैसे क्या?..जब-जब इसका रिक्शा पलटता होगा तब इसका चेहरा दुखी हो दीन रूप धारण कर लेता होगा"... सो!...लोगों ने पलटू के साथ दीन और जोड़ इसे 'पलटूराम' से 'पलटूदीन' बना दिया"....

"ओह!..काफी इंटरैस्टिंग कहानी है"....

"अरे!...अभी तुमने पूरी कहानी सुनी ही कहाँ है?"...

"इसके बारे में तो मौसी और भी कहानी सुना रहे थी"....

"वो क्या?"...

"यही कि बचपन में कोई इसे आर्य समाज मन्दिर की सीढियों पर रोता-बिलखता छोड़ गया था"...

"ओह!...

"व्यवस्थापकों को दया आ गई और उन्होंने इसे वहीं रख लिया"...

"गुड!...वैरी गुड"...

"लेकिन इसका मन किसी एक जगह ना लगा"...

"कभी इस मन्दिर तो कभी उस मन्दिर में अपना डेरा जमाता रहा"...

"रंग काला होने की वजह से लोगों ने 'कलुआ' कह पुकारना शुरू किया"...

"कलुआ!....वाह क्या नाम है"....

"लेकिन इसका नाम तो 'देवी प्रसाद' है ना?"...

"पता नहीं लोगों ने  कितने नाम बदले इसके?"...

"कोई इसे 'कल्लू' ..तो कोई इसे 'कल्लन' तो कोई इसे 'कालिया' कह के पुकारता था"

"लेकिन ये 'देवीप्रसाद' नाम इसे कैसे मिला?"...

"सुना है!...मन्दिर वगैरा जागरण के वक्त इसके अन्दर 'देवी' प्रगट हुआ करती थी और ये ऐसा तांडव करता था कि पूछो मत"..

"ओह!...इसी लिए लोग इसे 'देवी प्रसाद' कहने लग गए होंगे"...

"नहीं!...पुकारते तो सब इसे 'देवी'...'देवी' ही करके थे"...

"फिर ये 'प्रसाद' नाम का टाईटल इसके साथ कैसे जुड़ गया?"....

"एक दो बार मन्दिरों में ये दूसरे भिखारियों का प्रसाद चुराते हुए पकड़ा गया तो सब इसे 'देवी प्रसाद' कहने लग गए"...
"वाकयी काफी रोचक कहानी है"....

"लेकिन तुम्हारा तो ये लंगोटिया यार है ना?"...

"हाँ!...है तो?"...

"तुम्हें इसने कभी अपनी कहानी नहीं बताई?"...

"अरे!...कुछ बातें ऐसी होती हैँ जिनका पर्दे में रहना ही अच्छा होता है"...

"हाँ!...ये तो है"...

"खैर छोड़ो...हमें क्या?"...

"तुम बताओ!...कब खराब हुई?"...

"क्या?"...

"ट्यूब...और क्या?"...

"अरे नहीं!...खराब कहाँ?"....

"अपनी तो सभी ट्यूबें एकदम भली-चंगी चकाचक है".

"तो फिर ऐसे ही बेकार में मोल-भाव पूछ के मेरे दिमाग का दही क्यों कर रही थी?"...

"ऐसे ही"...

"ऐसे ही?...मतलब?"...

"कोई तो वजह होगी"...

"अरे यार!...नॉलेज के लिए पूछ रही थी"...

"तुम कभी घर पे ना हुए तो"...

"पता तो होना चाहिए कम से कम"..

"कभी ऐसा हुआ है कि मैँ तुम्हारे बिना घर से कहीं बाहर गया हूँ?"...

"अच्छा छोड़ो!...और ये बताओ कि ये 'चोक' वगैरा कितने की आती होगी?"...

"हुण्ण 'चोक' नूँ केहड़ी गोली वज्ज गई?"...

"होना क्या है?...कुछ भी तो नहीं"...

"तो फिर?"....

"व्वो...दरअसल...

"क्या हुआ?"...

"तुम्हारी ज़बान लड़खड़ा के 'चोक' क्यूँ होने लगी?"....

"अरे नहीं बाबा!...मैँ तो बस ऐसे ही...

"नॉलेज के लिए ही पूछ रही थी ना तुम?"...

"हाँ"...

"सच-सच बताओ कि चक्कर क्या है?'...

"आज तुम कभी 'ट्यूब' पे ..तो कभी 'चोक' पे क्यूँ फिदा हुए जा रही हो?"..

"वो दरअसल क्या है कि..आज के अखबार में इश्तेहार आया है कि..."घर बैठे 'चोक-ट्यूब' उद्योग लगाओ और मनचाहे पैसे कमाओ"...

"तो तुम भी लाखों कमाने की सोचने लगी?"...

"मैँ क्या?..अपने मोहल्ले की 'पिंकी'.....'प्रीति' और 'प्रिया' समेत 'सुनीता' भी यही सोच रही है"....

"व्हाट ए जोक?"...

"तो इसमें बुरा ही क्या है?"...

"तुम?...और फैक्ट्री?"...

"ही....ही....ही....

"तुम औरतें लगाओगी ये 'ट्यूब-श्यूब' का कारखाना?"...

"क्यों?...हैरत क्यों हो रही है तुम्हें?"...

"हम क्यों नहीं लगा सकती?"...

"अरे मेरी जान!...ये कोई 'भिण्डी'....'तोरई' या 'करेले'  की तरकारी नहीं है कि बस काट-कूट के तड़का लगाया और हो गया काम-तमाम"....

"तो?"....

"जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है इसके लिए"...

"तो मेहनत करने से डरता ही कौन है?"...

"समझा कर!....कई तरह के चाहे-अनचाहे पंगों के दौर से गुज़रना पड़ता है"..

"मैँ सब मैनेज कर लूंगी"....

"ना...तुम्हारे बस का नहीं होगा ये सब"...

"एक्चुअली!..उनका तो मुझे कोई खास पता नहीं लेकिन तुम इस तरह के कामों के लिए बनी ही नहीं हो"..

"प्लीज़ यार!....

"अब इसमें 'प्लीज़ यार' क्या करेगा?"...

"कह तो दिया ना एक बार कि तुम एक औरत हो और औरत होने के नाते तुम किसी भी कीमत पर ये काम नहीं कर सकती"...

"तो क्या किसी 'कठमुल्ला' ने फतवा जारी किया हुआ है इस सब के खिलाफ?"...

"अरे नहीं बाबा!.... ना ही किसी मन्दिर के 'पंडे' ने और ना ही किसी मस्जिद के 'मौलवी' ने फिलहाल औरतों के काम करने पे ऐतराज़ किया है"...

"तो फिर किसी प्रकार की कोई रोक...बैन या पाबंदी लगाई हुई है अपनी सरकार ने कि औरते इस तरह के काम नहीं कर सकती?"...

"नहीं!...ऐसी तो कोई बात नहीं है"..

"'सोनिया जी' तो वैसे भी औरतो की हिमायती है"...

"उनकी सरकार ने क्या रोकना है?"...

"उल्टा सरकार तो आगामी बजट में औरतों को 'एक्साईज़' और 'सेल्स टैक्स' वगैरा से भी छूट देने की भी योजना बना रही है"....

"वाऊ!...दैट्स नाईस"....

"लेकिन...

"लेकिन क्या?"...

"कभी किसी औरत को ऐसे 'ट्यूब'...'अगरबत्ती' या 'चोक' जैसे काम करते नहीं देखा है ना"...

"इसलिए थोड़ा ऑकवर्ड सा फील हो रहा है"...

"हाँ-हाँ!...तुम मर्दों को तो हम औरतो का आगे बढ कामयाबी हासिल करना अजीब ही लगेगा"...

"नहीं यार!...तुम तो जानती ही हो कि मैँ औरतों का कितना बड़ा हितैशी हूँ"...

"छोटी...नन्ही बच्चियों से लेकर....कमसिन बालाओं तक और.... 'अधेड़' उम्र की महिलायों से लेकर उम्रदराज़  स्त्रियों तक ..मैँने कभी किसी को छोटा या ओछा नहीं समझा"...

"ऐक्चुअली!...जवानी के दिनों में सभी की मेरे साथ दोस्ती रह चुकी है"...

"ओह!..दैट्स नाईस....बहुत बढिया"...

"लेकिन फिर तुम मुझे काम करने से रोकना क्यों चाहते हो?"...

"अरे यार!...फैक्ट्री वगैरा चलाने में सौ लफड़े होते हैँ...कभी पार्टियों से निबटो तो कभी स्टाफ से...कभी बिजली की चोरी करो तो कभी एक्साईज़ वालों की जेब गर्म करो"....

"और ऊपर से ये लेबर वाले इतने मुँहफट होते हैँ कि पूछो मत"...

"अरे!..तुम नहीं जानते...शादी से पहले मैँ अपने इलाके की सबसे बड़ी मुँहफट रह चुकी हूँ"...

"ओह!...रियली?"...

"और नहीं तो क्या"....

"दैट्स नाईस"....

"तीन बार तो मैँ कालेज में सैकेंड रनर अप भी रह चुकी हूँ"....

"मुँहफट होने में?"...

"नहीं!...बैस्ट वक्ता होने में"...

"गुड!...वैरी गुड"...

"लेकिन....

"अरे!...मेरी तरफ से तुम बेफिक्र और बेचिंत हो जाओ...जब कभी भी लेबर वालों ने मेरे साथ गलत तरीके से पेश आना है...मैँने उन्हें ऐसे-ऐसे सीधे और पुट्ठे ...सभी तरह के श्लोक सुनाने हैँ कि उनसे ना कुछ कहते बनेगा...और ना ही कुछ करते बनेगा"..

"लेकिन पहले कभी किसी औरत को ऐसे दो टके के लोगों के साथ  मगजमारी करते नहीं देखा है ना"...

"पहले तो कभी किसी ने औरत को अंतरिक्ष में जाते भी नहीं देखा था"...

"आज औरत रिक्षा चलाने जैसे छोटे-मोटे काम से लेकर शिक्षा देने जैसे दिमाग वाले काम में और भिक्षा मांगने जैसे घटिया काम में सबसे अव्वल है"....

"अरे वाह!...'रिक्षा,शिक्षा और भिक्षा की तुमने क्या तुक मिलाई है"...

"तुम्हें तो सिम्पल हाउस वाईफ नहीं बल्कि एक कामयाब लेखिका होना चाहिए"...

"रहने दो...रहने दो...ये मस्काबाज़ी बन्द करो और सीधे-सीधे ये बताओ कि तुम मुझे अपना पर्सनल काम करने दोगे या नहीं?"...

"अरे यार!...समझा करो"...

"क्या समझूँ मैँ? कि जहाँ आज एक तरफ आम भारतीय नारी 'बस-ट्राम' से लेकर 'लोकोमोटिव' तक सब चला रही है  और दूसरी तरफ मैँ हूँ कि घर में वेल्ली बैठ-बैठ अपना वजूद ही खोती जा रही हूँ"...

"अरे यार!...क्यों बात का बतंगड़ बनाने पे तुली हो?"..

