व्यथा झोलाछाप डाक्टर की-राजीव तनेजा


[कार्टून प्रस्तुति: अभिषेक तिवारी]
कसम ले लो मुझसे...'खुदा' की...या फिर किसी भी मनचाहे भगवान की.....तसल्ली ना हो तो बेशक!...'बाबा रामदेव'के यहाँ मत्था टिकवा के पूरे सात के सात वचन ले लो जो मैँने या मेरे पूरे खानदान में....कभी किसी ने 'वी.आई.पी' या 'अरिस्टोक्रैट'के फैशनेबल लगेज के अलावा कोई देसी लगेज जैसे...थैला....बोरी...कट्टा...ट्रंक ...अटैची...या फिर कोई और बारदाना इस्तेमाल किया हो। कुछ एक सरफिरे अमीरज़ादे तो 'सैम्सोनाईट'का मँहगा लगेज भी इस्तेमाल करने लग गए हैँ आजकल। आखिर स्टैडर्ड नाम की भी कोई चीज़ होती है। लेकिन इस सब में भला आपको क्या इंटरैस्ट?...आपने तो ना कुछ पूछना है ...ना पाछना है और...सीधे ही बिना सोचे समझे झट से सौ के सौ इलज़ाम लगा देने हैँ हम मासूमों पर।मानों हम जीते-जागते इनसान ना होकर कसाई खाने में बँधी भेड़-बकरियाँ हो गयी कि....जब चाहा...जहाँ चाहा....झट से मारी सैंटी और....फट से हाँक दिया।
अच्छा लगता है क्या कि किसी अच्छे भले सूटेड-बूटेड आदमी को 'छोला छाप' कह उसकी पूरी पर्सनैलिटी ...पूरी इज़्ज़त की वाट लगाना? मज़ा आता होगा ना आपको हमें सड़कछाप कह...हमारे काम...हमारे धन्धे की तौहीन करते हुए? सीधे-सीधे कह क्यों नहीं देते कि अपार खुशी का मीठा-मीठा एहसास होता है आपको...हमें नीचा दिखाने में?....वैसे ये कहाँ की भलमनसत है कि हमारे मुँह पर ही...हमें...हमारे छोटेपन का एहसास कराया जाए?
ये सब इसलिए ना कि हम आपकी तरह ज़्यादा पढे-लिखे नहीं...ज़्यादा सभ्य नहीं....ज़्यादा समझदार नहीं? हमारे साथ ये दोहरा मापदंड...ये सौतेला व्यवहार इसलिए ना कि...हमारे पास 'डिग्री' नहीं...सर्टिफिकेट नहीं? मैँ आपसे पूछता हूँ... हाँ!...आप से कि हकीम 'लुकमान' के पास कौन से कॉलेज या विश्वविद्यालय की डिग्री थी? या 'धनवंतरी' ने ही कौन से मैडिकल कॉलेज से 'एम.बी.बी.एस' या...'एम.डी' पास आऊट किया था? सच तो यही है दोस्त कि उनके पास कोई डिग्री नहीं थी...कोई सर्टिफिकेट नहीं था।...फिर भी वो देश के जाने-माने हकीम थे....वैद्य थे...लाखों-करोड़ों लोगों का सफलतापूर्वक इलाज किया था उन्होंने।"क्यों है कि नहीं?"
उनके इस बेमिसाल हुनर....इस बेमिसाल इल्म के पीछे उनका सालों का तजुर्बा था...ना कि कोई डिग्री...या फिर कोई सर्टिफिकेट। हमारी 'कँडीशन'भी कुछ-कुछ उनके जैसी ही है याने के...'ऑलमोस्ट सेम टू सेम' बिकाझ...जैसे उनके पास कोई डिग्री नहीं...वैसे ही हमारे पास भी कोई डिग्री नहीं...सिम्पल।
वैसे आपकी जानकारी के लिए मैँ एक बात और बता दूँ कि ये लहराते ...बलखाते बाल मैँने ऐसे ही धूप में हाँडते-फिरते सफेद नहीं किए हैँ बल्कि..इस डाक्टरी की लाईन का पूरे पौने नौ साल का प्रैक्टिकल तजुर्बा है मुझे। और खास बात ये कि ये तजुर्बा...ये एक्सपीरिएंस मैँने इन तथाकथित 'एम.बी.बी.एस'या 'एम.डी' डाक्टरों की तरह....लैबोरेट्री में किसी बेज़ुबान 'चूहे'या'मैँढक'का पेट काटते हुए हासिल नहीं किया है बल्कि...इसके लिए खुद इन्हीं...हाँ!...इन्हीं नायाब हाथों से कई जीते-जागते ज़िन्दा इनसानो के बदन चीरे हैँ मैँने।
"है क्या आपके किसी 'डिग्रीधारी'डाक्टर या फिर...मैडिकल आफिसर में ऐसा करने की हिम्मत?.....ऐसा करने का माद्दा?" "और ये आपसे किस गधे ने कह दिया कि डिग्रीधारी डाक्टरों के हाथों मरीज़ मरते नहीं हैँ?" रोज़ ही तो अखबारों में इसी तरह का कोई ना कोई केस छाया रहता है कि फलाने-फलाने सरकारी अस्पताल में फलाने फलाने डाक्टर ने लापरवाही से...आप्रेशन करते वक्त सरकारी कैंची को गुम कर दिया।..."अब कर दिया तो कर दिया लेकिन नहीं...अपनी सरकार भी ना...पता नहीं क्या सोच के एक छोटी सी...अदना सी...सस्ती सी...कैंची का रोना ले के बैठ जाती है। ये भी नहीं देखती कि कई बार बेचारे डाक्टरों के नोकिया 'एन' सीरिज़ तक के मँहगे-मँहगे फोन भी....मरीज़ों के पेट में बिना कोई शोर-शराबा किए गर्क हो जाते हैँ...धवस्त हो जाते हैँ लेकिन...शराफत देखो उनकी...वो उफ तक नहीं करते...चूँ तक नहीं करते। अब कोई छोटा-मोटा सस्ता वाला चायनीज़ मोबाईल हो तो बन्दा भूल-भाल भी जाए लेकिन....फोन...वो भी नोकिया का...और ऊपर से 'एन'सीरिज़...कोई भूले भी तो कैसे भूले? अब इसे कुछ डाक्टरों की किस्मत कह लें या फिर...उनका खून-पसीने की मेहनत से कमाया पैसा कि उन्होंने अपने फोन को बॉय डिफाल्ट.....'वाईब्रेशन'मोड पे सैट किया हुआ होता है। जिससे...ना चाहते हुए भी कुछ मरीज़ पूरी ईमानदारी बरत पेट में बार-बार मरोड़ उठने की शिकायत ले कर...उसी अस्पताल का रुख करते हैँ जहाँ उनका इलाज हुआ था।
वैसे 'बाबा रामदेव' झूठ ना बुलवाए...तो यही कोई दस बारह केस तो अपने भी बिगड़ ही चुके होंगे इन पौने नौ सालों में लेकिन....इसमें इतनी हाय तौबा मचाने की कोई ज़रूरत नहीं। आखिर इनसान हूँ...गल्ती हो भी जाती है। लेकिन अफसोस!..संबको मेरी गल्ती नज़र आती है..मकसद नहीं।क्या किसी घायल...किसी बिमार की सेवा कर...उसका इलाज कर...उसे ठीक...भला-चंगा करना गलत है? नहीं ना?...फिर ऐसे में अगर कभी गल्ती से लापरवाही के चलते कोई छोटी-बड़ी चूक हो भी गई तो इसके लिए इतना शोर-शराबा क्यों?...इतनी हाय तौबा क्यों?