"आज की नारी कहाँ से कहाँ पहुँच गई है और तुम चाहते हो कि मैँ कुँए की मेंढकी बन...जिसमें हूँ...उसी में संतोष कर लूँ?"....

"सच!...आज की नारी कहाँ से कहाँ पहुँच गई है"...

"साड़ी...सूटृ और दुपट्टा छोड़....जींस...कैपरी के रस्ते मिनी स्कर्ट तक जा पहुँची है"...

"तो अब तुम्हें हमारे पहनावे से भी दिक्कत होने लगी?"...

"अरे!...ये सब तो हम अपने लिए थोड़े ही पहनती हैँ...ये तो तुम मर्दों को लुभाने के लिए"...

"वोही तो....इतनी देर से मैँ यही तो समझाना चाह रहा हूँ मेरी जान ..कि कोई ऐसा काम करो जिसमें मर्दों को लुभा उनसे अच्छा खासा पैसा ऐंठा जा सके"

"सलाह तो तुम्हारी मुझे नेक लग रही है लेकिन.....

"एक अकेली अबला नारी...कैसे करे इतनी  मगजमारी?"...

"अरे!...मैँ हूँ ना"....

"मेरे होते हुए अकेली कहाँ हो तुम?"..

"सच?"...

"मुच"...

"मैँने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरे ऊँचा...और ऊँचा उठने के ख्वाबों को पूरा करने में तुम मेरा साथ दोगे"...

"अरे!..तुम बस हिम्मत तो करो...फिर देखती जाओ...मैँ क्या कमाल दिखाता हूँ"...

"देख लो!...बीच मंझधार में मेरा साथ ना छोड़ देना"...

"अरे!...मैँ कोई गैर नहीं बल्कि तुम्हारा पति हूँ"...

"इस नाते मैँ तुम्हारा साथ नहीं दूंगा तो क्या उस कलमुँही 'शिप्रा' का दूंगा?"....

"हा...हा...हा"....

"नाम मत लो उस चुड़ैल का"....

"और तुम तो वैसे भी कमाने की बात कर रही हो...

"हाँ!...अगर गवाने की बात होती तो मैँ सोचता भी"...

"एक बात बताऊँ?"...

"क्या?"...

"अपनी शादी के वक्त...फेरे शुरू होने से पहले ही मैँने सदा तुम्हारा साथ देने का वचन ले लिया था"...

"ओह रियली?"....

"तुम कितने अच्छे हो"...

"लेकिन एक बात मेरे पल्ले अभी तक नहीं पड़ रही"....

"क्या?"....

"यही कि तुम जैसी माड्रन और बिन्दास लड़की को उन गँवारनों के साथ मिलकर ये ट्यूब या चोक जैसा घटिया काम करने की क्या सूझी?"..

"अरे!..ये सब तो मैँ तुम्हारा मन टटोलने के लिए कह रही थी और यही काम वो सब भी अपने-अपने पतियों के साथ कर रही हैँ"...

"क्या?"....

"दरअसल हमारे दिमाग की फैक्ट्री में नोट कमाने के ऐसे-ऐसे धांसू आईडिए घूम रहे हैँ कि बस पूछो मत"...

"कमाई इतनी होनी है कि गिनने की फुरसत नहीं मिलनी है"...

"अरे वाह!...फिर तो मज़े आ जाएँगे"..

"और नहीं तो क्या"....

"तो फिर क्या सोचा है तुमने?"....

"किस बारे में?"....

"यही कि कौन सा काम करना है?"...

"फिलहाल नहीं बता सकती".....

"क्यों?"...

"इट्स ए टॉप सीक्रेट"...

"लेकिन...

"समझा करो यार!...सहेलियाँ बुरा मान जाएँगी"....

"कसम है तुम्हें ओस में डूबी छतरी के नीचे बैठे कनखजूरे के तिरछे कान की जो तुमने मुझे सब कुछ सच-सच ना बताया"...

"इटस नॉट फेयर राजीव"...

"मैँ तुम्हारी अर्धांगिनी हूँ और अपनी बीवी को भला कोई इस तरह इमोशनली ब्लैक मेल करता है?"...

"तो इसका मतलब तुम नहीं बताओगी?"...

"ओ.के!...ओ.के बाबा...बताती हूँ लेकिन पहले तुम ये वादा करो कि तुम इस राज़ को राज़ ही रखोगे और किसी से कुछ नहीं कहोगे"...

"ओ.के"...

"कसम है तुम्हें भी झमाझम बारिश में पनघट पे भीगती पनिहारिन के उड़ते आँचल की जो तुमने इस बाबत किसी से एक शब्द भी कहा"...

"हाँ!...नहीं कहूँगा"...

"ऐसे नहीं!...कसम खाओ"...

"ओ.के....मैँ कसम खाता हूँ 'आन'...'बान' और 'शान' से जलते मुर्दों से भरे शमशान की कि ये राज़...ताज़िन्दगी राज़ ही रहेगा और मेरी मौत के बाद मेरी लाश के साथ ही स्वाहा हो जाएगा"...

"ओ.के"...

"तो फिर क्या सोचा है तुमने?"...

"अरे!...सोचने-वोचने का टाईम तो कब का निकल गया गया"...

"हम तो अपना जॉय़ंट वैंचर शुरू भी कर चुकी हैँ"....

"मतलब?"...

"मतलब यही कि अपना धन्धा तो मस्त चाल से दौड़ना भी शुरू हो चुका है"...

"कौन सा धन्धा?"...

"हम सहेलियों ने मिलकर फ्रैण्डशिप क्लब FriendshipClub खोला है"....

"ओह!....गुड...वैरी गुड"....

"तुमने तो मेरे मुँह की बात छीन ली"...

"वैसे...किस नाम से खोला है तुमने अपना ये क्लब?"...

"मस्ती फ्रैण्डशिप क्लब" के नाम से

"और टैग लाईन क्या रखी है?"....

"हमने 'टैग लाईन' रखी है...'मस्ती वही जो मिले सस्ती"...

"धत...तेरे की"...

"सस्ती?"....

"हुँह!...फिर क्या फायदा?"...

"अरे!...सिर्फ टैग लाईन है ये...लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए"...

"असल में तो हमने खाल उतार लेनी है अपने मैम्बरों की"...

"ओह!...मगर कैसे?"...

"पहले तो जिस किसी भी बकरे का फोन आता है...उससे से हम ऐसी-ऐसी नशीली बातें करती हैँ कि वो तुरंत हमारे क्लब का मैम्बर बनने को उतावला हो उठता है"...

"गुड!...वैरी गुड"...

"उसके बाद?"...

"उसके बाद हम उससे मैम्बर बनाने के नाम पर 501/- का शगुन अपने बैंक एकाउंट में डलवाती हैँ और उसके बदले में उसे तीन लड़कियों के फोन नम्बर देने का वायदा करती हैँ जिनसे वो मनचाही बातें कर सके"...

"देखो!..किसी का भी ऐसे-वैसे नम्बर देने से कहीं फँस-फँसा ना जाना"....

"अरे!..पागल समझ रखा है क्या हमें?"...

"हम किसी और का नहीं बल्कि अपने ही नम्बर बारी-बारी से अपने कस्टमर्ज़ को देती हैँ"....

"गुड!...वैरी गुड"...

"लेकिन बैंक खाते से भी तो तुम लोग पकड़ में आ सकते हो"...

"बिलकुल नहीं"...

"बैंक एकाउंट भी हमने बोगस आई.डी से खुलवाया हुआ है और पैसे निकालने के लिए हम बैंक नहीं जाएँगी बल्कि हर बार अलह-अलग ए.टी.एम कार्ड इस्तेमाल करेंगी"..

"एकचुअली!..आज सुनीता गई हुई है वो शास्त्री नगर वाले 'ए.टी.एम' से पैसे निकालने"...

"कुछ भी करो लेकिन अपना ध्यान रखना क्योंकि कानून के हाथ बहुत लम्बे होते हैँ"...

"चिंता क्यों करते हो?"...

"हम अपने खिलाफ कोई सबूत नहीं छोड़ रही हैँ"....

"गुड!...लेकिन लोगों तक तुम्हारे फोन नम्बर कैसे पहुँचते हैँ?"...

"अरे!....तुम तो जानते ही हो कि प्रीति ...'छत्तीसगढ' से ब्याह के यहाँ आई है और प्रिया...'आसनसोल' से और पिंकी....'राजस्थान' से तो सुनीता....'बहालगढ' से

और तुम 'धनबाद' से"...

"हाँ"...

"तो इस से क्या फर्क पड़ता है"...हम अखण्ड भारत के नागरिक हैँ और पूरा भारत हमारा है"....

"कोई भी कहीं से आ के कहीं भी बस सकता है"...

"सिर्फ 'कश्मीर' को छोड़ के"...

"हाँ"...

लेकिन इस से फर्क क्या पड़ता है?"...

"अरे!....इन गर्मी की छुट्टियों में हम सभी अपने-अपने मायके गई थी के नहीं?"...

"तो?"...

"वहाँ से हम सभी ने वहाँ के लोकल अखबारों में मित्रता सबँधी विज्ञापन छपवाए"...

.punjab kesri

"ओह!...लेकिन एक बार विज्ञापन देने से क्या होगा?"....

"ऐसे विज्ञापन तो लगातार छाए रहने चाहिए अखबारों के भीतरी पन्नों पर"...

"चिंता ना करो!....हम पूरे साल की पेमेंट एडवांस में ही दे आए हैँ"...

"अब वहाँ हमारे होने...ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा"...

"नियत तिथियों को अपने आप हमारे विज्ञापन छपते रहेंगे"....

"वाउ!...दैट्स नाईस"....

"अब अपने लगातार फोन घनघनाते रहेंगे...कभी 'सतना' से ...तो कभी 'पटना' से"...बीवी कमर मटकाती हुई बोली

"लेकिन फोन नम्बर से तो पकड़े जाने का डर है"....

"अरे इतनी पागल भी नहीं हैँ हम कि अपनी असली पहचान देकर फोन कनैक्शन लें"...

"तो?"...

"अरे!...वो सुनीता जो है उसने कुछ दिन के लिए एक मोबाईल की दुकान में काम किया था"....

"तो?"....

"बस वहीं से उसने कुछ लोगों की फोटो उड़ाई और उन्हीं के जरिए हमने फोन खरीद लिए"...

"लेकिन सिर्फ फोटो से क्या होता है?"....

"आई डी भी तो चाहिए होती है"....

"वो कौन सा मुश्किल काम है?"...

"उस मास्टर के बच्चे को फोटॉ थमाए और फी 'आई डी' के दो सौ रुपए दिए और हफ्ते भर में ही हमारे पास नकली वोटर कार्ड थे"...

"ग्रेट"...

"लेकिन तुम्हें ध्यान कैसे रहता है कि तुम्हारे क्लब का कौन मैम्बर है और कौन मैम्बर नहीं?"...

"मतलब?"...

"ये भी तो हो सकता है कि कोई एक आदमी मैम्बर बन के तुमसे लड़कियों के नम्बर ले ले और बाद में उन नम्बरों को पूरी दुनिया में बांट दे"...

"अरे!...हम तो पूरी दुनिया को चलाने चली हैँ...कोई दूसरा हमें क्या चलाएगा?"...