मुझ में भी आप ही की तरह देश-सेवा का जज़्बा है। मैँ भी आप सभी की तरह सच्चा देशभग्त हूँ और सही मायने में देश की भलाई के लिए काम कर रहा हूँ।
आप भले ही मेरी बात से सहमत हों या ना हों मुझे अपनी सरकार का ये दोगलापन बिलकुल पसन्द नहीं कि....अन्दर से कुछ और और बाहर से कुछ और। कहने को अपनी सरकार हमेशा बढ्ती जनसंख्या का रोना रोती रहती है लेकिन अगर हम मदद के लिए आगे बढते हुए अपनी सेवाएँ दें....तो उसे फाँसी लगती है। वो करे तो...पुण्य...हम करें तो पाप।...वाह री मेरी सरकार...कहने को कुछ और करने को कुछ।
एक तरफ रोना ये कि देश जनसंख्या बोझ तले दब रहा है...इसलिए परिवार नियोजन को बढावा दो। जहाँ एक तरफ इंदिरा गाँधी के ज़माने में काँग्रेस सरकार ने टोरगैट पूरा करने के लिए जबरन नसबन्दी का सहारा लिया था...और अब वर्तमान काँग्रेस सरकार अपनी बेशर्मी के चलते जगह-जगह "कण्डोम के साथ चलें" के बैनर लगवा रही है...पोस्टर लगवा रही है। दूसरी तरफ कोई अपनी मर्ज़ी से एबार्शन करवाना चाहे तो जुर्माना लगा फटाक से अन्दर कर देती है। अरे!...किसी को अगर एबार्शन करवाना है तो बेशक करवाए ...बेधड़क करवाए...जी भर करवाए।...इसमें तुम्हारे बाप का क्या जाता है? वो चाहे एक करवाए ...या फिर सौ करवाए...उसकी मर्ज़ी...लेकिन नहीं....अपनी कलयुगी सरकार की नज़र-ए-इनायत में ये जुर्म है..पाप है...गुनाह है। ये भला कहाँ का इनसाफ है कि एबार्शन करने वालों को और करवाने वालों को पकड़कर जेल में डाल दिया जाए?....तहखाने में डाल दिया जाए?
ऐसी अन्धेरगर्दी ना तो 'नादिरशाह' के ज़माने में कभी देखी थी और ना ही कभी 'अहमदशाह अब्दाली' के ज़माने में सुनी थी। ठीक है माना कि 'एबार्शन'..या क्या कहते हैँ उसे हिन्दी में?...हाँ!..याद आया 'गर्भपात' आमतौर लड़कियों के ही होते हैँ...लड़कों के नहीं। तो आखिर!..इसमें गलत ही क्या है? कोई कुछ कहे ना कहे लेकिन मेरे जैसे लोग तो डंके की चोट पे यही कहेंगे कि अगर लड़का पैदा होगा तो....वो बड़ा हो के कमाएगा...धमाएगा...खानदान का नाम रौशन करेगा।
ठीक है!..मान ली आपकी बात कि आजकल लडकियाँ भी कमा रही हैँ और लड़कों से दुगना-तिगुना तक कमा रही हैँ लेकिन...ऐसी कमाई किस काम की जो वो शादी के बाद फुर्र हो अपने साथ ले चलती बनें?ये भला क्या बात हुई?कि चारा खिला-खिला बाप बेचारा बुढा जाए और जब दुहने की बारी आए तो....पति महाश्य क्लीन शेव होते हुए भी अपनी तेल सनी वर्चुअल मूछों को ताव देते पहुँच जाएं बाल्टी के साथ? मज़ा तो तब है जब...जो पौधे को सींचे...वही फल भी खाए। "क्यों?...है कि नहीं।खैर छोड़ो!...हमें क्या?....अपने तो सारे बेटे ही बेटे हैँ।...जिसने बेटी जनी है...वही सोचेगा।
आप कहते हैँ कि हम इलाज के दौरान हायजैनिक तरीके इस्तेमाल नहीं करते हैँ जैसे सिरिंजो को उबालना...दस्तानों का इस्तेमाल करना वगैरा वगैरा...तो क्या आप के हिसाब से पैसा मुफ्त में मिलता है?...या फिर किसी पेड़ पे उगता है? आँखे हमारी भी हैँ...हम भी भलीभांति देख सकते हैँ....अगर सिरिंजें दोबारा इस्तेमाल करने लायक होती है तभी हम उन्हें काम में लाते हैँ..वर्ना नहीं। ठीक है!...माना कि कई बार जंग लगे औज़ारो के इस्तेमाल से सैप्टिक वगैरा का चाँस बन जाता है और यदा कदा केस बिगड़ भी जाते हैँ। तो ऐसे नाज़ुक मौकों पर हम अपना पल्ला झाड़ते हुए मरीज़ों को किसी बड़े अस्पताल या फिर किसी बड़े डाक्टर के पास रैफर भी तो कर देते हैँ।
अब अगर कोई काम हम से ठीक से नहीं हो पा रहा है तो ये कहाँ का धर्म है? कि हम उस से खुद चिपके रह कर मरीज़ की जान खतरे में डालें। आखिर!...वो भी हमारी तरह जीता जागता इनसान है...कोई खिलोना नहीं।
-ट्रिंग...ट्रिंग...
-हैलो...
-कौन?...
-नमस्ते...
-बस..यहीं आस-पास ही हूँ। ...
-ठीक है!...आधे घंटे में पहुँच जाऊँगा।...
-ओ.के!...सारी तैयारियाँ कर के रखो...फायनली मैँ आने के बाद चैक कर लूँगा।
-हाँ!..मेरे आने तक पार्टी को बहला के रखो कि डाक्टर साहब 'ओ.टी' में एमरजैंसी आप्रेशन कर रहे हैँ।...
-एक बात और!...कुछ भी कह-सुन के पूरे पैसे एडवांस में जमा करवा लेना।...बाद में पेशेंट मर-मरा गया तो रिश्तेदारों ने ड्रामा खड़ा कर नाक में दम कर देना है। पहले पैसे ले लो तो ठीक...वर्ना...बाद में बड़ा दुखी करते हैँ...
अच्छा दोस्तो!....कहने-सुनने को बहुत कुछ है।...फिलहाल!....जैसा कि आपने अभी सुना...शैड्यूल थोड़ा व्यस्त है...तो फिर!..मिलते हैँ ना ब्रेक के बाद...फिर से नए शिकवों...नई शिकायतों के साथ...कुछ आप अपने मन की कहना...कुछ मैँ अपने दिल की कहूँगा।
"जय हिन्द"
"भारत माता की जय"
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जय बोलो बेईमान की - राजीव तनेजा