"मतलब?"...

"जो भी हमारा मैम्बर बनता है उसके मोबाईल नम्बर को रजिस्टर कर लेती हैँ और साथ ही ग्राहक को साफ-साफ बता दिया जाता है कि अगर वो इसी नम्बर से बात करेगा तभी लड़कियाँ..बात करेंगी वर्ना नहीं"...

"गुड...वैरी गुड"...

"तारीफ करनी पड़ेगी तुम्हारी कि क्या नायाब तरीका निकाला है".....

"करो...करो...जी भर तारीफ करो"....

"मैँ चीज़ ही ऐसी हूँ"...

"लेकिन एक बात समझ नहीं आ रही कि आखिर ये मैम्बर लोग बातें ही क्या करते होंगे?"....

"यकीनन...साफ सुथरी और अच्छी बातें तो नहीं करते होंगे"...

"बिलकुल"....

"अगर साफ-सुथरी और अच्छी बातें ही करनी हैँ तो भला इसके लिए कोई नोट क्यों फूंकेगा?"...

"ये बात भी है"...

"तुम्हारा मन मान जाता है हर किसी से ऐसी बातें करने के लिए?"...

"सच कहूँ तो खुद से ही घिन्न आने लगती है जब किसी पराए मर्द की अश्लील और गंदी बातें इन कानों में पड़ती हैँ लेकिन क्या करूँ धन्धा है ये हमारा और इसमें पैसे ही इतना है कि शर्म-वर्म सबको भूल जाना पड़ता है"...

"बात तो तुम ठीक ही कह रही हो और वैसे भी बड़े-बुज़ुर्ग कह गए हैँ कि जिसने की शर्म...उसके फूटे कर्म"...

"बिलकुल"...

"एक और कंफ्यूज़न दिमाग के भंवर में गोते लगा रहा है...तुम कहो तो बताऊँ?"...

"इसमें शर्माना कैसा?"...जो पूछना है...बेधड़क हो के पूछो"...

"क्या तुम्हारे क्लब के मैम्बरों का मन सिर्फ फोन पे बातें कर के भर जाता होगा?"..

"मतलब?"...

"मतलब कि उनका मन मिलने को नहीं करता होगा?"...

"भय्यी!...अगर उनकी जगह मैँ होता तो दूसरी बार में ही मुलाकात की ज़िद पकड़ लेता"...

"मन क्यों नहीं करता है?....ज़रूर करता है"...

"आखिर वो भी जीते-जागते इनसान हैँ और इस नाते उनका मन तो बहुत कुछ करने को करना चाहिए"..

"वोही तो"....

"तो ऐसी सिचुएशन को आप लोग कैसे हैण्डिल करती हो?"...

"क्या सचमुच.....

"ए मिस्टर!...क्या समझ रखा है तुमने हमें"...

"हम सभी अच्छे और खानदानी घरों से आई हैँ और इस नाते हमारे माँ-बाप ने हमें ऐसे घटिया संस्कार नहीं दिए हैँ "...

"छी!...छी...कितनी घटिया और ओछी बात कह दी तुमने अपनी पत्नी के लिए...छी..."...

"राजीव!...मैँ तो तुम्हें अच्छा-खासा  ब्रॉड माईंडेड इनसान समझती थी"...

"मैँने तुम्हें क्या समझा और तुम क्या निकले?"...

"सॉरी डॉर्लिंग!...मेरी बातों से तुम्हें चोट पहुँची...मगर मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था"...

"मैँ तो बस ऐसे ही नॉलेज के लिए पूछ रहा था"...

"रहने दो...रहने दो...जानती हूँ कि तुम बात बदलने में कितने माहिर हो"...

"प्लीज़ यार!...ऐसी भी क्या नाराज़गी?"...

"मान भी जाओ"...

"ओ.के बाबा!...नहीं बताना है तो मत बताओ"...

"नहीं!...अब जब तुमने पूछ ही लिया है तो ज़रूर बताऊँगी"...

"दर असल जब कोई हम से मिलने की ज़्यादा ही ज़िद करता है तो हम उसे Rs.10,000/- से Rs.12,000/-तक और हमारे खाते में डालने के लिए राज़ी कर लेती हैँ"...

"वैरी क्लैवर"....

"कुछ एक तो और पैसे के नाम से ही बिदक लेते हैँ लेकिन कुछ एक रईसज़ादे ऐसे भी दिलदार होते हैँ कि तुरंत पैसा जमा कर देते हैँ हमारे एकाउंट में"...

"गुड...वैरी गुड"...

"उसके बाद?"...

"उसके बाद क्या?"...

"उसके बाद तो उसका नम्बर हमारे मोबाईलों से डिलीट हो चुका होता है और हम पराए मर्दों के फोन तो कभी भूल कर भी नहीं उठाती हैँ"...

"हा...हा...हा"...

"लेकिन तुम्हारा तो सिर्फ पाँच लड़कियों का ग्रुप है जबकि मर्दों की चॉयस तो बेहिसाब होती है"...

"मतलब?"...

"मतलब किसी का गाँव की 'ग्वालन' से बात करने का मन करता होगा तो किसी का शहर की एकदम 'मॉड कन्या' से"....

"हाँ!...किसी को 'ठेठ पंजाबन' चाहिए होती है तो किसी को 'अल्हड़ बिहारिन'...किसी को 'तेज़तर्रार बंगालन' चाहिए होती है तो किसी को 'मस्तमौली मराठन"...

"कोई 'हिन्दू' लड़की की डिमांड करता होगा तो कोई 'क्रिशचियन' की इच्छा भी जाहिर करता होगा"...

"कोई कोई तो 'मुस्लिम' लड़की की भी माँग करने लगते हैँ"....

"तो इस सब को तुम कैसे मैनेज करती होगी?"...

"अरे!...बहुत आसान है....जिस की जैसी डिमांड आती है...उसी हिसाब से उसके मोबाईल नम्बर को सेव कर लिया जाता है"...

"मैँ समझा नहीं"...

"अरे यार!...सिम्पल सी बात पता नहीं तुम्हारे भेजे में क्यों नहीं घुस रही?"...

"अगर किसी को 'पंजाबन' लड़की से बात करनी होती है तो हम उसका नम्बर 'रज्जो'...'जस्सी' वगैरा के नाम से सेव कर लेती हैँ ..और जिसका दिल 'क्रिशचियन' लड़की पे आया होता है तो हम उसका नम्बर 'जूली' या फिर 'सूज़ी' वगैरा के नाम से सेव कर लेती हैँ"...

"गुड!...वैरी गुड"...

"इससे हमें याद रहता है कि किससे क्या बन के बात करनी है लेकिन इस चक्कर में हम अपने असली नाम भी भूलने लगी हैँ"...

"वो भला क्यों?"...

"अरे!...एक ही दिन में हमें अपने नाम बीसियों बार बदलने पड़ते है...कभी किसी से 'सूज़ी' बन इंगलिश झाड़नी पड़ती है तो...अगले ही मिनट हमें 'विमलादेवी' बन किसी से'अवधी' और भोजपुरी' में बात कर उसे राज़ी कर रही होती हैँ"...

"ओह!...

"कई बार तो बड़ी ही फन्नी सिचुएशन पैदा हो जाती है"...

"वो भला कैसे?"...

"अरे!...जिससे हमें अँग्रेज़ी में बात करनी होती है उसके सामने हम असी-तुसी कर पंजाबी मार रही होती हैँ और जिसके सामने हमें 'हमार...तुम्हार...आवत...जावत' करना होता है...उस निपट गँवार के आगे हम 'Hi Buddy....Looking Gr8' कह अँग्रेज़ी झाड़ रही होती हैँ"...

"ओह!...

"चिंता ना करो...कुछ दिन में ही हम इस सब की हैबिचुअल हो जाएँगी...फिर हमें कोई दिक्कत नहीं होगी"...

"बस!...फिर पैसा ही पैसा बरसना है"...

"गुड!...इसे कहते हैँ जज़्बा"...

"अगर दिमाग तेज़ हो और इरादे नेक व मज़बूत हों तो कोई मंज़िल दूर नहीं रहती"...

"जी!...बिलकुल"...

"दाद देनी पड़ेगी तुम्हारी और तुम्हारी सहेलियों की जिन्होंने इतनी शानदार और जानदार स्कीम सोची पैसा बनाने की"...

"टट्टू!...सारा दिमाग मैँने लगाया और तुम मेरे साथ उनकी भी तारीफ कर रहे हो"...

"वो सब तो मेरी उँगलियों पे नाचने वाली महज़ कठपुतलियाँ हैँ"...

"जिस तरफ उँगली झुकाई मैँने...उस तरफ ही झुक जाना है उन्होंने"...

"ओह!...अगर ये सब सच है तो तुमने उस सुनीता की बच्ची को पैसे निकलवाने के लिए क्यों भेज दिया?"...

"क्यों?...इससे क्या फर्क पड़ता है?"...

"अरे वाह!...फर्क क्यों नहीं पड़ता?"...

"कल को वो बहाँ से निकलवाए बीस हज़ार और तुम्हें बता दे बारह हज़ार...तो तुम उसका क्या उखाड़ लोगी"...

"ओह!...ये बात तो मैँने सोची ही नहीं"...

"इसीलिए मैँ कहता हूँ कि अपनी मर्ज़ी से कोई काम ना किया करो"...

"अगर कुछ करना भी है तो घर में एक मर्द खाली निठल्ला बैठा है...उसकी कम से कम सलाह ही ले लो"...

"अरे!...इस काम में मर्द नहीं बल्कि लड़किया चाहिए होती हैँ"...

"तो?"...

"तो कहाँ से पैदा करती मैँ लड़कियाँ?"....

"अपनी मुन्नी तो वैसे भी अभी नासमझ है"...

"अरे!...बहुत बेरोज़गारी है अपने देश में"....

"छत्तीस धक्के खाती फिरती हैँ इधर-उधर नौकरी की तलाश में"...

"उन्ही में से बढिया सी आठ-दस को छाँट के रख लेते नौकरी पे"...

"ताकि तुम्हारे मज़े हो जाते?"...

"सब समझती हूँ मैँ...हर समय तुम्हारी नज़र पराई स्त्रियों पर ही रहती है"...

"अरी भाग्वान...कसम है मुझे मरियल बिल्ली के डर से पलंग के नीचे छुपे हुए दढियल हैवान की जो मैँने तुम्हारे अलावा किसी और को ताका भी तो"...

"ओ.के!...फिर ठीक है"...

"लेकिन तुम भी कसम खाओ खंबा नोचती खिसियानी बिल्ली के टूटे नाखूनों की जो तुम मेरे अलावा किसी भी पराए मर्द की तरफ आकर्षित भी हुई तो"...

"ओ.के...ओ.के मेरी जान"...

"अरे!...उठो.....सुबह-सुबह ये नींद में बड़बड़ाते हुए कैसी-कैसी अजीब सी कसमें खा रहे हो और मुझे खिलवा रहे हो?"...

"ओह!...

"ओह!...मॉय गॉड...ये सब तो सपना था"...

"क्यों?...क्या हुआ सपने में?"...