आज मुझसे…मेरी कामयाबी से जलने वालों की इस पूरी दुनिया में कोई कमी नहीं है।वो मुझ पर तरह-तरह के उल्टे-सीधे इलज़ाम लगाकर मेरी हिम्मत…मेरे हौंसले…मेरे आगे बढने के ज़ुनून को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैँ…
“हुंह!…पागल कहीं के…मुझसे?…मुझसे मुकाबला करना चाहते हैं?”….
“बड़ी अच्छी बात है ये तो लेकिन पहले मेरे सामने ठीक से खड़े होने की हिम्मत तो जुटा लें कम से कम …बाद में  आगे की सोचें”…
“हुंह!…स्साले…निठल्ले कहीं के”…
“अरे!…आसमान पर थूकने से पहले उसका नतीजा तो जान लो”…
बचपन से लेकर आज तक ..मैँने कभी भी इन जैसे आलसियों के माफिक खाली बैठे बैठे कुर्सी तोड़ने की नहीं सोची।जहाँ तक मुझे याद है…होश संभालते ही मैं अपने पैरों पे खड़ा हो गया था।बूट पॉलिश करने से लेकर ढाबों तक में बर्तन माँजे मैँने|बाईक से लेकर कार तक पे फटका मारने जैसे किसी भी छोटे-बड़े काम से मैँने कभी गुरेज़ नहीं किया और इसी तरह कदम दर कदम बढते हुए एक दिन मैँ एक मल्टी स्टोरी बिल्डिंग में बेलदारी करने लगा|
वहाँ ठेकेदार की बीवी से इश्क लड़ा उसे पटाया और जल्द ही वो अपने तमाम गहने-लत्ते ले मेरे साथ भाग निकली।ठेकेदार पहुँच वाला था…सो!…हमारी दौड़ शुरू हो गई…हम आगे-आगे और वो लट्ठ लिए हमारे पीछे-पीछे…कभी इस डगर तो कभी उस डगर…कभी इस शहर तो कभी उस शहर|धीरे-धीरे मैँ कोठियों वगैरा में सफेदी-डिस्टैम्पर के छोटे-मोटे ठेके लेने लगा।वहीँ एक ठेकेदार के साथ यारी गाँठ मैँने पुरानी बिल्डिंगों की तुड़ाई के ठेके भी लेने चालू कर दिए और उसमें खूब नोट कमाए।उसके बाद तो जनाब मेरे रास्ते में जो-जो आता गया…मैं उसे ही अपनी कामयाबी की सीढी बनाता हुआ आगे बढता गया।खुदा गवाह है मेरा कि मैँने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा कि मेरे पैरों के नीचे कौन कुचला जा रहा है और कौन नहीं?

नतीजन!…आज मैँ देश का माना हुआ डिमालिशन काँट्रैक्टर कम एस्टेट डवैल्पर हूँ।
“क्या कहा?”…
“बीवी का क्या हुआ?…
“अरे!..कई साल पहले चलती लॉरी के नीचे आ जाने से अचानक उसकी मौत हो गई थी…आपको पता नहीं?”…
“मैंने खुद ही तो उसे….
“अरे!…हाँ!…याद आया…अगले महीने…उसी केस की फाईनल हीयरिंग पे तो मुझे कोर्ट में पेश होना है”…
“अब बेशक दिखावे के लिए ही सही लेकिन डर तो लग ही रहा है कि पता नहीं ऊँट किस करवट बैठे?”…
“खैर!..जो भी हो …पता है मुझे कि उसके घर देर है पर अन्धेर नहीं….सरकारी वकील से लेकर गवाहों तक और यहाँ तक कि माननीय जज साहब तक मेरा चढावा जो पहुँच चुका है।इसलिए सज़ा का तो सवाल ही नहीं पैदा होता”
”आखिर!…कब तक?..कब तक मैँ उस बुड्ढी खूसट के पल्लू से बँधा रहता? कई बार समझाया भी पट्ठी को लेकिन वो स्साली!…सीधे-सीधे प्यार-मोहब्बत से तलाक देने को राज़ी ही नहीं थी…उसकी मौत का मुझे भी दुख है लेकिन मेरे पास इसके अलावा और चारा भी क्या था?…वो ‘रोज़ी’ की बच्ची जो उसके जीते जी मेरा बिस्तर गर्म करने को राज़ी ही नहीं थी”
“खैर छोड़ो!..इन सब बातों को…ये केस-कास तो मुझ पर आए दिन चलते रहते हैँ…इनका क्या?”