"क्कुछ नहीं"...

"सुनो!...बाहर चल के बॉलकनी में बैठो...मैँ चाय लेकर आती हूँ"...

"हम्म....

"सुनो"...

"क्या?"...

"एक बहुत बढिया आईडिया आया नोट बनाने का"...

"बनाने का?"...

"हाँ!...पागल होते हैँ वो लोग जो नोट कमाते हैँ....हमारे पास तो नोट अपने आप चल कर आएँगे"...

"अरे वाह!...फिर तो मज़ा आ जाएगा"...

"बिलकुल"...

"आप बाहर चल के बैठो तो सही...वहीं चाय की चुस्कियों के बीच आराम से बात करते हैँ"...

"ठीक है"...

"और हाँ!...फ्रंट पेज की खबर को विस्तार से पढना"....

"क्यों?...क्या लिखा है उसमें?"...

"कलयुग आ गया है अब तो...घोर कलयुग"...

"आखिर हुआ क्या?"...

"होना क्या है?"...यहीं आज़ाद पुर के लूसा टॉवर में एक दफ्तर पकड़ा गया है...जहाँ से दो लड़के और पाँच लड़कियाँ अरैस्ट हुई हैँ"...

"ज़रूर चकला चला रहे होंगे"...

"नहीं"...

"तो फिर?"...

"फ्रैण्डशिप क्लब soultrainsa190108ur4 चला रहे थे"...

"ओह!...

"पुलिस को शिकायत मिली और सब के सब धरे गए"...

"अच्छा हुआ...स्साले के मकान...दुकान...बैंक एकाउंट सब के सब सीज़ हो गए"...

"अब चक्की पीसता फिरेगा कई साल"...

"पता नहीं उसके पीछे से उसके बीवी-बच्चों का क्या होगा?"...

"सबको रातोंरात करोड़पति बनने की पड़ी है"....

"पता नहीं!...लोग मेहनत कर हलाल की खाने को राज़ी क्यों नहीं हैँ"...

"हाँ!...तो तुम किस स्कीम के बारे में बता रहे थे?"...

"अरे!...व्वो...वो तो कुछ नहीं...मैँ तो बस ऐसे ही मज़ाक कर रहा था"...

"खाओ मेरी कसम"...

"कसम है मुझे ओस में डूबी छतरी के नीचे बैठे कनखजूरे के तिरछे कान की"...

"नहीं जनाब!..तिरछे वाला कान तो ऑलरैडी मेरे लिए बुक है"....

"हाँ!....आप चाहें तो बेशक सीधे वाले कान की कसम खा सकते हैँ"...

"मुझे कोई ऐतराज़ नहीं"...

"हा...हा...हा"

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

rajivtaneja2004@gmail.com

http://hansteraho.blogspot.com

+919810821361

+919213766753

"निबटने की तुझसे कितनी हम में खाज है"

***राजीव तनेजा***



माना कि...
अपनों के बीच... अपने शहर में
चलती तेरी बड़ी ही धाक है
सही में...
विरोधियों के राज में भी तू. ..
गुंडो का सबसे बडा सरताज है ...
हाँ सच!...
तू तो अपने ठाकरे का ही 'राज' है...
सुना है!...
समूची मुम्बई पे चलता तेरा ही राज है
अरे!...
अपनी गली में तो कुता भी शेर होता है...
आ के देख मैदान ए जंग में...
देखें कौन. ..कहाँ... कैसे ढेर होता है
सुन!...
सही है...सलामत है...चूँकि मुम्बई में है...
आ यहाँ दिल्ली में...
बताएँ तुझे ...
निबटने की तुझसे कितनी हम में खाज है
हाँ! ...
निबटने की तुझसे कितनी हम में खाज है


***राजीव तनेजा***

rajivtaneja2004@gmail.com

http://hansteraho.blogspot.com

 

+919810821361

+919213766753

मेरा 'चौथा खड्डा' नवभारत टाईम्स पर

Printed from


Navbharat Times - Breaking news, views. reviews, cricket from across India

 

चौथा खड्डा
19 Nov 2007, 1446 hrs IST

बंता: संता सिंह जी... ये खड्डा किसलिए खोदा जा रहा है?"

संता: ओ...कुछ नहीं जी मुझे अमेरिका जाना है ना...इसलिए"

बंता: अमेरिका जाना है?"

संता: हां जी!.."

बंता: अमेरिका जाने के लिए खड्डा खोदना जरूरी है?

संता: ओ...कर दी ना तूने अनाड़ियों वाली गल्ल

बेवकूफ पासपोर्ट बनवाने के लिए फोटो चाहिए होती है कि नहीं?

बंता: फोटो तो चाहिए होती है लेकिन...फोटो से खड्डे का क्या कनेक्शन है?

संता: अरे बेवकूफ...पासपोर्ट फोटो में कमर के ऊपर का हिस्सा आना चाहिए...

इसलिए कमर तक गहरे खड्डे खोद रहा हूं, ताकि नीचे का हिस्सा कैमरे में न आए

बंता: लेकिन यहां तो आप ऑलरेडी 3 खड्डे पहले ही खोद चुके हो...फिर यह चौथा क्यों?

संता: बेवकूफ पासपोर्ट में 4 फोटो लगानी पडती हैं।


राजीव तनेजा

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"ये इंडिया है मेरी जान"

"ये इंडिया है मेरी जान"

***राजीव तनेजा***

"और सुनाएँ शर्मा जी कैसे मिज़ाज़ हैँ आपके?"...

"बढिया!...धान की नवीं-नकोर फसल के माफिक एकदम फस्स क्लास"...

"गुड...वैरी गुड".....

"लेकिन आपके चेहरे के हाव-भाव....आवाज़ की 'टोन'...'पिच'...'रिदम और 'लय'  तो कुछ और ही धुन गुनगुना रही है"...

"क्या?"...

"यही कि आपके बैण्ड बजे हुए चौखटे से आपकी पर्सनल लाईफ कुछ डिस्टर्ब्ड सी दिखती प्रतीत हो रही है"...

"नहीं!..ऐसी तो कोई बात नहीं है"...

"अपनी लाईफ तो एकदम से चकाचक और टनाटन चल रही है"...

"अच्छा?"....

"शायद!..मेरे ही दिल का वहम हो फिर ये"....

"अरे यार!...एक आज्ञाकारी...सुन्दर...सुशील एवं सुघड़ अर्धांगिनी के साथ बोनस स्वरूप चार गठीली...सुरीली और नखरीली सालियाँ मिल जाएँ...(वो भी बड़ी नहीं...छोटी)...तो और क्या चाहिए मेरे जैसे निहायत ही ठरकी और बेशर्म इनसान को?"...

"ही...ही....ही..."...

"जी!...ये तो है"...

"एक आम आदमी को भरपेट थाली के साथ-साथ कुँवारी साली मिल जाए तो कहना ही क्या"...

"अजी!...आप आम कहाँ?..इतनी सालियों के होते हुए तो आप अपने आप ही खासम-खास हो गए ना बिलकुल 'अभिनव बिन्द्रा' की तरह?"...

"अच्छा?...तो क्या उसकी भी चार सालियाँ हैँ?"....

"अजी कहाँ?...मेरे ख्याल से तो वो अभी तक 'अनमैरिड' है और अपने 'कुँवारेपन' को खूब तसल्ली से एंजॉय कर रहा है"...

"ऊपरवाला उसकी वर्जिनिटी को नेक व सलामत रखे"...

"अजी!...आज के युग में भी भला कोई इस उम्र तक वर्जिन होगा?"...

"अगर ऐसी बात है तो खुदा उसके  कुँवारेपन को खूब बरकत दे"...

"ये क्या?..आपका खिला हुआ चेहरा अचानक मुर्झा कैसे गया?"..

"कहाँ?...कहीं भी तो नहीं"...

"दाई से भला कहीं पेट छुपाया जाता है शर्मा जी"...

"तनेजा साहब...कसम से...कुछ भी तो नहीं हुआ है"...

"लेकिन आपकी ये बुझी-बुझी सी...दबी-दबी सी आवाज़ तो कुछ और ही कहानी कह रही है"...

"अब क्या बताऊँ तनेजा जी?"...

"मैँ तो अपने इस ब्लॉग की वजह से दुखी हो परेशान हो गया हूँ"...

"क्यों?...क्या हुआ है आपके ब्लॉग को?"....

"ब्लॉग को क्या होना है?"...

"जो होना है ...सो तो मुझे ही होना है"...

"कभी बैठे-बिठाए 'बी.पी' हाई हो जाता है तो कभी 'कोलैस्ट्राल' लो"...

"अरे भई!...साफ-साफ बताओ ना कि...बात क्या है?"....

"यहाँ मैँ दिन-रात कीबोर्ड पे उँगलियाँ चटखाते-चटखाते अधमरा हो मर लेता हूँ और लोग हैँ कि मेरे ब्लॉग की तरफ आना तो दूर की बात उसकी तरह रुख कर के मूतना भी पसन्द नहीं करते"...

"ओह"...

"खैर!..मेरी छोड़ें और अपनी सुनाएँ"...

"कैसा चल रहा है आपका वो 'हँसने-हँसाने' वाला ब्लाग?"...

"कुछ कमाई-धमाई भी हो रही है उससे या नहीं?"...

"बस!...कुछ खास नहीं लेकिन...फिर भी तसल्ली है"...

"किस बात की?"...

"यही कि नया खिलाड़ी होने के नाते ज़्यादा उम्मीदें नहीं पाली हैँ मैँने"...

"तो?"...

"इसलिए कम पा कर भी मैँ बहुत खुश हूँ"..

"वर्ना!...बेकार में...बेफाल्तू में आपकी तरह दुखी हो परेशान हुए रहता"....

"हा....हा...हा..."...

"एक बात बताएँगे तनेजा जी आप?"...

"जी ज़रूर"...

"कब तक आप अपनी कमियों को इस 'नया खिलाड़ी' होने के तमगे के नीचे ढांपते रहेंगे?"...

"क्या मतलब?"...

"नया ही तो हूँ"....

"अभी कुल जमा डेढ साल ही तो हुआ है मुझे लिखते हुए"...

"जी नहीं!...मैँने खुद आपकी आत्मकथा को सौ बार पढा है"...

"पूरे दो साल या इस से भी कुछ ज़्यादा का समय हो चुका है आपको अपने ब्लॉग पे लिखते-लिखते"...

"हाँ!...याद आया"...

"वो 'पूनम' की सर्द चाँदनी रात थी जब 'अमृतसर' के 'जलियाँवाला बाग' में टहलते-टहलते आपने दिव्य ज्ञान को प्राप्त किया था"....

"वहीं ही तो अचानक 'लेखकीय शुक्राणुयों' ने आपके दिमाग के भीतर अपना डेरा जमाया था ना?"..

"आपको गलतफहमी हुई है जनाब!....वो 'पूनम' की नहीं बल्कि 'अमावस' की रात थी और वो 'अमृतसर' का 'जलियाँवाला बाग' नहीं बल्कि दिल्ली के  'शालीमार बाग' इलाके का 'मोटेवाला' बाग था"...

"एक ही बात है...रात तो थी ही ना?"...