कभी मुझ पर घटिया निर्माण सामग्री इस्तेमाल करने के इलज़ाम लगे… तो कभी आदिवासी मज़दूरों से बँधुआगिरी करवाने के…लेकिन मैँने कभी किसी चीज़ की परवाह नहीं की।जैसे दूसरे ठेकेदारों द्वारा बनाई गई ईमारतें गिरती रहती हैँ…ठीक वैसे ही मेरी भी दो-चार गिर गई तो कौन सी आफत आन पड़ी?


अब कौन समझाए अपने देश की इस बुद्धू पब्लिक को कि इस मायावी संसार में हर चीज़ नश्वर है।जो चीज़ पैदा हुई है उसे आज नहीं तो कल खत्म होना ही है…कोई अपने तय समय से पहले खत्म हो जाती है तो कोई तय समय के बाद लेकिन इतना ज़रूर पक्का है कि…हर एक का अंत समय आना ही है।…
अब अगर मेरे द्वारा बनाए गए दो-चार फ्लाई ओवर ज़्यादा समय तक ट्रैफिक का बोझ झेल नहीं पाए तो इसमें मैँ क्या करूँ? क्या डाक्टर ने कहा था सरकारी इजीनियरों को कि वो रातोंरात अपना कमीशन 30%  से बढा कर 40% कर दें? मुझे मजबूरन सिमेंट में रेत मिलाने के बजाय….रेत में सिमेंट मिलाना पड़ा तो इसमें मैँ क्या करूँ? पता नहीं इन मीडिया वालों को किसी की फोकट में पब्लिसिटी करके क्या मिलता है? और उनके बहकावे से आकर पब्लिक बेचारी बेकार में ही अपना कीमती वक्त ज़ाया कर मुफ्त में होहल्ला कर बैठती है।
लेकिन इस सारे ड्रामे से मुझे फायदा ही हुआ है…नुकसान नहीं क्योंकि मीडिया और पब्लिक की इस मिली जुली साठगाँठ ने मुझ जैसे अदना से बिल्डर को रातोंरात सैलीब्रिटी जो बना दिया है।अब तो नए-नए बिल्डर मुझसे हाथ मिला मेरे ऑटोग्राफ लेने को उतावले रहते हैँ और मेरी इन्हीं उपलब्धियों के चलते मुझे पाँच साल के लिए बिल्डर्स ऐसोसिएशन का प्रधान भी बना दिया गया है| हाँ!..तो मैँ बात कर रहा था अपने कैरियर की…अपनी कामयाबी की तो ये बात काबिले गौर है कि इस सारे…नीचे से ऊपर उठने के खेल में मैँने पूरी ईमानदारी…पूरी ऐहतिहात बरती।