"जी!...लेकिन वो तो 'चाँदनी' नहीं बल्कि....

"ओ.के बाबा!...अमावस की रात भी थी और घनघोर अन्धेरा भी था"...

"अब खुश?"...

"जी"...

"तभी से आप में एक लेखक बनने की धुन सवार हो गई थी"....

"सिर्फ लेखक नहीं!...बल्कि एक सफल और कामयाब लेखक"...

"जी!...और बस तभी से आप हर समय अपने साथ कॉपी-पैंसिल रखने लगे थे"...

"क्यों संध्या के समय सुबह-सुबह झूठ बोलते हो यार?"...

"संध्या का समय...और वो भी सुबह-सुबह?"...

"बात कुछ हज़म नहीं हुई"...

"अरे!...मेरा मतलब था कि...क्यों संध्या के समय सफेद झूठ बोलते हो?"...

"ओह!..तो फिर ऐसे कहें ना"...

"मेरा खुदा...मेरा गवाह है कि मैँने आजतक कभी लिखने-लिखाने के लिए पैंसिल का इस्तेमाल नहीं किया"...

"सच में?"...

"जी!...सोलह ऑने"...

"ओह!...सॉरी....दैन इट्स माय मिस्टेक"...

"हाँ!....याद आया"...

"आप वो 'रेनॉल्ड' का काले वाला 'बॉलपैन' और 'बिट्टू' की स्माल साईज़ की कॉपी हमेशा अपने साथ रखने लगे थे"...

"फिर झूठ!...एकदम झूठ"...

"कुछ तो ऊपरवाले के कहर से डरो यार"...

"पहली बात तो ये कि वो 'रेनॉल्ड' का नहीं बल्कि 'पार्कर' का पैन होता था और कॉपी भी 'बिट्टू' की नहीं बल्कि 'नीलगगन' की होती थी"...

"वो भी 'स्माल' नहीं बल्कि एक्स्ट्रा लार्ज साईज़ की होती थी"...

"हाथ कँगन को आरसी क्या और पढे-लिखे को फारसी क्या?"...

"आप खुद ही देख लें कि कौन सी कम्पनी का पैन है और कौन सी कम्पनी की कॉपी?"...

"छोड़ो ना तनेजा जी...क्या रखा है इन बातों में?"...

"अच्छा चलो!..अपने दिल पे हाथ रख के एक बात सही-सही बताओ कि वो 'बॉलपैन' था या फिर 'फाउनटेन पैन?"...

"क्या फर्क पड़ता है?"...

"पैन चाहे 'गेंद' वाला हो या फिर 'फव्वारे' वाला....एक ही बात तो है"...

"लिखना उसने भी है और लिखना इसने भी है"...

"कमाल करते हैँ आप भी"....

"एक ही बात कैसे है?"..

"बॉलपैन..'बॉलपैन' होता है और 'फाउनटेन पैन' ...'फाउनटेन पैन' होता है"...

"कैसे?"...

"एक में पेट खोल के उसमें स्याही भरी जाती है तो दूसरे का पॉयजामा उतार...नलिका सैट की जाती है"...

"तो?"...

"अब इसमें तो का क्या मतलब?"...

"पढे-लिखे समझदार और जाहिल इनसान हो तुम"...

"इस तरह की अनपढों वाली बातें करना तुम्हें शोभा नहीं देता"...

"जी"...

"तो फिर ध्यान रहेगा ना?"...

"क्या?"...

"यही कि 'बॉलपैन' और 'फव्वारे वाले' पैन में क्या फर्क होता है?"....

"जी"...

"गुड...वैरी गुड"...

"आगे बको"...

"बस जब से ये आपने 'बॉलपैन'...ऊप्स सॉरी!...'फाउनटेन पैन' का दामन थामा...तभी से बिना रुके लगातार लिखते चले जा रहे हैँ"....
"जी!...

"वैसे कितने कितने विज़िटर आ जाते हैँ आपके ब्लॉग पे डेली के हिसाब से?"

"दिल्ली से तो ऐसा कुछ भी फिक्स नहीं है लेकिन हाँ!...'अरुणाचल प्रदेश'..  'नागालैण्ड'....'चिंचपोकली'... 'बाराबंकी' और 'झुमरी तलैय्या' से तो रोज़ाना कुछ ना कुछ आ ही जाते हैँ"...

"फिर भी कितने?"...

"नो आईडिया"....

"कुछ रफ सा अन्दाज़ा तो होगा?"...

"यही कोई बीस से पच्चीस"....

"बस?".....

"इन्हीं बीस से पच्चीस पाठकों की फौज के दम पे आप उछलते फिरते थे कि मैँ लेखन के क्षेत्र में क्रांति ला दूँगा..इंकलाब ला दूँगा"...

"गिनती से क्या फर्क पड़ता है?"...

"कंटैंट में दम होना चाहिए"...

"अरे वाह!... फर्क क्यों नहीं पड़ता?"...

"बिलकुल फर्क पड़ता है...बराबर फर्क पड़ता है"...

"ये गिनती का ही तो कमाल है जो वो 'भड़ास' उगलता 'भड़ासिया' आजकल 'इंडियागेट' और 'कनॉट-प्लेस' सरीखे  खुले इलाकों में चौड़ा हो के बेधड़क घूमता-फिरता है"

"अरे!...बंदा अगर खुले में चौड़ा हो के नहीं घूमेगा तो क्या 'चांदनी चौक' और 'सदर बाज़ार' की तंग और सौड़ी  गलियों में चौड़ा हो के घूमेगा?"...

"जी!...बात तो आप सोलह ऑने सही कह रहे हैँ"...

"खैर!...हमें क्या?...कोई जहाँ मर्ज़ी सिर सड़ाए"....

"हम तो पहले भी लिख रहे थे..अब भी लिख रहे हैँ और आगे भी लिखते रहेंगे"...

"क्या खाक लिखते रहे हैँ?"...

"आपको पूरे महीने में तीन या चार से ज़्यादा पोस्ट डालते तो कभी देखा नहीं"...

"अरे यार!..मैँ लिखने से ज़्यादा पढने में विश्वास करता हूँ"...

"नाचना ना आए तो आँगन तो अपने आप टेढा हो ही जाया करता है"..

"क्या मतलब?"...

"आप कहना चाहते हैँ कि मुझे लिखना नहीं आता?"...

"अभी तुम कहो तो आँखे बन्द कर के बिना कहीं रुके या अटके पूरी 'ए बी सी' लिख के दिखा दूँ"...

"अरे तनेजा जी!...'ए बी सी' लिखने में कौन सी बड़ी बात है?"...

"इसे तो कोई बच्चा भी बड़ी आसानी से लिख देगा"...

"अगर 'क ख ग' लिख के दिखलाएँ तो कुछ बात भी बने"...

"क ख ग ?"...

"जी...'क ख ग' "...

"इसमें कौन सी बड़ी बात है?"...

"ये लो!...लिख दिया 'क'.... 'ख' और 'ग' ".....

"अरे!  मैँ सिर्फ तीन अक्षरों की बात नहीं बल्कि पूरी वर्णमाला की बात कर रहा हूँ"...

"अरे यार!...तो फिर ऐसे बोलो ना"...

"अभी फिलहाल तो मुझे पूरी तरह याद नहीं है लेकिन हाँ!...कोशिश करने पर दो-चार मिस्टेक के साथ थोड़ा आगे-पीछे कर के लिख ही लूँगा"...

"यही तो दुर्भाग्य है 'तनेजा जी' हमारा...आपका और अपने देश का कि यहाँ हमें 'ए बी सी' तो रट्टू तोते के माफिक रटी पड़ी है ...हम 'फ्रैच' से लेकर 'जैपनीज़' तक हर विदेशी भाषा को सीखने को आमादा हैँ लेकिन अपनी 'क ख ग' के नाम पे हम इधर-उधर...अगल-बगल की बगलें झाँकने लगते हैँ"....

"बात तो यार तुम एकदम सही कह रहे हो"...

"हैरानी की बात तो ये है कि यहाँ के 'नेता' से लेकर 'अभिनेता' तक सब हिन्दी का ही खाते..कमाते...पहनते और ओढते हैँ लेकिन उसी हिन्दी में बात करने में इन्हें शर्म आती है...हीनता महसूस होती है"...

"जी"..

"अगर कोई 'हिन्दी' में बात करने में सहजता महसूस करे तो उसे माफी माँगने पे मजबूर कर दिया जाता है"...

"आज भी हमारे देश की जनसंख्या का काफी बड़ा भाग हिन्दी में ही सोचता है लेकिन जब बात करने की बारी आती है तो ना जाने क्यूँ हमारी ज़बान से कचर-कचर कैँची के माफिक अँग्रेज़ी निकलनी शुरू हो जाती है?"...

"अगर हम खुद ही अपनी भाषा से प्रेम नहीं करेंगे...उसे बोलने में गर्व महसूस नहीं करेंगे तो क्या फिर बाहर से फिरंगी आ कर हमारी भाषा का उद्धार करेंगे?"...

"सोलह ऑने सही बात"...

"आप कुछ पढने-पढाने की बात कर रहे थे ना?"...
"जी!...मेरे हिसाब से तो अगर हम चाहते हैँ कि हमारे ब्लॉग पे विज़िटरज़ की संख्या बढे ...तो हमें दूसरों के ब्लॉग्ज़ पर भी दस्तक देनी चाहिए"...

"जी"...

"और खाली सिर्फ दस्तक देने से ही कुछ नहीं होगा...हमें वहाँ जा के कुछ सार्थक और सटीक से कमैंट भी करने होंगे"...

"चलो मान ली आपकी बात की हमें दूसरों को भी पढना चाहिए...नॉलेज बढती है इस से और दीन-दुनिया की खबर भी रहती है लेकिन बाद में ...बेफाल्तू में दूसरों के ब्लॉग्ज़ पे कमैंट कर अपना कीमती वक्त ज़ाया करने से हमें क्या फायदा?"...

"अरे यार!...इस से सामने वाले का हौसला बढता है"..

"और ये क्यों भूल जाते हो कि हमारे देश में बरसों से 'इस हाथ दे और उस हाथ ले' की परंपरा चली आ रही है"...

"अगर हम दूसरों को कमैंट करेंगे तो वो भी हमारे ब्लॉग पे आ अपनी हाजरी बजाने को प्रेरित होंगे"...

"जी!...बात तो आपने सोलह ऑने दुरस्त कही"....

"एक बात पूछूँ?"... 

"ज़रूर"...

"ये सोलह आने वाली बात क्या आपका तकिया कलाम है?"....

"कुछ ऐसा ही समझ लो"....

"ओ.के"...

"आपकी बात कुछ-कुछ समझ आ रही है लेकिन क्या फायदा ऐसे पढने-पढाने का कि दूसरों को मज़े कराने के चक्कर में हम अपनी आँखे फुड़वा लें?"...

"अरे यार!....एक्सपीरियंस मिलता है इस सब से"...

"और कितना एक्सपीरियंस गेन करना चाहते हैँ आप?"...

"अरे!..तजुर्बे की कोई सीमा या तौल थोड़े ही होता है कि बस!...किलो दो किलो में बहुत हो गया"...

"ये तो सालों-साल नितत प्राप्त करने की चीज़ है"....

"तनेजा जी!...दो चार महीने बाद आपका जन्मदिन भी तो हैँ ना?"...

"जी!...है तो"...

"पूरे चालीस के हो जाएँगे आप"....

"तो?"..
"कब तक आप यूँ निप्पल चूसते वाले छोटे बच्चे की तरह बिहेव करते रहेंगे?"...

"मतलब?"...

"अजी!..परिपक्व बनिए और बड़ी बात कीजिए"...

"कब तक आप ये दस-बीस विज़िटरज़ की गिनती को गिन खुश होते रहेंगे?"...

"तो फिर क्या करू?"...

"करना क्या है?...बस ढीले-ढाले तरीके से नहीं बल्कि ज़ोरदार ढंग से काँटे की बात रखिए पब्लिक के सामने"...

"मजाल है जो कोई आपके ब्लॉग पे हाजरी लगाने से चूक जाए"...

"मसलन?"...

"किस तरह की बात?"...

"क्या सैक्स वगैरा?....

"अजी छोड़िए इस सैक्स-वैक्स को"...

"पूरा अंतर्जाल तो भरा पड़ा है इस सब से"...

"जी!...एक खोजो...हज़ारों साईटों में कैद...लाखों बालाएँ  कूद-कूद के अपने एक-एक अंग...एक-एक जलवे को दिखाने को उतावली हुई फिरती हैँ"...

"बस!...एक दो क्लिक के साथ माउस को थोड़ा-बहुत...आगे-पीछे और ऊपर-नीचे..नचा के बरसों से गुप्त रहे इस दुर्लभ और आत्मीय ज्ञान को सरेआम पाया जा सकता है"... 

"तो फिर क्या 'धर्म-कर्म' की बात करना उचित रहेगा"...

"अरे!..उसमें तो अपने ग्वालियर वाले 'दीपक जी' उस्ताद हैँ"..

"तो क्या हुआ?"...

"भजन-कीर्तन करना कोई अकेले उनकी ही बपौती तो नहीं"...

"नहीं यार!...अपने विशिष्ट मित्र हैँ....उनके साथ पंगा लेना ठीक नहीं"...

"तो फिर?"...

"क्यों ना हम 'पाकिस्तान' और 'नेपाल' में हो रही उठा-पटक को अपने ब्लॉग की विष्य-वस्तु बनाएँ?"...

"अरे नहीं यार!...एक से एक और धांसू से धांसू ब्लॉगर पहले ही इन विष्यों में अपनी महारथ सिद्ध कर चुके हैँ...उनके मुकाबले में हम कहीं ठहर नहीं पाएँगे"...

"ओह!..."

"एक आईडिया है"..

"क्या?"...

"यही कि हम गुज़रे ज़माने की चीज़ हो चुके 'रेडियो' के बारे में क्यों ना लिखें?"..

"मुझे तो लगता है कि गुज़रे ज़माने की चीज़ 'रेडियो' नहीं बल्कि तुम खुद एक पुराने ज़माने का ज़ंग लगा एंटीक हो"...

"क्या मतलब?"..

"अरे!...ये 'रेडियोवाणी' नाम के ब्लॉग के बारे में कुछ पता नहीं है क्या?"...

"रेडियोवाणी?....मैँने तो कभी नहीं सुनी इसकी वाणी"...

"इस नाम का भी कोई ब्लॉग है क्या?"...

"कितनी बार पहले भी समझा चुका हूँ कि सिर्फ लिखने-लिखाने से ही कुछ नहीं होता"...

"दूसरों को पढना भी ज़रूरी होता है"...

"अपने 'युसुफ खान' साहब पता नहीं कितने सालों से इस ब्लाग को सफलाता पूर्वक चला रहे हैँ"...

"तो फिर ये 'तकनीकी' टाईप का ब्लॉग बनाना कैसा रहेगा?"...

"रहेगा तो बढिया लेकिन मुझे तो इस 'तकनीक-वकनीक' का 'क ख ग' भी नहीं पता"...

"मैँ भला कैसे 'तकनीक' के ब्लॉग को तकनीकी तौर पर हैण्डल कर पाऊँगा"...

"अरे!...बहुत आसान है"...

"तकनीक?"...

"नहीं"...

"तो फिर?"...

"नकल करना"...

"वो कैसे?"...

"हम दूसरे ब्लॉगो से सीधे 'कॉपी-पेस्ट' कर दिया करेंगे"...

"लेकिन तुम तो जानते ही हो कि बचपन से मुझे 'चाय' पसन्द है ना कि कॉफी' और....आपकी तथा सभी पाठकों की जानकारी के लिए मैँ बता दूँ कि 'बाबा रामदेव' की नेक एवं उचित सलाह को मानते हुए मैँने आजकल 'पेस्ट' के बजाय 'नीम' या फिर 'कीकर' के(जो भी उपलब्ध हो) दातुन का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है"...

"अरे!...मैँ वो वाली नहीं बल्कि नकल कर के चिपका देने वाले 'कॉपी-पेस्ट' की बात कर रहा था"...

"ओह!...तो फिर ऐसे कहना था ना"..

"इसका तो मुझे पूरे 'अठारह साल' का तजुर्बा है"....

'लेकिन तुमने तो शायद 'बी.ए' किया हुआ है ना?".... 

"बी.ए नहीं...'बी.कॉम'...

"एक ही बात है...लगते तो उसमें भी पन्द्रह साल ही हैँ ना?"..

"हाँ"...

"तो फिर ये अठारह साल का तजुर्बा?"....

"व्व्वो दरअसल नौंवी में दो बार...और कॉलेज में एक बार"..

"शश्श!...ऐसी बातें...नैट पे यूँ ओपन में खुलेआम करना ठीक नहीं"....

"जी"...

"अरे!...तुमने उस 'रतलामी' ब्लॉगर का नाम सुना है जिसे रोज़ाना के हिसाब से डेढ से दो हज़ार तक हिटस मिलते हैँ?

"डेढ दो हज़ार?....

"जी"...

"रोज़ाना के हिसाब से?"...

"जी"...

"हो ही नहीं सकता"...

"ऐसा क्या खास लिखता है वो कि लोग बावलों की भांति उसके ब्लॉग पे खिंचे चले आते हैँ?"...

"ऐसे तो कुछ खास और स्पैसिफिक नहीं है"...

"कभी वो 'करैंट अफेयरज़' के बारे में बात कर रहा होता है तो कभी कभी वो 'वेद' और 'पुराणों' की बात करने लगता है"...

"मतलब कि ऐसे ही सब बेफाल्तू की हाँकता है?"...

"कह भी सकते हैँ"...

"कमाल है!..बेफिजूल की और ऊल-जलूल की हाँकने में तो हमसे अव्वल कोई हो ही नहीं सकता और हम हैँ कि अभी तक निद्रा अवस्था में ही प्राणायाम करते रहे?"...

"कभी भौतिक संसार में मन रमा माल कमाने की सोची ही नहीं"...

"खैर!...अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है"...

"जी!...जब जाग जाएँ..तभी सवेरा समझना चाहिए"...

"बिलकुल"...

"तो फिर शुरूआत कहाँ से की जाए?"...

"अब मैँ क्या बताऊँ?"..

"आप तजुर्बेकार हैँ एवं मुझसे बेहतर इस ब्लॉग की दुनिया को जानते हैँ"...

"वैसे वो 'ब्लॉगर' इस लिखने लिखाने से कुछ कमाता-वमाता भी है कि यूँ ही बेफाल्तों में कीबोर्ड और माउस के साथ दिन-भर पिलता रहता है?"....

"अब इसका तो पता नहीं लेकिन सुनने में आया है कि पिछले महीने ही उसने नई 'एल्टो' खरीदी है"...

"ओह!....नकद या फिर आसान किश्तों पे?"....

"अब ये तो पता नहीं"...

"खैर छोड़ो!...हमें क्या?...कोई कुछ भी खरीदे या बेचे"...

"वैसे भी ये एल्टो-वैल्टो' जैसी छोटी गाड़ियाँ अपुन की चॉयस की हैँ ही नहीं"...

"जी!...आपके जैसी हाई-फाई पर्सनैलिटी के आगे तो वैसे भी ये छोटी और सिम्पल गाड़ियाँ हीन भावना से ग्रस्त हो अपने आप ही चलने से इनकार कर देंगी"..

"बिलकुल"...

"अपुन का तो सपना है कि जो भी काम करना है...लार्ज एवं वाईड स्केल पे करना है"...

"अब पानीपत के गोदाम को ही लो"...

"क्या किसी ने सोचा था कि ये राजीव अपने आपे से बाहर निकल के इतने ज़्यादा हाथ-पाँव फैलाएगा कि उसे लेने के देने पड़ जाएँगे?"....

"अरे!...नुकसान हुआ तो क्या हुआ?"...

"जैसे एक झटके में सब गवां दिया...वैसे ही एक झटके में सब कमा भी लूँगा"...

"जब आया था पानीपत तो मेरे तेवर देख के सब हक्के-बक्के रह गए थे...और अब पानीपत छोड़ के जा रहा हूँ तो भी सब हक्के बक्के हो रहे हैँ"...

"वाह!...क्या बात है....वाह...वाह"...

"इसे कहते हैँ स्पिरिट"...

"बिलकुल!...चाहे कुछ भी हो जाए...हौसला नहीं टूटना चाहिए"...

"तनेजा जी!....बीच में टोकने के लिए माफी चाहूँगा लेकिन हम बात कर रहे थे छोटी और बड़ी गाड़ियों की और आप बीच में अपनी राम कहानी ले के बैठ गए"...

"आपके लिए हो सकती है ये राम कहानी मेरे लिए तो आप बीती है"...

"जानता हूँ कि दुनिया मतलब की है और उसे किसी के दुख..किसी के दर्द से कोई लेना-देना नहीं है"...

"ये आपको  किसने कह दिया कि दुनिया मतलब की है?"...

"यहाँ!...जब दिल्ली में एक के बाद एक लगातार पाँच बम विस्फोट हुए तो घायलों की मदद करने वालों में सबसे आगे मैँ था"...

"उस दिन मैँ भी तो करोलबाग में ही था और ये देखो...इस बाज़ू से मैँने पूरे एक यूनिट ब्लड डोनेट किया था"...

"ये देखो!...अभी भी निशान बाकी है"...

"कईयों को तो मैँ हरिद्वार की गंगा जी में डूबने से बचा चुका हूँ"...

"ओह!...रियली?"...

"जी"...

"दैट्स नाईस"...

"गुड...वैरी गुड"...

"कीप इट अप"...

"शर्मा जी!...एक आईडिया दिमाग में कौन्धा है अभी-अभी"....

"आप कहें तो बताऊँ?"...

"इसमें भी भला कोई पूछने की बात है?"...

"फरमाएँ!...क्या कहना चाहते हैँ आप?"...

"जब मेरे अन्दर और आपके अन्दर..याने के हम दोनों के अन्दर देश-प्रेम और देश भक्ति का एक जैसा पवित्र एवं पावन जज़्बा है तो क्यों ना हम मिलकर एक ऐसा ब्लॉग बनाएँ जो देश के हित के लिए काम करे"....