अब जब खुला खेल फरुखाबादी का चल ही निकला है तो लगे हाथ मैँ भगवान को हाज़िर-नाज़िर जान कर एक बात और साफ करना चाहूँगा कि अपने पूरे कैरियर में मैँने कभी किसी से हराम का पैसा नहीं लिया… सिर्फ और सिर्फ अपनी मेहनत का…अपने हक का ही पैसा लिया।खुदा गवाह है कि हमेशा मेरे ये हाथ देने के लिए ही आगे बढे हैँ…कभी लेने के लिए नहीं।अगर मेरी बात का यकीन ना हो तो किसी दिन समय निकाल के चलो मेरे साथ किसी भी सरकारी दफ्तर में।ऊपर से नीचे तक…चपरासी से लेकर बड़े बाबू तक …सभी एक टाँग पर खड़े होकर सलाम बजाते ना दिखाई दें तो फिर कहना।
और ऐसा वो करे भी क्यों ना?…सीधी बात है भाई कि हर जगह…’इस हाथ दे और उस हाथ ले’ वाला तरीका ही कामयाब रहता है|शुरू से लेकर अब तक सबकी मदद जो करता आया हूँ मैँ|जब भी ..जिस किसी ने भी…जो-जो माँगा…बेहिचक…बिना कोई सवाल किए चुपचाप दे दिया।भले ही इस सब के बदले उन्होंने मेरे वो सब जायज़-नाजायज़ काम किए जो शायद बिना पैसे दिए होने लगभग नामुमकिन ही थे जैसे…कई बार उन्होंने मुझे ब्लैक लिस्ट होने से बचाया तो कई बार नकली एक्सपीरियंस सर्टिफिकेट… बिना काबिलियत के कँस्ट्रक्शन से लेकर डिमॉलिशन तक के लाईसैंस…वगैरा…वगैरा|

  • अभी पिछले साल की ही लो ..दिल्ली मैट्रो में तुड़ाई के ठेके लेने के लिए ज़रूरी शर्त थी कि….
    ठेकेदार के पास रास्ते में आने वाली बिल्डिंगों को तोड़ गिराने के लिए ज़रूरी साज़ो सामान होना चाहिए जैसे…’जे.सी.बी’ मशीने…बुलडोज़र वगैरा…वगैरा लेकिन…अपुन के पास एक भी मशीन ना होने के बावजूद भी सारे के सारे ठेके मुझे ही मिले और अपन ने भी सबको खुश करने में किसी किस्म की कँजूसी नहीं बरती।जहाँ काम पाँच हज़ार से भी चल सकता था…वहाँ मैँने दस हज़ार भी बेझिझक खर्चा कर दिए।आखिर!..पेट तो उनके साथ भी लगा हुआ है…उन्होने भी अपने बच्चे पालने हैँ।
    “क्यों?…है कि नहीं?”…
    अपनी सरकार आखिर देती ही क्या है अपने कर्मचारियों को जो वो ईमानदारी बरतें…संयम बरतें?
    कहने को आप जो भी कहें लेकिन सच्चाई यही है कि अगर ढंग से जिया जाए तो सरकारी तनख्वाह में एक हफ्ता भी ठीक से ना गुज़रे। मोबाईल से लेकर इंटरनैट तक और …फास्टफूड से लेकर केबल टीवी तक के ही खर्चे इतने हैँ कि तनख्वाह पहले हफ्ते में ही फुर्र होती दिखती है।ऐसे में अगर रिश्वत ना लें तो बाकि के बचे हफ़्तों में क्या मन्दिरों और गुरुद्वारों में छन्नकणें बजा के अपना गुज़ारा करें?”…
    ऊपर से ये लम्बी गाड़ियाँ का सिर उठाता मँहगा शौक…उफ!…तौबा|अब ऐसी हालत में बन्दा रिश्वत ना ले तो क्या भूखों मरे? ठीक है!..माना कि आजकल ‘पे कमीशन’ की बदौलत तनख्वाहें पहले से कई गुणा ज़्यादा बढ चुकी हैँ और आगे भी बढने की पूरी उम्मीद है लेकिन इस बात पे गौर करना भी निहायत ही ज़रूरी है कि मँहगाई कितनी तेज़ी से बिना रुके बढती चली जा रही है?
    प्याज-टमाटर के दामों में लगी आग बुझने का नाम नहीं ले रही है…खाद्यानों की कीमतें काबू में नहीं आ रही हैं …पहले ही आम इनसान फाईनैंस कम्पनियो के कर्ज़ों के बोझ तले दबा जा रहा है और ऊपर से अपनी सरकार भी कभी पेट्रोल-डीज़ल के तो कभी सिलेंडर के दाम बढ़ा उसके ताबूत में कील पे कील ठोकने से परहेज़ नहीं कर रही है।
    अब कहने वाले कहने को तो ये भी कह सकते हैँ कि आम पब्लिक की भारी नाराजगी के चलते दिल्ली सरकार ने अपने करों में कटौती करते हुए डीज़ल के दाम अढाई रूपए प्रति लीटर तक घटा भी तो दिए हैँ।तो सरकार मेरी!…अढाई रूपए प्रति लीटर की छुटभैय्या छूट से आखिर होता ही क्या है? इससे से ज़्यादा के तो हम रोजाना ‘पान’..’तंबाकू’ और ‘गुट्खे’ चबा जाते हैँ।नमकीन और स्नैक्स को ना जोड़े तो भी ‘दारू’..’विहस्की’…’सोडे’ और ‘रम’ का खर्चा ही बहुतेरा आ जाता है।
    आजकल खर्चे ही इतने हैँ कि पैसा जहाँ से भी…जैसे भी…जितना मर्ज़ी आ जाए… कभी पूरा ही नहीं पड़ता।इसलिए इन बेचारे मज़लूम सरकारी कर्मचारियों का रिश्वत लेने का हक तो बनता ही है ना बॉस? मेरे हिसाब से रिश्वत के हर रूप …चाहे वो नकद नारायण हो…या फिर किसी भी छोटे-बड़े गिफ्ट की शक्ल अख्तियार किए हुए हो को…कानूनन जायज़ ठहराते हुए हर छोटे-बड़े दफ्तर के बाहर ये दो तख्तियाँ अवश्य लटकवा देनी चाहिए कि…
    ज़रूरी सूचना:
  • रिश्वत लेना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और…
  • यहाँ बिना रिश्वत के एक पन्ना भी इधर से उधर नहीं होता