"आईडिया तो अच्छा है"...

"वैसे हमारे ब्लॉग का मेन कार्य-क्षेत्र क्या होगा?"...

"मतलब हम उस पर किस बारे में लिखेंगे और किस बारे में नहीं?"...

"सही मौके पे सही सवाल उठाया आपने"...

"अपने ब्लॉग में हम किसी की चुगली नहीं करेंगे और ना ही किसी का किसी भी प्रकार का छोटा या बड़ा गाली-गलोच सहन करेंगे"...

"और?"....

"देश सेवा से जुड़े हर मुद्दे को उठाएँगे"....

"जैसे?"...

"हम अपने ब्लॉग के जरिए लोगों को श्रम दान से लेकर रक्त-दान तक के लिए प्रेरित करेंगे"...

"और?"....

"ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को हिन्दी से जोड़ने का सार्थक प्रयास करेंगे"...

"और?"...

"दिल्ली और 'एन.सी.ऑर' के लोगों की सेवा के लिए तन..मन और धन से जो बन पड़ेगा...वो सब करेंगे"...

"आपको नहीं लगता कि हमारी-आपकी सोच कुछ संकुचित होती जा रही है?"...

"कैसे?"...

"हम सिर्फ जो दिल्ली और उस से सटे 'एन.सी.ऑर' की बात जो कर रहे हैँ"...

"ओह!...इस बाबत तो मैँने सोचा ही नहीं"...

"आपको नहीं लगता कि हमें अपने ब्लॉग के जरिए सभी राष्ट्रीय मुद्दों को उठाना चाहिए?"...

"बिलकुल!...मुद्दा तो मुद्दा होता है"....

"चाहे वो ओवन में से ताज़ा निकला गर्मागर्म हो अथवा ठण्डे बस्ते में पड़ा कोई पुराना एवं बासा हो".

"हमें ध्यान रखना होगा कि हम किसी भी मुद्दे को कमज़ोर ना पड़ने दें"...

"भले ही वो 'सिंगूर' का नयनभिरामी 'नैनो' प्राजैक्ट हो या फिर वो हो  'राज ठाकरे' द्वारा 'बिग बी' से माफी मँगवाने का मुद्दा"...

"हमारे देश में अगर समस्याएँ बहुत है तो समाधान भी बहुत हैँ लेकिन हम दो अकेले चने  भाड़ फोड़ें भी तो कैसे?"...

"जब हम इस दुनिया में आए थे...तब भी अकेले थे और जब इसे छोड़ ऊपरवाले के पास जाएँगे ...तो भी अकेले ही कूच करेंगे हम"...

"सत वचन"...

"लेकिन...

"कुछ लेकिन-वेकिन नहीं!...इस राजीव ने एक बार जो ठान लिया...सो समझो ठान लिया"...

"एक प्रार्थना है तुमसे...अगर साथ छोड़ना है तो बेशक अभी छोड़ दो लेकिन बस बीच में धोखा ना देना"...

"क्या बात करते हैँ तनेजा जी आप भी?"...

"आपने मुझे क्या समझ लिया है?"..

"पीछे हटने वालों में से मैँ नहीं"...

"यहाँ तो एक बार ज़बान कर दी तो कर दी"....

"अगर तुम्हारे मन में अब भी कोई शक या शुबह है तो बेशक अभी बता दो"...

"बिलकुल नहीं"...

कहीं ये ना हो कि मैँ तुम्हारे कन्धे पे बंदूक लिए गर्व से घूमूँ-फिरूं और ऐन फॉयर के वक्त तुम नदारद पाओ"...

"मैँ...और धोखा?"...

"हे ऊपरवाले!...ऐसा सुनने से पहले मैँ बहरा क्यों ना हो गया?"...

"मैँने तो सोच लिया है राजीव जी कि अब मेरे लिए देश-सेवा से बढकर कुछ नहीं"...

"ना ये बँगला..ना वो गाड़ी...ना ये बीवी...ना वो बच्चे"...

"अरे शर्मा जी!...क्या करते हो?"...

"आप जिस बँगले और गाड़ी की तरफ इशारा कर रहे हैँ...वो मेरी है..आपकी नहीं"...

"हाँ!...ये बच्चे...इनके बारे में तो मुझे पूरा यकीन है कि ये मेरे नहीं हैँ"...

"क्या?"...

"हाँ!..इन्हें आप बेशक अभी के अभी ले जाएँ".....

"और ये बीवी?"...

"फिलहाल तो मेरी ही है"...

"हे...हे...हे..."

"मैँ तो बस ऐसे ही मज़ाक कर रहा था"...

"सही है मियाँ!...एक आप हो कि मज़ाक-मज़ाक में ही सही...लेकिन पराए माल को अपना तो बना लेते हो"...

"और एक हम हैँ कि कई दिनों से पड़ोस वाली प्रिया पर ताड़ू नज़र रखने के बाद भी उसे हकीकत क्या सपने में भी अपना नहीं बना पाए"..

"अब क्या बताऊँ...तनेजा जी"...

"ऊपरवाले ने बनाया ही मुझे इतना दिलफैंक है कि.....

"खैर ये फैंकने और फिकवाने की बातें तो हम बाद में करेंगे पहले असली मुद्दे पे आते हैँ"...

"जी!..बिलकुल"...

"हाँ तो हम बात कर रहे थे कि अकेला चना भाड़ फोड़े ब्भी तो कैसे?"...

"जी"...

"तो क्यों ना हम एक नई शुरूआत करे?"...

"कैसी शुरूआत?"...

"हम अपने ब्लॉग को सामुदायिक ब्लॉग का रूप दे देते हैँ"...

"मतलब की हमारे ब्लॉग के कई मालिक होंगे?"...

"बिलकुल"...

"हर आदमी अपने-अपने लैवल पे देश हित से जुड़े मुद्दे उठाएगा और अपने सभी जान-पहचान वालों को हम से जुड़ने के लिए प्रेरित करेगा"...

"हमारे पैनल में छोटे से छोटा लिक्खाड़ और बड़े से बड़ा बुद्धीजीवी शामिल होगा"...

"हम धर्म...जाति और रुतबे के आधार पर आपस में कोई भेदभाव नहीं करेंगे"...

"धनी से धनी और निर्धन से निर्धन को हम समान भाव से गले लगाएंगे"...

"जल्द ही हमारी विचारधारा को मानने वालों की संख्या इतनी ज़्यादा हो जाएगी कि हम सरकार से अपनी हर जायज़ या नाजायज़ बात को आसानी से मनवा पाएंगे"....

"मसलन?"...

"जैसे एक्साईज़ और टैक्स वैगरा में छूट दिलवा कर हम अमीरों का हित साधेंगे तो अच्छे वेतनमानों के साथ सरकारी नौकरियों की संख्या बढवा कर हम गरीबों का भी भला करेंगे"...

"गुड!...वैरी गुड"...

"लेकिन मुझे डर है कि कहीं किसी वजह से हमारा ये सपना सिर्फ सपना बनकर ही ना रह जाए"...

"क्यों?...ऐसा क्यों लगा तुम्हें?"...

"जानते नहीं कि 'एकता' में बड़ा बल है"....

"एकता कपूर में?"...

"अरे बुद्धू!..मैँ उस 'एकता' की बात नहीं कर रहा"...

"तो फिर?"...

"मैँ तो एकता याने 'यूनिटी' की बात कर रहा था कि उसमें बड़ा बल है"...

"बल तो वैसे अपने 'खली दा ग्रेट' में भी बड़ा है लेकिन वो भाड़ नहीं बल्कि पत्थर फोड़ा करता था"...

"अरे यार!...उस खली का हमारे ब्लॉग या हमारे मिशन से क्या लेना-देना?"...

"लेना-देना क्यों नहीं?"...

"यूथ आईकॉन है वो"...

"बच्चे उस पे जान छिड़कते हैँ और यंग जैनरेशन उसके जैसा बनने को हैल्थ-क्लबों में मारी-मारी फिरती है"...

"ओह!...फिर तो अपने काम का बंदा है वो"...

"बिलकुल"...

"एक्चुअली!..हमें तो सिर्फ नए यंग एवं जवान लड़को की पूरी टीम खड़ी करनी होगी जो हमारे एक इशारे पे हर उस जगह तन के खड़ी हो जाए...जहाँ हम चाहें"...

"चाहे वो 'डी.सी' का दफ्तर हो या फिर हो किसी भी राज्य के 'मुख्यमंत्री' का आवास"...

"अरे वाह!...फिर तो मज़ा आ जाएगा"...

"बिलकुल"...

"तो फिर ऊपरवाले का नाम लेकर हम अपने ब्लॉग का श्री गणेश करें?"..

"बिलकुल"...

"वैसे हमारे ब्लॉग का सबसे पहला काम क्या होगा?"...

"इस समय बिहार के लोग 'कोसी' का कहर झेल रहे हैँ"...

"जी"...

"मैँ तो जब भी टीवी वगैरा में वहाँ के हालात के फुटेज देखता हूँ तो जी रुआँसा हो उठता है"...

"वहाँ बच्चों को भूखा देखता हूँ तो खाने की मेज़ से एक-दो निवाले खा के या फिर बिना खाए ही उठ जाता हूँ"...

"जी!...एक तरफ हमारे देश की जनता भूख और प्यास से तड़प-तड़प के हलकान हो जाने दे रही हो और दूसरी तरफ हम मज़े से बेफिक्र हो चना-चबैना चबाते रहें..ये उचित नहीं"...

"अगर ऊपरवाले ने मुझे धन्ना सेठ बनाया होता तो मैँ तुरंत ही अपने अनाज से भरे गोदामों के मुँह उन बेचारों के लिए खोल देता"....

"अब ये स्साले बैंक वाले चैरिटी करने के नाम पे लोन भी तो नहीं देते"...

"उफ!...कैसे मदद करूँ मैँ इन बेचारे गरीब-गुरबाओं की"...

"कोई रास्ता...कोई हमसफर भी तो नहीं दिखाई दे रहा अपने इस मिशन में"..

"कमाल करते हैँ तनेजा जी आप भी"...

"मैँ हूँ ना"...

"एक से एक ब्लॉगर से जान-पहचान है मेरी"...

"अगर पब्लिक का साथ ज़रा सा साथ मिल जाए तो इस बिहार समस्या का हल यूँ चुटकियों में हुआ समझो"....

"चिंता ना करें...जितने बंदे चाहिए मिल जाएँगे"...

"ये वादा है इस शर्मा का आपसे"...

"अरे!...बंदों का मैँ क्या अचार डालूंगा?"...

"वो तो मेरे एक इशारे पे ही बैनर और पोस्टर चिपकाने के लिए दिल्ली की जे.जे.कलौनियों से जितने चाहूँ..उतने दौड़े चले आएँगे"...

"तो फिर आपका क्या मतलब था?"...

"पब्लिक के साथ देने से मेरा मतलब था कि आम जनता अपनी तरफ से जी भर कर मदद करे"...

"किस तरह की मदद?"...