और लगे हाथ जो कर्मचारी ईमानदारी से अपना काम करते हुए रंगेहाथ पकड़ा जाए उसके लिए….
ऐसी सख्त से सख्त सज़ा का प्रावधान होना चाहिए कि उसकी रूह तक काँप उठे। ऐसा करना निहायत ही ज़रूरी है क्योंकि इस सब से हमारी आने वाली नस्लों को सबक मिलेगा और वो कभी भी रिश्वत ना लेने जैसा घिनौना काम करने की जुर्रत कर पाएँगी।
मैँ तो कहता हूँ कि…पागल हैँ वो…नादान हैँ वो…जिनके लिए ईमानदारी ही सबसे बड़ी दौलत है…सबसे बड़ी नेमत है…
बेवाकूफ कहीं के!…इतना भी नहीं जानते कि खोखले आदर्शो से पेट नहीं भरा करते।

“अरे!…किस-किस से लड़ोगे तुम?…किस-किस को समझाओगे तुम?…पूरा का पूरा सिस्टम ही रिश्वतखोरों से भरा पड़ा है”..
“घिन्न आती है तुमसे मुझे…ऐसी सड़ी हुई मछली हो तुम जो पूरे तालाब को ही गन्दा करने पे उतारू है”…
“बचाव में ही समझदारी है…अभी भी संभल जाओ वर्ना पछताते देर ना लगेगी।फायदा इसी में है कि जब पानी के तेज़ बहाव म्रें उल्टी दिशा में नाव खे ना सको तो बहाव के साथ ही बह चलो”
मेरी राय में तो सारे के सारे ईमानदारों को बारी-बारी से पकड़ कर सज़ाए मौत का हुक्म सुनाते हुए सरेआम फाँसी पे लटका देना चाहिए और हाँ …उसका लाईव टैलीकास्ट करना हर चैनल वाले के लिए कानूनन मजबूरी हो।जो चैनल इस आदेश की अनदेखी करे…उसे देशद्रोह का ज़िम्मेवार मानते हुए उस पर तत्काल मुकदमा दर्ज होना चाहिए।

तो आओ दोस्तो!….हम अपने हितों की रक्षा के लिए एक हो जाएँ मिल के ये नारा लगाएँ…
ईमानदारी…
मुर्दाबाद…मुर्दाबाद…

शराफत….
नहीं चलेगी…नहीं चलेगी…
रिश्वतखोरी…
जिंदाबाद…जिंदाबाद
बेईमान!…
ज़िन्दाबाद…ज़िन्दाबाद…


“जय बोलो बेईमान की”…

“जय हिन्द”

***राजीव तनेजा***


Rajiv Taneja
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