"जैसे पुराने कपड़े....बर्तन...कम्बल....दवाईयाँ इत्यादि....कुछ भी दे सकती है.....और हाँ!...अगर नकदी दे सके तो सबसे बेहतर"...

"वजह?"...

"वजह ये कि नकद-नारायण की तो हर जगह पूजा होती है और इसे  एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाना भी आसान होता है"...

"जी!...ये नहीं होना चाहिए कि बेचारे गरीबों को खाने-पीने के सामान की ज़रूरत हो और हम यहाँ से लीड़े-लत्तों की कनज़ाईनमैंट लाद दें"...

"बिलकुल"...

"इसलिए हम ज़रूरत के हिसाब से उनमें बाकी चीज़ों के अलावा नकदी भी बाँटेंगे"...

"गुड...वैरी गुड"...

"तो सबसे पहले हम अपने सांझे और निजी ब्लॉगों के जरिए आप जनता से अपील करेंगे कि वो अपनी तरफ से भरपूर मदद करे"....

"गुड"....

"एक काम करना"...

"जी"...

"मेरा वो नांगलोई वाला गोदाम आजकल खाली पड़ा हुआ है"...

"तो?"...

"जितनी भी राहत सामग्री इकट्ठी होगी...उसे वहाँ डम्प कर देंगे"...

"डम्प कर देंगे?"...

"अरे यार!..जब तक पूरे ट्रक का लोड ना हो जाए...तब तक कैसे भेजेंगे?"...

"ओह!...अच्छा"...

"मेरी राय में तो एक ट्रक भेजने में भी उतनी ही सिर दर्दी है जितनी दस ट्रकों को भेजने में"...

"जी"...सही फरमाया आपने"....

"तो यही ठीक रहेगा ना कि जब तक नांगलोई वाले गोदाम में आठ-दस ट्रक माल ना इकट्ठा हो जाए...हम चुप लगा के बैठे रहेंगे और बाद में सही मौके पे बिहार की जनता को एक साथ राहत सामग्री भेज आश्चर्यचकित कर देंगे"...

"बिलकुल!...वो भी अचानक सरप्राईज़ पा कर फूली नहीं समाएगी"...

"लेकिन ये सामान रखने के लिए इतनी दूर नांगलोई जाने की ज़रूरत ही क्या है?"...

"यही पास में ही किसी का खाली पड़ा गोदाम मिल जाएगा हफ्ते दो हफ्ते के लिए"...

"मुफ्त में?"...

"थोड़ा-बहुत किराया ही तो भरना पड़ेगा....भर देंगे"...

"हाँ!...भर देंगे"...

"तुम्हारा खुद का पैसा नहीं है ना...इसलिए तुम्हें दर्द नहीं हो रहा"...

तुम क्या जानो कि कैसे पब्लिक अपने खून-पसीने की कमाई का एक हिस्सा तुम्हें किसी भले व नेक काम के लिए सौंपेगी और तुम हो कि उसे ऐसे ही उड़ाने पे तुले हो"....

"मुझे कुछ नहीं पता!...बेशक किराया एक का दो लग जाए लेकिन राहत सामग्री का एक इंच भी नांगलोई नहीं जाएगा"....

"बावले तो नहीं हो गए हो तुम कहीं?"...

"वहाँ अपना खुद का गोदाम खाली पड़ा-पड़ा सड़ता रहे और हम यहाँ किराए-विराए में पैसे फूंक के पब्लिक की दी हुई अमानत में खयानत करते रहें?"...

"भई ये पाप तो मुझसे ना होगा"...

"देखो!...मैँ तुमसे बड़ा हूँ ना?"...

"तो?"...

"बड़े भाई होने के नाते ही मेरी बात मान लो"...

"वहाँ एक पैसा भी किराए का नहीं लगना है और फिर अपना गोदाम है तो चोरी-चकारी का भी कोई डर नहीं"...

"बाहर किसी दूसरे पे हम कैसे भरोसा कर लें?"...

"हम्म....चलो मान ली आपकी बात लेकिन जितनी भी नकदी आएगी उसे घर में नहीं बल्कि बैंक में रखा जाएगा"...

"बिलकुल!...इसमें मुझे कोई ऐतराज़ नहीं"...

"बैंक में रखना ही बेहतर होगा...आजकल चोर-डकैतों का कोई भरोसा नहीं"...

"ज़रा सी भनक लगी नहीं कि तुरंत धावा बोलने से नहीं चूकेंगे"...

"जी"...

"बैंक में पैसा सेफ भी रहेगा और कुछ ब्याज बट्टा भी मिल जाएगा"...

"जी"...

"तो फिर तय रहा ना सब कि सबसे पहले हम अपने ब्लॉगज़ के जरिए सभी ब्लागरज़ बन्धुओं से मदद की अपील करेंगे और उनसे मिले चंदे से पोस्टर...बैनर तथा इश्तेहार वगैरा छपवा कर हर गली...हर मोहल्ले...हर बाज़ार हर दिवार पर चिपकवाएंगे?"...

"जिससे आम जनता को हमारे मंसूबों की जानकारी मिलेगी और तत्परता से हमारी मदद के लिए अपनी जेबें खाली कर डालेगी"...

"हम पुराने कपड़ों से लेकर अनाज तक और...फर्नीचर से लेकर अखबार तक...सभी कुछ स्वीकार करेंगे"...

"पुराने अखबार तथा मैग्ज़ीन वगैरा भी?"...

"जी"...

"लेकिन पुरानी अखबारों का हम आखिर करेंगे क्या?"...

"अरे!...उन्हें रद्दी में बेच के नोट इकट्ठा करेंगे...और क्या?"...

"अरे वाह!...क्या धांसू आईडिया निकाला है"...

"लोग भी खुश और हम भी खुश"....

"बिलकुल"...

"सबसे मेन प्वाईंट"...

"कैश कहाँ रखा जाएगा?"... 

"बैंक में...और कहाँ?"...

"गुड"...

"मेरा सिंडीकेट बैंक में ऑलरैडी खाता है...वहीं जमा करवा देंगे सारा पैसा"...

"नहीं सिंडीकेट बैक में तो बिलकुल नहीं"...

"क्यों?...क्या बुराई है सिंडीकेट बैंक में?"..

"अरे यार सरकारी बैंक है"...

"तो?"...

"क्या पता बदमाशों का ही सिंडीकेट हो इसमें?"..

"पैसा जमा होगा तो सिर्फ 'आई.सी.आई' बैंक में"...

"क्योंकि वहाँ आपका एकाउंट है?"...

"हाँ!...है"...

"तो?"...

"सब समझ रहा हूँ आपकी चालबाज़ी तनेजा साहेब"...

"गोदाम भी आपका और बैंक भी आपका"...

"तो?"...

"फुद्दू समझ रखा है क्या मुझे?"...

"इतना बावला नहीं हूँ मैँ कि तुम्हारी ये घटिया चालबाज़ियाँ ना समझ सकूं"...

"पहले अपने गोदाम में माल रखवाने के बाबत लॉजिक दिए...मैँ मान गया कि चलो कोई बात नहीं...कैश तो मेरे सिंडीकेट बैंक के खाते में ही रहेगा"...

"लेकिन फिर जब तुमने पैसे को अपने बैंक में रखने की बात कही तो मेरा माथा ठनका कि ये राजीव तो सारा माल खुद ही हड़पने की तिकड़म भिड़ा रहा है"...

"उफ!...मैँ तिकड़म भिड़ा रहा हूँ?"...

"ये कान ऐसे ओछे और छोटे इलज़ाम सुनने से पहले फट क्यों ना गए?"...

"तुम मुझ पर इलज़ाम लगा रहे हो कि मैँ गोदाम में जमा सारे माल को हड़प जाऊँगा?"...

"बिलकुल"...

"अरे यार पुराने लीड़े-लत्तों का भला मैँ क्या करूँगा?"...

"सब जानता हूँ मैँ तनेजा साहेब कि ट्रेन में आते-जाते आपकी यारी पानीपत के उन कबाड़ियों से भी हो गई है जो पुराने कपड़ों में डील करते हैँ"...

"चलो मानी आपकी बात कि मैँ ऐसे कुछ कबाड़ियों को जानता हूं लेकिन पुराने फर्नीचर के आड़-कबाड़ का भला मैँ क्या करूंगा?"...

"क्यों?...पहले भी तो आप पुराने दरवाज़े और खिडकियों का काम कर चुके हैँ ना?"...

"हाँ!..कर चुका हूँ"....

"तो?"

"आपकी जानकारी लोगों से ज़रूर होगी जो पुराने फर्नीचर में डील करते हैँ जैसे राजा कबाड़ी वगैरा...वगैरा"...

"चलो मानी तुम्हारी बात कि मैँ तिकड़म भिड़ा सारा माल अपने अन्दर करने की सोच रहा था लेकिन दूध के धुले तो तुम भी नहीं हो दोस्त"...

"क्यों?...क्या किया है मैँने?"...

"सब जानता हूँ मैँ कि तुम माल किसके गोदाम में और क्यों रखवाना चाहते थे"...

"ओ.के"...

"जब हम दोनों एक दूसरे के बारे में सब जान ही गए हैँ तो ठीक है...ऐसा ही सही"...

"अब क्या इरादा है?"...

"काम तो हम अब भी एक साथ ही करेंगे क्योंकि मोटा धन्धा है ये और इसे संभालना किसी एक के बस की बात नहीं"....

"हाँ!..एक साथ काम करेंगे लेकिन अपने-अपने हाथ पक्के करने के बाद"..

"कैसे?"...

"माल रखने के लिए गोदाम तुम्हारा नांगलोई वाला इस्तेमाल होगा"...

"गुड...वैरी गुड"...

"लेकिन मेरे आदमी भी वहाँ हमेशा तैनात रहेंगे"...

"तुम्हारे आदमी?"...

"जी!...मेरे आदमी"...

"ओ.के...मुझे कोई ऐतराज़ नहीं"...

"पुराने कपड़ों को ठिकाने का ज़िम्मा तुम्हारा रहेगा"..

"मेरा क्यों?"...

"क्योंकि तुम्हें इसकी पार्टियाँ मालुम है"....

"लेकिन....

"चिंता ना करो इसके बदले मे तुम्हें जायज़ कमीशन मिलेगी"...

"ओ.के!...फिर ठीक है"...

"नकदी को तो रोज़ के रोज़ हम बाँट ही लिया करेंगे"...

"बिलकुल!...नकदी में देरी करना ठीक नहीं"...

"और बाकी के सामान को भी थोड़ा-बहुत ऊपर-नीचे कर के साथ ही साथ निबटाते जाएँगे"...

"यही सही भी रहेगा"...

"और अगर कुछ ना बिकने वाला या फिर ना इस्तेमाल होने लायक सामान बच गया तो"...

"अरे!..ये इंडिया है मेरी जान"...

"यहाँ मिट्टी से लेकर कूड़ा-करकट तक सब बिक जाता है"...

"लेकिन अगर फिर भी कुछ बच-बचा गया तो इतने निर्दयी भी नहीं हम कि सब खुद ही हड़प कर जाएँ"...

"बिलकुल!...ये बिहार किस दिन काम आएगा?"...

"हा....हा.....हा....हा"...

***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja

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